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सफलता प्राप्ति का रहस्य (२)


 

सफलता प्राप्ति का रहस्य (२)

असफलताओं से हारिये मत, जूझिये अनेक पाठकों ने पूर्व लेख पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए पूछा है कि जब काफी कुछ करने के उपरान्त सफ़लता न मिले, असफ़लता ही हाथ लगे, तब क्या किया जावे। इसी पर प्रकाश डालता है' सफलता प्राप्ति का रहस्य' लेख की यह दूसरी कड़ी

असफलता क्यों?

यह ठीक है कि असफलता के अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता, किन्तु उसके कारणों का विश्लेषण तो किया ही जा सकता है। इस दृष्टि से तीन स्थितियाँ हमारे सामने स्पष्ट रूप से उजागर होती है

(१) एक, जब कार्य रुचि-अनुकूल न हों, और जैसे-तैसे क्रियान्वित करने पर ही सारा जोर रहे। असफ़लता की सम्भावना इस स्थिति में सर्वाधिक रहती हैं।

(२) दूसरी, जब कार्य पूर्णतया रुचिकर हो, करा भी मनोयोग से जाये, किन्तु फिर भी असफ़लता ही हाथ लगे।

(३) जब सब कुछ ठीक-ठाक होने के बावजूद बाह्य तत्व अथवा दैविक आपदायें असफलता के कगार पर लाकर खड़ा कर देता है।

दर्शनकारों की भाषा में हम तीनों स्थितियों को क्रमशः आधिभौतिक, आध्यात्मिक तथा आधिदैविक कह सकते हैं। तीनों ही स्थितियों का परिणाम यद्यपि दुःख है, परन्तु स्थितियों की विभिन्नता तथा वैशिष्टय के कारण निदान अलग-अलग हैं।

असफ़लता का आधिभौतिक स्वरूप

ज़्यादातर लोग अपने आप को इसलिये असफलता पाते हैं, कि वे जो कुछ जीवन में बनना चाहते थे, वह तो न बन सके, और जो बने, उसमें अपने आप को खपा न सके। प्राचीनतम व्यवस्था यह थी, कि प्रत्येक स्त्री-पुरुष को अपने गुण, कर्म, स्वभाव, अर्थात् स्वरुचि के अनुसार, अपने लिये अपना कार्यक्षेत्र अथवा व्यवसाय का वरण करना सम्भव था। इसी का नाम 'वर्ण-व्यवस्था' था। पराधीनता के युग और उसके बाद की परिस्थितियाँ शनैः शनै इतनी जटिल और विषम होती गई, कि कार्यक्षेत्र अथवा व्यवसाय के चयन में व्यक्ति की इच्छा-अनिच्छा, उपयुक्तता-अनुपयुक्तता, रुचि-अरुचि का प्रश्न ही नहीं रहा। आज स्थिति और भी विषम है। एक तो सही शिक्षा उपलब्ध नहीं । शिक्षा का सारा ज़ोर साक्षरता और ज्ञान प्रदान करने पर है, मनुष्य को विवेकी, चरित्रवान और स्वावलम्बी बनाने पर नहीं। उच्च शिक्षा के अवसर प्रत्येक को उपलब्ध नहीं। नैतिकता और उच्च-आदर्शों के अभाव में स्थिति यह है, कि हर क्षेत्र में मारामारी है। जिसको जहाँ अवसर भ्रष्ट या अभ्रष्ट उपायों से मिल गया, वह वहाँ जम गया, बेशक वह उसके उपयुक्त हो या न हो। परिणाम यह, कि हर कार्यक्षेत्र में आज अधिकांशतः वे लोग हैं, जो नैसर्गिक दृष्टि से उस कार्यक्षेत्र के लिये अनुपयुक्त हैं। इसीलिये अधिकतर लोग जाने या अनजाने में स्वयं को उस कार्य-विशेष, उसकी गरिमा, पद, स्थान या व्यवसाय की अपेक्षाओं के प्रति अपना उचित तारतम्य या तालमेल नहीं बैठा पाते। बस किसी तरह अपने कार्य या आजीविका की गाड़ी को धकेले चले जा रहे हैं। ऐसे लोगों का लक्ष्य सफलता के कीर्तिमान स्थापित करना नहीं, यशस्वी और वर्चस्वी बनना नहीं, केवल उचित अथवा अनुचित उपायों से धन बटोरना है। जब सफ़लता प्राप्ति लक्ष्य नहीं, कार्य के प्रति समर्पण की भावना और निष्ठा नहीं, तो सर्वत्र असफलता ही असफलता का बोल-बाला होगा। सच्ची बात यह है, कि 'योग्य व्यक्ति, योग्य कार्य को, योग्य साधनों से योग्य ढंग से करता है और सफ़ल होता है। जबकि उसी कार्य को अयोग्य व्यक्ति, अयोग्य साधनों से अयोग्य ढंग से करता है, और असफल होता है। यही कारण है, कि प्रत्येक क्षेत्र में, चाहे वह धर्म का हो, राजनीति का हो, सुरक्षा का हो, सेवा का हो, शिल्प का हो, कोई भी हो; लोग उन क्षेत्रों में हैं, परन्तु सफ़ल कम, असफल ज्यादा। जो योग्य है, दक्ष है, कार्य कुशल है, वह सफ़ल होगा ही। लेकिन जो न योग्य है, न दक्ष है, न कार्यकुशल, केवल घिरा हुआ या किन्ही कारणों से फंसा हुआ है, और न निकल पाने के कारण उचित-अनुचित साधनों का आश्रय लेकर केवल इधर-उधर हाथ पैर पटक रहा है, वह असफ़ल नहीं, तो क्या होगा? अतः यदि आप असफ़ल महसूस करते हैं तो पहले आत्मनिरीक्षण कीजिये, कि कहीं आप इस श्रेणी में तो नहीं आते है? यह असफ़लता का आधिभौतिक स्वरूप है।

असफ़लता का आध्यात्मिक स्वरूप

यदि आप उपरोक्त श्रेणी में नहीं आते अर्थात् योग्य भी हैं, दक्ष भी हैं, कार्यकुशल भी हैं, अपने कर्तव्यों के प्रति निष्ठावान एवं ईमानदार भी है, किन्तु फिर भी असफ़ल हैं, तो समस्या आध्यात्मिक है। यह लेख और लेख का शीर्षक वस्तुतः इसी श्रेणी के लोगों के लिये है। इस आध्यात्मिक असफलता के कारणों का विश्लेषण आध्यात्मिक रूप में ही करना होगा। उन तथ्यों को समझना होगा जो इस प्रकार की असफलता के साथ जुड़े हुये हैं, आइये, इनको समझें।

(१) असफ़लता सनातन है। हर कार्य-परिणाम में पहले से मौजूद है। कार्य-निष्पादन में जरा भी चूक या ढील हुई, असफलता सामने आ गई। ठीक ही कहा है-सावधानी हटी और दुर्घटना घटी।

(२) सफलता के लिये निरन्तर सावधानी और संघर्ष जरूरी है। असफलता जितनी आसानी से आ जाती है, सफलता के लिये कहीं ज़्यादा तप-त्याग और पुरुषार्थ करना पड़ता है। बिना जूझे सफलता नहीं मिलती।

(३) ऐसा कौन है, जो कभी न कभी कहीं न कही असफल न हुआ हो। सफलता -असफलता ऐसे ही हैं, जैसे फूलों में कांटे, और काटों में फूल । गुणी व्यक्ति को चाहिये कि सफलता पर इतराये नहीं, और असफलता से घबराये नहीं। असफलताओं का रोना रोने वाला खुद भी दुःखी होता है, और दूसरों को भी दुःखी या हतोत्साहित करता है।

(४) असफलता- सफलता एक ही नदी के दो किनारे हैं। (अश्मंन्वतीरीयते...........प्रतरता सखाय-यजुः० ३५।१०) यह संसार (या हमारा कर्म क्षेत्र) एक बहती हुई गहरी नदी के समान है। नदी के जिस छोर पर हम हैं, उसका नाम असफलता है। नदी के दूसरे छोर पर सफलता है। समस्या यही है कि नदी के उस पार कैसे पहुँचा जाये। दो बातें निश्चित हैं, (क) असफलता के तट पर बैठे-बैठे दूर सफलता के तट को एकटक देखते रहने से हम सफलता तक नहीं पहुँच सकते। (ख) इसी प्रकार हिम्मत करके मात्र अनाड़ीपन से नदी में चल पड़ने से भी हम सफलता तक नहीं पहुँच सकते। इस प्रकार के प्रयास में सम्भव है, हम अपनी जान भी गवाँ बैठे। स्पष्ट है कि नदी के उस पार सफलता के तट पर यदि हम पहुँचना चाहते हैं. तो हमें कुशल तैराक बनना होगा। तैरने के बारे में जानकारी हम कुछ मिनटों या घण्टों में ले सकते हैं, पर कुशल तैराक हम कुछ मिनटों या घण्टों में नहीं बन सकते, चाहे कितने भी ईमानदार हम तैराकी के प्रति हों। अधिकांश मामलों में असफलता का कारण यही होता है, कि नदी को पार करने का हौसला तो होता है, परन्तु हम कुशल तैराक नहीं होते।

(५) हर अच्छी सफलता की शुरुआत असफलता से ही होती है। यदि हम सफलता के तट पर पहुंचना चाहते हैं, तो अपनी जोखिम भरी यात्रा का आरम्भ तो असफलता के तट से ही शुरु करना पड़ेगा। वस्तुतः सफलता के सूत्र असफलता के अध्ययन से ही मिलते हैं। असफलता से बढ़िया हमारा कोई गुरु नहीं, कोई प्रशिक्षक नहीं। असफलता ही हमें अनुभव करा सकती है, कि हम क्यों और कैसे और कहाँ पर फ़ेल हुये, कौन सी, क्या गलतीयाँ हमसे हुई, और कहाँ, किन क्षेत्रों में, कैसे, सुधार तथा और उन्नति की गुंजाइश है। असफलता को कोसते रहने से कुछ नहीं होने वाला। हाँ, असफलता को गुरु मान कर हम उससे बहुत कुछ लाभ उठा सकते हैं। असफलता के कारण और उनका सही विश्लेषण ही हमारा मार्ग-दर्शन कर सकते हैं। वस्तुतः असफल होना असफलता नहीं है, यह सफलता की शुरुआत है।

(६) आप असफल नहीं है, जब तक आप अपनी कोशिशें सफलता प्राप्ति के लिये जारी रखते हैं। सफलता के प्रयासों को छोड़ देना ही असफलता है।

(७) असफलता कभी अन्तिम नहीं होती. जब तक आप ही इसको अन्तिम न समझ लें। असफलता अन्तिम तभी होती है, जब आप ही यह धारणा बना लेते हैं, कि अब और कोशिश करना बेकार है। जब तक सांस (प्राण) है, तब तक तो आस रखिये, कोशिशें और प्रयत्न करते रहिये।

(८) असफलता से अधिक हानिकारक सिद्ध होता है, असफल हो जाने का भय। भय का कारण होता है हमारी नकारात्मक सोच, साहस और धैर्य का अभाव, तथा आत्मविश्वास की कमी। जो निर्भय, निर्भ्रम और निश्चल नहीं है, उसको असफल हो जाने का भय ही सफलता के सारे मार्ग अवरुद्ध कर देता इस प्रकार यह है असफलता का आध्यात्मिक स्वरूप जिसका सम्बन्ध भौतिक या बाह्य कारणों से न होकर मनुष्य के अपने 'स्व' से ही होता है।

असफ़लता का आधिदैविक स्वरूप

यह असफलता बाह्य तथा दैवी घटनाओं के कारण होती है. जिसके मूल में मनुष्यों के अपने ही पूर्व कर्म समष्टि रूप में उत्तरदायी होते हैं। यह इसलिये कि अधिकतर दैवी आपदायें भी मनुष्यों के प्रकृति के साथ वर्षों तक किये गये अनुचित खिलवाड़ का ही परिणाम होती हैं। बाह्य घटनाओं या दैवी आपदाओं से एक अकेले आप ही नहीं, बहुत लोग प्रभावित होते हैं। इनका सामना तो धैर्य के साथ मिल-बाँट कर पारस्परिक सहयोग से संगठित होकर ही किया जा सकता है। साथ ही सामूहिक रूप से ऐसे उपाय भी किये जा सकते हैं, जिससे इस प्रकार की घटनाओं तथा दैवी प्रकोप की पुनरावृत्ति न हो सके, अथवा उनसे बचा जा सके। असफलता को सफलता में परिणत करने के उपाय भौतिक कारणों से प्राप्त असफलता को भौतिक उपायों एवं साधनों से ही सफलता में परिणित किया जा सकता है, जिसमें राज्य एवं समाज की भी अहम भूमिका हो सकती है। जैसे उत्तम शिक्षा का प्रबन्ध, जो मनुष्यों को विवेकी, चरित्रवान और स्वावलम्बी बना सके; रोजगार, व्यवसाय तथा अन्य विभिन्न क्षेत्रों में अधिकाधिक अवसरों की उपलब्धि. जिससे प्रत्येक अपने निजी गण-कर्म-स्वभाव तथा अभिरुचि के अनुसार अपने कार्यक्षेत्र या व्यवसाय का वरण कर सके उपयुक्त स्थानों पर उपयुक्त व्यक्तियों की केवल योग्यता, दक्षता, कार्यकुशलता एवं सत्यनिष्ठा के आधार पर चयन प्रक्रिया, आदि। सामाजिक मापदण्ड तथा व्यवस्था ऐसी हो, जिसमें निष्ठावान, तपस्वी तथा योग्यों को ही आदर सम्मान मिले, अन्यों को नहीं। नैतिक मूल्यों की अवहेलना करने वालों का सामाजिक बहिष्कार सामाजिक व्यवस्था का अंग हो, जिससे सदाचारी, सुयोग्य और सुकर्मा ही सफलता के उच्चतम शिखर तक निर्बाध पहुँच सकें।

आधिदैविक कारणों से असफलता का सामना सुसंगठित तथा एकजुट होकर ही धर्म और न्याय के आश्रय से ही किया जा सकता है। बेशक इस प्रकार की असफलता में दैव तथा भाग्य का हाथ हो, पर पुरुषार्थ से भाग्य पर भी विजय पाई जा सकती है। तकदीर की तुलना में तदबीर और भाग्य की तुलना में पुरुषार्थ कहीं अधिक शक्तिशाली सिद्ध हुये हैं। सारा विश्व का इतिहास इस बात का साक्षी है।

अब रही आध्यात्मिक कारणों से प्राप्त असफलता को सफलता में परिणित करने की बात। इसके लिये इन विधाओं को अपनाया जा सकता है।

(१) नकारात्मक सोच और निराशावादी दृष्टिकोण को तिलाञ्जलि। ध्यान रखें, ईश्वर पर अटूट विश्वास और आस्था जीवन में सकारात्मक सोच और आशावादी दृष्टिकोण बनाये रखने में बहुत सहायक सिद्ध होता है।

(२) असफलता के डर को बिल्कुल निकाल दें। हमेशा यही सोचें कि "सफलता मेरा जन्म-सिद्ध अधिकार है, और मैं सफलता प्राप्त करके ही रहूँगा। "हमारी सोच के ऊपर ही हमारा आगे का कार्यक्रम निर्भर करता है। अतः निरन्तर (प्रतिकूल परिस्थितियों में भी) सफलता की ही सोचें, और सफलता के लक्ष्य को ही सामने रख कर दक्षता और कुशलता से नियत कार्यों को आगे बढ़ायें।

(३) असफलता यदि मिली है, तो उसका स्वागत करें। आपकी असफलता इस बात की घोतक है, कि आप उन असंख्य ठण्डे, कायर, बलहीन लोगों से कहीं महान हैं, जिन्होंने जाना ही नहीं, कि जीत क्या होती है, और हार क्या होती है।

(४) असफलता के कारण अपने मन की शक्ति और आत्म विश्वास को डिगने न दें। असफलता का विश्लेषण कर उससे आगे के लिये सबक लें। सबक को तो याद रखें, किन्तु असफलता को भुला दें हमेशा-हमेशा के लिये। बहुत पुरानी उक्ति है-"बीती ताहि बिसार दे, आगे की सुध ले।" वेद का भी कथन है 'मा गतानम् आ दीधीथा ये नयन्ति परावतम्' (अथर्व० ८।१।८) जो पीछे, बहुत पीछे ले जाते हैं, उस बीते हुये का बिल्कुल ध्यान न कर। गीता में भी आया 'गतासूनगतासुंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः (गीता २।११) ज्ञानी जन गतों और विगतों के बारे में शोक नहीं किया करते।

(५) हो सकता है कि असफलता के जिस दौर से आप गुजरे हैं, वह आपके विकास का संक्रमण काल हो। संक्रमण काल में असफलता मिलना अस्वाभाविक नहीं। जरूरत है, कि आप असफलता से घबराये नहीं, और न हार मानें। अपनी कोशिशों, प्रयासों और संघर्षों को जारी रखें। संघर्ष का नाम जीवन है। लक्ष्य प्राप्त किये बिना अपने कार्य को अधर में छोड़ देने का नाम मृत्यु है। यदि जिन्दादिल हैं, तो जिन्दगी की जीत में यकीन रखें।

(६) संसार में ऐसी कोई समस्या नहीं, जिसका समाधान न हो। असफलता से जनित समस्याओं का सही समाधान ढूंढ निकालिये और डट जाइये उन समाधानों के क्रियान्वयन पर। जहाँ चाह है, वहाँ राह है।

(७) आपका अधिकार तो कर्म करने तक है, फल आपके हाथ में न था, न है. न होगा। आप तो बस अपने अधिकारों का कर्तव्य-भावना से प्रयोग करते रहें। तप और परिश्रम व्यर्थ नहीं जायेगा। सात्विक भाव से की गई साधना मेंहदी की भाँति रंग लाकर ही रहती है।

(८) स्वाध्याय के क्रम में विशेषतः उन लोगों की आत्म कथाएं, जीवन चरित्र संस्मरण अनुभव तथा अनेक प्रेरणा वर्धक तकनीकी एवं ज्ञानपयोगी साहित्य पढ़ते रहें, जिन्होंने संघर्ष करते हुए जीवन में सफलता को प्राप्त की तथा अपने नाम को अमर कर गए।

  (९) प्रतिदिन कुछ समय शान्त-चित्त होकर ध्यान-मुद्रा में बैठ आत्मना परम पिता परमेश्वर से क्षमता, शक्ति, ओज, तेज, बल, साहस, धैर्य, पराक्रम, उत्साह, ऊर्जा तथा प्रखर बुद्धि की प्रार्थना करें। यदि आपकी प्रार्थना केवल मात्र दिखावा नहीं तो कुछ ही दिनों में आप स्वयं अनुभव करने लगेंगे, कि आप अत्यन्त कुशाग्र बुद्धि, आत्म-ज्ञान, आत्म-बल तथा आत्मविश्वास से इतने पूरित हो गये हैं, कि असफलता की किसी भी चुनौती का सामना करने में सशक्त भी है और समर्थ भी। कार्य कितना भी महान, और साधना कितनी भी कठिन क्यों न हो, प्रार्थना के अवलम्ब से सफलता निश्चय ही सतत पुरुषार्थ करने वालों के चरणों का चुम्बन करती है। यदि आपकी अभीष्ट सिद्धि में सम्पूर्ण साधन, सारे उपाय और समस्या आयोजन विफ़ल हो गये हैं, तो अपने साधनोपाय को पूरी दक्षता एवं कार्यकुशलता से काम में लाते हुये पूर्ण आस्था और विश्वास के साथ प्रार्थना का पुण्याधार स्थापन करें, और प्रार्थना का चमत्कार स्वयं अनुभव करें। पर प्रार्थना वही कारगर होती है, जिसमें प्रार्थी की अन्तर्वेदना और गहन संवेदना निहित हो, साथ ही प्रार्थना के अनुरूप साधना, पुरुषार्थ तथा विश्वास से युक्त हो। ऊपरी मन से, संशय, अहंकार और अविश्वास के साथ की गई साधना-विहीन तथा पुरुषार्थ रहित प्रार्थना बेकार ही साबित होती है, यह ध्यान रहे। वेद में एक बड़ा ही प्रेरणादायक मन्त्र है- (सना दक्षमुत क्रतुमप सोम मृधौ जहि। अथा नो वस्यसस्कृधि-ऋग्०९।४।३; साम० १०४९) हे सोम प्रभु! हमें (दक्षम्) दक्षता (उत)तथा (क्रतुम्) कर्तृत्व (सन)दे।(मृधः) बाधाओं वा बाधक तत्त्वों को (अप जहि)मार भगा। (अथ) अब (नः) हमें (वस्यसः) सफ़लकाम (कृधि) कर। इस मन्त्र में प्रार्थना भी है और प्रेरणा भी। ऋग्वेद तथा सामवेद में इस पूरे सूक्त के दस मन्त्रों की एक ही टेक है 'अथा नो वस्यसस्कृधि'। अब हमें सफ़ल काम कर। तो बस, देर किस बात की है? हार कर बैठ मत जाइये। उठिये और हो जाइये असफलताओं से जूझने के लिये पूरे दम-खम से तैयार । शायद सफलता आपका इन्तज़ार कर रही हो।

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