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प्रेरणा का स्त्रोत-सविता

 


प्रेरणा का स्त्रोत-सविता

सविता पश्चात्सविता पुरस्तात्सवितोत्तरातत्सविताधरात्तात्।

सविता नः सुवतु सर्वतातिं सविता नौ रासतां दीर्घमायुः॥ -ऋग्वेद १० । ३६ । १४

ऋषिः- लुशो धानाक। देवता:-विश्वे देवाः । छन्दः--स्वराद् त्रिष्टुप।

पदपाठ-सविता। पश्चातात्। सविता। पुरस्तात । सविता। उत्तरात्तात। सविता। अधरात्तात। सविता।नः । सुवतु।सर्वऽत्तातिम्। सविता। नः ।रासताम्। दीर्घम। आयुः।

(सविता पश्चात्तात्) - सविता [उत्पादक और प्रेरक प्रभु हमारे] पीछे हैं,

(सविता पुरस्तात्) - सविता [मार्गदर्शक और प्रवर्तक प्रभु हमारे] सामने

(सविता उत्तरात्तात्) सविता [दयालु और आनन्ददाता प्रभु हमारे] ऊपर

(सविता अधरात्तात्) - सविता [प्राणप्रिय और पूजनीय प्रभु हमारे] अन्दर

(सविता नः सुवतु सर्वतातिम्) - सविता [सर्वशक्तिमान परमेश्वर] हमें सहाय हो

सर्व-प्रकार के विस्तार में।

(सविता नः रासताम् दीर्घमायुः)- सविता (सर्वोत्पादक प्रभु) हमें दे रास आने वाली (जीवन्त) दीर्घायु।

जीवन में किसी भी कार्य को सफलतापूर्वक करने के लिये तीन चीजें जानना बहुत ज़रूरी हैं

१. क्या करना है? २. कैसे करना है? ३. क्यों करना है?

'क्या' और 'कैसे' के सम्बन्ध में आवश्यक ज्ञान हम अन्यों से प्राप्त कर सकते हैं। माता-पिता, आचार्य, पाठशाला, विद्यालय, संस्थान, परामर्शदाता, विषयों के विशेषज्ञ, चिन्तक, विचारक, सन्त, महात्मा, यूँ कह लीजिये, कि हमारे सारे बुजुर्ग हमें, एक नहीं, अनेकों, यह बताने को तैयार हैं कि हमें क्या करना चाहिये, और कैसे करना चाहिये । इनके अतिरिक्त समस्त उपलब्ध साहित्य, पुस्तकें और ज्ञान के स्रोत इस सृष्टि में हमें निरन्तर 'क्या' और 'कैसे' के विषय में जानकारी दे रहे हैं, और हम अपनी-अपनी रुचि, सामर्थ्य के अनुरूप जीवन की गाड़ी चलाने हेतु उस ज्ञान को लेते रहे हैं। पर जहाँ तक 'क्यों' का सम्बन्ध है, अर्थात् किसी कार्य को हम 'क्यों' करे, यह बाहर का विषय न होकर हमारे अन्दर की बात है। कर्म करने में स्वतन्त्र होने के नाते कर्म करना या न करना हमारी इच्छा पर निर्भर करता है। करने की इच्छा के पीछे मूल में जो चीज़ है, उसे कहते हैं "प्रेरणा" और न करने के पीछे भी जो चीज़ है वह है, "प्रेरणा का अभाव"।

इस प्रकार, 'क्या करना है' इसका निश्चय करने के लिये हमें चाहिये 'समझ', दार्शनिक भाषा में 'विवेक'। कैसे करना है, इसके लिये चाहिये हमें जानकारी', दार्शनिक भाषा में 'ज्ञान' । क्यों करना है, इसे करने के लिये होनी चाहिये 'उत्कट इच्छा-शक्ति' दार्शनिक भाषा में 'प्रेरणा'

विवेक होता है, देखने, सुनने, लोगों में उठने बैठने से, अध्यात्म में इसको कहते हैं-'सत्संग''ज्ञान' मिलता है गुरुओं से उस्तादों से, आचार्यों से, पुस्तकों के अध्ययन से (ध्यान रहे "वेद" भी सब सत्य विद्याओं का पुस्तक ही है) अध्यात्म में इसको कह सकते हैं-'स्वाध्याय'। पर 'प्रेरणा मिलती है केवल अन्दर से, अन्तरात्मा से, जिसका प्रेरक है अन्तर्यामी-'सविता देव'। विवेक और ज्ञान को आचरण अथवा कार्यरूप में लाने या न लाने के पीछे है 'प्रेरणा' या 'प्रेरणा का अभाव'

हम सब अपनी-अपनी बुद्धि और बल के अनुसार बखूबी जानते हैं, कि हमें क्या करना चाहिये, और क्या न करना चाहिये। जब भी जो कुछ हम करते हैं, तो वास्तव में यह 'प्रेरणा' ही हमसे कराती है, और हम करते रहते है, जब तक हम प्रेरित रहते हैं। सब कुछ जानते-बूझते हुये भी जब हम नहीं करते, तो इसका एकमात्र कारण होता है, 'प्रेरणा का अभाव'

'प्रेरणा का अभाव' ही आज की सबसे बड़ी मानव-समस्या है। दफतर में बाबू है, जानता है, क्या करना है कैसे करना है, फिर भी नहीं करता। स्कूल में अध्यापक है, जानता है क्या पढ़ाना है, कैसे पढ़ाना है, फिर भी नहीं पढ़ाता। कारीगर है, जानता है क्या करना है, कैसे करना है, फिर भी जैसा करना चाहिये, वैसा नहीं करता। हम सब जानते हैं 'सच बराबर तप नंहि, नंहि झूठ बराबर पाप' फिर भी सच बोलने का हौसला नहीं होता। दुनियाँ में 'विवेक' और 'ज्ञान' तो बढ़ा है, हर क्षेत्र में, प्रत्येक कार्य में; लेकिन बढ़ने के बजाय यदि कोई चीज़ घटी है, और कहीं-कहीं तो लुप्त ही हो गई है,तो वह है 'प्रेरणा'

श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं-"योगः कर्मसु कौशलम्"-गीता २।५० कर्मों का कुशलता से निष्पादन ही योग है परन्तु कहाँ है 'कार्य में कुशलता'? ज्यादातर शिकायत यही है कि 'कार्य-कुशलता' का स्थान ले लिया है कार्य की अवधि को कुशलता से काट लेने की कला ने, अर्थात् किस प्रकार से समय को पूरा किया जा सके, कार्य चाहे हो या न हो।

इन सब स्थितियों का कारण एक है, और वह है व्यक्ति में 'प्रेरणा का अभाव'। मनुष्य कार्य तो करता है, परन्तु चूंकि 'अन्तः प्रेरित' नहीं है, अत: उसके कार्य में दक्षता, गुणवत्ता और कार्यक्षमता इन तीनों का अभाव रहता है। वस्तुत: उद्दमी वही व्यक्ति हो सकता है, जो 'अन्त:प्रेरित' हो। अन्तःप्रेरित व्यक्ति ही जीवन में उच्चतम सफलताओं को प्राप्त करता है, क्योंकि वह समस्याओं से घबड़ाता नहीं, उनसे हार नहीं मानता, परन्तु उनको चुनौती मान कर उचित उपायों से मुकाबला करता है। प्रेरणा-हीन व्यक्ति की टेक होती है-"मैं कोशिश करूंगा" अन्तः प्रेरित व्यक्ति पूरे आत्मविश्वास से कहता है-"मैं करके रहूँगा"  प्रश्न यह है, कि यह 'अन्त:प्रेरणा' कहाँ से आये। प्रोत्साहन, पुरस्कार, प्रशंसा, पदोन्नति के रूप में जो थपकियाँ हमें बाहर से मिलती है, वे सब अस्थायी होती हैं, उनका प्रभाव होता तो है, परन्तु क्षणिक । विचारणीय बात यह है कि 'अल्पज्ञ' की प्रेरणा भी 'अल्प' ही होगी। स्थायी प्रेरणा तो वही दे सकता है, जो अजर, अमर तथा सर्वज्ञ एवं सर्वशक्तिमान हो।

दूसरी बात यह, कि अन्तः प्रेरणा के लिये हम यदि अपने अन्तःकरण चतुष्टय (अर्थात् मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) का आश्रय लेंगे, तो प्रेरणा भी, जैसी भी हमारे मन, बुद्धि, चित्त और अंह की दशा होगी, वैसी ही प्रेरणा होगी। चूंकि मन, बुद्धि, चित्त और अहं प्रकृति के गुणों (अर्थात् सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुण) से प्रादुर्भूत होते रहते हैं, अत: जो भी गुण जिस काल में अधिक प्रभावी होगा, उसी के अनुरूप प्रेरणा भी होगी।

वैदिक ऋषियों ने इस तथ्य को जान लिया था। अतः प्रेरणा के लिये (जिसके बिना कोई भी कर्म नहीं हो सकता) उन्होंने सीधा उस परब्रह्म परमेश्वर का आश्रय लिया जो प्रकृति के गुणों से परे किन्तु ईश्वरीय गुणों (जैसे शुद्ध, निर्मल, निर्विकार, सर्वशक्तिमान, न्यायशील, दयालुता, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र, सर्वाधार, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी गुणों) से परिपूर्ण है। दिव्य-प्रेरणाओं के लिये दिव्य-प्रभु से बढ़कर कौन हो सकता है। दिव्य प्रेरणायें ही शुभ और श्रेष्ठतम कर्मों का आधार हो सकती है।

मन्त्र-द्रष्टा ऋषि लुशोधानाक ने विश्व के समस्त देव और देवियों के लिये एक-मात्र 'सवितादेव' को प्रेरणास्रोत के रूप में प्रतिष्ठित किया है। 'षू-प्रेरणे', 'षूक-प्राणिप्रसवे', 'षूड्-प्राणिगर्भविमोचने', 'षुम्-अभिषवे', 'घु-प्रसवैश्वर्ययोः', धातुओं से कर्त्ता में तृच्' प्रत्यय होने पर 'सविता' शब्द सिद्ध होता है। इस प्रकार 'सविता' के अर्थ हैं 'सबका प्रेरक', 'सबका उत्पादक', 'सबका रक्षक', 'सर्वऐश्वर्यवान' और 'सर्व-ऐश्वर्य प्रदाता' परमेश्वर। 'सविता सर्वस्य प्रसविता' (निरुक्त १०।३१) सविता सर्वत्र उत्प्रेरक एवं उत्पादक शक्ति है। ऐसा सर्वशक्तिमान, सच्चिदानन्द-स्वरूप, प्रजापति परमेश्वर ही सविता देव है।

ऋग्वेद के दशम मण्डल के छत्तीसवें सूक्त का यह चौदहवाँ अन्तिम मन्त्र है। शेष मन्त्रों में प्रथम और तेरहवाँ मन्त्र छोड़कर बाकी ग्यारह मन्त्रों की टेक है-'तद्देवानामवो अद्या वृणीमहे' देवों के उस ज्ञान, बल, ऐश्वर्यादि का हम अभी से वरण करते हैं। प्रत्येक मन्त्र में जीवन में सफलता प्राप्त करने के लिये सुन्दर प्रेरणा है। मन्त्र का दृष्टा ऋषि उन सब प्रेरणाओं पर विचार करते हुये साक्षात्कार करता है, कि उन सब प्रेरणाओं का स्रोत स्वयं परमात्मा है।(सविता पश्चाक्षात्) सविता पीछे (सविता पुरस्तात्) सविता आगे, (सविता उत्तरात्तात्) सविता ऊपर (सषिता अधरात्तात्) सविता नीचे, अर्थात् सर्वत्र परमात्मा विद्यमान है । मन्त्र में विषय चूंकि प्रेरणा का है, अतः परमात्मा को यहाँ 'सविता' अर्थात प्रेरक के रूप में देखा गया है। शब्दों का क्रम भी बड़ा सुन्दर है। कर्म-कर्ता प्रेरणा-स्वरूप भगवान को पहले पीछे अनुभव करता है, जैसे परमात्मा का वरद हस्त उसकी पीठ पर हो। शाबाशी तो पीठ पर ही दी जाती है। फिर कर्तव्य-पथ पर ज्यों-ज्यों वह आगे बढ़ता है, वह अनुभव करता है, कि प्रेरणास्वरूप परमात्मा उसके सामने है। सफलता के शिखर पर जब वह पहुँचता है, तो पाता है कि प्रेरणा-स्वरूप सर्वप्रेरक परमात्मा का साया/आशीर्वाद उसके ऊपर है। शिखर से जब वह धरातल पर आता है, तो पाता है कि नीचे से और प्रेरणायें और अधिक श्रेष्ठतम कर्मों को करने के लिये अनुप्राणित कर रही है। सफ़लता ही सफ़लता की जननी हो जाती है।

(सविता नः सुवतु सर्वतातिम्) सविता हमें दे सब प्रकार का विस्तार । कहावत है, सफ़लता क्या है-५+५ । दोनों हाथों में पाँच पाँच ऊंगलियाँ। दोनों हाथ किसी काम में जुट जायें, तो सफ़लता निश्चित है। इसी प्रकार पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ और पाँचों कर्मेन्द्रियाँ संयुक्त रूप से कार्य निष्पादन में लग जायें, तो सफलता निश्चित है। सुखी और सफल जीवन के लिये पाँच 'नियमों' और 'पाँच यमों' का पालन भी आवश्यक है। नियमों का सम्बन्ध व्यक्ति के व्यक्तिगत जीवन से है, यह 'नियम' है, शौच (पवित्रता), सन्तोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्राणिधान । 'यम' का सम्बन्ध व्यक्ति के व्यवहारिक जीवन से है, यह 'यम' है, अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह । यही है प्रेरणा का विस्तार । इनके पालन से जहाँ हम स्वयं भी अन्तः प्रेरित रहते हैं वहाँ अपने जीवन से दूसरों को भी प्रेरित कर पाते हैं। पाश्चात्य विचारकों ने भी पाँच 'व्यक्तिगत गुण' और पाँच 'व्यवहारिक गुण' आवश्यक माने है। पाँच व्यक्तिगत गुण हैं, (i) सत्य निष्ठा, (ii) उत्साह, (iii) साहस, (iv) आत्मविश्वास और (v) नेतृत्व। पाँच व्यवहारिक गुण है, (i) लक्ष्य-निर्धारण (ii) नियोजन (iii) कार्यान्वयन (iv) समस्याओं का निवारण और (v) मूल्यांकन इन गुणों में भी अनेकानेक गुण समाहित हैं, जिनका भी विस्तार किया जा सकता है। लकिन इन सारे गुणों का भण्डार-स्रोत है, एकमात्रपरमात्मा। 'जार्ज शिन' ने भी अपनी पुस्तक 'दि मिरेकिल आफ़ मोटीवेशन' में एक स्थान पर कहा है

"There is no stronger force known to mankind than for a human being to get down on his knees and ask GOD for guidance." अर्थात् मानव जाति को अभी तक किसी अन्य शक्तिशाली ताक़त का पता नहीं है, सिवाय इसके, कि मनुष्य घुटनों के बल बैठ कर परमपिता परमेश्वर से मार्गदर्शन के लिये याचना करे। 'सविता नः सुवतु सर्वतातिम'-सब प्रकार का विस्तार जगदुत्पादक परमेश्वर ही हमें दे। हम किसी से न मांग कर सब कुछ उसी से मांगे, जो 'सर्वताति' सब कुछ देने की क्षमता रखता है, जो सबका प्रेरक और सबका उत्पादक है।

खुदा से मांग ले जो मांगना हो, 'अकबर'; यही वह दर है, कि ज़िल्लत नहीं सवाल के बाद। अंतिम बात । और इसमें तो कमाल ही कमाल है। (सविता नौ रासतां दीर्घमायुः) सविता हमें रास दिलाये दीर्घ आयु । दीर्घ आयु अर्थात् दीर्घ जीवन को प्राप्त करना और बात है, और दीर्घ जीवन रास आना और बात है। किसी शायर ने कहा है

कट रही है ज़िन्दगी यूँ हादसों के दरम्याँ।

मानो शीशे हों लुढ़कते, पत्थरों के दरम्याँ।

अधिकांश लोग जीते तो हैं, पर थोड़े ही लोग हैं जो ज़िन्दादिली के साथ जीते हैं, शान के साथ जीते हैं, और जाते समय भी अनेकों को अपने जीवन से अनुप्राणित कर जाते हैं। उनका जीवन ही उनका सन्देश हो जाता है। ज़िन्दगी कोई ग़म नहीं, कि उसको जैसे-तैसे ढोया जाए। न ज़िन्दगी कोई साग-सब्जी है, जिसे काटा जावे। जीवन तो प्रभू की अनमोल देन है, यह तो कुछ कर दिखाने के लिये है। सफ़लता और आनन्द प्राप्त करने के लिये है। वस्तुत: सफ़लता में ही आनन्द है। और सफ़लता उनको प्राप्त होती है, जिनको जीवन माफ़िक़ आ गया, रास आ गया। ऐसे ही लोग जीने की कामना करते हैं, और तदनुरूप प्रार्थना भी। 'अदीना स्याम शरद शतं, भूयश्च शरद शतात'-यजु:०३६।२४' भूयेम शरद शतं, भूयसी शरद शतात' अथर्व०१९।६७१७-८ यह प्रार्थनायें सही अर्थों में तो वही कर सकता है, जिसे जीवन में मज़ा आ रहा हो और जिसने जीने का लुत्फ जान लिया हो। जो स्वयं ही अपने वर्तमान जीवन से बेज़ार और दुःखी हो, उसकी सौ वर्ष से अधिक जीवित रहने की प्रार्थना, वास्तव में कोई मायने नहीं रखती। और प्रार्थना तो तभी सार्थक होती है, जब प्रार्थना के अनुरूप पुरुषार्थ भी हो। इसीलिए कहा है कि

चले चलिये कि चलना भी दलीले कामरानी है।

जो थक कर बैठ जाते हैं, वह मंज़िल पा नहीं सकते॥ जीवन रास आये, इसके लिये भी निम्न पाँच बातें ज़रूरी हैं-

१. मन शुभ-संकल्पों वाला हो।

२. बुद्धि सन्मार्ग में प्रेरित हो।

३. मति सुमति तथा प्रसन्नता और उत्साह हो।

४. चित्त में सदैव प्रसन्नता और उत्साह हो।

५. निरन्तर आत्म-साक्षात्कार करता रहे। आत्म-साक्षात्कार में भी पाँच बातें समाहित हैं

 १. आत्म-विश्लेषण-(शरीर और आत्मा के संयोग का नाम जीवन है। दोनों को ही पर्याप्त ध्यान एवं प्रतिष्ठा आत्म-विश्लेषण में देना है।)

२.आत्म-ज्ञान-(अपनी क्षमताओं और प्रतिभाओं के विषय में। जो दूसरे कर सकते हैं, वह मैं भी कर सकता हूँ। कोई भी कार्य कठिन हो सकता है, पर असम्भव नहीं)

३.आत्म-बल-(अपनी शक्तियों को पहचानना, जिनका अभी तक उपयोग ही नहीं किया गया। अपनी सृजनात्मक, रचनात्मक और मौलिक शक्तियों का अनुभवीकरण ।

४. आत्म-विकास-(विकास का अर्थ है, आगे बढ़ना, और ऊँचा उठना । रूक जाना, ठहर जाना जीवन नहीं; सही दिशा में बढ़ते जाना या चढ़ते जाना ही जीवन है)

५. आत्म-विश्वास-(अपने-आप में विश्वास, अपने कर्म में विश्वास, अपनी निष्ठा में विश्वास, अपनी कथनी, करनी, और चालचलन पर विश्वास, स्व-संयम, और स्व-नियन्त्रण)

मन को शुभ-संकल्पों में प्रेरित करने वाला, बुद्धि को सन्मार्ग की ओर ले जाने वाला, आत्म-ज्ञान और बल का देने ला वही एक प्रकाशमान सविता देव है। हमें सदैव इस सत्य की अनुभति होती रहनी चाहिये, कि ईश्वर हमारे पीछे, आगे, ऊपर, नीचे, सर्वत्र है, वह हमारा मित्र और सखा है, वही परम हितैषी है, वह हमारा सदैव भला चाहता है। वही हमारी प्रेरणा का स्रोत है वही सब कुछ है। आइये हम सब मिलकर उसी का वरण करे, और उसी से प्रेरणा लें। कुर्वन्नवेह कर्माणि जिजीविषेच्छत्स माः (यजुः०४०।२) इस संसार में कर्मों को करता हुआ ही मनुष्य सौ वर्ष जीने की इच्छा करे। दीर्घ आयु भी तभी सफ़ल और सार्थक है, जबकि जीवन उत्साह और श्रेष्ठतम कर्मों में प्राप्त सफलता से भरा हो। ईश्वर करे, कि हमारे प्रगति और विकासोन्मुख क्रिया-कलापों में परमपिता परमेश्वर का पथ-प्रदर्शन, उसकी प्रेरणा, उसकी कृपा और उसका आर्शीवाद सदैव हमको मिलता रहे। सर्वत्र सब ओर हमें उसकी सत्ता का भान हो, और निरन्तर हमारा आत्मा उसी सर्वान्तर्यामी से अन्तःप्रेरित होते रहें। जहाँ प्रेरणा है, वहीं जीवन है।

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