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माता का स्थान : वेद की दृष्टि में

 


माता का स्थान : वेद की दृष्टि में

म् वस्याँ इन्द्रासि मे पितुरुत भ्रातरभुजतः।

माता च मे छदयथः समा वसो वसुत्वनाय राधसे । -ऋग्वे द ८।१।६

ऋषिः-मेधातिथि मेध्यातिथि काण्वौ। देवता:-इन्द्रः। छन्दः-आर्षी बृहती।

पदपाठ-वस्यान्। इन्द्रः। असि। मे। पितुः। उत। भ्रातुः। अ-भुञ्जतः । माता। च। मे। छदयथः । समा। वसो। वसुत्वनाय। राधसे।

(इन्द्रः ) - हे परम ऐश्वर्यवान परमेश्वर

(मे पितुः वस्यान् असि) - मेरे पिता से [तू] बढ़कर है,

(उत अभुअतः भ्रातुः) - और न पालने वाले भाई से भी, [किन्तु],

(वसो) -हे घट-घट वासी अन्तर्यामी प्रभु!

(मे माता च समौ) मेरे माता और (तू दोनों) बराबर हैं, क्योंकि तुम दोनों मुझे

(छदयथः वसुत्वनाय, राधसे)- आच्छादित करते हो वसुत्व के लिये, ऐश्वर्य के लिये॥

       ऋग्वेद के अष्टम मण्डल का प्रथम सूक्त पूरे-का-पूरा परम पिता परमेश्वर की स्तुति से भरा हुआ है। पूरे सूक्त के चौतीस मन्त्रों में से उन्तीस मन्त्रों का देवता (विषय) इन्द्र (परम ऐश्वर्यवान परमेश्वर) है। प्रस्तुत मन्त्र से पूर्व के मन्त्र में तो मन्त्र-दृष्टा ऋषि भाव-विभोर होकर यहाँ तक कह देता है-

महे चन त्वामंद्रिवः परी शुल्काय देयाम्।

न सहस्त्राय नायुताय वज्रिवो न शतार्य शतामघ॥ -ऋग्०८।१।५

"किसी भी शुल्क (मूल्य) पर, चाहें वह सैकड़ों में हो, हज़ारों में हो, दस हज़ारों में हो, या उससे भी अधिक हो, मैं तुझे कभी नहीं त्यागूंगा, क्योंकि तुझ जैसा अद्रिवः (द्वेष-रहित), वज्रिव (शक्तिशाली), शतामघ (असंख्य ऐश्वर्यों का स्वामी) दूसरा कौन होगा!" और वही प्रभु-भक्त ऋषि (और ऋषि भी ऐसा जिसकी मेधा दिनों-दिन विलक्षण होती रहती है), जब परोक्ष परमात्मा की स्तुति प्रार्थनोपासना करता है, और प्रत्यक्ष अपने घर वालों से प्रभु की तुलना करने लगता है, तो उसका अन्त:करण बरबस कह उठता है, कि प्रभु, तुम मेरे रक्षक-पिता से और पालन-के-दायित्व-सेमुक्त मेरे भ्राता (भाई) से तो अवश्य बड़े हो, पर मेरी माता और तुम, दोनों बराबर ही हो, क्योंकि तुम दोनों ही मुझे आच्छादित करे रहते हो, वसुत्व से और ऐश्वर्यों से। माँ को ईश्वर के समान बराबरी का दर्जा देना, यही वेद और वैदिक संस्कृति की श्रेष्ठता भी है, और विशेषता भी।

वेद परमात्मा की अमर कल्याणी वाणी है। यह गौरव इस अपौरुषेय सत्य सनातन महाकाव्य को ही प्राप्त है, जो 'माता' को 'ईश्वर' के समकक्ष ही स्थान देता है। अन्य मतावलम्बियों की पवित्र पुस्तकें येन-केन-प्रकरेण वेशक माता की प्रशस्ति के गीत गाती हों, परन्तु कोई भी पुस्तक (सिवाय पवित्र वेद के) माँ को ईश्वर के समान बराबरी का दर्जा नहीं देती।

केवल वेद ही नहीं, समस्त वैदिक तथा भारतीय वाङ्मय माता की महिमा से भरा पड़ा है। शतपथ ब्राह्मण (१४।६।१०।२) और छान्दोग्य उपनिषद (६।१४।२) से पाठ लेकर यह अति प्राचीन उक्ति प्रचलित है

"मातृमान पितृमान् आचार्यवान् पुरुषो वेदः।" - इसमें माता, पिता तथा आचार्य जिनको 'पुरुषो वेदः' कहा गया है, इसमें माता का स्थान प्रथम है। प्रशस्ता धार्मिकी माता विद्यते यस्य स मातृमान' प्रशस्त, धार्मिक माता ही मातृमान जानी जाती है । तैत्तिरीय उपनिषद् (अ०१, अनुवाक ११) में भी आचार्य दीक्षान्तभाषण में अपने अन्तेवासी शिष्यों को कहता है

"मातृदेवो भव। पितृदेवो भव। आचार्य देवो भव। अतिथि देवो भव। यान्यनवद्यानि कर्माणि, तानि सेवित व्यानि, नो इतराणि।" "माता, पिता, आचार्य, अतिथि देव हैं। इनके विषय में जो अनवद्य कर्त्तव्य हैं, उनका सेवन करना, इतराना नहीं।" यहाँ भी माता का स्थान प्रथम है। मनु महाराज ने तो यहाँ तक कह दिया-

उपाध्यायान्दशाचार्य आचार्याणां शतं पिता।

सहस्त्रं तु पितृन्तामा गौरवेणातिरिच्यते॥ -मनुस्मृति २ । १४५

"अर्थात् दश उपाध्यायों की अपेक्षा आचार्य, सौ आचार्यों की अपेक्षा पिता, और हज़ार पिताओं की अपेक्षा माता गौरव में अधिक है।" हो सकता है, कि यह श्लोक अपनी अतिशयोक्ति तथा प्रसंगविरुद्ध होने के कारण प्रक्षिप्त हो, परन्तु माता के गौरव को तो दर्शाता ही है। एक अन्य श्लोक में राजर्षि मनु का निर्देश है-

पितुभगिन्यां मातुश्च ज्यायस्यां च स्वसर्यपि।

मातृवद् वृत्तिमातिष्ठेन्माता ताभ्यो गरीयसी॥ -मनुस्मृति २।१३३

"पिता की बहिन, अर्थात् बुआ और माता की बहन अर्थात मौसी के साथ तथा अपनी बड़ी बहन के साथ माता के समान वर्ताव करे। किन्तु माता इन सब में अधिक बड़ी [आदरणीय] है।" पुराणों में बहुत सारी विसंगतियाँ है, परन्तु माता को परम पूज्यनीया वे भी कहते हैं-

जनको जन्मदातृत्वात पालनाच्च पिता स्मृतः। गरीयान जन्मदातुश्च योऽन्नदाता पिता मुने। तयोः शतगुणे माता पूज्या मान्या च वन्दिता। गर्भ धारण पोषाभ्यां सा च ताभ्यां गरीयसी॥

-ब्रह्मवैवर्तपुराण गणेश० ४० अध्याय

"जन्मदाता और पालनकर्ता होने के कारण सब पूज्यों में पूज्यतम जनक पिता कहाता है। जन्मदाता से भी अन्नदाता पिता श्रेष्ठ है। इनसे भी सौ गुणी श्रेष्ठ और वन्दनीय माता है, क्योंकि वह गर्भधारण व पोषण करती है।" वृहद्धर्मपुराण (व्यास-जाबालि सम्वाद) में माँ को इकीस नामों से यथा माता, धरित्री, जननी दयाद्रीहदया, शिवा, त्रिभुवन श्रेष्ठा, देवी, निर्दोषा, सुर्वदुःखहा, परम आराधनीया, दया, शान्ति, क्षमा, धृति, स्वाहा, स्वधा गौरी, पद्मा, विजया, जया तथा दुःखहन्त्री नामों से स्मरण किया गया है।

यह थोड़ा सा दिग्दर्शन केवल यही दर्शाने के लिये किया है, कि भारतीय संस्कृति और सभ्यता में कितना ऊँचा स्थान माता को दिया गया है, जिस संस्कृति और सभ्यता का मूल स्रोत हैं, 'वेद'; जो स्वतः प्रमाण हैं, अर्थात् जिनके लिये किसी अन्य प्रमाण की आवश्यकता नहीं।

एक बात और । उपनिषद के ऋषियों, स्मृतिकारों तथा अन्य शास्त्रकारों ने माता की तुलना प्रायः पिता और आचार्य से की है, पर वेद में तुलना स्वयं परम ऐश्वर्यवान (इन्द्र) परमेश्वर से है। 'य इन्दति परमैश्वर्यवान् भवति स इन्द्रः परमेश्वरः' जो अखिल ऐश्वर्ययुक्त है, इससे उस परमात्मा का नाम 'इन्द्र' है। उसी इन्द्र को सम्बोधित करते हुये मन्त्र-दृष्टा ऋषि कहता है (मे पितुः वस्यान् असि) मेरे पिता से तू बढ़कर है। क्यों?। क्योंकि पिता केवल रक्षक और पालक है, जनिता और विधाता नहीं। परमात्मा जनिता भी है, रक्षक भी है और विधाता भी है। वह कारण भी है, कर्त्ता भी है। सब सत्य विद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं, उनका आदिमूल भी है। पिता बालक को ज्ञान और बल प्राप्त करने की व्यवस्था स्व-सामर्थ्य अनुसार कर सकता है, परन्तु परमात्मा तो स्वयं आत्म-ज्ञान और बल का देने वाला है। अतः सांसारिक पिता की तुलना में निश्चय से वह परम-पिता समग्र ऐश्वर्ययुक्त परमेश्वर कहीं अधिक महान हैं. कहीं अधिक बढ़कर है। दैव से यदि सांसारिक पिता का आश्रय न भी मिले, तो कोई बात नहीं, परन्तु उस परमपिता की छाया से वंचित हो जाना नि:सन्देह मृत्यु है।

अब भाई की ओर निहारें। भाई चाहे बड़ा हो या छोटा, जब तक उसमें भ्रातृत्व की भावना है, वह बहुत बड़ा संबल सिद्ध हो सकता है। ठीक है, पिता की उपस्थिति में भ्राता (अ-भुंजतः) पालन-के-दायित्व से मुक्त रहता है और जो भाई परिस्थितिवश अपने भाइयों का पालन-पोषण करते हैं, वे वस्तुतः पिता की ही श्रेणी में आ जाते हैं, परन्तु भाई से भी बढ़ कर परमात्मा है। कारण, सांसारिक भाई जब तक भ्रातृत्व की डोर से बंधा रहता है, वह भाई का धर्म निबाहता है, परन्तु जहाँ यह डोर टूटी, वह साक्षात दुर्योधन और दुःशासन बन जाता है, लक्ष्मण या भरत नहीं रह पाता। इतिहास में अनेक उदाहरण इस बात के साक्षी हैं। वेद के ऋषियों ने इस सच्चाई को आरम्भ से ही समझ लिया था, इसलिये उन्होंने परमपिता परमात्मा से अपना बन्धुत्व स्थापित किया था। स नो बन्धुर्जनिता स विधाता धामानि वेद भुवनानि विश्वा। -यजुः० ३२।१० वह परमात्मा ही हमारा बन्धु (भ्राता) तथा उत्पत्तिकर्ता है।

सच, वह परमात्मा ही ऐसा 'बन्धु' है जो 'भियन्तै त्वम् अक्षियन्तं कृणोति' (ऋग्० ४।१७।१३) 'नष्ट होते हुये को तू ही नाश से रहित कर देता है। अतः सांसारिक भाई की अपेक्षा इस आत्मा का युज्य-सखा परमात्मा निश्चय ही अत्यन्त श्रेष्ठ है।

परिवार में पिता और भ्राता से परमेश्वर कहीं श्रेष्ठ और महान सिद्ध होता है, किन्तु बात जब माता पर आती है, तो मन्त्र-दृष्टा ऋषि बरबस कह उठता है (मे माता च समौ) मेरी माता और [तू दोनों] समान हैं। परमात्मा का एक नाम 'सोम' है। माता भी सोम-प्रधान है। परमेश्वर एक है, जननी भी एक ही होती है। सृष्टि की रचना में जो तप परमात्मा करता है, मनुष्य को जनने और पालन-पोषण करने में उससे कम तप माता का नहीं। सृजन की शक्ति या तो परमेश्वर में है, या मातृ-रूपा नारी में। माता जन्म देती है, पालती है, संस्कार देती है और करती है रक्षा अपने पुत्र-पुत्रियों की उनके अपने अन्दर के और बाहर के शत्रुओं से। एक माता ही है, जो परमेश्वर के समान उत्पादिनी-शक्ति, संघटिनी-शक्ति तथा संरक्षण-शक्ति से परिपूर्णता से प्रतिष्ठित है। अलंकारिक दृष्टि से ब्रह्मा, विष्णु, और शिव की त्रिमूर्ति को यदि एक ही जीवित मूर्ति में साकार देखना हो, तो वह है माँ, केवल माँ। एक आधुनिक कवि ने ठीक ही कहा है उसको तो देखा हमने नहीं, पर इसकी ज़रूरत क्या होगी। ऐ माँ, तेरी सूरत से अलग, भगवान की सूरत क्या होगी।

संसार में एक मेरा परमेश्वर है, और एक मेरी माँ जो केवल देना ही जानते हैं, देते ही देते हैं, और लेते कुछ नहीं।

लोक में यह बात बहुत देखने को मिलेगी, कि व्यक्ति जब अत्यधिक पीड़ा व कष्ट से कराह रहा हो तो उसके मुख से "अरी मेरी माँ" या "अरी मेरी मैया" की ध्वनि निकलती है। या फिर जो प्रभु-भक्त होते हैं, वे हर कराह में अपने इष्टदेव या 'हे मेरे प्रभु' को याद करते हैं। कारण, माता या परमेश्वर यह दो ही हैं, जो समान रूप से मेरे शरीर के पोषक हैं। करुणामयी माता और करुणासिन्धु प्रभु यह दो ही हैं जो अपने पुत्र-पुत्रियों का हित ही सोचते हैं, और हित ही करते हैं। कहते हैं, कि जब बुरा वक्त आता है, तो अपना साया भी जुदा हो जाता है, केवल अहैतुक नेह करने वाली माता और अनन्त कृपालु प्रभु ही हैं, जिनकी दया-दृष्टि अपनी सन्तान पर आयुपर्यन्त एक सी बनी रहती है। __ लोकोक्ति है, 'कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि, माता कुमाता न भवति' अर्थात् सन्तान चाहे कुपुत्र निकल जाय, जन्मदात्री माता कभी कुमाता नहीं होती। इसी प्रकार परमेश प्रभु से बेशक हम विमुख हो जायें, पर हमारा प्रभु-परमेश्वर कभी हमसे विमुख नहीं होता। स्नेह, ममता, करुणा, दया, क्षमा, धैर्य, धीरज, साहस, आदि गुणों को परिभाषित करना कठिन है, परन्तु इनको साक्षात अनुभव करना सरल है, यदि किसी के पास माँ का हृदय देखने के लिये आँखें हों, या परमात्मा का साक्षात्कार करने के लिये ज्ञान-चक्षु हों।

करुणा और कोमलता, धीरता और ध्रुवता, शान्ति और आनन्द का वास है, या तो माता की गोद में, या प्रेममय प्रभु की गोद में। माता त्याग और तपस्या की जाज्वल्यमान विभूति है। ऋग्वेद १।३।१०१२ में जिसको 'पावका' (पवित्रता प्रदान करने वाली), 'सरस्वती' (ज्ञानादि प्रदाता) 'चेतन्ती' (चेताने वाली) 'चोदयित्री' (प्रेरित करने वाली), 'भिर्वाजिनीवती' (प्रशस्त अन्नों को प्राप्त कराने वाली) कहा गया है, वह लोक में केवल माता है और अध्यात्म में परमेश्वर। शौर्य, वीरता, साहस, पराक्रम, सामर्थ्य, शक्ति, तेज, बल बाजार में नहीं मिल सकता। यह मिलता है माँ के दूध से; माँ की लोरियों से; माता द्वारा दिये गये संस्कारों से; माँ की प्रेरणा और प्रोत्साहन से; माँ की आशीष से।

माता और परमेश्वर समान इसीलिये भी हैं, क्योंकि दोनों ही (छदयथ: वसुत्वनाय राधसे) आच्छादित करते हैं हमें, हमारे वसुत्व के लिये, ऐश्वर्य के लिये। जो कुछ भी वसुनीय है वह वसु है। परमात्मा को भी 'वसो' से सम्बोधित किया गया है, क्योंकि वह सब में बसा हुआ है। शरीर में 'प्राण'"वसु' है, और आत्मा' है "वसुपति'। लोक में जो कुछ भी क्षमता, ऐश्वर्य है। वह भी 'वसु' है। इसी प्रकार 'राधसे' द्योतक है, समृद्धि का सफ़लता का, सम्पन्नता का तथा सम्पूर्ण ऐश्चयों का। धन्य हैं वास्तव में वे सब, जिनके जीवन को माता और परमेश्वर अखिल एश्वर्य की प्राप्ति के लिये आच्छादित करते रहते हैं। कोई माँ (चाहे वह कितनी भी दुःखी,दरिद्र या जराजीर्ण क्यों न हो) ऐसी नहीं जो अपनी सन्तान को चिरायु, नीरोग, विद्वान, बलवान, धनी तथा सर्व-ऐश्वर्य-सम्पन्न देखने की अभिलाषा न रखती हो। इसी प्रकार परमेश्वर भी, जो जैसी कामना करता है-'तं तमुग्रं कृणोमितं ब्रह्माणं तमृषि तं सुमेधाम्' (ऋग्० १०।१२५ । ५) उस-उस को यथा बलवान, चतुर्वेदवित् ब्रह्मा, ऋषि और उत्तम मेधावान करता हूँ। इसी मन्त्र के आरम्भ में आया 'अहम् एव स्वयमिदं वदामि' अर्थात् यह मैं परमेश्वर स्वयं कहता हूँ। यानि कोई सन्देह की गुंजायश नहीं।

मन्त्र में एक और शब्द जो अत्यन्त महत्वपूर्ण है, वह है 'छदयथः" इसका भाव हैं शरण देने वाले गृह के समान, जिसकी छत्र-छाया में हम अपने आपको ढांप कर सुखपूर्वक रहते हैं। ग्रामीण भाषा में जिसे "छप्पर छाना' कहते हैं, जिसकी छाया में हम रह सकें, वेद में वही भाव 'छदयथः' से सूचित है। जीवन का विकास भी बिना छत्र-छाया के नहीं होता। स्व-परिश्रम और लगन के अतिरिक्त शिक्षार्थी को जैसे शिक्षक, शोधार्थी को जैसे निदेशक, साधक को जैसे गुरु, कारीगर को जैसे उस्ताद की छत्र-छाया चाहिये होती है, उसी प्रकार प्रत्येक पुरुषार्थी मनुष्य को माँ की आशी: और परमेश्वर का आश्रय चाहिये ही होता है।

'यस्य छायाऽमृतं' (यजु:०२५ । १३) 'जिसकी छाया अमृत है', वही परमात्मा है। माता और परमेश्वर दोनों से जो युक्त रहता है उसके साथ माँ का आर्शीवाद और परमेश्वर की छाया साये की भाँति साथ ही साथ रहता है। हर माँ की भावना वही होती है जो माता कौशल्या की राम के वन-गमन पर थी-'अहं त्वानुऽगमिष्यामि पुत्र, यत्र गमिष्यसि' (वाल्मीकि रामायण, अयोध्या काण्ड, सर्ग २४) मैं [आशी: से] तेरे पीछे-पीछे, जहाँ तू जायगा, वहाँ जाऊँगी। उसी प्रकार अपने जागरूक समर्पक के प्रति वह 'सोम' (प्रेममय प्रभु) कहता है-'तवाहमस्मि सख्ये न्योकाः' (साम० १८२६) 'मैं तेरी सख्यता में नियुक्त हूँ।'

स्पष्ट है कि श्रद्धा और भक्ति से माता और परमेश्वर की आज्ञापालन से महर्षि सुमन्तु के वचनानुसार हम समस्त ऐश्वर्य प्राप्त कर सकते हैं।

आयुः पुमान् यश: स्वर्ग कीर्ति पुण्यं बलं श्रियम्।

पशं सुखं धनं धान्यं प्राप्नुयान् मातृ वन्दनात्।।

माता की वन्दना (आज्ञा-पालन) करने वाला सत्पुरुष आयु, यश, अक्षय-सुख, कीर्ति, बल, श्री (प्रतिष्ठा), पशु, आह्वाद, धनधान्य सब कुछ प्राप्त करता है। इसके विपरीत

धिगस्तु जन्म तेषां वै कृतन्धानं च पापिनाम्।

ये सर्व-सौख्यदां देवीं स्वोपास्यां न भजन्ति वै॥

'धिक्कार है, उन कृतघ्न, पापी दुर्जनों को जो सर्वसौख्यदा माता की सेवा-शुश्रुषा नहीं करते।' भगवान और माता को दुःखी कर कोई भी किसी प्रकार का ऐश्वर्य नहीं प्राप्त कर सकता। कितनी शर्म की बात है उन लोगों के लिये, जो अपनी घर की जननी माता की तो उपेक्षा करते हैं, और लोक दिखावे के लिये माता की चौकी' बैठाते या 'माता का जागरण' कराते हैं।

यहाँ यह बात ध्यान रखने योग्य है कि वेद ने माता और परमेश्वर को बराबरी का जो दर्जा दिया है वह माता के गुणों तथा उसकी मातृत्व रूपी विशिष्टता के कारण दिया है। यह उस माता के लिये हैं, जो वस्तुतः मानव की निर्माता है, संस्कार देने वाली है, सन्तान के प्रति पूर्ण निष्ठा से अपने दायित्वों का निर्वाह करने वाली है। जिसका आदर्श तप और त्याग है, जिसने प्रसव से पूर्व और प्रसव उपरान्त समस्त संस्कार अपनी सन्तान में भली भाँति भरे हैं, तथा जिसने समाज को एक आदर्श नागरिक/नागरिका प्रदान किये हैं। सच्चाई यह, कि माँ बन जाना एक बात है, किन्तु माँ की गरिमा और महानता को प्राप्त करना सम्पूर्ण नारी जीवन की साधना है, तप और त्याग जिसके स्तम्भ हैं।

दूसरी बात यह कि वेद में माँ के लिये 'माता' या 'मातृ' शब्द ही प्रयुक्त हुआ है। इसके अपने विशिष्ट अर्थ हैं। 'मान पूजायाम' धातु से 'तू' प्रत्यय लगाने से 'मातृ' शब्द सिद्ध होता है। मान का अर्थ है 'आदर'। अतः 'मातृ' शब्द का अर्थ हुआ 'आदरणीय'। यास्क के मत से मातृ 'निर्मातृ' अर्थात् निर्माण करने वाली जननी है। 'माति गर्भोऽस्यामिति माता'। मान्यते पूज्यते जनैरिति वा माता' अतः जो भावना वेद के 'माता' शब्द में है, वह और किसी शब्द, जैसे 'मम्मी' या 'मॉम' में आ ही नहीं सकती। वेद ने केवल 'माता' को परमेश्वर के समान बराबरी का दर्जा दिया है; 'मम्मी' या 'मॉम' को नहीं। 'मम्मी' या 'मॉम' निरर्थक शब्द हैं. जिनके किसी भी भारतीय भाषा ही क्या, विश्व की किसी भी भाषा में कोई अर्थ नहीं। हाँ, यदि किसी कारण से अंग्रेज़ी भाषा में ही पुकारा जाना अभिप्रेत हो, तो उपयुक्त शब्द 'मदर' है, जो कि वैदिक शब्द 'मात' का ही अपभ्रंश है। वैदिक सभ्यता और संस्कृति को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिये उचित यही है कि कम-से-कम भारतीय मूल की नारी 'माता' का सम्मानित पद प्राप्त करे, और 'माता' के ही रूप में पुकारी या देखी जावे।

अन्तिम बात यह कि वेद में 'माता' शब्द 'जननी' के अतिरिक्त 'गौ' 'भूमि' और स्वयं 'वेद के लिये भी आया है। 'जननी' यदि जीवित न भी हो, तब भी मनुष्य मातृविहीन कभी नहीं है। जो भी जीवन में गो-माता की सेवा, धरती-माता की सेवा और वेद-माता की सेवा कर रहा है, वह 'माता' की ही सेवा कर रहा है। माता और परमेश्वर दोनों समान है। दोनों की सेवा और समपर्ण में ही जीवन की सार्थकता और सम्पूर्णता है। हमारा स्व-निर्माण और आत्म-विकास सब कुछ इन्हीं पर निर्भर है।

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