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पुरोहितों का राष्ट्रहित में आह्वान्

 



पुरोहितों का राष्ट्रहित में आह्वान्

वाजस्येमं प्रसवः सुषुवेऽग्रे सोमराजानमोषधीष्व॒प्सु।

ताऽअस्मभ्यं मधुमतीर्भवन्तु वयराष्ट्रे जागृयाम पुरोहिताः स्वाहा।

-यजुर्वेद ९ । २३

ऋषिः-वाजस्येत्यस्यवसिष्ठ॥देवता:-प्रजापतिः॥छन्दः-स्वराविष्टुप्॥

पदपाठ-वाजस्य । इमम्। प्र-सवः । सुसुवे। अग्रे। सोमम्। राजानम्। ओषधीषु। अप्सु । ता । अस्मभ्यम्। मधु-मतीः । भवन्तु। वयम्। राष्ट्रे । जागृयाम। पुर:हिताः । स्वाहा।

इमम् वाजस्य प्र-सवः सुसुवे - इस वाज का प्रसव (जाया) (मैं) सुसेवित करता हूँ ।

अग्रे सोमम् राजानम् ओषधीषु अप्सु-प्रथम सोम के समान राजा को ओषधीयों में जलों/ प्रजाओं/कर्मो में।

ता अस्मभ्यम् मधुमती: भवन्तु – ताकि वे हमारे लिये मधुमय हों,

वयम् राष्ट्र जागृयाम पुरःहिताः स्वाहा- सबके हितकारी हम लोग स्वाहुतिपूर्वक राष्ट्र में जागते रहें।

     यजुर्वेद के नवम अध्याय का यह तेईसवाँ मन्त्र पुरोहितों का मार्गदर्शक मन्त्र है, उनके आदर्श का प्रतीक है। पर पुरोहित है कौन? सामान्यजन आजकल उसको पुरोहित समझते हैं, जो किसी मन्दिर या पूजास्थान पर पूजा-पाठ, हवन, अग्निहोत्र, संस्कार, सत्संग तथा अन्य कर्मकाण्ड आदि करवा दे और दान-दक्षिणा ग्रहण कर अपने कर्त्तव्य की इतिश्री समझ ले। एक और विडम्बना है। आज जो पौरोहित्य कर्म कर और करवा रहे हैं, वे अपने को पुरोहित कहलवाना भी नहीं चाहते। शायद उन को वेद द्वारा प्रदत्त सम्बोधन तथा दायित्व स्वीकार नहीं। वे 'धर्माचार्य' के सम्बोधन से अपने आप को अधिक गौरवान्वित अनुभव करते हैं। पर वेद की दृष्टि में ऐसा नहीं। वेद की दृष्टि में 'पुरोहित''वाजी' या 'वाजिन' है। वह (वाजस्य प्रसवः) वाज' का जाया (उत्पन्न) है। वेद की दृष्टि में 'पुरोहित' का अर्थ है 'पुरःहितः', अर्थात पुरः-सामने, हित-हित (भला) जो सब का, समस्त मानव समाज का हित सामने रखता है, जिस के लिये राष्ट्र का हित सर्वोपरि है, वह है पुरोहित। वेद के अनुसार जो अग्रणी, अगुआ, नायक, हित-सम्पादक, गुरु, विप्र, वेदज्ञ, ज्ञानी, शक्ति सम्पन्न हो, वह कहाता है पुरोहित।

        पुरोहित उपज है 'वाज' का। 'वाज' नाम है, संग्राम, समर, संघर्ष का । राष्ट्रोन्नति, राष्ट्रीय-विकास, राष्ट्रीय चिन्तन और राष्ट्र-रक्षा के जितने कार्य हैं, वे सब राष्ट्रीय संग्राम हैं. 'वाज'हैं। इन संग्रामों में विजय प्राप्त करने के लिये, कार्यों के सफल सुसम्पदान के लिये आवश्यकता पड़ती है नेतृत्व की, अगुआ की, अग्रणी की, जो 'स्व' और 'स्वार्थ' की भावना से ऊपर उठ कर अपने लक्ष्य की ओर पूर्णतया समर्पित हों। इन्हीं का नाम 'पुरोहित' है। कोई भी राष्ट्रीय संग्राम वा राष्ट्रीय यज्ञ इन पुरोहितों (आगे बढ़ कर नेतृत्व प्रदान करने वालों) के बिना सम्पन्न नहीं हो सकता। पुरोहित प्रतीक है, किसी भी राष्ट्र की 'ज्योति' और 'शक्ति' का, 'पराक्रम' और 'ऐश्वर्य' का, 'बल' और 'बुद्धि' का, और यदि इन सब को वेद के एक शब्द में कहा जाय तो 'वाज' का। इसी लिये वह 'वाजी' है। वाजी 'ज्ञानी' भी है, और 'कर्मी' भी; वह जानता भी है, और स्वयं करता भी और कराता भी है, यही उसकी विशेषता है।

           पुरोहित वाजी है, क्योंकि वह उत्पत्ति है वाज की। (यजु:० ९.२३) में आया-वाजस्य इमम् प्रसवः, (यजुः० ९ । २४) में कहा-वाजस्य इमाम् प्रसवः और (यजु:०९।२५) में फिर स्पष्ट किया वाजस्य नु प्रसवः। (अथर्ववेद ३।२०।८) में इस तथ्य को यूँ कहा गया है-'वाजस्य नुप्रसवे संवभूविम्' हम वाज के प्रसवन (उत्पत्ति) के लिये ही उत्पन्न हुये हैं। वाजीयों/पुरोहितों अग्रनायकों का निर्माण अपनों में से करना हमारा पुनीत कर्त्तव्य है। वाजी ('यन्ता असि यमनः ध्रुवोः असि धरुणः'-यजु:०९।२२) नियन्ता है यम-नियम का, ध्रुव है, स्थिर है, धारण करने वाला है धर्म का।

एष स्य वाजी क्षिपणिं तुरण्यति ग्रीवायां बद्धोऽअंपिकक्षऽआसनि।

क्रतु दधिक्राऽअनु सश्सनिष्यदत्पथामा स्यापनीफणत् स्वाहा। -यजु:०९.१४     

       ज्योति और शक्ति से युक्त (एषः स्यः वाजी) यह वह वाजी (ग्रीवायां अपि कक्षे आसनिबद्धः) गर्दन में, अपिकक्ष (काँख या पहलू) में, मुख में बद्ध (क्रतुं दधि-क्राः) कर्तृत्व को धारण तथा संवहन करने वाले अश्व के समान (अनु-सं-सनिस्यदत्) निरन्तर दौड़ता हुआ (पथां अंकांसि) पथों के चिह्नों को (अनु-आपनीफणत्) सतत लांघता हुआ (स्वाहा) स्वाहुति द्वारा (क्षिपणिम्) गति को (तुरण्यति) वेगयुक्त करता चला जाता है। यह है वाजी का, अग्रणी का, पुरोहित का लक्षण। एक वाक्य में कहें तो आगे ही आगे वेग से बढ़ते जाना और बढ़ाते जाना पुरोहित का कर्म और धर्म है।

      जहाँ तक वाजीयों के गुणों की बात है, यजुर्वेद ९।१६ और ९।१७ में उनको मित-द्रवः (मिताचारी) स्वर्काः (सुसंस्कारी) देवताता (दिव्यताओं/दैवी गुणों का प्रसारक) अर्वन्तः (ज्ञानवान), हवन-श्रुतः (पुकार सुनने वाले), सहस्त्रसाः (असंख्य ज्ञान-विज्ञान का सेवन वा वितरण करने वाले), सनिष्यवः (श्रवणशील), मेधसाता (विद्या, बुद्धि और विवेक प्रदान करने वाले) कहा गया है। वाजियों के प्रति/पुरोहितों के प्रति जन-भावना वेदानुसार कैसी है, देखें यजुर्वेद का यह मन्त्र।

वाजेवाजेऽवत वाजिनो नो घनेषु विप्राऽअमृताऽऋतज्ञाः।

अस्य मध्वः पिबत मादयध्वं तृप्ता यात पुथिभिर्देवयानः। -यजु:०९।१८, २१ । २१

       हे (विप्राः अमृताः ऋतज्ञा: वाजिनः) विप्र, अमृतमय, ऋतज्ञ वाजियो ! (वाजे-बाजे धनेषु नः अवत) संग्राम-संग्राम में धनों में हमारी रक्षा करो। (अस्य मध्वः पिबत) इस मधुर [सत्कार] का पान करो। (मादयध्वम्) आनन्दित होओ।(तृप्ता: देवयानैः पथिमिः यात) तृप्त/सन्तुष्ट रहते हुये देवयान/दिव्यगम पथों से ले चलो।

        यह वाजी, पुरोहित, अग्रणी नेता राष्ट्र के प्रत्येक कार्यक्षेत्र में चाहिये होते हैं। यजु:०९।२२ में आया [कृष्य त्वा क्षेमाय त्वाय्यै त्वा पोषांय त्वा।] कृषि के लिये तुझे, योग-क्षेम वा रक्षा के लिये तुझे, धन-सम्पत्ति अर्थात आर्थिक उन्नति के लिये तुझे, पोषण अर्थात सामाजिक उन्नति के लिये तुझे, नियुक्त करता हूँ। नेतृत्व और जागरूरता की आवश्यकता हर क्षेत्र में है, चाहे वह कृषि का क्षेत्र हो, उद्योग का हो, रक्षा का हो, या कोई भी हो। प्रत्येक क्षेत्र कुरुक्षेत्र भी है और धर्मक्षेत्र भी। इन वाजियों के लिये, पुरोहितों के लिये, अग्रणी नेतृत्व के लिये, राष्ट्र-नायकों के लिये वेद के मन्त्र में तीन महान संदेश हैं, जिनका आह्वान इन्होंने सतत करना है।

(१) सोम के समान राजा की प्रस्थापना करो।

(२) अप्सु (जलों/प्रजाओं/कर्मों) को ओषधिरूप और मधुमती बनाओ।

(३) राष्ट्र-हित को सामने रखते हुये स्वाहुतिपूर्वक राष्ट्र में सदैव जागते रहो/जागरूक रहो।

     राजा के चयन का अधिकार प्रजा का है-'त्वां विशो वृणतां राज्यायि' (अथर्व०३।४।२)(विशः) प्रजायें (त्वां राज्याय) तुझ को राज्य के लिये (वृणताम्) वरण करें, अर्थात चुनें। पर कैसे राजा का चयन करना है, कौन-कौन से गुण राजा में हों, इनका परखना, आकलन करना और प्रजा को सत्य स्वरूप बताना काम वाजियो/पुरोहितों का है। किस का वरण राजा या राष्ट्राध्यक्ष के रूप में किया जाये, यह जन-जागरण का कार्य राष्ट्र-हित को सामने रखने वाले पुरोहितों का है। वेद की दृष्टि में और मन्त्रानुसार पुरोहितों का यह (अग्रे) सर्व प्रथम कार्य है।

राजा (राज्याध्यक्ष/राष्ट्रपति) कैसा हो, मन्त्र में कहा (सोमम् राजानम्) सोम के समान राजा को (सुसवे) सुसेवित करता हूँ, अथवा प्र-सवता हूँ। यह उदघोष वाजी/पुरोहित का ही है। राजाभवन्मधुनः सोम्यस्य-(ऋक्०६।२०।३) राजा प्रजा के लिये सौम्य, शान्तिदायक, मधु के समान होवे। परन्तु इसी के साथ राजा के कुछ और भी गुण ऋग्वेद ६।२०।३ में दर्शाये गये हैं, जैसे 'तूर्वन', (शत्रुनाशक), 'ओजीयान' (अधिक ओजस्वी), 'तवसस्तवीयान' (बलवान से भी बलवान) 'कृतब्रह्मा' (धन-ऐश्वर्य का सम्पादन करने वाला) 'वृद्ध-महा:' (महान वृद्धों का आदर करने वाला), आदि। वैसे अकेला "सोम" ही राजा के गुणों को दर्शाने के लिये पर्याप्त है। सोम अमृत है। सोम के कर्म ऐश्वर्यों को बढ़ाने वाले होते हैं। सोम चन्द्रमा है, जो अन्धकार में भी अपनी शीतल चान्दनी से उजाला कर देता है। सोम समत्व योग का प्रतीक है। ओषधि के रूप में सोम रोग, कष्ट, व्याधि आदि का निवारण करने वाला है। सोम ओषधि के चौबीस गुण सुश्रुत में बताये गये हैं, उसी प्रकार सोम राजा के चौबीस गुण, यथा-बल, पराक्रम, आकर्षण, प्रेरणा, गति, भाषण, विवेचन, क्रिया, उत्साह, स्मरण, निश्चय, इच्छाशक्ति, प्रेम, स्पर्धा, संयोग, विभाग, संयोजक, विभाजक, श्रवण, स्पर्शन, दर्शन, स्वादन, गन्ध-ग्रहण तथा ज्ञान ग्रहण-लिये जा सकते हैं, जो उसको अमृतमय बनाते हैं। अया सोमः सुकृत्या महश्चिदम्यवर्धत। मन्दान उद्वृषायते॥ (ऋक्०९।४७।१) इन सुकृत्यों वा कार्यविधा से सोम बहुत अधिक बढ़ जाता है, और अति आनन्दयुक्त होकर उत्तम पद वाला हो जाता है। वाजिनों/पुरोहितों का अगला महत्वपूर्ण कार्य है, (ओषधीषु अप्सु) राजा द्वारा 'अप्सु' को ओषधीरूप करवाना। अपस् नाम व्यापनशील और प्रवाहशील का है। 'जल' अपस् हैं क्योंकि उन में प्रवाह है। प्रजा' अपस् हैं क्योंकि प्रजाओं में भी प्रवाह है। सुविचार और सुकर्म भी सतत प्रवाही होने के कारण अपस् हैं। अप्-सु को जिस रूप में भी लें, पर्यावरण की दृष्टि से 'जल', राज्य-व्यवस्था की दृष्टि से 'प्रजा' और राष्ट्र की दृष्टि से 'कर्म', इनको ओषधी रूप अर्थात दोषमुक्त बना कर सुसेवित करना-करवाना अत्यन्त महत्वपूर्ण है। सनेमि राजा परियाति विद्वान् प्रजां पुष्टि वर्धयमानोऽअस्मे स्वाहा (यजुः०९।२५) शाश्वत नियमों की परिधि में विद्वान राजा ही हमारे लिये प्रजा को पोषण से स्वाहुति, अर्थात समर्पण की भावना से बढ़ाता हुआ, सब ओर से प्राप्त होता है, अत: प्रत्येक वाजी प्रत्येक पुरोहित पूरी आत्मनिष्ठा के साथ ज्योति और शक्ति से युक्त होकर यही लक्ष्य रखे, कि मैं चन्द्रमा के समान शांति देने वाले विद्या, न्याय और धर्माचरण से प्रकाशमान राजा को संस्थापित कर ओषधियों और रसों को, प्रजाओं और सुकर्मों को सुसेवित तथा सुसम्पादित करूँ, जिससे (ता अस्मभ्यम् मधुमती: भवन्तु) वे हमारे लिये प्रशस्त मधुर गुण वाली हों।

राजा और पुरोहित दोनों का कर्त्तव्य बनता है कि प्रजा को रोग, दोष और अभाव-रहित कर सुसंस्कृत, सुसम्य तथा सुसंस्कारवान बनाये, जिस से प्रजाओं में से प्रत्येक का प्रत्येक के प्रति मधुर व्यवहार हो। परस्पर विरोध और द्वेष न हो। सब यथायोग्य, धर्मानुसार, प्रीतिपूर्वक बर्ते और बर्तावें । प्रत्येक अपनी ही उन्नति में सन्तुष्ट न रहे किन्तु समूचे राष्ट्र की उन्नति में अपनी उन्नति समझे। यह है प्रजा के मधुमती होने की भावना।  हो मधुमय सुन्दर राष्ट्र हमारा। यह माधुर्य यह भाईचारा, यह पारस्पारिक सहयोग निरन्तर बना रहे, इसके लिये (वयं राष्ट्र जागृयाम पुरोहिताः स्वाहा) हम पुरोहित स्वाहुतिपूर्वक समर्पण भाव से राष्ट्र में निरन्तर जागते रहें। यही है सब के हितकारी अग्रणी पुरोहितों का राष्ट्र-हित में राष्ट्रीय आह्वान।

      आलस्य, प्रमाद और तम के वशीभूत होकर प्रजा सो सकती है। प्रजा को जागरूक रखने का कार्य वाजीयों/पुरोहितों का है, जिनके सामने सब का हित प्रधान होता है। यह तभी सम्भव है जब पुरोहित स्वाहाकारी हों। राष्ट्र को पूर्णरूपेण समर्पित, सत्य क्रिया, सत्य नीति और सत्य वाणी जिनके आधार हों। तथा वे स्वयं जागरूक हों, जागते रहें और मन, वचन, कर्म से लोगों को जगाये रखें। अथर्ववेद में आया है।

यत्पुरुषेण हविषा यज्ञं देवा अतन्वत।

अस्ति नुतस्मादोजीयो यद विहव्यैनेजिरे॥ -अथर्व०७।५।४

देव लोग (वाजी/पुरोहित गण) जो 'पुरुष-हवि' से यज्ञ करते हैं, सचमुच वह यज्ञ उससे अधिक ओजस्वी है, जिसका वे विविध प्रकार की हवन-सामग्री से यजन करते हैं । घृत, समिधा और विविध प्रकार की हवि से अग्निष्टोम यज्ञ करना सरल है, परन्तु राष्ट्र-यज्ञ में अपने आप को पूर्णतया समर्पित कर देना, स्वयं की हवि दे देना, उत्कट राष्ट्रीय भावना और आत्म-साधना की अपेक्षा रखता है। परहित की भावना से इदं न मम के साथ स्व-जीवन की आहूति देता हुआ राष्ट्र में जो निरन्तर जाग रहा है, वही अग्रणी नागरिक राष्ट्र में सच्चा पुरोहित है, वही सतत आह्वान करते हुये कहता है वयं राष्ट्र जागृयाम पुरोहिताः स्वाहा हम सब पुरोहित राष्ट्र में राष्ट्र-हित में जागते रहें, राष्ट्र का, राजा का और प्रजा का, सही मार्ग-दर्शन करते रहें। राष्ट्र के हितों पर आँच न आये, चाहे अपना सर्वस्व राष्ट्र-हित अर्पित हो जाय।

       जागते रहने की भावना यही है कि पुरोहित राष्ट्र के प्रहरी बनें। एक दृष्टि से देखा जाये, तो आज के पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादक गण, लेखक, मनीषी एवं नेतागण सब के सब पुरोहित ही है। आवश्यकतानुसार राष्ट्र को सही दिशा-निर्देश और प्रजा का सही मार्ग-दर्शन करना उनका पुनीत कर्त्तव्य है। पर यह सम्भव तभी होगा जब प्रत्येक पुरोहित वेद के अनुसार अपने बारे में यह कह सकेगा

स:शितं मे ब्रह्म सशितं वीर्य, बलम्।

सर्शितं क्षुत्रं जिष्णु यस्याहमस्मि पुरोहितः।। -यजु:०११.८१

     मेरा ब्रह्म-ज्ञान तीक्ष्ण है, तीक्ष्ण है मेरा पराक्रम और सामर्थ्य । मैं जिसका भी पुरोहित अर्थात मार्गदर्शक होता हूँ, उसका क्षात्रबल और विजयशीलता भी तीक्ष्ण होता है। ब्रह्म और क्षत्र में निष्णात पुरोहित किसी भी राष्ट्र को उन्नति के उच्चतम शिखर तक ले जा सकते हैं। राष्ट्र-हित में ब्रह्म और क्षत्र की साधना करते हुये एक सच्चे प्रहरी के रूप में पुरोहित राष्ट्र का मार्गदर्शन करते रहें, यही आह्वान है वेद का पुरोहितों अथवा वर्तमान धर्माचार्यों, मनीषियों, नेताओं, लेखकों और सम्पादकों के लिये।

My knowledge of Brahman is sharp, sharp, my valour and strength. Whoever I am a priest, that is, a guide, has a sharp alkalinity and victory. Priests who are master of Brahma and Kshatra can take any nation to the highest peak of progress. May the priests continue to guide the nation as a true sentinel while practicing Brahma and Kshatra in the interest of thenation, this is the call of the Vedas to the priests or the present religious leaders, manishis, leaders, writers and editors.

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