नेता का वैशिष्ट्य : वेद की दृष्टि में
भुवो यज्ञस्य रजसश्च नेता यत्रा नियुद्भिः सचसे
शिवाभिः।
दिवि मूर्धाने दधिषे स्वर्षां जिह्वामैग्ने चकृषे
हव्यवाहम्॥ -यजुर्वेद १३ | १५, १५।२३, ऋग्वेद
१०।८।६
ऋषिः-त्रिशिरा। देवता-अग्निः।
छन्दः-निदा| त्रिष्टुप्। स्वर:--धैवतः।
पदपाठ-भुवः । यज्ञस्य। रजसः। च। नेता । यत्र ।
नियुतभिः। सचसे। शिवाभिः। दिवि। मर्धानम्। दधिषे। स्वः-साम्। जिह्वाम्। अग्ने।
चकृषे। हव्यवाहम्।
(अग्ने) -हे अग्रणी विद्वन!
(यज्ञस्य च रजसः तू यज्ञ का तथा पृथिवी लोक नेता भुवः) - (संसार) का नेता है
(यत्र शिवाभिः नियुत- -(1) जब [तू] यहाँ कल्याणभिः सचसे) सत्यकारी नियमों/नीतियों से व्यवहृत होता है।
(दिवि मूर्धानम् दधिषे) -(2) द्यौ में मूर्धा को धारण करता है,
(स्वः-साम हव्यवाहम जिह्वाम् चकृषे) - (3) हव्यवाहक जिला से सुखों की प्रदात्री कल्याणी वाणी को उच्चरता/प्रकट करता है।
वेद की यह सुन्दर ऋचा उन समस्त अग्रणी विद्वत
जनों को समर्पित है, जो नेता बनना चाहते हैं। मन्त्र का
देवता'अग्नि' है, और सम्बोधन भी मन्त्र में 'अग्नि'
को
ही है। 'अग्नि' से परमात्मा का ग्रहण होता है, और शरीर-धारी जीवात्मा का भी।
परमात्मा तो नसनाणी और शरीर के बन्धन से रहित है, अतः मन्त्र में जिह्वा शब्द का प्रयोग यह स्पष्ट करता है कि
यह मन्त्र उन देहधारी अग्रणी जनों के लिये है जो नेतृत्व-कला में प्रवीण होना
चाहते हैं।
वेद ज्ञान तो है ही मनुष्य को निरन्तर आगे
बढ़ने और ऊंचे उठने की प्रेरणा देने के लिये। यह भी निर्विवाद है, कि संसार रूपी इस धर्मक्षेत्र और
कुरुक्षेत्र में सफल नेतृत्व प्रदान करने वालों की आवश्यकता अनादि काल से रही है, और रहेगी। नेतृत्व प्रदान करने के
लिये अग्रणी नायक की भूमिका में नेता बनना तो वेद-सम्मत है, पर नेता के कुछ लक्षण और गुण
वेदानुसार भी तो किसी में हो,
तब
तो उसको नेता माना जाये।
आज समस्त भू-मण्डल में जो स्थिति है, उसके अनुसार ऐसा प्रतीत होता है, जैसे कि स्वयंभू नेताओं की बाढ़ सी
आ गई हो। राजनीति के क्षेत्र में तो हर व्यक्ति अपने आप को नेता समझता है, चाहे उसका जनाधार हो या न हो। अन्य
क्षेत्रों में भी ऐसा देखने को मिलता है कि अनुचित उपायों से अन्यों को पीछे धकेल
कर खुद को नेता उद्घोषित करना या करवाना और अधिकार जताना या नियन्त्रण बनाये रखना, मानो एक सामान्य सी बात हो।
ऐसे माहौल में यह समयोचित ही है, कि नेता के विषय में वेद, जो परमात्मा का अमर काव्य है, का दृष्टिकोण समझा जाये।
'नेता' की प्राथमिक योग्यता मन्त्र में अग्ने
के सम्बोधन से सिद्ध होती है। सम्बोधन में बोध निहित होता है। "अग्ने"
का अर्थ है, अग्निस्वरूप । जो गुण अग्नि के हैं
वे सब अग्ने में प्रकाशवान होते हैं। 'अग-अगि-गतौ' धातुओं से अग्नि पद सिद्ध होता है।
गति के तीन अर्थ होते हैं.--'ज्ञान', 'गमन', 'प्राप्ति'। जो ज्ञानी (wise) हो, गतिशील (dynamic)
हो, और प्राप्ति की उत्कट इच्छा रखता (achiever) हो, वह 'अग्ने' है। 'अग्निर्वे अग्रणीर्भवति'। अग्नि अग्रणी है। अग्रणी की दो
विशेषतायें प्रमुख हैं 'आगे बढ़ना' और 'अन्यों को आगे बढ़ाना'। पर पतन की ओर नहीं, प्रेय मार्ग की ओर नहीं। अग्ने नय सुपथा राये (ऋग्० ११ १८९ | १, यजुः० ५।३६, ७।४३, ४०।१६) अग्ने ले जाता है सुपथ पर
आत्म-ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिये। अग्ने कुटिलता और पाप से दूर रखता है। अग्ने ही
व्रत-पति है, और व्रतों की रक्षा करता है। वही
पवमान है और आयुषि पवसे (यजु:०१९।३८) जीवनों को पवित्र करता है । अग्ने किसी वस्तु या पदार्थ को नष्ट
नहीं करता, अपितु युक्त होने पर उसकी शक्ति को
कई गुणा बढ़ा देता है। अग्ने'
शब्द
से इस प्रकार स्पष्ट है, कि जो कोई भी नेतृत्व प्रदान करने, नेता बनने की लालसा रखता है, उसको आग्नेयगुण-प्रधान होना
अनिवार्य है।
यहाँ मन्त्र में 'नेता' की प्राथमिक अनिवार्यता के सम्बन्ध
में जो 'अग्ने' शब्द प्रयुक्त हुआ है, उसको यदि पूर्व मन्त्रों के साथ
संगति लगा कर देखें, तो प्रारम्भिक तैयारी में दो बाते
और स्पष्ट होती हैं। यजुर्वेद १३ । १३ में आया 'अग्नेः त्वा तेजसा सादयामि' तुझे ब्रह्माग्नि के तेज से
स्थापित करता हूँ। इसी प्रकार यजुर्वेद १३ । १४ में आया 'इन्द्रस्य त्वा ओजसा सादयामि' तझे इन्द्र (ऐश्वर्यवान) के ओज से
स्थापित करता हूँ। इस से सिद्ध होता है कि 'नेता' के लिये आग्नेय गुणों के साथ उस
परब्रह्म, परमैश्वर्यवान परमेश्वर से युक्त
होकर 'तेजस्वी' और 'ओजस्वी' होना भी अनिवार्य है। सीधे-सादे
सरल और स्पष्ट शब्दों में कहा जाये तो जिस व्यक्ति में आग्नेयता, तेजस्विता और ओजस्विता नहीं, वह नेता बनने या कहाने के काबिल ही
नहीं। आग्नेयता, तेजस्विता और ओजस्विता बाजार में
नहीं खरीदी जा सकती, यह तो उस परमपिता परमेश्वर से
युक्त रहने पर ही व्यक्ति के अन्दर स्थापित होती है।
आग्नेयता, तेजस्विता और ओजस्विता के साथ
अग्रणी विद्वान को कब नेता माना जाये, देखें वेद का यह मन्त्र।
अग्निं होतारं मन्ये दास्वन्तं वसु
सूनुं सहसो जातवेदसं विप्रं न जातवेदसम्। य ऊर्ध्वयां स्वध्वरो दे॒वो दे॒वाच्या
कृपा। घृतस्य विभाष्टिमर्नु वष्टि शोचिषाऽऽजानस्य सर्पिषः॥ -ऋग्० १।१२७।१; यजु:०१५।४७; साम० ४६५; १८१३;
अथर्व०२०।६७।३ चारों वेदों में
विद्यमान इस महत्वपूर्ण मन्त्र का भाव यह है कि मैं उस (अग्नि) अग्रणी (होतारं) होता [यज्ञ में सेवा कार्यों से
स्वयं को आहुत करनेवाला] को नेता (मन्ये) मानता हूँ (यः) जो (दासवन्तं) दाता [देने वाला] (वसुं) ब्रह्म में वास करने वाला (सूतं) प्रेरणा का संचारक (सहसः) सहन शक्ति का पुन, (जातवेदसम्) सृष्टि में उत्पन्न हुये पदार्थों को जानने वाला, [वैज्ञानिक], (विप्रं न जातवेदसम्) मेधावी श्रेष्ठ विद्वान के समान
अपरा और परा विद्या को, असम्भुति और सम्भूति को जानने वाला, (ऊर्ध्वया) उत्कृष्ट विद्या से युक्त ऊर्ध्व गति करने [ऊँचा/उन्नत
होने] वाला, (सु-अध्वरः) सुन्दर अहिंसात्मक यज्ञों [
श्रेष्ठतम् कर्मों] को सम्पादन करने वाला, (देवः) दिव्यताओं से युक्त, (देवाच्या कृपा) देवों को प्राप्त कृपा का
आकांक्षी, (घृतस्य विभ्राष्टिम् अनु वष्टि
शोचिषा)
धृत ज्ञान की अग्नि के प्रकाश के सानिध्य में विविध प्रकार के पदार्थों/ कार्यों
को अनुकूलता से परिपक्वता तक पहुंचाने वाला, (आउजुह्वानस्य सर्पिषः) आहुतियों से वर्धित तीव्र अग्नि
के समान सर्पणशील अर्थात् प्रकाशमान और प्राप्त होने वाला हो।
नेता के गुणों को दर्शाने के लिये उपरोक्त
मन्त्र में जिन विशेषणों का प्रयोग हुआ है, वे सब मननीय है। अधिकांश उनमें से अनेकार्थी हैं। जो भी हों, जब तक कोई व्यक्ति इन गुणों से
विभूषित न हो, वेद की दृष्टि में वह नेता माने
जाने योग्य नहीं। ऐसा व्यक्ति ही (यज्ञस्य च रजसः नेता भुवः) यज्ञ का तथा पृथिवी-लोक का नेता
होता है। संसार में जितने भी शुभ,
श्रेष्ठ
और कल्याणकारी कर्म है, उनकी संज्ञा है 'यज्ञ'। 'यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म' (शतपथ १।७।१।५) श्रेष्ठतम कर्म यज्ञ
है, और श्रेष्ठतमं कर्मों को
सुसम्पादित करना 'धर्म' है। अतः यज्ञ ही धर्म है, और जहाँ धर्म है, वहीं विजय है, वहीं सफलता है। यतो धर्मस्ततो जय। इसी लिये वेद में आया यज्ञेन गातुमसुरों विविद्रिरे धियो
हिन्वाना उशिजो मनीषिणः (ऋग० २।२१।५) उशिजः (महत्वाकांक्षी) मनीषी, असुरः (कर्म-कुशल) धियों को बढ़ाते
हुये यज्ञ द्वारा मार्ग को खोजा करते हैं। यज्ञों (श्रेष्ठ कर्मों) के द्वारा
उन्नति के मार्ग को प्रशस्त करना ही सही नेतृत्व है। तव प्रयाजा अनुयाजाँश्च केवल ऊर्जस्वन्तो हुविषः सन्तु भागाः।
तवाग्ने यज्ञोऽयमस्तु सर्वस्तुभ्यं नमन्तां प्रदिशश्चतस्त्रः ।। (ऋग्० १०।५१।९) ऐसे अग्रणी
ज्योर्तिमय व्यक्ति की तब हवियाँ (कर्म), सु-साधनायें और सुसेवायें अद्वितीय रूप से ऊर्जस्वन्तः होती हैं। उसका यह जीवन ही समग्र
रूप से यज्ञमय हो जाता है। तब उसके लिये चारों दिशाओं से नमन प्राप्त होते हैं।
इस स्थिति तक कैसे पहुंचा जाये, मन्त्र में इसके लिये तीन साधन और
बताये गये हैं।
(यत्र शिवाभिः नियुत-भि सचसे) जब यहाँ कल्याणकारी नीतियों से
व्यवहत हो। वस्तुतः यज्ञ (श्रेष्ठतम) कर्म वहीं सम्पादित हो सकते हैं, जहाँ कल्याणकारी योजनाओं और
नीतियों को क्रियात्मक रूप से अमल में लाने के लिये नेतृत्व दृढ़-संकल्प एवं
कटिबद्ध हो। किसी कवि ने क्या खूब कहा है
बाअमल ने चाँद पर रख दिये कदम।
बेअमल बस सोचते ही रह गये ॥
जहाँ कल्याणकारी योजनायें और नीतियाँ केवल
मुख या कागज पर ही रह जाती हैं,
नेतृत्व
उनके क्रियान्वयन की ओर ध्यान नहीं देता, उनको व्यवहत नहीं करता, ऐसे नेतृत्व को नेतृत्व मानना वेद की दृष्टि में उचित नहीं।
ऐसा नेतृत्व सम्मान का/ नमन का पात्र नहीं। केवल प्रकृष्ट कल्याणकारी योजनायें (प्रयाजाः), और, योजनाओं के अनुकूल उनका सफल निष्पादन (अनुयाजाः), नेतृत्व को बलशाली बनाता है। अतः एक सफल नेता को वेद के
शब्दों में 'न वा उ मां वृजने वारयन्ते न पर्वतासो
यदहं मनस्य' (ऋग्० १०।२७।५) यों कहना चाहिये, 'जब मैं जान-मान-ठान लेता हूँ, मुझे रोकने में न तो विरोधी समर्थ
होते हैं, न पर्वत।' बाधायें मुझे रोक नहीं सकतीं, और पर्वत मुझे मोड़ नहीं सकते। इस
प्रकार जो अग्रणी नायक कल्याणकारी नीतियों के सुसंचालन से निरन्तर युक्त रहता है, वही नेता मान जान का अधिकारी होता
है।
दूसरा साधन बताया (दिवि मूर्धानम् दधिषे) द्यौ को मूर्धा में रखे/ धारण
करे। 'दिवि' का अर्थ है दिव्य-प्रकाश। द्यौ लोक
ही दिव्य प्रकाश का लोक है। मूर्धा कहते हैं सर्वोच्च, सर्वोपरि स्थान अथवा लोक को। मानव
शरीर में मूर्धा है शिर । बुद्धि और विवेक का स्थान भी यह शिर ही है। समस्त
ज्ञानेन्द्रियाँ भी इसी शिर में स्थित हैं। पर यही शिर शैतान का घर हो जाता है, यदि यह दिव्यप्रकाश से वंचित रहे।
मन्त्र में इसीलिये कहा कि दिव्य-प्रकाश, दिव्य-ज्योति और दिव्यताओं को शिर में रखे। दिव्य नेतृत्व
के लिये दिव्य-प्रकाश चाहिये ही। नेतृत्व यदि पतित हो गया, नेतृत्व यदि भ्रष्ट हो गया, तो उस समाज और राष्ट्र को टूटने से
कौन रोक सकता है, जब तक कोई और पूर्णतया आलोकित, सही-नेतृत्व उसको संभाल न ले।
प्रश्न हो सकता है, कि यह 'आलोक', यह 'दिव्यप्रकाश' नेतृत्वशील व्यक्ति कहाँ से
प्राप्त करे? कहाँ है यह 'धौ', जिसको मूर्धा में रखना है तो पूर्व मन्त्र में ही आया 'अग्निमूर्द्धा द्विवः' (यजु:०३।१२,
१३।१४, १५।२०) द्यौ की मूर्धा 'अग्नि' अर्थात् अग्निस्वरूप प्रकाशमान
परमेश्वर है। उसी की ज्योति से धौ लोक ज्योर्तिमान है। दिवं यश्चक्रे मूर्धानं तस्मै
ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः (अथर्व०१०।७।३२) जो द्यौ को शिर के समान बनाये है, उसी सर्वश्रेष्ठ ब्रह्म को नमन है।
अतः 'द्यौ' का मूर्धा है 'ब्रह्माग्नि' और इस संसार में नेतृत्वशील का
मूर्धा है 'द्यौ'। अतः अंततोगत्वा प्रकाश के लिये
ज्योति के लिये बोध के लिये उसी परब्रह्म परमेश्वर का ही आश्रय लेना सर्वोपरि है।
अंतिम बात-(हव्यवाहम् जिह्वाम् स्वः साम
चकृषे)
हव्यवाहक जिह्वा से सुखों की प्रदात्री, उत्तम गति वाली, कल्याणी वाणी को उच्चारता/प्रकट करता है। जिह्वा हव्यवाहिका
है। शरीर के लिये जो हवि इसको मिलती है, चख कर अनुकूल को अन्दर, और प्रतिकूल को बाहर कर देती है, अपने पास कुछ नहीं रखती। इसी
प्रकार अन्दर जो विचार होते हैं,
उनको
वैसा ही यह बाहर व्यक्त कर देती है, इस प्रकार हवि रूपी संदेश की वाहिका भी यह जिह्वा ही है।
मन्त्र का कहना है कि नेतृत्वशील व्यक्ति अपनी जिह्वा को उत्तम हवि की वाहिका
बनाये। सीधी सी बात है, यदि शिर में द्यौ है, परमेश्वर को मूर्धा में रखा है, तो वाणी से भी सुखों की प्रदात्री, उत्तम गति वाली, कल्याणी वेदवाणी ही प्रस्फुटित
होगी। पर यदि शिर में गोबर भर रखा है, तो वाणी से भी जो उच्चरित होगा, वह गोबर ही होगा। जैसी नेता की
दिमागी कैफियत होती है, वैसा ही वह बोलता है। सही
नेतृत्वशील की वाणी तो हितकारी,
मधुर
और ओज से परिपूर्ण कल्याणी वाणी होनी चाहिये। मनु महाराज ने कितना सुन्दर कहा-
अहिंसयैव भूतानां कार्यं
श्रेयोऽनुशासनम्।
वाक्चैव मधुराश्लक्षणा प्रयोज्या
धर्ममिच्छता॥
नारूंतुदः स्यादा”ऽपि न पर द्रोह
कर्मधीः ।
ययास्योद्विजते वाचा ना लोक्यां
तामुदीरयेत्॥
-मनुस्मृति २ । १५९; २।१६१
धर्म की उन्नति चाहने वाला प्राणियों में
अनुशासन की स्थापना अहिंसापूर्वक (अर्थात् वैर-विरोध छोड़ के) करे और मधुर एवं
सुलक्षणा वाणी का प्रयोग करे। स्वयं दुःखी भी हो, तब भी न दूसरों को कष्ट पहुँचावे, न द्वेष या बुरा करने की भावना मन
में लाये। जिस वचन से कोई दुःखित हो ऐसी लोक में निन्दनीय वाणी (अर्थात् अप शब्द)
न बोले।
वेद के अनुसार यह है अग्रणी नायक (नेता)
के गुण एवं लक्षण । ऋग्वेद में भी एक बड़ा सुन्दर मन्त्र इसी संदर्भ में है
यो दुभिहव्यो यश्च भूरिभिर्यों
अभीकै वरिवोविन्वृषाहीं।
तं विखादे सस्त्रिमद्य श्रुतं
नरमाञ्चमिन्द्रमव॑से करामहे॥ -ऋग्० १०।३८।४
जो दलित (छोटे से छोटे) और महान ऐश्वर्यशाली
(बड़े से बड़े) दोनों को सुलभ हो,
जो
सफलता-योग्य कार्यों को सम्पादित करने की विधा जानता हो, विपत्ति अथवा संग्राम (रणनीति) में
निष्णात व कुशल हो, उस ऐश्वर्यशाली नायक को रक्षा के
लिये हम साक्षात करें।
आज विडम्बना यह है कि नेता तो बहुत हैं, पर हैं, सब प्रकाशहीन, दिव्यताओं से शून्य। द्यौ से युक्त कोई नहीं। उनको मौलवी, मुल्ला, पादरी, ज्योतिषी, योगी, भोगी, तान्त्रिक, मठाधीष, पण्डे, पुजारी सब का आश्रय स्वीकार है, केवल परमात्मा, सत्य और धर्म को छोड़कर। वाणी पर सरस्वती नहीं केवल राजनीति विराजती है। कल्याणकारी नीतियों का कार्यान्वयन जन-हित में नहीं, स्व-यश या स्व-हित में करना/ करवाना ही उनका लक्ष्य है। ऐसे में प्रबुद्ध राष्ट्र के वासियों को यह अवश्य विचार करना है, कि वे'किस को नेता मानें' वेद-विहित गुण-कर्म-स्वभाव वाले अग्रणी नायक को, या, जो जहां, जैसे भी हैं, उनको?
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