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शिक्षक व उपदेशक वेद की दृष्टि में ,Who are educator and missionary in the conception of Veda?



शिक्षक व उपदेशक वेद की दृष्टि में

तृदिला अतृदिलासो अद्रयोऽश्रमणा अशृथिता अमृत्यवः ।

अनातुरा अजराः स्थार्मविष्णवः सुपीवसो अर्तृषिता अतृष्णजः॥

-ऋग्वेद १०।९४ । ११

ऋषिः-अर्बुद काद्रवेयः सर्पः । देवता-ग्रावाणः। छन्दः-विराड् जगती।

पदपाठ-तृदिलाः। अतृदिलासः। अद्रयः। अश्रमणाः । अशूथिताः । अमृत्यवः । अनातुराः । अजराः । स्थ। अमविष्णवः । सुऽपीवसः । अतृषिताः । अतृष्णाऽजः॥

ऋग्वेद के दशम मण्डल में तीन सूक्तों, क्रमशः ७६, ९४ और १७५ का देवता (अर्थात् विषय) ग्रावाण: है। मानव समाज में ज्ञानप्रसार के दो प्रमुख आधार हैं-'शिक्षक' तथा 'उपदेशक'। शिक्षक स्कूलों, कालेजों, विद्यालयों, शिक्षा-संस्थानो, गुरुकुलों में बालक तथा बालिकाओं को ज्ञान-युक्त करते हैं, जबकि उपदेशक, पुरोहित, धर्माचार्य, वानप्रस्थ, सन्यस्थ के रूप में जन-मानस को ज्ञानयुक्त करते हैं। "जिससे विद्या, सभ्यता, धर्मात्मता, जितेन्द्रियतादि की बढ़ती होवे, और अविद्यादि दोष छूटें", उसको ही महर्षि दयानन्द सरस्वती के अनुसार 'शिक्षा' कहते हैं।

There are two main grounds for spreading knowledge in human society: ‘Teachers’ and 'Preachers'.  Teachers impart knowledge to boys and girls in schools, colleges, schools, educational institutions, gurukuls, while preachers, priests, dharma Charis, vanaprastha’s, sannyasa’s enlighten the masses. "So that knowledge, civilization, righteousness, jitendraiyatadi grow, and ignorance are left out “is called ‘education' according to Maharishi Dayanand Sarasvati.    

 

एक प्रकार से 'शिक्षक' तथा 'उपदेशक' ज्ञान-वृक्ष की दो शाखायें हैं। जो विद्वान व विदुषी विद्यालयों व गुरुकुलों को प्रार्पित हो जाते हैं, उनकी आचार्य-आचार्या संज्ञा होती है, और जो विद्वान व विदुषी कल्याणी-वाणी वेद का आश्रय लेकर मानवता और मानवधर्म के प्रचार व प्रसार में लग जाते हैं, वे उपदेशक व उपदेशिका कहलाते हैं। वाणी के द्वारा जो सबको आत्म-विकास हेतु ज्ञान के आलोक में आगे बढ़ने और ऊँचे उठने की प्रेरणा देते हैं, 'अज्ञान', 'अभाव' और 'अन्याय' के प्रति जूझने के लिये जो जनमानस को तैयार करते हैं, ऐसे "ज्ञान-वीरों" को वेद की भाषा में हम 'ग्रावाण:' कह सकते हैं। देखे वेद का यह मन्त्र।

एते वदन्ति शतवत्सहस्रवदुभि क्रन्दन्ति हरितेभिरासभिः।

विष्टी ग्राणः सुकृतः सुकृत्यया होतुश्चित्पूर्वे' हविरद्यमाशत॥ -ऋग्वेद १०।९४ । २

(एते ग्रावाणः) ये ग्रावाणः (शतवत् सहस्त्रवत्) शतवत् और सहस्त्रवत् (वदन्ति) उपदेश करते हैं । (सुकृत) सुकर्माओं के (विष्टवी) गृहों में प्रवेश करके (हरितेभिः आसभि) अपने तेजस्वी मुखों से (सुकृत्यया) उत्तम कृत्यों का (अभि क्रन्दति) सर्वत्र बखान करते हैं। हे ग्रावाणः ! (पूर्वे) पूर्व की भाँति (होतुः चित् हवि: अद्यम् आशत) दानशील जनों की हवियों का आदरपूर्वक सेवन करो।

इस मन्त्र से दो बातें स्पष्ट हैं। ग्रावाणः अर्थात् ज्ञानवीर शिक्षक व उपदेशक जब बोलते हैं, तो वे सैकड़ों और हज़ारों को प्रभावित करते हैं उनकी वाणियों में ऐसा ओज और तासीर होती है, अपने तेजस्वी मुखों से सुकृत्यों का ऐसा सर्वत्र बखान करते हैं, कि जनमानस उनके साथ हो जाता है। दूसरे वे वेतन-भोगी नहीं होते। दानशीलजन स्वयं ही अपनी हवियाँ उनको सादर समर्पित करते हैं, जिससे उनका निर्वाह सम्मानजनक रूप से होता रहे। इसीलिये ऋग्वेद १०।९४।१० में ऐसे दानशील होताओं के लिये कामना की गई है-"रैवत्येव महसा चारवः स्थन यस्य ग्रावाणो अर्जुषध्वमध्वरम्" हे ग्रावाणः ! जिनके हिंसारहित यज्ञ (इसमें पितृ यज्ञ और अतिथियज्ञ भी आ जाते हैं) का तुम सेवन करते हो, वे यजमान ऐश्वर्यवान पुरुषों के समान महान सामर्थ्य और उत्तम आचार से युक्त रहें।

स्वाभाविक है कि इस प्रकार के ग्रावाणः अर्थात् ज्ञान-वीर शिक्षक और उपदेशक जब तक पूर्णत्या अन्तः प्रेरित नहीं होंगे, वे उस मिशनरी भावना से कार्य नहीं कर सकेंगे, जिसकी वेद अपेक्षा करता है। अतः ऋग्वेद के दशम मण्डल के १७५वें सूक्त के चारों मन्त्रों में 'सविता देव' (प्रेरक परमेश्वर) से ग्रावाणः को उत्तम कर्मों में नियुक्त बने रहने, उनके दुःख-संताप को दूर करने, बल बनाये रखने और धर्म पर चलते रहने की बड़ी सुन्दर प्रार्थनापरक प्रेरणायें विद्यमान हैं।

हम जिस मन्त्र पर यहाँ विचार कर रहे हैं, उसमें ज्ञान-वीर शिक्षक और उपदेशक में बारह गुण गिनाये गये हैं, जिनको धारण करने से कोई भी शिक्षक और उपदेशक आदर्श और सम्मान का पात्र हो सकता है। शिक्षा-पद्धति या उपदेश की विधा कोई भी हो, सब कुछ निर्भर करता है कि शिक्षक और उपदेशक कहाँ तक अपने समग्र जीवन से विद्यार्थीयों और श्रोताओं को प्रभावित कर पाते हैं। उनको ध्यान रखना होगा कि विद्यार्थी की असफ़लता वस्तुत: शिक्षक की असफ़लता है। इसी प्रकार किसी भी सभा/सत्संग की असफलता श्रोताओं के कारण नहीं, वक्ताओं के कारण होती हैं।

शिक्षक और उपदेशक कभी भी असफल नहीं होंगे, यदि उनमें मन्त्र के अनुसार निम्न गुण हों।

(१) (तृदिला:) भेदक, distinctive

(२) (अतृदिलासः) अभेद्य, impregnable,

(३) (अद्रयः) respectable,

(४) (अश्रमणः) अनथक श्रमशील uneconomic

(५) (अशृथिताः) अशिथिल, unrelaxed,

(६) (अमृत्यवः) मृत्यु के बन्धनों से रहित, Devoid of the bonds of death,

(७) (अनातुराः) अविकल, exact

(८) (अजराः) जरा-रहित, unalittle

(९) (अमविष्णवः) गतिशील, बनने वाला ।dynamic,  becoming

 शिक्षकों और उपदेशक तो 'चुस्ती', 'फुर्ती' और 'मस्ती' की प्रतिमूर्ति होने चाहियें, साथ ही सतर्क, सावधान और सत्कार्यों में सर्वदा तत्पर । यह है भाव अपृथिताः का।।

अमृत्यवः अर्थात् मृत्यु के बन्धनों से मुक्त । वेद का तो आदर्श है, अमृतत्व की प्राप्ति । बन्धनात् मृत्योर्मुक्षीय, मा-अमृतात्' (ऋग्० ७।५९।१२) मृत्यु के बन्धन से मुक्त हो जाऊँ, अमृत से नहीं। जन्म की मृत्यु तो अवश्यम्भावी है, किन्तु जीवन की नहीं । आदर्श शिक्षक और उपदेशक का जीवन यदि अन्यों के लिये अनुकरणीय बन जाता है, तो वे अमर हो जाते हैं। उनका जीवन ही उनका सन्देश हो जाता है। जीवन में धर्म, योग, क्षेम, संयम, सदाचार, सुमति, निर्विकारता, ब्रह्मचर्य, ब्रहाविद्या, ब्रह्मज्ञान यह सब अमृत्यवः के ही लक्षण हैं। इनके विपरीत जो कुछ भी है, वह तो साक्षात मृत्यु हैं।

अनातुराः न घबराने वाले, अविकल, धीर, आतुरता से रहित, धैर्यवान । यह लक्षण हैं अनातुराः के। शिक्षक और उपदेशक के जीवन में यदि धैर्य नहीं, तो कुछ भी नहीं। उसका उपदेश सर्वथा प्रभावहीन ही रहेगा। वेद की शिक्षायें तो सब काल के लिये हैं, पर लगता है आज इनकी अत्यन्त आवश्यकता है। आज शिक्षक और उपदेशक को हर बात की जल्दी है। शिक्षक पढ़ाते हैं, समझाते नहीं। कक्षा समाप्त करने की जल्दी जो है। और उपदेशकों की आतुरता देखते ही बनती है। बोलने को आतुर, दक्षिणा को आतुर और बोलकर जाने को भी आतुर । ऐसा लगता है कि उपदेशक के बड़प्पन की निशानी आतुरता बन गई है; जबकि वेद का आदेश है-“अनातुराः"। उपदेशकों और उपदेश के आयोजकों दोनों को ही सोचना चाहिये कि वेद के आदेश को किस प्रकार क्रियान्वित किया जाय। उचित तो यही है कि पहले 'विषय' निश्चित किया जाये; उस पर उपदेशक समाहित होकर आत्मना बोले, फिर उस पर चर्चा हो, शंका समाधान और उपसंहार के साथ समापन हो। इससे उपदेशों की गुणवत्ता और श्रोताओं की भागीदारी दोनों में ही वृद्धि होगी।

उपदेशक और शिक्षक का अगला गुण मन्त्र में बताया गया, अजराः अर्थात् जरा-रहित । जरा कहते हैं बूढ़ेपन को। आयुवृद्धि के साथ देह पर जरा का प्रभाव होता ही है, पर वास्तव में मनुष्य बूढ़ा जब होता है, जब कार्य करना छोड़ देता है। जिसका मन सशक्त है, शिव-संकल्पों से युक्त है, सदैव कार्यशील है, वाणी में ओज है, जीवन में ताज़गी है, वह अजर है, अजर रहेगा। पर जो निराशावादी हो, आत्म-विश्वास खो बैठा हो, असुरक्षित, भयभीत और अपने आप को अकेला, दीन, हीन समझता हो, वह भरी जवानी में बूढ़ा कहलायेगा। अजराः बने रहने के लिये शिक्षक और उपदेशक को निराशाजनक बातें कभी अपने मुख से नहीं करनी चाहिये। प्रेरक शब्द, प्रेरक प्रसंग और प्रेरणास्पद बातें, जो व्यक्ति, समाज और राष्ट्रोत्थान या सम्पूर्ण मानव समाज के हित में हों, शिक्षक और उपदेशक को भी अजर बनाये रखेंगी, और दूसरों को भी प्रेरणा प्रदान करेंगी।

अजरा से संयुक्त ही है अगला गुण, जिसे कहा गया है अमविष्णवः अर्थात् गतिशील। 'सन्ध्या', 'स्वाध्याय', 'सत्संग', 'सदाचार' और 'सेवा' को जिसने अपने जीवन के कार्यक्रम में पिरो दिया हो, उसने गतिशील रहना ही रहना है। उतार-चढ़ाव, दुःखसुख, हानि-लाभ अपयश और यश से कौन बचा है। शिक्षक और उपदेशक भी इसके अपवाद नहीं, पर जो स्थितप्रज्ञ होकर आगे और आगे चलते ही रहते हैं, रुकते नहीं; उद्योग और पुरुषार्थ करना ही जिनके जीवन का ध्येय है, वे कहलाते हैं 'अमविष्णवः'। ऐसे शिक्षकों

और उपदेशकों का जीवन अपने-आप में एक उदाहरण एक मिसाल बन जाता है। वेद तो ऐसे ही शिक्षक-उपदेशक की कामना करता है।

अगले गुण में तो कमाल ही है। कहना पड़ता है नमो वेदमात्रे। वेदमाता शिक्षकों और उपदेशकों को सुपीवसः अर्थात् हृष्ट-पुष्ट देखना चाहती है। यह सुपुष्टता निर्भर करती है एक तो दानशील होताओं पर; वर्तमान में समाज तथा सामाजिक एवं प्रशासनिक व्यवस्था पर, जिनका यह दायित्व बनता है कि शिक्षक तथा उपदेशक वर्ग को आर्थिक दृष्टि से सुपुष्ट रखें, उनके आदर-सत्कार, मानसम्मान में कमी न हो, धन का अभाव उनको न अखरे। और दूसरे स्वयं शिक्षकों और उपदेशकों पर, कि वह युक्त आहार-विहार, यम-नियम, आसन-प्राणायाम, धारणा-ध्यान आदि से, अपने शरीर

और अंतकरण को बलवान बनाये रखें । सदैव प्रसन्न और मुस्कराते रहें। द्वेष और क्रोध को उभरने न दें। इच्छा -शक्ति और मनोबल हृष्ट-पुष्ट, चुस्त और दुरुस्त बने रहने में बहुत सहायक रहते हैं।

अंत में दो बातें, जो सुपुष्टता में भी सहायक हैं, वे हैं, अतृषिताः और अतृष्णजः अर्थात् तृष्णा-रहित और निस्पृहता। तृष्णा और लिप्सा से असन्तोष न केवल उपजता है, वरन तृष्णा की वृद्धि से असन्तोष बढ़ता ही जाता है, और असन्तोषी कभी सुखी हो ही नहीं सकता। सन्तोष सबसे बड़ा धन है। जो सन्तोषी है, वही सुखी है,

और जो सुखी है, वही दूसरों को सुखी कर सकता है। शिक्षक और उपदेशक का तृष्णारहति होना बहुत ज़रूरी है, जितना मिल जाये, उस पर सन्तोष करे, और सुखी रहे।

अतृषिताः के साथ-साथ अतृष्णजः अर्थात् निस्पृहता, एक महान आवश्यक गुण है। शिक्षक और उपदेशक के लिये सब समान हैं, अतः सबके प्रति समान भावना, समान प्रेम, समान व्यवहार का होना ज़रूरी है, यह तभी सम्भव है, जब शिक्षक और उपदेशक अनासक्त भाव से सबसे बर्ते, बर्तावें। सबसे प्रेम भाव हो, परन्तु आसक्ति किसी से न हो। निष्पक्ष और न्यायशील, द्वेष-रहित किन्तु करुणा-दया से भरपूर शिक्षक और उपदेशक जहाँ होंगे, वहाँ शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति बाल, युवा, बृद्ध सबकी अवश्य होगी, इसमे सन्देह नहीं।

प्रभु करे, कि वेद की शिक्षायें भू मण्डल पर फैलें, ताकि समस्त धरा पर ऐसे आदर योग्य शिक्षक और उपदेशक तैयार हों।

सुते अध्वरे अधि वाचमकता क्रोळयो न मातरं तुदन्तः।

वि षू मुञ्चा सुषुवु| मनीषां वि वर्तन्तामन्य॒श्चायमानाः॥ -ऋग्०१०।९४।१४

अहिंसनीय मनीषी आदरणीय जन सत्कार पाते हुये कल्याणी वाणी का उच्चारण करें। माता की गोद में जैसे बालक क्रीड़ा करते प्रसन्न होते हैं उसी प्रकार शिक्षक और उपदेशक जगत् के उत्पादक और संचालक परमात्मा में प्रतिष्ठ हों, और विशेष श्रद्धा और भक्ति से उस प्रभु की स्तुति किया करें। आनन्द के भोक्ता बन आनन्द का पान ही अपने विद्यार्थियों और अन्य श्रोताओं को करायें जिससे उनकी सर्वांगीण उन्नति हो।

Ahinsani Manishi, get respected public hospitality and pronounce Kalyani Vani. Just as children are happy to play in the mother's lap, so teachers and preachers should be distinguished in the Supreme Soul, the producers and operators of the world, and praise the Lord with special reverence and devotion. Become a consumer of joy and drink the joy to your students and other listeners so that they can progress all round. 


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