यजुर्वेद अध्याय-3, भाष्य महर्षि स्वामी दयानन्द
सरस्वती
स॒मिधा॒ग्निं दु॑वस्यत
घृ॒तैर्बो॑धय॒ताति॑थिम्। आस्मि॑न् ह॒व्या जु॑होतन ॥१॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब तीसरे अध्याय के पहिले मन्त्र में भौतिक अग्नि का
किस-किस काम में उपयोग करना चाहिये,
इस विषय का उपदेश अगले
मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वान् लोगो ! तुम (समिधा) जिन इन्धनों
से अच्छे प्रकार प्रकाश हो सकता है,
उन लकड़ी घी आदिकों से
(अग्निम्) भौतिक अग्नि को (बोधयत) उद्दीपन अर्थात् प्रकाशित करो तथा जैसे
(अतिथिम्) अतिथि को अर्थात् जिसके आने-जाने वा निवास का कोई दिन नियत नहीं है, उस
संन्यासी का सेवन करते हैं,
वैसे अग्नि का (दुवस्यत)
सेवन करो और (अस्मिन्) इस अग्नि में (हव्या) सुगन्ध कस्तूरी, केसर
आदि, मिष्ट,
गुड़, शक्कर
आदि पुष्ट घी, दूध आदि,
रोग को नाश करनेवाले सोमलता
अर्थात् गुडूची आदि ओषधी, इन चार प्रकार के साकल्य को (आजुहोतन) अच्छे
प्रकार हवन करो ॥१॥
भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे गृहस्थ मनुष्य
आसन, अन्न, जल,
वस्त्र और प्रियवचन आदि से
उत्तम गुणवाले संन्यासी आदि का सेवन करते हैं,
वैसे ही विद्वान् लोगों को
यज्ञ, वेदी, कलायन्त्र और यानों में स्थापन कर यथायोग्य
इन्धन, घी, जलादि से अग्नि को प्रज्वलित करके वायु, वर्षाजल
की शुद्धि वा यानों की रचना नित्य करनी चाहिए ॥१॥
सुस॑मिद्धाय
शो॒चिषे॑ घृ॒तं ती॒व्रं जु॑होतन। अ॒ग्नये॑ जा॒तवे॑दसे ॥२॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर वह भौतिक अग्नि कैसा है, किस
प्रकार उपयोग करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्य लोगो ! तुम (सुसमिद्धाय) अच्छे
प्रकार प्रकाशरूप (शोचिषे) शुद्ध किये हुए दोषों का निवारण करने वा (जातवेदसे) सब
पदार्थों में विद्यमान (अग्नये) रूप,
दाह, प्रकाश, छेदन
आदि गुण स्वभाववाले अग्नि में (तीव्रम्) सब दोषों के निवारण करने में तीक्ष्ण
स्वभाववाले (घृतम्) घी मिष्ट आदि पदार्थों को (जुहोतन) अच्छे प्रकार गेरो ॥२॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को इस प्रज्वलित अग्नि में जल्दी दोषों को दूर
करनेवाले या शुद्ध किये हुए पदार्थों को गेर कर इष्ट सुखों को सिद्ध करना चाहिये
॥२॥
तं त्वा॑ स॒मिद्भि॑रङ्गिरो घृ॒तेन॑ वर्द्धयामसि।
बृ॒हच्छो॑चा यविष्ठ्य ॥३॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
मनुष्यों को उक्त अग्नि की नित्य वृद्धि करनी चाहिये, इस
विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हम लोग जो (अङ्गिरः) पदार्थों को प्राप्त
कराने वा (यविष्ठ्य) पदार्थों के भेद करने में अति बलवान् (बृहत्) बड़े तेज से
युक्त अग्नि (शोच) प्रकाश करता है (तम्) उसको (समिद्भिः) काष्ठादि वा (घृतेन) घी
आदि से (वर्द्धयामसि) बढ़ाते हैं ॥३॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को जो सब गुणों से बलवान् पूर्व कहा हुआ अग्नि
है, वह होम और शिल्पविद्या की सिद्धि के लिये
लकड़ी, घी आदि साधनों से सेवन करके निरन्तर
वृद्धियुक्त करना चाहिये ॥३॥
उप॑ त्वाग्ने ह॒विष्म॑तीर्घृ॒ताची॑र्यन्तु
हर्यत। जु॒षस्व॑ स॒मिधो॒ मम॑ ॥४॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर वह अग्नि कैसा है, सो
अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो (हर्य्यत) प्राप्ति का हेतु
वा कामना के योग्य (अग्ने) प्रसिद्ध अग्नि (मम) यज्ञ करनेवाले मेरे (समिधः) लकड़ी
घी आदि पदार्थों को (जुषस्व) सेवन करता है,
जिस प्रकार (त्वा) उस अग्नि
को घी आदि पदार्थ (यन्तु) प्राप्त हों,
वैसे तुम (हविष्मतीः)
श्रेष्ठ हवियुक्त (घृताचीः) घृत आदि पदार्थों से संयुक्त आहुति वा काष्ठ आदि
सामग्री प्रतिदिन सञ्चित करो ॥४॥
भावार्थभाषाः - मनुष्य लोग जब इस अग्नि में काष्ठ, घी
आदि पदार्थों की आहुति छोड़ते हैं,
तब वह उनको अति सूक्ष्म कर
के वायु के साथ देशान्तर को प्राप्त कराके दुर्गन्धादि दोषों के निवारण से सब
प्राणियों को सुख देता है, ऐसा सब मनुष्यों को जानना चाहिये ॥४॥
भूर्भुवः॒ स्व᳕र्द्यौरि॑व भू॒म्ना
पृ॑थि॒वीव॑ वरि॒म्णा। तस्या॑स्ते पृथिवि देवयजनि पृ॒ष्ठे᳕ऽग्निम॑न्ना॒दम॒न्नाद्या॒याद॑धे
॥५॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर उस अग्नि का किसलिये उपयोग करना चाहिये, इस
विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - मैं (अन्नाद्याय) भक्षण योग्य अन्न के लिये
(भूम्ना) विभु अर्थात् ऐश्वर्य्य से (द्यौरिव) आकाश में सूर्य के समान (वरिम्णा)
अच्छे-अच्छे गुणों से (पृथिवीव) विस्तृत भूमि के तुल्य (ते) प्रत्यक्ष वा (तस्याः)
अप्रत्यक्ष अर्थात् आकाशयुक्त लोक में रहनेवाली (देवयजनि) देव अर्थात् विद्वान्
लोग जहाँ यज्ञ करते हैं वा (पृथिवी) भूमि के (पृष्ठे) पृष्ठ के ऊपर (भूः) भूमि
(भुवः) अन्तरिक्ष (स्वः) दिव अर्थात् प्रकाशस्वरूप सूर्यलोक इनके अन्तर्गत रहने
तथा (अन्नादम्) यव आदि सब अन्नों को भक्षण करनेवाले (अग्निम्) प्रसिद्ध अग्नि को
(आदधे) स्थापन करता हूँ ॥५॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में दो उपमालङ्कार हैं। हे मनुष्य लोगो ! तुम
ईश्वर से तीन लोकों के उपकार करने वा अपनी व्याप्ति से सूर्य प्रकाश के समान तथा
उत्तम-उत्तम गुणों से पृथिवी के समान अपने-अपने लोकों में निकट रहनेवाले रचे हुए
अग्नि को कार्य की सिद्धि के लिये यत्न के साथ उपयोग करो ॥५॥
आयं गौः पृश्नि॑रक्रमी॒दस॑दन् मा॒तरं॑
पु॒रः। पि॒तरं॑ च प्र॒यन्त्स्वः॑ ॥६॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब अग्नि के निमित्त से पृथिवी का भ्रमण होता है, इस
विषय को अगले मन्त्र में प्रकाशित किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - (अयम्) यह प्रत्यक्ष (गौः) गोलरूपी पृथिवी
(पितरम्) पालने करनेवाले (स्वः) सूर्यलोक के (पुरः) आगे-आगे वा (मातरम्) अपनी
योनिरूप जलों के साथ वर्त्तमान (प्रयन्) अच्छी प्रकार चलती हुई (पृश्निः)
अन्तरिक्ष अर्थात् आकाश में (आक्रमीत्) चारों तरफ घूमती है ॥६॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को जानना चाहिये कि जिससे यह भूगोल पृथिवी जल और
अग्नि के निमित्त से उत्पन्न हुई अन्तरिक्ष वा अपनी कक्षा अर्थात् योनिरूप जल के
सहित आकर्षणरूपी गुणों से सब की रक्षा करनेवाले सूर्य के चारों तरफ क्षण-क्षण
घूमती है, इसी से दिन रात्रि, शुक्ल
वा कृष्ण पक्ष, ऋतु और अयन आदि काल-विभाग क्रम से सम्भव होते
हैं ॥६॥
अ॒न्तश्च॑रति रोच॒नास्य प्रा॒णाद॑पान॒ती। व्य॑ख्यन्
महि॒षो दिव॑म् ॥७॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
वह अग्नि कैसा है,
इस विषय का उपदेश अगले
मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - जो (अस्य) इस अग्नि की (प्राणात्) ब्रह्माण्ड
और शरीर के बीच में ऊपर जानेवाले वायु से (अपानती) नीचे को जानेवाले वायु को
उत्पन्न करती हुई (रोचना) दीप्ति अर्थात् प्रकाशरूपी बिजुली (अन्तः) ब्रह्माण्ड और
शरीर के मध्य में (चरति) चलती है,
वह (महिषः) अपने गुणों से
बड़ा अग्नि (दिवम्) सूर्यलोक को (व्यख्यत्) प्रकट करता है ॥७॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को जानना चाहिये कि जो विद्युत् नाम से प्रसिद्ध
सब मनुष्यों के अन्तःकरण में रहनेवाली जो अग्नि की कान्ति है, वह
प्राण और अपान वायु के साथ युक्त होकर प्राण,
अपान, अग्नि
और प्रकाश आदि चेष्टाओं के व्यवहारों को प्रसिद्ध करती है ॥७॥
त्रि॒ꣳश॒द्धाम॒ विरा॑जति॒ वाक् प॑त॒ङ्गाय॑
धीयते। प्रति॒ वस्तो॒रह॒ द्युभिः॑ ॥८॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर वह अग्नि कैसा है, इस
विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - मनुष्यों को जो अग्नि (द्युभिः) प्रकाश आदि
गुणों से (प्रतिवस्तोः) प्रतिदिन (त्रिंशत्) अन्तरिक्ष, आदित्य
और अग्नि को छोड़ के पृथिवी आदि को जो तीस (धाम) स्थान हैं, उनको
(विराजति) प्रकाशित करता है,
उस (पतङ्गाय) चलने-चलाने आदि
गुणों से प्रकाशयुक्त अग्नि के लिये (प्रतिवस्तोः) प्रतिदिन विद्वानों को (अह)
अच्छे प्रकार (वाक्) वाणी (धीयते) अवश्य धारण करनी चाहिये ॥८॥
भावार्थभाषाः - जो वाणी प्राणयुक्त शरीर में रहनेवाले बिजुलीरूप अग्नि से
प्रकाशित होती है, उसके गुणों के प्रकाश के लिये विद्वानों को
उपदेश वा श्रवण नित्य करना चाहिये ॥८॥
अ॒ग्निर्ज्योति॒र्ज्योति॑र॒ग्निः स्वाहा॒
सूर्यो॒ ज्योति॒र्ज्योतिः॒ सूर्यः॒ स्वाहा॑। अ॒ग्निर्वर्चो॒ ज्योति॒र्वर्चः॒
स्वाहा॒ सूर्यो॒ वर्चो॒ ज्योति॒र्वर्चः॒ स्वाहा॑। ज्योतिः॒ सूर्यः॒ सूर्यो॒
ज्योतिः॒ स्वाहा॑ ॥९॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
अग्नि और सूर्य्य कैसे हैं, इस
विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - (अग्निः) परमेश्वर (स्वाहा) सत्य कथन करनेवाली
वाणी को (ज्योतिः) जो विज्ञान प्रकाश से युक्त करके सब मनुष्यों के लिये विद्या को
देता है, इसी प्रकार (अग्निः) जो प्रसिद्ध अग्नि
(ज्योतिः) शिल्पविद्या साधनों के प्रकाश को देता है (सूर्यः) जो चराचर सब जगत् का
आत्मा परमेश्वर (ज्योतिः) सब के आत्माओं में प्रकाश वा ज्ञान तथा सब विद्याओं का
उपदेश करता है कि (स्वाहा) मनुष्य जैसा अपने हृदय से जानता हो, वैसे
ही बोले तथा जो (सूर्यः) अपने प्रकाश से प्रेरणा का हेतु सूर्यलोक (ज्योतिः)
मूर्तिमान् द्रव्यों का प्रकाश करता है (अग्निः) जो सब विद्याओं का प्रकाश
करनेवाला परमेश्वर मनुष्यों के लिये (वर्च्चः) सब विद्याओं के अधिकरण चारों वेदों
को प्रकट करता है। तथा जो (ज्योतिः) बिजुलीरूप से शरीर वा ब्रह्माण्ड में रहनेवाला
अग्नि (वर्च्चः) विद्या और वृष्टि का हेतु है (सूर्यः) जो सब विद्याओं का प्रकाश
करनेवाला जगदीश्वर सब मनुष्यों के लिये (स्वाहा) वेदवाणी से (वर्च्चः) सकल
विद्याओं का प्रकाश और (ज्योतिः) बिजुली,
सूर्य प्रसिद्ध और अग्नि नाम
के तेज का प्रकाश करता है तथा जो (सूर्यः) सूर्यलोक भी (वर्च्चः) शरीर और आत्माओं
के बल का प्रकाश करता है तथा जो (सूर्यः) प्राणवायु (वर्च्चः) सकल विद्या के
प्रकाश करनेवाले ज्ञान को बढ़ाता है और (ज्योतिः) प्रकाशस्वरूप जगदीश्वर अच्छे
प्रकार से हवन किये हुए पदार्थों को अपने रचे हुए पदार्थों में अपनी शक्ति से
सर्वत्र फैलाता है, वही परमात्मा सब मनुष्यों का उपास्य देव और
भौतिक अग्नि कार्य्यसिद्धि का साधन है ॥९॥
भावार्थभाषाः - स्वाहा शब्द का अर्थ निरुक्तकार की रीति से इस मन्त्र में
ग्रहण किया है। अग्नि अर्थात् ईश्वर ने सामर्थ्य करके कारण से अग्नि आदि सब जगत्
को उत्पन्न करके प्रकाशित किया है,
उनमें से अग्नि अपने प्रकाश
से आप वा और सब पदार्थों का प्रकाश करता है तथा परमेश्वर वेद के द्वारा सब
विद्याओं का प्रकाश करता है। इसी प्रकार अग्नि और सूर्य भी शिल्पविद्या का प्रकाश
करते हैं ॥९॥
स॒जूर्दे॒वेन॑ सवि॒त्रा स॒जू
रात्र्येन्द्र॑वत्या। जु॒षा॒णोऽअ॒ग्निर्वे॑तु॒ स्वाहा॑। स॒जूर्दे॒वेन॑ सवि॒त्रा
स॒जूरु॒षसेन्द्र॑वत्या। जु॒षा॒णः सूर्यो॑ वेतु॒ स्वाहा॑ ॥१०॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
भौतिक अग्नि और सूर्य ये दोनों किस की सत्ता से वर्त्तमान
हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -(अग्निः) जो भौतिक अग्नि (देवेन) सब जगत् को
ज्ञान देने वा (सवित्रा) सब जगत् को उत्पन्न करनेवाले ईश्वर के उत्पन्न किये हुए
जगत् के साथ (सजूः) तुल्य वर्तमान (जुषाणः) सेवन करता हुआ (इन्द्रवत्या) बहुत
बिजुली से युक्त (रात्र्या) अन्धकार रूप रात्रि के साथ (स्वाहा) वाणी को सेवन करता
हुआ (वेतु) सब पदार्थों में व्याप्त होता है,
इसी प्रकार (सूर्यः) जो
सूर्यलोक (देवेन) सब को प्रकाश करनेवाले वा (सवित्रा) सब के अन्तर्यामी परमेश्वर
के उत्पन्न वा धारण किये हुए जगत् के साथ (सजूः) तुल्य वर्तमान (जुषाणः) सेवन करता
वा (इन्द्रवत्या) सूर्यप्रकाश से युक्त (उषसा) दिन के प्रकाश के हेतु प्रातःकाल के
साथ (स्वाहा) अग्नि में होम की हुई आहुतियों को (जुषाणः) सेवन करता हुआ व्याप्त
होकर हवन किये हुए पदार्थों को (वेतु) देशान्तरों में पहुँचाता है, उसी
से सब व्यवहार सिद्ध करें ॥१०॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! तुम लोग जो भौतिक अग्नि ईश्वर ने
रचा है, वह इसी की सत्ता से अपने रूप को धारण करता हुआ
दीपक आदि रूप से रात्रि के व्यवहारों को सिद्ध करता है। इसी प्रकार जो (सूर्य)
प्रातःकाल को प्राप्त होकर सब मूर्तिमान् द्रव्यों के प्रकाश करने को समर्थ है, वही
काम सिद्धि करने हारा है, इसको जानो ॥१०॥
उ॒प॒प्र॒यन्तो॑ऽअध्व॒रं मन्त्रं॑
वोचेमा॒ग्नये॑। आ॒रेऽअ॒स्मे च॑ शृण्व॒ते ॥११॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब अगले मन्त्र में ईश्वर ने अपने स्वरूप का प्रकाश किया
है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - (अध्वरम्) क्रियामय यज्ञ को (उपप्रयन्तः)
अच्छे प्रकार जानते हुए हम लोग (अस्मे) जो हम लोगों के (आरे) दूर वा (च) निकट में
(शृण्वते) यथार्थ सत्यासत्य को सुननेवाले (अग्नये) विज्ञानस्वरूप अन्तर्यामी
जगदीश्वर है, इसी के लिये (मन्त्रम्) ज्ञान को प्राप्त
करानेवाले मन्त्रों को (वोचेम) नित्य उच्चारण वा विचार करें ॥११॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को वेदमन्त्रों के साथ ईश्वर की
स्तुति वा यज्ञ के अनुष्ठान को करके जो ईश्वर भीतर-बाहर सब जगह व्याप्त होकर सब
व्यवहारों को सुनता वा जानता हुआ वर्त्तमान है, इस
कारण उससे भय मानकर अधर्म करने की इच्छा भी न करनी चाहिये। जब मनुष्य परमात्मा को
जानता है, तब समीपस्थ और जब नहीं जानता तब दूरस्थ है, ऐसा
निश्चय जानना चाहिये ॥११॥
अ॒ग्निर्मू॒र्द्धा दि॒वः क॒कुत्पतिः॑
पृथि॒व्याऽअ॒यम्। अ॒पाᳬ रेता॑ᳬसि जिन्वति ॥१२॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब अगले मन्त्र में अग्नि शब्द से ईश्वर और भौतिक अग्नि का
प्रकाश किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - (अयम्) जो यह कार्य कारण से प्रत्यक्ष (ककुत्)
सब से बड़ा (मूर्द्धा) सब के ऊपर विराजमान (अग्निः) जगदीश्वर (दिवः) प्रकाशमान
सूर्य आदि लोक और (पृथिव्याः) प्रकाशरहित पृथिवी आदि लोकों का (पतिः) पालन करता
हुआ (अपाम्) प्राणों के (रेतांसि) वीर्यों की (जिन्वति) रचना को जानता है, उसी
को पूज्य मानो ॥१॥ (अयम्) यह अग्नि (ककुत्) सब पदार्थों से बड़ा (दिवः) प्रकाशमान
पदार्थों के (मूर्द्धा) ऊपर विराजमान (पृथिव्याः) प्रकाश रहित पृथिवी आदि लोकों के
(पतिः) पालन का हेतु होकर (अपाम्) जलों के (रेतांसि) वीर्यों को (जिन्वति) प्राप्त
करता है ॥२॥१२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। जो जगदीश्वर प्रकाश वा
अप्रकाशरूप दो प्रकार का जगत् अर्थात् प्रकाशवान् सूर्य आदि और प्रकाशरहित पृथिवी
आदि लोकों को रच कर पालन करके प्राणों में बल को धारण करता है तथा जो भौतिक अग्नि
पृथिवी आदि जगत् के पालन का हेतु होकर बिजुली जाठर आदि रूप से प्राण वा जलों के
वीर्यों को उत्पन्न करता है ॥१२॥
उ॒भा वा॑मिन्द्राग्नीऽआहु॒वध्या॑ऽउ॒भा
राध॑सः स॒ह मा॑द॒यध्यै॑। उ॒भा दा॒तारा॑वि॒षाᳬ र॑यी॒णामु॒भा वाज॑स्य सा॒तये॑ हुवे
वाम् ॥१३॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
अगले मन्त्र में भौतिक अग्नि और वायु का उपदेश किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - मैं जो (उभा) दो (दातारौ) सुख देने के हेतु
(इन्द्राग्नी) वायु और अग्नि हैं (वाम्) उनको (आहुवध्यै) गुण जानने के लिये (हुवे)
ग्रहण करता हूँ (राधसः) उत्तम सुखयुक्त राज्यादि धनों के भोग के (सह) साथ
(मादयध्यै) आनन्द के लिये (वाम्) उन (उभा) दोनों को (हुवे) ग्रहण करता हूँ तथा
(इषाम्) सब को इष्ट (रयीणाम्) अत्यन्त उत्तम चक्रवर्ति राज्य आदि धन वा (वाजस्य)
अत्यन्त उत्तम अन्न के (सातये) अच्छे प्रकार भोग करने के लिये (उभा) उन दोनों को
(हुवे) ग्रहण करता हूँ ॥१३॥
भावार्थभाषाः - (इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है।) जो मनुष्य ईश्वर की
सृष्टि में अग्नि और वायु के गुणों को जान कर कार्यों में संप्रयुक्त करके
अपने-अपने कार्यों को सिद्ध करते हैं,
वे सब भूगोल के राज्य आदि
धनों को प्राप्त होकर आनन्द करते हैं,
इन से भिन्न मनुष्य नहीं
॥१३॥
अ॒यं ते॒ योनि॑र्ऋ॒त्वियो॒ यतो॑ जा॒तोऽअरो॑चथाः।
तं जा॒नन्न॑ग्न॒ऽआरो॒हाथा॑ नो वर्द्धया र॒यिम् ॥१४॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर भी अगले मन्त्र में ईश्वर और भौतिक अग्नि का उपदेश
किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) जगदीश्वर ! (ते) आपकी सृष्टि में
जो (ऋत्वियः) ऋतु-ऋतु में प्राप्ति कराने योग्य अग्नि और जो वायु से (जातः)
प्रसिद्ध हुआ (अरोचथाः) सब प्रकार प्रकाश करता है वा जो सूर्य आदि रूप से
प्रकाशवाले लोकों की (आरोह) उन्नति को सब ओर से बढ़ाता है और जो (नः) हमारे
(रयिम्) राज्य आदि धन को बढ़ाता है (तम्) उस अग्नि को (जानन्) जानते हुए आप उससे
(नः) हमारे (रयिम्) सब भूगोल के राज्य आदि से सिद्ध हुए धन को (वर्द्धय)
वृद्धियुक्त कीजिये ॥१४॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को जो सब काल में यथावत् उपयोग करने योग्य वा जो
वायु के निमित्त से उत्पन्न हुआ तथा जो अनेक कार्य्यों की सिद्धिरूप कारण से सब को
सुख देता है, उस अग्नि को यथावत् जानकर उसका उपयोग करके सब
कार्य्यों की सिद्धि करनी चाहिये ॥१४॥
अ॒यमि॒ह प्र॑थ॒मो धा॑यि धा॒तृभि॒र्होता॒
यजि॑ष्ठोऽअध्व॒रेष्वीड्यः॑। यमप्न॑वानो॒ भृग॑वो विरुरु॒चुर्वने॑षु चि॒त्रं
वि॒भ्वं᳖ वि॒शेवि॑शे ॥१५॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर वह अग्नि कैसा है, इस
विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -(अप्नवानः) विद्या सन्तान अर्थात विद्या
पढ़ाकर विद्वान् कर देनेवाले (भृगवः) यज्ञविद्या के जाननेवाले विद्वान् लोग (इह)
इस संसार में (वनेषु) अच्छे प्रकार सेवन करने योग्य (अध्वरेषु) उपासना अग्निहोत्र
से लेकर अश्वमेधपर्यन्त और शिल्पविद्यामय यज्ञों में (विशेविशे) प्रजा-प्रजा के प्रति
(विभ्वम्) व्याप्त स्वभाव वा (चित्रम्) आश्चर्यगुणवाले (यम्) जिस ईश्वर और अग्नि
को (विरुरुचुः) विशेष कर के प्रकाशित करते हैं (अयम्) वही (धातृभिः) यज्ञक्रिया के
धारण करनेवाले विद्वान् लोगों को (ईड्यः) खोज करने योग्य (प्रथमः) यज्ञक्रिया का
आदि साधन (होता) यज्ञ का ग्रहण करनेवाला (यजिष्ठः) उपासना और शिल्पविद्या का हेतु
है, उसका (इह) इस संसार में (धायि) धारण करते हैं
॥१५॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। विद्वान् लोग
यज्ञ की सिद्धि के लिये मुख्य करके उपास्यदेव और साधन भौतिक अग्नि को ग्रहण करके
इस संसार में प्रजा के सुखों को नित्य सिद्ध करें ॥१५॥
अ॒स्य प्र॒त्नामनु॒ द्युत॑ꣳ शु॒क्रं
दु॑दुह्रे॒ऽअह्र॑यः। पयः॑ सहस्र॒सामृषि॑म् ॥१६॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर वह कैसा है,
इस विषय का उपदेश अगले
मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -(अह्रयः) सब विद्याओं को व्याप्त करानेवाले
विद्वान् लोग (अस्य) इस भौतिक अग्नि की (सहस्रसाम्) असंख्यात कार्यों को देने वा
(ऋषिम्) कार्यसिद्धि के प्राप्ति का हेतु (प्रत्नाम्) प्राचीन अनादिस्वरूप से नित्य
वर्त्तमान (द्युतम्) कारण में रहनेवाली दीप्ति को जानकर (शुक्रम्) शुद्ध कार्यों
को सिद्ध करनेवाले (पयः) जल को (अनु दुदुह्रे) अच्छे प्रकार पूरण करते हैं अर्थात्
अग्नि में हवनादि करके वृष्टि से संसार को पूरण करते हैं ॥१६॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को जैसे गुणसहित अग्नि का कारणरूप वा
अनादिपन से नित्यपन जानना योग्य है,
वैसे ही जगत् के अन्य
पदार्थों का भी कारणरूप से अनादिपन जानना चाहिये। इनको जानकर कार्यों में उपयुक्त
करके सब व्यवहारों की सिद्धि करनी चाहिये ॥१६॥
त॒नू॒पाऽअ॑ग्नेऽसि त॒न्वं᳖ मे
पाह्यायु॑र्दाऽअ॑ग्ने॒ऽस्यायु॑र्मे देहि वर्चो॒दाऽअ॑ग्नेऽसि॒ वर्चो॑ मे देहि।
अग्ने॒ यन्मे॑ त॒न्वा᳖ऽऊ॒नं तन्म॒ऽआपृ॑ण ॥१७॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब ईश्वर और भौतिक अग्नि क्या करते हैं, इस
विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है।
पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) जगदीश्वर ! (यत्) जिस कारण आप
(तनूपाः) सब मूर्तिमान् पदार्थों के शरीरों की रक्षा करनेवाले (असि) हैं इससे आप
(मे) मेरे (तन्वम्) शरीर की (पाहि) रक्षा कीजिये। हे (अग्ने) परमेश्वर ! आप
(आयुर्दाः) सब को आयु के देनेवाले (असि) हैं,
वैसे (मे) मेरे लिये (आयुः)
पूर्ण आयु अर्थात् सौ वर्ष तक जीवन (देहि) दीजिये। हे (अग्ने) सर्वविद्यामय ईश्वर
! जैसे आप (वर्च्चोदाः) सब मनुष्यों को विज्ञान देनेवाले (असि) हैं, वैसे
(मे) मेरे लिये भी ठीक-ठीक गुण ज्ञानपूर्वक (वर्च्चः) पूर्ण विद्या को (देहि)
दीजिये। हे (अग्ने) सब कामों को पूरण करनेवाले परमेश्वर ! (मे) मेरे (तन्वाः) शरीर
में (यत्) जितना (ऊनम्) बुद्धि बल और शौर्य आदि गुण कर्म हैं (तत्) उतना अङ्ग (मे)
मेरा (आपृण) अच्छे प्रकार पूरण कीजिये ॥१॥ (अग्ने) यह भौतिक अग्नि (यत्) जैसे
(तनूपाः) पदार्थों की रक्षा का हेतु (असि) है, वैसे
जाठराग्नि रूप से (मे) मेरे (तन्वम्) शरीर की (पाहि) रक्षा करता है (अग्ने) जैसे
ज्ञान का निमित्त यह अग्नि (आयुर्दाः) सब के जीवन का हेतु (असि) है वैसे (मे) मेरे
लिये भी (आयुः) जीवन के हेतु क्षुधा आदि गुणों को (देहि) देता है। (अग्ने) यह
अग्नि जैसे (वर्च्चोदाः) विज्ञानप्राप्ति का हेतु (असि) है, वैसे
(मे) मेरे लिये भी (वर्च्चः) विद्याप्राप्ति के निमित्त बुद्धिबलादि को (देहि)
देता है तथा (अग्ने) जो कामना के पूरण करने में हेतु भौतिक अग्नि है, वह
(यत्) जितना (मे) मेरे (तन्वाः) शरीर में बुद्धि आदि सामर्थ्य (ऊनम्) कम है (तत्)
उतना गुण (आपृण) पूरण करता है ॥२॥१७॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। जिस कारण परमेश्वर ने इस
संसार में सब प्राणियों के लिये शरीर के आयुनिमित्त विद्या का प्रकाश और सब अङ्गों
की पूर्णता रची है, इसी से सब पदार्थ अपने-अपने स्वरूप को धारण
करते हैं। इसी प्रकार परमेश्वर की सृष्टि में प्रकाश आदि गुणवान् होने से यह अग्नि
भी सब पदार्थों के पालन का मुख्य साधन है ॥१७॥
इन्धाना॑स्त्वा श॒तꣳ हिमा॑ द्यु॒मन्त॒ꣳ
समि॑धीमहि। वय॑स्वन्तो वय॒स्कृत॒ꣳ सह॑स्वन्तः सह॒स्कृत॑म्। अग्ने॑
सपत्न॒दम्भ॑न॒मद॑ब्धासो॒ऽअदा॑भ्यम्। चित्रा॑वसो स्व॒स्ति ते॑ पा॒रम॑शीय ॥१८॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर भी अगले मन्त्र में परमेश्वर और भौतिक अग्नि का प्रकाश
किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे (चित्रावसो) आश्चर्यरूप धनवाले (अग्ने)
परमेश्वर ! (अदब्धासः) दम्भ,
अहङ्कार और हिंसादि दोषरहित
(वयस्वन्तः) प्रशंसनीय पूर्ण अवस्थायुक्त (सहस्वन्तः) अत्यन्त सहन स्वभावसहित
(अदाभ्यम्) मानने योग्य (सपत्नदम्भनम्) शत्रुओं के नाश करने (वयस्कृतम्) अवस्था की
पूर्ति करने (सहस्कृतम्) सहन करने-कराने तथा (द्युमन्तम्) अनन्त प्रकाशवाले (त्वा)
आपका (इन्धानाः) उपदेश और श्रवण करते हुए हम लोग (शतम्) सौ वर्ष तक वा सौ से अधिक
(हिमाः) हेमन्त ऋतुयुक्त (समिधीमहि) अच्छे प्रकार प्रकाश करें वा जीवें। इस प्रकार
करता हुआ मैं भी जो (ते) आपकी कृपा से सब दुःखों से (पारम्) पार होकर (स्वस्ति)
सुख को (अशीय) प्राप्त होऊँ ॥१॥ (अदब्धासः) दम्भ, अहङ्कार, हिंसादि
दोषरहित (वयस्वन्तः) पूर्ण अवस्थायुक्त (सहस्वन्तः) अत्यन्त सहन करनेवाले (त्वा)
उस (अदाभ्यम्) उपयोग करने योग्य (सपत्नदम्भनम्) आग्नेयादि शस्त्र-अस्त्रविद्या में
हेतु होने से शत्रुओं को जिताने (वयस्कृतम्) अवस्था को बढ़ाने (सहस्कृतम्) सहन का
हेतु (द्युमन्तम्) अच्छे प्रकार प्रकाशयुक्त (अग्ने) कार्यों को प्राप्त करानेवाले
भौतिक अग्नि को (इन्धानाः) प्रज्वलित करते हुए हम लोग (शतम्) सौ वर्ष पर्यन्त (हिमाः)
हेमन्त ऋतुयुक्त (समिधीमहि) जीवें। इस प्रकार करता हुआ मैं भी जो यह (चित्रावसो)
आश्चर्यरूप धन के प्राप्ति का हेतु अग्नि है (ते) उसके प्रकाश से दारिद्र्य आदि
दुःखों से (पारम्) पार होकर (स्वस्ति) अत्यन्त सुख को (अशीय) प्राप्त होऊँ ॥२॥१८॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। मनुष्यों को
अपने पुरुषार्थ, ईश्वर की उपासना तथा अग्नि आदि पदार्थों से
उपकार लेके दुःखों से पृथक् होकर उत्तम-उत्तम सुखों को प्राप्त होकर सौ वर्ष जीना
चाहिये अर्थात् क्षण भर भी आलस्य में नहीं रहना, किन्तु
जैसे पुरुषार्थ की वृद्धि हो वैसा अनुष्ठान निरन्तर करना चाहिये ॥१८॥
सं त्वम॑ग्ने॒ सूर्य॑स्य॒ वर्च्च॑सागथाः॒
समृषी॑णा स्तु॒तेन॑। सं प्रि॒येण॒ धाम्ना॒ सम॒हमायु॑षा॒ सं वर्च॑सा॒ सं प्र॒जया॒
संꣳरा॒यस्पोषे॑ण ग्मिषीय ॥१९॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर भी परमेश्वर और अग्नि कैसे हैं, सो
अगले मन्त्र में प्रकाशित किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) जगदीश्वर ! जो आप (सूर्यस्य) सब
के अन्तर्गत प्राण वा (ऋषीणाम्) वेदमन्त्रों के अर्थों को देखनेवाले विद्वानों की
जिस (संस्तुतेन) स्तुति करने (संप्रियेण) प्रसन्नता से मानने (संवर्चसा)
विद्याध्ययन और प्रकाश करने (धाम्ना) स्थान (समायुषा) उत्तम जीवन (संप्रजया)
सन्तान वा राज्य और (रायस्पोषेण) उत्तम धनों के भोग पुष्टि के साथ (समगथाः)
प्राप्त होते हैं। उसी के साथ (अहम्) मैं भी सब सुखों को (संग्मिषीय) प्राप्त होऊँ
॥१॥१९॥ जो (अग्ने) भौतिक अग्नि पूर्व कहे हुए सबों के (समगथाः) सङ्गत होकर प्रकाश
को प्राप्त होता है, उस सिद्ध किये हुए अग्नि के साथ (अहम्) मैं
व्यवहार के सब सुखों को (संग्मिषीय) प्राप्त होऊँ ॥२॥१९॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। मनुष्य लोग ईश्वर की
आज्ञा का पालन, अपना पुरुषार्थ और अग्नि आदि पदार्थों के
संप्रयोग से इन सब सुखों को प्राप्त होते हैं ॥१९॥
अन्ध॒ स्थान्धो॑ वो भक्षीय॒ मह॑ स्थ॒ महो॑
वो भक्षी॒योर्ज॒ स्थोर्जं॑ वो भक्षीय रा॒यस्पोष॑ स्थ रा॒यस्पोषं॑ वो भक्षीय ॥२०॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब अगले मन्त्र में यज्ञ से शुद्ध किये ओषधी आदि पदार्थों
का उपदेश किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - जो (अन्धः) बलवान् वृक्ष वा ओषधि आदि पदार्थ
(स्थ) हैं (वः) उनके प्रकाश से मैं (अन्धः) वीर्य को पुष्ट करनेवाले अन्नों को
(भक्षीय) ग्रहण करूँ। जो (महः) बड़े-बड़े वायु अग्नि आदि वा विद्या आदि पदार्थ
(स्थ) हैं (वः) उनसे मैं (महः) बड़ी-बड़ी क्रियाओं को सिद्धि करनेवाले कर्मों का
(भक्षीय) सेवन करूँ। जो (ऊर्जः) जल,
दूध, घी, मिष्ट
वा फल आदि रसवाले पदार्थ (स्थ) हैं (वः) उनसे मैं (ऊर्जम्) पराक्रमयुक्त रस का
(भक्षीय) भोग करूँ और जो (रायस्पोषः) अनेक गुणयुक्त पदार्थ (स्थ) हैं (वः) उन
चक्रवर्तिराज्य और श्री आदि पदार्थों के मैं (रायस्पोषम्) उत्तम-उत्तम धनों के भोग
का (भक्षीय) सेवन करूँ ॥२०॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को जगत् के पदार्थों के
गुणज्ञानपूर्वक क्रिया की कुशलता से उपकार को ग्रहण करके सब सुखों का भोग करना
चाहिये ॥२०॥
रेव॑ती॒ रम॑ध्वम॒स्मिन् योना॑व॒स्मिन्
गो॒ष्ठे᳕ऽस्मिँल्लो॒के᳕ऽस्मिन् क्षये॑। इ॒हैव स्त॒ माप॑गात ॥२१॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब विद्वानों के सत्कार के लिये उपदेश अगले मन्त्र में
किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो (रेवतीः) विद्या, धन, इन्द्रिय, पशु
और पृथिवी के राज्य आदि से युक्त श्रेष्ठ नीति (स्त) हैं वे (अस्मिन्) इस (योनौ)
जन्मस्थल (अस्मिन् गोष्ठे) इन्द्रिय वा पशु आदि के रहने के स्थान (अस्मिँल्लोके)
संसार वा (अस्मिन् क्षये) अपने रचे हुए घरों में (रमध्वम्) रमण करें, ऐसी
इच्छा करते हुए तुम लोग (इहैव) इन्हीं में प्रवृत्त होओ अर्थात् (मापगात) इनसे दूर
कभी मत जाओ ॥२१॥
भावार्थभाषाः - जहाँ विद्वान् लोग निवास करते हैं, वहाँ
प्रजा विद्या, उत्तम शिक्षा और धनवाली होकर निरन्तर सुखों से
युक्त होती है। इससे मनुष्यों को ऐसी इच्छा करनी चाहिये कि हमारा और विद्वानों का
नित्य समागम बना रहे अर्थात् कभी हम लोग विरोध से पृथक् न होवें ॥२१॥
स॒ꣳहि॒तासि॑ विश्वरू॒प्यू᳕र्जा मावि॑श
गौप॒त्येन॑। उप॑ त्वाग्ने दि॒वेदि॑वे॒ दोषा॑वस्तर्धि॒या व॒यम्। नमो॒ भर॑न्त॒ऽएम॑सि
॥२२॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब अगले मन्त्र में अग्निशब्द से बिजुली के कर्मों का
उपदेश किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - (नमः) अन्न को (भरन्तः) धारण करते हुए हम लोग
(धिया) अपनी बुद्धि वा कर्म से जो (अग्ने) अग्नि बिजुली रूप से सब पदार्थों के
(संहिता) साथ (ऊर्जा) वेग वा पराक्रम आदि गुणयुक्त (विश्वरूपी) सब पदार्थों में
रूपगुणयुक्त (गौपत्येन) इन्द्रिय वा पशुओं के पालन करनेवाले जीव के साथ वर्त्तमान
से (मा) मुझ में (आविश) प्रवेश करता है (त्वा) उस (दोषावस्तः) रात्रि को अपने तेज
से दूर करनेवाले (अग्ने) विद्युद्रूप अग्नि को (दिवेदिवे) ज्ञान के प्रकाश होने के
लिये प्रतिदिन (उपैमसि) समीप प्राप्त करते हैं ॥२२॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को ऐसा जानना चाहिये कि जिस ईश्वर ने
सब जगह मूर्त्तिमान् द्रव्यों में बिजुलीरूप से परिपूर्ण सब रूपों का प्रकाश करने, चेष्टा
आदि व्यवहारों का हेतु विचित्र गुणवाला अग्नि रचा है, उसी
की उपासना नित्य करनी चाहिये ॥२२॥
राज॑न्तमध्व॒राणां॑ गो॒पामृ॒तस्य॒
दीदि॑विम्। वर्द्ध॑मान॒ꣳ स्वे दमे॑ ॥२३॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर ईश्वर और अग्नि के गुणों का उपदेश अगले मन्त्र में
किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - (नमः) अन्न से सत्कारपूर्वक (भरन्तः) धारण
करते हुए हम लोग (धिया) बुद्धि वा कर्म से (अध्वराणाम्) अग्निहोत्र से लेकर
अश्वमेधपर्यन्त यज्ञ वा (गोपाम्) इन्द्रिय पृथिव्यादि की रक्षा करने (राजन्तम्)
प्रकाशमान (ऋतस्य) अनादि सत्यस्वरूप कारण के (दीदिविम्) व्यवहार को करने वा (स्वे)
अपने (दमे) मोक्षरूप स्थान में (वर्धमानम्) वृद्धि को प्राप्त होनेवाले परमात्मा को
(उपैमसि) नित्य प्राप्त होते हैं ॥१॥२३॥ जिस परमात्मा ने (अध्वराणाम्)
शिल्पविद्यासाध्य यज्ञ वा (गोपाम्) पश्वादि की रक्षा करने[वाला, (राजन्तम्)
प्रकाशमान] (ऋतस्य) जल के (दीदिविम्) व्यवहार को प्रकाश करनेवाला (स्वे) अपने
(दमे) शान्तस्वरूप में (वर्धमानम्) वृद्धि को प्राप्त होता हुआ अग्नि प्रकाशित
किया है, उसको (नमः) सत्क्रिया से (भरन्तः) धारण करते
हुए हम लोग (धिया) बुद्धि और कर्म से (उपैमसि) नित्य प्राप्त होते हैं ॥२॥२३॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है और नमः, भरन्तः, धिया, उप, आ, इमसि, इन
छः पदों की अनुवृत्ति पूर्वमन्त्र से जाननी चाहिये। परमेश्वर आदि रहित सत्यकारणरूप
से सम्पूर्ण कार्यों को रचता और भौतिक अग्नि जल की प्राप्ति के द्वारा सब
व्यवहारों को सिद्ध करता है,
ऐसा मनुष्यों को जानना
चाहिये ॥२३॥
स नः॑ पि॒तेव॑ सू॒नवेऽग्ने॑ सूपाय॒नो भ॑व।
सच॑स्वा नः स्व॒स्तये॑ ॥२४॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब अगले मन्त्र में ईश्वर ही का उपदेश किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) जगदीश्वर ! जो आप कृपा करके जैसे
(सूनवे) अपने पुत्र के लिये (पितेव) पिता अच्छे-अच्छे गुणों को सिखलाता है, वैसे
(नः) हमारे लिये (सूपायनः) श्रेष्ठ ज्ञान के देनेवाले (भव) हैं, वैसे
(सः) सो आप (नः) हम लोगों को (स्वस्तये) सुख के लिये निरन्तर (सचस्व) संयुक्त
कीजिये ॥२४॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे सब के पालन
करनेवाले परमेश्वर ! जैसे कृपा करनेवाला कोई विद्वान् मनुष्य अपने पुत्रों की
रक्षा कर श्रेष्ठ-श्रेष्ठ शिक्षा देकर विद्या, धर्म
अच्छे-अच्छे स्वभाव और सत्य विद्या आदि गुणों में संयुक्त करता है, वैसे
ही आप हम लोगों की निरन्तर रक्षा करके श्रेष्ठ-श्रेष्ठ व्यवहारों में संयुक्त
कीजिये ॥२४॥
अग्ने॒ त्वं नो॒ऽअन्त॑मऽउ॒त त्रा॒ता शि॒वो
भ॑वा वरू॒थ्यः᳖। वसु॑र॒ग्निर्वसु॑श्रवा॒ऽअच्छा॑ नक्षि द्यु॒मत्त॑मꣳ र॒यिं दाः॑
॥२५॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर वह कैसा है,
इस विषय का उपदेश अगले
मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) सब की रक्षा करनेवाले जगदीश्वर !
जो (त्वम्) आप (वसुश्रवाः) सब को सुनने के लिये श्रेष्ठ कानों को देने (वसुः) सब
प्राणी जिसमें वास करते हैं वा सब प्राणियों के बीच में बसने हारे और (अग्निः)
विज्ञानप्रकाशयुक्त (नक्षि) सब जगह व्याप्त अर्थात् रहनेवाले हैं, सो
आप (नः) हम लोगों के (अन्तमः) अन्तर्यामी वा जीवन के हेतु (त्राता) रक्षा करनेवाले
(वरूथ्यः) श्रेष्ठ गुण, कर्म और स्वभाव में होने (शिवः) तथा मङ्गलमय
मङ्गल करनेवाले (भव) हूजिये और (उत) भी (नः) हम लोगों के लिये (द्युमत्तमम्) उत्तम
प्रकाशों से युक्त (रयिम्) विद्याचक्रवर्ति आदि धनों को (अच्छ दाः) अच्छे प्रकार
दीजिये ॥२५॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को ऐसा जानना चाहिये कि परमेश्वर को
छोड़कर और हमारी रक्षा करने वा सब सुखों के साधनों का देनेवाला कोई नहीं है, क्योंकि
वही अपने सामर्थ्य से सब जगह परिपूर्ण हो रहा है ॥२५॥
तं त्वा॑ शोचिष्ठ दीदिवः सु॒म्नाय॑
नू॒नमी॑महे॒ सखि॑भ्यः। स नो॑ बोधि श्रु॒धी हव॑मुरु॒ष्या णो॑ऽअघाय॒तः स॑मस्मात्
॥२६॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर वह कैसा है,
इस विषय का उपदेश अगले
मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे (शोचिष्ठ) अत्यन्त शुद्धस्वरूप (दीदिवः)
स्वयं प्रकाशमान आनन्द के देनेवाले जगदीश्वर ! हम लोग वा (नः) अपने (सखिभ्यः)
मित्रों के (सुम्नाय) सुख के लिये (तं त्वा) आप से (ईमहे) याचना करते हैं तथा जो
आप (नः) हम को (बोधि) अच्छे प्रकार विज्ञान को देते हैं (सः) सो आप (नः) हमारे
(हवम्) सुनने-सुनाने योग्य स्तुतिसमूह यज्ञ को (श्रुधि) कृपा करके श्रवण कीजिये और
(नः) हम को (समस्मात्) सब प्रकार (अघायतः) पापाचरणों से अर्थात् दूसरे को पीड़ा
करने रूप पापों से (उरुष्य) अलग रखिये ॥२६॥
भावार्थभाषाः - सब मनुष्यों को अपने मित्र और सब प्राणियों के सुख के
लिये परमेश्वर की प्रार्थना करना और वैसा ही आचरण भी करना कि जिससे प्रार्थित किया
हुआ परमेश्वर अधर्म से अलग होने की इच्छा करनेवाले मनुष्यों को अपनी सत्ता से
पापों से पृथक् कर देता है,
वैसे ही उन मनुष्यों को भी
पापों से बचकर धर्म के करने में निरन्तर प्रवृत्त होना चाहिये ॥२६॥
इड॒ऽएह्यदि॑त॒ऽएहि॒ काम्या॒ऽएत॑। मयि॑ वः
काम॒धर॑णं भूयात् ॥२७॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर उस की प्रार्थना किसलिये करनी चाहिये, इस
विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे परमेश्वर ! आपकी कृपा से (इडे) यह पृथिवी
मुझ को राज्य करने के लिये (एहि) अवश्य प्राप्त हो तथा (अदिते) सब सुखों को
प्राप्त करनेवाली नाशरहित राजनीति (एहि) प्राप्त हो। इसी प्रकार हे मघवन् ! अपनी
पृथिवी और राजनीति के द्वारा (काम्याः) इष्ट-इष्ट पदार्थ (एत) प्राप्त हों तथा
(मयि) मेरे बीच में (वः) उन पदार्थों की (कामधरणम्) स्थिरता (भूयात्) यथावत् हो
॥२७॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को उत्तम-उत्तम पदार्थों की कामना
निरन्तर करनी तथा उनकी प्राप्ति के लिये परमेश्वर की प्रार्थना और सदा पुरुषार्थ
करना चाहिये। कोई मनुष्य अच्छी वा बुरी कामना के विना क्षणभर भी स्थित होने को
समर्थ नहीं हो सकता, इससे सब मनुष्यों को अधर्मयुक्त व्यवहारों की
कामना को छोड़कर धर्मयुक्त व्यवहारों की जितनी इच्छा बढ़ सके, उतनी
बढ़ानी चाहिये ॥२७॥
सो॒मान॒ꣳ स्वर॑णं कृणु॒हि ब्र॑ह्मणस्पते।
क॒क्षीव॑न्तं॒ यऽऔ॑शि॒जः ॥२८॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर उस जगदीश्वर की किसलिये प्रार्थना करनी चाहिये, इस
विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे (ब्रह्मणस्पते) सनातन वेदशास्त्र के पालन
करनेवाले जगदीश्वर ! आप (यः) जो मैं (औशिजः) सब विद्याओं के प्रकाश करनेवाले
विद्वान् के पुत्र के तुल्य हूँ,
उस मुझ को (कक्षीवन्तम्)
विद्या पढ़ने में उत्तम नीतियों से युक्त (स्वरणम्) सब विद्याओं का कहने और
(सोमानम्) औषधियों के रसों का निकालने तथा विद्या की सिद्धि करनेवाला (कृणुहि)
कीजिये। ऐसा ही व्याख्यान इस मन्त्र का निरुक्तकार यास्कमुनि जी ने भी किया है, सो
पूर्व लिखे हुए संस्कृत में देख लेना ॥२८॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में लुप्तोपमालङ्कार है। पुत्र दो
प्रकार के होते हैं, एक तो औरस अर्थात् जो अपने वीर्य से उत्पन्न
होता और दूसरा जो विद्या पढ़ाने के लिये विद्वान् किया जाता है। हम सब मनुष्यों को
इसलिये ईश्वर की प्रार्थना करनी चाहिये कि जिससे हम लोग विद्या से प्रकाशित सब
क्रियाओं में कुशल और प्रीति से विद्या के पढ़ानेवाले पुत्रों से युक्त हों ॥२८॥
यो रे॒वान् योऽअ॑मीव॒हा व॑सु॒वित्
पु॑ष्टि॒वर्द्ध॑नः। स नः॑ सिषक्तु॒ यस्तु॒रः ॥२९॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर वह ईश्वर कैसा है, इस
विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - (यः) जो वेदशास्त्र का पालन करने (रेवान्)
विद्या आदि अनन्त धनवान् (अमीवहा) अविद्या आदि रोगों को दूर करने वा कराने (वसुवित्)
सब वस्तुओं को यथावत् जानने (पुष्टिवर्द्धनः) पुष्टि अर्थात् शरीर वा आत्मा के बल
को बढ़ाने और (तुरः) अच्छे कामों में जल्दी प्रवेश करने वा करानेवाला जगदीश्वर है
(सः) वह (नः) हम लोगों को उत्तम-उत्तम कर्म वा गुणों के साथ (सिषक्तु) संयुक्त करे
॥२९॥
भावार्थभाषाः - जो इस संसार में धन है सो सब जगदीश्वर का ही
है। मनुष्य लोग जैसी परमेश्वर की प्रार्थना करें, वैसा
ही उनको पुरुषार्थ भी करना चाहिये। जैसे विद्या आदि धनवाला परमेश्वर है, ऐसा
विशेषण ईश्वर का कह वा सुन कर कोई मनुष्य कृतकृत्य अर्थात् विद्या आदि धनवाला नहीं
हो सकता, किन्तु अपने पुरुषार्थ से विद्या आदि धन की
वृद्धि वा रक्षा निरन्तर करनी चाहिये। जैसे परमेश्वर अविद्या आदि रोगों को दूर
करनेवाला है, वैसे मनुष्यों को भी उचित है कि आप भी अविद्या
आदि रोगों को निरन्तर दूर करें। जैसे वह वस्तुओं को यथावत् जानता है, वैसे
मनुष्यों को भी उचित है कि अपने सामर्थ्य के अनुसार सब पदार्थविद्याओं को यथावत्
जानें। जैसे वह सब की पुष्टि को बढ़ाता है,
वैसे मनुष्य भी सब के पुष्टि
आदि गुणों को निरन्तर बढ़ावें। जैसे वह अच्छे-अच्छे कार्यों को बनाने में शीघ्रता
करता है, वैसे मनुष्य भी उत्तम-उत्तम कार्यों को त्वरा
से करें और जैसे हम लोग उस परमेश्वर की उत्तम कर्मों के लिये प्रार्थना निरन्तर
करते हैं, वैसे परमेश्वर भी हम सब मनुष्यों को उत्तम
पुरुषार्थ से उत्तम-उत्तम गुण वा कर्मों के आचरण के साथ निरन्तर संयुक्त करें ॥२९॥
मा नः॒ शꣳसो॒ऽअर॑रुषो धू॒र्तिः प्रण॒ङ्
मर्त्य॑स्य। रक्षा॑ णो ब्रह्मणस्पते ॥३०॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर भी उस परमेश्वर की प्रार्थना किसलिये करनी चाहिये, इस
विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे (ब्रह्मणस्पते) जगदीश्वर ! आपकी कृपा से
(नः) हमारी वेदविद्या (मा, प्रणक्) कभी नष्ट मत हो और जो (अररुषः) दान
आदि धर्मरहित परधन ग्रहण करनेवाले (मर्त्यस्य) मनुष्य की (धूर्तिः) हिंसा अर्थात्
द्रोह है, उस से (नः) हम लोगों की निरन्तर (रक्ष) रक्षा
कीजिये ॥३०॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को सदा उत्तम-उत्तम काम करना और
बुरे-बुरे काम छोड़ना तथा किसी के साथ द्रोह वा दुष्टों का सङ्ग भी न करना और धर्म
की रक्षा वा परमेश्वर की उपासना स्तुति और प्रार्थना निरन्तर करनी चाहिये ॥३०॥
महि॑ त्री॒णामवो॑ऽस्तु द्यु॒क्षं
मि॒त्रस्या॑र्य॒म्णः। दु॒रा॒धर्षं॒ वरु॑णस्य ॥३१॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर भी उसकी प्रार्थना किसलिये करना चाहिये, इस
विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे (ब्रह्मणस्पते) जगदीश्वर ! आपकी कृपा से
(मित्रस्य) बाहर वा भीतर रहनेवाला जो प्राणवायु तथा (अर्यम्णः) जो आकर्षण से
पृथिवी आदि पदार्थों को धारण करनेवाला सूर्य्यलोक और (वरुणस्य) जल (त्रीणाम्) इन
तीनों के प्रकाश से (नः) हम लोगों के (द्युक्षम्) जिस में नीति का प्रकाश निवास
करता है वा (दुराधर्षम्) अतिकष्ट से ग्रहण करने योग्य दृढ़ (महि) बड़े वेदविद्या
की (अवः) रक्षा (अस्तु) हो ॥३१॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में पूर्व मन्त्र से (ब्रह्मणस्पते, नः)
इन दो पदों की अनुवृत्ति जाननी चाहिये। मनुष्यों को सब पदार्थों से अपनी वा औरों
की न्यायपूर्वक रक्षा करके यथावत् राज्य का पालन करना चाहिये ॥३१॥
न॒हि तेषा॑म॒मा च॒न नाध्व॑सु वार॒णेषु॑।
ईशे॑ रि॒पुर॒घश॑ꣳसः ॥३२॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर वह कैसा है,
इस विषय का उपदेश अगले
मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - जो ईश्वर की उपासना करनेवाले मनुष्य हैं
(तेषाम्) उनके (अमा) गृह (अध्वसु) मार्ग और (वारणेषु) चोर, शत्रु, डाकू, व्याघ्र
आदि के निवारण करनेवाले संग्रामों में (चन) भी (अघशंसः) पापरूप कर्मों का कथन
करनेवाला (रिपुः) शत्रु (नहि) नहीं स्थित होता और (न) न उनको क्लेश देने को समर्थ
हो सकता, उस ईश्वर और उन धार्मिक विद्वानों के प्राप्त
होने को मैं (ईशे) समर्थ होता हूँ ॥३२॥
भावार्थभाषाः - जो धर्मात्मा वा सब के उपकार करनेवाले मनुष्य हैं, उनको
भय कहीं नहीं होता और शत्रुओं से रहित मनुष्य का कोई शत्रु भी नहीं होता ॥३२॥
ते हि पु॒त्रासो॒ऽअदि॑तेः॒ प्र जी॒वसे॒
मर्त्या॑य। ज्योति॒र्यच्छ॒न्त्यज॑स्रम् ॥३३॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
आदित्यों के क्या-क्या कर्म हैं, इस
विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - जो (अदितेः) नाशरहित कारणरूपी शक्ति के
(पुत्रासः) बाहिर भीतर रहनेवाले प्राण,
सूर्यलोक, पवन
और जल आदि पुत्र हैं (ते) वे (हि) ही (मर्त्याय) मनुष्यों के मरने वा (जीवसे) जीने
के लिये (अजस्रम्) निरन्तर (ज्योतिः) तेज या प्रकाश को (यच्छन्ति) देते हैं ॥३३॥
भावार्थभाषाः - जो ये कारणरूपी समर्थ पदार्थों के उत्पन्न हुए प्राण, सूर्यलोक, वायु
वा जल आदि पदार्थ हैं, वे ज्योति अर्थात् तेज को देते हुए सब
प्राणियों के जीवन वा मरने के लिये निमित्त होते हैं ॥३३॥
क॒दा च॒न स्त॒रीर॑सि॒ नेन्द्र॑ सश्चसि
दा॒शुषे॑। उपो॒पेन्नु म॑घव॒न् भूय॒ऽइन्नु ते॒ दानं॑ दे॒वस्य॑ पृच्यते ॥३४॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
वह इन्द्र कैसा है,
इस विषय का उपदेश अगले
मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) सुख देनेवाले ईश्वर ! जो आप
(स्तरीः) सुखों से आच्छादन करनेवाले (असि) हैं और (दाशुषे) विद्या आदि दान
करनेवाले मनुष्य के लिये (कदाचन) कभी (इत्) ज्ञान को (नु) शीघ्र (सश्चसि) प्राप्त
(न) नहीं करते तो उस काल में हे (मघवन्) विद्यादि धनवाले जगदीश्वर ! (देवस्य) कर्म
फल के देनेवाले (ते) आपके (दानम्) दिये हुए (इत्) ही ज्ञान को (दाशुषे) विद्यादि
देनेवाले के लिये (भूयः) फिर (नु) शीघ्र (उपोपपृच्यते) प्राप्त (कदाचन) कभी (न)
नहीं होता ॥३४॥
भावार्थभाषाः - जो जगदीश्वर कर्म के फल को देनेवाला नहीं होता
तो कोई भी प्राणी व्यवस्था के साथ किसी कर्म के फल को प्राप्त नहीं हो सकता ॥३४॥
तत् स॑वि॒तुर्वरे॑ण्यं॒ भर्गो॑ दे॒वस्य॑
धीमहि। धियो॒ यो नः॑ प्रचो॒दया॑त् ॥३५॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
उस जगदीश्वर की कैसी स्तुति, प्रार्थना
और उपासना करनी चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हम लोग (सवितुः) सब जगत् के उत्पन्न करने वा
(देवस्य) प्रकाशमय शुद्ध वा सुख देनेवाले परमेश्वर का जो (वरेण्यम्) अति श्रेष्ठ
(भर्गः) पापरूप दुःखों के मूल को नष्ट करनेवाला तेजःस्वरूप है (तत्) उसको (धीमहि)
धारण करें और (यः) जो अन्तर्यामी सब सुखों का देनेवाला है, वह
अपनी करुणा करके (नः) हम लोगों की (धियः) बुद्धियों को उत्तम-उत्तम गुण, कर्म, स्वभावों
में (प्रचोदयात्) प्रेरणा करे ॥३५॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को अत्यन्त उचित है कि इस सब जगत् के उत्पन्न
करने वा सब से उत्तम सब दोषों के नाश करने तथा अत्यन्त शुद्ध परमेश्वर ही की
स्तुति, प्रार्थना और उपासना करें। किस प्रयोजन के
लिये, जिससे वह धारण वा प्रार्थना किया हुआ हम लोगों
को खोटे-खोटे गुण और कर्मों से अलग करके अच्छे-अच्छे गुण, कर्म
और स्वभावों में प्रवृत्त करे,
इसलिये। और प्रार्थना का
मुख्य सिद्धान्त यही है कि जैसी प्रार्थना करनी, वैसा
ही पुरुषार्थ से कर्म का आचरण करना चाहिये ॥३५॥
परि॑ ते दू॒डभो॒ रथो॒ऽस्माँ२ऽअ॑श्नोतु
वि॒श्वतः॑। येन॒ रक्ष॑सि दा॒शुषः॑ ॥३६॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
वह परमेश्वर कैसा है,
इस विषय का उपदेश अगले
मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे जगदीश्वर ! आप (येन) जिस ज्ञान से
(दाशुषः) विद्यादि दान करनेवाले विद्वानों को (विश्वतः) सब ओर से (रक्षसि) रक्षा
करते और जो (ते) आपका (दूडभः) दुःख से भी नहीं नष्ट होने योग्य (रथः) सब को जानने
योग्य विज्ञान सब ओर से रक्षा करने के लिये है, वह
(अस्मान्) आपकी आज्ञा के सेवन करनेवाले हम लोगों को (परि) सब प्रकार (अश्नोतु)
प्राप्त हो ॥३६॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को सब की रक्षा करनेवाले परमेश्वर वा
विज्ञानों की प्राप्ति के लिये प्रार्थना और अपना पुरुषार्थ नित्य करना चाहिये, जिससे
हम लोग अविद्या, अधर्म आदि दोषों को त्याग करके उत्तम-उत्तम
विद्या, धर्म आदि शुभगुणों को प्राप्त होके सदा सुखी
होवें ॥३६॥
भूर्भुवः॒ स्वः᳖ सुप्र॒जाः प्र॒जाभिः॑ स्याᳬ
सु॒वीरो॑ वी॒रैः सु॒पोषः॒ पोषैः॑। नर्य॑ प्र॒जां मे॑ पाहि॒ शꣳस्य॑ प॒शून् मे॑
पा॒ह्यथ॑र्य पि॒तुं मे॑ पाहि ॥३७॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर उस जगदीश्वर की प्रार्थना किसलिये करनी चाहिये, इस
विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे (नर्य) नीतियुक्त मनुष्यों पर कृपा
करनेवाले परमेश्वर ! आप कृपा करके (मे) मेरी (प्रजाम्) पुत्र आदि प्रजा की (पाहि)
रक्षा कीजिये वा (मे) मेरे (पशून्) गौ,
घोड़े, हाथी
आदि पशुओं की (पाहि) रक्षा कीजिये। हे (अथर्य) सन्देह रहित जगदीश्वर ! आप (मे)
मेरे (पितुम्) अन्न की (पाहि) रक्षा कीजिये। हे (शंस्य) स्तुति करने योग्य ईश्वर !
आपकी कृपा से मैं (भूर्भुवः स्वः) जो प्रियस्वरूप प्राण, बल
का हेतु उदान तथा सब चेष्टा आदि व्यवहारों का हेतु व्यान वायु है, उनके
साथ युक्त होके (प्रजाभिः) अपने अनुकूल स्त्री, पुत्र, विद्या, धर्म, मित्र, भृत्य, पशु
आदि पदार्थों के साथ (सुप्रजाः) उत्तम विद्या, धर्मयुक्त, प्रजासहित
वा (वीरैः) शौर्य, धैर्य,
विद्या, शत्रुओं
के निवारण, प्रजा के पालन में कुशलों के साथ (सुवीरः)
उत्तम शूरवीरयुक्त और (पोषैः) पुष्टिकारक पूर्ण विद्या से उत्पन्न हुए व्यवहारों
के साथ (सुपोषः) उत्तम पुष्टि उत्पादन करनेवाला (स्याम्) नित्य होऊँ ॥३७॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को ईश्वर की उपासना वा उस की आज्ञा
के पालन का आश्रय लेकर उत्तम-उत्तम नियमों से वा उत्तम प्रजा, शूरता, पुष्टि
आदि कारणों से प्रजा का पालन करके निरन्तर सुखों को सिद्ध करना चाहिये ॥३७॥
आग॑न्म वि॒श्ववे॑दसम॒स्मभ्यं॑
वसु॒वित्त॑मम्। अग्ने॑ सम्राड॒भि द्यु॒म्नम॒भि सह॒ऽआय॑च्छस्व ॥३८॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब अग्नि शब्द से ईश्वर और भौतिक अग्नि का उपदेश किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे (सम्राट्) प्रकाशस्वरूप (अग्ने) जगदीश्वर
! आप (अस्मभ्यम्) उपासना करनेवाले हम लोगों के लिये (द्युम्नम्) प्रकाशस्वरूप
उत्तम यश वा (सहः) उत्तम बल को (अभ्यायच्छस्व) सब ओर से विस्तारयुक्त करते हो, इसलिये
हम लोग (वसुवित्तमम्) पृथिवी आदि लोकों के जानने वा (विश्ववेदसम्) सब सुखों के
जाननेवाले आपको (अभ्यागन्म) सब प्रकार प्राप्त होवें ॥१॥३८॥ जो यह (सम्राट्)
प्रकाश होनेवाला (अग्ने) भौतिक अग्नि (अस्मभ्यम्) यज्ञ के अनुष्ठान करनेवाले हम
लोगों के लिये (द्युम्नम्) उत्तम-उत्तम यश वा (सहः) उत्तम-उत्तम बल को
(अभ्यायच्छस्व) सब प्रकार विस्तारयुक्त करता है, उस
(वसुवित्तमम्) पृथिवी आदि लोकों को सूर्यरूप से प्रकाश करके प्राप्त कराने वा
(विश्ववेदसम्) सब सुखों को जाननेवाले अग्नि को हम लोग (अभ्यागन्म) सब प्रकार
प्राप्त होवें ॥३८॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। मनुष्यों को परमेश्वर वा
भौतिक अग्नि के गुणों को जानने वा उसके अनुसार अनुष्ठान करने से कीर्ति, यश
और बल का विस्तार करना चाहिये ॥२॥३८॥
अ॒यम॒ग्निर्गृ॒हप॑ति॒र्गार्ह॑पत्यः
प्र॒जाया॑ वसु॒वित्त॑मः। अग्ने॑ गृहपते॒ऽभि द्यु॒म्नम॒भि सह॒ऽआय॑च्छस्व ॥३९॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब अगले मन्त्र में ईश्वर और भौतिक अग्नि का उपदेश किया है
॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे (गृहपते) घर के पालन करनेवाले (अग्ने)
परमेश्वर ! जो (अयम्) यह (गृहपतिः) स्थान विशेषों के पालन हेतु (गार्हपत्यः) घर के
पालन करनेवालों के साथ संयुक्त (प्रजाया वसुवित्तमः) प्रजा के लिये सब प्रकार धन
प्राप्त करानेवाले हैं, सो आप जिस कारण (द्युम्नम्) सुख और प्रकाश से
युक्त धन को (अभ्यायच्छस्व) अच्छी प्रकार दीजिये तथा (सहः) उत्तम बल, पराक्रम
(अभ्यायच्छस्व) अच्छी प्रकार दीजिये ॥१॥३९॥ जिस कारण जो (गृहपतिः) उत्तम स्थानों
के पालन का हेतु (प्रजायाः) पुत्र,
मित्र, स्त्री
और भृत्य आदि प्रजा को (वसुवित्तमः) द्रव्यादि को प्राप्त कराने वा (गार्हपत्यः)
गृहों के पालन करनेवालों के साथ संयुक्त (अयम्) यह (अग्ने) बिजुली सूर्य वा प्रत्यक्षरूप
से अग्नि है, इससे वह (गृहपते) घरों का पालन करनेवाला
(अग्ने) अग्नि हम लोगों के लिये (अभिद्युम्नम्) सब ओर से उत्तम उत्तम धन वा (सहः)
उत्तम-उत्तम बलों को (अभ्यायच्छस्व) सब प्रकार से विस्तारयुक्त करता है ॥२॥ ॥३९॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। गृहस्थ लोग जब
ईश्वर की उपासना और उसकी आज्ञा में प्रवृत्त होके कार्य्य की सिद्धि के लिये इस
अग्नि को संयुक्त करते हैं,
तब वह अग्नि अनेक प्रकार के
धन और बलों को विस्तारयुक्त करता है,
क्योंकि यह प्रजा में
पदार्थों की प्राप्ति के लिये अत्यन्त सिद्धि करने हारा है ॥३९॥
अ॒यम॒ग्निः पु॒री॒ष्यो᳖ रयि॒मान्
पु॑ष्टि॒वर्ध॑नः। अग्ने॑ पुरीष्या॒भि द्यु॒म्नम॒भि सह॒ऽआय॑च्छस्व ॥४०॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर भौतिक अग्नि कैसा है, इस
विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे (पुरीष्य) कर्मों के पूरण करने में
अतिकुशल (अग्ने) उत्तम से उत्तम पदार्थों के प्राप्त करानेवाले विद्वन् ! आप जो
(अयम्) यह (पुरीष्यः) सब सुखों के पूर्ण करने में अत्युत्तम (रयिमान्) उत्तम-उत्तम
धनयुक्त (पुष्टिवर्द्धनः) पुष्टि को बढ़ानेवाला (अग्निः) भौतिक अग्नि है, उस
से हम लोगों के लिये (अभिद्युम्नम्) उत्तम-उत्तम ज्ञान को सिद्ध करनेवाले धन वा
(अभिसहः) उत्तम-उत्तम शरीर और आत्मा के बलों को (आयच्छस्व) सब प्रकार से
विस्तारयुक्त कीजिये ॥४०॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को परमेश्वर की कृपा वा अपने पुरुषार्थ से
अग्निविद्या को सम्पादन करके अनेक प्रकार के धन और बलों को विस्तारयुक्त करना
चाहिये ॥४०॥
गृहा॒ मा बि॑भीत॒ मा वे॑पध्व॒मूर्जं॒
बिभ्र॑त॒ऽएम॑सि। ऊर्जं॒ बिभ्र॑द्वः सु॒मनाः॑ सुमे॒धा गृ॒हानैमि॒ मन॑सा॒ मोद॑मानः
॥४१॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब अगले मन्त्र में गृहस्थाश्रम के अनुष्ठान का उपदेश किया
है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे ब्रह्मचर्याश्रम से सब विद्याओं को ग्रहण
किये गृहाश्रमी तथा (ऊर्जम्) शौर्यादिपराक्रमों को (बिभ्रतः) धारण किये और (गृहाः)
ब्रह्मचर्याश्रम के अनन्तर अर्थात् गृहस्थाश्रम को प्राप्त होने की इच्छा करते हुए
मनुष्यो ! तुम गृहस्थाश्रम को यथावत् प्राप्त होओ उस गृहस्थाश्रम के अनुष्ठान से
(मा बिभीत) मत डरो तथा (मा वेपध्वम्) मत कम्पो तथा पराक्रमों को धारण किये हुए हम
लोग (गृहान्) गृहस्थाश्रम को प्राप्त हुए तुम लोगों को (एमसि) नित्य प्राप्त होते
रहें और (वः) तुम लोगों में स्थित होकर इस प्रकार गृहस्थाश्रम में वर्त्तमान
(सुमनाः) उत्तम ज्ञान (सुमेधाः) उत्तम बुद्धि युक्त (मनसा) विज्ञान से (मोदमानः)
हर्ष, उत्साह युक्त (ऊर्जम्) अनेक प्रकार के बलों को
(बिभ्रत्) धारण करता हुआ मैं अत्यन्त सुखों को (एमि) निरन्तर प्राप्त होऊँ ॥४१॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को पूर्ण ब्रह्मचर्याश्रम को सेवन करके
युवावस्था में स्वयंवर के विधान की रीति से दोनों के तुल्य स्वभाव, विद्या, रूप, बुद्धि
और बल आदि गुणों को देखकर विवाह कर तथा शरीर-आत्मा के बल को सिद्ध कर और पुत्रों
को उत्पन्न करके सब साधनों से अच्छे-अच्छे व्यवहारों में स्थित रहना चाहिये तथा
किसी मनुष्य को गृहास्थाश्रम के अनुष्ठान से भय नहीं करना चाहिये, क्योंकि
सब अच्छे व्यवहार वा सब आश्रमों का यह गृहस्थाश्रम मूल है। इस गृहस्थाश्रम का
अनुष्ठान अच्छे प्रकार से करना चाहिये और इस गृहस्थाश्रम के बिना मनुष्यों की वा
राज्यादि व्यवहारों की सिद्धि कभी नहीं होती ॥४१॥
येषा॑म॒द्ध्येति॑ प्र॒वस॒न् येषु॑ सौमन॒सो
ब॒हुः। गृ॒हानुप॑ह्वयामहे॒ ते नो॑ जानन्तु जान॒तः ॥४२॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर वह गृहस्थाश्रम कैसा है, इस
विषय का उपदेश अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - (प्रवसन्) प्रवास करता हुआ अतिथि (येषाम्)
जिन गृहस्थों का (अध्येति) स्मरण करता वा (येषु) जिन गृहस्थों में (बहुः) अधिक
(सौमनसः) प्रीतिभाव है, उन (गृहान्) गृहस्थों का हम अतिथि लोग
(उपह्वयामहे) नित्यप्रति प्रशंसा करते हैं,
जो प्रीति रखनेवाले गृहस्थ
लोग हैं (ते) वे (जानतः) जानते हुए (नः) हम धार्मिक अतिथि लोगों को (जानन्तु)
यथावत् जानें ॥४२॥
भावार्थभाषाः - गृहस्थों को सब धार्मिक अतिथि लोगों के वा
अतिथि लोगों को गृहस्थों के साथ अत्यन्त प्रीति रखनी चाहिये और दुष्टों के साथ
नहीं। तथा उन विद्वानों के सङ्ग से परस्पर वार्त्तालाप कर विद्या की उन्नति करनी
चाहिये और जो परोपकार करनेवाले विद्वान् अतिथि लोग हैं, उनकी
सेवा गृहस्थों को निरन्तर करनी चाहिये औरों की नहीं ॥४२॥
उप॑हूताऽइ॒ह गाव॒ऽउप॑हूताऽअजा॒वयः॑।
अथो॒ऽअन्न॑स्य की॒लाल॒ऽउप॑हूतो गृ॒हेषु॑ नः। क्षेमा॑य वः॒ शान्त्यै॒ प्रप॑द्ये
शि॒वꣳ श॒ग्मꣳ शं॒योः शं॒योः ॥४३॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर उस गृहस्थाश्रम को कैसे सिद्ध करना चाहिये, इस
विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - (इह) इस गृहस्थाश्रम वा संसार में (वः) तुम
लोगों के (शान्त्यै) सुख (नः) हम लोगों की (क्षेमाय) रक्षा के (गृहेषु) निवास करने
योग्य स्थानों में जो (गावः) दूध देनेवाली गौ आदि पशु (उपहूताः) समीप प्राप्त किये
वा (अजावयः) भेड़-बकरी आदि पशु (उपहूताः) समीप प्राप्त हुए (अथो) इसके अनन्तर
(अन्नस्य) प्राण धारण करनेवाले (कीलालः) अन्न आदि पदार्थों का समूह (उपहूताः)
अच्छे प्रकार प्राप्त हुआ हो,
इन सब की रक्षा करता हुआ जो
मैं गृहस्थ हूँ सो (शंयोः) सब सुखों के साधनों से (शिवम्) कल्याण वा (शग्मम्)
उत्तम सुखों को (प्रपद्ये) प्राप्त होऊँ ॥४३॥
भावार्थभाषाः - गृहस्थों को योग्य है कि ईश्वर की उपासना वा उसकी आज्ञा
के पालन से गौ, हाथी,
घोड़े आदि पशु तथा खाने-पीने
योग्य स्वादु भक्ष्य पदार्थों का संग्रह कर अपनी वा औरों की रक्षा करके विज्ञान, धर्म, विद्या
और पुरुषार्थ से इस लोक वा परलोक के सुखों को सिद्ध करें, किसी
भी पुरुष को आलस्य में नहीं रहना चाहिये,
किन्तु सब मनुष्य
पुरुषार्थवाले होकर धर्म से चक्रवर्ती राज्य आदि धनों को संग्रह कर उनकी अच्छे
प्रकार रक्षा करके उत्तम-उत्तम सुखों को प्राप्त हों, इससे
अन्यथा मनुष्यों को न वर्तना चाहिये,
क्योंकि अन्यथा वर्तनेवालों
को सुख कभी नहीं होता ॥४३॥
प्र॒घा॒सिनो॑ हवामहे म॒रुत॑श्च रि॒शाद॑सः।
क॒र॒म्भेण॑ स॒जोष॑सः ॥४४॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
गृहस्थ मनुष्यों को क्या-क्या करना चाहिये, इस
विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हम लोग (करम्भेण) अविद्यारूपी दुःख से अलग
होके (सजोषसः) बराबर प्रीति के सेवन करने (रिशादसः) दोष वा शत्रुओं को नष्ट करने
(प्रघासिनः) पके हुए पदार्थों के भोजन करनेवाले अतिथि लोग और (मरुतः) अतिथि (च) और
यज्ञ करनेवाले विद्वान् लोगों को (हवामहे) सत्कारपूर्वक नित्यप्रति बुलाते रहें
॥४४॥
भावार्थभाषाः -गृहस्थों को उचित है कि वैद्य, शूरवीर
और यज्ञ को सिद्ध करनेवाले मनुष्यों को बुलाकर उनकी यथावत् सत्कारपूर्वक सेवा करके
उनसे उत्तम-उत्तम विद्या वा शिक्षाओं को निरन्तर ग्रहण करें ॥४४॥
यद् ग्रामे॒ यदर॑ण्ये॒ यत् स॒भायां॒
यदि॑न्द्रि॒ये। यदेन॑श्चकृ॒मा व॒यमि॒दं तदव॑यजामहे॒ स्वाहा॑ ॥४५॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर अगले मन्त्र में गृहस्थों के कर्मों का उपदेश किया है
॥
पदार्थान्वयभाषाः - (वयम्) कर्म के अनुष्ठान करनेवाले हम लोग
(यत्) ग्रामे) जो गृहस्थों से सेवित ग्राम (यत्) (अरण्ये) वानप्रस्थों ने जिस वन
की सेवा की हो (यत्सभायाम्) विद्वान् लोग जिस सभा की सेवा करते हों और (यत्)
(इन्द्रिये) योगी लोग जिस मन वा श्रोत्रादिकों की सेवा करते हों, उसमें
स्थिर हो के जो (एनः) पाप वा अधर्म (चकृम) करा वा करेंगे सब (अवयजामहे) दूर करते
रहें तथा जो-जो उन-उन उक्त स्थानों में (स्वाहा) सत्यवाणी से पुण्य वा धर्माचरण
(चकृम) करना योग्य है (तत्) उस-उस को (यजामहे) प्राप्त होते रहें ॥४५॥
भावार्थभाषाः - चारों आश्रमों में रहनेवाले मनुष्यों को मन, वाणी
और कर्मों से सत्य कर्मों का आचरण कर पाप वा अधर्मों का त्याग करके विद्वानों की
सभा, विद्या तथा उत्तम-उत्तम शिक्षा का प्रचार करके
प्रजा के सुखों की उन्नति करनी चाहिये ॥४५॥
मो षू ण॑ऽइ॒न्द्रात्र॑ पृ॒त्सु दे॒वैरस्ति॒
हि ष्मा॑ ते शुष्मिन्नव॒याः। म॒हश्चि॒द्यस्य॑ मी॒ढुषो॑ य॒व्या ह॒विष्म॑तो म॒रुतो॒
वन्द॑ते॒ गीः ॥४६॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
ईश्वर और शूरवीर के सहाय से युद्ध में विजय होता है, इस
विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) शूरवीर ! आप (अत्र) इस लोक में
(पृत्सु) युद्धों में (देवैः) विद्वानों के साथ (नः) हम लोगों की (सु) अच्छे
प्रकार रक्षा कीजिये तथा (मो) मत हनन कीजिये। हे (शुष्मिन्) पूर्ण बलयुक्त शूरवीर
! (हि) निश्चय करके (चित्) जैसे (ते) आपकी (महः) बड़ी (गीः) वेदप्रमाणयुक्त वाणी
(मीढुषः) विद्या आदि उत्तम गुणों के सींचने वा (हविष्मतः) उत्तम-उत्तम हवि अर्थात्
पदार्थयुक्त (मरुतः) ऋतु-ऋतु में यज्ञ करनेवाले विद्वानों के (वन्दते) गुणों का
प्रकाश करती है, जैसै विद्वान् लोग आप के गुणों का हम लोगों के
अर्थ निरन्तर प्रकाश करके आनन्दित होते हैं,
वैसे जो (अवयाः) यज्ञ
करनेवाला यजमान है, वह आपकी आज्ञा से जिन (यव्या) उत्तम-उत्तम यव
आदि अन्नों को अग्नि में होम करता है,
वे पदार्थ सब प्राणियों को
सुख देनेवाले होते हैं ॥४६॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जब मनुष्य लोग परमेश्वर की
आराधना कर अच्छे प्रकार सब सामग्री को संग्रह करके युद्ध में शत्रुओं को जीतकर
चक्रवर्त्ति राज्य को प्राप्त कर प्रजा का अच्छे प्रकार पालन करके बड़े आनन्द को
सेवन करते हैं, तब उत्तम राज्य होता है ॥४६॥
अक्र॒न् कर्म॑ कर्म॒कृतः॑ स॒ह वा॒चा
म॑यो॒भुवा॑। दे॒वेभ्यः॒ कर्म॑ कृ॒त्वास्तं॒ प्रेत॑ सचाभुवः ॥४७॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
कौन-कौन मनुष्य यज्ञ युद्ध आदि कर्मों के करने को योग्य
होते हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - जो मनुष्य लोग (मयोभुवा) सत्यप्रिय मङ्गल के
करानेवाली (वाचा) वेदवाणी वा अपनी वाणी के (सह) साथ (सचाभुवः) परस्पर संगी होकर
(कर्मकृतः) कर्मों को करते हुए (कर्म) अपने अभीष्ट कर्म को (अक्रन्) करते हैं, वे
(देवेभ्यः) विद्वान् वा उत्तम-उत्तम गुण वा सुखों के लिये (कर्म) करने योग्य कर्म
वा (कृत्वा) अनुष्ठान करके (अस्तम्) पूर्णसुखयुक्त घर को (प्रेत) प्राप्त होते हैं
॥४७॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को योग्य है कि सर्वथा आलस्य को
छोड़कर पुरुषार्थ ही में निरन्तर रह के मूर्खपन को छोड़ कर वेदविद्या से शुद्ध की
हुई वाणी के साथ सदा वर्तें और परस्पर प्रीति करके एक-दूसरे का सहाय करें। जो इस
प्रकार के मनुष्य हैं, वे ही अच्छे-अच्छे सुखयुक्त मोक्ष वा इस लोक
के सुखों को प्राप्त होकर आनन्दित होते हैं,
अन्य अर्थात् आलसी पुरुष
आनन्द को कभी नहीं प्राप्त होते ॥४७॥
अव॑भृथ निचुम्पुण निचे॒रुर॑सि निचुम्पु॒णः।
अव॑ दे॒वैर्दे॒वकृ॑तमेनो॑ऽयासिष॒मव॒ मर्त्यै॒र्मर्त्य॑कृतं पुरु॒राव्णो॑ देव
रि॒षस्पा॑हि ॥४८ ॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब अगले मन्त्र में यज्ञ के अनुष्ठान करनेवाले यजमान के
कर्मों का उपदेश किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे (अवभृथ) विद्या धर्म के अनुष्ठान से शुद्ध
(निचुम्पुण) धैर्य से शब्दविद्या को पढ़ानेवाले विद्वान् मनुष्य ! जैसे मैं
(निचुम्पुणः) ज्ञान को प्राप्त कराने वा (निचेरुः) निरन्तर विद्या का संग्रह
करनेवाला (देवैः) प्रकाशस्वरूप मन आदि इन्द्रियों से (देवकृतम्) किया वा
(मर्त्यैः) मरणधर्मवाले (मर्त्यकृतम्) शरीरों से किये हुये (एनः) पापों को (अव
अयासिषम्) दूर कर शुद्ध होता हूँ,
वैसे तू भी (असि) हो। हे
(देव) जगदीश्वर ! आप हम लोगों की (पुरुराव्णः) बहुत दुःख देने वा (रिषः) मारने
योग्य शत्रु वा पाप से (पाहि) रक्षा कीजिये अर्थात् दूर कीजिये ॥४८॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को उचित
है कि पाप की निवृत्ति, धर्म की वृद्धि के लिये परमेश्वर की प्रार्थना
निरन्तर करके जो मन, वाणी वा शरीर से पाप होते हैं, उनसे
दूर रह के जो कुछ अज्ञान से पाप हुआ हो,
उसके दुःखरूप फल को जानकर, फिर
दूसरी वार उसको कभी न करें,
किन्तु सब काल में शुद्ध
कर्मों के अनुष्ठान ही की वृद्धि करें ॥४८॥
पू॒र्णा द॑र्वि॒ परा॑ पत॒ सुपू॑र्णा॒
पुन॒राप॑त। व॒स्नेव॒ वि॒क्री॑णावहा॒ऽइ॒षमूर्ज॑ꣳ शतक्रतो ॥४९॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
यज्ञ में हवन किया हुआ पदार्थ कैसा होता है, इस
विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - जो (दर्वि) पके हुए होम करने योग्य पदार्थों
को ग्रहण करनेवाली (पूर्णा) द्रव्यों से पूर्ण हुई आहुति (परापत) होम हुए पदार्थों
के अंशों को ऊपर प्राप्त करती वा जो आहुति आकाश में जाकर वृष्टि से (सुपूर्णा)
पूर्ण हुई (पुनरापत) फिर अच्छे प्रकार पृथिवी में उत्तम जलरस को प्राप्त करती है, उससे
हे (शतक्रतो) असंख्यात कर्म वा प्रज्ञावाले जगदीश्वर ! आप की कृपा से हम यज्ञ
कराने और करनेवाले विद्वान् होता और यजमान दोनों (इषम्) उत्तम-उत्तम अन्नादि
पदार्थ (ऊर्जम्) पराक्रमयुक्त वस्तुओं को (वस्नेव) वैश्यौं के समान (विक्रीणावहै)
दें वा ग्रहण करें ॥४९॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जब मनुष्य लोग
सुगन्ध्यादि पदार्थ अग्नि में हवन करते हैं,
तब वे ऊपर जाकर वायु
वृष्टि-जल को शुद्ध करते हुए पृथिवी को आते हैं, जिससे
यव आदि ओषधि शुद्ध होकर सुख और पराक्रम के देनेवाली होती हैं। जैसे कोई वैश्य लोग
रुपया आदि को दे-ले कर अनेक प्रकार के अन्नादि पदार्थों को खरीदते वा बेचते हैं, वैसे
हम सब लोग भी अग्नि में शुद्ध द्रव्यों को छोड़कर वर्षा वा अनेक सुखों को खरीदते
हैं, खरीदकर फिर वृष्टि और सुखों के लिये अग्नि में
हवन करते हैं ॥४९॥
दे॒हि मे॒ ददा॑मि ते॒ नि मे॑ धेहि॒ नि ते॑
दधे। नि॒हारं॑ च॒ हरा॑सि मे नि॒हारं॒ निह॑राणि ते॒ स्वाहा॑ ॥५०॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब अगले मन्त्र में सब आश्रमों में रहनेवाले मनुष्यों के
व्यवहारों का उपदेश किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे मित्र ! तुम (स्वाहा) जैसे सत्यवाणी हृदय
में कहे वैसे (मे) मुझ को यह वस्तु (देहि) दे वा मैं (ते) तुझ को यह वस्तु (ददामि)
देऊँ वा देऊँगा तथा तू (मे) मेरी यह वस्तु (निधेहि) धारण कर मैं (ते) तुम्हारी यह
वस्तु (निदधे) धारण करता हूँ और तू (मे) मुझको (निहारम्) मोल से खरीदने योग्य
वस्तु को (हरासि) ले। मैं (ते) तुझको (निहारम्) पदार्थों का मोल (निहराणि) निश्चय
करके देऊँ (स्वाहा) ये सब व्यवहार सत्यवाणी से करें, अन्यथा
से व्यवहार सिद्ध नहीं होते हैं ॥५०॥
भावार्थभाषाः - सब मनुष्यों को देना-लेना, पदार्थों
को रखना-रखवाना वा धारण करना आदि व्यवहार सत्यप्रतिज्ञा से ही करने चाहिये। जैसे
किसी मनुष्य ने कहा कि यह वस्तु तुम हमको देना, मैं
यह देता तथा देऊँगा, ऐसा कहे तो वैसा ही करना। तथा किसी ने कहा कि
मेरी यह वस्तु तुम अपने पास रख लेओ,
जब इच्छा करूँ तब तुम दे
देना। इसी प्रकार मैं तुम्हारी यह वस्तु रख लेता हूँ, जब
तुम इच्छा करोगे तब देऊँगा वा उसी समय मैं तुम्हारे पास आऊँगा वा तुम आकर ले लेना
इत्यादि ये सब व्यवहार सत्यवाणी ही से करने चाहियें और ऐसे व्यवहारों के विना किसी
मनुष्य की प्रतिष्ठा वा कार्यों की सिद्धि नहीं होती और इन दोनों के विना कोई
मनुष्य सुखों को प्राप्त होने को समर्थ नहीं हो सकता ॥५०॥
अक्ष॒न्नमी॑मदन्त॒ ह्यव॑ प्रि॒याऽअ॑धूषत।
अस्तो॑षत॒ स्वभा॑नवो॒ विप्रा॒ नवि॑ष्ठया म॒ती योजा॒ न्वि᳖न्द्र ते॒ हरी॑ ॥५१॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
उस यज्ञादि व्यवहार से क्या-क्या होता है, इस
विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) सभा के स्वामी ! जो (ते) आपके
सम्बन्धी मनुष्य (स्वभानवः) अपनी ही दीप्ति से प्रकाश होने वा (अव प्रियाः) औरों
को प्रसन्न करानेवाले (विप्राः) विद्वान् लोग (नविष्ठया) अत्यन्त नवीन (मती)
बुद्धि से (हि) निश्चय करके परमात्मा की (अस्तोषत) स्तुति और (अक्षन्) उत्तम-उत्तम
अन्नादि पदार्थों को भक्षण करते हुए (अमीमदन्त) आनन्द को प्राप्त होते और उसी से
वे शत्रु वा दुःखों को (न्वधूषत) शीघ्र कम्पित करते हैं, वैसे
ही यज्ञ में (इन्द्र) हे सभापते ! (ते) आपके सहाय से इस यज्ञ में निपुण हों और तू
(हरी) अपने बल और पराक्रम को हम लोगों के साथ (योज) संयुक्त कर ॥५१॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। मनुष्यों को
उचित है कि प्रतिदिन नवीन-नवीन ज्ञान वा क्रिया की वृद्धि करते रहें। जैसे मनुष्य
विद्वानों के सत्सङ्ग वा शास्त्रों के पढ़ने से नवीन-नवीन बुद्धि, नवीन-नवीन
क्रिया को उत्पन्न करते हैं,
वैसे ही सब मनुष्यों को
अनुष्ठान करना चाहिये ॥५१॥
सु॒स॒न्दृशं॑ त्वा व॒यं मघ॑वन्
वन्दिषी॒महि॑। प्र नू॒नं पू॒र्णब॑न्धुर स्तु॒तो या॑सि॒ वशाँ॒२ऽअनु॒ योजा॒
न्वि᳖न्द्र ते॒ हरी॑ ॥५२॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
वह इन्द्र कैसा है,
इस विषय का उपदेश अगले
मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे (मघवन्) उत्तम-उत्तम विद्यादि धनयुक्त
(इन्द्र) परमात्मन् ! (वयम्) हम लोग (सुसंदृशम्) अच्छे प्रकार व्यवहारों के
देखनेवाले (त्वा) आपकी (नूनम्) निश्चय करके (वन्दिषीमहि) स्तुति करें तथा हम लोगों
से (स्तुतः) स्तुति किये हुए आप (वशान्) इच्छा किये हुए पदार्थों को (यासि)
प्राप्त कराते हो और (ते) अपने (हरी) बल पराक्रमों को आप (अनुप्रयोज) हम लोगों के
सहाय के अर्थ युक्त कीजिये ॥१॥५२॥ (वयम्) हम लोग (सुसंदृशम्) अच्छे प्रकार
पदार्थों को दिखाने वा (मघवन्) धन को प्राप्त कराने तथा (पूर्णबन्धुरः) सब जगत् के
बन्धन के हेतु (त्वा) उस सूर्यलोक की (नूनम्) निश्चय करके (वन्दिषीमहि) स्तुति
अर्थात् इसके गुण प्रकाश करते हैं। (स्तुतः) स्तुति किया हुआ यह हम लोगों को
(वशान्) उत्तम-उत्तम व्यवहारों को सिद्धि करानेवाली कामनाओं को (यासि) प्राप्त
कराता है (नु) जैसे (ते) इस सूर्य के (हरी) धारण-आकर्षण गुण जगत् में युक्त होते
हैं, वैसे आप हम लोगों को विद्या की सिद्धि
करनेवाले गुणों को (अनुप्रयोज) अच्छे प्रकार प्राप्त कीजिये ॥२॥५२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में श्लेष और उपमालङ्कार हैं।
मनुष्यों को सब जगत् के हित करनेवाले जगदीश्वर ही की स्तुति करनी और किसी की न
करनी चाहिये, क्योंकि जैसे सूर्यलोक सब मूर्तिमान् द्रव्यों
का प्रकाश करता है, वैसे उपासना किया हुआ ईश्वर भी भक्तजनों के
आत्माओं में विज्ञान को उत्पन्न करने से सब सत्यव्यवहारों को प्रकाशित करता है।
इससे ईश्वर को छोड़कर और किसी की उपासना कभी न करनी चाहिये ॥५२॥
मनो॒ न्वाह्वा॑महे नाराश॒ꣳसेन॒ स्तोमे॑न।
पि॒तॄ॒णां च॒ मन्म॑भिः ॥५३॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
इसके आगे मन के लक्षण का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हम लोग (नाराशंसेन) पुरुषों के अत्यन्त
प्रशंसनीय (स्तोमेन) स्तुतियुक्त व्यवहार और (पितॄणाम्) पालना करनेवाले ऋतु वा
ज्ञानवान् मनुष्यों के (मन्मभिः) जिनसे सब गुण जाने जाते हैं, उन
गुणों के साथ (मनः) संकल्पविकल्पात्मक चित्त को (न्वाह्वामहे) सब ओर से हटाके दृढ़
करते हैं ॥५३॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को मनुष्यजन्म की सफलता के लिय विद्या आदि गुणों
से युक्त मन को करना चाहिये। जैसे ऋतु अपने-अपने गुणों को क्रम-क्रम से प्रकाशित
करते हैं, तथा जैसे विद्वान् लोग क्रम-क्रम से अनेक
प्रकार की अन्य-अन्य विद्याओं को साक्षात्कार करते हैं, वैसा
ही पुरुषार्थ करके सब मनुष्यों को निरन्तर विद्या और प्रकाश की प्राप्ति करनी
चाहिये ॥५३॥
आ न॑ऽएतु॒ मनः॒ पुनः॒ क्रत्वे॒ दक्षा॑य
जी॒वसे॑। ज्योक् च॒ सूर्यं॑ दृ॒शे ॥५४॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर वह मन कैसा है,
इस विषय का उपदेश अगले
मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - (मनः) जो स्मरण करनेवाला चित्त (ज्योक्)
निरन्तर (सूर्यम्) परमेश्वर,
सूर्यलोक वा प्राण को (दृशे)
देखने वा (क्रत्वे) उत्तम विद्या वा उत्तम कर्मों की स्मृति वा (जीवसे) सौ वर्ष से
अधिक जीने (च) और अन्य शुभ कर्मों के अनुष्ठान के लिये है, वह
(नः) हम लोगों को (पुनः) वार-वार जन्म-जन्म में (आ) सब प्रकार से (एतु) प्राप्त हो
॥५४॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को [चाहिये कि] उत्तम कर्मों के अनुष्ठान के
लिये चित्त की शुद्धि वा जन्म-जन्म में उत्तम चित्त की प्राप्ति ही की इच्छा करें, जिससे
मनुष्य जन्म को प्राप्त होकर ईश्वर की उपासना का साधन करके उत्तम-उत्तम धर्मों का
सेवन कर सकें ॥५४॥
पुन॑र्नः पितरो॒ मनो॒ ददा॑तु॒ दैव्यो॒ जनः॑।
जी॒वं व्रात॑ꣳसचेमहि ॥५५॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर मन शब्द से बुद्धि का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे (पितरः) उत्पादक वा अन्न, शिक्षा
वा विद्या को देकर रक्षा करनेवाले पिता आदि लोग आपकी शिक्षा से यह (दैव्यः)
विद्वानों के बीच में उत्पन्न हुआ (जनः) विद्या वा धर्म से दूसरे के लिये उपकारों
को प्रकट करनेवाला विद्वान् पुरुष (नः) हम लोगों के लिये (पुनः) इस जन्म वा दूसरे
जन्म में (मनः) धारणा करनेवाली बुद्धि को (ददातु) देवे, जिससे
(जीवम्) ज्ञानसाधनयुक्त जीवन वा (व्रातम्) सत्य बोलने आदि गुण समुदाय को (सचेमहि)
अच्छे प्रकार प्राप्त करें ॥५५॥
भावार्थभाषाः - विद्वान् माता-पिता आचार्यों की शिक्षा के
विना मनुष्यों का जन्म सफल नहीं होता और मनुष्य भी उस शिक्षा के विना पूर्ण जीवन
वा कर्म के संयुक्त करने को समर्थ नहीं हो सकते। इस से सब काल में विद्वान्
माता-पिता और आचार्यों को उचित है कि अपने पुत्र आदि को अच्छे प्रकार उपदेश से
शरीर और आत्मा के बलवाले करें ॥५५॥
व॒यꣳ सो॑म व्र॒ते तव॒ मन॑स्त॒नूषु॒
बिभ्र॑तः। प्र॒जाव॑न्तः सचेमहि ॥५६॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब सोमशब्द से ईश्वर और ओषधियों के रसों का उपदेश अगले
मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे (सोम) सब जगत् को उत्पन्न करनेवाले
जगदीश्वर ! (तव) आपको (व्रते) सत्यभाषण आदि धर्मों के अनुष्ठान में वर्त्तमान होके
(तनूषु) बड़े-बड़े सुखयुक्त शरीरों में (मनः) अन्तःकरण की अहङ्कारादि वृत्ति को
(बिभ्रतः) धारण करते हुए और (प्रजावन्तः) बहुत पुत्र आदि राष्ट्र आदि धनवाले होके
हम लोग (सचेमहि) सब सुखों को प्राप्त होवें ॥१॥५६॥ (तव) इस (सोम) सोमलता आदि
ओषधियों के (व्रते) सत्य-सत्य गुण ज्ञान के सेवन में (तनूषु) सुखयुक्त शरीरों में
(मनः) चित्त की वृत्ति को (बिभ्रतः) धारण करते हुए (प्रजावन्तः) पुत्र, राज्य
आदि धनवाले होकर (वयम्) हम लोग (सचेमहि) सब सुखों को प्राप्त होवें ॥२॥५६॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। ईश्वर की
आज्ञा में वर्तमान हुए मनुष्य लोग शरीर आत्मा के सुखों को निरन्तर प्राप्त होते
हैं। इसी प्रकार युक्ति से सोम आदि ओषधियों के सेवन से उन सुखों को प्राप्त होते
हैं, परन्तु आलसी मनुष्य नहीं ॥५६॥
ए॒ष ते॑ रुद्र भा॒गः स॒ह स्वस्राम्बि॑कया॒
तं जु॑षस्व॒ स्वाहै॒ष ते॑ रुद्र भा॒गऽआ॒खुस्ते॑ प॒शुः ॥५७॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
मन के लक्षण कहने के अनन्तर प्राण के लक्षण का उपदेश अगले
मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे (रुद्र) अन्यायकारी मनुष्यों को
रुलानेवाले विद्वन् ! जो (ते) तेरा (एषः) यह (भागः) सेवन करने योग्य पदार्थ समूह
है, उस को तू (अम्बिकया) वेदवाणी वा (स्वस्रा)
उत्तम विद्या वा क्रिया के (सह) साथ (जुषस्व) सेवन कर तथा हे (रुद्र) विद्वन् ! जो
(ते) तेरा (एषः) यह (भागः) धर्म से सिद्ध अंश वा (स्वाहा) वेदवाणी है, उस
का सेवन कर और हे (रुद्र) विद्वन् ! जो (ते) तेरा (एषः) यह (आखुः) खोदने योग्य
शस्त्र वा (पशुः) भोग्य पदार्थ है (तम्) उसको (जुषस्व) सेवन कर ॥१॥५७॥ जो (एषः) यह
(रुद्र) प्राण है (ते) जिसका (एषः) यह (भागः) भाग है, जिसको
(अम्बिकया) वाणी वा (स्वस्रा) विद्याक्रिया के (सह) साथ (जुषस्व) सेवन करता वा जो
(ते) जिसका (स्वाहा) सत्यवाणी रूप (भागः) भाग है और जो इसके (आखुः) खोदनेवाले
पदार्थ वा (पशुः) दर्शनीय भोग्य पदार्थ हैं,
जिसका यह (जुषस्व) सेवन करता
है, उसका सेवन सब मनुष्य सदा करें ॥२॥५७॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। जैसे भाई पूर्ण
विद्यायुक्त अपनी बहिन के साथ वेदादि शब्दविद्या को पढ़कर आनन्द को भोगता है, वैसे
विद्वान् भी विद्या को प्राप्त होकर सुखी होता है। जैसे यह प्राण श्रेष्ठ
शब्दविद्या से प्रिय आनन्ददायक होता है,
वैसे सुशिक्षित विद्वान् भी
सब को सुख करनेवाला होता है। इन दोनों के विना कोई भी मनुष्य सत्यज्ञान वा सुख
भोगों को प्राप्त होने को समर्थ नहीं हो सकता ॥५७॥
अव॑ रु॒द्रम॑दीम॒ह्यव॑ दे॒वं त्र्य॑म्बकम्।
यथा॑ नो॒ वस्य॑स॒स्कर॒द् यथा॑ नः॒ श्रेय॑स॒स्कर॒द् यथा॑ नो व्यवसा॒यया॑त् ॥५८॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब अगले मन्त्र में रुद्र शब्द से ईश्वर का उपदेश किया है
॥
पदार्थान्वयभाषाः - हम लोग (त्र्यम्बकम्) तीनों काल में एकरस
ज्ञानयुक्त (देवम्) देने वा (रुद्रम्) दुष्टों को रुलानेवाले जगदीश्वर की उपासना
करके सब दुःखों को (अवादीमहि) अच्छे प्रकार नष्ट करें (यथा) जैसे परमेश्वर (नः) हम
लोगों को (वस्यसः) उत्तम-उत्तम वास करनेवाले (अवाकरत्) अच्छे प्रकार करे (यथा)
जैसे (नः) हम लोगों को (श्रेयसः) अत्यन्त श्रेष्ठ (करत्) करे (यथा) जैसे (नः) हम
लोगों को (व्यवसाययात्) निवास कराने वा उत्तम गुणयुक्त तथा सत्यपन से निश्चय
देनेवाले परमेश्वर ही की प्रार्थना करें ॥५८॥
भावार्थभाषाः - कोई भी मनुष्य ईश्वर की उपासना वा प्रार्थना के विना सब
दुःखों के अन्त को नहीं प्राप्त हो सकता,
क्योंकि वही परमेश्वर सब
सुखपूर्वक निवास वा उत्तम-उत्तम सत्य निश्चयों को कराता है। इससे जैसी उसकी आज्ञा
है, उसका पालन वैसा ही सब मनुष्यों को करना योग्य
है ॥५८॥
भे॒ष॒जम॑सि भेष॒जं गवेऽश्वा॑य॒ पुरु॑षाय
भेष॒जम्। सु॒खं मे॒षाय॑ मे॒ष्यै ॥५९॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर वह परमेश्वर कैसा है, इस
विषय का उपदेश अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे जगदीश्वर ! जो आप (भेषजम्) शरीर, अन्तःकरण, इन्द्रिय
और गाय आदि पशुओं के रोगनाश करनेवाले (असि) हैं (भेषजम्) अविद्यादि क्लेशों को दूर
करनेवाले (असि) हैं सो आप (नः) हम लोगों के (गवे) गौ आदि (अश्वाय) घोड़ा आदि
(पुरुषाय) सब मनुष्य (मेषाय) मेढ़ा और (मेष्यै) भेड़ आदि के लिये (सुखम्)
उत्तम-उत्तम सुखों को अच्छी प्रकार दीजिये ॥५९॥
भावार्थभाषाः - परमेश्वर की उपासना के विना किसी मनुष्य का शरीर, आत्मा
और प्रजा का दुःख दूर होकर सुख नहीं हो सकता,
इससे उसकी स्तुति, प्रार्थना
और उपासना आदि के करने और औषधियों के सेवन से शरीर, आत्मा, पुत्र, मित्र
और पशु आदि के दुःखों को यत्न से निवृत्त करके सुखों को सिद्ध करना उचित है ॥५९॥
त्र्य॑म्बकं यजामहे सुग॒न्धिं
पु॑ष्टि॒वर्ध॑नम्। उ॒र्वा॒रु॒कमि॑व॒ बन्ध॑नान्मृ॒त्योर्मु॑क्षीय॒ माऽमृता॑त्।
त्र्य॑म्बकं यजामहे सुग॒न्धिं प॑ति॒वेद॑नम्। उ॒र्वा॒रु॒कमि॑व॒ बन्ध॑नादि॒तो
मु॑क्षीय॒ मामुतः॑ ॥६०॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर वह कैसा है,
इस विषय का उपदेश अगले
मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हम लोग जो (सुगन्धिम्) शुद्ध गन्धयुक्त
(पुष्टिवर्धनम्) शरीर, आत्मा और समाज के बल को बढ़ानेवाला
(त्र्यम्बकम्) रुद्ररूप जगदीश्वर है,
उसकी (यजामहे) निरन्तर
स्तुति करें। इनकी कृपा से (उर्वारुकमिव) जैसे खर्बूजा फल पक कर (बन्धनात्) लता के
सम्बन्ध से छूट कर अमृत के तुल्य होता है,
वैसे हम लोग भी (मृत्योः)
प्राण वा शरीर के वियोग से (मुक्षीय) छूट जावें (अमृतात्) और मोक्षरूप सुख से (मा)
श्रद्धारहित कभी न होवें तथा हम लोग (सुगन्धिम्) उत्तम गन्धयुक्त (पतिवेदनम्)
रक्षा करने हारे स्वामी को देनेवाले (त्र्यम्बकम्) सब के अध्यक्ष जगदीश्वर का
(यजामहे) निरन्तर सत्कारपूर्वक ध्यान करें और इसके अनुग्रह से (उर्वारुकमिव) जैसे
खरबूजा पक कर (बन्धनात्) लता के सम्बन्ध से छूट कर अमृत के समान मिष्ट होता है, वैसे
हम लोग भी (इतः) इस शरीर से (मुक्षीय) छूट जावें (अमुतः) मोक्ष और अन्य जन्म के
सुख और सत्यधर्म के फल से (मा) पृथक् न होवें ॥६०॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। मनुष्य लोग ईश्वर को छोड़कर
किसी का पूजन न करें, क्योंकि वेद से अविहित और दुःखरूप फल होने से
परमात्मा से भिन्न दूसरे किसी की उपासना न करनी चाहिये। जैसे खर्बूजा फल लता में
लगा हुआ अपने आप पक कर समय के अनुसार लता से छूट कर सुन्दर स्वादिष्ट हो जाता है, वैसे
ही हम लोग पूर्ण आयु को भोग कर शरीर को छोड़ के मुक्ति को प्राप्त होवें। कभी
मोक्ष की प्राप्ति के लिये अनुष्ठान वा परलोक की इच्छा से अलग न होवें और न कभी
नास्तिक पक्ष को लेकर ईश्वर का अनादर भी करें। जैसे व्यवहार के सुखों के लिये अन्न, जल
आदि की इच्छा करते हैं, वैसे ही हम लोग ईश्वर, वेद, वेदोक्तधर्म
और मुक्ति होने के लिये निरन्तर श्रद्धा करें ॥६०॥
ए॒तत्ते॑ रुद्राव॒सं तेन॑ प॒रो
मूज॑व॒तोऽती॑हि। अव॑ततधन्वा॒ पिना॑कावसः॒ कृत्ति॑वासा॒ऽअहि॑ꣳसन्नः शि॒वोऽती॑हि
॥६१॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब अगले मन्त्र में रुद्र शब्द से शूरवीर के कर्मों का
उपदेश किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे (रुद्र) शत्रुओं को रुलानेवाले युद्धविद्या
में कुशल सेनाध्यक्ष विद्वन् ! (अवततधन्वा) युद्ध के लिये विस्तारपूर्वक धनु को धारण
करने (पिनाकावसः) पिनाक अर्थात् जिस शस्त्र से शत्रुओं के बल को पीस के अपनी रक्षा
करने (कृत्तिवासः) चमड़े और कवचों के समान दृढ़ वस्त्रों के धारण करने (शिवः) सब
सुखों के देने और (परः) उत्तम सामर्थ्यवाले शूरवीर पुरुष ! आप (मूजवतः) मूँज, घास
आदि युक्त पर्वत से परे दूसरे देश में शत्रुओं को (अतीहि) प्राप्त कीजिये (एतत्)
जो यह (ते) आपका (अवसम्) रक्षण करना है (तेन) उससे (नः) हम लोगों की (अहिंसन्)
हिंसा को छोड़कर रक्षा करते हुए आप (अतीहि) सब प्रकार से हम लोगों का सत्कार
कीजिये ॥६१॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! तुम शत्रुओं से रहित होकर राज्य
को निष्कण्टक करके सब अस्त्र-शस्त्रों का सम्पादन करके दुष्टों का नाश और
श्रेष्ठों की रक्षा करो कि जिससे दुष्ट शत्रु सुखी और सज्जन लोग दुःखी कदापि न
होवें ॥६१॥
त्र्या॒यु॒षं ज॒म॑दग्नेः क॒श्यप॑स्य
त्र्यायु॒षम्। यद्दे॒वेषु॑ त्र्यायु॒षं तन्नो॑ऽअस्तु त्र्यायु॒षम् ॥६२॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
मनुष्य को कैसी आयु भोगने के लिये ईश्वर की प्रार्थना करनी
चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे जगदीश्वर ! आप (यत्) जो (देवेषु)
विद्वानों के वर्त्तमान में (त्र्यायुषम्) ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ
और संन्यास आश्रमों का परोपकार से युक्त आयु वर्त्तता जो (जमदग्नेः) चक्षु आदि
इन्द्रियों का (त्र्यायुषम्) शुद्धि बल और पराक्रमयुक्त तीन गुणा आयु और जो
(कश्यपस्य) ईश्वरप्रेरित (त्र्यायुषम्) तिगुणी अर्थात् तीन सौ वर्ष से अधिक भी आयु
विद्यमान है (तत्) उस शरीर,
आत्मा और समाज को आनन्द
देनेवाले (त्र्यायुषम्) तीन सौ वर्ष से अधिक आयु को (नः) हम लोगों को प्राप्त
कीजिये ॥६२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में चक्षुः सब इन्द्रियों में और परमेश्वर सब
रचना करने हारों में उत्तम है,
ऐसा सब मनुष्यों को समझना
चाहिये। और (त्र्यायुषम्) इस पदवी की चार बार आवृत्ति होने से तीन सौ वर्ष से अधिक
चार सौ वर्ष पर्यन्त भी आयु का ग्रहण किया है। इसकी प्राप्ति के लिये परमेश्वर की
प्रार्थना करके और अपना पुरुषार्थ करना उचित है, सो
प्रार्थना इस प्रकार करनी चाहिए−हे जगदीश्वर ! आपकी कृपा से जैसे विद्वान् लोग
विद्या, धर्म,
और परोपकार के अनुष्ठान से
आनन्दपूर्वक तीन सौ वर्ष पर्यन्त आयु को भोगते हैं, वैसे
ही तीन प्रकार के ताप से रहित शरीर,
मन, बुद्धि, चित्त, अहङ्काररूप
अन्तःकरण, इन्द्रिय और प्राण आदि को सुख करनेवाले
विद्या-विज्ञान सहित आयु को हम लोग प्राप्त होकर तीन सौ वा चार सौ वर्ष पर्यन्त
सुखपूर्वक भोगें ॥६२॥
शि॒वो नामा॑सि॒ स्वधि॑तिस्ते पि॒ता
नम॑स्तेऽअस्तु॒ मा मा॑ हिꣳसीः। निव॑र्त्तया॒म्यायु॑षे॒ऽन्नाद्या॑य प्र॒जन॑नाय
रा॒यस्पोषा॑य सुप्रजा॒स्त्वाय॑ सु॒वीर्या॑य ॥६३॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब अगले मन्त्र में रुद्र शब्द से उपदेश करने हारे गुणों
का उपदेश किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे जगदीश्वर और उपदेश करनेहारे विद्वन् ! जो
आप (स्वधितिः) अविनाशी होने से वज्रमय (असि) हैं, जिस
(ते) आपका (शिवः) सुखस्वरूप विज्ञान का देनेवाला (नाम) नाम (असि) है सो आप मेरे
(पिता) पालने करनेवाले (असि) हैं (ते) आप के लिये मेरा (नमः) सत्कारपूर्वक नमस्कार
(अस्तु) विदित हो तथा आप (मा) मुझे (मा) मत (हिꣳसीः) अल्पमृत्यु से युक्त कीजिये
और मैं आप को (आयुषे) आयु के भोगने (अन्नाद्याय) अन्न आदि के भोगने
(सुप्रजास्त्वाय) उत्तम-उत्तम पुत्र आदि वा चक्रवर्ति राज्य आदि की प्राप्ति होने
(सुवीर्य्याय) उत्तम शरीर, आत्मा का बल, पराक्रम
होने और (रायस्पोषाय) विद्या वा सुवर्ण आदि धन की पुष्टि के लिये (वर्त्तयामि)
वर्त्तता और वर्त्ताता हूँ। इस प्रकार वर्त्तने से सब दुखों को छुड़ा के अपने
आत्मा में उपास्यरूप से निश्चय करके अन्तर्यामिरूप आप का आश्रय करके सभों में
वर्त्तता हूँ ॥६३॥
भावार्थभाषाः - कोई भी मनुष्य मङ्गलमय सब की पालना करनेवाले परमेश्वर की
आज्ञा पालन के विना संसार वा परलोक के सुखों को प्राप्त होने को समर्थ नहीं होता।
न कदापि किसी मनुष्य को नास्तिक पक्ष को लेकर ईश्वर का अनादर करना चाहिये। जो
नास्तिक होकर ईश्वर का अनादर करता है,
उसका सर्वत्र अनादर होता है।
इस से सब मनुष्यों को आस्तिक बुद्धि से ईश्वर की उपासना करनी योग्य है ॥६३॥
इस तीसरे अध्याय में अग्निहोत्र आदि यज्ञों का वर्णन, अग्नि
के स्वभाव वा अर्थ का प्रतिपादन,
पृथिवी के भ्रमण का लक्षण, अग्नि
शब्द से ईश्वर वा भौतिक अर्थ का प्रतिपादन,
अग्निहोत्र के मन्त्रों का
प्रकाश, ईश्वर का उपस्थान, अग्नि
का स्वरूपकथन, ईश्वर की प्रार्थना, उपासना
वा इन दोनों का फल, ईश्वर के स्वभाव का प्रतिपादन, सूर्य
की किरणों के कार्य का वर्णन,
निरन्तर उपासना, गायत्री
मन्त्र का प्रतिपादन, यज्ञ के फल का प्रकाश, भौतिक
अग्नि के अर्थ का प्रतिपादन,
गृहस्थाश्रम के आवश्यक
कार्यों के अनुष्ठान और लक्षण,
इन्द्र और पवनों के कार्य का
वर्णन, पुरुषार्थ का आवश्यक करना, पापों
से निवृत्त होना, यज्ञ की समाप्ति अवश्य करनी, सत्य
से लेने-देने आदि व्यवहार करना,
विद्वान् वा ऋतुओं के स्वभाव
का वर्णन, चार प्रकार के अन्तःकरण का लक्षण, रुद्र
शब्द के अर्थ का प्रतिपादन,
तीन सौ वर्ष आयु का सम्पादन
करना और धर्म से आयु आदि पदार्थों के ग्रहण का वर्णन किया है। इससे दूसरे अध्याय
के अर्थ के साथ इस तीसरे अध्याय के अर्थ की सङ्गति जाननी चाहिये ॥६३॥
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