यजुर्वेद अध्याय 4, - भाष्य महर्षि स्वामी
दयानन्द सरस्वती
एदम॑गन्म देव॒यज॑नं पृथि॒व्या यत्र॑
दे॒वासो॒ऽअजु॑षन्त॒ विश्वे॑। ऋ॒क्सा॒माभ्या॑ᳬ स॒न्तर॑न्तो॒ यजु॑र्भी रा॒यस्पोषे॑ण॒
समि॒षा म॑देम। इ॒माऽआपः॒ शमु॑ मे सन्तु दे॒वीरोष॑धे॒ त्राय॑स्व॒ स्वधि॑ते॒
मैन॑ꣳहिꣳसीः ॥१॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब चौथे अध्याय का प्रारम्भ किया जाता है, इसके
प्रथम मन्त्र में जल के गुण,
स्वभाव और कृत्य का उपदेश
किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! जैसे (पृथिव्या) भूमि पर मनुष्यजन्म को
प्राप्त होके जो (इदम्) यह (देवयजनम्) विद्वानों का यजन पूजन वा उन के लिये दान है, उस
को प्राप्त होके (यत्र) जिस देश में (ऋक्सामाभ्याम्) ऋग्वेद, सामवेद
तथा (यजुर्भिः) यजुर्वेद के मन्त्रों में कहे कर्म (रायस्पोषेण) धन की पुष्टि
(समिषा) उत्तम-उत्तम विद्या आदि की इच्छा वा अन्न आदि से दुःखों के (सन्तरन्तः)
अन्त को प्राप्त होते हुए (विश्वे) सब (देवासः) विद्वान् हम लोग सुखों को (अगन्म)
प्राप्त हों, (अजुषन्त) सब प्रकार से सेवन करें, (मदेम)
सुखी रहें, (उ) और भी (मे) मेरे सुनियम, विद्या, उत्तम
शिक्षा से सेवन किये हुए (इमाः) ये (देवीः) शुद्ध (आपः) जल सुख देनेवाले होते हैं, वैसे
वहाँ तू भी उन को प्राप्त हो (जुषस्व) सेवन और आनन्द कर। वे जल आदि पदार्थ भी तुझ
को (शम्) सुख करानेवाले (सन्तु) होवें,
जैसे (ओषधे) सोमलता आदि
ओषधिगण सब रोगों से रक्षा करता है,
वैसे तू भी हम लोगों की
(त्रायस्व) रक्षा कर। (स्वधिते) रोगनाश करने में वज्र के समान होकर (एनम्) इस
यजमान वा प्राणीमात्र को (मा हिꣳसीः) कभी मत मार ॥१॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में लुप्तोपमालङ्कार है। जैसे मनुष्य लोग
ब्रह्मचर्यपूर्वक अङ्ग और उपनिषद् सहित चारों वेदों को पढ़ कर, औरों
को पढ़ा कर, विद्या को प्रकाशित कर और विद्वान् होके उत्तम
कर्मों के अनुष्ठान से सब प्राणियों को सुखी करें, वैसे
ही इन विद्वानों का सत्कार कर,
इनसे वैदिक विद्या को
प्राप्त होकर, श्रेष्ठ आचार तथा उत्तम औषधियों के सेवन से
कष्टों का निवारण करके शरीर वा आत्मा की पुष्टि से धन का अत्यन्त सञ्चय करके सब
मनुष्यों को आनन्दित होना चाहिये ॥१॥
आपो॑ऽअ॒स्मान् मा॒तरः॑ शुन्धयन्तु घृ॒तेन॑ नो
घृत॒प्वः᳖ पुनन्तु। विश्व॒ꣳ हि रि॒प्रं प्र॒वह॑न्ति दे॒वीरुदिदा॑भ्यः॒ शुचि॒रा
पू॒तऽए॑मि। दी॒क्षा॒त॒पसो॑स्त॒नूर॑सि॒ तां त्वा॑ शि॒वाᳬ श॒ग्मां परि॑दधे भ॒द्रं
वर्णं॒ पुष्य॑न् ॥२॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर उन जलों से क्या-क्या करना चाहिये, इस
विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे मनुष्यो ! जैसे (भद्रम्) अति सुन्दर (वर्णम्) प्राप्त
होने योग्य रूप को (पुष्यन्) पुष्ट करता हुआ मैं जो (घृतप्वः) घृत को पवित्र करने
(देवीः) दिव्यगुणयुक्त (मातरः) माता के समान पालन करनेवाले (आपः) जल (रिप्रम्)
व्यक्त वाणी को प्राप्त करने वा जानने योग्य (विश्वम्) सब को (प्रवहन्ति) प्राप्त
करते हैं, जिनसे विद्वान् लोग (अस्मान्) हम मनुष्य लोगों
को (शुन्धयन्तु) बाह्य देश को पवित्र करें और जो (घृतेन) घृतवत् पुष्ट करने योग्य
जल हैं, जिनसे (नः) हम लोगों को सुखी कर सकें, उनसे
(पुनन्तु) पवित्र करें। जैसे मैं (इत्) भी (उत्) अच्छे प्रकार (आभ्यः) इन जलों से
(शुचिः) पवित्र तथा (आपूतः) शुद्ध होकर (दीक्षातपसोः) ब्रह्मचर्य्य आदि उत्तम-उत्तम
नियम सेवन से जो धर्मानुष्ठान के लिये (तनूः) शरीर (असि) है, जिस
(शिवाम्) कल्याणकारी (शग्माम्) सुखस्वरूप शरीर को (एमि) प्राप्त होता और (परिदधे)
सब प्रकार धारण करता हूँ, वैसे तुम लोग भी उन जल और (ताम्) उस (त्वा)
अत्युत्तम शरीर को धारण करो ॥२॥
भावार्थभाषाः - इस
मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को उचित है कि जो सब सुखों को
प्राप्त करने, प्राणों को धारण कराने तथा माता के समान पालन
के हेतु जल हैं, उनसे सब प्रकार पवित्र होके, इनको
शोध कर मनुष्यों को नित्य सेवन करने चाहियें,
जिससे सुन्दर वर्ण, रोगरहित
शरीर को सम्पादन कर निरन्तर प्रयत्न के साथ धर्म का अनुष्ठान कर पुरुषार्थ से
आनन्द भोगना चाहिये ॥२॥
म॒हीनां॒ पयो॑ऽसि वर्चो॒दाऽअ॑सि॒ वर्चो॑ मे
देहि। वृ॒त्रस्या॑सि क॒नीन॑कश्चक्षु॒र्दाऽअ॑सि॒ चक्षु॑र्मे देहि ॥३॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर इस जलसमूह से उत्पन्न हुए मेघ का क्या निमित्त है, इस
विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - जो
यह (महीनाम्) पृथिवी आदि के (पयः) जल रस का निमित्त (असि) है, (वर्चोदाः)
दीप्ति का देनेवाला (असि) है,
जो (मे) मेरे लिये (वर्चः)
प्रकाश को (देहि) देता है, जो (वृत्रस्य) मेघ का (कनीनकः) प्रकाश
करनेवाला (असि) है, वा (चक्षुर्दाः) नेत्र के व्यवहार को सिद्ध
करनेवाला (असि) है, वह सूर्य्य (मे) मेरे लिये (चक्षुः) नेत्रों
के व्यवहार को (देहि) देता है ॥३॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों
को जानना उचित है कि जिस सूर्य्य के प्रकाश के विना वर्षा की उत्पत्ति वा नेत्रों
का व्यवहार सिद्ध कभी नहीं होता,
जिसने इस सूर्य्यलोक को रचा
है, उस परमेश्वर को कोटि असंख्यात धन्यवाद देते
रहें ॥३॥
चि॒त्पति॑र्मा पुनातु वा॒क्पति॑र्मा पुनातु
दे॒वो मा॑ सवि॒ता पु॑ना॒त्वच्छि॑द्रेण प॒वित्रे॑ण॒ सूर्य॑स्य र॒श्मिभिः॑। तस्य॑ ते
पवित्रपते प॒वित्र॑पूतस्य॒ यत्का॑मः पु॒ने तच्छ॑केयम् ॥४॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
जिसने सूर्य्य आदि सब जगत् को बनाया है, वह
परमात्मा हमारे लिये क्या-क्या करे,
इस विषय का उपदेश अगले
मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे
(पवित्रपते) पवित्रता के पालन करनेहारे परमेश्वर ! (चित्पतिः) विज्ञान के स्वामी
(वाक्पतिः) वाणी को निर्मल और (सविता) सब जगत् को उत्पन्न करनेवाले (देवः) दिव्य
स्वरूप आप (पवित्रेण) शुद्ध करनेवाले (अच्छिद्रेण) अविनाशी विज्ञान वा (सूर्यस्य)
सूर्य और प्राण के (रश्मिभिः) प्रकाश और गमनागमनों से (मा) मुझ और मेरे चित्त को
(पुनातु) पवित्र कीजिये, (मा) मुझ और मेरी वाणी को (पुनातु) पवित्र
कीजिये, (मा) मुझ तथा मेरे चक्षु को (पुनातु) पवित्र
कीजिये, जिस (पवित्रपूतस्य) शुद्ध स्वाभाविक विज्ञान
आदि गुणों से पवित्र (ते) आप की कृपा से (यत्कामः) जिस उत्तम कामनायुक्त मैं
(पुने) पवित्र होता हूँ, जिस (ते) आपकी उपासना से (तत्) उस अत्युत्तम
कर्म के करने को (शकेयम्) समर्थ होऊँ,
उस आपकी सेवा मुझ को क्यों न
करनी चाहिये ॥४॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों
को उचित है कि जिस वेद के जानने वा पालन करनेवाले परमेश्वर ने वेदविद्या, पृथिवी, जल, वायु
और सूर्य्य आदि शुद्धि करनेवाले पदार्थ प्रकाशित किये हैं, उसकी
उपासना तथा पवित्र कर्मों के अनुष्ठान से मनुष्यों को पूर्ण कामना और पवित्रता का
सम्पादन अवश्य करना चाहिये ॥४॥
आ वो॑ देवासऽईमहे वा॒मं प्र॑य॒त्य᳖ध्व॒रे। आ वो॑
देवासऽआ॒शिषो॑ य॒ज्ञिया॑सो हवामहे ॥५॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
मनुष्यों को किस प्रकार का पुरुषार्थ करना चाहिये, इस
विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे (देवासः) विद्यादि गुणों से प्रकाशित होनेवाले विद्वान्
लोगो ! जैसे हम लोग (वः) तुम को (प्रयति) सुखयुक्त (अध्वरे) हिंसा करने अयोग्य
यज्ञ के अनुष्ठान में (वः) तुम्हारे (वामम्) प्रशंसनीय गुणसमूह की (आ ईमहे) अच्छे
प्रकार याचना करते हैं, हे (देवासः) विद्वान् लोगो ! जैसे हम लोग इस
संसार में आप लोगों से (यज्ञियासः) यज्ञ को सिद्ध करने योग्य (आशिषः) इच्छाओं को
(आ हवामहे) अच्छे प्रकार स्वीकार कर सकें,
वैसे ही हम लोगों के लिये आप
लोग सदा प्रयत्न किया कीजिये ॥५॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों
को योग्य है कि उत्तम विद्वानों के प्रसङ्ग से उत्तम-उत्तम विद्याओं का सम्पादन कर, अपनी
इच्छाओं को पूर्ण करके इन विद्वानों का सङ्ग और सेवा सदा करना चाहिये ॥५॥
स्वाहा॑ य॒ज्ञं मन॑सः॒
स्वाहो॑रोर॒न्तरि॑क्षा॒त् स्वाहा॒ द्यावा॑पृथि॒वीभ्या॒ स्वाहा॒ वाता॒दार॑भे॒
स्वाहा॑ ॥६॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
किस-किस प्रयोजन के लिये इस यज्ञ का अनुष्ठान करना चाहिये, इस
विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे
मनुष्य लोगो ! जैसे मैं (स्वाहा) वेदोक्त (स्वाहा) उत्तम शिक्षा सहित (स्वाहा)
विद्याओं का प्रकाश (स्वाहा) सत्य और सब जीवों के कल्याण करनेहारी वाणी और
(स्वाहा) अच्छे प्रकार प्रयोग की हुई उत्तम क्रिया से (उरोः) बहुत (अन्तरिक्षात्)
आकाश और (वातात्) वायु की शुद्धि करके (द्यावापृथिवीभ्याम्) शुद्ध प्रकाश और
भूमिस्थ पदार्थ (मनसः) विज्ञान और ठीक-ठीक क्रिया से (यज्ञम्) यज्ञ को पूर्ण करने
के लिये पुरुषार्थ का (आरभे) नित्य आरम्भ करता हूँ, वैसे
तुम लोग भी करो ॥६॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों
के द्वारा जो वेद की रीति और मन,
वचन, कर्म
से अनुष्ठान किया हुआ यज्ञ है,
वह आकाश में रहनेवाले वायु
आदि पदार्थों को शुद्ध करके सब को सुख करता है ॥६॥
आकू॑त्यै प्र॒युजे॒ऽग्नये॒ स्वाहा॑ मे॒धायै॒
मन॑से॒ऽग्नये॒ स्वाहा॑ दी॒क्षायै॒ तप॑से॒ऽग्नये॒ स्वाहा॒ सर॑स्वत्यै
पू॒ष्णे᳕ऽग्नये॒ स्वाहा॑। आपो॑ देवीर्बृहतीर्विश्वशम्भुवो॒ द्यावा॑पृथिवी॒ऽउरो॑ऽन्तरिक्ष।
बृह॒स्पत॑ये ह॒विषा॑ विधेम॒ स्वाहा॑ ॥७॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
किसलिये उस यज्ञ का अनुष्ठान करना चाहिये, इस
विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे हम लोग (आकूत्यै) उत्साह (प्रयुजे)
उत्तम-उत्तम धर्मयुक्त क्रियाओं (अग्नये) अग्नि के प्रदीपन (स्वाहा) वेदवाणी के
प्रचार (सरस्वत्यै) विज्ञानयुक्त वाणी (पूष्णे) पुष्टि करने (बृहस्पतये) बड़े-बड़े
अधिपतियों के होने (अग्नये) बिजुली की विद्या के ग्रहण (स्वाहा) पढ़ने-पढ़ाने से
विद्या (मेधायै) बुद्धि की उन्नति (मनसे) विज्ञान की वृद्धि (अग्नये) कारणरूप
(स्वाहा) सत्यवाणी की प्रवृत्ति (दीक्षायै) धर्मनियम और आचरण की रीति (तपसे)
प्रताप (अग्नये) जाठराग्नि के शोधन (स्वाहा) उत्तम स्तुतियुक्त वाणी से (बृहतीः)
महागुण-सहित (विश्वशम्भुवः) सब के लिये सुख उत्पन्न करानेवाले (देवीः)
दिव्यगुणसम्पन्न (आपः) प्राण वा जल से (स्वाहा) सत्य भाषण (द्यावापृथिवी) भूमि और
प्रकाश की शुद्धि के अर्थ (उरो) बहुत सुख सम्पादक (अन्तरिक्ष) अन्तरिक्ष में
रहनेवाले पदार्थों को शुद्ध और जिस (स्वाहा) उत्तम क्रिया वा वेदवाणी से यज्ञ
सिद्ध होता है, उन सबों को (हविषा) सत्य और प्रेमभाव से
(विधेम) सिद्ध करें, वैसे तुम भी किया करो ॥७॥
भावार्थभाषाः - यज्ञ के अनुष्ठान के विना उत्साह, बुद्धि, सत्यवाणी, धर्माचरण
की रीति, तप,
धर्म का अनुष्ठान और विद्या
की पुष्टि का सम्भव नहीं होता और इनके विना कोई भी मनुष्य परमेश्वर की आराधना करने
को समर्थ नहीं हो सकता। इससे सब मनुष्यों को इस यज्ञ का अनुष्ठान करके सब के लिये
सब प्रकार आनन्द प्राप्त करना चाहिये ॥७॥
विश्वो॑ दे॒वस्य॑ ने॒तुर्मर्त्तो॑ वुरीत
स॒ख्यम्। विश्वो॑ रा॒यऽइ॑षुध्यति द्यु॒म्नं वृ॑णीत पु॒ष्यसे॒ स्वाहा॑ ॥८॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
मनुष्यों को परमेश्वर के आश्रय से क्या-क्या करना चाहिये, इस
विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - जैसे (विश्वः) सब (मर्तः) मनुष्य (नेतुः) सब को प्राप्त वा
(देवस्य) सब का प्रकाश करनेवाले परमेश्वर के साथ (सख्यम्) मित्रता और गुणकर्मसमूह
को (वुरीत) स्वीकार और (विश्वः) सब (राये) धन की प्राप्ति के लिये (इषुध्यति)
बाणों को धारण करे, वह (द्युम्नम्) धन को (वृणीत) स्वीकार करे, वैसे
हे मनुष्य ! इस सब का अनुष्ठान करके (स्वाहा) सत्क्रिया से तू भी (पुष्यसे) पुष्ट
हो ॥८॥
भावार्थभाषाः - इस
मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। सब मनुष्यों को परमेश्वर की उपासना करके
परस्पर मित्रपन का सम्पादन कर,
युद्ध में दुष्टों को जीत के, राज्यलक्ष्मी
को प्राप्त होकर सुखी रहना चाहिये ॥८॥
ऋ॒क्सा॒मयोः॒ शिल्पे॑ स्थ॒स्ते वा॒मार॑भे॒
ते मा॑ पात॒मास्य य॒ज्ञस्यो॒दृचः॑। शर्मा॑सि॒ शर्म॑ मे यच्छ॒ नम॑स्तेऽअस्तु॒ मा
मा॑ हिꣳसीः ॥९॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
मनुष्यों को शिल्पविद्या की सिद्धि कैसे करनी चाहिये, इस
विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! आप जो मैं (ऋक्सामयोः) ऋग्वेद और सामवेद के
पढ़ने के पीछे (उदृचः) जिसमें अच्छे प्रकार ऋचा प्रत्यक्ष की जाती है, (अस्य)
इस (यज्ञस्य) शिल्पविद्या से सिद्ध हुए यज्ञ के सम्बन्धी (वाम्) ये (शिल्पे) मन वा
प्रसिद्ध किया से सिद्ध की हुई कारीगरी की जो विद्यायें (स्थः) हैं, (ते)
उन दोनों को (आरभे) आरम्भ करता हूँ तथा जो (मा) मेरी (आ) सब ओर से (पातम्) रक्षा
करते हैं, (ते) वे (स्थः) हैं, उनको
विद्वानों के सकाश से ग्रहण करता हूँ। हे विद्वन् मनुष्य ! (ते) उस तेरे लिये (मे)
मेरा (नमः) अन्नादि-सत्कार-पूर्वक नमस्कार (अस्तु) विदित हो तथा तुम (मा) मुझ को
चलायमान मत करो और (यत्) जो (शर्म) सुख (असि) है, उस
(शर्म) सुख को (मे) मेरे लिये (यच्छ) देओ ॥९॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों
को चाहिये कि विद्वानों के सकाश से वेदों को पढ़कर शिल्पविद्या वा हस्तक्रिया को
साक्षात्कार कर विमान आदि यानों की सिद्धिरूप कार्य्यों को सिद्ध करके सुखों की
उन्नति करें ॥९॥
ऊर्ग॑स्याङ्गिर॒स्यूर्ण॑म्रदा॒ऽऊर्जं॒ मयि॑
धेहि। सोम॑स्य नी॒विर॑सि॒ विष्णोः॒ शर्मा॑सि॒ शर्म॑ यज॑मान॒स्येन्द्र॑स्य॒ योनि॑रसि
सुऽस॒स्याः कृ॒षीस्कृ॑धि। उच्छ्र॑यस्व वनस्पतऽऊ॒र्ध्वो मा॑ पा॒ह्यꣳह॑स॒ऽआस्य
य॒ज्ञस्यो॒दृचः॑ ॥१०॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
वह शिल्पविद्या यज्ञ कैसा है, इस
विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे (वनस्पते) प्रकाशनीय विद्याओं का प्रचार करनेवाले
विद्वान् मनुष्य ! तू जो (आङ्गिरसि) अग्नि आदि पदार्थों से सिद्ध की हुई
(ऊर्णम्रदाः) आच्छादन का प्रकाश वा (ऊर्क्) पराक्रम तथा अन्नादि को करनेवाली
शिल्पविद्या (असि) है अथवा जो (ऊर्जम्) पराक्रम वा अन्न आदि को धारण करती (असि) है, जो
(सोमस्य) उत्पन्न पदार्थ समूह का (नीविः) संवरण करनेवाली (असि) है, जो
(विष्णोः) शिल्पविद्या में व्यापक बुद्धि (यजमानस्य) शिल्पक्रिया को जाननेवाले
(इन्द्रस्य) परमैश्वर्य्ययुक्त मनुष्य के (शर्म) सुख का (योनिः) निमित्त (असि) है, जो
(अस्य) इस (उदृचः) ऋचाओं के प्रत्यक्ष करनेवाले (यज्ञस्य) शिल्पक्रिया-साध्य यज्ञ
की (शर्म) सुख करानेवाली (असि) है,
उसको (मयि) शिल्पविद्या को
जानने की इच्छा करनेवाले मुझ में (आ धेहि) अच्छे प्रकार धारण कर (सुसस्याः)
उत्तम-उत्तम धान्य उत्पन्न करने वा (कृषीः) खेती वा खेंचनेवाली क्रियाओं को (कृधि)
सिद्ध कर, (ऊर्ध्वः) ऊपर स्थित होनेवाले (मा) मुझ को
(उच्छ्रयस्व) उत्तम धान्यवाली खेती का सेवन कराओ और (अंहसः) पाप वा दुःखों से
(पाहि) रक्षा कर, जो विमान आदि यानों और यज्ञ में (वनस्पते)
वृक्ष की शाखा ऊँची स्थापन की जाती है,
उस को भी (उच्छ्रयस्व) उपयोग
में लाओ ॥१०॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों
को विद्वानों के सकाश से शिल्पविद्या का साक्षात्कार और प्रचार करके सब मनुष्यों
को समृद्धियुक्त करना चाहिये ॥१०॥
व्र॒तं कृ॑णुता॒ग्निर्ब्रह्मा॒ग्निर्य॒ज्ञो
वन॒स्पति॑र्य॒ज्ञियः॑। दैवीं॒ धियं॑ मनामहे सुमृडी॒काम॒भिष्ट॑ये वर्चो॒धां
य॒ज्ञवा॑हसꣳ सुती॒र्था नो॑ऽअस॒द्वशे॑। ये दे॒वा मनो॑जाता मनो॒युजो॒
दक्ष॑क्रतव॒स्ते नो॒ऽवन्तु॒ ते नः॑ पान्तु॒ तेभ्यः॒ स्वाहा॑ ॥११॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब अनेक अर्थवाले अग्नि को जानकर उससे क्या-क्या उपकार
लेना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हम लोग जो (ब्रह्म) ब्रह्मपदवाच्य (अग्निः) अग्नि नाम से
प्रसिद्ध (असत्) है, जो (यज्ञः) अग्निसंज्ञक और जो (वनस्पतिः) वनों
का पालन करनेवाला यज्ञ (अग्निः) अग्नि नामक है, उसकी
उपासना कर वा उससे उपकार लेकर (अभिष्टये) इष्टसिद्धि के लिये जो (सुतीर्था) जिससे
अत्युत्तम दुःखों से तारनेवाले वेदाध्ययनादि तीर्थ प्राप्त होते हैं, उस
(सुमृडीकाम्) उत्तम सुखयुक्त (वर्चोधाम्) विद्या वा दीप्ति को धारण करने तथा
(दैवीम्) दिव्यगुणसम्पन्न (धियम्) बुद्धि वा क्रिया को (मनामहे) जानें, (ये)
जो (दक्षक्रतवः) शरीर, आत्मा के बल, प्रज्ञा
वा कर्म से युक्त (मनोजाताः) विज्ञान से उत्पन्न हुए (मनोयुजः) सत्-असत् के ज्ञान
से युक्त (देवाः) विद्वान् लोग (वशे) प्रकाशयुक्त कर्म में वर्त्तमान हैं, वा
जिनसे (स्वाहा) विद्यायुक्त वाणी प्राप्त होती है, (तेभ्यः)
उनसे पूर्वोक्त प्रज्ञा की (मनामहे) याचना करते हैं, (ते)
वे (नः) हम लोगों को (अवन्तु) विद्या,
उत्तम क्रिया, तथा
शिक्षा आदिकों में प्रवेश [करायें] और (नः) हम लोगों की निरन्तर (पान्तु) रक्षा
करें ॥११॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों
को जिसकी अग्नि संज्ञा है, उस ब्रह्म को जान और उसकी उपासना करके उत्तम
बुद्धि को प्राप्त करना चाहिये। विद्वान् लोग जिस बुद्धि से यज्ञ को सिद्ध करते
हैं, उससे शिल्पविद्याकारक यज्ञों को सिद्ध करके
विद्वानों के सङ्ग से विद्या को प्राप्त होके स्वतन्त्र व्यवहार में सदा रहना
चाहिये, क्योंकि बुद्धि के विना कोई भी मनुष्य सुख को
नहीं बढ़ा सकता। इससे विद्वान् मनुष्यों को उचित है कि सब मनुष्यों के लिये
ब्रह्मविद्या और पदार्थविद्या और बुद्धि की शिक्षा करके निरन्तर रक्षा करें और वे
रक्षा को प्राप्त हुए मनुष्य परमेश्वर वा विद्वानों के उत्तम-उत्तम प्रिय कर्मों
का आचरण किया करें ॥११॥
श्वा॒त्राः पी॒ता भ॑वत
यू॒यमा॑पोऽअ॒स्माक॑म॒न्तरु॒दरे॑ सु॒शेवाः॑।
ताऽअ॒स्मभ्य॑मय॒क्ष्माऽअ॑नमी॒वाऽअना॑गसः॒ स्व॑दन्तु दे॒वीर॒मृता॑ऽऋता॒वृधः॑ ॥१२॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
इसका अनुष्ठान करके आगे मनुष्यों को क्या-क्या करना चाहिये, इस
विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो हम ने (पीताः) पिये (अस्माकम्) मनुष्यों
के (अन्तः) मध्य वा (उदरे) शरीर के भीतर स्थित हुए (अस्मभ्यम्) मनुष्यादिकों के
लिये (सुशेवाः) उत्तम सुखयुक्त (अनमीवाः) ज्वरादि रोग-समूह से रहित (अयक्ष्माः)
क्षय आदि रोगकारक दोषों से रहित (अनागसः) पाप दोष निमित्तों से पृथक् (ऋतावृधः)
सत्य को बढ़ाने वा (अमृताः) नाशरहित अमृतरसयुक्त (देवीः) दिव्यगुणसम्पन्न (आपः)
प्राण वा जल हैं, (ताः) उनको आप लोग (स्वदन्तु) अच्छे प्रकार
सेवन किया करो। इसका अनुष्ठान करके (यूयम्) तुम सब मनुष्य सुखों को भोगनेवाले
(भवत) नित्य होओ ॥१२॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों
को विद्वानों के सङ्ग वा उत्तम शिक्षा से विद्या को प्राप्त होकर अच्छे प्रकार
परीक्षित शुद्ध किये हुए, शरीर और आत्मा के बल को बढ़ाने और रोगों को
दूर करनेवाले जल आदि पदार्थों का सेवन करना चाहिये, क्योंकि
विद्या वा आरोग्यता के विना कोई भी मनुष्य निरन्तर कर्म करने को समर्थ नहीं हो
सकता। इससे इस कार्य्य का सर्वदा अनुष्ठान करना चाहिये ॥१२॥
इ॒यं ते॑ य॒ज्ञिया॑ त॒नूर॒पो मु॑ञ्चामि॒ न
प्र॒जाम्। अ॒ꣳहो॒मुचः॒ स्वाहा॑कृताः पृथि॒वीमावि॑शत पृथि॒व्या सम्भ॑व ॥१३॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर वे जल कैसे हैं,
इस विषय का उपदेश अगले
मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् मनुष्य ! जैसे (ते) तेरा जो (इयम्) यह
(यज्ञिया) यज्ञ के योग्य (तनूः) शरीर (अपः) जल, प्राण
वा (प्रजाम्) प्रजा की रक्षा करता है,
जिसको तू नहीं छोड़ता, मैं
भी अपने उस शरीर को विना पूर्ण आयु भोगे प्रमाद से बीच में (न मुञ्चामि) नहीं
छोड़ता हूँ। हे मनुष्यो ! जैसे तुम (पृथिव्या) भूमि के साथ वैभवयुक्त होते
(अंहोमुचः) दुःखों को छुड़ाने वा (स्वाहाकृताः) वाणी से सिद्ध किये हुए (अपः) जल
और (पृथिवीम्) भूमि को (आविशत) अच्छे प्रकार विज्ञान से प्रवेश करते हो, मैं
इनसे ऐश्वर्य्यसहित और इनमें प्रविष्ट होता हूँ, वैसे
तू भी (सम्भव) हो और प्रवेश कर ॥१३॥
भावार्थभाषाः - इस
मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि विद्या से परस्पर
पदार्थों का मेल और सेवन कर रोगरहित शरीर तथा आत्मा की रक्षा करके सुखी रहना
चाहिये ॥१३॥
अग्ने॒ त्वꣳ सु जा॑गृहि व॒यꣳ सु
म॑न्दिषीमहि। रक्षा॑ णो॒ऽअप्र॑युच्छन् प्र॒बुधे॑ नः॒ पुन॑स्कृधि ॥१४॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर अग्नि के गुणों का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - (अग्ने) जो अग्नि (प्रबुधे) जगने के समय (सुजागृहि) अच्छे
प्रकार जगाता वा जिससे (वयम्) जगत् के कर्मानुष्ठान करनेवाले हम लोग
(सुमन्दिषीमहि) आनन्दपूर्वक सोते हैं,
जो (अप्रयुच्छन्) प्रमादरहित
होके (नः) प्रमादरहित हम लोगों की (रक्ष) रक्षा तथा प्रमादसहितों को नष्ट करता और
जो (नः) हम लोगों के साथ (पुनः) बार-बार इसी प्रकार (कृधि) व्यवहार करता है, उसको
युक्ति के साथ सब मनुष्यों को सेवन करना चाहिये ॥१४॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों
को जो अग्नि सोने, जागने,
जीने तथा मरने का हेतु है, उसका
युक्ति से सेवन करना चाहिये ॥१४॥
पुन॒र्मनः॒ पुन॒रायु॑र्म॒ऽआग॒न् पुनः॑
प्रा॒णः पुन॑रा॒त्मा म᳖ऽआग॒न् पुन॒श्चक्षुः॒ पुनः॒ श्रोत्रं॑ म॒ऽआग॑न्।
वै॒श्वा॒न॒रोऽद॑ब्धस्तनू॒पाऽअ॒ग्निर्नः॑ पातु दुरि॒ताद॑व॒द्यात् ॥१५॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
जीव अग्नि,
वायु आदि पदार्थों के
निमित्त से जगने के समय वा दूसरे जन्म में प्रसिद्ध मन आदि इन्द्रियों को प्राप्त
होते हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - जिसके सम्बन्ध वा कृपा से (मे) मुझ को जो (मनः)
विज्ञानसाधक मन (आयुः) उमर (पुनः) फिर-फिर (आगन्) प्राप्त होता (मे) मुझ को
(प्राणः) शरीर का आधार प्राण (पुनः) फिर (आगन्) प्राप्त होता (आत्मा) सब में
व्यापक सब के भीतर की सब बातों को जाननेवाले परमात्मा का विज्ञान (आगन्) प्राप्त
होता (मे) मुझको (चक्षुः) देखने के लिये नेत्र (पुनः) फिर (आगन्) प्राप्त होते और
(श्रोत्रम्) शब्द को ग्रहण करनेवाले कान (आगन्) प्राप्त होते हैं, वह
(अदब्धः) हिंसा करने अयोग्य (तनूपाः) शरीर वा आत्मा की रक्षा करने और (वैश्वानरः)
शरीर को प्राप्त होनेवाला (अग्निः) अग्नि वा विश्व को प्राप्त होनेवाला परमेश्वर
(नः) हम लोगों को (अवद्यात्) निन्दित (दुरितात्) पाप से उत्पन्न हुए दुःख वा दुष्ट
कर्मों से (पातु) पालन करता है ॥१५॥ (मे) मुझको (चक्षुः) देखने के लिये नेत्र
(पुनः) फिर (आगन्) प्राप्त होते और (श्रोत्रम्) शब्द को ग्रहण करनेवाले कान (आगन्)
प्राप्त होते हैं, वह (अदब्धः) हिंसा करने अयोग्य (तनूपाः) शरीर
वा आत्मा की रक्षा करने और (वैश्वानरः) शरीर को प्राप्त होनेवाला (अग्निः) अग्नि
वा विश्व को प्राप्त होनेवाला परमेश्वर (नः) हम लोगों को (अवद्यात्) निन्दित
(दुरितात्) पाप से उत्पन्न हुए दुःख वा दुष्ट कर्मों से (पातु) पालन करता है ॥१५॥
भावार्थभाषाः - इस
मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। जब जीव सोने वा मरण आदि व्यवहार को प्राप्त होते हैं, तब
जो-जो मन आदि इन्द्रिय नाश हुए के समान होकर फिर जगने वा जन्मान्तर में जिन
कार्य्य करने के साधनों को प्राप्त होते हैं,
वे इन्द्रिय जिस विद्युत्
अग्नि आदि के सम्बन्ध परमेश्वर की सत्ता वा व्यवस्था से शरीरवाले होकर कार्य्य
करने को समर्थ होते हैं, मनुष्यों को योग्य है कि (जो) वह अच्छे प्रकार
सेवन किया हुआ जाठराग्नि सब की रक्षा करता और जो उपासना किया हुआ जगदीश्वर पापरूप
कर्मों से अलग कर धर्म में प्रवृत्त कर बार-बार मनुष्यजन्म को प्राप्त कराकर
दुष्टाचार वा दुःखों से पृथक् करके इस लोक वा परलोक के सुखों को प्राप्त कराता है
॥१५॥
त्वम॑ग्ने व्रत॒पाऽअ॑सि दे॒वऽआ मर्त्ये॒ष्वा।
त्वं य॒ज्ञेष्वीड्यः॑। रास्वेय॑त्सो॒मा भूयो॑ भर दे॒वो नः॑ सवि॒ता वसो॑र्दा॒ता
वस्व॑दात् ॥१६॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर वे कैसे हैं,
इस विषय का उपदेश अगले
मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे (सोम) ऐश्वर्य्य के देनेवाले (अग्ने) जगदीश्वर ! जो
(त्वम्) आप (मर्त्त्येषु) मनुष्यों में (व्रतपाः) सत्य धर्माचरण की रक्षा (सविता)
सब जगत् को उत्पन्न करने (यज्ञेषु) सत्कार वा उपासना आदि में (ईड्यः) स्तुति के
योग्य (नः) हम लोगों के लिये (वसोः) धन के (दाता) दान करनेवाले (वसु) धन को
(अदात्) देते हैं, सो (इयत्) प्राप्त करते हुए आप (भूयः) बारंबार
अत्यन्त धन (आरास्व) दीजिये (आभर) सब सुखों से पोषण कीजिये ॥१॥१६॥ (त्वम्) जो
(अग्ने) अग्नि (मर्त्त्येषु) मरण धर्मवाले मनुष्यों के कार्यों में (व्रतपाः)
नियमाचरण का पालन (देवः) प्रकाश करने (यज्ञेषु) अग्निहोत्रादि यज्ञों में (ईड्यः)
खोजने योग्य (सोमः) ऐश्वर्य को देने (सविता) जगत् को प्रेरणा करने (देवः)
प्रकाशमान अग्नि है, वह (नः) हम लोगों के लिये (वसोः) धन को (दाता)
प्राप्त (इयत्) कराता हुआ (भूयः) अत्यन्त (वसु) धन को (अदात्) देता और (आरास्व) धन
को देने का निमित्त होके (आभर) सब प्रकार के सुखों को धारण करता है ॥२॥१६॥
भावार्थभाषाः - इस
मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। सब मनुष्यों को उचित है कि जैसे सत्यस्वरूप सब जगत्
को उत्पन्न करने और सकल सुखों के देनेवाले जगदीश्वर ही की उपासना को करके सुखी
रहें। इसी प्रकार कार्यसिद्धि के लिये अग्नि को संप्रयुक्त करके सब सुखों को
प्राप्त करें ॥१६॥
ए॒षा ते॑ शुक्र त॒नूरे॒तद्वर्च॒स्तया॒
सम्भ॑व॒ भ्राज॑ङ्गच्छ। जूर॑सि धृ॒ता मन॑सा॒ जुष्टा॒ विष्ण॑वे ॥१७॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
इनको सेवन करके मनुष्यों को कैसे वर्त्तना चाहिये, इस
विषय को उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे (शुक्र) वीर्य्य पराक्रमवाले विद्वन् मनुष्य ! (ते)
तेरा जो (विष्णवे) परमेश्वर वा यज्ञ के लिये (तनूः) शरीर (असि) है, तैने
जिसको (धृता) धारण किया और है (तया) उससे तू (जूः) ज्ञानी वा वेगवाला होके (एतत्)
इस (वर्चः) विज्ञान और तेज को (सम्भव) अच्छे प्रकार सम्पन्न कर और उससे तू
(भ्राजम्) प्रकाश को (गच्छ) प्राप्त हो और (मनसा) विज्ञान से पुरुषार्थ को प्राप्त
हो ॥१७॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों
को चाहिये कि परमेश्वर की आज्ञा का पालन करके विज्ञानयुक्त मन से शरीर वा आत्मा के
आरोग्यपन को बढ़ा कर यज्ञ का अनुष्ठान करके सुखी रहें ॥१७॥
तस्या॑स्ते स॒त्यस॑वसः प्रस॒वे त॒न्वो᳖
य॒न्त्रम॑शीय॒ स्वाहा॑। शु॒क्रम॑सि च॒न्द्रम॑स्य॒मृत॑मसि वैश्वदे॒वम॑सि ॥१८॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
वह वाणी और बिजुली कैसी है, इस
विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे जगदीश्वर ! (सत्यसवसः) सत्य ऐश्वर्य्ययुक्त वा जगत् के
निमित्त कारणरूप (ते) आपके (प्रसवे) उत्पन्न किये हुए संसार में आपकी कृपा से जो
(स्वाहा) वाणी वा बिजुली है,
(तस्याः) उन दोनों के सकाश से
विद्या करके मैं जो (शुक्रम्) शुद्ध (असि) है, (चन्द्रम्)
आह्लादकारक (असि) है, (अमृतम्) अमृतात्मक व्यवहार वा परमार्थ से सुख
को सिद्ध करनेवाला (असि) है और (वैश्ववेदम्) सब देव अर्थात् विद्वानों को सुख
देनेवाला (असि) है, (तत्) उस (यन्त्रम्) सङ्कोचन, विकाशन, चालन, बन्धन
करनेवाले यन्त्र को (अशीय) प्राप्त होऊँ ॥१८॥
भावार्थभाषाः - इस
मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। मनुष्यो को चाहिये कि ईश्वर की उत्पन्न की हुई इस
सृष्टि में विद्या से कलायन्त्रों को सिद्ध करके अग्नि आदि पदार्थों से अच्छे
प्रकार पदार्थों का ग्रहण कर सब सुखों को प्राप्त करें ॥१८॥
चिद॑सि म॒नासि॒ धीर॑सि॒ दक्षि॑णासि
क्ष॒त्रिया॑सि य॒ज्ञिया॒स्यदि॑तिरस्युभयतःशी॒र्ष्णी। सा नः॒ सुप्रा॑ची॒
सुप्र॑तीच्येधि मि॒त्रस्त्वा॑ प॒दि ब॑ध्नीतां
पू॒षाऽध्व॑नस्पा॒त्विन्द्रा॒याध्य॑क्षाय ॥१९॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर वे वाणी और बिजुली किस प्रकार की हैं, इस
विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे जगदीश्वर ! (सत्यसवसः) सत्य ऐश्वर्य्ययुक्त (ते) आपके
(प्रसवे) उत्पन्न किये संसार में जो (चित्) विद्या व्यवहार को चितानेवाली (असि) है, जो
(मना) ज्ञान साधन करानेहारी (असि) है,
जो (धीः) प्रज्ञा और कर्म को
प्राप्त करनेवाली (असि) है,
जो (दक्षिणा) विज्ञान विजय
को प्राप्त करने (क्षत्रिया) राजा के पुत्र के समान वर्ताने हारी (असि) है, जो
(यज्ञिया) यज्ञ को कराने योग्य (असि) है,
जो (उभयतःशीर्ष्णी) दोनों
प्रकार से शिर के समान उत्तम गुणयुक्त और (अदितिः) नाशरहित वाणी वा बिजुली (असि)
है, (सा) वह (नः) हम लोगों के लिये (सुप्राची)
पूर्वकाल और (सुप्रतीची) पश्चिम काल में सुख देने हारी (एधि) हो, जो
(पूषा) पुष्टि करने हारा (मित्रः) सब का मित्र होकर मनुष्यपन के लिये (त्वा) उस
वाणी और बिजुली को (पदि) प्राप्ति योग्य उत्तम व्यवहार में (अध्यक्षाय) अच्छे
प्रकार व्यवहार को देखने (इन्द्राय) परमैश्वर्य्यवाले परमात्मा, अध्यक्ष
और श्रेष्ठ व्यवहार के लिये (बध्नीताम्) बन्धनयुक्त करे, सो
आप (अध्वनः) व्यवहार और परमार्थ की सिद्धि करनेवाले मार्ग के मध्य में (नः) हम
लोगों की निरन्तर (पातु) रक्षा कीजिये ॥१९॥
भावार्थभाषाः - इस
मन्त्र में श्लेषालङ्कार है और पूर्व मन्त्र से (ते, सत्यसवसः, प्रसवे)
इन तीन पदों की अनुवृत्ति भी आती है। मनुष्यों को जो बाह्य, आभ्यन्तर
की रक्षा करके सब से उत्तम वाणी वा बिजुली वर्त्तती है, वही
भूत, भविष्यत् और वर्त्तमान काल में सुख की
करानेवाली है, ऐसा जानना चाहिये। जो कोई मनुष्य प्रीति से
परमेश्वर, सभाध्यक्ष और उत्तम कामों में आज्ञा के पालन
के लिये सत्य वाणी और उत्तम विद्या को ग्रहण करता है, वही
सब की रक्षा कर सकता है ॥१९॥
अनु॑ त्वा मा॒ता म॑न्यता॒मनु॑ पि॒ताऽनु
भ्राता॒ सग॒र्भ्योऽनु॒ सखा॒ सयू॑थ्यः। सा दे॑वि दे॒वमच्छे॒हीन्द्रा॑य॒ सोम॑ꣳ
रु॒द्रस्त्वा॑वर्त्तयतु स्वस्ति सोम॑सखा॒ पुन॒रेहि॑ ॥२०॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर वह वाणी और बिजुली कैसी हैं, इस
विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्य ! जैसे (रुद्रः) परमेश्वर वा ४४ चवालीस वर्ष
पर्यन्त अखण्ड ब्रह्मचर्य्याश्रम सेवन से पूर्ण विद्यायुक्त विद्वान् (त्वा) तुझको
जिस वाणी वा बिजुली तथा (सोमम्) उत्तम पदार्थसमूह और (स्वस्ति) सुख को (इन्द्राय)
परमैश्वर्य्य की प्राप्ति के लिये (आवर्त्तयतु) प्रवृत्त करे और जो (सा) वह
(सोमसखा) विद्याप्रकाशयुक्त वाणी और (देवि) दिव्यगुणयुक्त बिजुली (देवम्) उत्तम
धर्मात्मा विद्वान् को प्राप्त होती है,
वैसे उसको तू (पुनः) बार-बार
(अच्छ) अच्छे प्रकार (इहि) प्राप्त हो और इसको ग्रहण करने के लिये (त्वा) तुझ को
(माता) उत्पन्न करनेवाली जननी (अनुमन्यताम्) अनुमति अर्थात् आज्ञा देवे, इसी
प्रकार (पिता) उत्पन्न करनेवाला जनक (सगर्भ्यः) तुल्य गर्भ में होनेवाला (भ्राता)
भाई और (सयूथ्यः) समूह में रहनेवाला (सखा) मित्र ये सब प्रसन्नता पूर्वक आज्ञा
देवें, उसको तू (पुनरेहि) अत्यन्त पुरुषार्थ करके
बारं-बार प्राप्त हो ॥२०॥
भावार्थभाषाः - इस
मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। प्रश्नः—मनुष्यों को परस्पर किस प्रकार
वर्त्तना चाहिये? उत्तरः—जैसे धर्मात्मा, विद्वान्, माता, पिता, भाई, मित्र
आदि सत्यव्यवहार में प्रवृत्त हों,
वैसे पुत्रादि और जैसे
विद्वान् धार्मिक पुत्रादि धर्मयुक्त व्यवहार में वर्त्तें, वैसे
माता पिता आदि को भी वर्त्तना चाहिये ॥२०॥
वस्व्य॒स्यदि॑तिरस्यादि॒त्यासि॑ रु॒द्रासि॑
च॒न्द्रासि॑। बृह॒स्पति॑ष्ट्वा सु॒म्ने र॑म्णातु रु॒द्रो वसु॑भि॒राच॑के ॥२१॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर वह वाणी वा बिजुली किस प्रकार की है, इस
विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् मनुष्य ! जैसे जो (वस्वी) अग्नि आदि विद्या
सम्बन्धी, जिसकी सेवा २४ चौबीस वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचर्य
करनेवालों ने की हुई (असि) है,
जो (अदितिः) प्रकाशकारक
(असि) है, जो (रुद्रा) प्राणवायु सम्बन्धवाली और जिसको
४४ चवालीस वर्ष ब्रह्मचर्य करनेहारे प्राप्त हुए हों, वैसी
(असि) है, जो (आदित्या) सूर्य्यवत् सब विद्याओं का
प्रकाश करनेवाली, जिसका ग्रहण ४८ अड़तालीस वर्ष पर्यन्त
ब्रह्मचर्यसेवी मनुष्यों ने किया हो,
वैसी (असि) है, जो
(चन्द्रा) आह्लाद करनेवाली (असि) है,
जिसको (बृहस्पतिः) सर्वोत्तम
(रुद्रः) दुष्टों को रुलानेवाला परमेश्वर वा विद्वान् (सुम्ने) सुख में (रम्णातु)
रमणयुक्त करता और जिस (वसुभिः) पूर्णविद्यायुक्त मनुष्यों के साथ वर्त्तमान हुई
वाणी वा बिजुली की (आचके) निर्माण वा इच्छा करता अथवा जिसकी मैं इच्छा करता हूँ, वैसे
तू भी (त्वा) उसको (रम्णातु) रमणयुक्त वा इसको सिद्ध करने की इच्छा कर ॥२१॥
भावार्थभाषाः - इस
मन्त्र में श्लेष और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे वाणी, बिजुली
और प्राण पृथिवी आदि और विद्वानों के साथ वर्त्तमान हुए अनेक व्यवहार की सिद्धि के
हेतु हैं और जिनकी सेवा जितेन्द्रियादि धर्मसेवनपूर्वक होके विद्वानों ने की हो, वैसी
वाणी और बिजुली मनुष्यों को विज्ञानपूर्वक क्रियाओं से संप्रयोग की हुई बहुत सुखों
के करनेवाली होती है ॥२१॥
अदि॑त्यास्त्वा मू॒र्द्धन्नाजि॑घर्मि
देव॒यज॑ने पृथि॒व्याऽइडा॑यास्प॒दम॑सि घृ॒तव॒त् स्वाहा॑। अ॒स्मे र॑मस्वा॒स्मे ते॒
बन्धु॒स्त्वे रायो॒ मे रायो॒ मा व॒यꣳ रा॒यस्पोषे॑ण॒ वियौ॑ष्म॒ तोतो॒ रायः॑ ॥२२॥
पद पाठ
अदि॑त्याः। त्वा॒। मू॒र्द्धन्। आ।
जि॒घर्मि॒। दे॒व॒यज॑न॒ इति॑ देव॒ऽयज॑ने। पृ॒थि॒व्याः। इडा॑याः। प॒दम्। अ॒सि॒।
घृ॒तव॒दि॑ति घृ॒तऽव॑त्। स्वाहा॑। अ॒स्मे॑ऽइत्य॒स्मे। र॒म॒स्व॒। अ॒स्मेऽइत्य॒स्मे।
ते॒। बन्धुः॑। त्वेऽइति॒ त्वे। रायः॑। मेऽइति॒ मे। रायः॑। मा। व॒यम्। रा॒यः।
पोषे॑ण। वि। यौ॒ष्म॒। तोतः॑। रायः॑ ॥२२॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर वे वाणी और बिजुली कैसी हैं, इस
विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् मनुष्य ! तू जैसे (देवयजने)
विद्वानों के यजन वा दान में इस (अदित्याः) अन्तरिक्ष (पृथिव्याः) भूमि और
(इडायाः) वाणी को (स्वाहा) अच्छे प्रकार यज्ञ करनेवाली क्रिया के मध्य जो
(मूर्द्धन्) सब के ऊपर वर्त्तमान (घृतवत्) पुष्टि करनेवाले घृत के तुल्य (पदम्)
जानने वा प्राप्त होने योग्य पदवी (असि) है वा जिसको मैं (आ जिघर्मि) प्रदीप्त
करता हूँ, वैसे (त्वा) उसको प्रदीप्त कर और जो (अस्मे)
हम लोगों में विभूति रमण करती है,
वह तुम लोगों में भी (रमस्व)
रमण करे, जिसको मैं रमण कराता हूँ, उस
को तू भी (रमस्व) रमण करा, जो (अस्मे) हम लोगों का (बन्धुः) भाई है, वह
(ते) तेरा भी हो, जो (रायः) विद्यादि धनसमूह (त्वे) तुझ में है, वह
(मे) मुझ में भी हो, जो (तोतः) जानने प्राप्त करने योग्य (रायः)
विद्याधन मुझ में है, सो तुझ में भी हो, (रायः)
तुम्हारी और हमारी समृद्धि है,
वे सब के सुख के लिये हों।
इस प्रकार जानते निश्चय करते वा अनुष्ठान करते हुए तुम (वयम्) हम और सब लोग
(रायस्पोषेण) धन की पुष्टि से कभी (मा वियौष्म) अलग न होवें ॥२२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को
सत्यविद्या, धर्म से संस्कार की हुई वाणी वा शिल्पविद्या
से संप्रयोग की हुई बिजुली आदि विद्या को सब मनुष्यों के लिये उपदेश वा ग्रहण और
सुख-दुःख की व्यवस्था को भी तुल्य ही जानके सब ऐश्वर्य्य को परोपकार में संयुक्त
करना चाहिये और किसी मनुष्य को इस प्रकार का व्यवहार कभी न करना चाहिये कि जिससे
किसी की विद्या, धन आदि ऐश्वर्य्य की हानि होवे ॥२२॥
सम॑ख्ये दे॒व्या धि॒या सं
दक्षि॑णयो॒रुच॑क्ष॒सा। मा म॒ऽआयुः॒ प्रमो॑षी॒र्मोऽअ॒हं तव॑ वी॒रं वि॑देय॒ तव॑ देवि
स॒न्दृशि॑ ॥२३॥
पद पाठ
सम्। अ॒ख्ये॒। दे॒व्या। धि॒या। सम्।
दक्षि॑णया। उ॒रुच॑क्ष॒सेत्यु॒रुऽच॑क्षसा। मा। मे॒। आयुः॑। प्र। मो॒षीः॒। मोऽइति॒
मो। अ॒हम्। तव॑। वी॒रम्। वि॒दे॒य॒। तव॑। देवि॒। संदृशीति॑ स॒म्ऽदृशि॑ ॥२३॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
इन दोनों का किस प्रकार उपयोग करना चाहिये, इस
विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् मनुष्य ! जैसे (अहम्) मैं
(दक्षिणया) ज्ञानसाधक अज्ञाननाशक (उरुचक्षसा) बहुत प्रकट वचन वा दर्शनयुक्त
(देव्या) देदीप्यमान (धिया) प्रज्ञा वा कर्म से (तव) उस (देवि) सर्वोत्कृष्ट गुणों
से युक्त वाणी वा बिजुली के (संदृशि) अच्छे प्रकार देखने योग्य व्यवहार में जीवन
को (समख्ये) कथन से प्रकट करता हूँ वह (मे) मेरे (आयुः) जीवन को (मा प्रमोषीः) नाश
न करे, उसको मैं अविद्या से नष्ट न करूँ (तव) हे सब
के मित्र ! अन्याय से आपके (वीरम्) शूरवीर को (मो संविदेय) प्राप्त न होऊँ, वैसे
ही तू भी पूर्वोक्त सब करके अन्याय से मेरे शूरवीरों को प्राप्त मत हो ॥२३॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों
को योग्य है कि शुद्ध कर्म वा प्रज्ञा से वाणी वा बिजुली की विद्या को ग्रहण कर
उमर को बढ़ा और विद्यादि उत्तम-उत्तम गुणों में अपने सन्तान और वीरों को सम्पादन
करके सदा सुखी रहें ॥२३॥
ए॒ष ते॑ गाय॒त्रो भा॒गऽइति॑ मे॒ सोमा॑य
ब्रूतादे॒ष ते॒ त्रैष्टु॑भो भा॒गऽइति॑ मे॒ सोमा॑य ब्रूतादे॒ष ते॒ जाग॑तो भा॒गऽइति॑
मे॒ सोमा॑य ब्रूताच्छन्दोना॒माना॒ सा॑म्राज्यङ्ग॒च्छेति॑ मे॒ सोमा॑य ब्रूतात्।
आस्मा॒को᳖ऽसि शु॒क्रस्ते॒ ग्रह्यो॑ वि॒चित॑स्त्वा॒ विचि॑न्वन्तु ॥२४॥
पद पाठ
ए॒षः। ते॒। गा॒य॒त्रः। भा॒गः। इति॑। मे॒।
सोमा॑य। ब्रू॒ता॒त्। ए॒षः। ते॒। त्रैष्टु॑भः। त्रैस्तु॑भ॒ इति त्रैऽस्तु॑भः।
भा॒गः। इति॑। मे॒। सोमा॑य। ब्रू॒ता॒त्। ए॒षः। ते॒। जाग॑तः। भा॒गः। इति॑। मे॒।
सोमा॑य। ब्रू॒ता॒त्। छ॒न्दो॒ना॒माना॒मिति॑ छन्दःऽना॒माना॑म्। साम्रा॑ज्य॒मिति॒
साम्ऽरा॑ज्यम्। ग॒च्छ॒। इति॑। मे॒। सोमा॑य। ब्रू॒ता॒त्। आ॒स्मा॒कः। अ॒सि॒।
शु॒क्रः। ते॒। ग्रह्यः॑। वि॒चित॒ इति॑ वि॒ऽचितः॑। त्वा॒। वि। चि॒न्व॒न्तु॒ ॥२४॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
किसके प्रतिपादन के लिये ज्ञान की इच्छा करनेहारा
विद्वानों को पूछे, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! तू कौन इस यज्ञ का (गायत्रः)
वेदस्थ गायत्री छन्दयुक्त मन्त्रों के समूहों से प्रतिपादित (भागः) सेवने योग्य
भाग है, (इति) इस प्रकार विद्वान् से पूछ। जैसे वह
विद्वान् (ते) तुझ को उस यज्ञ का यह प्रत्यक्ष भाग है, (इति)
इसी प्रकार से (सोमाय) पदार्थविद्या सम्पादन करनेवाले (मे) मेरे लिये (ब्रूतात्)
कहे। तू कौन इस यज्ञ का (त्रैष्टुभः) त्रिष्टुप् छन्द से प्रतिपादित (भागः) भाग है, (इति)
इसी प्रकार विद्वान् से पूछ। जैसे वह (ते) तुझको उस यज्ञ का (एषः) यह भाग है, (इति)
इसी प्रकार प्रत्यक्षता से समाधान (सोमाय) उत्तम रस के सम्पादन करनेवाले (मे) मेरे
लिये (ब्रूतात्) कहे। तू कौन इस यज्ञ का (जागतः) जगती छन्द से कथित (भागः) अंश है, (इति)
इस प्रकार आप्त से पूछ। जैसे वह (ते) तुझ को उस यज्ञ का (एषः) यह प्रसिद्ध भाग है, (इति)
इसी प्रकार (सोमाय) पदार्थविद्या को सम्पादन करनेवाले (मे) मेरे लिये उत्तर
(ब्रूतात्) कहे। जैसे आप (छन्दोनामानाम्) उष्णिग् आदि छन्दों के मध्य में कहे हुए
यज्ञ के उपदेश में (साम्राज्यम्) भले प्रकार राज्य को (गच्छ) प्राप्त हो (इति) इसी
प्रकार (सोमाय) ऐश्वर्य्ययुक्त (मे) मेरे लिये सार्वभौम राज्य की प्राप्ति होने का
उपाय (ब्रूतात्) कहिये और जिस कारण आप (आस्माकाः) हम लोगों को (शुक्रः) पवित्र
करनेवाले उपदेशक (असि) हैं,
वैसे मैं (ते) आपके
(ग्रह्यः) ग्रहण करने योग्य (विचितः) उत्तम-उत्तम धनादि द्रव्य और गुणों से
संयुक्त शिष्य हूँ। आप मुझको सब गुणों से बढ़ाइये, इस
कारण मैं (त्वा) आपको वृद्धियुक्त करता हूँ और सब मनुष्य (त्वा) आप वा इस यज्ञ तथा
मुझको (विचिन्वन्तु) वृद्धियुक्त करें ॥२४॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्य
लोग विद्वानों से पूछकर सब विद्याओं का ग्रहण करें तथा विद्वान् लोग इन विद्याओं
का यथावत् ग्रहण करावें। परस्पर अनुग्रह करने वा कराने से सब वृद्धियों को प्राप्त
होकर विद्या और चक्रवर्त्ति आदि राज्य को सेवन करें ॥२४॥
अ॒भि त्यं दे॒वꣳ स॑वि॒तार॑मो॒ण्योः᳖
क॒विक्र॑तु॒मर्चा॑मि स॒त्यस॑वꣳ रत्न॒धाम॒भि प्रि॒यं म॒तिं क॒विम्। ऊ॒र्ध्वा
यस्या॒मति॒र्भाऽअदि॑द्यु॒त॒त् सवी॑मनि॒ हिर॑ण्यपाणिरमिमीत सु॒क्रतुः॑ कृ॒पा स्वः॑।
प्र॒जाभ्य॑स्त्वा प्र॒जास्त्वा॑ऽनु॒प्राण॑न्तु प्र॒जास्त्वम॑नु॒प्राणि॑हि ॥२५॥
पद पाठ
अ॒भि। त्यम्। दे॒वम्। स॒वि॒ता॑रम्। ओण्योः᳖।
क॒विक्र॑तु॒मिति॑ क॒विऽक्र॑तु॒म्। अर्चा॑मि। स॒त्यस॑व॒मिति॑ स॒त्यऽस॑वम्।
र॒त्न॒ऽधामिति॑ रत्न॒धाम्। अ॒भि। प्रि॒यम्। म॒तिम्। क॒विम्। ऊ॒र्ध्वा। यस्य॑।
अ॒मतिः॑। भाः। अदि॑द्यु॒तत्। सवी॑मनि। हिर॑ण्यपाणि॒रिति॒ हिर॑ण्यऽपाणिः।
अ॒मि॒मी॒त॒। सु॒क्रतु॒रिति॑ सु॒ऽक्रतुः॑। कृ॒पा। स्व॒रिति॒ स्वः॑। प्र॒जाभ्य॒ इति॑
प्र॒ऽजाभ्यः॑। त्वा॒। प्र॒जा इति॑ प्र॒ऽजाः। त्वा॒।
अ॒नु॒प्राण॒न्त्वित्य॑नु॒ऽप्राण॑न्तु॒। प्र॒जा इति॑ प्र॒ऽजाः। त्वम्।
अ॒नु॒ऽप्राणि॒हीत्य॑नु॒ऽप्राणि॑हि ॥२५॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर अगले मन्त्र में ईश्वर, राजसभा
और प्रजा के गुणों का उपदेश किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - मैं (यस्य) जिस सच्चिदानन्दादिलक्षणयुक्त
परमेश्वर, धार्मिक सभापति और प्रजाजन के (सवीमनि)
उत्पन्न हुए संसार में (ऊर्ध्वा) उत्तम (अमतिः) स्वरूप (भाः) प्रकाशमान
(अदिद्युतत्) प्रकाशित हुआ है। जिसकी (कृपा) करुणा (स्वः) सुख को करती है, (हिरण्यपाणिः)
जिसने सूर्य्यादि ज्योति व्यवहार में उत्तम गुण कर्मों को युक्त किया हो, (सुक्रतुः)
जिस उत्तम प्रज्ञा वा कर्मयुक्त ईश्वर,
सभा-स्वामी और प्रजाजन ने
(स्वः) सूर्य्य और सुख को (अमिमीत) स्थापित किया हो (त्यम्) उस (ओण्योः)
द्यावापृथिवी वा (सवितारम्) अग्नि आदि को उत्पन्न और संप्रयोग करने तथा
(कविक्रतुम्) सर्वज्ञ वा क्रान्तदर्शन (रत्नधाम्) रमणीय रत्नों को धारण करने
(सत्यसवम्) सत्य ऐश्वर्य्ययुक्त (प्रियम्) प्रीतिकारक (मतिम्) वेदादि शास्त्र वा
विद्वानों के मानने योग्य (कविम्) वेदविद्या का उपदेश करने तथा (देवम्) सुख
देनेवाले परमेश्वर, सभाध्यक्ष और प्रजाजन का (अर्चामि) पूजन करता
हूँ वा जिस (त्वा) आपको (प्रजाभ्यः) उत्पन्न हुई सृष्टि से पूजित करता हूँ। उस आप
की सृष्टि में (प्रजाः) मनुष्य आदि (अनुप्राणन्तु) आयु का भोग करें (त्वम्) और आप
कृपा करके (प्रजाः) प्रजा के ऊपर जीवों के अनुकूल (अनुप्राणिहि) अनुग्रह कीजिये
॥२५॥
भावार्थभाषाः - इस
मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। मनुष्यों को सब जगत् के उत्पन्न करनेवाले निराकार, सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान्, सच्चिदानन्दादि
लक्षणयुक्त परमेश्वर, धार्मिक सभापति और प्रजाजन समूह ही का सत्कार
करना चाहिये, उनसे भिन्न और किसी का नहीं। विद्वान्
मनुष्यों को योग्य है कि प्रजा-पुरुषों के सुख के लिये इस परमेश्वर की स्तुति
प्रार्थनोपासना और श्रेष्ठ सभापति तथा धार्मिक प्रजाजन के सत्कार का उपदेश नित्य
करें, जिससे सब मनुष्य उनकी आज्ञा के अनुकूल सदा
वर्त्तते रहें और जैसे प्राण में सब जीवों की प्रीति होती है, वैसे
पूर्वोक्त परमेश्वर आदि में भी अत्यन्त प्रेम करें ॥२५॥
शु॒क्रं त्वा॑ शु॒क्रेण॑ क्रीणामि च॒न्द्रं
च॒न्द्रेणा॒मृत॑म॒मृते॑न। स॒ग्मे ते॒ गोर॒स्मे ते॑ च॒न्द्राणि॒ तप॑सस्त॒नूर॑सि
प्र॒जाप॑ते॒र्वर्णः॑ पर॒मेण॑ प॒शुना॑ क्रीयसे सहस्रपो॒षं पु॑षेयम् ॥२६॥
पद पाठ
शु॒क्रम्। त्वा॒। शु॒क्रेण॑। क्री॒णा॒मि॒।
च॒न्द्रम्। च॒न्द्रेण॑। अ॒मृत॑म्। अ॒मृते॑न। स॒ग्मे। ते॒। गोः। अ॒स्मे इत्य॒स्मे।
ते॒। च॒न्द्राणि॑। तप॑सः। त॒नूः। अ॒सि॒। प्र॒जाप॑ते॒रिति॑ प्र॒जाऽप॑तेः। वर्णः॑।
प॒र॒मेण॑। प॒शुना॑। क्री॒य॒से॒। स॒ह॒स्र॒पो॒षमिति॑ सहस्रऽपो॒षम्। पु॒षे॒य॒म् ॥२६॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
मनुष्यों को क्या-क्या साधन करके यज्ञ को सिद्ध करना
चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - जैसे (सग्मे) पृथिवी के साथ वर्त्तमान यज्ञ
में (तपसः) प्रतापयुक्त अग्नि वा तपस्वी अर्थात् धर्मात्मा विद्वान् का (तनूः)
शरीर (असि) है, उसको शिल्पविद्या वा सत्योपदेश की सिद्धि के
अर्थ (पशुना) विक्रय किये हुए गौ आदि पशुओं करके धन आदि सामग्री से ग्रहण करके
(प्रजापतेः) प्रजा के पालनहेतु सूर्य्य का (वर्णः) स्वीकार करने योग्य तेज
(क्रीयसे) क्रय होता है, उस (सहस्रपोषम्) असंख्यात पुष्टि को प्राप्त
होके मैं (पुषेयम्) पुष्ट होऊँ। हे विद्वन् मनुष्य ! जो (ते) आपको (गोः) पृथिवी के
राज्य के सकाश से (चन्द्राणि) सुवर्ण आदि धातु प्राप्त हैं, वे
(अस्मे) हम लोगों के लिये भी हों,
जैसे मैं (परमेण) उत्तम
(शुक्रेण) शुद्ध भाव से (शुक्रम्) शुद्धिकारक यज्ञ (चन्द्रेण) सुवर्ण से (चन्द्रम्)
सुवर्ण और (अमृतेन) नाशरहित विज्ञान से (अमृतम्) मोक्षसुख को (क्रीणामि) ग्रहण
करता हूँ, वैसे तू भी (त्वा) उसको ग्रहण कर ॥२६॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को योग्य है कि शरीर, मन, वाणी
और धन से परमेश्वर की उपासना आदि लक्षणयुक्त यज्ञ का निरन्तर अनुष्ठान करके असंख्यात
अतुल पुष्टि को प्राप्त करें ॥२६॥
मि॒त्रो न॒ऽएहि॒
सुमि॑त्रध॒ऽइन्द्र॑स्यो॒रुमावि॑श॒ दक्षि॑णमु॒शन्नु॒शन्त॑ꣳ स्यो॒नः स्यो॒नम्।
स्वान॒ भ्राजाङ्घा॑रे॒ बम्भा॑रे॒ हस्त॒ सुह॑स्त॒ कृशा॑नवे॒ते वः॑
सोम॒क्रय॑णा॒स्तान् र॑क्षध्वं॒ मा वो॑ दभन् ॥२७॥
पद पाठ
मि॒त्रः। नः॒। आ। इ॒हि॒। सुमि॑त्रध॒ इति॒
सुऽमि॑त्रधः। इन्द्र॑स्य। उ॒रुम्। आ। वि॒श॒। दक्षि॑णम्। उ॒शन्। उ॒शन्त॑म्।
स्यो॒नः। स्यो॒नम्। स्वान॑। भ्राज॑। अङ्घा॑रे। बम्भा॑रे। हस्त॑। सुह॒स्तेति॒
सुऽहस्त॑। कृशा॑नो॒ऽइति॒ कृशानो। ए॒ते। वः॒। सो॒म॒क्रय॑णा॒ इति॑ सोम॒ऽक्रय॑णाः। तान्।
र॒क्ष॒ध्व॒म्। मा। वः॒। द॒भ॒न् ॥२७॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
मनुष्यों को विद्वान् मनुष्य के साथ और विद्वान् को सब
मनुष्यों के संग कैसे वर्त्तना चाहिये,
इस विषय का उपदेश अगले
मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे (स्वान) उपदेश करने (भ्राज) प्रकाश को
प्राप्त होने (अङ्घारे) छल के शत्रु (बम्भारे) विचार-विरोधियों के शत्रु (हस्त)
प्रसन्न (सुहस्त) अच्छे प्रकार हस्तक्रिया को जानने और (कृशानो) दुष्टों को कृश
करने (सुमित्रधः) उत्तम मित्रों को धारण करने (मित्रः) सब के मित्र (स्योनः) सुख
की (उशन्) कामना करने हारे सभाध्यक्ष ! आप (नः) हम लोगों को (आ इहि) अच्छे प्रकार
प्राप्त हूजिये तथा (दक्षिणम्) उत्तम अङ्गयुक्त (उरुम्) बहुत उत्तम पदार्थों से
युक्त वा स्वीकार करने योग्य (उशन्तम्) कामना करने योग्य (स्योनम्) सुख को (आविश)
प्रवेश कीजिये। हे सभाध्यक्षो ! (एते) जो (इन्द्रस्य) परमैश्वर्य्ययुक्त सभाध्यक्ष
विद्वान् के (सोमक्रयणाः) सोम अर्थात् उत्तम पदार्थों का क्रय करने हारे प्रजा और
भृत्य आदि मनुष्य (वः) तुम लोगों की रक्षा करें और आप लोग भी उनकी (रक्षध्वम्)
रक्षा सदा किया करो। जैसे वे शत्रु लोग (तान्) उन (वः) तुम लोगों की हिंसा करने
में समर्थ (मा दभन्) न हों,
वैसे ही सम्यक् प्रीति से
परस्पर मिल के वर्त्तो ॥२७॥
भावार्थभाषाः - राज्य और प्रजापुरुषों को उचित है कि परस्पर
प्रीति, उपकार और धर्मयुक्त व्यवहार में यथावत् वर्त्त, शत्रुओं
का निवारण, अविद्या वा अन्यायरूप अन्धकार का नाश और
चक्रवर्त्ति राज्य आदि का पालन करके सदा आनन्द में रहें ॥२७॥
परि॑ माग्ने॒ दुश्च॑रिताद् बाध॒स्वा मा॒
सुच॑रिते भज। उदायु॑षा स्वा॒युषोद॑स्थाम॒मृताँ॒२ऽअनु॑ ॥२८॥
पद पाठ
परि॑। मा॒। अ॒ग्ने॒। दुश्च॑रिता॒दिति॒
दुःऽच॑रितात्। बा॒ध॒स्व॒। आ। मा॒। सुच॑रित॒ इति॒ सुऽच॑रिते। भ॒ज॒। उत्। आयु॑षा।
स्वा॒युषेति॑ सुऽआ॒युषा॑। उत्। अ॒स्था॒म्। अ॒मृता॑न्। अनु॑ ॥२८॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
सब मनुष्यों को उचित है कि सब करने योग्य उत्तम कर्मों के
आरम्भ, मध्य और सिद्ध होने पर परमेश्वर की प्रार्थना
सदा किया करें, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) जगदीश्वर ! आप कृपा करके जिस कर्म
से मैं (स्वायुषा) उत्तमतापूर्वक प्राण धारण करनेवाले (आयुषा) जीवन से (अमृतान्)
जीवनमुक्त और मोक्ष को प्राप्त हुए विद्वान् वा मोक्षरूपी आनन्दों को (उदस्थाम्)
अच्छे प्रकार प्राप्त होऊँ,
उससे (मा) मुझको संयुक्त
करके (दुश्चरितात्) दुष्टाचरण से (उद्बाधस्व) पृथक् करके (मा) मुझको (सुचरिते)
उत्तम-उत्तम धर्माचरणयुक्त व्यवहार में (अन्वाभज) अच्छे प्रकार स्थापन कीजिये ॥२८॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को योग्य है कि अधर्म के छोड़ने और धर्म के
ग्रहण करने के लिये सत्य प्रेम से प्रार्थना करें, क्योंकि
प्रार्थना किया हुआ परमात्मा शीघ्र अधर्मों से छुड़ा कर धर्म में प्रवृत्त कर देता
है, परन्तु सब मनुष्यों को यह करना अवश्य है कि जब
तक जीवन है, तब तक धर्माचरण ही में रहकर संसार वा
मोक्षरूपी सुखों को सब प्रकार से सेवन करें ॥२८॥
प्रति॒ पन्था॑मपद्महि स्वस्ति॒गाम॑ने॒हस॑म्।
येन॒ विश्वाः॒ परि॒ द्विषो॑ वृ॒णक्ति॑ वि॒न्दते॒ व॒सु॑ ॥२९॥
पद पाठ
प्रति॑। पन्था॑म्। अ॒प॒द्म॒हि॒।
स्व॒स्ति॒गामिति॑ स्वस्ति॒ऽगाम्। अ॒ने॒हस॑म्। येन॑। विश्वाः॑। परि॑। द्विषः॑।
वृ॒णक्ति॑। वि॒न्दते॑। वसु॑ ॥२९॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर उस परमेश्वर की प्रार्थना किसलिये करनी चाहिये, इस
विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे जगदीश्वर ! आप के अनुग्रह से युक्त
पुरुषार्थी होकर हम लोग (येन) जिस मार्ग से विद्वान् मनुष्य (विश्वाः) सब (द्विषः)
शत्रु सेना वा दुःख देनेवाली भोगक्रियाओं को (परिवृणक्ति) सब प्रकार से दूर करता
और (वसु) सुख करनेवाले धन को (विन्दते) प्राप्त होता है, उस
(अनेहसम्) हिंसारहित (स्वस्तिगाम्) सुख पूर्वक जाने योग्य (पन्थाम्) मार्ग को
(प्रत्यपद्महि) प्रत्यक्ष प्राप्त होवें ॥२९॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को उचित है कि द्वेषादि त्याग, विद्यादि
धन की प्राप्ति और धर्ममार्ग के प्रकाश के लिये ईश्वर की प्रार्थना, धर्म
और धार्मिक विद्वानों की सेवा निरन्तर करें ॥२९॥
अदि॑त्या॒स्त्वग॒स्यदि॑त्यै॒ सद॒ऽआसी॑द।
अस्त॑भ्ना॒द् द्यां वृ॑ष॒भोऽअ॒न्तरि॑क्ष॒ममि॑मीत वरि॒माण॑म्पृथि॒व्याः।
आसी॑द॒द्विश्वा॒ भुव॑नानि स॒म्राड् विश्वेत्तानि॒ वरु॑णस्य व्र॒तानि॑ ॥३०॥
पद पाठ
अदि॑त्याः। त्वक्। अ॒सि॒। अदि॑त्यै। सदः॑।
आ। सी॒द॒। अस्त॑भ्नात्। द्याम्। वृ॒ष॒भः। अ॒न्तरिक्ष॑म्। अमि॑मीत। व॒रि॒माण॑म्।
पृ॒थि॒व्याः। आ। अ॒सी॒द॒त्। विश्वा॑। भुव॑नानि। स॒म्राडिति॑ स॒म्ऽराट्। विश्वा॑।
इत्। तानि॑। वरु॑णस्य। व्र॒तानि॑ ॥३०॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
अगले मन्त्र में ईश्वर, सूर्य्य
और वायु के गुणों का उपदेश किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे जगदीश्वर ! जिससे (वृषभः) श्रेष्ठ
गुणयुक्त (अदित्याः) पृथिवी के (त्वक्) आच्छादन करनेवाले (असि) हैं, (अदित्यै)
पृथिवी आदि सृष्टि के लिये (सदः) स्थापन करने योग्य (आसीद) व्यवस्था को स्थापन
करते वा (द्याम्) सूर्य्य आदि को (अस्तस्नात्) धारण करते (वरिमाणम्) अत्यन्त उत्तम
(अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष को (अमिमीत) रचते और (सम्राट्) अच्छे प्रकार प्रकाश को
प्राप्त हुए सब के अधिपति आप (पृथिव्याः) अन्तरिक्ष के बीच में (विश्वा) सब
(भुवनानि) लोकों को (आसीदत्) स्थापन करते हो,
इससे (तानि) ये (विश्वा) सब
(वरुणस्य) श्रेष्ठरूप (ते) आपके (इत्) ही (व्रतानि) सत्य स्वभाव और कर्म हैं, ऐसा
हम लोग (अपद्महि) जानते हैं ॥१॥३०॥ जो (वृषभः) अत्युत्तम (सम्राट्) अपने आप
प्रकाशमान सूर्य्य और वायु (अदित्याः) पृथिवी आदि के (त्वक्) आच्छादन करनेवाले
(असि) हैं, वा (अदित्यै) पृथिवी आदि सृष्टि के लिये (सदः)
लोकों को (आसीद) स्थापन (द्याम्) प्रकाश को (अस्तभ्नात्) धारण (वरिमाणम्) श्रेष्ठ
(अन्तरिक्षम्) आकाश को (अमिमीत) रचना और (पृथिव्याः) आकाश के मध्य में (विश्वा) सब
(भुवनानि) लोकों को (आसीदत्) स्थापन करते हैं, (तानि)
वे (विश्वा) सब (ते) उस (वरुणस्य) सूर्य्य और वायु के (इत्) ही (व्रतानि) स्वभाव
और कर्म हैं, ऐसा हम लोग (अपद्महि) जानते हैं ॥२॥३०॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार और पूर्व मन्त्र
से ‘अपद्महि’ इस पद की अनुवृत्ति जाननी चाहिये। जैसा परमेश्वर का स्वभाव है कि
सूर्य्य और वायु आदि को सब प्रकार व्याप्त होकर रच कर धारण करता है, इसी
प्रकार सूर्य्य और वायु का भी प्रकाश और स्थूल लोकों के धारण का स्वभाव है ॥३०॥
वने॑षु॒ व्य᳕न्तरि॑क्षं ततान॒
वाज॒मर्व॑त्सु॒ पय॑ऽउ॒स्रिया॑सु। हृ॒त्सु क्रतुं॒ वरु॑णो वि॒क्ष्व᳕ग्निं दि॒वि
सूर्य॑मदधा॒त् सोम॒मद्रौ॑ ॥३१॥
पद पाठ
वने॑षु। वि। अ॒न्तरि॑क्षम्। त॒ता॒न॒।
वाज॑म्। अर्व॒त्स्वित्यर्व॑त्ऽसु। पयः॑। उ॒स्रिया॑सु। हृ॒त्स्विति॑ हृ॒त्ऽसु।
क्रतु॑म्। वरु॑णः। वि॒क्षु। अ॒ग्निम्। दि॒वि। सूर्य्य॑म्। अ॒द॒धा॒त्। सोम॑म्।
अद्रौ॑ ॥३१॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर वे कैसे हैं,
इस विषय का उपदेश अगले
मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - जो (वरुणः) अत्युत्तम, परमेश्वर
सूर्य्य वा प्राणवायु हैं, वे (वनेषु) किरण वा वनों के (अन्तरिक्षम्)
आकाश को (विततान) विस्तारयुक्त किया वा करता (अर्वत्सु) अत्युत्तम वेगादि गुणयुक्त
विद्युत् आदि पदार्थ और घोड़े आदि पशुओं में (वाजम्) वेग (उस्रियासु) गौओं में
(पयः) दूध (हृत्सु) हृदयों में (क्रतुम्) प्रज्ञा वा कर्म (विक्षु) प्रजा में
(अग्निम्) अग्नि (दिवि) प्रकाश में (सूर्य्यम्) आदित्य (अद्रौ) पर्वत वा मेघ में
(सोमम्) सोमवल्ली आदि ओषधी और श्रेष्ठ रस को (अदधात्) धारण किया करते हैं, उसी
ईश्वर की उपासना और उन्हीं दोनों का उपयोग करें ॥३१॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। जैसे परमेश्वर
अपनी विद्या का प्रकाश और जगत् की रचना से सब पदार्थों में उनके स्वभावयुक्त गुणों
को स्थापन और विज्ञान आदि गुणों को नियत करके पवन, सूर्य
आदि को विस्तारयुक्त करता है,
वैसे सूर्य्य और वायु भी सब
के लिये सुखों का विस्तार करते हैं ॥३१॥
सूर्य॑स्य॒ चक्षु॒रारो॑हा॒ग्नेर॒क्ष्णः
क॒नीन॑कम्। यत्रैत॑शेभि॒रीय॑से॒ भ्राज॑मानो विप॒श्चिता॑ ॥३२॥
पद पाठ
सूर्य्य॑स्य। चक्षुः॑। आ। रो॒ह॒। अ॒ग्नेः।
अ॒क्ष्णः। क॒नीन॑कम्। यत्र॑। एत॑शेभिः। ईय॑से। भ्राज॑मानः। वि॒प॒श्चितेति॑
विपः॒ऽचिता॑ ॥३२॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर वे कैसे हैं,
इस विषय का उपदेश अगले
मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे परमेश्वर ! (यत्र) जहाँ आप (एतशेभिः)
विज्ञान आदि गुणों से (भ्राजमानः) प्रकाशमान (विपश्चिता) मेधावी विद्वान् से
(ईयसे) विज्ञात होते हो वा जहाँ प्राणवायु वा बिजुली (एतशेभिः) वेगादि गुण वा
(विपश्चिता) विद्वान् से (भ्राजमानः) प्रकाशित होकर (ईयसे) विज्ञात होते हैं और
जहाँ आप प्राण तथा बिजुली (सूर्य्यस्य) सूर्य्य वा बिजुली और (अग्नेः) भौतिक अग्नि
के (अक्ष्णः) देखने के साधन (कनीनकम्) प्रकाश करनेवाले (चक्षुः) नेत्रों को (आरोह)
देखने के लिये कराते वा कराती हैं,
वहीं हम लोग आप की उपासना और
उन दोनों का उपयोग करें ॥३२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। मनुष्यों को उचित है कि
जैसे विद्वान् लोग ईश्वर, प्राण और बिजुली के गुणों को जान, उपासना
वा कार्य्यसिद्धि करते हैं,
वैसे ही उनको जानकर उपासना
और अपने प्रयोजनों को सदा सिद्ध करते रहें ॥३२॥
उस्रा॒वेतं॑ धूर्षाहौ
यु॒ज्येथा॑मन॒श्रूऽअवी॑रहणौ ब्रह्म॒चोद॑नौ। स्व॒स्ति यज॑मानस्य गृ॒हान् ग॑च्छतम्
॥३३॥
पद पाठ
उस्रौ॑। आ। इ॒त॒म्। धू॒र्षा॒हौ॒।
धूः॒स॒हा॒विति॑ धूःऽसहौ। यु॒ज्येथा॑म्। अ॒न॒श्रूऽइत्य॑न॒श्रू। अवी॑रहणौ।
अवी॑रहनावित्यवी॑रऽहनौ। ब्र॒ह्म॒चोद॑ना॒विति॑ ब्रह्म॒ऽचोद॑नौ। स्व॒स्ति।
यज॑मानस्य। गृ॒हान्। ग॒च्छ॒त॒म् ॥३३॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब सूर्य्य और विद्वान् कैसे हैं, और
उनसे शिल्पविद्या के जाननेवाले क्या करें,
सो अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे विद्या और शिल्पक्रिया को
प्राप्त होने की इच्छा करनेवाले (ब्रह्मचोदनौ) अन्न और विज्ञान प्राप्ति के हेतु
(अनश्रू) अव्यापी (अवीरहणौ) वीरों का रक्षण करने (उस्रौ) ज्योतियुक्त और निवास के
हेतु (धूर्षाहौ) पृथिवी और धर्म के भार को धारण करनेवाले विद्वान् (आ इतम्)
सूर्य्य और वायु को प्राप्त होते वा (युज्येथाम्) युक्त करते और (यजमानस्य)
धार्मिक यजमान के (गृहान्) घरों को (स्वस्ति) सुख से (गच्छतम्) गमन करते हैं, वैसे
तुम भी उनको युक्ति से संयुक्त कर के कार्यों को सिद्ध किया करो ॥३३॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में श्लेष और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे
सूर्य्य और विद्वान् सब पदार्थों को धारण करनेहारे, सहनयुक्त
और प्राप्त होकर सुखों को प्राप्त कराते हैं,
वैसे ही शिल्पविद्या के
जाननेवाले विद्वान् से यानों में युक्ति से सेवन किये हुए अग्नि और जल सवारियों को
चला के सर्वत्र सुखपूर्वक गमन कराते हैं ॥३३॥
भ॒द्रो मे॑ऽसि॒ प्रच्य॑वस्व भुवस्पते॒
विश्वा॑न्य॒भि धामा॑नि। मा त्वा॑ परिप॒रिणो॑ विद॒न् मा त्वा॑ परिप॒न्थिनो॑ विद॒न्
मा त्वा॒ वृका॑ऽअघा॒यवो॑ विदन्। श्ये॒नो भू॒त्वा परा॑पत॒ यज॑मानस्य गृ॒हान् ग॑च्छ॒
तन्नौ॑ सँस्कृ॒तम् ॥३४॥
पद पाठ
भ॒द्रः। मे॒। अ॒सि॒। प्र। च्य॒व॒स्व॒।
भु॒वः॒। प॒ते॒। वि॒श्वा॑नि। अ॒भि। धामा॑नि। मा। त्वा॒। प॒रि॒प॒रिण॒ इति॑
परिऽप॒रिणः॑। वि॒द॒न्। मा। त्वा॒। प॒रि॒प॒न्थिन॒ इति॑ परिऽप॒न्थिनः॑। वि॒द॒न्। मा।
त्वा॒। वृकाः॑। अ॒घा॒यवः॑। अ॒घ॒यव॒ इत्य॑घ॒ऽयवः॑। वि॒द॒न्। श्ये॒नः। भू॒त्वा।
परा॑। प॒त॒। यज॑मानस्य। गृ॒हान्। ग॒च्छ॒। तत्। नौ॒। सँ॒स्कृ॒तम् ॥३४॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
उस यान से विद्वान् को क्या-क्या करना चाहिये है, इस
विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे (भुवः) पृथिवी के (पते) पालन करनेवाले
विद्वन् मनुष्य ! तू (मे) मेरा (भद्रः) कल्याण करनेवाला बन्धु (असि) है, सो
तू (नौ) मेरा और तेरा (संस्कृतम्) संस्कार किया हुआ यान है (तत्) उससे (विश्वानि)
सब (धामानि) स्थानों को (अभि प्रच्यवस्व) अच्छे प्रकार जा, जिससे
सब जगह जाते हुए (त्वा) तुझ को जैसे (परिपरिणः) छल से रात्रि में दूसरे के
पदार्थों को ग्रहण करनेवाले (वृकाः) चोर (मा विदन्) प्राप्त न हों और परदेश को
जानेवाले (त्वा) तुझ को जैसे (परिपन्थिनः) मार्ग में लूटनेवाले डाकू (मा विदन्)
प्राप्त न होवें, जैसे परमैश्वर्य्ययुक्त (त्वा) तुझ को
(अघायवः) पाप की इच्छा करनेवाले दुष्ट मनुष्य (मा विदन्) प्राप्त न हों, वैसा
कर्म सदा किया कर। (श्येनः) श्येन पक्षी के समान वेगबलयुक्त (भूत्वा) होकर उन
दुष्टों से (परापत) दूर रह और इन दुष्टों को भी दूर कर, ऐसी
क्रिया कर के (यजमानस्य) धार्मिक यजमान के (गृहान्) घर वा देश-देशान्तरों को
(गच्छ) जा कि जिससे मार्ग में कुछ भी दुःख न हो ॥३४॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्य
को योग्य है कि उत्तम-उत्तम विमान आदि यानों को रच, उन
में बैठ, उनको यथायोग्य चला, श्येन
पक्षी के समान द्वीप वा देश-देशान्तर को जा,
धनों को प्राप्त करके, वहाँ
से आ और दुष्ट प्राणियों से अलग रह कर सब काल में स्वयं सुखों का भोग करें और
दूसरों को करावें ॥३४॥
नमो॑ मि॒त्रस्य॒ वरु॑णस्य॒ चक्ष॑से म॒हो
दे॒वाय॒ तदृ॒तꣳ स॑पर्यत। दू॒रे॒दृशे॑ दे॒वजा॑ताय के॒तवे॑ दि॒वस्पु॒त्राय॒ सूर्या॑य
शꣳसत ॥३५॥
पद पाठ
नमः॑। मि॒त्रस्य॑। वरु॑णस्य। चक्ष॑से। म॒हः।
दे॒वाय॑। तत्। ऋ॒तम्। स॒प॒र्य्य॒त॒। दू॒रे॒दृश॒ इति॑ दूरे॒ऽदृशे॑। दे॒वजा॑ता॒येति॑
दे॒वऽजा॑ताय। के॒तवे॑। दि॒वः। पु॒त्राय॑। सूर्य्या॑य। श॒ꣳस॒त॒ ॥३५॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर ईश्वर और सूर्य्य कैसे हैं, इस
विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे हम लोग जो (मित्रस्य) सब
के सुहृत् (वरुणस्य) श्रेष्ठ (दिवः) प्रकाशस्वरूप परमेश्वर का (ऋतम्) सत्य स्वरूप
है, (तत्) उस चेतन की सेवा करते हैं, वैसे
तुम भी उस का सेवन सदा (सपर्य्यत) किया करो और जैसे उस (महः) बड़े (दूरेदृशे)
दूरस्थित पदार्थों को दिखाने (चक्षसे) सब को देखने (देवजाताय) दिव्य गुणों से
प्रसिद्ध (केतवे) विज्ञानस्वरूप (देवाय) दिव्यगुणयुक्त (पुत्राय) पवित्र करनेवाले
(सूर्य्याय) चराचरात्मा परमेश्वर को (नमः) नमस्कार करते हैं, वैसे
तुम भी (प्रशंसत) उसकी स्तुति किया करो ॥१॥३५॥ हे मनुष्यो ! जो (मित्रस्य) प्रकाश
(वरुणस्य) श्रेष्ठ (दिवः) प्रकाशस्वरूप सूर्य्यलोक का (ऋतम्) यथार्थ स्वरूप है, (तत्)
उस प्रकाशस्वरूप को तुम भी विद्या से (सपर्य्यत) सेवन किया करो, जैसे
हम लोग जिस (चक्षसे) सब के दिखाने (देवजाताय) दिव्य गुणों से प्रसिद्ध (केतवे)
ज्ञान कराने, अग्नि के (पुत्राय) पुत्र (दूरेदृशे) दूर
स्थित हुए पदार्थों को दिखाने (महः) बड़े (देवाय) दिव्यगुणवाले (सूर्य्याय)
सूर्य्य के लिये प्रवृत्त होओ ॥२॥३५॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में श्लेष और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। सब
मनुष्यों को जिसकी कृपा वा प्रकाश से चोर डाकू आदि अपने कार्य्यों से निवृत्त हो
जाते हैं, उसी की प्रशंसा और गुणों की प्रसिद्धि करनी और
परमेश्वर के समान समर्थ वा सूर्य्य के समान कोई लोक नहीं है, ऐसा
जानना चाहिये ॥३५॥
वरु॑णस्यो॒त्तम्भ॑नमसि॒ वरु॑णस्य
स्कम्भ॒सर्ज॑नी स्थो॒ वरु॑णस्यऽऋत॒सद॑न्यसि॒ वरु॑णस्यऽऋत॒सद॑नमसि॒
वरु॑णस्यऽऋत॒सद॑न॒मासी॑द ॥३६॥
पद पाठ
वरु॑णस्य। उ॒त्तम्भ॑नम्। अ॒सि॒। वरु॑णस्य।
स्क॒म्भ॒सर्ज॑नी॒ऽइति॑ स्कम्भ॒ऽसर्जनी॑। स्थः॒। वरु॑णस्य। ऋ॒त॒सद॒नीत्यृ॑तऽसद॑नी।
अ॒सि॒। वरु॑णस्य। ऋ॒त॒सद॑न॒मित्यृ॑त॒ऽसद॑नम्। अ॒सि॒। वरु॑णस्य।
ऋ॒त॒सद॑न॒मित्यृ॑त॒ऽसद॑नम्। आ। सी॒द॒ ॥३६॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर वे कैसे हैं,
इस विषय का उपदेश अगले
मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे जगदीश्वर ! जिससे आप (वरुणस्य) उत्तम जगत्
के (उत्तम्भनम्) अच्छे प्रकार प्रतिबन्ध करनेवाले (असि) हैं। जो (वरुणस्य) वायु के
(स्कम्भसर्जनी) आधाररूपी पदार्थों के उत्पन्न करने (वरुणस्य) सूर्य्य के (ऋतसदनी)
जलों का गननागमन करनेवाली क्रिया (स्थः) हैं,
उनको धारण किये हुए हैं।
(वरुणस्य) उत्तम (ऋतसदनम्) पदार्थों का स्थान (असि) हैं। (वरुणस्य) उत्तम
(ऋतसदनम्) सत्यरूपी बोधों के स्थान को (आसीद) अच्छे प्रकार प्राप्त कराते हैं।
इससे आपका आश्रय हम लोग करते हैं ॥१॥३६॥ जो (वरुणस्य) जगत् का (उत्तम्भनम्) धारण
करनेवाला (असि) है। जो (वरुणस्य) वायु के (स्कम्भसर्जनी) आधारों को उत्पन्न करने
वा जो (वरुणस्य) सूर्य्य के (ऋतसदनी) जलों का गमनागमन करानेवाली क्रिया (स्थः) हैं, उनका
धारण करने तथा जो (वरुणस्य) उत्तम (ऋतसदनम्) सत्य पदार्थों का स्थानरूप (असि) है, वह
(वरुणस्य) उत्तम (ऋतसदनम्) पदार्थों के स्थान को (आसीद) अच्छे प्रकार प्राप्त और
धारण करता है, उसका उपयोग क्यों न करना चाहिये ॥२॥३६॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। कोई परमेश्वर के विना सब
जगत् के रचने वा धारण, पालन और जानने को समर्थ नहीं हो सकता और कोई
सूर्य्य के विना भूमि आदि जगत् के प्रकाश और धारण करने को भी समर्थ नहीं हो सकता।
इससे सब मनुष्यों को ईश्वर की उपासना और सूर्य्य का उपयोग करना चाहिये ॥३६॥
या ते॒ धामा॑नि ह॒विषा॒ यज॑न्ति॒ ता ते॒
विश्वा॑ परि॒भूर॑स्तु य॒ज्ञम्। ग॒य॒स्फानः॑ प्र॒तर॑णः सु॒वीरोऽवी॑रहा॒ प्रच॑रा
सोम॒ दुर्या॑न् ॥३७॥
पद पाठ
या। ते॒। धामा॑नि। ह॒विषा॑। यज॑न्ति। ता।
ते॒। विश्वा॑। प॒रि॒भूरिति॑ परि॒ऽभूः। अ॒स्तु॒। य॒ज्ञम्। ग॒य॒स्फान॒ इति॑
गय॒ऽस्फानः॑। प्र॒तर॑ण॒ इति॑ प्र॒ऽतर॑णः। सु॒वीर॒ इति॑ सु॒ऽवीरः॑।
अवी॑र॒हेत्यवी॑रऽहा। प्र। च॒र॒। सो॒म॒। दुर्य्या॑न् ॥३७॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर ये कैसे हैं,
इस विषय का उपदेश अगले
मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे जगदीश्वर ! जैसे विद्वान् लोग (या) जिन
(ते) आप के (धामानि) स्थानों को (हविषा) देने-लेने योग्य द्रव्यों से (यजन्ति) सत्कारपूर्वक
ग्रहण करते हैं, वैसे हम लोग भी (ता) उन (विश्वा) सभों को
ग्रहण करें, जैसे (ते) आप का वह यज्ञ विद्वानों को
(गयस्फानः) अपत्य, धन और घरों के बढ़ाने (प्रतरणः) दुःखों से पार
करने (सुवीरः) उत्तम वीरों का योग कराने (अवीरहा) कायर दरिद्रतायुक्त अवीर अर्थात्
पुरुषार्थरहित मनुष्य और शत्रुओं को मारने तथा (परिभूः) सब प्रकार से सुख
करानेवाला है, वैसे वह आप की कृपा से हम लोगों के लिये
(अस्तु) हो वा जिसको विद्वान् लोग (यजन्ति) यजन करते हैं, उस
(यज्ञम्) यज्ञ को हम लोग भी करें। हे (सोम) सोमविद्या को सम्पादन करनेवाले विद्वन्
! जैसे हम लोग इस यज्ञ को करके घरों में आनन्द करें, जानें, इसमें
कर्म करें, वैसे तू भी इस को करके (दुर्य्यान्) घरों में
(प्रचर) सुख का प्रचार कर, जान और अनुष्ठान कर ॥३७॥
भावार्थभाषाः -इन मन्त्र मे श्लेष और वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे
विद्वान् लोग ईश्वर से प्रीति,
संसार में यज्ञ के अनुष्ठान
को करते हैं, वैसे ही सब मनुष्यों को करना उचित है ॥३७॥
इस अध्याय में शिल्पविद्या, वृष्टि
की पवित्रता का सम्पादन, विद्वानों का सङ्ग, यज्ञ
का अनुष्ठान, उत्साह आदि की प्राप्ति, युद्ध
का करना, शिल्पविद्या की स्तुति, यज्ञ
के गुणों का वर्णन, सत्यव्रत का धारण, अग्नि-जल
के गुणों का वर्णन, पुनर्जन्म का कथन, ईश्वर
की प्रार्थना, यज्ञानुष्ठान, पुत्रादिकों
द्वारा माता-पिता का अनुकरण,
यज्ञ की व्याख्या, दिव्य
बुद्धि की प्राप्ति, परमेश्वर का अर्चन, सूर्य्यगुण
वर्णन, पदार्थों के क्रय-विक्रय का उपदेश, मित्रता
करना, धर्ममार्ग में प्रचार करना, परमेश्वर
वा सूर्य्य के गुणों का प्रकाश,
चोर आदि का निवारण, ईश्वर-सूर्य्यादि
गुणवर्णन और यज्ञ का फल कहा है। इससे इस अध्यायार्थ की तीसरे अध्याय के अर्थ के
साथ सङ्गति जाननी चाहिये। ऊवट और महीधर आदि ने इस अध्याय का भी शब्दार्थ विरुद्ध
ही वर्णन किया है ॥
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