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भय और चिन्ता से मुक्ति : क्या, क्यों, कैसे"

 



भय और चिन्ता से मुक्ति :

क्या, क्यों, कैसे"

मा भेर्मा संविक्थाऽऊर्ज धत्स्व धिषणे वीड्वी सती वीडयेथामूर्ज दधाथाम् । पाप्मा हतो न सोमः॥

-यजुर्वेद ६ । ३५

ऋषि:-मधुच्छन्दा। देवता:-द्यावापृथिवी। छन्दः-भुरिगाय॑नुष्टुपः ।

पदपाठ-मा। भेः। मा। सम्। विक्थाः । ऊर्जम्। धत्स्व । धिषणे। वीडूवी । सती। वीडयेथाम्। ऊर्जम्। दधाथाम्। पाप्मा। हतः । न । सोमः।

(मा भेः) मत डर ।

(मा सम् विक्था) - मत घबरा (मत कांप)।

(ऊर्जम् धत्स्व) ऊर्जा धारण कर।

(धिषणे) द्यौ और पृथिवी के समान-,

(वीड्वी सती वीडयेथाम्)- अतिशय बलयुक्त तथा सदगुण युक्त होते हुये सुदृढ़ रह।

(ऊर्जम् दधाथाम्) - ऊर्ज धारण कर।

(पाप्मा हतः, न सोमः) - पाप नष्ट हो, सोम नहीं।  

       डर का कारण है 'भय' और घबराहट का कारण है 'चिन्ता'। भय हृदय में घर कर जाता है, चिन्ता मस्तिष्क को उद्विग्न तथा निष्क्रिय कर देती है। दोनों के लक्षण हैं-घबराहट, कम्पन, उद्विग्नता, निष्क्रियता, अशक्तता, असंतुलन, और विशेष स्थितियों में मूर्छा, बेहोशी, आदि। भय और चिन्ता, चिन्ता और भय आपस में इतने गुंथे हुये हैं, जैसे शरीर में हृदय और मस्तिष्क, दिल और दिमाग। दोनों एक दूसरे को प्रभावित करते हैं, और एक दूसरे से प्रभावित होते हैं। जहाँ चिन्ता है, वहाँ भय है। जहाँ भय है वहीं चिन्ता है। दोनों ही जीवन को नितान्त अस्त-व्यस्त और अव्यवस्थित कर देते हैं। भय के प्रविष्ट होते ही मस्तिष्क में विचारविमूढ़ता छा जाती है। हृदय की धड़कन तेज़ हो जाती है, इन्द्रियों में शिथिलता आ जाती है, शरीर में कम्पन, श्वास का फूलना, प्राण की गति असामान्य हो जाना, सब भयभीत अवस्था के लक्षण हैं। भयशील मनुष्य किसी काम का नहीं रहता। सर्वथा निरूपाय निष्क्रिय हो जाता है। भय के कारण मनःस्थिति पलायन की हो जाती है, और इस पलायन से मिलती है पराजय। इसी प्रकार चिन्ता से ग्रस्त मानव जीते जी, मानो, सुलगती चिता पर जलता रहता है। चिन्ता से 'चेतना और चैतन्यता का सर्वथा हास हो जाता है। चिन्ता कितनी ही भावनात्मक और शारीरिक बीमारियों की जननी है। तनाव, विषाद, ग्लानि, चिड़चिड़ापन जैसे भावात्मक रोग, और सिर दर्द, पीठ दर्द, भोजन से अरुचि, उबकाई, कोष्ठबद्धता अनिद्रा और थकान जैसे शारीरिक रोग का पचासी प्रतिशत तक कारण है 'चिन्ता'

          'वेद' विश्व साहित्य में वह पहला आदि और प्राचीनतम ग्रन्थ है, जिसने मनुष्य को भयमुक्त और चिन्तारहित जीवन का पाठ पढ़ाया है। 'भय' के स्थान पर 'अभयता' का और 'चिन्ता' के स्थान पर 'चिन्तन' का सर्वत्र उपदेश करने वाली कोई आदिमूल पुस्तक कोई है, तो वह है 'वेद'। यजुर्वेद के इस मन्त्र का आरम्भ ही (मा भेः) मत डर, (मा संविक्थाः ) मत काँप, इन साहसवर्धक वचनों से हुआ है। वेद के अनेक मन्त्रों में या तो अभय की कामना है या अभयता का संदेश है। देखें यजुर्वेद और अथर्ववेद के यह मन्त्र ।

     यतोयतः समीहसे ततो नोऽअभयं कुरू।

शं नः कुरू प्रजाभ्योऽभयं नः पशुभ्यः॥-यजुः० ३६ । २२

       हे प्रभो ! (यतः यतः) जहाँ-जहाँ से, अर्थात् सब ओर से आप (सम्-ईहसे) सम्यक् रक्षण प्रदान कर रहे हो (ततः) वहाँ-वहाँ से, सर्वत्र (नः) हमें (अभयं) भयरहित (कुरु) कीजिये। (नः) हमारी (प्रजाभ्यः) प्रजाओं के लिये, (नः) हमारे (पशुभ्य) पशुओं के लिये (अभयं) अभयता और (शं) शान्ति प्रदान कीजिये। स्पष्ट है कि शान्ति के लिये अभयता की स्थिति आवश्यक है।

     अभयं नः करत्यन्तरिक्षमभयं द्यावापृथिवी उभे इमे।

अभयं पश्चादर्भयं पुरस्तादुत्तरादधरादर्भयं नो अस्तु॥

-अथर्व० १९।१५।५

 अभयं मित्रादर्भयममित्रादर्भयं ज्ञातादर्भयं परोक्षात्।

अभयं नक्तमभयं दिवा नः सर्वा आशा मम मित्रं भवन्तु ॥

-अथर्व० १९।१५।६

    "जो प्रभु हमारे लिये अन्तरिक्ष तथा इन दोनों द्यौ और पृथिवी को भय-रहित कर रहा है, उसी की कृपा से हमारे लिये पीछे से, सामने से, ऊपर से, नीचे से, मित्रों से, अमित्रों से, ज्ञात से, अज्ञात से, रात्रि में, और दिन में अभय हो। सब दिशायें मेरी मित्र हों।"

          देखा जाय, तो दोनों मन्त्रों में भय के कारण, स्थिति तथा निदान उपस्थित हैं। भय के कारण है-(१) हमारा अतीत (पीछे का काल), (२) हमारा वर्तमान (अर्थात् जो सामने है), (३) हमारी दिशा (अर्थात् ऊर्ध्व [उपर] गमन या अधो-[नीचे] गमन, (४) हमारा ज्ञान (जो ज्ञात है) या अज्ञान (जो अज्ञात है), (५) हमारी दिन और रात्रि की चर्या, प्रतिदिन का खोटा कारोबार, व्यवहार, आदि। अतीत में किये गये अकर्म, विकर्म और कुकर्म हमें अपराधबोध की भावना से ग्रस्त कर हमें भयभीत बनाते हैं। करे हुये खोटे कर्म या दुष्कर्मों के परिणाम अथवा प्रतिक्रिया जब सामने दीखती है, वह भी हमें भयभीत करती है। इसी प्रकार सामने दुष्ट, आतातायी तथा आसुरी वृत्ति के लोगों को पाकर भी भय और आतंक का संचार होता है। इसी प्रकार घटिया और नकारात्मक सोचने, समझने और कार्य करने की दिशा हमें भयभीत और कुण्ठित बनाये रखती हैं। जिनकी मनोवृत्ति सब कुछ तल पर ही सुविधा से यापन की बन गई है, जो किसी प्रकार की जोखिम उठाना नहीं चाहते, उन्हें ऊपर चढ़ते और नीचे उतरते भी भय लगता है। देखा जाय तो जीवन के हर क्षेत्र में, हर कार्य में कुछ न कुछ ज्ञात या अज्ञात जोखिमें होती ही है, जो हमारे अन्दर ज्ञात और अज्ञात भय को उत्पन्न करती हैं। इसी प्रकार अच्छे समय में मित्रता का दम भरने वाले किन्तु अधर में छोड़ देने वाले अथवा भितरघात करने वाले तथाकथित मित्र और अमित्र (बैर-विरोध को निरन्तर बनाये रखने वाले) भय के कारण हो सकते हैं। पर सबसे अधिक भय का निर्माण हम स्वयं करते हैं, अपने दिन और रात्रि की खोटी चर्या से, खोटे कारोबार, खोटे व्यवहार और खोटे कर्मों से, इस मान्यता के साथ कि कोई हमें देख नहीं रहा है।

         भय मुक्त जीवन के लिये और अभयता की प्राप्ति के लिये आवश्यक है कि 'वेद' प्रतिपादित हम इन नुस्खों को आज़माएँ

(१) अपने दिन और रात्रि की चर्या को ठीक करें । मन 'शिव संकल्पों' वाला हो, प्रत्येक रात्रि 'शिवरात्रि' हो, दिन सफलता और सार्थकता के साथ 'सदिनत्व' लिये हो। खोटे विचार और खोटे कर्मों से बचें। सदैव स्मरण रखें, कि कोई हमें देखे, या ना देखे, वह परमात्मा जो तत् चक्षुः (यजु:०३६ । २४) है, हमें देख रहा है।

(२) जीव का सच्चा सखा और मित्र केवल परमेश्वर है। उसी की सख्यता और मित्रता प्राप्ति के लिये निरन्तर यल करें। 'देवास्त इन्द्र सख्याय येमिरे (ऋ०८।९८।३)"देव तो इन्द्र-परमेश्वर की सख्यता के लिये ही संयम (ध्यान, धारणा और समाधि धारण) करते हैं।" विश्वास रखें कि सांसारिक मित्र और अमित्र हमारा कुछ भी न बना सकते हैं, न बिगाड़ सकते हैं, यदि हम परमेश्वर की शरण में हैं । 'यस्य छाया अमृतम् (यजुः० २५।१३)' जिसकी छाया (आश्रय) अमृत है, और वही हमारा बन्धु या सखा है, फिर डर कैसा? हाँ, परमेश्वर की छत्र-छाया मे अपनी क्षमताओं को ज़रूर बढ़ाते रहें। भयमुक्त और चिन्तारहित जीवन के लिये संसार में देवों से तो युक्त हों, परन्तु सांसारिक लोगों की न अधिक मित्रता अच्छी, और न शत्रुता । कबीर साहब के शब्दों में हमारा आदर्श ध्येय कुछ इस प्रकार का होना चाहिये-

कबिरा खड़ा बाज़ार में, सब की मनावे खैर।

न काहु से दोस्ती, न काहु से बैर।।

         अज्ञात कारणों से उत्पन्न डर को स्थान न दें। अधिकांश स्थितियों में यह डर आत्म-विश्वास के अभाव के कारण होता है। अत: हर वह उपाय करते रहें, जिससे मनोबल तथा आत्म बल ऊँचा रहे। यह भी ध्यान रहे, कि सतर्कता और जागरूकता हर हाल में अच्छी है, और यह कि आत्म-बल का देने वाला केवल परमात्मा है, अत: उसी की उपासना हर स्थिति में करनी योग्य है। ज्ञात कारणों से उत्पन्न डर को एक समस्या के रूप में निपटें। ध्यान रहे, कि हर समस्या का समाधान है। आवश्यकता है, केवल प्रखर बुद्धि की और जागृत प्रज्ञा की, जो प्राप्त होती है, उस सविता देव परमेश्वर के वरेण्यम् भर्ग:' को अपने ‘धिय' में धारण करने से । ज्ञात कारणों से उत्पन्न डर से निपटने का उपाय यही है, कि बुद्धिपुर्वक विचार करके तथा यथोचित समाधान के साथ करने योग्य कार्य को कर ही डालें, जिससे हम डरते रहें हैं। फिर डर रहेगा ही नहीं। दुबारा कभी सतायेगा भी नहीं। हुनर सिखाती है चलने का राह की ठोकर। यों सोच लोगे तो मुश्किल सफ़र नहीं होगा।। समस्या के समाधान खोजने का तरीका यह है, कि हम कुछ समय के लिये समस्या में डूबे रहने के बजाय समस्या से अपने-आप को ऊपर कर लें। मानें कि समस्या हमारी न होकर किसी अन्य की है, जिसको हमारे परामर्श की आवश्यकता है। इस स्थिति में हम समस्या के समाधान के लिये विभिन्न विकल्पों को सोचें। और फिर कार्यान्वित करने के लिये, जो सब से अच्छा विकल्प लगे, उसको अपनाने के लिये पुरुषार्थ करें। अतीत की वे बातें, जो डर का कारण हैं, उनसे सबक़ लेकर भूल जाना ही श्रेयस्कर है। अभयता के लिये यह ज़रूरी है कि जो वर्तमान है, और सामने हैं, उसे सार्थकता से निपटें, और सफलता प्राप्त करें। अतीत को भुलाने और वर्तमान को संवारने में प्रभु के समक्ष प्रायश्चित' और 'प्रार्थना' दो अचूक उपाय हैं। कैसी सुन्दर प्रार्थना है-'तथा तदस्तु सोमपाः सखे वज्रिन्तथा कृणु। यथा त उश्मीसीष्टये।' (ऋग्० १।३०।१२) हे सोमपा: (शान्ति प्रदाता)। हे सखे। हे वनिन । अपनी अभीष्टसिद्धि के लिये जैसी हम तेरी कामना करते हैं, उसे वैसा ही कर दीजिये। हमारे लिये इष्ट तथास्तु हो। संशयात्मक स्थिति में न रहें। सच को जानें, समझें और जीवन में लायें। परमेश्वर में पूर्ण-आस्था, अटूट-श्रद्धा और दृढ़-विश्वास रखें। 'यदङ्ग दाशुषे त्वमग्ने भद्रं करिष्यसि । तवेत् तत सत्यमगिर। (ऋग्०१।१।६)' "हे अंग-अंग में बसे हुये आगे ले जाने वाले परमेश प्रभु। अपने समर्पक के लिये जो तू करेगा, भद्र (कल्याणकारी) ही होगा। हे अङ्गिरः जीवन-रस परमेश्वर । तेरा ही यह सत्य तेरे विषय में सत्य ही है।" प्रभु को पूर्णतया समर्पित प्रभु-आश्रित भक्त को कैसा डर, कहाँ का डर। अपने आपको कभी अकेला न समझें । 'सओतः प्रोतश्च विभूः प्रजासु (यजु:०३२।८)'"वह परमात्मा समस्त विभू में व्यापक तथा उरोया-पिरोया हुआ है।" वह मेरे आपके सब के साथ है, बशर्ते कि मैं और आप उसकी मौजूदगी अनुभव करते हों। यदि हम और आप उसकी मौजूदगी को अनुभव नहीं कर पाते, तो या तो हम भटक गये हैं, या ग़लत मार्ग पर हैं। सत्य मार्ग पर सत्यस्वरूप परमेश्वर सदैव हमारे साथ है। यदि यह विश्वास है, तो डर किस बात का।

सख्येत इन्द्र वाजिनो मा भैम शवसस्पते।

त्वामुभि प्र णोनुमो जेतारमपराजितम्॥

-ऋग्० १।११।२

       हे (शवसस्पते इन्द्र) शक्ति और बल के स्वामी परमेश्वर! (ते सख्ये) तेरी सख्यता में [हम] (वाजिन) बलवान बनें। (मा भेम) डरें नहीं। (त्वाम) तुझ (अपराजितम्) पराजित न होनेवाले, तथा (जेतारम्) सदैव जीतने वाले को (अभि प्र नोनुम्) सब ओर से हमारा बारम्बार प्रणाम है।

        रही बात चिन्ता की। तो एक तो सबसे पहले 'चिन्ता' में और 'परवाह करने' या किसी मामले में 'अत्यधिक दिलचस्पी लेने' में जो भेद है, वह समझें तथा बनाये रखें। दूसरी बात यह, कि हम सबकी अधिकांश चिन्तायें केवल आशंकायें ही होती हैं, जिनका यदि वास्तव में विश्लेषण किया जाये, तो कोई आधार नहीं होता। वे केवल हमारी संशयात्मक मनोवृत्ति अथवा वहम की परिचायक होती है। इस प्रकार की चिन्तायें, जिन्हें व्यर्थ की चिन्ता कहा जा सकता है, हमारी तामसिक वृत्तियों तथा नकारात्मक सोच की उपज होती हैं। इनका निदान है चित्त की वृत्तियों को सात्विक बनाना और अपनी सोच को सकारात्मक और रचनात्मक मोड़ देना। सद्ग्रन्थों का स्वाध्याय,-आप्त पुरुषों का सत्संग और ध्यान-योग (अर्थात् ईश्वर के ध्यान में मग्न रहना व्यर्थ की चिन्ताओं से मुक्ति का और निश्चिन्तता प्राप्ति का अनुभूत उपाय है, उसमें कोई सन्देह नहीं।)

            अब रहीं कुछ वास्तविक चिन्तायें, जिनको निराधार नहीं कहा जा सकता। इन्हीं को सुलगती चिता समान कहा जाता है। पर चिता भी आखिर ठण्डी और शान्त होती ही है। इसी प्रकार इन चिन्ताओं को बढ़ाइये मत । चिन्ता का रोना रोते रहने से चिन्ता दूर होने से रही। पर हो सकता है, कि इन सूत्रों को अपनाने से आपकी चिन्ता दूर ही हो जाये।

        (१) सोचिये, कि जिस बात से आप चिन्तित है, उसका अधिक से अधिक दुष्परिणाम क्या हो सकता है। अपने-आप को मानसिक रूप से उसको झेलने के लिये तैयार कर लीजिये। इससे आपकी चिन्ता ठण्डी होने लगेगी।

           (२) अब शान्ति से ईश्वर का स्मरण करते हुये सोचिये कि चिन्ता के उस दुष्परिणाम को किस प्रकार हल्का या दूर किया जा सकता है। समस्या का समाधान किस प्रकार और किन उपायों से सम्भव है, इस पर मन में विचार कीजिये। अपनी आत्मा की आवाज़ को दबाइये मत, उसको सुनने की चेष्टा कीजिये।

            (३) यदि किसी परामर्श, सहायता की जरूरत है, तो अनुभवी आप्त पुरुषों/ स्त्रीयों से ज़रूर लीजिये। तदुपरान्त अपनी बुद्धि से निर्णय कर समस्या के समाधान में जुट जाइये।

           (४) सही परिणाम प्राप्त करने के लिये ग़लत उपायों का सहारा मत लीजिये, बेशक जोखिम कितनी भी अधिक क्यों न हो।

           (५) चिन्ता आपकी है, समस्या आपकी है, अतः समाधान या कार्यान्वयन के लिये दूसरों का सहारा मत तकिये। ध्यान रहे, ईश्वर उन्हीं की मदद करता है, जो अपनी मदद आप करते हैं।

            यह तो हुई चिन्ताओं के निवारण की बात । परन्तु निवारण की अपेक्षा बचाव हमेशा बेहतर होता है। यदि शान्ति के साथ एकान्त में बैठकर विचार करेगें, तो आपको स्पष्ट दिखाई देगा कि कोई 'घटना' या 'परिणाम-विशेष' चिन्ता का कारण नहीं, अपितु मनुष्य की अपनी 'आसक्ति' और अपना असन्तोष' ही सब चिन्ताओं का मूल कारण है। निरन्तर 'अनासक्त-भाव' से रहने और कर्म करने का स्वभाव बना लीजिये, और शेष सब कुछ न्यायकारी, दयालु, फलप्रदाता परमात्मा पर छोड़ दीजिये, चिन्ताओं से आप बचे रहेंगे। याद रखिये-'सन्तोषी सदा सुखी, और असन्तोषी सदा दु:खी भी और चिन्तित' भी। अतः चिन्ता छोड़िये, और वेदानुसार चिन्तन कीजिये। चिन्ताग्रस्त नहीं, चिन्तनशील बनिये। चिन्ता से जीवन का हास होता है; सही और सामयिक चिन्तन से जीवन का विकास होता है। और चिन्तन तथा मनन की पर्याप्त सामग्री प्रदान करता है-'वेद'। इसी लिये वेद ने कहा (मा भेः) मत डर (मा संविक्था) मत घबरा (ऊर्जम् धत्स्व) ऊर्जा धारण कर। ऊर्जा है, शक्ति, साहस, क्षमता, ओज, तेज, बल, वीर्य । देखा जाता है, कि संशयशील व्यक्ति में विश्वास का अभाव होता है, और भयशील में क्षमता का। मैं आततायी से डरता इसलिये हूँ, कि मुझमें उससे निपटने की क्षमता नहीं है। किन्तु यदि मेरी क्षमता और शक्ति उसकी क्षमता और शक्ति से कहीं अधिक है, तो मेरे डरने का प्रश्न ही नहीं उठता। मैं नदी में उतरने से डरता हूँ, क्योंकि मुझे तैरना नहीं आता। परन्तु यदि मेरी क्षमता तैर कर इंगलिश चैनल पार करने की है, तो नदी, कैसी भी हो, मुझे डरा नहीं सकती। इसीलिये मन्त्र कह रहा है कि हे मानव, चिन्ता छोड़कर यदि तुझे अपनी, अपने परिवार की, अपने संस्थान की, अपने समाज की, अपने देश की और अपनी पृथिवी की समस्याओं से जूझना है, उनको हल करना है, तो अपनी, अपने परिवार की, अपने संस्थान की. अपने समाज की, अपने देश की क्षमता, शक्ति, ओज, तेज, बल और पराक्रम को बढ़ा तथा उनको धारण करे। निर्भय, निर्धान्त और निश्चिन्त होकर प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना कर । यही सार्थकता है उर्जम धत्स्व की।

आदमी वह नहीं, हालात बदल दें जिनको।

आदमीं वह हैं, जो हालात बदल देते हैं ।

      मन्त्र में आगे आया (धिषणो वीड्वी सती वीडयथाम्) द्यौ और पृथिवी के समान दृढ़, अतिशय बलवान/ बलवती तथा सद्गुणयुक्त होते हुये सुदृढ़ रहो। यहाँ धिषणे' शब्द अत्यन्त महत्वपूर्ण है। द्यौ और पृथिवी में पारस्परिक जो धिषणायें (ध्वनि तरंगें) उठा करती हैं, उन्हें कहते हैं, 'धिषणे'। अभयता का पाठ 'धिषणे' के माध्यम से वेद क्यों पढ़ा रहा है, यह स्पष्ट हो जाता है इस मन्त्र से।

यथा धौश्च पृथिवी च न बिभीतो न रिष्यतः।

एवा में प्राण मा बिभेः॥

-अथर्व० २।१५।१

         "जैसे द्यौ और पृथिवी निश्चय से न डरते हैं, न विनष्ट होते हैं, वैसे ही, मेरे प्राण, तू भयभीत मत हो।" द्यौ और पृथिवी के अनेक गुणों में दो प्रधान गुण है-न डरना और न दुःख देना (न बिभीत: न रिष्यतः)। इसी प्रकार हमें भी चाहिये कि इन दोनों द्यौ और पृथिवी के समान (वीडवी) बलयुक्त और (सती) सत्वगुणयुक्त होकर (वीडयथाम्) दृढ़तापूर्वक वीडन करें, अर्थात् बरतें और बर्तावें। न स्वयं डरें, न दूसरों को डरावें। यह ध्यान रहे कि निर्भय और अदम्य व्यक्ति के ही संकल्प और निर्णय वीड्वी, अर्थात् अतिशय बलवंत होते हैं। कायर और भीरु तो अपना पक्ष घड़ी-घड़ी बदलते रहते हैं। निर्भयता और अदम्यता का आपसी सम्बन्ध अक्षुण्ण है। इसी लिये मन्त्र में पुनः आया (ऊर्जम् दधाथाम्) ऊर्जा को धारण करे रह । उर्ज नाम धैर्य, उत्साह, साहस, शक्ति, क्षमता, बल, ओज, तेज के समुच्य का है। ऊर्ज ही मनुष्य को निर्भय और अदम्य बनाता है। यों समझिये कि 'अन्दर की ऊर्जा घटी तो अभयता गई, और ऊर्जा बढी तो भीरुता गई।' ऊर्जा को धारण रखते हुए हम सब प्राणी शरीर और आत्मा से इतने सक्षम, सतोगुणी, वीर और बलवंत हो, कि भय, घबराहट, चिन्ता और उदिग्नता हमारे निकट फटक ही न सके। यह है, वेदमाता का निर्देश।

        अंतिम बात। (पाप्मा हतः, न सोम) पाप/ अपराध नष्ट हों, सोम (सौम्यता, आनन्द) नहीं। जिस मनुष्य ने पाप/ अपराध किये हैं, वह पाप-बोध और अपराध-बोध से ग्रस्त होने के कारण कभी भय-मुक्त नहीं हो सकता। आखिर कुकर्मो का फल तो मिलना ही है। इसी प्रकार जिस समाज, राष्ट्र और विश्व में पापों और अपराधों का बोलबाला हो, वहाँ भय और चिन्ता का आतंक छाया ही रहेगा। वह समाज, वह राष्ट्र, वह विश्व कभी भयमुक्त नहीं हो सकता। अतः हर स्तर पर पापों और अपराधों का हनन जरूरी है। अधर्म का नाश नहीं हुआ, तो धर्म कभी पनप नहीं सकेगा। इस लिये निर्भयता और अदम्यता के साथ पापों का हनन हो, ताकि सारा वातावरण भयमुक्त होकर विकास का मार्ग, सुख और शान्ति का मार्ग प्रशस्त कर सके। कोई किसी से डरे नहीं, दबे नहीं। कोई किसी को डराये नहीं. दबाये नहीं। सब निर्भ्रान्त, निर्भय, निर्द्वन्द, निःशक और निश्चिंत हों, यही है सोमावस्था। इसी का नाम 'समत्व' है; और 'समत्व' ही सोम है, रस और आनन्द से भरपूर।

शान्ति का हनन न हो, आह्लाद को कोई छीने नहीं, सब सुखी हों, सुख-शान्ति से रहें, और सबको भयमुक्त वातावरण में सुखशान्ति से रहने दें, यही कामना है वेद माता की, जिसको साक्षात किया है मन्त्र-दृष्टा ऋषिका मधुच्छन्दा ने।

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