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अन्धकार से प्रकाश की ओर

 



अन्धकार से प्रकाश की ओर

दोषो आगाद् बृहद्गाय द्युमद्गामन्नाथर्वण।

स्तुहि देवं सवितारम्॥

-सामवेद १७७

ऋषिः-दध्यङ् आथर्वण। देवता-इन्द्रः। छन्दः-गायत्री। स्वर:-षड्जः ॥

पदपाठ-दोषा। उ। आगात। वृहद्। गाय। घुमद्। गामन। आथर्वण । स्तुहि । देवम्। सवितारम्।

(दोषा उ आगात्) - अंधकार/ रात्रि जब धिर कर आ जाय, (बृहद् गाय) - बृहद् गान कर [उस प्रभु का],

(घुमद् गामन् आथर्वण)- जो है दीतिमान, पथ-प्रदर्शक और

अकम्पित,

(स्तुहि देवं सवितारम्) - स्तुति कर सर्वोत्पादक, प्रेरक प्रकाशमान देव की। भक्ति-रस से ओत-प्रोत है।

      सामवेद के इस मन्त्र का दृष्टा ऋषि है, "दध्यङ्ग आथर्वण''दध्यङ्ग' उसको कहते हैं, जिसने अष्टांग योग को सिद्ध कर लिया है और जो कुछ व्यक्त कर रहा है, उसका उसने प्रत्यक्ष साक्षात्कार किया है। वस्तुत: उपासना विषय है ही आत्मसाक्षात्कारपूर्वक ईश्वर-स्तुति तथा ईश्वर-प्रणिधान का। और चूंकि मन्त्र-दृष्टा ऋषि ने प्रत्यक्ष साक्षात्कार किया है, उसका अपना अनुभव है, अतः वह 'आथर्वण' है, अपनी बात में दृढ़ है, अडिग है, स्थिर है, आप उसे हिला नहीं सकते।

       मन्त्र का देवता अर्थात् विषय है 'इन्द्र''इन्द्र' एक तो वह है जो इस शरीर के अन्तर्गत इन्द्रियों का स्वामी है, अर्थात् देह में विद्यमान जीवात्मा, जो यद्यपि चेतन है, परन्तु सामर्थ्य से अल्पज्ञ और शरीरी होने के नाते क्षेत्रज्ञ है। (इदं शरीरं क्षेत्रम्) यह शरीर ही जीवात्मा का क्षेत्र है, इसीलिये वह क्षेत्रज्ञ कहाता है। दूसरा 'इन्द्र' वह है, जो अनन्त सामर्थ्यवान, सर्वज्ञ, प्रकाशमान तथा इस समस्त ब्रह्माण्ड का अधिपति है; उसी को परब्रह्म परमेश्वर कहते हैं। मन्त्र का विषय इस प्रकार 'जीवात्मा' तथा 'परमात्मा' दोनों ही हैं।

       आइये, अब मन्त्र पर विचार करें। (दोषा उ आगात्) अंधकार/ पाप आदि आकर जब घेर लें। किसको? परमेश्वर तो (ज्योतिषां ज्योतिः) स्वयं प्रकाशमान और प्रकाश देने वाला है, वहाँ अंधकार का क्या काम । 'दोषा उ आगात' की स्थिति हम शरीर-धारी जीवात्माओं की है, जिसका सामना हममें से प्रत्येक को न्यूनाधिक करना ही पड़ता है। अंधकार आकर घेरता है हमको। अँधेरे में भयभीत होते हैं हम, भटकते हैं हम, ठोकर खाते हैं हम, नितान्त अकेले, असहाय हो जाते हैं हम। न कुछ सूझता है, न दिखाई देता है। यह एक स्थिति है। दूसरी स्थिति यह है कि अन्धकार में ही हमारी वासनायें और राक्षसी वृत्तियाँ प्रबल हो जाती हैं। पर ऐसा हमारे साथ ही क्यों होता है । इस 'क्यों' को समझने के लिये पहले हमें अपने आप को समझना पड़ेगा, और फिर अन्धकार को दूर करने का मार्ग पकड़ना पड़ेगा।

       हम क्या हैं? हम है, 'जीवात्मा'+'शरीर'। जीवात्मा सूक्ष्म तत्व है, जो जब तक शरीर में है, तब तक शरीर जीवित है। जीवात्मा के बिना शरीर का कोई अस्तित्व नहीं। इसी प्रकार बिना शरीर के जीवात्मा बिल्कुल शून्य, सामर्थ्यहीन। यूँ समझ लीजिये जीवात्मा किसान है, और शरीर खेत है। किसान हो और खेत न हो, तो किसान असमर्थ। और 'खेत' हो, पर 'किसान' न हो, तो कौन, और, किस लिये, 'खेती' करे। 'खेत' और 'किसान' को श्रीमद्भगवदगीता के तेरहवें अध्याय में 'क्षेत्र' और 'क्षेत्रज्ञ' कहा गया है।

     जीवात्मा (या क्षेत्रज्ञ) एक 'नित्य' 'अनादि' सत्ता है, किन्तु सामर्थ्य से 'अल्पज्ञ' है, हाँ, इसके अन्दर 'इच्छा', 'प्रतिस्पर्धा', 'प्रयत्न' और 'गति' करने की क्षमता ज़रूर है। शरीर से युक्त होने पर इसके कुछ और भी लिंग अर्थात् चिन्ह बन जाते हैं, जैसे सुख, दुःख, वासना, द्वेष, अन्तर्विकार आदि।

   'जीवात्मा' को अपने सीमित सामर्थ्य को सार्थक करने के लिये चाहिये 'शरीर'। इसको 'शरीर' दिया है परमात्मा ने। यही उसकी मेहरबानी है। चूंकि देने वाला शरीर का परमात्मा है, अत: वापस लेने का पुनः देने, या न देने, का हक़ भी उसी का बनता है। इस कारण परमेश्वर 'शरीर' का निमित्त कारण है।

     'शरीर' का उपादान कारण (अर्थात् जिन तत्वों से शरीर बनाया गया है, वह मूल में है, एक और 'अनादि' सत्ता, जिसका नाम है 'प्रकृति'। प्रकृति त्रिगुणात्मक है, इसके तीन गुण हैं, 'सत्व', 'रज' 'और'"तम' । सृष्टि रचना से पूर्व प्रलयावस्था में 'सत्व' 'रज' का अभाव होता है, केवल 'तम' (अन्धकार) से सारा कुछ आवृत्त रहता है। फिर सर्वोत्पादक परमेश्वर अपने 'ऋत', 'सत्य' 'तप' से 'सत्व' 'रज' की पूर्ति कर प्रकृति को प्रलयावस्था से 'सत्व', 'रजस' 'तमस' की 'साम्यावस्था' में ले आता है। इस अवस्था के पश्चात ही परमेश्वर की सृष्टि-निर्माण प्रक्रिया के फलस्वरूप प्रकृति के परिणामी पदार्थ, यथा महत' (बुद्धि-तत्व)'अहंकार' (अस्तित्वतत्व), 'पञ्च तन्मात्रा सूक्ष्मभूत' (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध), पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, (नासिका, रसना, नेत्र, त्वचा, कान) पाँच कर्मेन्द्रियाँ (हाथ, पाँव, मुख, उपस्थ, गुदा), 'मन', तथा पंच तन्मात्राओं से ही 'स्थूल भूत' (आकाश, वायु, तेज, जल, पृथिवी) उत्पन्न होते हैं। यही सब हमारे शरीर के उपादान कारण हैं । स्वभाविक है, कि यह सब प्रकृति के गुणों से यथा 'सत', 'रज' 'तम' से प्रार्दुभूत रहते हैं। हमारा सारा चिन्तन, सारा मनन, सारा व्यावहार, सारे क्रियाकलाप, सारे गुण-दोष इस बात पर निर्भर करते हैं, कि हमारा अन्त:करण 'सात्विक' है, 'राजसिक' है या 'तामसिक'। प्रकृति का क्षेत्र चूंकि परिवर्तनयुक्त क्षेत्र है (छः परिवर्तन स्पष्ट दृष्टिगोचर हैं यथा 'उत्पन्न होना', 'स्थित होना', 'बढ़ना', 'परिणाम को प्राप्त होना', 'क्षीण होना' और 'नष्ट हो जाना') अतः यह नितान्त सत्य है, कि हमारी वृत्तियों में परिवर्तन होता रहता है। एक व्यक्ति, जिसे हम दुष्ट समझते हैं, सात्विक वृत्ति जाग्रत हो जाने पर महानता का परिचय दे सकता है। इसी प्रकार सन्त स्वभाव का व्यक्ति 'तम' के प्रभाव में पतित हो सकता है। गुण और विकार प्रकृति की देन हैं। गुण हैं, 'सत्व', 'रज' और 'तम' और विकार हैं पंचभूत (पृथिवी, जल, तेज, वायु, आकाश) में प्रदुषण और अंत:करण (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) में इच्छा, कामना और वासना द्वारा अच्छे-बुरे परिवर्तन । जीवात्मा इनसे प्रभावित अवश्य होता है, पर अपने मूल रूप में वह विकारी नहीं है।

       यद्यपि हम शरीरधारियों में तीनों गुण ('सत्व', 'रज' और 'तम') सदा विद्यमान रहते हैं, परन्तु समय-समय पर कोई एक प्रधान हो जाता है। 'सत्वगुण' का बिल्कुल उल्टा 'तमोगुण' है। सत्वगुण यदि उत्साह, कर्तव्य-निष्ठा, ज्ञान का द्योतक है, तो तमोगुण आलस्य, अकर्मण्यता, अज्ञान का द्योतक है। मोटे तौर पर हम-आप जिन गुणों को शुभ, श्रेष्ठ और आदर्श समझते हैं, वे सब सत्वगुण में समाविष्ट हैं, और जितने भी गुण अशुभ, निकृष्ट और अधम कोटि के हैं, वे सब तमोगुण की श्रेणी में आते हैं । रजोगुण अपनी चंचल वृत्ति के कारण कभी सत्वगुण की ओर झुका होता है, और कभी तमोगुण की ओर । अतः इसके लक्षण भी इसके झुकाव अथवा इसकी चंचल वृत्ति के अनुरूप होते हैं। एक बात और, 'सत्वगुण' के अभाव में 'तमोगुण' उसी प्रकार स्वतः प्रधान हो जाता है, जैसे प्रकाश के अभाव में अन्धकार।

        मन्त्र में (दोषा उ आगात्) का भाव यही है, कि तमोगुण का हमारे अन्दर उदय होकर हमें सब ओर से घेर लेना। यह स्थिति हमारे दुःख, क्लेषों तथा अधोगति का भी कारण हो सकती है, साथ ही हमें पापी व दोषी भी बना सकती है। आलस्य और प्रमाद के वशीभूत होकर अवसरोचित कर्म का न करना भी उतना ही दोषपूर्ण है जितना 'विकर्म' (उल्टा कर्म) करना। अब प्रश्न यह है कि अन्धकार रात्रि आकर जब हमें घेर ले हमारी वृत्तियाँ तामसिक हो रही हों, तो हम इस स्थिति से कैसे ऊपर उठे! अंधकार तो इतना सनातन है कि जब सृष्टि का पता भी न था, कुछ न था, तब केवल अन्धकार था, और था एक अकेला परमेश्वर । हमारी कहाँ सामर्थ्य कि इस सनातन अन्धकार को सदैव के लिये खत्म कर दें। तो हम क्या करें? हमें चाहिये, कि अन्धकार से न उलझ कर हम अपने अन्दर प्रकाश की व्यवस्था करें। जितना प्रकाश बढ़ता जायेगा, अन्धकार दूर अपने आप होता जायेगा।

      ठीक है बाहर के अन्धकार को दूर करने के लिये हमने दीप जला लिये, पर अपने अन्दर कैसे दीप जलायें?

        मन्त्र कहता है (बृहद गाय द्युमद् गामन् आथर्वण) अन्दर दीप जलाने के लिये, तू गा, खूब ज़ोर से, जितना हो सके, गा। गाना न भी आता हो, तब भी गा। पर गा उस प्रभु की महिमा, जो है (घुमद्) दीप्तिमान (गामन्) पथ-प्रदर्शक और (आथर्वण) दृढ़, अकम्पित, स्थिर।

        यहाँ दो बातें महत्वपूर्ण हैं-एक "गाना", दूसरा "प्रभु की महिमा का गुण-गान गाना" यहाँ शान्त स्थिर भाव से परमेश्वर में ध्यान लगाने की बात नहीं कही गई, गाने की कही गई है, और वह भी खूब जोर से । विचार करेंगे, तो कहेंगे-'नमो वेदमात्रे' वेदमाता तुझे नमस्कार है।

       देखो तम का प्रभाव है। आलस्य, निद्रा, निष्क्रियता अनिच्छा छाती जा रही है। ऐसी स्थिति में पहले तो साधक को सक्रिय बनाना है, उसके आलस्य, निद्रा, प्रमाद को दूर करना है, यह कार्य केवल मात्र"उठो', 'जागो' और 'अपने' लक्ष्य को प्राप्त करो" कहने से नहीं हो जायेगा। अतः प्रथम उपचार के रूप में वेद माँ कह रही है, तू गा, खूब ज़ोर से गा, इतनी जोर से गा, कि वह अन्धेरे को चीर कर रख दे। गाना (संगीत) एक ऐसी साधना है जो हमारे सम्पूर्ण अंत:करण को, हमारी समस्त इन्द्रियों को और आत्मा को झंकृत कर देती है। गाने वाला केवल वाणी से नहीं गाता; समस्त इन्द्रियाँ और अन्त:करण एक जुट होकर वाणी के साथ होते हैं, तब गाना होता है। चित्त की एकाग्रता के लिये गाना अत्यन्त लाभदायक है। प्रभु-स्तवन, चिन्तन, मनन, निदिध्यासन एवं यज्ञ, प्रवचन आदि में, पहले और बाद में गायन (चाहे वह स्वस्तिगान हो या वामदेव्यगान हो या भजन के रूप में हो) की परम्परा बड़ी प्राचीन है। गायन तम के प्रभाव को प्रभावी होने से रोकता भी है, और यदि तम आकर डेरा डाल ले, तो उसका बिस्तर गोल करने की भी क्षमता रखता है।

       दूसरी महत्त्वपूर्ण बात है 'गान की महिमा का'। प्रभु अनन्त नाम च गुण वाला है, परन्तु यहाँ उद्देश्य है अन्धकार को दूर करना। अतः उद्देश्य के अनुरूप ही मन्त्र में प्रभु के गुणों का वर्णन किया गया है। अन्धकार को दूर करने के लिये एक तो प्रकाश की आवश्यकता है, अत: परमेश्वर को (द्युमद्) चमकते हुये दीप्तिमान, प्रकाशपुंज के रूप में स्मरण किया गया है। आलोक की एक ही किरण अंधकार को ख़त्म कर देती है, पर जहाँ परमेश्वर का अनन्त प्रकाश आ जाये, वहाँ अंधकार का क्या काम। दूसरा सम्बोधन है (गामन्) प्रकाश को लेकर चलने वाला। घोर घने जंगल में अंधियारी रात में जो व्यक्ति मशाल, लैम्प या लालटेन लेकर मार्ग दिखाता हुआ आगे -आगे चलता है, वेद की भाषा में उसको कहते हैं, 'गामन' (अंग्रेजी में TORCH BEARER) अंधियारा को दूर करने के लिये हम उसको मशालची पथ-प्रदर्शक के रूप में स्मरण करते हैं। तीसरा सम्बोधन है (आथर्वण)। आथर्वण वह शिक्षक/ मार्ग-दर्शक है जो अपने ज्ञान में परिपूर्ण है, सुदृढ़ है, सुस्थिर है, अकम्पित है। हमारे अन्दर के अन्धकार का मूल कारण है 'अज्ञान', 'अविद्या', 'अस्मिता'। परमेश्वर ही ऐसा ज्ञानी गुरु है, जो हमारी आत्मा पर पड़े मल, विक्षेप तथा आवरण को हटा कर हमें अपना शुद्ध स्वरूप और आत्म-बल का दर्शन कराता है। स्व-सामर्थ्य और स्व-शक्तियों का एहसास हमें सक्रिय बनाकर बड़े से बड़े संग्रामों में विजय-श्री दिलवा देता है।

        प्रभु के 'धुम', 'गामन्', 'आथर्वण' स्वरूप को गान करके हमने अन्धकार को भगा दिया है। हम उस स्थिति में पहुँच गये हैं, जहाँ हमारी निष्क्रियता समाप्त हो गई है, मोह नष्ट हो गया है। ज्ञान के प्रकाश से हम आलोकित हो उठे हैं। मन निर्विकार हो गया है। बुद्धि प्रखर हो चुकी है। मन में लगन और चित्त में उत्साह है। अब क्या करें? मन्त्र कहता है (स्तुहि देवं सवितारम्) उस 'सविता-देव' की स्तुति करो। देवं का अर्थ है-सब दिव्य गुणों के भण्डार सवितारं के अर्थ हैं-सब को सदा उत्तम प्रेरणा देने वाला। यह परमेश प्रभु के अतिरिक्त और कौन हो सकता है। मालिक तो सबका वही एक है, उसी से पूछो, क्या करें। वही काम बतायेगा, वही प्रेरणा देगा, और वही संकल्पों और व्रतों को पूरा करेगा। देखो, जब कार्य हम अपनी मर्जी से करते हैं, तब वह कर्म हमारे बन्धन का कारण बन जाता है। पर जो कर्म हम परमेश्वर की इच्छा या आज्ञा से करते हैं, और प्रभु को समर्पण करके करते हैं, वे कर्म हमारे बन्धन के कारण नहीं होते।

मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा। निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः।।

ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठिन्ति मानवाः ।

श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभिः ।।

-श्रीमद्भगवदगीता अ० ३।३०-३१

      मुझ (ईश्वर) में अध्यात्म-चित्त (कल्याण की भावना) से सब कर्मों का समर्पण करके, आशा-रहित, ममता-रहित और संतापरहित होकर युद्ध कर। जो मनुष्य श्रद्धा से युक्त तथा ईयरहित हो मेरी इच्छानुसार कर्म करता है, वह सम्पूर्ण कर्म (फलों/ बन्धनों) से मुक्त हो जाता है।

        अतः हमें तो यही उचित है, कि हम सब सदा उत्तम प्रेरणा देने वाले, दिव्य गुणों के भण्डार सर्वोत्पादक सविता देव की स्तुति करें। यह स्तुति जितनी प्रात: और सायंकाल में आवश्यक है उतनी ही रात्रि में । निद्रा को यदि योग निद्रा' बनाना है, और प्रत्येक रात्रि को 'शिव रात्रि' बनाना है, तो शयन से पूर्व ईश्वर की स्तुति और मन का शिव-संकल्प वाला होना अति आवश्यक है। प्रभु की प्रेरणानुसार कर्मों को, समर्पण की भावना से, प्रभु का आदेश मानते हुये, जब हम करेंगे, तभी हम प्रकृति के गुणों और विकारों में न उलझ कर, गुणातीत बन कर निष्काम भाव से अपने प्रभु-प्रदत्त कर्तव्यों का निष्ठापूर्वक निर्वहन कर सकेंगे। इसी में हमारा कल्याण है।

        संकट ने जब घेरा हो, चारों ओर अंधेरा हो, गान कर तब उच्च स्वर से, दीप्तिमान उस प्रभु का, जो है अकम्पित और गतिशील ॥ १॥

         स्तुति कर उस परमपिता की, करता दूर जो अन्धकार को, प्रेरित करता जन-मानस को, नहीं महान उस जैसा कोई, प्रेरक, शिक्षक और न्यायशील ॥२॥

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