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मनुष्य यदि वीर होना चाहे....



मनुष्य यदि वीर होना चाहे....

यदि वीरों अनु ष्यादग्निमिन्धीत मर्त्यः ।

आजुहृद्धय॑मानुषक् शर्म भक्षीत दैव्यम्॥

-सामवेद ८२

ऋषिः-वामदेव । देवता:-अग्निः। छन्दः-अनुष्टुप। स्वर:-गान्धार। १.(मर्त्यः ) -मरणधर्मा [मनुष्य]

२. (यदि वीरो अनुष्यात्) - अगर वीर होना चाहे [मृत्यु पर विजय प्राप्त करने के लिये]

३.(अग्निं इन्धीत) - अग्निरूप प्रकाशमान परमेश्वर को अपने अन्दर प्रदीप्त करे [अग्न्याध्यान करे]

४. (आजुहवत् हव्यम् आनुषक्)- समर्पित करे [ श्रेष्ठ कर्मो की] हवि निरन्तर,

५. (शर्म भक्षीत दैव्यम्) - प्राप्त दैवी सम्पदाओं/दिव्यताओं द्वारा सेवन करे अलौकिक सुख शान्ति का।

      सामवेद के इस उदात्त मन्त्र में प्रभु भक्ति का सुन्दर आह्वान है हम मरणधर्मा मनुष्यों के लिये । मन्त्र का दृष्टा ऋषि है-'वामदेव' 'वाम' कहते हैं सुन्दर, अति शोभनीय को और 'देव' कहते हैं 'दिव्य गुणों से युक्त महान विभूति को'। वामदेव ने यह सुन्दरता और दिव्यता प्राप्त की है यज्ञाग्नि द्वारा, यज्ञों द्वारा, (यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवा:-ऋग्० १।१६४।५०) यज्ञों का यज्ञ से यजन कर; इसी लिये परम्परा से बृहद् यज्ञों, संस्कारों आदि में यज्ञोपरान्त 'महावामदेव्यगान' की परिपाटी 'वामदेव' ऋषि के नाम से प्रचलित है। मन्त्र का देवता है' अग्नि'। जो ज्ञानस्वरूप, सर्वज्ञ, जानने, प्राप्त होने और पूजा करने योग्य है, इससे उस परमेश्वर का नाम 'अग्नि' है। मन्त्र-दृष्टा ऋषि वामदेव ने उस अग्निस्वरूप परमेश्वर को धारण करके जो कुछ मन्त्र में व्यक्त किया है, उसके पीछे उसका अपना अनुभव है, साक्षात्कार है। अब यह हमारे और आपके ऊपर निर्भर करता है कि हम ऋषि के अनुभव से लाभ उठायें या न उठायें।

        मन्त्र में हम देहधारियों को सम्बोधित किया गया है (मर्त्यः) मरणधर्मा शब्द से। (जातस्य हि धुवो मृत्यु-गीता २।२६) जो पैदा हुआ है, वह मृत्यु को निश्चय ही प्राप्त होगा, इसी लिये हमारी संज्ञा है 'मर्त्यः'। हम सब यह भी जानते हैं कि लोक में जिसे मृत्यु कहते हैं, वह मृत्यु 'शरीर' की होती है, आत्मा तो नित्य है, वह (ध्रुवं जन्म मृतस्य च) एक देह छोड़ कर दूसरी देह को धारण कर लेता है। पर यही भी निर्विवाद है कि हम सब मरणधर्मा देहधारियों के लिये मृत्यु से बड़ा कोई दुःख नहीं, और मृत्यु से बड़ा कोई भय नहीं। मृत्यु तो वस्तुतः एक प्रक्रिया है, एक सच्चाई है, जिससे सब को एक न एक दिन गुज़रना है, परन्तु मृत्यु से बढ़ कर है, मृत्यु से जुड़ा हुआ भय और कष्ट । मृत्यु से जुड़ा हुआ भय और कष्ट उस मृत्यु (देहावसान) की घड़ी से भी अधिक पीड़ा और दुःख पहुँचाता है और आयु-पर्यन्त हम को आक्रान्त एवं आतंकित किये रहता है। गालिब ने इसी लिये कहा है

मौत का एक दिन मोय्यन है.

नींद फिर रात भर क्यों नहीं आती।

        वेदमाता को शायद यह असह्य है कि उसके पुत्र और पुत्रियाँ मृत्यु के भय और दुःख से इतने आक्रान्त रहें, अतः वेद में कितने ही मन्त्र हैं जिनमें मृत्यु के दुःख से छुड़ाने वाली बड़ी उदात्त प्रेरणायें हैं

"मृत्योः पड्वीशमवमुञ्चमानः।" -अथर्व०८।१।४ मृत्यु की बेड़ियों को छुड़ा।

"त्वां मृत्युदयतां मा प्र मष्ठाः।" -अथर्व०८।१।५

       मृत्यु तेरी रक्षा करे और तू समय से पूर्व न मरे।। "उत् त्वां' मृत्योरपीपर।" -अथर्व०८।१।१९ __ मृत्यु से तुझ को ऊपर उठाता हूँ। "अवमुञ्चन् मृत्युपाशानशस्ति।" -अथर्व०८।२।२

       मृत्यु के बन्धनों और निन्दनीय गति को दूर करता हूँ। 'मृत्यो मा पुरुष वधीः।" -अथर्व०८।२।५ हे मृत्यु ! तू पुरुष को (समय से पूर्व) मत मार। "तस्मात् त्वां मृत्योर्गोपते रु स मा बिभेः।" -अथर्व०८।२।२३

    उस मृत्यु से मैं तुझे ऊपर ऊठाता हूँ। वह तू मृत्यु से मत डर। किन्तु प्रश्न यह है, कि मृत्यु पर विजय प्राप्त करें कैसे? एक बात तो निर्विवाद है कि विजयश्री उनको मिलती है, जो वीर होते हैं, साहसी और निर्भय होते हैं। कायर और डरा हुआ व्यक्ति तो जीते जी मरा हुआ होता है । एक दूसरी सच्चाई यह भी है कि वीर एक ही बार मरता है, जबकि कायर अनेकों बार मरते हैं। Brave dies only once; cowards die many times.

         बृहदारण्यक उपनिषद, जो शतपथ ब्राह्मण का ही भाग है, कहा गया है-'असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्यार्माऽमृतं गमयेति'-शतपथ० १४।४।१।३० इसी की व्याख्या में यह भी स्पष्ट कर दिया गया कि असत् तथा तमसः ही मृत्यु है और 'सत' तथा 'ज्योति' ही अमृत है। अन्यत्र भी शतपथ ब्रह्मण में 'अमरत्व' की व्याख्या करते हुये कहा गया है- जिसको उस परम ज्योति के दर्शन हो जाते हैं, वह अमर हो जाता है। (यजुः०८।५२; शतपथ०४।६।९।१२) -- जो मर्त्य अपनी समस्त कामनाओं को पूर्ण कर लेता है, वह अमर्त्य हो जाता है। (शतपथ० १४।६।२।९) अपनी आयु को जीवन्त भोगना अमृत प्राप्त करना है। सौ वर्षों व उससे अधिक का जीवन प्राप्त करना अमृत है। (शतपथ १०।२।६।७) स्वाभाविक है, कि अमृत को 'देव' ही प्रास कर सकते हैं। देवता बन कर ही मनुष्य अमरता को प्राप्त करता है। पर कैसे? सामवेद का विचाराधीन मन्त्र इसी मूल प्रश्न का उत्तर है।

     (यदि वीरो अनुष्यात्) यदि वीर होना चाहे । मन्त्र का आरम्भ 'यदि' से होता है। इस से दो बातें स्पष्ट होती हैं

(१) देहधारी के अन्दर जो यह जीवात्मा है, वह कर्म करने में स्वतन्त्र है। अर्थात हम स्वतन्त्र हैं, चाहे हम वीर बने या न बने । वीर बनेंगे, तो विधाता उसका फल देगा-वीर भोग्या वसुन्धरा, पृथिवी पर सुखों को भोगेंगे; नहीं बनेंगे, तो उसका फल अलग होगा, जैसा भी होगा अपने प्रारब्ध और कर्मानुसार होगा।"यदि" शब्द सिद्धान्तः हमारे कर्म स्वातन्त्र्य का सूचक है।

(२) हम जो भी बनना चाहते हैं, उसके लिये हमारे अन्दर उत्कट इच्छा होनी चाहिये। चाहत बहुत जरूरी है। वीर बनने से पहिले वीर बनने की चाह होनी चाहिये। जी वही सकता है जो जीना चाहता है। वीर वही बन सकता है, जो वीर बनना चाहता है। मुख्य बात यह है कि हमारा चिन्तन और चाहत सकारात्मक होनी चाहिये; क्योंकि जैसा हम सोचेंगे, वैसे ही बनेंगे।

        दूसरा महत्वपूर्ण शब्द है (वीरो) अर्थात वीरोचित गुण । वीरता के लिये शारीरिक बल इतना ज़रूरी नहीं, जितना जितेन्द्रिय, चरित्र और आत्मिक बल का होना महत्वपूर्ण है। सुबुद्धि, श्रद्धा, संकल्प शक्ति, धैर्य, उत्साह, साहस, वचनबद्धता, कर्मठता, कार्य-कुशलता, नीतिज्ञता, दक्षता आदि अनेक गुणों से विभूषित होता है वीर। पर वीरता और शौर्य कोई ऐसी वस्तुयें नहीं हैं, जिन्हें बाजार में खरीदा जा सके। इसके लिये इन्द्रिय-बल, चरित्र-बल और आत्मबल (शारीरिक, चारित्रिक और आत्मिक बल) तीनों को प्राप्त करना ज़रूरी है। __चलिये, हमने निश्चय कर लिया, कि वीर बनेंगे। अमृत को प्राप्त करेंगे। संसार में अपना नाम, अपना यश, अपनी कीर्ति अमर कर जायेंगे। अब क्या करें।

       मन्त्र कहता है (अग्निं इन्धीत) अग्नि को अपने अन्दर धारण करो। अपने अन्दर अग्न्याधान कर अपने अन्दर अग्नि को प्रदीप्त करो। जब अन्दर आग धधक रही होती है, तब जन्म होता है वीरता का।

        कौन धारण कर सकता है अग्नि को अपने अन्दर? कभी आपने अग्नि-होत्र करते समय अग्नयाधान के मन्त्र पर विचार किया है ?

ओं भूर्भुवः स्वर द्यौरव भूम्ना पृथिवीव वरिम्णा ।

तस्यास्ते पृथिवि देवयजनि पृष्ठेऽग्निमन्नादमुन्नाद्यायादधे॥ -यजुः० ३५      

        हे (भूः र्भुवः स्वः) सच्चिदानन्दस्वरूप परमेश्वर । (द्यौ इव भूम्ना) द्यौ के समान महानता से (पृथिवी इव वरिम्णा) पृथिवी के समान वरणीयता से, युक्त होकर (देवयजनि पृथिवी) देव यज्ञ की आधार भूमि पृथिवी के (तस्या ते पृष्ठे) उस तेरे पृष्ठ पर (अन्नादम् अग्निं अन्नाद्याय) भौतिक अग्नि को अन्न आदि भौतिक पदार्थों के सेवनार्थ (आ दधे) धारण करता हूँ, देखो। भौतिक अग्नि को भौतिक सम्पदाओं की प्राप्ति के हेतु पृथिवी पर धारण करने के लिये अग्निहोत्र करने वाले में न्यूनतम दो योग्यताओं का होना जरूरी है; (१) द्यौ के समान महानता और (2) पृथिवी के समान वरणीयता। सोचो जहाँ यज्ञ वेदि हृदयतल हो, अग्नि अभौतिक अर्थात अग्रणी परमेश्वर हो, और लक्ष्य भी अभौतिक (दैवी) सम्पदा (जैसे वीरता आदि) को प्राप्त करना हो, वहाँ यज्ञकर्ता के अन्दर मात्र अग्निहोत्र की तुलना में कितनी अधिक न्यूनतम योग्यतायें चाहिये होंगी। यह है विचारणीय बात।

         एक और बात । अग्नि का गुण है तपाना। (सो अर्चिषा पृथिवी द्यामुतेमासृजूयमानो अतपन्महित्वा-ऋग्० १०.८८.९) अग्निहोत्र में पृथिवी और द्यौ अपनी महित्वा/क्षमता के कारण भौतिक अग्नि की तपन को सह लेते हैं। क्या हमने अपने आप को तैयार किया है कि परमेश्वर हमारे अन्दर प्रदीप्त होकर जब हमें तपाना चाहे, हम तपने को तैयार हैं? इतिहास साक्षी है कि जिन्होंने भी परमेश्वर को अपनाया है, जीवन भर उनको तपना पड़ा है, तब जाके वे कुन्दन बने हैं, और इतिहास में उनका नाम स्वर्ण-अक्षरों में लिखा गया है। प्रभु-भक्तों को जितनी परीक्षा देनी पड़ी है, जितने संघर्षों से झूझना पड़ा है, जितनी आपदायें झेलनी पड़ी हैं, उतनी अन्यों को नहीं।

        (अग्निं इन्धीत) अग्निस्वरूप परमेश्वर को अपने अन्दर धारण करने के लिये कदम-कदम पर अग्नि-परीक्षा देने के लिये तैयार रहना पड़ेगा। इसी लिये मन्त्र का आरम्भ 'यदि' से है। जो अग्नि-परीक्षा से हार गया या घबड़ा गया, वह 'वीर' तो होने से रहा। तो यदि वीर होना है, अमरत्व को प्राप्त करना है, तो अग्नि को अपने अन्दर धारण भी करना पड़ेगा और अग्नि-परीक्षा भी, जब भी प्रभु चाहें, देनी पड़ेगी।

         शतपथ ब्राह्मण के अनुसार 'मन', 'वाक', 'प्राण', 'चक्षु' और 'श्रोत्र' वे क्षेत्र हैं जहाँ अग्न्याधान करना है। मन हृत्प्रतिष्ठ है। यही हमारे चिन्तन, मनन, संकल्प, विकल्प का केन्द्र है। मन में परमेश्वर को धारण करने का अर्थ है, दिव्य चिन्तन, शुभ संकल्प तथा शुभ और श्रेष्ठ कार्य । वाणी में अग्न्याधान का अर्थ है, वाणी से निरन्तर प्रभु की स्तुति, उसकी महिमा का गुण-गान और भद्र भाषण । प्राण में अग्न्याधान है प्राणायाम द्वारा परमेश्वर के भू, भुवः, स्वः, महः, जनः, तपः, और सत्य स्वरूप की विलक्षणता एवं कार्य-कुशलता का दर्शन । ' श्रोत्र' का अग्न्याधान है परमेश्वर की कल्याणी वाणी का श्रवण और निदिध्यासन।

        'अगिं इन्धीत' अर्थात् अग्न्याधान के बाद अगली चीज है (आजुहवत् हव्यम आनुषुक) निरन्तर हवि की समर्पण की भावना से आहुति । सामान्य अग्निहोत्र में भी प्रदीप्त अग्नि मन्द हो जाती है, यदि निरन्तर समिधा, घृत तथा हव्य पदार्थों की आहूति न दी जाये। 'समिधा', 'घृत', 'हव्य-पदार्थ तीनों की कुछ विशेषतायें हैं जो अग्निहोत्र की सफलता के लिये आवश्यक हैं। वृक्षों की सूखी टहनियाँ, जो स्वतः सूख कर गिर पड़ती हैं, अग्निहोत्र के लिये उपयुक्त समिधा हैं। समिधा के लिये वृक्षों को काटना/चीरना ठीक नहीं। समिधा गीली, दागी, घुनी या मलिन नहीं होनी चाहिये। घृत, गौ-दुग्ध से विधिपूर्वक बना, छना, तपा तथा केशरयुक्त होना चाहिये। हव्यपदार्थ केवल वही होने चाहिये जो सुगन्धिकारक, पुष्टिकारक, मिष्ट तथा मधुर और रोग/कीटाणु/प्रदूषण-निवारक हों, तथा जिनका चयन ऋतुनुसार शुद्धता एवं पवित्रता के आधार पर किया गया हो। अग्निहोत्र में जब उपरोक्त प्रकार की हवियाँ दी जाती हैं, तब अग्नि हव्यवाहन बन कर सम्पूर्ण वातावरण को अत्यन्त शुद्ध, निर्मल, सुखदायक और यज्ञमय बना देती है। पर मन्त्रानुसार, जो अग्नि हमने अपने अन्दर प्रदीप्त की है, उसमें हम कौन सी हवि डालेंगे? यहाँ हवियाँ हैं, हमारे कर्म, सुन्दर, श्रेष्ठतम कर्म, जिनसे हमने अपने अन्दर की अग्नि को प्रदीप्त रखना है। सुन्दर, श्रेष्ठतम कर्मों के साधन भी समिधा की तरह शुद्ध और पवित्र होने चाहियें। घृत प्रतीक है स्निग्धता का, उत्कट प्रेम निष्ठा और भक्ति का । कर्त्तव्य के प्रति/शुभ और श्रेष्ठ कर्मों के प्रति, हमारी निष्ठा, हमारी भक्ति, हमारी लगन अटूट होनी चाहिये। ('घृतं तीवं' यजुः०३।२) साथ ही साथ यह तीव्र भी होनी चाहिये। शुभ और श्रेष्ठ कर्मों में ढिलाई कभी अच्छी नहीं होती। अन्तिम बात यह कि हमारे समस्त कर्म सुगन्धिकारक, पुष्टिदायक, मिष्ट और रोग/कीटाणु/ प्रदूषण निवारक होने चाहिये। सभी कर्म, चाहे वे व्यक्तिगत हों, पारवारिक हों, सामाजिक हों, राष्ट्रीय या अन्तराष्ट्रीय स्तर पर हों, उपरोक्त कसौटियों पर खरे उतरने चाहिये। अग्नि सात्विकता का प्रतीक है, ऊर्ध्वगामी है, अग्रणी, अर्थात् आगे ले जाने वाला है। विकास-वाहन है। अन्धकार और अपवित्रता को दूर करने वाला है। ज्ञान, प्रकाश और पवित्रता को देने वाला है।

        (अग्नये जातवेदसे-यजु:०३।२) अग्नि ही जातवेदस् है। इस अग्नि का जितना-जितना वर्धन होता जाता है, उतना ही हमारा अग्निहोत्र सफ़ल होता जाता है। इसी प्रकार जितनी-जितनी हमारी प्रभु से सामीप्यता बढ़ती जाती है, 'अन्तरात्मा' 'अन्तर्यामी' का साक्षात्कार करता जाता है, वह अन्तर्यामी के गुणों से विभूषित होता जाता है। (यज्ञैर्य इन्द्रेदधते दुवांसि क्षयत्स राय ऋतेपा ऋतेजाः ऋग्०७।२०।६) जो यज्ञों (श्रेष्ठतम कर्मों) द्वारा इन्द्र परमेश्वर की सेवा-पूजा समर्पित भाव से अर्पण करता है, वह ऋतेपा और ऋतेजा ऐश्वर्यों को/सम्पदाओं को बसाता है। (इदं वर्ची' अग्निनादत्तमागन् भों यशः सह ओजो वचो बलम्-अथर्व० १९ । ३७।१) और उस अग्निस्वरूप परमेश्वर से प्रदत्त यह वर्चः समर्पण-कर्ता को भर्ग (तेज), यश, सह (शत्रुघर्षक बल), ओज, दीर्घ आयु और वीरता के रूप में प्राप्त होता है।

        इसी वीरता के फल स्वरूप मरणधर्मा मनुष्य विजय प्राप्त करता है, मृत्यु के भय और दु:खों पर । आयु-पर्यन्त (शर्म भक्षीत दैव्यं) अग्नि-देव परमेश्वर से पाये हुये अलौकिक सुख और शान्ति का सेवन करता है। प्रभु से प्राप्त अलौकिक सुख और शान्ति ही परमानन्द है, मोक्षानन्द है। भौतिक अग्नि जिस प्रकार भक्षण करने योग्य अन्न, व व्यवहार योग्य ऊर्जा को प्राप्त कराती है उसी प्रकार अग्निस्वरूप प्रकाशमान परमेश्वर देव से महान दैवी सम्पादाये प्राप्त होती है, जो वीरता की पहचान होती हैं। श्रीमदभगवदगीता मे ऐसी छब्बीस दैवी सम्पदा गिनाई गई है। यह हैं-अभय, अन्तःकरण की शुद्धता, ज्ञान तथा योग में विशेष स्थिति, दान, दम, यज्ञ, स्वाध्याय, तप, सरल स्वभाव, अहिंसा, सत्य, अक्रोध, त्याग, शान्ति, अपैशुन (चुगली न करना), दया, अलोलुपता (लोभ का त्याग), मृदुता, व्यर्थ की चेष्टाओ में अरूचि, अचपलता (स्थिरता), तेज, क्षमा, धृत्ति, पवित्रता, अद्रोह,

और निराभिमानिता। ऐसा नहीं है, कि सच्ची वीरता के यह छब्बीस ही लक्षण हैं, परन्तु इन से अन्य लक्षणों का भी बोध हो सकता है। (दैवी सम्पद् विमोक्षाय-गीता १६ ॥५) दैवी सम्पदा ही बंधनो से छुड़ाने वाली तथा मोक्ष-प्रदाता है।

         अग्निहोत्र की मूल भावना है, समर्पण; इसी प्रकार मनुष्य जब पूर्णतया अपने आप को उस परमेश प्रभु के अर्पण कर देता है, प्रभु की इच्छा ही उसकी इच्छा हो जाती है, प्रभु का कार्य ही उसके लिये प्रभु की पूजा हो जाता है, वह न केवल भय और दुःखों पर विजय प्राप्त कर लेता है, वरन प्रभु से प्राप्त दैवी सम्पदाओं सहित उस अलौकिक आनन्द को भी सेवन करता है, जिसको मोक्षानन्द कहते हैं। यही इस मन्त्र का आशय है।

        मनुष्य को यदि हो जीतना, दुःखों को, भय को और मृत्यु को। धारण करे वह दिव्य अग्नि को, कर दे आहुत निज जीवन को। मनुष्य बने तब वीर साहसी, सेवन करे सुख-आनन्द । प्रभु सेवा बन जाये परम-धर्म, भोगे दिव्य मोक्षानन्द ।। 

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