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दुसरा अध्याय भू-लोक

 



दुसरा अध्याय

भू-लोक

       म्पूर्ण सृष्टि को सुविधा के लिये तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है-भू-लोक, जल-लोक, और आकाश-लोक । इन तीनों लोकों के सौन्दर्य का कुछ दिग्दर्शन अभी कराया जा चुका है । भूगोल से परिचित पाठक भूलोक के विषय में बहुत कुछ जानते हैं। इस बात में भी अब किसी को सन्देह नहीं है कि हमारी यह पृथ्वी गेंद के समान गोल है और इसके ध्रुवों के निकट के भाग कुछ चपटे हो गये हैं। यह भी सब को ज्ञात है कि इस पृथ्वी में दो प्रकार की गतियाँ होती है। एक प्रकार को गति से पृथ्वी अपनी कीली पर लटूँ के समान घूमती है और इस प्रकार दिन और रात का दृश्य संघटित होता है। २४ घण्टे में सम्पूर्ण पृथ्वी एक बार अपनी कीली पर घूम जाती है। पृथ्वी का जो भाग सूर्य की ओर होता है, उधर के प्रदेश में दिन होता है और जो भाग सूर्य के दूसरी ओर होता है उधर रात होती है। यदि गेंद को दीपक के सम्मुख रखें तो इस गेंद का जो भाग दीपक की ओर है उधर ही प्रकाश पड़ेगा और इसके पीछे का भाग अँधेरे में रहेगा। अब यदि इस गेंद को घुमा दिया जाये तो यह अँधेरा भाग प्रकाश की ओर आ जायेगा। और उजियारे भाग में अँधेरा छा जायेगा । ठीक इसी प्रकार हमारी गोल पृथ्वी में भी दिन और रात होते हैं।

       लटूँ नचाने वाले जानते हैं कि बहुधा लटूँ कीली पर सीधा नाचता है। पर हमारी पृथ्वी अपनी कीली पर सीधी नहीं नाचती। पृथ्वी की कीली को अक्ष या धुरी कहते हैं। यह धुरी एक ओर थोड़ी सी झुकी रहती है। इस प्रकार पृथ्वी झुकी हुई धुरी पर नाचती है। यदि धुरी झुकी न होती तो प्रत्येक ऋतु में दिन और रात बराबर होते। पर हम जानते हैं कि हमारे देश में गरमी में दिन बड़ा हो जाता है और रात छोटी हो जाती है। जाड़े में रात बड़ी हो जाती है और दिन छोटा हो जाता है । इस झुके हुए अक्ष के ही कारण ध्रुव प्रदेशों में लगातार छ:-छ: महीने दिन रहता है और उसके बाद छः-छः महीने बिलकुल अँधेरी रात रहती है । इतनी लम्बी-चौड़ी रातें और इतने लम्बे दिन कितने विचित्र होते होंगे, इसका अनुमान लगाना कठिन है। पर यह इसी कारण है कि हमारी पृथ्वी झुके हुए अक्ष पर घूमती है और इसीलिये इसके सिरे (उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव के प्रदेश) चक्कर पूरा हो जाने पर भी सूर्य के सामने या अँधेरे में छ: मास तक रहते हैं। उत्तरी ध्रुव में जब ६ मास का दिन होता है तो दक्षिणी ध्रुव में ६ मास की रात होती है। भूमध्य-रेखा के निकट के प्रान्तों में दिन और रात लगभग बराबर ही होते हैं।

        कभी-कभी आपने देखा होगा कि लटूँ अपनी कीली पर नाचता हुआ टेढ़ी-मेढ़ी इधर-उधर परिक्रमा भी करता है। हमारी पृथ्वी अपने अक्ष पर घूमती हुई भी सूर्य के चारों ओर परिक्रमा लगाती फिरती है। यह इस पृथ्वी की दूसरी प्रकार की गति है। सूर्य के चारों ओर यह एक अण्डवृत्ताकार परिधि में घूमती है। इस अण्डवृत्त की परिधि का दीर्घ व्यास १८ करोड ५८ लाख मील लम्बा है। पृथ्वी एक परिक्रमा को ३६५.२५६४ दिनों में पूर्ण कर लेती है, इसीलिये एक वर्ष में ३६५.३ दिन होते हैं। अगरेजी कैलेण्डर में वर्ष में ३६५ दिन माने जाते हैं और प्रति चार वर्ष पर फरवरी मास में एक दिन बढ़ा दिया जाता है। सन् १९३६ में फरवरी २९ दिन की थी और सन् १९४० में फिर फरवरी २९ दिन की होगी। सूर्य के चारों ओर परिक्रमा करने के कारण ही ऋतुएँ सङ्घटित होती है। गरमी के दिनों में सूर्य की किरणों हमारे प्रदेश पर बिलकुल लम्ब रूप में सीधी पड़ती हैं और जाड़े के दिनों में किरणें टेढ़ी आती हैं। सीधी किरणों में ताप की सामर्थ्य अधिक होती है और टेढ़ी किरणों में कम | इस प्रकार सूर्य के चारों ओर परिक्रमा लगाने से पृथ्वी में तरह-तरह की ऋतुएँ दिखाई पड़ती हैं। भू मध्य रेखा पर बहुधा सूर्य की किरणें सीधी पड़ती हैं, अतः यहाँ सदा ही ग्रीष्म ऋतु रहती है। इस रेखा से उत्तर या दक्षिण की ओर जितना ही हम बढ़ते जायेंगे उतनी ही सीधी किरणों की सम्भावना कम होती जायगी। इसीलिये उत्तरी और दक्षिणी हिम-प्रदेशों में गरमी के दिनों में उतनी भी गरमी नहीं पड़ती है जितनी हमारे देश में जाड़े के दिनों में । हमारे देश का सा जाड़ा इन देशों में सदा ही विद्यमान रहता है। शीतकाल में तो वहाँ इतना जाड़ा पड़ता है कि कभी - कभी तो नदियाँ भी जम कर बरफ बन जाती हैं और जहाँ देखिये वहीं वरन के ढेर दिखाई पड़ते हैं।

        इस प्रकार पृथ्वी की दोनों प्रकार की गतियों बड़े महत्व की हैं। अब हम इस विषय को यहीं छोड़कर भू-लोक के विषय की अन्य उपयोगी वार्ताओं पर विचार करेंगे । हमारी सम्पूर्ण पृथ्वी मण्डलों या कोषों के अनुसार निम्न ७ भागों में विभाजित की जा सकती है :

१-केन्द्रस्थ कोष - Centrosphere २--धातु कोष - Barysphere ३-उष्म कोष - Pyrosphere ४-शिला कोष - Lithosphere: ५-जल कोष - Hydrosphere ६-प्राणि कोष - Biosphere ७-वायुकोष - Atmosphere

         पृथ्वी का केन्द्रस्थ कोष किसी अज्ञात दृढ़ पदार्थ का बना हुआ है। पृथ्वी की गहराई इतनी अधिक है कि इसके केन्द्र तक किसी साधन द्वारा भी अभी तक पहुँच नहीं हो सकी है । पृथ्वी के इस केन्द्र की अवस्था का अनुमान लगाना भी सरल नहीं है। केवल इतना ही कहा जा सकता है कि यह किसी अत्यन्त प्रबल एवं रुद्ध पदार्थ का बना होगा। ऐसा भी वैज्ञानिकों का अनुमान है कि पृथ्वी के केन्द्र से होता हुआ एक चुम्बक शक्ति से युक्त लम्याकार प्रस्तर है । इस चुम्बक का उत्तरी ध्रुव हमारी पृथ्वी के दक्षिणी ध्रुव की ओर है और इसका दक्षिणी ध्रुव पृथ्वी के उत्तरी ध्रुव की ओर। यह तो चुम्बकीय शक्ति की वास हुई। अब गुरुत्व-शक्ति के विषय में भी कुछ अनुमान लगाइये । यदि हिमालय के समान भारी पर्वत पृथ्वी के इस केन्द्र पर ले जाकर तौला जाये तो भी भार कुछ न होगा। भार क्या चीज है, वस्तुतः यह पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति की माप है। यदि किसी लोहे की गेंद को आप अपनी छत पर से छोड़ें तो वह आँगन में आकर गिर पड़ेगा । यह क्यों है ? इसीलिये कि पृथ्वी की शक्ति गेंद को अपनी ओर खींच रही है। यह आकर्षण-शक्ति जितनी ही अधिक होगी उतना ही गेंद का भार अधिक होगा। पदार्थ पृथ्वी से जितना ही दूर हटाया जायेगा, यह आकर्षण शक्ति कम होती जायेगी। यदि पर्वत के शिखर पर किसी वस्तु का भार निकाला जाये तो पर्वत के शिखर पर लिया गया भार धरातल पर के भार से बहुत ही कम होगा। पर क्या आप अपनी तराजू से इस भार की कमी का अनुभव कर सकते हैं ? मान लीजिये कि आपने धरातल पर अपने तराजू और पार्टी से सेर भर बालू तौले, और फिर आप इन आलुओं और तराजू एवं बाटों को पर्वत के शिखर पर ले गये, और वहाँ तौला । ऐसा करने से तो आपको आलू फिर भी सेर भर ही मिलेंगे। आप कहेंगे कि भार में कुछ भी कमी नहीं हुई है । पर यह ठीक नहीं है, क्योंकि जब आप पर्वत के शिखर पर गये तो आलुओं का भार तो कम हो ही गया, पर साथ ही साथ आपके बाटों का भी भार कम हो गया है । इसीलिये आपको कमी का कोई भी अनुभव इन तराजू और बाटों से नहीं हो सकता है। इस काम के लिये कमानीदार तराजू (स्प्रिङ्ग बैलन्स) बनाई गई है। इसमें धातु के तारों की सर्पाकार कमानी है और नीचे एक काँटा लगा हुआ है। इस काँटे में एक पलड़ा लगा दिया जाता है । पलड़े पर किसी वस्तु को रखने से कमानी उसके भार के अनुसार खिंच जायेगी और तराजू में लगी हुई सुई इस भार को सूचित कर देगी। इसी तराजू से हम भार की कमी-बढ़ती का अनुमान लगा सकते हैं।

              अस्तु, अभी हमने कहा है कि पृथ्वी से जितनी दूर हम पदार्थ लेते जायेंगे उतनी ही पारस्परिक आकर्षण शक्ति कम होती जायेगी । पृथ्वी की यह आकर्षण-शक्ति पृथ्वी के केन्द्र पर संचित है। पदार्थ जितने ही इसके केन्द्र से दूर होंगे उतना ही उनका । भार कम होता जायेगा, और जितने ही इसके निकट होंगे उतना ही भार अधिक होता जायेगा । पर जब पदार्थ पृथ्वी के केन्द्र पर पहुँच जायेगा तो पृथ्वी और उस पदार्थ के बीच की सम्पूर्ण आकर्षण शक्ति का ही लोप हो जायेगा । क्योंकि पदार्थ का केन्द्र पर होने के कारण आकर्षण शक्ति का प्रश्न ही उठाना निर्मूल है। इसीलिये कहा जाता है कि पृथ्वी के केन्द्र पर किसी भी पदार्थ का कोई भार नहीं है । पर यह बात केवल अनुमान से ही कह सकते हैं, क्योंकि अभी तक पृथ्वी के केन्द्र पर कोई नहीं पहुँच सका है।

        पृथ्वी का दूसरा कोष धातुकोष (barysphere) कहलाता है । पृथ्वी उल्काओं के धनीकरण द्वारा बनी है। इसका विस्तृत उल्लेख आगे किया जायेगा। जब किसी खनिज पदार्थ को गरम करते हैं तो उसकी धातु तो पिघल जाती है और शेष पथरीले पदार्थ वैसे ही ठोस रह जाते हैं। यदि पिघलाकर खनिज को अब ठंडा होने दिया जाये तो पिघली हुई धातु नीचे जम जायेगी और पथरीले पदार्थ ऊपर रह जायेंगे। यही अवस्था इस पृथ्वी के विषय में भी है। इसका जन्म उल्काओं से हुआ है। कल्पना कीजिये कि इन उल्काओं में कुछ पथरीला अंश है, और कुछ धातु-अंश । धीरे-धीरे ये तप्त उल्का ठंडे पड़ने लगे। ठंडे होने से धातु-अंश तो नीचे रह गया और पथरीला भाग ऊपर आ गया। इसी प्रकार इस पृथ्वी में केन्द्र कोष के पश्चात धातु-कोष है और धातु-कोष के बाद शिला-कोष है।

         धातु और शिलाकोषों के बीच में एक दूसरा कोष है, जिसे उष्मकोष (pyrosphere) कहते हैं। इस कोष में गरमगरम द्रव के समान पिघले हुए पदार्थं पाये जाते हैं। ज्वाला मुखी पर्वतों में से जो गरम-गरम पिघला हुआ गन्धक आदि लावा के रूप में बाहर निकलकर आता है, वह इसी उष्म कोष का पदार्थ है। शिलाकोष (lithosphere) में मुख्यतः भिन्न भिन्न पत्थरों की चट्टानों का समावेश है। ये दृढ़ पत्थर इस भूमि का मुख्य अंश है। इन शिला-प्रस्तरों की विस्तृत व्याख्या आगे दी जायेगी।

          शिलाकोष के पश्चात, जलकोष (hydrosphere) है। यह सभी जानते हैं कि पृथ्वी के धरातल पर भूमि की अपेक्षा जल का भाग अधिक है। बड़े-बड़े महासागर पृथ्वी का तीन चौथाई भाग घेरे हुए है। पर यह स्मरण रखना चाहिये कि इन सागरों के नीचे भी जमीन है। इन सागरों का वर्णन आगे दिया जायेगा। जल कोष के पश्चात प्राणिकोष (biosphere) है । प्राणि कोष से हमारा तात्पर्य पशु, पक्षियों, मनुष्यों तथा वनस्पति जगत से है। इस पृथ्वी के ऊपर विस्तृत जंगल हैं, जिनमें तरह - तरह के पशु विहार करते हुए पाये जाते हैं। पहाड़ों के शिखर पर भी घने जंगल है । इनको भी पृथ्वी का एक कोष समझना चाहिए।

         पृथ्वी का अन्तिम कोष वायुकोष (atmosphere) है, जिसे वायुमण्डल या अन्तरिक्ष भी कहते हैं। यह वायु मण्डल पृथ्वी की आकर्षण शक्ति के सहारे स्थिर है। पृथ्वी के घूमने के साथ-साथ यह कोष भी निरन्तर उसी गति से घूमता रहता है। यह कई मील ऊपर तक फैला हुआ है। वायुमण्डल का एक विशेष दवाव होता है, और इसी दबाव के कारण हमारा जीवन सम्भव हो सका है । यह वायुमण्डल ताप और शीत को हमारे जीवन के अनुकूल बनाये रखता है। यदि यह न होता तो दिन में हम सूर्य को गरमी से झुलस कर मर जाते और रात के समय ठंड के मारे हम बिल्कुल गलकर नष्ट हो जाते । इस वायुमण्डल का उल्लेख विस्तारपूर्वक किया जायेगा।

         वस्तुतः जिस कोष के ऊपर हम रहते हैं वह शिलाकोष है और साधारणतः इस शिलाकोष तक ही पृथ्वी समझी जाती है। यह कहा जा चुका है कि पृथ्वी गोल है, पर ध्रुवों पर थोड़ी सी चपटी हुई है। इस पृथ्वी का ध्रुवी-व्यास ७८९९९८४ मील है अर्थात् यदि इसके उत्तरी ध्रुव से एक रेखा पृथ्वी के केन्द्र में होती हुई दक्षिणी ध्रुव तक खींची जाये तो इसकी लम्बाई सात हजार नौं सौ मील के लगभग होगी। यह तो पृथ्वी का उत्तर दक्षिण या ध्रुवी व्यास हुआ । अब यदि भूमध्य रेखा पर पूर्व से पश्चिम तक केन्द्र से होती हुई कोई सीधी रेखा खींची जाये तो उसकी लम्बाई ७९२६.६७८ मील होगी । इसे पृथ्वी का निरक्षीय व्यास (equatorial diameter ) कहते हैं । यह व्यास ध्रुवीय व्यास से २६. " मील के लगभग अधिक है। इस व्यास का अधिक होना ही यह बताता है कि पृथ्वी ध्रुवों के निकट कुछ चपटी हो गई है । व्यास मालूम हो जाने पर परिधि का अनुमान लगाना कोई कठिन काम नहीं है। गणित बाले विद्यार्थी जानते हैं कि वृत्त के व्यास को ३१४ से गुणा कर देने से परिधि की लम्बाई आ जाती है । पृथ्वी की ध्रुवीय परिधि २४८६१°२२ मील है और सम्पूर्ण भूमध्य-रेखा की लम्बाई ( निरक्षीय परिधि ) २४८८९ मील के लगभग । .. पृथ्वी का सम्पूर्ण पृष्टतल १९६९४०००० वर्गमील है। इसमें १३७०००००० वर्गमील अर्थात् ६९.६ प्रतिशतक पानी है और शेष ५९८७:०८० वर्गमील अर्थात् ३०.४ प्रतिशतक जमीन है।

            सम्पूर्ण पृथ्वी दो भागों में विभक्त है। एक तो उत्तरी गोलार्ध जिसका अधिकांश भाग भूमि है । भूमध्य रेखा के उत्तर की ओर स्थित पृथ्वी के भाग को उत्तरी गोलार्ध कहते हैं। उत्तरी गोलार्ध में समुद्र तल से ऊपर ४१११२००० वर्गमील के लगभग भूमि है । दक्षिणी गोलार्ध में अधिकांश भाग जल है, अतः इस भाग को मुख्यतः पृथ्वी का जलकोष कह सकते हैं। इस कोष में समुद्र तल से ऊपर केवल १६१४२००० वर्गमील के लगभग भूमि है।

          सम्पूर्ण पृथ्वी का पृष्ठ सर्वत्र समतल नहीं है। कहीं-कहीं तो ऊँचे-ऊँचे पर्वत हजारों मील तक चले गये हैं और कहीं - कहीं मैदान हैं। इन पर्वतों एवं मैदानों की ऊँचाई समुद्र के जल-पृष्ठ से नापी जाती है। नीचे की सारिणी में इस बात का विवरण दिया जाता है कि पृथ्वी का कितना प्रतिशतक भाग समुद्र-तल से कितनी ऊँचाई पर है:-

 

 

ऊँचाई

प्रतिशत

 

हिमालय की सबसे ऊँची चोटी एवरेस्ट है

जो समुद्र पृष्ठ से २९००० फुट ऊँची है।

समुद्र-पृष्ठ से ६००० फुट से अधिक ऊपर

२२%

सम्पूर्ण ३८.४२ भूमि

समुद्र-पृष्ठ और ६००० फुट ! ऊँचाई के बीच

२८.१%

 

       यह कहा जा चुका है कि पृथ्वी का भूमि-भाग ३.४१ प्रतिश तक है और शेष ६९.६ प्रति शतक जल-भाग है । इस जल भाग के नीचे भी जमीन है । इसकी गहराई भी समुद्र के पृष्ठ-तल से नापी जाती है। नीचे को सारिणी से समुद्रों की गहराई का कुछ अनुमान हो सकता है:-

गहराई

प्रतिशत

 

समुद्र-पृष्ठ से ६०० फुट नीचे तक

5.1%

 

समुद्र-पृष्ठ के ६२० फुट से .... ६००० फुट नीचे तक

समुद्र-पृष्ठ के ६००० फुट से १२६०० फुट नीचे तक

समुद्र-पृष्ठ के १२००० फुट से १८००० फुट नीचे तक ।

समुद्र-पृष्ठ के १८००० फुट से २४००० फुट नीचे तक

ग्वाम के निकट समुद्र की सब से अधिक गहराई ३१६०० फुट है।

7.0%

 

 

14.8%

 

 

39.6%

 

 

3.1%

सम्पूर्ण ६९.६% जल विभाग

        महासागरों का अधिक उल्लेख आगे के किसी अध्याय में किया जावेगा । संपूर्ण भूलोक को ६ भौगोलिक विभागों में विभाजित किया गया है-१ यूरेशिया, जिसमें यूरोप और एशिया सम्मिलित हैं। २ अफ्रिका, ३ उत्तर अमरीका, ४ दक्षिण अमरीका, ५ ओशनिका, जिसमें आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, फ्रीजी द्वीप आदि सम्मिलित हैं, और ६ एण्टार्टिका, जिसमें दक्षिणी शीत कटिबन्ध के ध्रुवीय प्रदेश सम्मिलित हैं। भूगोल से परिचित पाठक इन प्रदेशों के विषय में बहुत कुछ जानते होंगे। महाद्वीपों के नाम से भूमि का विभाग बहुधा इस प्रकार किया जाता है-एशिया, यूरोप, अफ्रीका, उत्तरी अमरीका, दक्षिणी अमरीका और आस्ट्रेलिया । इन महाद्वीपों के निकट अन्य बहुत से छोटे-छोटे द्वीप हैं। महाद्वीपों का क्षेत्रफल और समुद्र तल से औसत ऊँचाई नीचे दी जाती है:

महाद्वीप

औसत ऊँचाई

क्षेत्रफल

एशिया

3300 फुट

१६५००००० वर्गमील

यूरोप

अफ्रीका

उत्तरी अमरीका

दक्षिणी अमरीका

1030  ’’   ’’

2100      ’’

२१००

२१००

3700000

११००००००

७६०००००

६८०००००

       कुछ विद्वानों की सम्मति में ये महाद्वीप और महासागर भूलोक को स्थायी सम्पत्ति हैं। उनका कहना है कि सृष्टि के इतिहास में ऐसा कोई समय प्रतीत नहीं होता है कि जिस स्थान में आजकल महाद्वीप हैं, उस स्थान में पूर्व किसी समय में महासागर रहे हों। उनके अनुसार यह कहना भी भ्रम है कि जिस स्थान में आजकल महासागर हैं वहाँ पहले कभी भूमि थी। सृष्टि के प्रारम्भ से आज तक महासागर और महाद्वीप अधिकांशतः अपने स्थान पर अचल है। यह संभव है कि छोटे-छोटे द्वीप किसी समय जल में विलीन हो गये हों या कहीं पर छिछले समुद्रों का जल हट गया हो और नया भूमि भाग निकल आया हो, पर बड़े-बड़े महासागरों और महाद्वीपों के लिये ऐसी कल्पना करना ठीक नहीं है। यद्यपि पहले भूगर्भवेत्ताओं का ऐसा विचार अवश्य था। सर चाल्र्स लायल नामक प्रसिद्ध व्यक्ति का भी यही विचार था कि जहाँ पर आजकल समुद्र है वहाँ पहले किसी समय जमीन थी, पर जेम्स वाइट डाना ( १८१३-१८९५ ) ने इस बात को भली भाँति प्रदर्शित कर दिया है कि पृथ्वी के आदि-काल से अब तक जल प्रदेश का थल-प्रदेश में और थल-प्रदेश का जल-प्रदेश में पूर्णतः परिवर्तन कभी नहीं हुआ है।

       जल और थल प्रदेश के विषय में एक बात और जानने योग्य है। सागर प्रति दिवस गहरे होते जा रहे हैं। साथ-साथ यह भी "बात है कि समुद्रों की तह अत्यन्त दृढ़ प्रस्तरों से बनी हुई है, जिनके टूटने या घिसने की कोई सम्भावना नहीं है, अतः समुद के अधिक गहरे होते जाने का अर्थ यह है कि प्रति दिवस इनका पानी ऊपर बढ़ता आ रहा है। पानी के ऊपर बढ़ने का प्रभाव स्थल प्रान्त पर पड़ता है और जो प्रदेश समुद्र से बहुत ऊँचाई पर नहीं हैं, वे कालान्तर में डूबत्ते जाते हैं । भारतवर्ष के दक्षिणी तट पर लङ्का नाम का एक प्रसिद्ध द्वीप है। इस द्वीप की परिस्थिति का निरीक्षण करने से पता चलता है कि यहाँ की जलवायु, पशुपक्षी, एवं खनिज आदि दक्षिणी भारत के समान ही हैं। अतः भूगर्भवेत्ताओं का यह विचार है कि यह द्वीप किसी समय में दक्षिणी भारत से मिला हुआ था और समुद्र के बढ़ने के कारण बाद को इसका कुछ नीचा भाग जल में विलीन हो गया। यही 'अवस्था जावा, सुमात्रा, बोनियो श्रादि द्वीपों की हुई। ऐसा अनुमान किया जा सकता है कि ये सब द्वीप किसी समय । एशिया के महाद्वीप से बिलकुल मिले हुए थे। इसी प्रकार अफ्रीका के पूर्वी तट पर मैडागास्कर आदि कई द्वीप ऐसे हैं, जो पहले अफ्रीका से मिले हुए थे, पर अब अलग हो गये हैं।

           भूगर्भवेत्ताओं का यह भी अनुमान है कि दक्षिणी अमरीका में स्थित ओषिल प्रदेश उत्तर पश्चिमी अफ्रीका से जुड़ा हुआ था और जहाँ पर आजकल गहरा अटलाण्टिक महासागर है वहाँ पहले एक महाद्वीप था जिसका नाम गोंडवाना रखा गया है। इसी प्रकार पूर्वकाल में अफ्रीका भी भारतवर्ष से संयुक्त था । तात्पर्य यह है कि एक काल वह था, जब दक्षिणी अमरीका, अफ्रीका और भारतवर्ष मिले हुए थे।

         जो कुछ ऊपर कहा गया है उसका तात्पर्य यह है कि यद्यपि महासागरों और महाद्वीपों में कभी पूर्णतः परिवर्तन नहीं हुआ है, पर समुद्र के उत्तरोत्तर बढ़ने (अधिक गहरे होने ) के कारण बहुत से प्रान्त जो किसी समय में स्थल थे, आजकल समुद्र के गर्भ में विलुप्त हो गये हैं।

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