सृष्टि की कथा
पहला अध्याय
सृष्टि-सौन्दर्य एक ऐसे स्थल
की कल्पना कीजिये, जिसमें प्रकृति-राशि की प्रचुरता
विद्यमान हो, जहाँ सरिता हों, सरोवर हों, और कहीं-कहीं
पर छोटे-छोटे मनोहर पर्वतों के दृश्यों का भी आनन्द मिल सके। इस स्थल के समीपवर्ती
प्रदेश में सघन वनों का समूह हो तो और भी अच्छा है। नैसर्गिक उपवनों में विहार
करने वाले चतुष्पदो पशु और उपवन को सुगन्धित पराग को गगन-स्थल में विकीर्ण करने
वाले विहंग-वृन्द भी जहाँ किलोलें कर रहे हों। यही नहीं, इस स्थल को उस चित्ताकर्षक कान्ति का भी स्मरण कीजिये जब यहाँ की अनिर्वचनीय
अतुल सम्पत्ति को देख कर प्रभात-काल में भगवान सूर्यदेव मन्द-मन्द मुसकान से हँस
रहे हों और रश्मि-करों द्वारा अपने अतुल वैभव को इस प्रान्त की शोभा पर निछावर कर
रहे हों। इस समय सभी आनन्द में हैं, छोटे-छोटे फूल भी
हँस रहे हैं, मञ्जुल लताएँ भी नव-जीवन प्राप्त कर रही
हैं, मदोन्मत्त नदियाँ भी उमड़ी चली आ रही है, पक्षियों के कण्ठ
में भी उन्माद राग उत्पन्न हो गया है और ये भी प्रसन्न-चित्त रसीले गान गा रहे
हैं। सूर्योदय' में वह चमत्कृत शक्ति है, जो जड़ पदार्थ में जीवन और जीवित पदार्थों में उन्माद उत्पन्न कर देती है।
सूर्योदय के पश्चात सम्पूर्ण जगती अपने
कार्य सञ्चालन में व्यस्त हो जाती है, प्रभात-काल का
अरुण बाल-सूर्य धीरे-धीरे अपना तेज बढ़ाने लगता है। एक ऐसी अवस्था आती है, जब इस धरा के किसी भी प्राणी की इतनी शक्ति नहीं होती कि इस आकाश के अधिपति को
ओर खुले नेत्रों से देख भी सके । उसके प्रचण्ड तेज का आतप सर्वत्र छा जाता है।
प्रातःकाल के विकसित सुमन अब खिन्न-हृदय दिखाई पड़ने लगते हैं, लताओं के बदन भी उदासीन हो जाते हैं, बेचारे पशु-पक्षी
किसी विशाल वृक्ष की छाया में अथवा शान्तिदायिनी सरिता के अङ्क में बैठे हुए कुछ
निरुत्साहित दिखाई पड़ते हैं । शीतल भूमि भी अब तप्त हो जाती है। सरिता के समीप
रहने वाली सिकता भी अब इतनी गरम हो जाती है कि उस पर नंगे पैर चलना दुष्कर हो जाता
है। मध्याह्न काल के उपरान्त
फिर परिवर्तन होता है, सूर्य का तेज अब मन्द पड़ता जाता है
। सायंकाल तक वह फिर अपनी पूर्वावस्था में आ जाता है। प्रातः के सूर्य में जीवन था, पर इस समय वह व्यथित दिखाई पड़ता है। उसे अब विश्राम लेने की आवश्यकता होती है
। इस सृष्टि के चराचर प्राणी-अप्राणी सभी अब विश्राम के लिये लालायित दिखाई पड़ते
हैं। चिड़ियाँ थकीमौदी अपने घोंसलों को लौटने लगती हैं, अपने छोटे-छोटे बच्चों को वे सस्नेह चुगाती हैं और तदुपरान्त थपथपियाँ देकर
सुलाने का प्रयत्न करती हैं । गायें इस गोधूली बेला में अपने घर को लौट आती हैं, अन्य पशु भी अब व्यथित दिखाई पड़ते हैं और बे भी सुख की नींद सोना चाहते हैं।
इस समय आकाश भी तरह-तरह के रंग बदलता है। कहीं लाली छा जाती है तो कहीं-कहीं हरी, नीली,
पीली और नारङ्गी रङ्ग को किनारियों से विभूपित पटल द्वारा आकाश
अपने शरीर को सजाता प्रतीत होता है। पर उसके ये रंग बहुत शीघ्र ही परिवर्तित हो
जाते हैं। धीरे-धीरे सूर्यास्त के साथ-साथ सम्पूर्ण व्योम-मण्डल में निस्तब्धता छा
जाती है। बस दिन की लीला समाप्त होती है।
चारों ओर अँधेरा छा जाता है । सम्पूर्ण
पृथ्वी काले वस्त्र धारण कर लेती है । वृक्ष के पत्ते सो जाते हैं, चिड़ियों का मधुर गान बन्द हो जाता है, पशुओं का बिहार
करना भी शिथिल पड़ जाता है। सर्वत्र निद्रा का साम्राज्य छा जाता है । सरिता अब भी
पूर्वोन्माद में बहती चली जाती है, पर उसके प्रवाह
में प्रेम के स्थान में अब भय की मात्रा अधिक दृष्टिगत होती है। उसके तट पर
मण्डूकों की तुमुल ध्वनि चित्त को और भी डरा देती है । सरिता का प्रत्येक
तरजोत्पात हृदय पर वज्र के समान पड़ता प्रतीत होता है। यह वो नदी को अवस्था है ।
वायु भी मन्द-मन्द मस्त चला जा रहा है। उसका स्पर्श कितना सुखदायी है। मध्याह्न
काल के उत्ताप से व्यय प्राणी इस समीर के शान्त प्रवाह द्वारा पुनः आश्वासन
प्राप्त करते है।
पर रात्रि की रमणीकता पृथ्वी में नहीं है।
चारों ओर गूढ़ तमिस्रा का व्याप्तिमान होना हमारे विश्राम का अवश्य कारण होता है, पर शय्या पर लेटे हुए यदि कहीं हमारी आँखें व्योमवितान की ओर चली जाये तो फिर
क्या कहना है । नीले निस्तब्ध आकाश में दीपावली का दृश्य चित्त को आनन्द की
हिलोरों से परिमावित कर देता है। नक्षत्र-गणों की अतुल राशि धरा के वैभव को परास्त
कर देती है। जिस प्रकार प्रातःकाल में हमारे उपवन के स्वर्णमय फूल हँसते थे, उसी प्रकार इस गगनोपवन में ये आलोकमय पुष्प मन्द-मन्द मुसका रहे हैं। नीले पटल
पर जटित सहस्रों नहीं, ये लाखों रत्न कितने मनोमोहक प्रतीत
होते हैं,
इसका अनुमान भी लगाना सम्भव नहीं है।
आकाश के ये तारे भी विचित्र है। कुछ तो
हमारे बहुत निकट प्रतीत होते हैं और कुछ हमसे बहुत दूर । चमचमाते हुए नक्षत्र अपनी
विभिन्न ज्योति से धरा की अन्ध-तमिस्रा को विच्छिन्न करने का सतत प्रयत्न कर रहे
हैं, पर यह कृत्य इनकी शक्ति के बाहर है। धीरे-धीरे इन्हीं तारों में होती हुई एक
तेजोराशि सम्मुख आती है। इस राशि का नाम ही चन्द्रमा है, इसे ही रजनी-पति या राकेश कहते हैं। कल्पना कीजिये कि यह पूर्णिमा की रात्रि
है। चन्द्रोदय के साथ ही निशा की सम्पूर्ण कालिमा अकस्मात विलीन हो जाती है ।
नभोमण्डल देदीप्यमान हो उठता है, भूमि पर दूध के समान
श्वेत ज्योत्स्ना फैल जाती है। ___ इस रजतवर्ण चन्द्रिका से
जगती सुसजित हो जाती है। इसके शीतल आवरण में संसार की समस्त व्यथाएँ लुप्त हो जाती
हैं। किसी सरोवर के तट पर खड़े होकर इस चाँदनी के दृश्य का अनुभव कीजिये, निर्मल जल के अन्दर नील आकाश का बिम्ब और उसमें चमकते हुए तारों की असंख्य
ज्योतियाँ एवं प्रत्येक तरल के उत्थान-पतन के साथ जलान्तर्गत अनेक चन्द्रमानों की
झिलमिलाती हुई मनोमोहक कान्ति सृष्टि के प्रासाद में विचित्र कौतूहल उत्पन्न करती
है । यह पूर्णिमा की रात्रि व्यथित हृदय में शान्ति, आलोक और क्षमता उत्पन्न करती है । सायंकाल से प्रातःकाल तक भूमि भी इस रात्रि
में क्षीरसागर बन जाती है।
पूर्णिमा के पश्चात चन्द्रमा की कला
प्रतिदिवस क्षीण होती जाती है, धीरे-धीरे चन्द्रोदय में
विलम्ब होने लगता है। पूर्णचन्द्र से अर्धचन्द्र रह जाता है और यह अर्धचन्द्र भी
केवल नख की वक्र परिधि के समान तीन-चार दिन तक ही रहता है । तत्पश्चात् अमावस्या
के दिन भूलोक का अन्धकार चन्द्रराशि पर पूर्ण विजय प्राप्त कर लेता है। अब बेचारे
रजनी-पति का कहीं पता भी नहीं चलता है । चारों ओर अँधेरा छा जाता है । गगनांगण में
चमचमाते हुए तारे इस अमावस्या में पूर्णिमा के दिन से भी अधिक निर्मल, निर्धान्त एवं कान्तिमय प्रतीत होते है। अमावस्या की रात्रि में भी अगाध
सौन्दर्य है, पर यह पूर्णिमा के सौन्दर्य से भिन्न है ।
अस्तु, धीरे-धीरे रात्रि के व्यतीत हो जाने पर ब्रह्ममुहूर्त आता है । दिन में सूर्य
की प्रखर रश्मियों द्वारा उत्तप्त धरा रात्रि में शीतल पड़ जाती है। प्रातःकाल फिर
शीतल मन्द सुगन्ध समीर का प्रवाह प्रारम्भ हो जाता है। कुछ समय पश्चात फिर उषाकाल
आता है और सम्पूर्ण दिशाओं का फिर विरचित शृङ्गार आरम्भ होता है । फिर दिन होता है
और दिन के वाद रात आती है और रात के बाद फिर दिन आता है। इस प्रकार सृष्टि में
दिवस-रात्रि का यह चक्र निरन्तर चलता रहता है। -वृष्टि के जिस सौन्दर्य का उल्लेख
ऊपर किया गया है वह केवल एक दिन-रात का सौन्दर्य है । पर इसके अतिरिक्त सृष्टि का
रङ्ग प्रतिदिन बदलता रहता है। उस वसन्त ऋतु का स्मरण कीजिये, जिसमें सर्वत्र हरियाली छायी हुई थी। सुन्दर-सुन्दर पीले फूल छोटे-छोटे पौधों
पर शोभा दे रहे थे। रसाल के वृक्ष मञ्जरी से लदे हुए थे, कोयल मधुर कण्ठ से पञ्चम स्वर बिलाप रही थी। यह सृष्टि का यौवन था। प्रत्येक
व्यक्ति मस्त था, खेतों में अन्न की स्वर्ण-राशि फैली
हुई थी। पर दो मास के वसन्त के उपरान्त ही ग्रीष्म का उत्ताप पृथ्वी पर प्रचण्ड
रौद्र रूप में अवतरित होने लगता है । दग्ध लूकें पशु-पक्षियों और प्राणियों को झुलसाने
के लिये चलने लगती हैं । नदी, नाले और तालाब सूख जाते
हैं। प्रबल सरिताओं का वेग भी कम हो जाता है। ग्रीष्म ऋतु भी दो मास के पश्चात ही विलुप्त
हो जाती है। धीरे-धीरे आकाश-मण्डल काले-काले मेघों से आच्छादित होने लगता है।
सूर्य के दर्शन भी होने दुर्लभ हो जाते हैं। इस जलद-पटल में घोर गर्जना आरम्भ होती
है। बादलों की कड़कड़ाहट और गड़गड़ाहुट हृदय विदीर्ण करने लगती है । आकाश में घोर
युद्ध प्रारम्भ हो जाता है । बिजली कड़कती है, और मूसलाधार पानी
की अनवरत वर्षा आरम्भ हो जाती है। प्रत्येक स्थान जल से परिपूर्ण हो जाता है। नदी
और नाले उमड़-उमड़ कर चलने लगते हैं। नदियों की भूमि के किनारे कटकट कर चकनाचूर हो
जाते हैं। यदि कभी वर्षा बन्द हुई और सूर्य ने अपने दर्शन दिये तो फिर आकाश में
नील वर्ण छा जाता है और ऐसे अवसर पर कभी-कभी अकस्मात् इन्द्र धनुष का रङ्ग-विरङ्गे
रूप में प्रकट होना अत्यन्त भावुक प्रतीत होता है । यही नहीं, वर्षा ऋतु में पौधों और वृक्षों में नया जीवन आ जाता है। सर्वत्र हरियाली का
फिर साम्राज्य छा जाता है। वनोपवनों में अनेक छोटे मोटे कीडेमकोड़ों का जन्म होता
है । इन क्षणभंगुर जीवों की सृष्टि विचित्र है। ऐसा प्रतीत होता है कि ये जीव केवल
मरने के लिये ही जन्म लेते हैं । नित्य असंख्य जीवों का पैदा होना और क्षण में मर
जाना-यह एक विचित्र पहेली है।
दो मास की वर्षा भी एक दिन समाप्त हो
जाती है। आकाश फिर निर्मल हो जाता है । शरद ऋतु के सौन्दर्य में भी फिर परिवर्तन
होता है और धीरे-धीरे शीतकाल अपने आने का सन्देश भेजने लगता है । हेमन्त ऋतु से
जाना प्रारम्भ हो जाता है और शिशिर ऋतु में इसका प्रकोप उच्चतम सीमा तक पहुँच जाता
है। प्रातः और सायङ्काल में कोहरा संसार को अदृश्य बना देता है । ये छोटे-छोटे
हिमकरण भी सृष्टि-सौन्दर्य में एक विशेष स्थान रखते हैं। शीतकाल शान्ति का समय है।
इस समय के जीवन में न तो उन्माद होता है और न उदासीनता । ऋतुओं का इस प्रकार एक
चक्र पूर्ण हो जाता है और फिर दूसरा चक्र प्रारम्भ होता है। इस अनन्त सृष्टि में
इस प्रकार के अनन्त चक अनन्त काल तक होते रहेंगे । संसार के इस चक्र में विशेष
रहस्य है।
सृष्टि के जिस सौन्दर्य का उल्लेख
ऊपर किया गया है, उसका अनुभव प्रत्येक
व्यक्ति को नित्य-प्रति होता रहता है । इसके लिये न किसी प्रयास की आवश्यकता है और
न किसी साधन विशेष की। यदि आप काशी या कानपूर में रहते हैं तो भागीरथी गङ्गा के तट
पर प्रातः-सायं विहार करके इस प्रकृति-सौन्दर्य का आनन्द लूट सकते हैं। प्रयाग में
गंगा-यमुना के श्वेत-श्याम-संगम पर प्रातः अरुणोदय के समय इस नैसर्गिक दृश्य की
मनोमोहकता का अनुमान लगाया जा सकता है। हरे-भरे खेतों में कार्य करने वाले ग्रामीण
कृषक छोटे-छोटे पादपों और पौधों के विकास की उत्तरोत्तर शृंखलाओं का अध्ययन करते
हुए सृष्टि के अलौकिक सौन्दर्य का अनुभव करते हैं।
पर हमारी सम्पूर्ण सृष्टि का अन्त इन
उपवनों, सरिताओं और खेतों में ही नहीं हो जाता है।
प्रकृति के गूढ़ रहस्य अज्ञात् स्थलों में छिपे रहते हैं। इन स्थानों के सौन्दर्य
का अनुमान लगाने के लिये हमें हिम प्रदेश के उच्चतम शिखरों पर पहुँचना होगा। हमको
कल्पना-शक्ति द्वारा इस भूगोल के उत्तरीय और दक्षिणीय ध्रुवों के षडमासिक दिवस एवं
रात्रियों का अनुमान करना होगा। यही नहीं, ध्रुवप्रदेश की उस अलौकिक मेरुज्योति की कौतूहलकारिणी चित्ताकर्षिणी कान्ति का
भी रसास्वादन करना होगा। हमारे लिये यह भी आवश्यक होगा कि निरन्तर हिमाच्छादित
ग्रीनलैण्ड आदि के समान प्रदेशों के सौन्दर्य का भी दिग्दर्शन करें। इसी प्रकार
सहारा और अरब की नीरस रेणुमयी मरुभूमियों में भी सृष्टि का दूसरा रूप हमको देखने
में मिलेगा।
पर अज्ञेय सृष्टि के परिज्ञान के हेतु
महासागरों की उत्ताल तरङ्गों की स्तुति भी हमको करनी पड़ेगी । इस विस्तृत जलराशि
के गर्भ में डुबकियाँ लगाकर जल-लोक एवं पाताल लोक के निवासियों के वृत्तान्त हमें
लाने होंगे। सुन्दर छोटी-छोटी मछलियों से लेकर बड़े-बड़े दीर्घकाय विशाल जलजीवों
तक से प्रबल प्रतियोगिता करनी होगी। महोदधि में छिपे हुए रत्नों की प्राप्ति के
हेतु हमें उन वीरों का स्मरण करना होगा, जिन्होंने इस
धीरोचित प्रयास में अपना सर्वस्व आत्म-समर्पण कर दिया और सदा के लिये विलीन हो
गये।
इधर हमें पृथ्वी का आन्तरिक सौन्दर्य
अनुभव करने के लिये इसके केन्द्र तक पहुँचना होगा। भिन्न-भिन्न प्रकार के दृढ़ प्रस्तरों
और कठोर शिलाओं एवं अभेद्य चट्टानों को चकनाचूर करके इस रत्न-गर्भा भूमि का
परीक्षण करना होगा । सृष्टि के इस सौन्दर्य का अन्त फिर भी हम न पा सकेंगे भीषण
काननों के दुम, पादप और लताओं की कहानियाँ, सागरों की तरंगों के भयंकर नाद, पर्वतों के
शिखरासीन हिम के पत्रालेख और भूमि के आन्तरिक चित्र-ये सब महती सृष्टि के थोड़े से
अंश हैं। हमारी प्यारी सृष्टि में अगाध सौन्दर्य है। इसमें किसी को भी सन्देह नहीं
हो सकता है।
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