यजुर्वेद » अध्याय:12»
मन्त्र: 111 से 117
ऋ॒तावा॑नं
महि॒षं वि॒श्वद॑र्शतम॒ग्निꣳ सु॒म्नाय॑ दधिरे पु॒रो जनाः॑। श्रुत्क॑र्णꣳ
स॒प्रथ॑स्तमं त्वा गि॒रा दैव्यं॒ मानु॑षा यु॒गा ॥१११ ॥
मनुष्यों को किनका
अनुकरण करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा
है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे
मनुष्य ! जैसे (जनाः) विद्या और विज्ञान से प्रसिद्ध मनुष्य (गिरा) वाणी से
(सुम्नाय) सुख के लिये (दैव्यम्) विद्वानों में कुशल (श्रुत्कर्णम्) बहुश्रुत
(विश्वदर्शतम्) सब देखने हारे (सप्रथस्तमम्) अत्यन्तविद्या के विस्तार के साथ
वर्त्तमान (ऋतावानम्) बहुत सत्याचरण से युक्त (महिषम्) बड़े (अग्निम्) विद्वान् को
(मानुषा) मनुष्यों के (युगा) वर्ष वा सत्ययुग आदि (पुरः) प्रथम (दधिरे) धारण करते
हैं,
वैसे विद्वान् को और इन वर्षों का तू भी धारण कर, यह (त्वा) तुझे सिखाता हूँ ॥१११ ॥
भावार्थभाषाः -इस
मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो सत्पुरुष हो चुके हों, उन्हीं का अनुकरण मनुष्य लोग करें, अन्य अधर्मियों
का नहीं ॥१११ ॥
आप्या॑यस्व॒
समे॑तु ते वि॒श्वतः॑ सोम॒ वृष्ण्य॑म्। भवा॒ वाज॑स्य सङ्ग॒थे ॥११२ ॥
राजपुरुष क्या करके
कैसे हों,
यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे
(सोम) चन्द्रमा के समान कान्तियुक्त राजपुरुष ! जैसे सोम गुणयुक्त विद्वान् के
सङ्ग से (ते) तेरे लिये (वृष्ण्यम्) वीर्य्य पराक्रमवाले पुरुष के कर्म को
(विश्वतः) सब ओर से (समेतु) सङ्गत हो, उससे आप
(आप्यायस्व) बढ़िये, (वाजस्य) विज्ञान और वेग से संग्राम के
जाननेहारे स्वामी की आज्ञा से (सङ्गथे) युद्ध में विजय करनेवाले (भव) हूजिये ॥११२
॥
भावार्थभाषाः
-राजपुरुषों को नित्य पराक्रम बढ़ा के शत्रुओं से विजय को प्राप्त होना चाहिये
॥११२ ॥
सं ते॒
पया॑ᳬसि समु॑ यन्तु॒ वाजाः॒ सं वृष्ण्या॑न्यभिमाति॒षाहः॑। आ॒प्याय॑मानोऽअ॒मृता॑य
सोम दि॒वि श्रवा॑ꣳस्युत्त॒मानि॑ धिष्व ॥११३ ॥
शरीर और आत्मा के बल
से युक्त पुरुष किस को प्राप्त होते हैं, यह विषय
अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे
(सोम) शान्तियुक्त पुरुष ! जिस (ते) तुम्हारे लिये (पयांसि) जल वा दुग्ध (संयन्तु)
प्राप्त होवें, (अभिमातिषाहः) अभिमानयुक्त शत्रुओं को
सहनेवाले (वाजाः) धनुर्वेद के विज्ञान (सम्) प्राप्त होवें (उ) और (वृष्ण्यानि)
पराक्रम (सम्) प्राप्त होवें, सो (आप्यायमानः) अच्छे प्रकार
बढ़ते हुए आप (दिवि) प्रकाशस्वरूप ईश्वर में (अमृताय) मोक्ष के लिये (उत्तमानि,
श्रवांसि) उत्तम श्रवणों को (धिष्व) धारण कीजिये ॥११३ ॥
भावार्थभाषाः -जो
मनुष्य शरीर और आत्मा के बल को नित्य बढ़ाते हैं, वे
योगाभ्यास से परमेश्वर में मोक्ष के आनन्द को प्राप्त होते हैं ॥११३ ॥
आप्या॑यस्व
मदिन्तम॒ सोम॒ विश्वे॑भिर॒ꣳशुभिः॑। भवा॑ नः स॒प्रथ॑स्तमः॒ सखा॑ वृ॒धे ॥११४ ॥
संसार में कौन वृद्धि
को प्राप्त होता है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा
है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे
(मदिन्तम) अत्यन्त आनन्दी (सोम) ऐश्वर्य्यवाले पुरुष ! आप (अंशुभिः) किरणों से सूर्य्य
के समान (विश्वेभिः) सब साधनों से (आप्यायस्व) वृद्धि को प्राप्त हूजिये, (सप्रथस्तमः) अत्यन्त विस्तारयुक्त सुख करने हारे (सखा) मित्र हुए (नः)
हमारे (वृधे) बढ़ाने के लिये (भव) तत्पर हूजिये ॥११४ ॥
भावार्थभाषाः -इस
संसार में सब का हित करनेहारा पुरुष सब प्रकार से वृद्धि को प्राप्त होता है, ईर्ष्या करनेवाला नहीं ॥११४ ॥
आ ते॑
व॒त्सो मनो॑ यमत् पर॒माच्चि॑त् स॒धस्था॑त्। अग्ने॒ त्वाङ्का॑मया गि॒रा ॥११५ ॥
मनुष्य लोग किस-किस
को वश में करके आनन्द को प्राप्त होवें, यह विषय
अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे
(अग्ने) अग्नि के समान तेजस्वी विद्वान् पुरुष ! (त्वाङ्कामया) तुझको कामना करने
के हेतु (गिरा) वाणी से जिस (ते) तेरा (मनः) चित्त जैसे (परमात्) अच्छे (सधस्थात्)
एक से स्थान से (चित्) भी (वत्सः) बछड़ा गौ को प्राप्त होवे, वैसे (आ, यमत्) स्थिर होता है, सो तू मुक्ति को क्यों न प्राप्त होवे ॥११५ ॥
भावार्थभाषाः
-मनुष्यों को चाहिये कि मन और वाणी को सदैव अपने वश में रक्खें ॥११५ ॥
तुभ्यं॒
ताऽअ॑ङ्गिरस्तम॒ विश्वाः॑ सुक्षि॒तयः॒ पृथ॑क्। अग्ने॒ कामा॑य येमिरे ॥११६ ॥
अब राजा क्या करे, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे
(अङ्गिरस्तम) अतिशय करके सार के ग्राहक (अग्ने) प्रकाशमान राजन् ! जो (विश्वाः) सब
(सुक्षितयः) श्रेष्ठ मनुष्योंवाली प्रजा (पृथक्) अलग (कामाय) इच्छा की सिद्धि के
लिये (तुभ्यम्) तुम्हारे लिये (येमिरे) प्राप्त होवें, (ताः) उन प्रजाओं की आप निरन्तर रक्षा कीजिये ॥११६ ॥
भावार्थभाषाः -जहाँ
प्रजा के लोग धर्मात्मा राजा को प्राप्त हो के अपनी-अपनी इच्छा पूरी करते हैं, वहाँ राजा की वृद्धि क्यों न होवे? ॥११६ ॥
अ॒ग्निः
प्रि॒येषु॒ धाम॑सु॒ कामो॑ भू॒तस्य॒ भव्य॑स्य। स॒म्राडेको॒ विरा॑जति ॥११७ ॥
फिर मनुष्य लोग कैसे
होकर क्या-क्या करें, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र
में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -जो
मनुष्य (सम्राट्) सम्यक् प्रकाशक (एकः) एक ही असहाय परमेश्वर के सदृश (कामः)
स्वीकार के योग्य (अग्निः) अग्नि के समान वर्त्तमान सभापति (भूतस्य) हो चुके और
(भव्यस्य) आनेवाले समय के (प्रियेषु) इष्ट (धामसु) जन्म, स्थान और नामों में (विराजति) प्रकाशित होवे, वही
राज्य का अधिकारी होने योग्य है ॥११७ ॥
भावार्थभाषाः -इस
मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य परमात्मा के गुण, कर्म और स्वभावों के अनुकूल अपने गुण, कर्म और
स्वभाव करते हैं, वे ही चक्रवर्ती राज्य भोगने के योग्य होते
हैं ॥११७ ॥ इस अध्याय में स्त्री, पुरुष, राजा, प्रजा, खेती और पठन-पाठन
आदि कर्म का वर्णन है, इससे इस अध्याय के अर्थ की पूर्व
अध्याय के अर्थ के साथ सङ्गति समझनी चाहिये ॥ इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्याणां
श्रीमत्परमविदुषां विरजानन्दसरस्वतीस्वामिनां शिष्येण दयानदसरस्वतीस्वामिना
निर्मिते संस्कृतार्य्यभाषाभ्यां विभूषिते सुप्रमाणयुक्ते यजुर्वेदभाष्ये
द्वादशोऽध्यायः सम्पूर्णः ॥१२॥
यजुर्वेद अध्याय 12 मंत्र (101-110) यजुर्वेद अध्याय 13 मंत्र (1-10)
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