यजुर्वेद » अध्याय:12» मन्त्र: 101 से 110
त्वमु॑त्त॒मास्यो॑षधे॒
तव॑ वृ॒क्षाऽउप॑स्तयः। उप॑स्तिरस्तु॒ सो᳕ऽस्माकं॒ योऽअ॒स्माँ२ऽ अ॑भि॒दास॑ति ॥१०१
फिर वह ओषधि किस
प्रकार की है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है
॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे
वैद्यजन ! (यः) जो (अस्मान्) हमको (अभिदासति) अभीष्ट सुख देता है, (सः) वह (त्वम्) तू (अस्माकम्) हमारा (उपस्तिः) संगी (अस्तु) हो, जो (उत्तमा) उत्तम (ओषधे) ओषधि (असि) है, (तव) जिसके
(वृक्षाः) वट आदि वृक्ष (उपस्तयः) समीप इकट्ठे होनेवाले हैं, उस ओषधि से हमारे लिये सुख दे ॥१०१ ॥
भावार्थभाषाः
-मनुष्यों को चाहिये कि विरोधी वैद्य की और विरोधी मित्र की ओषधि कभी न ग्रहण करें, किन्तु जो वैद्यकशास्त्रज्ञ, जिसका कोई शत्रु न हो,
धर्मात्मा, सब का मित्र, सर्वोपकारी है, उससे ओषधिविद्या ग्रहण करें ॥१०१ ॥
मा मा॑
हिꣳसीज्जनि॒ता यः पृ॑थि॒व्या यो वा॒ दिव॑ꣳ स॒त्यध॑र्मा॒ व्यान॑ट्।
यश्चा॒पश्च॒न्द्राः प्र॑थ॒मो ज॒जान॒ कस्मै॑ दे॒वाय॑ ह॒विषा॑ विधेम ॥१०२ ॥
अब किसलिये ईश्वर की
प्रार्थना करनी चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा
है ॥
पदार्थान्वयभाषाः
-(यः) जो (सत्यधर्मा) सत्यधर्मवाला जगदीश्वर (पृथिव्याः) पृथिवी का (जनिता)
उत्पन्न करनेवाला (वा) अथवा (यः) जो (दिवम्) सूर्य आदि जगत् को (च) और पृथिवी तथा
(अपः) जल और वायु को (व्यानट्) उत्पन्न करके व्याप्त होता है और जो (चन्द्राः)
चन्द्रमा आदि लोकों को (जजान) उत्पन्न करता है, जिस (कस्मै)
सुखस्वरूप सुख करने हारे (देवाय) दिव्य सुखों के दाता विज्ञानस्वरूप ईश्वर का
(हविषा) ग्रहण करने योग्य भक्तियोग से हम लोग (विधेम) सेवन करें, वह जगदीश्वर (मा) मुझको (मा) नहीं (हिंसीत्) कुसङ्ग से ताड़ित होने देवे ॥१०२
॥
भावार्थभाषाः
-मनुष्यों को चाहिये कि सत्यधर्म की प्राप्ति और ओषधि आदि के विज्ञान के लिये
परमेश्वर की प्रार्थना करें ॥१०२ ॥
अ॒भ्याव॑र्त्तस्व
पृथिवि य॒ज्ञेन॒ पय॑सा स॒ह। व॒पां ते॑ऽअ॒ग्निरि॑षि॒तोऽअ॑रोहत् ॥१०३ ॥
पृथिवी के पदार्थों
का विज्ञान कैसे करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में
कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे
मनुष्य ! तू जो (पृथिवि) भूमि (यज्ञेन) सङ्गम के योग्य (पयसा) जल के (सह) साथ
वर्त्तती है, उसको (अभ्यावर्त्तस्व) सब ओर से शीघ्र
वर्ताव कीजिये। जो (ते) आप के (वपाम्) बोने को (इषितः) प्रेरणा किया (अग्निः)
अग्नि (अरोहत्) उत्पन्न करता है, वह अग्नि गुण, कर्म और स्वभाव के साथ सब को जानना चाहिये ॥१०३ ॥
भावार्थभाषाः -जो
पृथिवी सब का आधार, उत्तम रत्नादि पदार्थों की
दाता, जीवन का हेतु, बिजुली से युक्त
है, उस का विज्ञान भूगर्भविद्या से सब मनुष्यों को करना
चाहिये ॥१०३ ॥
अग्ने॒
यत्ते॑ शु॒क्रं यच्च॒न्द्रं यत्पू॒तं यच्च॑ य॒ज्ञिय॑म्। तद्दे॒वेभ्यो॑ भरामसि ॥१०४
॥
किसलिये अग्निविद्या
की खोज करनी चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा
है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे
(अग्ने) विद्वन् पुरुष ! (यत्) जो अग्नि का (शुक्रम्) शीघ्रकारी, (यत्) जो (चन्द्रम्) सुवर्ण के समान आनन्द देने हारा, (यत्) जो (पूतम्) पवित्र, (च) और (यत्) जो (यज्ञियम्)
यज्ञानुष्ठान के योग्य स्वरूप है, (तत्) वह (ते) आप के और
(देवेभ्यः) दिव्यगुण होने के लिये (भरामसि) हम लोग धारण करें ॥१०४ ॥
भावार्थभाषाः
-मनुष्यों को चाहिये कि श्रेष्ठ गुण और कर्मों की सिद्धि के लिये बिजुली आदि
अग्निविद्या को विचारें ॥१०४ ॥
इष॒मूर्ज॑म॒हमि॒तऽआद॑मृ॒तस्य॒
योनिं॑ महि॒षस्य॒ धारा॑म्। आ मा॒ गोषु॑ विश॒त्वा त॒नुषु॒ जहा॑मि
से॒दिमनि॑रा॒ममी॑वाम् ॥१०५ ॥
अब ठीक-ठीक
आहार-विहार करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा
है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे
मनुष्यो ! जैसे (अहम्) मैं (इतः) इस पूर्वोक्त विद्युत्स्वरूप से (आदम्) भोगने
योग्य (इषम्) अन्न (ऊर्जम्) पराक्रम (महिषस्य) बड़े (ऋतस्य) सत्य के (योनिम्) कारण
(धाराम्) धारण करनेवाली वाणी को प्राप्त होऊँ, जैसे अन्न
और पराक्रम (मा) मुझ को (आविशतु) प्राप्त हो, जिससे मेरे
(गोषु) इन्द्रियों और (तनूषु) शरीर में प्रविष्ट हुई (सेदिम्) दुःख का हेतु
(अनिराम्) जिसमें अन्न का भोजन भी न कर सकें, ऐसी (अमीवाम्)
रोगों से उत्पन्न हुई पीड़ा को (आ, जहामि) छोड़ता हूँ,
वैसे तुम लोग भी करो ॥१०५ ॥
भावार्थभाषाः -मनुष्यों
को चाहिये कि अग्नि का जो वीर्य्य आदि से युक्त स्वरूप है, उसको प्रदीप्त करने से रोगों का नाश करें। इन्द्रिय और शरीर को स्वस्थ
रोगरहित करके कार्य्य-कारण की जाननेहारी विद्यायुक्त वाणी को प्राप्त होवें और
युक्ति से आहार-विहार भी करें ॥१०५ ॥
अग्ने॒
तव॒ श्रवो॒ वयो॒ महि॑ भ्राजन्तेऽअ॒र्चयो॑ विभावसो। बृह॑द्भानो॒ शव॑सा॒
वाज॑मु॒क्थ्यं᳕ दधा॑सि दा॒शुषे॑ कवे ॥१०६ ॥
मनुष्यों को कैसा
होना चाहिये, यह विषये अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे
(बृहद्भानो) अग्नि के समान अत्यन्त विद्याप्रकाश से युक्त (विभावसो) विविध प्रकार
की कान्ति में वसने हारे (कवे) अत्यन्त बुद्धिमान् (अग्ने) अग्नि के समान
वर्त्तमान विद्वान् पुरुष ! जिससे आप (शवसा) बल के साथ (दाशुषे) दान के योग्य
विद्यार्थी के लिये (उक्थ्यम्) कहने योग्य (वाजम्) विज्ञान को (दधासि) धारण करते
हो,
इसमें (तव) आप का अग्नि के समान (महि) अति पूजने योग्य (श्रवः)
सुनने योग्य शब्द (वयः) यौवन और (अर्चयः) दीप्ति (भ्राजन्ते) प्रकाशित होती हैं
॥१०६ ॥
भावार्थभाषाः -जो
मनुष्य अग्नि के समान गुणी और आप्तों के तुल्य श्रेष्ठ कीर्त्तियों से प्रकाशित
होते हैं,
वे परोपकार के लिये दूसरों को विद्या, विनय और
धर्म का निरन्तर उपदेश करें ॥१०६ ॥
पा॒व॒कव॑र्चाः
शु॒क्रव॑र्चा॒ऽअनू॑नवर्चा॒ऽउदि॑यर्षि भा॒नुना॑। पु॒त्रो मा॒तरा॑ वि॒चर॒न्नुपा॑वसि
पृ॒णक्षि॒ रोद॑सीऽउ॒भे ॥१०७ ॥
माता-पिता सन्तानों
के प्रति क्या-क्या करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा
है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे
मनुष्य ! जैसे (पुत्रः) पुत्र ब्रह्मचर्यादि आश्रमों में (विचरन्) विचरता हुआ
विद्या को प्राप्त होता और (भानुना) प्रकाश से (पावकवर्चाः, शुक्रवर्चाः) बिजुली और सूर्य के प्रकाश के समान न्याय करने और
(अनूनवर्चाः) पूर्ण विद्याऽभ्यास करने हारा और जैसे (उभे) दोनों (रोदसी) आकाश और
पृथिवी परस्पर सम्बन्ध करते हैं, वैसे (उत्, इयर्षि) विद्या को प्राप्त होता राज्य का (पृणक्षि) सम्बन्ध करता और
(मातरा) माता-पिता की (उपावसि) रक्षा करता है, इससे तू
धर्मात्मा है ॥१०७ ॥
भावार्थभाषाः
-मातापिताओं को यह अति उचित है कि सन्तानों को उत्पन्न कर बाल्यावस्था में आप
शिक्षा दे, ब्रह्मचर्य करा, आचार्य
के कुल में भेज के विद्यायुक्त करें। सन्तानों को चाहिये कि विद्या और अच्छी
शिक्षा से युक्त हो और पुरुषार्थ से ऐश्वर्य्य को बढ़ा के अभिमान और मत्सरतारहित
प्रीति से माता-पिता की मन, वाणी और कर्म्म से यथावत् सेवा
करें ॥१०७ ॥
ऊर्जो॑
नपाज्जातवेदः सुश॒स्तिभि॒र्मन्द॑स्व धी॒तिभि॑र्हि॒तः। त्वेऽइषः॒
संद॑धु॒र्भूरि॑वर्पसश्चि॒त्रोत॑यो वा॒मजा॑ताः ॥१०८ ॥
माता-पिता और पुत्र
कैसे हों,
इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे
(जातवेदः) बुद्धि और धन से युक्त पुत्र ! जिस (त्वे) तुझ में (भूरिवर्पसः) बहुत
प्रशंसा के योग्य रूपों से युक्त (चित्रोतयः) आश्चर्य के तुल्य रक्षा आदि कर्म्म
करनेवाली (वामजाताः) प्रशंसा के योग्य कुलों वा कर्मों में प्रसिद्ध विद्याप्रिय
अध्यापिका माता आदि विदुषी स्त्रियाँ (इषः) अन्नों को (संदधुः) धरें, भोजन करावें, सो तू (सुशस्तिभिः) उत्तम प्रशंसायुक्त
क्रियाओं के साथ (धीतिभिः) अङ्गुलियों से बुलाया हुआ (ऊर्जः) (नपात्) धर्म के
अनुकूल पराक्रमयुक्त सब के (हितः) हित को धारण सदा किये हुए (मन्दस्व) आनन्द में
रह ॥१०८ ॥
भावार्थभाषाः -जिन
कुमार और कुमारियों की माता विद्याप्रिय विदुषी हों, वे
ही निरन्तर सुख को प्राप्त होते हैं, और जिन माता-पिताओं के
सन्तान विद्या, अच्छी शिक्षा और ब्रह्मचर्य्य सेवन से शरीर
और आत्मा के बल से युक्त धर्म का आचरण करनेवाले हैं, वे ही
सदा सुखी हों ॥१०८ ॥
इ॒र॒ज्यन्न॑ग्ने
प्रथयस्व ज॒न्तुभि॑र॒स्मे रायो॑ऽअमर्त्य। स द॑र्श॒तस्य॒ वपु॑षो॒ वि रा॑जसि
पृ॒णक्षि॑ सान॒सिं क्रतु॑म् ॥१०९ ॥
मनुष्य कैसा हो, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे
(अमर्त्य) नाश और संसारी मनुष्यों के स्वभाव से रहित (अग्ने) अग्नि के समान
पुरुषार्थी ! जो (इरज्यन्) ऐश्वर्य्य का सञ्चय करते हुए आप (दर्शतस्य) देखने योग्य
(वपुषः) रूप का (सानसिम्) सनातन (क्रतुम्) बुद्धि का (पृणक्षि) सम्बन्ध करते हो और
उसी बुद्धि में विशेष करके (विराजसि) शोभित होते हो, (सः)
सो आप (अस्मे) हम लोगों के लिये (जन्तुभिः) मनुष्यादि प्राणियों से (रायः) धनों का
(प्रथयस्व) विस्तार कीजिये ॥१०९ ॥
भावार्थभाषाः -जो
पुरुष मनुष्यों के लिये सनातन वेदविद्या को देता और सुन्दर आचार में विराजमान होता
है,
वही ऐश्वर्य्य को प्राप्त हो के दूसरों के लिये प्राप्त करा सकता है
॥१०९ ॥
इ॒ष्क॒र्त्तार॑मध्व॒रस्य॒
प्रचे॑तसं॒ क्षय॑न्त॒ꣳ राध॑सो म॒हः। रा॒तिं वा॒मस्य॑ सु॒भगां॑ म॒हीमिषं॒ दधा॑सि
सान॒सिꣳ र॒यिम् ॥११० ॥
कौन पुरुष परोपकारी
होता है,
इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे
विद्वान् पुरुष ! जो आप (अध्वरस्य) बढ़ाने योग्य यज्ञ के (इष्कर्त्तारम्) सिद्ध
करनेवाले (प्रचेतसम्) उत्तम बुद्धिमान् (वामस्य) प्रशंसित (महः) बड़े (राधसः) धन
के (रातिम्) देने और (क्षयन्तम्) निवास करनेवाले पुरुष और (सुभगाम्) सुन्दर
ऐश्वर्य्य की देने हारी (महीम्) पृथिवी तथा (इषम्) अन्न आदि को और (सानसिम्)
प्राचीन (रयिम्) धन को (दधासि) धारण करते हो, इससे हम
लोगों को सत्कार करने योग्य हो ॥११० ॥
भावार्थभाषाः -जो
मनुष्य जैसे अपने लिये सुख की इच्छा करे, वैसे ही
दूसरों के लिये भी करे, वही आप्त सत्कार के योग्य होवे ॥११०
॥
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