यजुर्वेद » अध्याय:13» मन्त्र: 11 से 20
प्रति॒
स्पशो॒ विसृ॑ज॒ तूर्णि॑तमो॒ भवा॑ पा॒युर्वि॒शोऽ अ॒स्या अद॑ब्धः। यो नो॑ दू॒रेऽ
अ॒घश॑ꣳसो॒ योऽ अन्त्यग्ने॒ माकि॑ष्टे॒ व्यथि॒राद॑धर्षीत् ॥११ ॥
फिर वह कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे
(अग्ने) अग्नि के समान शत्रुओं के जलानेवाले पुरुष ! (ते) आपका और (नः) हमारा (यः)
जो (व्यथिः) व्यथा देने हारा (अघशंसः) पाप करने में प्रवृत्त चोर शत्रुजन (दूरे)
दूर तथा (यः) जो (अन्ति) निकट है, जैसे वह हम लोगों को
(माकिः) नहीं (आ, दधर्षीत्) दुःख देवे, उस शत्रु के (प्रति) प्रति आप (तूर्णितमः) शीघ्र दण्डदाता होके (स्पशः)
बन्धनों को (विसृज) रचिये और (अस्याः) इस वर्त्तमान (विशः) प्रजा के (पायुः) रक्षक
(अदब्धः) हिंसारहित (भव) हूजिये ॥११ ॥
भावार्थभाषाः -इस
मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो समीप वा दूर रहनेवाले प्रजाओं के दुःखदायी
डाकू हैं,
उनको राजा आदि पुरुष साम, दाम, दण्ड और भेद से शीघ्र वश में लाके दया और न्याय से धर्मयुक्त प्रजाओं की
निरन्तर रक्षा करें ॥११ ॥
उद॑ग्ने
तिष्ठ॒ प्रत्यात॑नुष्व॒ न्य᳕मित्राँ॑२ऽ ओषतात् तिग्महेते। यो नो॒ऽ अरा॑तिꣳ समिधान
च॒क्रे नी॒चा तं ध॑क्ष्यत॒सं न शुष्क॑म् ॥१२ ॥
फिर वह क्या करे, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे
(अग्ने) तेजधारी सभा के स्वामी ! आप राजधर्म के बीच (उत्तिष्ठ) उन्नति को प्राप्त
हूजिये। धर्मात्मा पुरुषों के (प्रति) लिये (आतनुष्व) सुखों का विस्तार कीजिये। हे
(तिग्महेते) तीव्र दण्ड देनेवाले राजपुरुष ! (अमित्रान्) धर्म के द्वेषी शत्रुओं
को (न्योषतात्) निरन्तर जलाइये। हे (समिधान) सम्यक् तेजधारी जन ! (यः) जो (नः)
हमारे (अरातिम्) शत्रु को उत्साही (चक्रे) करता है, (तम्)
उसको (नीचा) नीची दशा में करके (शुष्कम्) सूखे (अतसम्) काष्ठ के (न) समान (धक्षि)
जलाइये ॥१२ ॥
भावार्थभाषाः -इस
मन्त्र में उपमालङ्कार है। राजा आदि सभ्यजनों को चाहिये कि धर्म और विनय में
समाहित होके जल के समान मित्रों को शीतल करें, अग्नि के
समान शत्रुओं को जलावें। जो उदासीन होकर हमारे शत्रुओं को बढ़ावे, उसको दृढ़ बन्धनों से बाँध के निष्कण्टक राज्य करें ॥१२ ॥
ऊ॒र्ध्वो
भ॑व॒ प्रति॑वि॒ध्याध्य॒स्मदा॒विष्कृ॑णुष्व॒ दैव्या॑न्यग्ने। अव॑ स्थि॒रा त॑नुहि
यातु॒जूनां॑ जा॒मिमजा॑मिं॒ प्रमृ॑णीहि॒ शत्रू॑न्। अ॒ग्नेष्ट्वा॒ तेज॑सा सादयामि
॥१३ ॥
फिर वह राजा किस
प्रकार का हो, इस का विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे
(अग्ने) तेजस्विन् विद्वान् पुरुष ! जिसलिये आप (ऊर्ध्वः) उत्तम (भव) हूजिये, धर्म के (प्रति) अनुकूल होके (विध्य) दुष्ट शत्रुओं को ताड़ना दीजिये,
(अस्मत्) हमारे (स्थिरा) निश्चल (दैव्यानि) विद्वानों के रचे पदार्थों
को (आविः) प्रकट (कृणुष्व) कीजिये, सुखों को (तनुहि)
विस्तारिये, (यातुजूनाम्) परपदार्थों को प्राप्त होने और
वेगवाले शत्रुजनों के (जामिम्) भोजन के और (अजामिम्) अन्य व्यवहार के स्थान को
(अव) अच्छे प्रकार विस्तारपूर्वक नष्ट कीजिये और (शत्रून्) शत्रुओं को (प्रमृणीहि)
बल के साथ मारिये, इसलिये मैं (त्वा) आपको (अग्नेः) अग्नि के
(तेजसा) प्रकाश के (अधि) सम्मुख (सादयामि) स्थापन करता हूँ ॥१३ ॥
भावार्थभाषाः
-मनुष्यों को चाहिये कि राज्य के ऐश्वर्य्य को पाके उत्तम गुण, कर्म और स्वभावों से युक्त होवें, प्रजाओं और और दरिद्रों
को निरन्तर सुख देवें। दुष्ट अधर्माचारी मनुष्यों को निरन्तर शिक्षा करें और सबसे
उत्तम पुरुष को सभापति मानें ॥१३ ॥
अ॒ग्निर्मू॒र्द्धा
दि॒वः क॒कुत्पतिः॑ पृथि॒व्याऽ अ॒यम्। अ॒पाᳬ रेता॑ꣳसि जिन्वति। इन्द्र॑स्य॒
त्वौज॑सा सादयामि ॥१४ ॥
फिर वह राजपुरुष कैसा
हो,
यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे
राजन् ! जैसे (अयम्) यह (अग्निः) सूर्य्य (दिवः) प्रकाशयुक्त आकाश के बीच और
(पृथिव्याः) भूमि का (मूर्द्धा) सब प्राणियों के शिर के समान उत्तम (ककुत्) सब से
बड़ा (पतिः) सब पदार्थों का रक्षक (अपाम्) जलों के (रेतांसि) सारों से प्राणियों
को (जिन्वति) तृप्त करता है, वैसे आप भी हूजिये। मैं
(त्वा) आप को (इन्द्रस्य) सूर्य्य के (ओजसा) पराक्रम के साथ राज्य के लिये
(सादयामि) स्थापन करता हूँ ॥१४ ॥
भावार्थभाषाः -इस
मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य सूर्य्य के समान गुण, कर्म्म और स्वभाववाला, न्याय से प्रजा के पालन में
तत्पर, धर्मात्मा, विद्वान् हो,
उसको राज्याधिकारी सब लोग मानें ॥१४ ॥
भुवो॑
य॒ज्ञस्य॒ रज॑सश्च ने॒ता यत्रा॑ नि॒युद्भिः॒ सच॑से शि॒वाभिः॑। दि॒वि मू॒र्द्धानं॑
दधिषे स्व॒र्षां जि॒ह्वाम॑ग्ने चकृषे हव्य॒वाह॑म् ॥१५ ॥
फिर वह कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे
(अग्ने) विद्वान् पुरुष ! (यत्र) जिस राज्य में आप जैसे (नियुद्भिः) वेग आदि गुणों
के साथ वायु (रजसः) लोकों वा ऐश्वर्य्य का (नेता) चलाने हारा (दिवि) न्याय के
प्रकाश में (मूर्द्धानम्) शिर को धारण करता है, वैसे (यत्र)
जहाँ (शिवाभिः) कल्याणकारक नीतियों के साथ (भुवः) अपनी पृथिवी के (यज्ञस्य)
राजधर्म्म के पालन करनेहारे होके (सचसे) संयुक्त होता, अच्छे
पुरुषों से राज्य को (दधिषे) धारण और (हव्यवाहम्) देने योग्य विद्वानों की
प्राप्ति का हेतु (स्वर्षाम्) सुखों का सेवन करानेहारी (जिह्वाम्) अच्छे विषयों की
ग्राहक वाणी को (चकृषे) करते हो, वहाँ सब सुख बढ़ते हैं,
यह निश्चित जानिये ॥१५ ॥
भावार्थभाषाः -जिस
राज्य में राजा आदि सब राजपुरुष मङ्गलाचरण करनेहारे धर्मात्मा होके धर्मानुकूल
प्रजाओं का पालन करें, वहाँ विद्या और अच्छी शिक्षा
से होनेवाले सुख क्यों न बढ़ें ॥१५ ॥
ध्रु॒वासि॑
ध॒रुणास्तृ॑ता वि॒श्वक॑र्मणा। मा त्वा॑ समु॒द्रऽ उद्व॑धी॒न्मा
सु॑प॒र्णोऽअव्य॑थमाना पृथि॒वीं दृ॑ꣳह ॥१६ ॥
फिर वह राजपत्नी कैसी
होवे,
यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे
राजा की स्त्री ! जिस कारण (विश्वकर्मणा) सब धर्मयुक्त काम करनेवाले अपने पति के
साथ वर्त्तती हुई (आस्तृता) वस्त्र, आभूषण और
श्रेष्ठ गुणों से ढँपी हुई (धरुणा) विद्या और धर्म की धारणा करनेहारी (ध्रुवा)
निश्चल (असि) है, सो तू (अव्यथमाना) पीड़ा से रहित हुई
(पृथिवीम्) अपनी राज्यभूमि को (उद्दृंह) अच्छे प्रकार बढ़ा (त्वा) तुझ को
(समुद्रः) जार लोगों का व्यवहार (मा) मत (वधीत्) सतावे और (सुपर्णः) सुन्दर रक्षा
किये अवयवों से युक्त तेरा पति (मा) नहीं मारे ॥१६ ॥
भावार्थभाषाः -जैसी
राजनीति विद्या को राजा पढ़ा हो, वैसी ही उसकी राणी भी
पढ़ी होनी चाहिये। सदैव दोनों परस्पर पतिव्रता, स्त्रीव्रत
हो के न्याय से पालन करें। व्यभिचार और काम की व्यथा से रहित होकर धर्मानुकूल
पुत्रों को उत्पन्न करके स्त्रियों का स्त्री राणी और पुरुषों का पुरुष राजा न्याय
करे ॥१६ ॥
प्र॒जाप॑तिष्ट्वा
सादयत्व॒पां पृ॒ष्ठे स॑मु॒द्रस्येम॑न्। व्यच॑स्वतीं॒ प्रथ॑स्वतीं॒ प्रथ॑स्व पृथि॒व्य᳖सि
॥१७ ॥
फिर राजा अपनी राणी
को कैसे वर्त्तावे, यह अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे
विदुषि स्त्रि ! जैसे (प्रजापतिः) प्रजा का स्वामी (समुद्रस्य) समुद्र के (अपाम्)
जलों के (एमन्) प्राप्त होने योग्य स्थान के (पृष्ठे) ऊपर नौका के समान
(व्यचस्वतीम्) बहुत विद्या की प्राप्ति और सत्कार से युक्त (प्रथस्वतीम्) प्रशंसित
कीर्त्तिवाली (त्वा) तुझ को (सादयतु) स्थापन करे, जिस
कारण तू (पृथिवी) भूमि के समान सुख देनेवाली (असि) है, इसलिये
स्त्रियों के न्याय करने में (प्रथस्व) प्रसिद्ध हो, वैसे
तेरा पति पुरुषों का न्याय करे ॥१७ ॥
भावार्थभाषाः -इस
मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। राजपुरुष आदि को चाहिये कि आप जिस-जिस
राजकार्य में प्रवृत्त हों, उस-उस कार्य में अपनी-अपनी
स्त्रियों को भी स्थापन करें, जो-जो राजपुरुष जिन-जिन
पुरुषों का न्याय करे, उस-उसकी स्त्री स्त्रियों का न्याय
किया करें ॥१७ ॥
भूर॑सि॒
भूमि॑र॒स्यदि॑तिरसि वि॒श्वधा॑या॒ विश्व॑स्य॒ भुव॑नस्य ध॒र्त्री। पृ॒थि॒वीं य॑च्छ
पृथि॒वीं दृ॑ꣳह पृथि॒वीं मा हि॑ꣳसीः ॥१८ ॥
फिर वह राणी कैसी हो, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे
राणी ! जिससे तू (भूः) भूमि के समान (असि) है, इस कारण
(पृथिवीम्) पृथिवी को (यच्छ) निरन्तर ग्रहण कर। जिसलिये तू (विश्वधायाः) सब
गृहाश्रम के और राजसम्बन्धी व्यवहारों और (विश्वस्य) सब (भुवनस्य) राज्य को
(धर्त्री) धारण करनेहारी (भूमिः) पृथिवी के समान (असि) है, इसलिये
(पृथिवीम्) पृथिवी को (दृंह) बढ़ा और जिस कारण तू (अदितिः) अखण्ड ऐश्वर्य्यवाले
आकाश के समान क्षोभरहित (असि) है, इसलिये (पृथिवीम्) भूमि को
(मा) मत (हिंसीः) बिगाड़ ॥१८ ॥
भावार्थभाषाः -जो
राजकुल की स्त्री पृथिवी आदि के समान धीरज आदि गुणों से युक्त हो तो वे ही राज्य
करने के योग्य होती हैं ॥१८ ॥
विश्व॑स्मै
प्रा॒णाया॑पा॒नाय॑ व्या॒नायो॑दा॒नाय॑ प्रति॒ष्ठायै॑ च॒रित्रा॑य।
अ॒ग्निष्ट्वा॒भिपा॑तु म॒ह्या स्व॒स्त्या छ॒र्दिषा॒ शन्त॑मेन॒ तया॑
दे॒वत॑याङ्गिर॒स्वद् ध्रु॒वा सी॑द ॥१९ ॥
फिर वे स्त्री-पुरुष
आपस में कैसे वर्त्तें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा
है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे
स्त्रि ! जो (अग्निः) विज्ञानयुक्त तेरा पति (मह्या) बड़ी (स्वस्त्या) सुख प्राप्त
करानेहारी क्रिया और (छर्दिषा) प्रकाशयुक्त (शन्तमेन) अत्यन्तसुखदायक कर्म के साथ
(विश्वस्मै) सम्पूर्ण (प्राणाय) जीवन के हेतु प्राण (अपानाय) दुःखों की निवृत्ति
(व्यानाय) अनेक प्रकार के उत्तम व्यवहारों की सिद्धि (उदानाय) उत्तम बल (प्रतिष्ठायै)
सत्कार और (चरित्राय) धर्म का आचरण करने के लिये जिस (त्वा) तेरी (अभिपातु) सन्मुख
होकर रक्षा करे, सो तू (तया) उस (देवतया) दिव्यस्वरूप पति
के साथ (अङ्गिरस्वत्) जैसे कार्य्य-कारण का सम्बन्ध है, वैसे
(ध्रुवा) निश्चल हो के (सीद) प्रतिष्ठायुक्त हो ॥१९ ॥
भावार्थभाषाः
-पुरुषों को योग्य है कि अपनी-अपनी स्त्रियों के सत्कार से सुख और व्यभिचार से
रहित होके प्रीतिपूर्वक आचरण और उनकी रक्षा आदि निरन्तर करें, और इसी प्रकार स्त्री लोग भी रहें। अपनी स्त्री को छोड़ अन्य स्त्री की
इच्छा न पुरुष और न अपने पति को छोड़ दूसरे पुरुष का सङ्ग स्त्री करे। ऐसे ही आपस
में प्रीतिपूर्वक ही दोनों सदा वर्त्तें ॥१९ ॥
काण्डा॑त्काण्डात्प्र॒रोह॑न्ती॒
परु॑षःपरुष॒स्परि॑। ए॒वा नो॑ दूर्वे॒ प्रत॑नु स॒हस्रे॑ण श॒तेन॑ च ॥२० ॥
फिर वह स्त्री कैसी
हो,
इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे
स्त्रि ! तू जैसे (सहस्रेण) असंख्यात (च) और (शतेन) बहुत प्रकार के साथ
(काण्डात्काण्डात्) सब अवयवों और (परुषःपरुषः) गाँठ-गाँठ से (परि) सब ओर से
(प्ररोहन्ती) अत्यन्त बढ़ती हुई (दूर्वे) दूर्वा घास होती है, वैसे (एव) ही (नः) हम को पुत्र-पौत्र और ऐश्वर्य से (प्रतनु) विस्तृत कर
॥२० ॥
भावार्थभाषाः -इस
मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे दूर्वा ओषधि रोगों का नाश और सुखों को
बढ़ानेहारी सुन्दर विस्तारयुक्त होती हुई बढ़ती है। वैसे ही विदुषी स्त्री को
चाहिये कि बहुत प्रकार से अपने कुल को बढ़ावे ॥२० ॥
यजुर्वेद अध्याय 13 मंत्र (01-10) यजुर्वेद अध्याय 13 मंत्र (21-30)
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