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यजुर्वेद » अध्याय:13» मन्त्र: 21 से 30

 

यजुर्वेद » अध्याय:13» मन्त्र: 21 से 30

 

या श॒तेन॑ प्रत॒नोषि॑ स॒हस्रे॑ण वि॒रोह॑सि। तस्या॑स्ते देवीष्टके वि॒धेम॑ ह॒विषा॑ व॒यम् ॥२१ ॥

 

फिर वह कैसी हो, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (इष्टके) र्इंट के समान दृढ़ अवयवों से युक्त, शुभ गुणों से शोभायमान (देवि) प्रकाशयुक्त स्त्री जैसे र्इंट सैकड़ों संख्या से मकान आदि का विस्तार और हजारह से बहुत बढ़ा देती है, वैसे (या) जो तू हम लोगों को (शतेन) सैकड़ों पुत्र-पौत्रादि सम्पत्ति से (प्रतनोषि) विस्तारयुक्त करती और (सहस्रेण) हजारह प्रकार के पदार्थों से (विरोहसि) विविध प्रकार बढ़ाती है, (तस्याः) उस (ते) तेरी (हविषा) देने योग्य पदार्थों से (वयम्) हम लोग (विधेम) सेवा करें ॥२१ ॥

भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सैकड़ों प्रकार से हजारह र्इंट घर रूप बन के सब प्राणियों को सुख देती हैं, वैसे जो श्रेष्ठ स्त्री लोग पुत्र-पौत्र ऐश्वर्य्य और भृत्य आदि से सब को आनन्द देवें, उनका पुरुष लोग निरन्तर सत्कार करें, क्योंकि श्रेष्ठ पुरुष और स्त्रियों के सङ्ग के बिना शुभ गुणों से युक्त सन्तान कभी नहीं हो सकते और ऐसे सन्तानों के बिना माता पिता को सुख कब मिल सकता है ॥२१ ॥

 

यास्ते॑ऽ अग्ने॒ सूर्य्ये॒ रुचो॒ दिव॑मात॒न्वन्ति॑ र॒श्मिभिः॑। ताभि॑र्नोऽ अ॒द्य सर्वा॑भी रु॒चे जना॑य नस्कृधि ॥२२ ॥

 

फिर वह स्त्री कैसी होवे, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (अग्ने) अग्नि के समान तेजधारिणी पढ़ानेहारी विदुषी स्त्री ! (याः) जो (ते) तेरी रुचि हैं, (ताभिः) उन (सर्वाभिः) सब रुचियों से युक्त (नः) हम को जैसे (रुचः) दीप्तियाँ (सूर्य्ये) सूर्य्य में (रश्मिभिः) किरणों से (दिवम्) प्रकाश को (आतन्वन्ति) अच्छे प्रकार विस्तारयुक्त करती हैं, वैसे तू भी अच्छे प्रकार विस्तृत सुखयुक्त कर और (अद्य) आज (रुचे) रुचि करानेहारे (जनाय) प्रसिद्ध मनुष्य के लिये (नः) हम लोगों को प्रीतियुक्त (कृधि) कर ॥२२ ॥

भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे ब्रह्माण्ड में सूर्य्य की दीप्ति सब वस्तुओं को प्रकाशित कर रुचियुक्त करती है, वैसे ही विदुषी श्रेष्ठ पतिव्रता स्त्रियाँ घर के सब कार्य्यों का प्रकाश करती हैं। जिस कुल में स्त्री और पुरुष आपस में प्रीतियुक्त हों, वहाँ सब विषयों में कल्याण ही होता है।

 

या वो॑ देवाः॒ सूर्य्ये॒ रुचो॒ गोष्वश्वे॑षु॒ या रुचः॑। इन्द्रा॑ग्नी॒ ताभिः॒ सर्वा॑भी॒ रुचं॑ नो धत्त बृहस्पते ॥२३ ॥

 

अब स्त्री-पुरुषों को विज्ञान की सिद्धि कैसे करनी चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (देवाः) विद्वानो ! तुम सब लोग (याः) जो (वः) तुम्हारी (सूर्य्ये) सूर्य्य में (रुचः) रुचि और (याः) जो (गोषु) गौओं और (अश्वेषु) घोड़ों आदि में (रुचः) प्रीतियों के समान प्रीति है, (ताभिः) उन (सर्वाभिः) सब रुचियों से (नः) हमारे बीच (रुचम्) कामना को (इन्द्राग्नी) बिजुली और सूर्य्यवत् अध्यापक और उपदेशक जैसे धारण करे, वैसे (धत्त) धारण करो। हे (बृहस्पते) पक्षपात छोड़ के परीक्षा करानेहारे पूर्णविद्या युक्त आप (नः) हमारी परीक्षा कीजिये ॥२३ ॥

भावार्थभाषाः -जब तक मनुष्य लोगों की विद्वानों के सङ्ग ईश्वर उस की रचना में रुचि और परीक्षा नहीं होती, तब तक विज्ञान कभी नहीं बढ़ सकता ॥२३ ॥

 

वि॒राड् ज्योति॑रधारयत् स्व॒राड् ज्योति॑रधारयत्। प्र॒जाप॑तिष्ट्वा सादयतु पृ॒ष्ठे पृ॑थि॒व्या ज्योति॑ष्मतीम्। विश्व॑स्मै प्रा॒णाया॑पा॒नाय॑ व्या॒नाय॒ विश्वं॒ ज्योति॑र्यच्छ। अ॒ग्निष्टेऽधि॑पति॒स्तया॑ दे॒वत॑याङ्गिर॒स्वद् ध्रु॒वा सी॑द ॥२४ ॥

 

स्त्री-पुरुष आपस में कैसे वर्त्तें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -जो (विराट्) अनेक प्रकार की विद्याओं में प्रकाशमान स्त्री (ज्योतिः) विद्या की उन्नति को (अधारयत्) धारण करे-करावे, जो (स्वराट्) सब धर्म्मयुक्त व्यवहारों में शुद्धाचारी पुरुष (ज्योतिः) बिजुली आदि के प्रकाश को (अधारयत्) धारण करे-करावे, वे दोनों स्त्री-पुरुष सम्पूर्ण सुखों को प्राप्त होवें। हे स्त्रि ! जो (अग्निः) अग्नि के समान तेजस्वी विज्ञानयुक्त (ते) तेरा (अधिपतिः) स्वामी है, (तया) उस (देवतया) सुन्दर देवस्वरूप पति के साथ तू (अङ्गिरस्वत्) सूत्रात्मा वायु के समान (ध्रुवा) दृढ़ता से (सीद) स्थिर हो। हे पुरुष ! जो अग्नि के समान तेजधारिणी तेरी रक्षा को करनेहारी स्त्री है, उस देवी के साथ तू प्राणों के समान प्रीतिपूर्वक निश्चय करके स्थित हो। हे स्त्रि ! (प्रजापतिः) प्रजा का रक्षक तेरा पति (पृथिव्याः) भूमि के (पृष्ठे) ऊपर (विश्वस्मै) सब (प्राणाय) सुख की चेष्टा के हेतु (अपानाय) दुःख हटाने के साधन (व्यानाय) सब सुन्दर गुण, कर्म्म और स्वभावों के प्रचार के हेतु प्राणविद्या के लिये जिस (ज्योतिष्मतीम्) प्रशंसित विद्या के ज्ञान से युक्त (त्वा) तुझ को (सादयतु) उत्तम अधिकार पर स्थापित करे, सो तू (विश्वम्) समग्र (ज्योतिः) विज्ञान को (यच्छ) ग्रहण कर और इस विज्ञान की प्राप्ति के लिये अपने पति को स्थिर कर ॥२४ ॥

भावार्थभाषाः -जो स्त्री-पुरुष सत्सङ्ग और विद्या के अभ्यास से विद्युत् आदि पदार्थविद्या और प्रीति को नित्य बढ़ाते हैं, वे इस संसार में सुख भोगते हैं। पति स्त्री का और स्त्री पति का सदा सत्कार करे, इस प्रकार आपस में प्रीतिपूर्वक मिल के ही सुख भोगें ॥२४ ॥

 

मधु॑श्च॒ माध॑वश्च॒ वास॑न्तिकावृ॒तूऽ अ॒ग्नेर॑न्तः श्ले॒षो᳖ऽसि॒ कल्पे॑तां॒ द्यावा॑पृथि॒वी कल्प॑न्ता॒माप॒ऽ ओष॑धयः॒ कल्प॑न्ताम॒ग्नयः॒ पृथ॒ङ् मम॒ ज्यैष्ठ्या॑य॒ सव्र॑ताः। येऽ अ॒ग्नयः॒ सम॑नसोऽन्त॒रा द्यावा॑पृथि॒वीऽ इ॒मे। वास॑न्तिकावृ॒तूऽ अ॑भि॒कल्प॑माना॒ऽ इन्द्र॑मिव दे॒वाऽ अ॑भि॒संवि॑शन्तु॒ तया॑ दे॒वत॑याङ्गिर॒स्वद् ध्रु॒वे सी॑दतम् ॥२५ ॥

 

अब अगले मन्त्र में वसन्त ऋतु का वर्णन किया है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -जैसे (मम) मेरे (ज्यैष्ठ्याय) ज्येष्ठ महीने में हुए व्यवहार वा मेरी श्रेष्ठता के लिये जो (अग्नेः) गरमी के निमित्त अग्नि से उत्पन्न होनेवाले जिन के (अन्तःश्लेषः) भीतर बहुत प्रकार के वायु का सम्बन्ध (असि) होता है, वे (मधु) मधुर सुगन्धयुक्त चैत्र (च) और (माधवः) मधुर आदि गुण का निमित्त वैशाख (च) इन के सम्बन्धी पदार्थयुक्त (वासन्तिकौ) वसन्त महीनों में हुए (ऋतू) सब को सुखप्राप्ति के साधन ऋतु सुख के लिये (कल्पेताम्) समर्थ होवें, जिन चैत्र और वैशाख महीनों के आश्रय से (द्यावापृथिवी) सूर्य और भूमि (आपः) जल भी भोग में (कल्पन्ताम्) आनन्ददायक हों, (पृथक्) भिन्न-भिन्न (ओषधयः) जौ आदि वा सोमलता आदि ओषधि और (अग्नयः) बिजुली आदि अग्नि भी (कल्पन्ताम्) कार्य्यसाधक हों। हे (सव्रताः) निरन्तर वर्त्तमान सत्यभाषणादि व्रतों से युक्त (समनसः) समान विज्ञानवाले (देवाः) विद्वान् (ये) जो लोग (वासन्तिकौ) (ऋतू) वसन्त ऋतु में हुए चैत्र वैशाख और (ये) जो (अन्तरा) बीच में हुए (अग्नयः) अग्नि हैं, उनको (अभिकल्पनाः) सन्मुख होकर कार्य में युक्त करते हुए आप लोग (इन्द्रमिव) जैसे उत्तम ऐश्वर्य्य प्राप्त हों, वैसे (अभिसंविशन्तु) सब ओर से प्रवेश करो, जैसे (इमे) ये (द्यावापृथिवी) प्रकाश और भूमि (तया) उस (देवतया) परमपूज्य परमेश्वर रूप देवता के सामर्थ्य के साथ (अङ्गिरस्वत्) प्राण के समान (ध्रुवे) दृढ़ता से वर्त्तते हैं, वैसे तुम दोनों स्त्री-पुरुष सदा संयुक्त (सीदतम्) स्थिर रहो ॥२५ ॥

भावार्थभाषाः -हे मनुष्यो ! तुम को चाहिये कि जिस वसन्त ऋतु में फल-फूल उत्पन्न होता है और जिसमें तीव्र प्रकाश, रूखी पृथिवी, जल मध्यम, ओषधियाँ, फल और फूलों से युक्त और अग्नि की ज्वाला के समान होती हैं, उसको युक्तिपूर्वक सेवन कर पुरुषार्थ से सब सुखों को प्राप्त होओ, जैसे विद्वान् लोग अत्यन्त प्रयत्न के साथ सब ऋतुओं में सुख के लिये सम्पत्ति को बढ़ाते हैं, वैसा तुम भी प्रयत्न करो ॥२५ ॥

 

अषा॑ढासि॒ सह॑माना॒ सह॒स्वारा॑तीः॒ सह॑स्व पृतनाय॒तः। स॒हस्र॑वीर्य्यासि॒ सा मा॑ जिन्व ॥२६ ॥

 

फिर वह कैसी हो, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे पत्नी ! जो तू (अषाढा) शत्रु के असहने योग्य (असि) है, तू (सहमाना) पति आदि का सहन करती हुई अपने पति के उपदेश को (सहस्व) सहन कर, जो तू (सहस्रवीर्य्या) असंख्यात प्रकार के पराक्रमों से युक्त (असि) है, (सा) सो तू (पृतनायतः) अपने आप सेना से युद्ध की इच्छा करते हुए (अरातीः) शत्रुओं को (सहस्व) सहन कर और जैसे मैं तुझ को प्रसन्न रखता हूँ, वैसे (मा) मुझ पति को (जिन्व) तृप्त किया कर ॥२६ ॥

भावार्थभाषाः -जो बहुत काल तक ब्रह्मचर्य्याश्रम से सेवन की हुई, अत्यन्त बलवान् जितेन्द्रिय वसन्त आदि ऋतुओं के पृथक्-पृथक् काम जानने, पति के अपराध को क्षमा और शत्रुओं का निवारण करनेवाली, उत्तम पराक्रम से युक्त स्त्री अपने स्वामी पति को तृप्त करती है, उसी को पति भी नित्य आनन्दित करे ॥२६ ॥

 

मधु॒ वाता॑ऽ ऋताय॒ते मधु॑ क्षरन्ति॒ सिन्ध॑वः। माध्वी॑र्नः स॒न्त्वोष॑धीः ॥२७ ॥

 

आगे के मन्त्र में वसन्त ऋतु के अन्य गुणों का वर्णन किया है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे मनुष्यो ! जैसे वसन्त ऋतु में (नः) हम लोगों के लिये (वातः) वायु (मधु) मधुरता के साथ (ऋतायते) जल के समान चलते हैं, (सिन्धवः) नदियाँ वा समुद्र (मधु) कोमलतापूर्वक (क्षरन्ति) वर्षते हैं और (ओषधीः) ओषधियाँ (माध्वीः) मधुर रस के गुणों से युक्त (सन्तु) होवें, वैसा प्रयत्न हम किया करें ॥२७ ॥

भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जब वसन्त ऋतु आता है, तब पुष्प आदि के सुगन्धों से युक्त वायु आदि पदार्थ होते हैं, उस ऋतु में घूमना-डोलना पथ्य होता है, ऐसा निश्चित जानना चाहिये ॥२७ ॥

 

मधु॒ नक्त॑मु॒तोषसो॒ मधु॑म॒त् पार्थि॑व॒ꣳ रजः॑। मधु॒ द्यौर॑स्तु नः पि॒ता ॥२८ ॥

 

फिर भी वही विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे मनुष्यो ! जैसे वसन्त ऋतु में (नक्तम्) रात्रि (मधु) कोमलता से युक्त (उत) और (उषसः) प्रातःकाल से लेकर दिन मधुर (पार्थिवम्) पृथिवी का (रजः) द्व्यणुक वा त्रसरेणु आदि (मधुमत्) मधुर गुणों से युक्त और (द्यौः) प्रकाश भी (मधु) मधुरतायुक्त (पिता) रक्षा करनेहारा (नः) हमारे लिये (अस्तु) होवे, वैसे युक्ति से उस वसन्त ऋतु का सेवन तुम भी किया करो ॥२८ ॥

भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जब वसन्त ऋतु आता है, तब पक्षी भी कोमल मधुर-मधुर शब्द बोलते और अन्य सब प्राणी आनन्दित होते हैं ॥२८ ॥

 

मधु॑मान्नो॒ वन॒स्पति॒र्मधु॑माँ२ऽ अस्तु॒ सूर्य्यः॑। माध्वी॒र्गावो॑ भवन्तु नः ॥२९ ॥

 

अब वसन्त ऋतु में मनुष्यों को कैसा आचरण करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे विद्वान् लोगो ! जैसे वसन्त ऋतु में (नः) हमारे लिये (वनस्पतिः) पीपल आदि वनस्पति (मधुमान्) प्रशंसित कोमल गुणोंवाले और (सूर्य्यः) सूर्य्य भी (मधुमान्) प्रशंसित कोमलतायुक्त (अस्तु) होवे और (नः) हमारे लिये (गावः) गौओं के समान (माध्वीः) कोमल गुणोंवाली किरणें (भवन्तु) हों, वैसा ही उपदेश करो ॥२९ ॥

भावार्थभाषाः -हे मनुष्यो ! तुम लोग वसन्त ऋतु को प्राप्त होकर जिस प्रकार के पदार्थों के होम से वनस्पति आदि कोमल गुणयुक्त हों, ऐसे यज्ञ का अनुष्ठान करो और इस प्रकार वसन्त ऋतु के सुख को सब जने तुम लोग प्राप्त होओ ॥२९ ॥

 

अ॒पां गम्भ॑न्त्सीद॒ मा त्वा॒ सूर्य्यो॒ऽभिता॑प्सी॒न्माग्निर्वै॑श्वान॒रः। अच्छि॑न्नपत्राः प्र॒जाऽ अ॑नु॒वीक्ष॒स्वानु॑ त्वा दि॒व्या वृष्टिः॑ सचताम् ॥३० ॥

 

फिर भी वही विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे मनुष्य ! तू वसन्त ऋतु में (अपाम्) जलों के (गम्भन्) आधारकर्त्ता मेघ में (सीद) स्थिर हो, जिससे (सूर्य्यः) सूर्य्य (त्वा) तुझ को (मा) न (अभिताप्सीत्) तपावे (वैश्वानरः) सब मनुष्यों में प्रकाशमान (अग्निः) अग्नि बिजुली (त्वा) तुझ को (मा) न (अभिताप्सीत्) तप्त करे (अच्छिन्नपत्राः) सुन्दर पूर्ण अवयवोंवाली (प्रजाः) प्रजा (अनु त्वा) तेरे अनुकूल और (दिव्या) शुद्ध गुणों से युक्त (वृष्टिः) वर्षा (सचताम्) प्राप्त होवे, वैसे (अनुवीक्षस्व) अनुकूलता से विशेष करके विचार कर ॥३० ॥

भावार्थभाषाः -मनुष्य वसन्त और ग्रीष्म ऋतु के जलाशयस्थ शीतल स्थान का सेवन करें, जिससे गर्मी से दुःखित न हों और जिस यज्ञ से वर्षा भी ठीक-ठीक हो और प्रजा आनन्दित हो, उसका सेवन करो ॥३० ॥



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