ज्ञानवर्धक कथाएं - भाग - 16
👉 माँ
एक दिन अचानक मेरी पत्नी मुझसे बोली
- "सुनो, अगर मैं तुम्हे किसी और के साथ डिनर और फ़िल्म के लिए
बाहर जाने को कहूँ तो तुम क्या कहोगे"। मैं बोला - " मैं कहूँगा कि अब
तुम मुझे प्यार नहीं करती"।
उसने कहा - "मैं तुमसे प्यार
करती हूँ,
लेकिन मुझे पता है कि यह औरत भी आपसे बहुत प्यार करती है और आप के
साथ कुछ समय बिताना उनके लिए सपने जैसा होगा"।
वह अन्य औरत कोई और नहीं मेरी माँ
थी। जो मुझ से अलग अकेली रहती थी। अपनी व्यस्तता के कारण मैं उन से मिलने कभी कभी
ही जा पाता था। मैंने माँ को फ़ोन कर उन्हें अपने साथ रात के खानेे और एक फिल्म के
लिए बाहर चलने के लिए कहा।
"तुम ठीक तो हो,ना।
तुम दोनों के बीच कोई परेशानी तो नहीं" माँ ने पूछा। मेरी माँ थोडा शक्की
मिजाज़ की औरत थी। उनके लिए मेरा इस किस्म का फ़ोन मेरी किसी परेशानी का संकेत था।
नहीं कोई परेशानी नहीं। बस मैंने
सोचा था कि आप के साथ बाहर जाना एक सुखद अहसास होगा" मैंने जवाब दिया और कहा 'बस
हम दोनों ही चलेंगे"। उन्होंने इस बारे में एक पल के लिए सोचा और फिर कहा,
'ठीक है।'
शुक्रवार की शाम को जब मैं उनके घर
पर पहुंचा तो मैंने देखा है वह भी दरवाजे पर इंतजार कर रही थी। वो एक सुन्दर पोशाक
पहने हुए थी और उनका चहेरा एक अलग सी ख़ुशी में चमक रहा था।
कार में माँ ने कहा " 'मैंने
अपनी दोस्त को बताया कि मैं अपने बेटे के साथ बाहर खाना खाने के लिए जा रही हूँ।
वे काफी प्रभावित थी"। हम लोग माँ की पसंद वाले एक रेस्तरां पहुचे जो बहुत
सुरुचिपूर्ण तो नहीं मगर अच्छा और आरामदायक था। हम बैठ गए, और
मैं मेनू देखने लगा। मेनू पढ़ते हुए मैंने आँख उठा कर देखा तो पाया कि वो मुझे ही
देख रहीं थी और एक उदास सी मुस्कान उनके होठों पर थी।
'जब तुम छोटे थे तो ये मेनू
मैं तुम्हारे लिए पढ़ती थी' उन्होंने कहा। 'माँ इस समय मैं इसे आपके लिए पढना चाहता हूँ,' मैंने
जवाब दिया।
खाने के दौरान, हम
में एक दुसरे के जीवन में घटी हाल की घटनाओं पर चर्चा होंने लगी। हम ने आपस में
इतनी ज्यादा बात की, कि पिक्चर का समय कब निकल गया हमें पता
ही नही चला।
बाद में वापस घर लौटते समय माँ ने
कहा कि अगर अगली बार मैं उन्हें बिल का पेमेंट करने दूँ, तो
वो मेरे साथ दोबारा डिनर के लिए आना चाहेंगी। मैंने कहा "माँ जब आप चाहो और
बिल पेमेंट कौन करता है इस से क्या फ़र्क़ पड़ता है।
माँ ने कहा कि फ़र्क़ पड़ता है और
अगली बार बिल वो ही पे करेंगी।
"घर पहुँचने पर पत्नी ने
पूछा" - कैसा रहा।
"बहुत बढ़िया, जैसा
सोचा था उससे कही ज्यादा बढ़िया" - मैंने जवाब दिया।
इस घटना के कुछ दिन बाद, मेरी
माँ का दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया। यह इतना अचानक हुआ कि मैं उनके लिए कुछ
नहीं कर पाया ।
माँ की मौत के कुछ समय बाद, मुझे
एक लिफाफा मिला जिसमे उसी रेस्तरां की एडवांस पेमेंट की रसीद के साथ माँ का एक ख़त
था जिसमे माँ ने लिखा था " मेरे बेटे मुझे पता नहीं कि मैं तुम्हारे साथ
दोबारा डिनर पर जा पाऊँगी या नहीं इसलिए मैंने दो लोगो के खाने के अनुमानित बिल का
एडवांस पेमेंट कर दिया है। अगर मैं नहीं जा पाऊँ तो तुम अपनी पत्नी के साथ भोजन
करने जरूर जाना।
उस रात तुमने कहा था ना कि क्या
फ़र्क़ पड़ता है। मुझ जैसी अकेली रहने वाली बूढी औरत को फ़र्क़ पड़ता है, तुम
नहीं जानते उस रात तुम्हारे साथ बीता हर पल मेरे जीवन के सबसे बेहतरीन समय में एक
था।
भगवान् तुम्हे सदा खुश रखे।
I love you"।
तुम्हारी माँ
जीवन में कुछ भी आपके अपने परिवार
से भी ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं है।
अपने परिजनों को उनके हिस्से का समय
दीजिए।। क्योंकि आपका साथ ही उनके जीवन में खुशियाँ का आधार है।
👉 लोभ रूपी कुआं
एक बार राजा भोज के दरबार में एक
सवाल उठा कि ' ऐसा कौन सा कुआं है जिसमें गिरने के बाद आदमी बाहर नहीं
निकल पाता?' इस प्रश्न का उत्तर कोई नहीं दे पाया।
आखिर में राजा भोज ने राज पंडित से
कहा कि इस प्रश्न का उत्तर सात दिनों के अंदर लेकर आओ, वरना
आपको अभी तक जो इनाम धन आदि दिया गया है, वापस ले लिए
जायेंगे तथा इस नगरी को छोड़कर दूसरी जगह जाना होगा।
छः दिन बीत चुके थे। राज पंडित को
जबाव नहीं मिला था। निराश होकर वह जंगल की तरफ गया। वहां उसकी भेंट एक गड़रिए से
हुई। गड़रिए ने पूछा -" आप तो राजपंडित हैं, राजा के दुलारे हो
फिर चेहरे पर इतनी उदासी क्यों?
यह गड़रिया मेरा क्या मार्गदर्शन
करेगा?सोचकर पंडित ने कुछ नहीं कहा। इस पर गडरिए ने पुनः उदासी का कारण पूछते
हुए कहा -" पंडित जी हम भी सत्संगी हैं,हो सकता है आपके
प्रश्न का जवाब मेरे पास हो, अतः नि:संकोच कहिए।" राज
पंडित ने प्रश्न बता दिया और कहा कि अगर कलतक प्रश्न का जवाब नहीं मिला तो राजा
नगर से निकाल देगा।
गड़रिया बोला- "मेरे पास पारस
है उससे खूब सोना बनाओ। एक भोज क्या लाखों भोज तेरे पीछे घूमेंगे। बस, पारस
देने से पहले मेरी एक शर्त माननी होगी कि तुझे मेरा चेला बनना पड़ेगा।"
राज पंडित के अंदर पहले तो अहंकार
जागा कि दो कौड़ी के गड़रिए का चेला बनूं? लेकिन स्वार्थ पूर्ति हेतु
चेला बनने के लिए तैयार हो गया। गड़रिया बोला -" *पहले भेड़ का दूध पीओ फिर
चेले बनो। राजपंडित ने कहा कि यदि ब्राह्मण भेड़ का दूध पीयेगा तो उसकी बुद्धि
मारी जायेगी। मैं दूध नहीं पीऊंगा। तो जाओ, मैं पारस नहीं
दूंगा - गड़रिया बोला।
राज पंडित बोला -" ठीक है, दूध
पीने को तैयार हूं, आगे क्या करना है?" गड़रिया बोला-" अब तो पहले मैं दूध को झूठा करूंगा फिर तुम्हें पीना
पड़ेगा।" राजपंडित ने कहा -" तू तो हद करता है! ब्राह्मण को झूठा
पिलायेगा?" तो जाओ, गड़रिया बोला।
राज पंडित बोला -" मैं तैयार
हूं झूठा दूध पीने को।" गड़रिया बोला-" वह बात गयी। अब तो सामने जो मरे
हुए इंसान की खोपड़ी का कंकाल पड़ा है, उसमें मैं दूध दोहूंगा,
उसको झूठा करूंगा, कुत्ते को चटवाऊंगा फिर
तुम्हें पिलाऊंगा। तब मिलेगा पारस। नहीं तो अपना रास्ता लीजिए।"
राजपंडित ने खूब विचार कर
कहा-" है तो बड़ा कठिन लेकिन मैं तैयार हूं। गड़रिया बोला-" मिल गया
जवाब। यही तो कुआं है! लोभ का, तृष्णा का जिसमें आदमी गिरता जाता है
और फिर कभी नहीं निकलता। जैसे कि तुम पारस को पाने के लिए इस लोभ रूपी कुएं में
गिरते चले गए।
👉 शुद्ध अन्न से शुद्ध बुद्धि
श्री गुरु गोविन्दसिंह जी महाराज के
पास खूब अशर्फियाँ थीं, खजाना था फिर भी वह यवनों से युद्ध होते समय
अपने लड़ाकू शिष्यों को मुट्ठी भर चने देते थे। एक दिन उन मनुष्यों में से एक
मनुष्य ने श्री गुरु गोविन्दसिंह जी की माताजी से जाकर कहा कि माता जी-हमें यवनों
से लड़ना पड़ता है और गुरु गोविन्दसिंहजी के पास अशर्फियाँ है खजाने हैं फिर भी वह
हमें एक मुट्ठी चने ही देते हैं और लड़वाते हैं। माताजी ने श्री गुरुगोविन्दसिंह
जी को अपनी गोद में बैठा कर कहा कि- पुत्र यह तेरे शिष्य तेरे पुत्र के समान हैं
फिर भी तू इन्हें एक मुट्ठी चने ही देता है ऐसा क्यों करता हैं?
श्री गुरु गोविन्दसिंह जी ने माताजी
को उत्तर दिया-माता क्या तू मुझे अपने पुत्र को कभी विष दे सकती है?
माता जी ने कहा - नहीं।
गुरुगोविन्दसिंह जी ने कहा-माता
मेरे यहाँ पर जो अशर्फियाँ हैं, खजाने हैं, वह
इतने पवित्र नहीं हैं उसके खाने से इनमें वह शक्ति नहीं रहेगी। जो मुट्ठी भर चने
खाने से इनमें शक्ति है वह फिर न रहेगी और फिर यह लड़ भी नहीं सकेंगे।
बीस उँगलियों की कमाई का, धर्म
उपार्जित, भरपूर बदला चुकाकर ईमानदारी से प्राप्त किया हुआ
अन्न ही मनुष्य में, सद्बुद्धि उत्पन्न कर सकता है। जो लोग
अनीति युक्त अन्न ग्रहण करते हैं उनकी बुद्धि असुरता की ओर ही प्रवृत्त होती है।
चित्रकूट में हमने एक महात्मा को खेती करते देखा, एक महात्मा
दरजी का काम करते थे। परिश्रम और ईमानदारी के साथ कमाये हुए अन्न से ही शुद्ध
बुद्धि हो सकती है और तभी भगवद् भजन, कर्त्तव्य पालन,
लोक सेवा आदि सात्विक कार्य हो सकते हैं।
📖 अखण्ड ज्योति, नवम्बर
१९४४ पृष्ठ २१
👉 मंत्री की तरकीब
राजा कर्मवीर अपनी प्रजा के स्वभाव
से दुखी रहता था। उसके राज्य के लोग बेहद आलसी थे। वे कोई काम नहीं करना चाहते थे।
अपनी जिम्मेदारी वे दूसरों पर टाल दिया करते थे। वे सोचते थे कि सारा काम राज्य की
ओर से ही किया जाएगा। राजा ने अनेक माध्यमों से उन्हें यह संदेश देने की कोशिश की
कि किसी भी राज्य में नागरिकों की भी कुछ जिम्मेदारी होती है। राजा ने कई बार सख्त
उपाय भी किए पर उनमें कोई सुधार नहीं हुआ।
एक दिन मंत्री ने राजा को एक तरकीब
सुझाई। नगर के बीच चौराहे पर एक पत्थर डाल दिया गया, जिससे आधा रास्ता
रुक गया। सुबह-सुबह एक व्यापारी घोड़ागाड़ी से वहां पहुंचा। जब कोचवान ने उसे
पत्थर के बारे में बताया तो उसने गाड़ी मुड़वा ली और दूसरे रास्ते से चला गया। कई
राहगीर इसी तरह लौट गए। तभी एक गरीब किसान आया। उसने आसपास खेल रहे लड़कों को
बुलवाया और उनके साथ मिलकर पत्थर हटा दिया। पत्थर हटते ही वहां एक कागज नजर आया,
जिस पर लिखा था-इसे राजा तक पहुंचाओ। किसी को कुछ समझ में नहीं आया।
किसान कागज लेकर राजा के पास पहुंचा। राजा ने किसान को भरपूर इनाम दिया। यह बात
राज्य भर में फैल गई। इनाम के लालच में अब लोग इस तरह के कई काम करने लग गए। धीरे-धीरे
यह उनकी आदत में शामिल हो गया।
👉 सच्ची सरकार
कन्धे पर कपड़े का थान लादे और
हाट-बाजार जाने की तैयारी करते हुए नामदेव जी से पत्नि ने कहा- भगत जी! आज घर में
खाने को कुछ भी नहीं है। आटा, नमक, दाल,
चावल, गुड़ और शक्कर सब खत्म हो गए हैं। शाम को
बाजार से आते हुए घर के लिए राशन का सामान लेते आइएगा।
भक्त नामदेव जी ने उत्तर दिया-
देखता हूँ जैसी विठ्ठल जीकी कृपा।
अगर कोई अच्छा मूल्य मिला, तो
निश्चय ही घर में आज धन-धान्य आ जायेगा।
पत्नि बोली संत जी! अगर अच्छी कीमत
ना भी मिले, तब भी इस बुने हुए थान को बेचकर कुछ राशन तो ले आना। घर
के बड़े-बूढ़े तो भूख बर्दाश्त कर लेंगे। पर बच्चे अभी छोटे हैं, उनके लिए तो कुछ ले ही आना।
जैसी मेरे विठ्ठल की इच्छा। ऐसा
कहकर भक्त नामदेव जी हाट-बाजार को चले गए।
बाजार में उन्हें किसी ने पुकारा-
वाह सांई! कपड़ा तो बड़ा अच्छा बुना है और ठोक भी अच्छी लगाई है। तेरा परिवार बसता
रहे। ये फकीर ठंड में कांप-कांप कर मर जाएगा।दया के घर में आ और रब के नाम पर दो
चादरे का कपड़ा इस फकीर की झोली में डाल दे।
भक्त नामदेव जी- दो चादरे में कितना
कपड़ा लगेगा फकीर जी?
फकीर ने जितना कपड़ा मांगा, इतेफाक
से भक्त नामदेव जी के थान में कुल कपड़ा उतना ही था। और भक्त नामदेव जी ने पूरा थान
उस फकीर को दान कर दिया।
दान करने के बाद जब भक्त नामदेव जी
घर लौटने लगे तो उनके सामने परिजनो के भूखे चेहरे नजर आने लगे। फिर पत्नि की कही
बात,
कि घर में खाने की सब सामग्री खत्म है। दाम कम भी मिले तो भी बच्चो
के लिए तो कुछ ले ही आना।
अब दाम तो क्या, थान
भी दान जा चुका था। भक्त नामदेव जी एकांत मे पीपल की छाँव मे बैठ गए।
जैसी मेरे विठ्ठल की इच्छा। जब सारी
सृष्टि की सार पूर्ती वो खुद करता है, तो अब मेरे परिवार की सार
भी वो ही करेगा।
और फिर भक्त नामदेव जी अपने
हरिविठ्ठल के भजन में लीन गए।
अब भगवान कहां रुकने वाले थे। भक्त
नामदेव जी ने सारे परिवार की जिम्मेवारी अब उनके सुपुर्द जो कर दी थी।
अब भगवान जी ने भक्त जी की झोंपड़ी
का दरवाजा खटखटाया।
नामदेव जी की पत्नी ने पूछा- कौन है?
नामदेव का घर यही है ना? भगवान
जी ने पूछा।
अंदर से आवाज हां जी यही आपको कुछ
चाहिये भगवान सोचने लगे कि धन्य है नामदेव जी का परिवार घर मे कुछ भी नही है फिर
ह्र्दय मे देने की सहायता की जिज्ञयासा हैl
भगवान बोले दरवाजा खोलिये
लेकिन आप कौन?
भगवान जी ने कहा- सेवक की क्या
पहचान होती है भगतानी? जैसे नामदेव जी विठ्ठल के सेवक, वैसे ही मैं नामदेव जी का सेवक हूl
ये राशन का सामान रखवा लो। पत्नि ने
दरवाजा पूरा खोल दिया फिर इतना राशन घर में उतरना शुरू हुआ, कि
घर के जीवों की घर में रहने की जगह ही कम पड़ गई। इतना सामान! नामदेव जी ने भेजा है?
मुझे नहीं लगता। पत्नी ने पूछा।
भगवान जी ने कहा- हाँ भगतानी! आज
नामदेव का थान सच्ची सरकार ने खरीदा है। जो नामदेव का सामर्थ्य था उसने भुगता
दिया। और अब जो मेरी सरकार का सामर्थ्य है वो चुकता कर रही है। जगह और बताओ सब कुछ
आने वाला है भगत जी के घर में।
शाम ढलने लगी थी और रात का अंधेरा
अपने पांव पसारने लगा था।
समान रखवाते-रखवाते पत्नि थक चुकी
थीं। बच्चे घर में अमीरी आते देख खुश थे। वो कभी बोरे से शक्कर निकाल कर खाते और
कभी गुड़। कभी मेवे देख कर मन ललचाते और झोली भर-भर कर मेवे लेकर बैठ जाते। उनके
बालमन अभी तक तृप्त नहीं हुए थे।
भक्त नामदेव जी अभी तक घर नहीं आये
थे, पर सामान आना लगातार जारी था।
आखिर पत्नी ने हाथ जोड़ कर कहा- सेवक
जी! अब बाकी का सामान संत जी के आने के बाद ही आप ले आना। हमें उन्हें ढूंढ़ने
जाना है क्योंकि वो अभी तक घर नहीं आए हैं।
भगवान जी बोले- वो तो गाँव के बाहर
पीपल के नीचे बैठकर विठ्ठल सरकार का भजन-सिमरन कर रहे हैं। अब परिजन नामदेव जी को
देखने गये।
सब परिवार वालों को सामने देखकर
नामदेव जी सोचने लगे, जरूर ये भूख से बेहाल होकर मुझे ढूंढ़ रहे
हैं।
इससे पहले की संत नामदेव जी कुछ
कहते उनकी पत्नी बोल पड़ीं- कुछ पैसे बचा लेने थे।
अगर थान अच्छे भाव बिक गया था, तो
सारा सामान संत जी आज ही खरीद कर घर भेजना था क्या?
भक्त नामदेव जी कुछ पल के लिए
विस्मित हुए। फिर बच्चों के खिलते चेहरे देखकर उन्हें एहसास हो गया, कि
जरूर मेरे प्रभु ने कोई खेल कर दिया है।
पत्नि ने कहा अच्छी सरकार को आपने
थान बेचा और वो तो समान घर मे भैजने से रुकता ही नहीं था। पता नही कितने वर्षों तक
का राशन दे गया।
उससे मिन्नत कर के रुकवाया- बस कर!
बाकी संत जी के आने के बाद उनसे पूछ कर कहीं रखवाएँगे।
भक्त नामदेव जी हँसने लगे और बोले-
! वो सरकार है ही ऐसी।
जब देना शुरू करती है तो सब लेने
वाले थक जाते हैं।
उसकी बख्शीश कभी भी खत्म नहीं होती।
वह सच्ची सरकार की तरह सदा कायम
रहती है।
👉 मन की आवाज
एक बुढ़िया बड़ी सी गठरी लिए चली जा
रही थी। चलते-चलते वह थक गई थी। तभी उसने देखा कि एक घुड़सवार चला आ रहा है। उसे
देख बुढ़िया ने आवाज दी, ‘अरे बेटा, एक बात तो
सुन।’ घुड़सवार रुक गया। उसने पूछा, ‘क्या बात है माई ?’
बुढ़िया ने कहा, ‘बेटा, मुझे
उस सामने वाले गांव में जाना है। बहुत थक गई हूं। यह गठरी उठाई नहीं जाती। तू भी शायद उधर ही जा रहा है। यह गठरी
घोड़े पर रख ले। मुझे चलने में आसानी हो जाएगी।’
उस व्यक्ति ने कहा, ‘माई
तू पैदल है। मैं घोड़े पर हूं। गांव अभी बहुत दूर है।।पता नहीं तू कब तक वहां
पहुंचेगी। मैं तो थोड़ी ही देर में पहुंच जाऊंगा। वहां पहुंचकर क्या तेरी
प्रतीक्षा करता रहूंगा?’ यह कहकर वह चल पड़ा। कुछ ही दूर
जाने के बाद उसने अपने आप से कहा, ‘तू भी कितना मूर्ख है। वह
वृद्धा है, ठीक से चल भी नहीं सकती। क्या पता उसे ठीक से
दिखाई भी देता हो या नहीं। तुझे गठरी दे रही थी। संभव है उस गठरी में कोई कीमती
सामान हो। तू उसे लेकर भाग जाता तो कौन पूछता। चल वापस, गठरी
ले ले।
वह घूमकर वापस आ गया और बुढ़िया से
बोला,
‘माई, ला अपनी गठरी। मैं ले चलता हूं। गांव
में रुककर तेरी राह देखूंगा।’
बुढ़िया ने कहा, ‘न
बेटा, अब तू जा, मुझे गठरी नहीं देनी।’
घुड़सवार ने कहा, ‘अभी तो तू कह रही थी कि ले चल। अब ले चलने
को तैयार हुआ तो गठरी दे नहीं रही। ऐसा क्यों? यह उलटी बात
तुझे किसने समझाई है?’
बुढ़िया मुस्कराकर बोली, ‘उसी
ने समझाई है जिसने तुझे यह समझाया कि माई की गठरी ले ले। जो तेरे भीतर बैठा है वही
मेरे भीतर भी बैठा है। तुझे उसने कहा कि गठरी ले और भाग जा। मुझे उसने समझाया कि
गठरी न दे, नहीं तो वह भाग जाएगा। तूने भी अपने मन की आवाज
सुनी और मैंने भी सुनी।
👉 संस्कारो पर नाज
बेटा अब खुद कमाने वाला हो गया था ।।।
इसलिए बात-बात पर अपनी माँ से झगड़
पड़ता था ये वही माँ थी जो बेटे के लिए पति से भी लड़ जाती थी। मगर अब फाइनेसिअली
इंडिपेंडेंट बेटा पिता के कई बार समझाने पर भी इग्नोर कर देता और कहता, "यही तो उम्र है शौक की,खाने पहनने की, जब आपकी तरह मुँह में दाँत और पेट में आंत ही नहीं रहेगी तो क्या
करूँगा।"
बहू खुशबू भी भरे पूरे परिवार से आई
थी, इसलिए बेटे की गृहस्थी की खुशबू में रम गई थी। बेटे की नौकरी अच्छी थी तो
फ्रेंड सर्किल उसी हिसाब से मॉडर्न थी। बहू को अक्सर वह पुराने स्टाइल के कपड़े छोड़
कर मॉडर्न बनने को कहता, मगर बहू मना कर देती ।।।।।
वो कहता "कमाल करती हो तुम, आजकल
सारा ज़माना ऐसा करता है, मैं क्या कुछ नया कर रहा हूँ।
तुम्हारे सुख के लिए सब कर रहा हूँ और तुम हो कि उन्हीं पुराने विचारों में अटकी
हो। क्वालिटी लाइफ क्या होती है तुम्हें मालूम ही नहीं।"
और बहू कहती "क्वालिटी लाइफ
क्या होती है, ये मुझे जानना भी नहीं है, क्योकि
लाइफ की क्वालिटी क्या हो, मैं इस बात में विश्वास रखती
हूँ।"
आज अचानक पापा आई। सी। यू। में
एडमिट हुए थे। हार्ट अटेक आया था। डॉक्टर ने पर्चा पकड़ाया, तीन
लाख और जमा करने थे। डेढ़ लाख का बिल तो पहले ही भर दिया था मगर अब ये तीन लाख भारी
लग रहे थे। वह बाहर बैठा हुआ सोच रहा था कि अब क्या करे।
उसने कई दोस्तों को फ़ोन लगाया कि
उसे मदद की जरुरत है, मगर किसी ने कुछ तो किसी ने कुछ बहाना कर
दिया। आँखों में आँसू थे और वह उदास था तभी खुशबू
खाने का टिफिन लेकर आई और बोली,"अपना ख्याल रखना
भी जरुरी है। ऐसे उदास होने से क्या होगा? हिम्मत से काम लो,
बाबू जी को कुछ नहीं होगा आप चिन्ता मत करो। कुछ खा लो फिर पैसों का
इंतजाम भी तो करना है आपको मैं यहाँ बाबूजी के पास रूकती हूँ आप खाना खाकर पैसों
का इंतजाम कीजिये। "पति की आँखों से टप-टप आँसू झरने लगे।
"कहा न आप चिन्ता मत कीजिये।
जिन दोस्तों के साथ आप मॉडर्न पार्टियां करते हैं आप उनको फ़ोन कीजिये, देखिए
तो सही, कौन कौन मदद को आता हैं। "पति खामोश और सूनी
निगाहों से जमीन की तरफ़ देख रहा था। कि खुशबू का हाथ उसकी पीठ पर आ गया। और वह
पीठ को सहलाने लगी।
"सबने मना कर दिया। सबने कोई न
कोई बहाना बना दिया खुशबू।आज पता चला कि ऐसी दोस्ती तब तक की है जब तक जेब में
पैसा है। किसी ने भी हाँ नहीं कहा जबकि उनकी पार्टियों पर मैंने लाखों उड़ा
दिये।"
"इसी दिन के लिए बचाने को तो
माँ-बाबा कहते थे। खैर, कोई बात नहीं, आप
चिंता न करो, हो जाएगा सब ठीक। कितना जमा कराना है?"
"अभी तो तनख्वाह मिलने में भी
समय है,
आखिर चिन्ता कैसे न करूँ खुशबू ?"
"तुम्हारी ख्वाहिशों को मैंने
सम्हाल रखा है।"
"क्या मतलब।।।।?"
"तुम जो नई नई तरह के कपड़ो और
दूसरी चीजों के लिए मुझे पैसे देते थे वो सब मैंने सम्हाल रखे हैं। माँ जी ने फ़ोन
पर बताया था, तीन लाख जमा करने हैं। मेरे पास दो लाख थे। बाकी मैंने
अपने भैया से मंगवा लिए हैं। टिफिन में सिर्फ़ एक ही डिब्बे में खाना है बाकी में
पैसे हैं।" खुशबू ने थैला टिफिन सहित उसके हाथों में थमा दिया।
"खुशबू ! तुम सचमुच अर्धांगिनी
हो, मैं तुम्हें मॉडर्न बनाना चाहता था, हवा में उड़ रहा
था। मगर तुमने अपने संस्कार नहीं छोड़े। आज वही काम आए हैं। "
सामने बैठी माँ के आँखो में आंसू थे
उसे आज खुद के नहीं बल्कि पराई माँ के संस्कारो पर नाज था और वो बहु के सर पर हाथ
फेरती हुई ऊपरवाले का शुक्रिया अदा कर रही थी।
👉 मन की शांति 😇
एक राजा था जिसे पेटिंग्स से बहुत
प्यार था। एक बार उसने घोषणा की कि जो कोई भी उसे एक ऐसी पेंटिंग बना कर देगा जो
शांति को दर्शाती हो तो वह उसे मुंह माँगा इनाम देगा।
फैसले के दिन एक से बढ़ कर एक
चित्रकार इनाम जीतने की लालच में अपनी-अपनी पेंटिंग्स लेकर राजा के महल पहुंचे।
राजा ने एक-एक करके सभी पेंटिंग्स
देखीं और उनमें से दो को अलग रखवा दिया। अब इन्ही दोनों में से एक को इनाम के लिए
चुना जाना था।
पहली पेंटिंग एक अति सुन्दर शांत
झील की थी। उस झील का पानी इतना साफ़ था कि उसके अन्दर की सतह तक नज़र आ रही थी और
उसके आस-पास मौजूद हिमखंडों की छवि उस पर ऐसे उभर रही थी मानो कोई दर्पण रखा हो।
ऊपर की ओर नीला आसमान था जिसमें रुई के गोलों के सामान सफ़ेद बादल तैर रहे थे।
जो कोई भी इस पेटिंग को देखता उसको
यही लगता कि शांति को दर्शाने के लिए इससे अच्छी पेंटिंग हो ही नहीं सकती।
दूसरी पेंटिंग में भी पहाड़ थे, पर
वे बिलकुल रूखे, बेजान , वीरान थे और
इन पहाड़ों के ऊपर घने गरजते बादल थे जिनमे बिजलियाँ चमक रही थीं…घनघोर वर्षा होने
से नदी उफान पर थी… तेज हवाओं से पेड़ हिल रहे थे… और पहाड़ी के एक ओर स्थित झरने ने
रौद्र रूप धारण कर रखा था।
जो कोई भी इस पेटिंग को देखता यही
सोचता कि भला इसका “शांति” से क्या लेना देना… इसमें तो बस अशांति ही अशांति है।
सभी आश्वस्त थे कि पहली पेंटिंग
बनाने वाले चित्रकार को ही इनाम मिलेगा। तभी राजा अपने सिंहासन से उठे और ऐलान
किया कि दूसरी पेंटिंग बनाने वाले चित्रकार को वह मुंह माँगा इनाम देंगे।
हर कोई आश्चर्य में था।
पहले चित्रकार से रहा नहीं गया, वह
बोला, “लेकिन महाराज उस पेटिंग में ऐसा क्या है जो आपने उसे
इनाम देने का फैसला लिया… जबकि हर कोई यही कह रहा है कि मेरी पेंटिंग ही शांति को
दर्शाने के लिए सर्वश्रेष्ठ है?
“आओ मेरे साथ!”, राजा
ने पहले चित्रकार को अपने साथ चलने के लिए कहा।
दूसरी पेंटिंग के समक्ष पहुँच कर
राजा बोले, “झरने के बायीं ओर हवा से एक तरह झुके इस वृक्ष को
देखो…देखो इसकी डाली पर बने इस घोसले को देखो… देखो कैसे एक चिड़िया इतनी कोमलता से,
इतने शांत भाव व प्रेम से पूर्ण होकर अपने बच्चों को भोजन करा रही
है…”
फिर राजा ने वहां उपस्थित सभी लोगों
को समझाया- शांत होने का मतलब ये नही है कि आप ऐसे स्थिति में हों जहाँ कोई शोर
नहीं हो…कोई समस्या नहीं हो… जहाँ कड़ी मेहनत नहीं हो… जहाँ आपकी परीक्षा नहीं हो…
शांत होने का सही अर्थ है कि आप हर तरह की अव्यवस्था, अशांति,
अराजकता के बीच हों और फिर भी आप शांत रहें, अपने
काम पर केन्द्रित रहें… अपने लक्ष्य की ओर अग्रसरित रहें।
अब सभी समझ चुके थे कि दूसरी
पेंटिंग को राजा ने क्यों चुना है।
👉 हर कोई अपनी जिंदगी में शांति चाहता है। पर
अक्सर हम “शांति” को कोई बाहरी वस्तु समझ लेते हैं, और उसे बाहरी
दुनिया में, पहाड़ों, झीलों में ढूंढते
हैं। जबकि शांति पूरी तरह से हमारे अन्दर की चीज है, और
हकीकत यही है कि तमाम दुःख-दर्दों, तकलीफों और दिक्कतों के
बीच भी शांत रहना ही असल में शांत होना है।
👉 बुरी आदत:-
एक अमीर आदमी अपने बेटे की किसी
बुरी आदत से बहुत परेशान था। वह जब भी बेटे से आदत छोड़ने को कहते तो एक ही जवाब
मिलता,
“अभी मैं इतना छोटा हूँ।। धीरे-धीरे ये आदत छोड़ दूंगा!” पर वह कभी
भी आदत छोड़ने का प्रयास नहीं करता।
उन्ही दिनों एक महात्मा गाँव में
पधारे हुए थे, जब आदमी को उनकी ख्याति के बारे में पता चला तो वह तुरंत
उनके पास पहुँचा और अपनी समस्या बताने लगा।
महात्मा जी ने उसकी बात सुनी और कहा, “ठीक
है, आप अपने बेटे को
कल सुबह बागीचे में लेकर आइये, वहीँ मैं आपको उपाय बताऊंगा।”
अगले दिन सुबह पिता-पुत्र बागीचे
में पहुंचे।
महात्मा जी बेटे से बोले, “आइये
हम दोनों बागीचे की सैर करते हैं।”,
और वो धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगे।
चलते-चलते ही महात्मा जी अचानक रुके
और बेटे से कहा, ” क्या तुम इस छोटे से पौधे को उखाड़ सकते हो?”
“जी हाँ, इसमें
कौन सी बड़ी बात है।” और ऐसा कहते हुए बेटे ने आसानी से पौधे को उखाड़ दिया।
फिर वे आगे बढ़ गए और थोड़ी देर बाद
महात्मा जी ने थोड़े बड़े पौधे की तरफ इशारा करते हुए कहा, ”क्या
तुम इसे भी उखाड़ सकते हो?”
बेटे को तो मानो इन सब में कितना
मजा आ रहा हो, वह तुरंत पौधा उखाड़ने में लग गया। इस बार उसे थोड़ी
मेहनत लगी पर काफी प्रयत्न के बाद उसने इसे भी उखाड़ दिया।
वे फिर आगे बढ़ गए और कुछ देर बाद
पुनः महात्मा जी ने एक गुडहल के पेड़ की तरफ इशारा करते हुए बेटे से इसे उखाड़ने
के लिए कहा।
बेटे ने पेड़ का ताना पकड़ा और उसे
जोर-जोर से खींचने लगा। पर पेड़ तो हिलने का भी नाम नहीं ले रहा था। जब बहुत
प्रयास करने के बाद भी पेड़ टस से मस नहीं हुआ तो बेटा बोला, “अरे!
ये तो बहुत मजबूत है इसे उखाड़ना असंभव है।”
महात्मा जी ने उसे प्यार से समझाते
हुए कहा,
“बेटा, ठीक ऐसा ही बुरी आदतों के साथ होता है, जब वे नयी होती हैं तो उन्हें
छोड़ना आसान होता है, पर वे जैसे जैसे पुरानी होती जाती हैं इन्हें छोड़ना मुश्किल
होता जाता है।”
बेटा उनकी बात समझ गया और उसने मन
ही मन आज से ही बुरी आदतें छोड़ने का निश्चय किया।
👉 आत्म-चिंतन
एक मालन को रोज़ राजा की सेज़ को
फूलों से सजाने का काम दिया गया था। वो अपने काम में बहुत निपुण थी। एक दिन सेज़
सजाने के बाद उसके मन में आया की वो रोज़ तो फूलों की सेज़ सजाती है, पर
उसने कभी खुद फूलों के सेज़ पर सोकर नहीं देखा था।
कौतुहल-बस वो दो घड़ी फूल सजे उस सेज़
पर सो गयी। उसे दिव्य आनंद मिला। ना जाने कैसे उसे नींद आ गयी।
कुछ घंटों बाद राजा अपने शयन कक्ष
में आये। मालन को अपनी सेज़ पर सोता देखकर राजा बहुत गुस्सा हुआ। उसने मालन को
पकड़कर सौ कोड़े लगाने की सज़ा दी।
मालन बहुत रोई, विनती
की, पर राजा ने एक ना सुनी। जब कोड़े लगाने लगे तो शुरू में
मालन खूब चीखी चिल्लाई, पर बाद में जोर-जोर से हंसने लगी।
राजा ने कोड़े रोकने का हुक्म दिया
और पूछा - "अरे तू पागल हो गयी है क्या? हंस किस बात पर रही है तू?"
मालन बोली - "राजन! मैं इस
आश्चर्य में हंस रही हूँ कि जब दो घड़ी फूलों की सेज़ पर सोने की सज़ा सौ कोड़े हैं, तो
पूरी ज़िन्दगी हर रात ऐसे बिस्तर पर सोने की सज़ा क्या होगी?"
राजा को मालन की बात समझ में आ गयी, वो
अपने कृत्य पर बेहद शर्मिंदा हुआ और जन कल्याण में अपने जीवन को लगा दिया।
सीख - हमें ये याद रखना चाहिये कि
जो कर्म हम इस लोक में करते हैं, उससे परलोक में हमारी सज़ा या पुरस्कार
तय होते हैं।
👉 शर्मिंदा
फ़ोन की घंटी तो सुनी मगर आलस की
वजह से रजाई में ही लेटी रही। उसके पति राहुल को आखिर उठना ही पड़ा। दूसरे कमरे
में पड़े फ़ोन की घंटी बजती ही जा रही थी।इतनी सुबह कौन हो सकता है जो सोने भी
नहीं देता, इसी चिड़चिड़ाहट में उसने फ़ोन उठाया। “हेल्लो, कौन” तभी दूसरी तरफ से आवाज सुन सारी नींद खुल गयी।
“नमस्ते पापा।” “बेटा, बहुत
दिनों से तुम्हे मिले नहीं सो हम दोनों ११ बजे की गाड़ी से आ रहे है। दोपहर का
खाना साथ में खा कर हम ४ बजे की गाड़ी वापिस लौट जायेंगे। ठीक है।” “हाँ पापा,
मैं स्टेशन पर आपको लेने आ जाऊंगा।”
फ़ोन रख कर वापिस कमरे में आ कर
उसने रचना को बताया कि मम्मी पापा ११ बजे की गाड़ी से आरहे है और दोपहर का खाना
हमारे साथ ही खायेंगे।
रजाई में घुसी रचना का पारा एक दम
सातवें आसमान पर चढ़ गया। “कोई इतवार को भी सोने नहीं देता, अब
सबके के लिए खाना बनाओ। पूरी नौकरानी बना दिया है।” गुस्से से उठी और बाथरूम में
घुस गयी। राहुल हक्का बक्का हो उसे देखता ही रह गया। जब वो बाहर आयी तो राहुल ने
पूछा “क्या बनाओगी।” गुस्से से भरी रचना ने तुनक के जवाब दिया “अपने को तल के खिला
दूँगी।” राहुल चुप रहा और मुस्कराता हुआ तैयार होने में लग गया, स्टेशन जो जाना था। थोड़ी देर बाद ग़ुस्सैल रचना को बोल कर वो मम्मी पापा
को लेने स्टेशन जा रहा है वो घर से निकल गया।
रचना गुस्से में बड़बड़ाते हुए खाना
बना रही थी।
दाल सब्जी में नमक, मसाले
ठीक है या नहीं की परवाह किए बिना बस करछी चलाये जा रही थी। कच्चा पक्का खाना बना
बेमन से परांठे तलने लगी तो कोई कच्चा तो कोई जला हुआ। आखिर उसने सब कुछ ख़तम किया,
नहाने चली गयी।
नहा के निकली और तैयार हो सोफे पर
बैठ मैगज़ीन के पन्ने पलटने लगी।उसके मन में तो बस यह चल रहा था कि सारा संडे खराब
कर दिया। बस अब तो आएँ , खाएँ और वापिस जाएँ। थोड़ी देर में घर की
घंटी बजी तो बड़े बेमन से उठी और दरवाजा खोला। दरवाजा खुलते ही उसकी आँखें हैरानी
से फटी की फटी रह गयी और मुँह से एक शब्द भी नहीं निकल सका। सामने राहुल के नहीं
उसके अपने मम्मी पापा खड़े थे जिन्हें राहुल स्टेशन से लाया था।
मम्मी ने आगे बढ़ कर उसे झिंझोड़ा
“अरे,
क्या हुआ। इतनी हैरान परेशान क्यों लग रही है। क्या राहुल ने बताया
नहीं कि हम आ रहे हैं।” जैसे मानो रचना के नींद टूटी हो “नहीं, मम्मी इन्होंने तो बताया था पर…। रर… रर। चलो आप अंदर तो आओ।” राहुल तो
अपनी मुसकराहट रोक नहीं पा रहा था।
कुछ देर इधर उधर की बातें करने में
बीत गया। थोड़ी देर बाद पापा ने कहाँ “रचना, गप्पे ही मारती रहोगी या
कुछ खिलाओगी भी।” यह सुन रचना को मानो साँप सूँघ गया हो। क्या करती, बेचारी को अपने हाथों ही से बनाए अध पक्के और जले हुए खाने को परोसना
पड़ा। मम्मी पापा खाना तो खा रहे थे मगर उनकी आँखों में एक प्रश्न था जिसका वो
जवाब ढूँढ रहे थे। आखिर इतना स्वादिष्ट खाना बनाने वाली उनकी बेटी आज उन्हें कैसा
खाना खिला रही है।
रचना बस मुँह नीचे किए बैठी खाना खा
रही थी। मम्मी पापा से आँख मिलाने की उसकी हिम्मत नहीं हो पा रही थी। खाना ख़तम कर
सब ड्राइंग रूम में आ बैठे। राहुल कुछ काम है अभी आता हुँ कह कर थोड़ी देर के लिए
बाहर निकल गया। राहुल के जाते ही मम्मी, जो बहुत देर से चुप बैठी
थी बोल पड़ी “क्या राहुल ने बताया नहीं था की हम आ रहे हैं।”
तो अचानक रचना के मुँह से निकल गया
“उसने सिर्फ यह कहाँ था कि मम्मी पापा लंच पर आ रहे हैं, मैं
समझी उसके मम्मी पापा आ रहे हैं।”
फिर क्या था रचना की मम्मी को समझते
देर नहीं लगी कि ये मामला है। बहुत दुखी मन से उन्होंने रचना को समझाया “बेटी, हम
हों या उसके मम्मी पापा तुम्हे तो बराबर का सम्मान करना चाहिए। मम्मी पापा क्या,
कोई भी घर आए तो खुशी खुशी अपनी हैसियत के मुताबिक उसकी सेवा करो।
बेटी, जितना किसी को सम्मान दोगी उतना तुम्हे ही प्यार और
इज़्ज़त मिलेगी। जैसे राहुल हमारी इज़्ज़त करता है उसी तरह तुम्हे भी उसके माता
पिता और सम्बन्धियों की इज़्ज़त करनी चाहिए। रिश्ता कोई भी हो, हमारा या उसका, कभी फर्क नहीं करना।”
रचना की आँखों में ऑंसू आ गए और
अपने को शर्मिंदा महसूस कर उसने मम्मी को वचन दिया कि आज के बाद फिर ऐसा कभी नहीं
होगा।।!
👉 इष्ट की उपासना का मर्म
दिन ढल रहा था। रात तथा दिन फिर से बिछुड़
जाने को कुछ क्षणों के लिये एक दूसरे में विलीन हो गये थे। रम्य वनस्थली में एक
पर्णकुटी में से कुछ धुआँ सा उठ रहा था।
कुटीर में निवास करने वाले दो ऋषि-
शनक तथा अभिप्रतारी अपना भोजन तैयार कर रहे थे। वनवासियों का भोजन ही क्या? कुछ
फल तोड़ लाये-कुछ दूध से काम चल गया-हाँ, कन्द-मूलों को
अवश्य आँच में पकाना होता था। भोजन लगभग तैयार हो चुका था और उसे कदलीपत्रों पर
परोसा जा रहा था।
तभी बाहर किसी आगन्तुक के आने का
शब्द हुआ। दोनों ने जानने का प्रयत्न किया। बाहर एक युवा ब्रह्मचारी खड़ा था।
ऋषि ने प्रश्न किया- ‘कहो वत्स!
क्या चाहिए?’ युवक विनम्र वाणी में बोला- ‘आज प्रातः से अभी तक मुझे
कुछ भी प्राप्त नहीं हो सका है। मैं क्षुधा से व्याकुल हो रहा हूँ। यदि कुछ भोजन
मिल जाता, तो बड़ी दया होती।’
कुटीर निवासी कहने को वनवासी थे, हृदय
उनका सामान्य गृहस्थों से भी कहीं अधिक संकीर्ण था। मात्र सिद्धान्तवादी थे वे-
व्यावहारिक वेदाँती नहीं थे। सो रूखे स्वर में कहा- ‘भाई तुम किसी गृहस्थ का घर
देखो। हम तो वनवासी हैं। अपने उपयोग भर का ही भोजन जुटाते हैं नित्य।’
ब्रह्मचारी को बड़ी ही निराशा हुई।
यद्यपि वह अभी ज्ञानार्जन कर ही रहा था-तथापि कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य का व्यावहारिक
बोध था उसे। निराश इस बात से नहीं था वह कि उसे भोजन प्राप्त नहीं हो सका था। उसकी
मानसिक पीड़ा का कारण यह था कि यदि कोई साँसारिक मनुष्य इस प्रकार का उत्तर देता
तो फिर भी उचित था। वह उसके भौतिकतावादी-मोह से भरे दृष्टिकोण का परिचायक होता।
किन्तु ये वनवासी जो अपने आपको ब्रह्मज्ञान का अधिकारी अनुभव करते हैं- उनके
द्वारा इस प्रकार का उत्तर पाकर यह क्षुब्ध हो उठा।
तब चुपचाप चले जाने की अपेक्षा उस
युवक ने यही उचित समझा कि इन अज्ञान में डूबे ज्ञानियों को इनकी भूल का बोध करा ही
देना चाहिए।
उसने पुनः उनको पुकारा। बाहर से
भीतर का सब कुछ स्पष्ट दीख रहा था। झुँझलाते हुए शनक तथा अभिप्रतारी दोनों बाहर
आये। तब युवक बोला- ‘क्या मैं यह जान सकता हूँ कि आप किस देवता की उपासना करते हैं?’
उपनिषद् काल में-जिस समय की यह घटना
है-विभिन्न ऋषि-मुनि विभिन्न देवता विशेष की साधना करते थे।
उन ऋषियों को तनिक क्रोध आ गया।
व्यर्थ ही भोजन को विलम्ब हो रहा था। पेट की जठराग्नि भी उधर को ही मन की रास मोड़
रही थी।
झुँझलाहट में कहा- ‘तुम बड़े असभ्य
मालूम होते हो। समय-कुसमय कुछ नहीं देखते। अस्तु! हमारा इष्टदेव वायु है, जिसे
प्राण भी कहते हैं।’
अब वह ब्रह्मचारी बोला- ‘तब तो आप
अवश्य ही यह जानते होंगे कि यह प्राण समस्त सृष्टि में व्यापक है। जड़-चेतन सभी
में।’
ऋषि बोले- ‘क्यों नहीं! यह तो हम
भली-भाँति जानते हैं।’
अब युवक ने प्रश्न किया- ‘क्या मैं
यह जान सकता हूँ कि यह भोजन आपने किसके निमित्त तैयार किया है?’
ऋषि अब बड़े गर्व से बोले- ‘हमारा
प्रत्येक कार्य अपने उपास्य को समर्पित होता है।’
ब्रह्मचारी ने मन्द स्मिति के साथ
पुनः कहा- ‘यदि प्राण तत्व इस समस्त संसार में व्याप्त है, तो
वह मुझमें भी है। आप यह मानते हैं?’
ऋषि को अब ऐसा बोध हो रहा था कि
अनजाने ही वे इस युवा के समक्ष हारते चले जा रहे हैं। तली में जैसे छेद हो जाने पर
नाव पल-पल अतल गहराई में डूबती ही जाती है युवक की सारगर्भित वाणी में उनका अहं
तथा अज्ञान वैसे ही धंसता चला जा रहा था। आवेश का स्थान अब विनम्रता लेती जा रही
थी।
शनक धीमे स्वर में बोले- ‘तुम सत्य
कहते हो ब्रह्मचारी! निश्चय ही तुम्हारे अन्दर वही प्राण, वही
वायु संव्याप्त है, जो इस संसार का आधार है।’
ब्रह्मचारी संयत स्वर में अब भी कह
रहा था-’तो हे महामुनि ज्ञानियों! आपने मुझे भोजन देने से मना करके अपने उस
इष्टदेव का ही अपमान किया है जो कण-कण में परिव्याप्त है। चाहे विशाल पुँज लगा हो, चाहे
एक दाना हो- परिणाम में अन्तर हो सकता है- किन्तु उससे तत्व की एकता में कोई अन्तर
नहीं आता। आशा है मेरी बात का आप कुछ अन्यथा अर्थ न लगायेंगे।’ ब्रह्मचारी का
उत्तर हृदय में चला गया था। सत्य में यही शक्ति होती है। दोनों ऋषि अत्यन्त ही
लज्जित हुए खड़े थे। किन्तु साधारण मनोभूमि के व्यक्तियों में तथा ज्ञानियों में
यही तो अन्तर होता है। ये अपनी त्रुटियों को भी अपनी हठधर्मी के समक्ष स्वीकार
नहीं करते और ये अपनी भूल का बोध होते ही, उसे सच्चे हृदय से
स्वीकार कर लेते हैं तथा तत्क्षण उसके सुधार में संलग्न हो जाते हैं।
अभिप्रतारी ने अत्यन्त ही विनम्र
वाणी में कहा- ‘हम से बड़ी भूल हो गई ब्रह्मचारी! लगता है तुम किसी बहुत ही योग्य
गुरु के पास शिक्षा ग्रहण कर रहे हो। धन्य हैं वे। तुम उम्र में हमसे कहीं छोटे
होते हुए भी तत्वज्ञानी हो। अब कृपा करके हमारी कुटी में आओ और भोजन ग्रहण करके
हमें हमारी भूल का प्रायश्चित्त करने का अवसर दो।’
और दोनों सादर उस ब्रह्मचारी युवक
को ले गये। उसे पग पाद प्रक्षालन हेतु शीतल जल दिया तथा अपने साथ बैठकर
सम्मानपूर्वक भोजन कराया।
उस दिन से वे अपनी कुटी में ऐसी
व्यवस्था रखते कि कोई भी अतिथि अथवा राहगीर कभी भी आये, वे
उसे बिना भोजन किये न जाने देते। इष्ट की उपासना का मर्म-सच्चा स्वरूप अब उनकी समझ
में आ गया था।
📖 अखण्ड ज्योति, अक्टूबर
१९७० पृष्ठ 14
👉 यह भी कट जाएगा!
जिंदगी है तो संघर्ष हैं, तनाव
है, काम का दबाब है, ख़ुशी है, डर है! लेकिन अच्छी बात यह है कि ये सभी स्थायी नहीं हैं! समय रूपी नदी के
प्रवाह में से सब प्रवाहमान हैं! कोई भी परिस्थिति चाहे ख़ुशी की हो या ग़म की,
कभी स्थाई नहीं होती, समय के अविरल प्रवाह में
विलीन हो जाती है!
ऐसा अधिकतर होता है की जीवन की
यात्रा के दौरान हम अपने आप को कई बार दुःख, तनाव,चिंता, डर, हताशा, निराशा, भय, रोग इत्यादि के
मकडजाल में फंसा हुआ पाते हैं हम तत्कालिक परिस्थितियों के इतने वशीभूत हो जाते
हैं कि दूर-दूर तक देखने पर भी हमें कोई प्रकाश की किरण मात्र भी दिखाई नहीं देती,
दूर से चींटी की तरह महसूस होने वाली परेशानी हमारे नजदीक आते-आते
हाथी के जैसा रूप धारण कर लेती है और हम उसकी विशालता और भयावहता के आगे समर्पण कर
परिस्थितियों को अपने ऊपर हावी हो जाने देते हैं, वो
परिस्थिति हमारे पूरे वजूद को हिला डालती है, हमें हताशा,निराशा के भंवर में उलझा जाती है…एक-एक क्षण पहाड़ सा प्रतीत होता है और
हममे से ज्यादातर लोग आशा की कोई किरण ना देख पाने के कारण हताश होकर परिस्थिति के
आगे हथियार डाल देते हैं!
अगर आप किसी अनजान, निर्जन
रेगिस्तान मे फँस जाएँ तो उससे निकलने का एक ही उपाए है, बस
-चलते रहें! अगर आप नदी के बीच जाकर हाथ पैर नहीं चलाएँगे तो निश्चित ही डूब
जाएंगे! जीवन मे कभी ऐसा क्षण भी आता है, जब लगता है की बस
अब कुछ भी बाकी नहीं है, ऐसी परिस्थिति मे अपने आत्मविश्वास
और साहस के साथ सिर्फ डटे रहें क्योंकि- हर चीज का हल होता है,आज नहीं तो कल होता है।
एक बार एक राजा की सेवा से प्रसन्न
होकर एक साधू नें उसे एक ताबीज दिया और कहा की राजन इसे अपने गले मे डाल लो और
जिंदगी में कभी ऐसी परिस्थिति आये की जब तुम्हे लगे की बस अब तो सब ख़तम होने वाला
है, परेशानी के भंवर मे अपने को फंसा पाओ, कोई प्रकाश की
किरण नजर ना आ रही हो, हर तरफ निराशा और हताशा हो तब तुम इस
ताबीज को खोल कर इसमें रखे कागज़ को पढ़ना, उससे पहले नहीं!
राजा ने वह ताबीज अपने गले मे पहन लिया!
एक बार राजा अपने सैनिकों के साथ शिकार करने घने जंगल मे गया! एक शेर का पीछा करते
करते राजा अपने सैनिकों से अलग हो गया और दुश्मन राजा की सीमा मे प्रवेश कर गया, घना
जंगल और सांझ का समय, तभी कुछ दुश्मन सैनिकों के घोड़ों की
टापों की आवाज राजा को आई और उसने भी अपने घोड़े को एड लगाई, राजा आगे आगे दुश्मन सैनिक पीछे पीछे! बहुत दूर तक भागने पर भी राजा उन
सैनिकों से पीछा नहीं छुडा पाया! भूख प्यास से बेहाल राजा को तभी घने पेड़ों के
बीच मे एक गुफा सी दिखी, उसने तुरंत स्वयं और घोड़े को उस
गुफा की आड़ मे छुपा लिया! और सांस रोक कर बैठ गया, दुश्मन
के घोड़ों के पैरों की आवाज धीरे धीरे पास आने लगी! दुश्मनों से घिरे हुए अकेले
राजा को अपना अंत नजर आने लगा, उसे लगा की बस कुछ ही क्षणों
में दुश्मन उसे पकड़ कर मौत के घाट उतार देंगे! वो जिंदगी से निराश हो ही गया था,
की उसका हाथ अपने ताबीज पर गया और उसे साधू की बात याद आ गई! उसने
तुरंत ताबीज को खोल कर कागज को बाहर निकाला और पढ़ा! उस पर्ची पर लिखा था —यह भी
कट जाएगा।
राजा को अचानक ही जैसे घोर अन्धकार
मे एक ज्योति की किरण दिखी, डूबते को जैसे कोई सहारा मिला! उसे अचानक
अपनी आत्मा मे एक अकथनीय शान्ति का अनुभव हुआ! उसे लगा की सचमुच यह भयावह समय भी
कट ही जाएगा, फिर मे क्यों चिंतित होऊं! अपने प्रभु और अपने
पर विश्वासरख उसने स्वयं से कहा की हाँ, यह भी कट जाएगा!
और हुआ भी यही, दुश्मन
के घोड़ों के पैरों की आवाज पास आते आते दूर जाने लगी, कुछ
समय बाद वहां शांति छा गई! राजा रात मे गुफा से निकला और किसी तरह अपने राज्य मे
वापस आ गया!
यह सिर्फ किसी राजा की कहानी नहीं
है यह हम सब की कहानी है! हम सभी परिस्थिति,काम,नाव
के दवाव में इतने जकड जाते हैं की हमे कुछ सूझता नहीं है, हमारा
डर हम पर हावी होने लगता है, कोई रास्ता, समाधान दूर दूर तक नजर नहीं आता, लगने लगता है की बस,
अब सब ख़तम, है ना?
जब ऐसा हो तो 2 मिनट शांति से
बेठिये,थोड़ी गहरी गहरी साँसे लीजिये! अपने आराध्य को याद कीजिये और स्वयं से जोर
से कहिये –यह भी कट जाएगा! आप देखिएगा एकदम से जादू सा महसूस होगा, और आप उस परिस्थिति से उबरने की शक्ति अपने अन्दर महसूस करेंगे!
👉 मूर्ख कौन?
ज्ञानचंद नामक एक जिज्ञासु भक्त था।
वह सदैव प्रभुभक्ति में लीन रहता था। रोज सुबह उठकर पूजा- पाठ, ध्यान-भजन
करने का उसका नियम था। उसके बाद वह दुकान में काम करने जाता। दोपहर के भोजन के समय वह दुकान बंद कर
देता और फिर दुकान नहीं खोलता था।
बाकी के समय में वह साधु- संतों को
भोजन करवाता, गरीबों की सेवा करता, साधु- संग
एवं दान-पुण्य करता। व्यापार में जो भी मिलता उसी में संतोष रखकर प्रभुप्रीति के
लिए जीवन बिताता था।
उसके ऐसे व्यवहार से लोगों को
आश्चर्य होता और लोग उसे पागल समझते। लोग कहतेः
"यह तो महामूर्ख है। कमाये हुए सभी पैसों को दान में लुटा देता है।
फिर दुकान भी थोड़ी देर के लिए ही खोलता है। सुबह का कमाई करने का समय भी पूजा-
पाठ में गँवा देता है। यह तो पागल ही है।"
एक बार गाँव के नगरसेठ ने उसे अपने
पास बुलाया। उसने एक लाल टोपी बनायी थी। नगरसेठ ने वह टोपी ज्ञानचंद को देते हुए
कहाः "यह टोपी मूर्खों के लिए है।
तेरे जैसा महान् मूर्ख मैंने अभी तक नहीं देखा, इसलिए यह टोपी तुझे पहनने
के लिए देता हूँ। इसके बाद यदि कोई तेरे से भी ज्यादा बड़ा मूर्ख दिखे तो तू उसे
पहनने के लिए दे देना।"
ज्ञानचंद शांति से वह टोपी लेकर घर
वापस आ गया। एक दिन वह नगर सेठ खूब बीमार पड़ा। ज्ञानचंद उससे मिलने गया और उसकी
तबीयत के हालचाल पूछे। नगरसेठ ने कहाः "भाई ! अब तो जाने की तैयारी कर रहा
हूँ।"
ज्ञानचंद ने पूछाः "कहाँ जाने की तैयारी कर रहे हो? वहाँ
आपसे पहले किसी व्यक्ति को सब तैयारी करने के लिए भेजा कि नहीं? आपके साथ आपकी स्त्री, पुत्र, धन,
गाड़ी, बंगला वगैरह आयेगा कि नहीं?"
"भाई ! वहाँ कौन साथ आयेगा? कोई
भी साथ नहीं आने वाला है। अकेले ही जाना है। कुटुंब-परिवार, धन-दौलत,
महल-गाड़ियाँ सब छोड़कर यहाँ से जाना है ।आत्मा-परमात्मा के सिवाय
किसी का साथ नहीं रहने वाला है।"
सेठ के इन शब्दों को सुनकर ज्ञानचंद
ने खुद को दी गयी वह लाल टोपी नगरसेठ को वापस देते हुए कहाः "आप ही इसे
पहनो।"
नगरसेठः "क्यों?"
ज्ञानचंदः "मुझसे ज्यादा मूर्ख तो आप हैं। जब आपको
पता था कि पूरी संपत्ति, मकान, परिवार वगैरह सब
यहीं रह जायेगा, आपका कोई भी साथी आपके साथ नहीं आयेगा,
भगवान के सिवाय कोई भी सच्चा सहारा नहीं है, फिर
भी आपने पूरी जिंदगी इन्हीं सबके पीछे बरबाद कर दी?"
👉 सत्य की जीत
एक राज्य में एक अत्यंत न्यायप्रिय
राजा था। वह अपने राज्य में सभी का ध्यान रखता था। वह वेष बदल कर अपने राज्य में
भ्रमण करता था ,और अपने राज्य संचालन में निरन्तर सुधार का प्रयत्न करता
रहता था। कई दिन उसने अपने राज्य में परेशानियां देखी। कुछ दिन बाद उसने अपने
राज्य में एक कानून पारित किया कि -'यदि बाजार में किसी का
सामान बेचने के बाद रह जाता है, और वह नही बिकता तो उसे राजा
खरीद लेंगे।'
एक दिन की बात थी, एक
चित्रकार की चित्र नही बिक रही थी। उस पर शनि देव की चित्र बनी थी। वह राजा के पास
गया और राजा ने उसे खरीद लिया। उसने अपने राज महल में शनि देव की स्थापन करवाई।
स्थापना के अगले दिन ही राजा के स्वप्न में लक्ष्मी जी आई। लक्ष्मी जी ने कहा
-"राजन,आपने अपने महल में शनि देव की स्थापन करवाई है,
मैं अब यहां नही रुक सकती, मैं अब यह से जा
रही हूँ। अगले दिन स्वप्न में धर्म आया
उसने भी यही कहा और वहां से चल दिया। राजा मन ही मन परेशान हो गया उसके समझ में
नही आ रहा था वह क्या करे?
अगले दिन पुनः उसके स्वप्न में सत्य
आया उसने भी यही बात कही और जाने लगा, राजा ने अपने कथनानुसार
सत्य जा पालन किया था। राजा ने उत्तर में कहा-'देव मैंने
अपने कथनानुसार सत्य का पालन किया है, आप का जाना न्याय
सांगत नही होगा।' राजा की यह बात यथार्थ थी और सत्य नही गया।
कुछ दिनों बाद लक्ष्मी जी और धर्म पुनः वापस आ गए।
दोस्तों, आज
के समय में सत्य बोलने का सबसे बड़ा फायदा यह है की आप के कहे गए वाक्यो को,
आपको याद करने की आवश्यकता नही होती। सत्य हमे आत्मसम्मान दिलाता है,
हमे अपनी ही दृष्टि में उच्च बनाता है।रात को जब हम निद्रा के लिए
जाते है, तो अलौकिक आनंद की अनुभूति करता है। दोस्तों,
सत्य का प्रयोग करके देखे उत्तर आप के सामने स्वतः ही आ जायेगा।
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