ज्ञानवर्धक कथाएं -भाग – 15
👉 वास्तविक सौंदर्य
राजकुमारी मल्लिका इतनी खूबसूरत थी
कि कई राजकुमार व राजा उसके साथ विवाह करना चाहते थे, लेकिन
वह किसी को पसन्द नहीं करती थी। आखिरकार उन राजकुमारों व राजाओं ने आपस में एकजुट
होकर मल्लिका के पिता को किसी युद्ध में हराकर उसका अपहरण करने की योजना बनायी।
मल्लिका को इस बात का पता चल गया।
उसने राजकुमारों व राजाओं को कहलवाया कि "आप लोग मुझ पर कुर्बान हैं तो मैं
भी आप पर कुर्बान हूँ। तिथि निश्चित कीजिये और आप लोग आकर बातचीत करें। मैं आप
सबको अपना सौंदर्य दे दूँगी।"
इधर मल्लिका ने अपने जैसी ही एक
सुन्दर मूर्ति बनवायी। मूर्ति ठोस नहीं थी, वह भीतर से खाली थी।
मल्लिका ने निश्चित की गयी तिथि से दो, चार दिन पहले से उस
मूर्ति के भीतर भोजन डालना शुरु कर दिया।
जिस महल में राजकुमारों व राजाओं को
मुलाकात के लिए बुलाया गया था, उसी महल में एक ओर वह मूर्ति रखवा दी
गयी। निश्चित तिथि पर सारे राजा व राजकुमार आ गये। मूर्ति इतनी हूबहू थी कि उसकी
ओर देखकर सभी राजकुमार एकटक होकर देख रहे थे और मन ही मन में विचार कर रहे थे कि
बस, अब बोलने वाली है । । अब बोलेगी । ।!
कुछ देर बाद मल्लिका स्वयं महल में
आयीं और जैसे ही वह महल में दाखिल हुयी तो सारे राजा व राजकुमार उसे देखकर दंग रह
गये कि वास्तविक मल्लिका हमारे सामने बैठी है तो यह कौन है?
मल्लिका बोली - "यह मेरी ही
प्रतिमा है। मुझे विश्वास था कि आप सब इसको ही सचमुच की मल्लिका समझेंगे और इसीलिए
मैंने इसके भीतर सच्चाई छुपाकर रखी हुयी है। आप लोग जिस सौंदर्य पर आकर्षित हो रहे
हो, उस सौंदर्य की सच्चाई क्या है? वह सच्चाई मैंने
इसमें छुपाकर रखी हुयी है।" यह कहकर ज्यों ही मूर्ति का ढक्कन खोला गया,
त्यों ही सारा कक्ष दुर्गन्ध से भर गया। क्योंकि पिछले कईं दिनों से
जो भोजन उसमें डाला जा रहा था, उसके सड़ जाने से ऐसी भयंकर
बदबू निकल रही थी कि सबके सब छिः छिः करने लगे।
तब मल्लिका ने वहाँ आये हुए सभी
राजाओं व राजकुमारों को सम्बोधित करते हुए कहा - "सज्जनों! जिस अन्न, जल,
दूध, फल, सब्जी इत्यादि
को खाकर यह शरीर सुन्दर दिखता है, मैंने उन्हीं खाद्य
सामग्रियों को कईं दिनों से इस मूर्ति के भीतर डालना शुरु कर दिया था। अब वो ही
खाद्य सामग्री सड़कर दुर्गन्ध पैदा कर रही हैं। दुर्गन्ध पैदा करने वाले इन
खाद्यान्नों से बनी हुई चमड़ी पर आप इतने फिदा हो रहे हो तो सोच करके देखो कि इस
अन्न को रक्त बनाकर सौंदर्य देने वाला वह आत्मा कितना सुन्दर होगा!"
मल्लिका की इन सारगर्भित बातों का
उन राजाओं और राजकुमारों पर गहरा असर पड़ा। उनमें से अधिकतर राजकुमार तो सन्यासी बन
गए। उधर मल्लिका भी सन्तों की शरण में पहुँच गयी और उनके मार्गदर्शन से अपनी आत्मा
को परमात्मा में विलीन कर दिया।
👉 ऊंचा क़द
चार महीने बीत चुके थे, बल्कि
10 दिन ऊपर हो गए थे, किंतु बड़े भइया की ओर से अभी तक कोई
ख़बर नहीं आई थी कि वह पापा को लेने कब आएंगे। यह कोई पहली बार नहीं था कि बड़े भइया
ने ऐसा किया हो। हर बार उनका ऐसा ही रवैया रहता है। जब भी पापा को रखने की उनकी
बारी आती है, वह समस्याओं से गुज़रने लगते हैं। कभी भाभी की
तबीयत ख़राब हो जाती है, कभी ऑफिस का काम बढ़ जाता है और उनकी
छुट्टी कैंसिल हो जाती है। विवश होकर मुझे ही पापा को छोड़ने मुंबई जाना पड़ता है।
हमेशा की तरह इस बार भी पापा की जाने की इच्छा नहीं थी, किंतु
मैंने इस ओर ध्यान नहीं दिया और उनका व अपना मुंबई का रिज़र्वेशन करवा लिया।
दिल्ली-मुंबई राजधानी एक्सप्रेस
अपने टाइम पर थी। सेकंड एसी की निचली बर्थ पर पापा को बैठाकर सामने की बर्थ पर मैं
भी बैठ गया। साथवाली सीट पर एक सज्जन पहले से विराजमान थे। बाकी बर्थ खाली थीं।
कुछ ही देर में ट्रेन चल पड़ी। अपनी जेब से मोबाइल निकाल मैं देख रहा था, तभी
कानों से पापा का स्वर टकराया, “मुन्ना, कुछ दिन तो तू भी रहेगा न मुंबई में। मेरा दिल लगा रहेगा और प्रतीक को भी
अच्छा लगेगा।”
पापा के स्वर की आर्द्रता पर तो
मेरा ध्यान गया नहीं, मन-ही-मन मैं खीझ उठा। कितनी बार समझाया है
पापा को कि मुझे ‘मुन्ना’ न कहा करें। ‘रजत’ पुकारा करें। अब मैं इतनी ऊंची पोस्ट
पर आसीन एक प्रशासनिक अधिकारी हूं। समाज में मेरा एक अलग रुतबा है। ऊंचा क़द है,
मान-सम्मान है। बगल की सीट पर बैठा व्यक्ति मुन्ना शब्द सुनकर मुझे
एक सामान्य-सा व्यक्ति समझ रहा होगा। मैं तनिक ज़ोर से बोला, “पापा, परसों मेरी गर्वनर के साथ मीटिंग है। मैं
मुंबई में कैसे रुक सकता हूं?” पापा के चेहरे पर निराशा की
बदलियां छा गईं। मैं उनसे कुछ कहता, तभी मेरा मोबाइल बज उठा।
रितु का फोन था। भर्राए स्वर में वह कह रही थी, “पापा ठीक से
बैठ गए न।”
“हां हां बैठ गए हैं। गाड़ी भी चल
पड़ी है।” “देखो, पापा
का ख़्याल रखना। रात में मेडिसिन दे देना। भाभी को भी सब अच्छी तरह समझाकर आना।
पापा को वहां कोई तकलीफ़ नहीं होनी चाहिए।”
“नहीं होगी।” मैंने फोन काट दिया।
“रितु का फोन था न। मेरी चिंता कर रही होगी।”
पापा के चेहरे पर वात्सल्य उमड़ आया
था। रात में खाना खाकर पापा सो गए। थोड़ी देर में गाड़ी कोटा स्टेशन पर रुकी और
यात्रियों के शोरगुल से हड़कंप-सा मच गया। तभी कंपार्टमेंट का दरवाज़ा खोलकर जो
व्यक्ति अंदर आया, उसे देख मुझे बेहद आश्चर्य हुआ। मैं तो सोच
भी नहीं सकता था कि रमाशंकर से इस तरह ट्रेन में मुलाक़ात होगी।
एक समय रमाशंकर मेरा पड़ोसी और
सहपाठी था। हम दोनों के बीच मित्रता कम और नंबरों को लेकर प्रतिस्पर्धा अधिक रहती
थी। हम दोनों ही मेहनती और बुद्धिमान थे, किंतु न जाने क्या बात थी
कि मैं चाहे कितना भी परिश्रम क्यों न कर लूं, बाज़ी सदैव
रमाशंकर के हाथ लगती थी। शायद मेरी ही एकाग्रता में कमी थी। कुछ समय पश्चात् पापा
ने शहर के पॉश एरिया में मकान बनवा लिया। मैंने कॉलेज चेंज कर लिया और इस तरह
रमाशंकर और मेरा साथ छूट गया।
दो माह पूर्व एक सुबह मैं अपने ऑफिस
पहुंचा। कॉरिडोर में मुझसे मिलने के लिए काफ़ी लोग बैठे हुए थे। बिना उनकी ओर नज़र
उठाए मैं अपने केबिन की ओर बढ़ रहा था। यकायक एक व्यक्ति मेरे सम्मुख आया और
प्रसन्नता के अतिरेक में मेरे गले लग गया, “रजत यार, तू कितना बड़ा आदमी बन गया। पहचाना मुझे? मैं रमाशंकर।”
मैं सकपका गया। फीकी-सी मुस्कुराहट मेरे चेहरे पर आकर विलुप्त हो गई। इतने लोगों
के सम्मुख़ उसका अनौपचारिक व्यवहार मुझे ख़ल रहा था। वह भी शायद मेरे मनोभावों को
ताड़ गया था, तभी तो एक लंबी प्रतीक्षा के उपरांत जब वह मेरे
केबिन में दाख़िल हुआ, तो समझ चुका था कि वह अपने सहपाठी से
नहीं, बल्कि एक प्रशासनिक अधिकारी से मिल रहा था। उसका मुझे
‘सर’ कहना मेरे अहं को संतुष्ट कर गया। यह जानकर कि वह बिजली विभाग में महज़ एक
क्लर्क है, जो मेरे समक्ष अपना तबादला रुकवाने की गुज़ारिश
लेकर आया है, मेरा सीना अभिमान से चौड़ा हो गया। कॉलेज के
प्रिंसिपल और टीचर्स तो क्या, मेरे सभी कलीग्स भी यही कहते
थे कि एक दिन रमाशंकर बहुत बड़ा आदमी बनेगा। हुंह, आज मैं
कहां से कहां पहुंच गया और वह…
पिछली स्मृतियों को पीछे धकेल मैं
वर्तमान में पहुंचा तो देखा, रमाशंकर ने अपनी वृद्ध मां को साइड की
सीट पर लिटा दिया और स्वयं उनके क़रीब बैठ गया। एक उड़ती सी नज़र उस पर डाल मैंने
अख़बार पर आंखें गड़ा दीं। तभी रमाशंकर बोला, “नमस्ते सर,
मैंने तो देखा ही नहीं कि आप बैठे हैं।” मैंने नम्र स्वर में पूछा, “कैसे हो रमाशंकर?”
“ठीक हूं सर।”
“कोटा कैसे आना हुआ?”
“छोटी बुआ की बेटी की शादी में आया
था। अब मुंबई जा रहा हूं। शायद आपको याद हो, मेरा एक छोटा भाई था।”
“छोटा भाई, हां
याद आया, क्या नाम था उसका?” मैंने
स्मृति पर ज़ोर डालने का उपक्रम किया जबकि मुझे अच्छी तरह याद था कि उसका नाम देवेश
था।
“सर, आप इतने ऊंचे पद पर
हैं। आए दिन हज़ारों लोगों से मिलते हैं। आपको कहां याद होगा? देवेश नाम है उसका सर।”
पता नहीं उसने मुझ पर व्यंग्य किया
था या साधारण रूप से कहा था, फिर भी मेरी गर्दन कुछ तन-सी गई। उस पर एहसान-सा लादते हुए मैं बोला,“देखो रमाशंकर, यह मेरा ऑफिस नहीं है, इसलिए सर कहना बंद करो और मुझे मेरे नाम से पुकारो। हां तो तुम क्या बता
रहे थे, देवेश मुंबई में है?”
“हां रजत, उसने
वहां मकान ख़रीदा है। दो दिन पश्चात् उसका गृह प्रवेश है।
चार-पांच दिन वहां रहकर मैं और
अम्मा दिल्ली लौट आएंगे।”
“इस उम्र में इन्हें इतना घुमा रहे
हो?” “अम्मा की आने की बहुत इच्छा थी।
इंसान की उम्र भले ही बढ़ जाए, इच्छाएं तो नहीं मरतीं न।”
“हां, यह तो है। पिताजी
कैसे हैं?”
“पिताजी का दो वर्ष पूर्व स्वर्गवास
हो गया था। अम्मा यह दुख झेल नहीं पाईं और उन्हें हार्टअटैक आ गया था, बस
तभी से वह बीमार रहती हैं। अब तो अल्ज़ाइमर भी बढ़ गया है।”
“तब तो उन्हें संभालना मुश्किल होता
होगा। क्या करते हो? छह-छह महीने दोनों भाई रखते होंगे।” ऐसा
पूछकर मैं शायद अपने मन को तसल्ली दे रहा था। आशा के विपरीत रमाशंकर बोला, “नहीं-नहीं, मैं तो ऐसा सोच भी नहीं सकता। अम्मा शुरू से दिल्ली में रही हैं। उनका
कहीं और मन लगना मुश्किल है। मैं नहीं चाहता, इस उम्र में
उनकी स्थिति पेंडुलम जैसी हो जाए। कभी इधर, तो कभी उधर।
कितनी पीड़ा होगी उन्हें यह देखकर कि पिताजी के जाते ही उनका कोई घर ही नहीं रहा।
वह हम पर बोझ हैं।”
मैं मुस्कुराया, “रमाशंकर,
इंसान को थोड़ा व्यावहारिक भी होना चाहिए। जीवन में स़िर्फ भावुकता
से काम नहीं चलता है। अक्सर इंसान दायित्व उठाते-उठाते थक जाता है और तब ये विचार
मन को उद्वेलित करने लगते हैं कि अकेले हम ही क्यों मां-बाप की सेवा करें, दूसरा क्यों न करे।”
“पता नहीं रजत, मैं
ज़रा पुराने विचारों का इंसान हूं। मेरा तो यह मानना है कि हर इंसान की करनी उसके
साथ है। कोई भी काम मुश्क़िल तभी लगता है, जब उसे बोझ समझकर
किया जाए। मां-बाप क्या कभी अपने बच्चों को बोझ समझते हैं? आधे-अधूरे
कर्त्तव्यों में कभी आस्था नहीं होती रजत, मात्र औपचारिकता
होती है और सबसे बड़ी बात जाने-अनजाने हमारे कर्म ही तो संस्कार बनकर हमारे बच्चों
के द्वारा हमारे सम्मुख आते हैं। समय रहते यह छोटी-सी बात इंसान की समझ में आ जाए,
तो उसका बुढ़ापा भी संवर जाए।”
मुझे ऐसा लगा, मानो
रमाशंकर ने मेरे मुख पर तमाचा जड़ दिया हो। मैं नि:शब्द, मौन
सोने का उपक्रम करने लगा, किंतु नींद मेरी आंखों से अब कोसों
दूर हो चुकी थी। रमाशंकर की बातें मेरे दिलोदिमाग़ में हथौड़े बरसा रही थीं। इतने
वर्षों से संचित किया हुआ अभिमान पलभर में चूर-चूर हो गया था। प्रशासनिक परीक्षा
की तैयारी के लिए इतनी मोटी-मोटी किताबें पढ़ता रहा, किंतु
पापा के मन की संवेदनाओं को, उनके हृदय की पीड़ा को नहीं पढ़
सका। क्या इतना बड़ा मुक़ाम मैंने स़िर्फ अपनी मेहनत के बल पर पाया है। नहीं,
इसके पीछे पापा-मम्मी की वर्षों की तपस्या निहित है।
आख़िर उन्होंने ही तो मेरी आंखों को
सपने देखने सिखाए। जीवन में कुछ कर दिखाने की प्रेरणा दी। रात्रि में जब मैं देर
तक पढ़ता था, तो पापा भी मेरे साथ जागते थे कि कहीं मुझे नींद न आ जाए।
मेरे इस लक्ष्य को हासिल करने में पापा हर क़दम पर मेरे साथ रहे और आज जब पापा को
मेरे साथ की ज़रूरत है, तो मैं व्यावहारिकता का सहारा ले रहा
हूं। दो वर्ष पूर्व की स्मृति मन पर दस्तक दे रही थी। सीवियर हार्टअटैक आने के बाद
मम्मी बीमार रहने लगी थीं।
एक शाम ऑफिस से लौटकर मैं
पापा-मम्मी के बेडरूम में जा रहा था, तभी अंदर से आती आवाज़ से
मेरे पांव ठिठक गए। मम्मी पापा से कह रही थीं, “इस दुनिया
में जो आया है, वह जाएगा भी। कोई पहले, तो कोई बाद में। इतने इंटैलेक्चुअल होते हुए भी आप इस सच्चाई से मुंह
मोड़ना चाह रहे हैं।”
“मैं क्या करूं पूजा? तुम्हारे
बिना अपने अस्तित्व की कल्पना भी मेरे लिए कठिन है। कभी सोचा है तुमने कि तुम्हारे
बाद मेरा क्या होगा?” पापा का कंठ अवरुद्ध हो गया था,
किंतु मम्मी तनिक भी विचलित नहीं हुईं और शांत स्वर में बोलीं थीं,
“आपकी तरफ़ से तो मैं पूरी तरह से निश्चिंत हूं। रजत और रितु आपका
बहुत ख़्याल रखेंगे, यह एक मां के अंतर्मन की आवाज़ है,
उसका विश्वास है जो कभी ग़लत नहीं हो सकता।”
इस घटना के पांच दिन बाद ही मम्मी
चली गईं थीं। कितने टूट गए थे पापा। बिल्कुल अकेले पड़ गए थे। उनके अकेलेपन की पीड़ा
को मुझसे अधिक मेरी पत्नी रितु ने समझा। यूं भी वह पापा के दोस्त की बेटी थी और
बचपन से पापा से दिल से जुड़ी हुई थी। उसने कभी नहीं चाहा, पापा
को अपने से दूर करना, किंतु मेरा मानना था कि कोरी भावुकता
में लिए गए फैसले अक्सर ग़लत साबित होते हैं। इंसान को प्रैक्टिकल अप्रोच से काम
लेना चाहिए। अकेले मैं ही क्यों पापा का दायित्व उठाऊं? दोनों
बड़े भाई क्यों न उठाएं? जबकि पापा ने तीनों को बराबर का
स्नेह दिया, पढ़ाया, लिखाया, तो दायित्व भी तीनों का बराबर है। छह माह बाद मम्मी की बरसी पर यह जानते
हुए भी कि दोनों बड़े भाई पापा को अपने साथ रखना नहीं चाहते, मैंने
यह फैसला किया था कि हम तीनों बेटे चार-चार माह पापा को रखेंगे। पापा को जब इस बात
का पता चला, तो कितनी बेबसी उभर आई थी उनके चेहरे पर। चेहरे
की झुर्रियां और गहरा गई थीं। उम्र मानो 10 वर्ष आगे सरक गई थी। सारी उम्र पापा की
दिल्ली में गुज़री थी। सभी दोस्त और रिश्तेदार यहीं पर थे, जिनके
सहारे उनका व़क्त कुछ अच्छा बीत सकता था, किंतु… सोचते-सोचते
मैंने एक गहरी सांस ली।
आंखों से बह रहे पश्चाताप के आंसू
पूरी रात मेरा तकिया भिगोते रहे। उफ्… यह क्या कर दिया मैंने। पापा को तो असहनीय
पीड़ा पहुंचाई ही, मम्मी के विश्वास को भी खंडित कर दिया। आज
वह जहां कहीं भी होंगी, पापा की स्थिति पर उनकी आत्मा कलप
रही होगी। क्या वह कभी मुझे क्षमा कर पाएंगी? रात में कई बार
अम्मा का रमाशंकर को आवाज़ देना और हर बार उसका चेहरे पर बिना शिकन लाए उठना,
मुझे आत्मविश्लेषण के लिए बाध्य कर रहा था। उसे देख मुझे एहसास हो
रहा था कि इंसानियत और बड़प्पन हैसियत की मोहताज नहीं होती। वह तो दिल में होती है।
अचानक मुझे एहसास हुआ, मेरे और रमाशंकर के बीच आज भी प्रतिस्पर्धा
जारी है। इंसानियत की प्रतिस्पर्धा, जिसमें आज भी वह मुझसे
बाज़ी मार ले गया था। पद भले ही मेरा बड़ा था, किंतु रमाशंकर
का क़द मुझसे बहुत ऊंचा था।
गाड़ी मुंबई सेंट्रल पर रुकी, तो
मैं रमाशंकर के क़रीब पहुंचा। उसके दोनों हाथ थाम मैं भावुक स्वर में बोला,
“रमाशंकर मेरे दोस्त, चलता हूं। यह सफ़र सारी
ज़िंदगी मुझे याद रहेगा।” कहने के साथ ही मैंने उसे गले लगा लिया।
आश्चर्यमिश्रित ख़ुशी से वह मुझे
देख रहा था। मैं बोला, “वादा करो, अपनी
फैमिली को लेकर मेरे घर अवश्य आओगे।”
“आऊंगा क्यों नहीं, आखिऱ
इतने वर्षों बाद मुझे मेरा दोस्त मिला है।” ख़ुशी से उसकी आवाज़ कांप रही थी। अटैची
उठाए पापा के साथ मैं नीचे उतर गया। स्टेशन के बाहर मैंने टैक्सी पकड़ी और ड्राइवर
से एयरपोर्ट चलने को कहा। पापा हैरत से बोले, “एयरपोर्ट
क्यों?” भावुक होकर मैं पापा के गले लग गया और रुंधे कंठ से
बोला, “पापा, मुझे माफ़ कर दीजिए। हम
वापिस दिल्ली जा रहे हैं। अब आप हमेशा वहीं अपने घर में रहेंगे।” पापा की आंखें नम
हो उठीं और चेहरा खुशी से खिल उठा।
“जुग जुग जिओ मेरे बच्चे।” वह
बुदबुदाए। कुछ पल के लिए उन्होंन अपनी आंखें बंद कर लीं, फिर
चेहरा उठाकर आकाश की ओर देखा। मुझे ऐसा लगा मानो वह मम्मी से कह रहे हों, देर से ही सही, तुम्हारा विश्वास सही निकला।
सुमंगलं
सुस्वागतं
आप किस राह पर हैं,??
रजत या रमाशंकर
विचारणीय 🤔
👉 अटूट श्रद्धा गुरू भक्ती का प्रतीक
गुरु को केवल तत्त्व मानकर उनकी देह
का अनादर करेंगे तो हम निगुरे रह जायेंगे। जिस देह में वह तत्व प्रकट होता है, वह
देह भी चिन्मय, आनंदस्वरूप हो जाती है।
समर्थ रामदास का आनंद नाम का एक
शिष्य था। वे उसको बहुत प्यार करते थे। यह देखकर अन्य शिष्यों को ईर्ष्या होने
लगी। वे सोचतेः "हम भी शिष्य हैं, हम भी गुरुदेव की सेवा
करते हैं फिर भी गुरुदेव हमसे ज्यादा आनन्द को प्यार करते हैं।"
ईर्ष्यालु शिष्यों को सीख देने के
लिए एक बार समर्थ रामदास ने एक युक्ति की। अपने पैर में एक कच्चा आम बाँधकर ऊपर
कपड़े की पट्टी बाँध दी। फिर पीड़ा से चिल्लाने लगेः "पैर में फोड़ा निकला है।।।।
बहुत पीड़ा करता है।।। आह।।।! ऊह।।।!"
कुछ दिनों में आम पक गया और उसका
पीला रस बहने लगा। गुरुजी पीड़ा से ज्यादा कराहने लगे। उन्होंने सब शिष्यों को
बुलाकर कहाः "अब फोड़ा पक गया है, फट गया है। इसमें से मवाद
निकल रहा है। मैं पीड़ा से मरा जा रहा हूँ। कोई मेरी सेवा करो। यह फोड़ा कोई अपने
मुँह से चूस ले तो पीड़ा मिट सकती है।"
सब शिष्य एक-दूसरे का मुँह ताकने
लगे। बहाने बना-बनाकर सब एक-एक करके खिसकने लगे। शिष्य आनंद को पता चला। वह तुरन्त
आया और गुरुदेव के पैर को अपना मुँह लगाकर फोड़े का मवाद चूसने लगा।
गुरुदेव का हृदय भर आया। वे बोलेः
"बस।।।। आनंद ! बस मेरी पीड़ा चली गयी।"
मगर आनंद ने कहाः "गुरुजी !
ऐसा माल मिल रहा है फिर छोड़ूँ कैसे?" ईर्ष्या करने वाले
शिष्यों के चेहरे फीके पड़ गये।
बाहर से फोड़ा दिखते हुए भी भीतर तो
आम का रस था।
ऐसे ही बाहर से अस्थि-मांसमय
दिखनेवाले गुरुदेव के शरीर में आत्मा का रस टपकता है। महावीर स्वामी के समक्ष
बैठने वालों को पता था कि क्या टपकता है महावीर के सान्निध्य में बैठने से। संत
कबीरजी के इर्द-गिर्द बैठनेवालों को पता था, श्रीकृष्ण के साथ खेलने
वाले ग्वालों और गोपियों को पता था कि उनके सान्निध्य में क्या बरसता है।
अभी तो विज्ञान भी साबित करता है कि
हर व्यक्ति के स्पंदन उसके इर्द-गिर्द फैले रहते हैं। लोभी और क्रोधी के
इर्द-गिर्द राजसी-तामसी स्पंदन फैले रहते हैं और संत-महापुरुषों के इर्द-गिर्द
आनंद-शांति के स्पंदन फैले रहते हैं।
👉 एक ओंकार सतनाम
नानक एक मुसलमान नवाब के घर मेहमान
थे। नानक को क्या हिंदू क्या मुसलमान! जो ज्ञानी है, उसके लिए कोई
संप्रदाय की सीमा नहीं। उस नवाब ने नानक को कहा कि अगर तुम सच ही कहते हो कि न कोई
हिंदू न कोई मुसलमान, तो आज शुक्रवार का दिन है, हमारे साथ नमाज पढ़ने चलो। नानक राजी हो गए। पर उन्होंने कहा कि अगर तुम
नमाज पढ़ोगे तो हम भी पढ़ेंगे। नवाब ने कहा, यह भी कोई शर्त की
बात हुई? हम पढ़ने जा ही रहे हैं।
पूरा गांव इकट्ठा हो गया।
मुसलमान-हिंदू सब इकट्ठे हो गए। हिंदुओं में तहलका मच गया। नानक के घर के लोग भी
पहुंच गए कि यह क्या कर रहे हो? लोगों को लगा कि नानक मुसलमान होने जा
रहे हैं। लोग अपने भय से ही दूसरों को भी तौलते हैं।
नानक मस्जिद गए। नमाज पढ़ी गई। नवाब
बहुत नाराज हुआ। बीच-बीच में लौट-लौट कर देखता था कि नानक न तो झुके, न
नमाज पढ़ी। बस खड़े हैं। जल्दी-जल्दी नमाज पूरी की, क्योंकि
क्रोध में कहीं नमाज हो सकती है! करके किसी तरह पूरी, नानक
पर लोग टूट पड़े। और उन्होंने कहा, तुम धोखेबाज हो। कैसे साधु,
कैसे संत! तुमने वचन दिया नमाज पढ़ने का और तुमने की नहीं।
नानक ने कहा, वचन
दिया था, शर्त आप भूल गए। कहा था कि अगर आप नमाज पढ़ोगे तो
मैं पढूंगा। आपने नहीं पढ़ी तो मैं कैसे पढ़ता?
नवाब ने कहा, क्या
कह रहे हो? होश में हो? इतने लोग गवाह
हैं कि हम नमाज पढ़ रहे थे।
नानक ने कहा, इनकी
गवाही मैं नहीं मानता, क्योंकि मैं आपको देख रहा था भीतर
क्या चल रहा है। आप काबुल में घोड़े खरीद रहे थे।
नवाब थोड़ा हैरान हुआ; क्योंकि
खरीद वह घोड़े ही रहा था। उसका अच्छे से अच्छा घोड़ा मर गया था उसी दिन सुबह। वह उसी
की पीड़ा से भरा था। नमाज क्या खाक! वह यही सोच रहा था कि कैसे काबुल जाऊं, कैसे बढ़िया घोड़ा खरीदूं, क्योंकि वह घोड़ा बड़ी शान थी,
इज्जत थी।
और नानक ने कहा, यह
जो मौलवी है तुम्हारा, जो पढ़वा रहा था नमाज, यह खेत में अपनी फसल काट रहा था।
और यह बात सच थी। मौलवी ने भी कहा
कि बात तो यह सच है। फसल पक गयी है और काटने का दिन आ गया है, गांव
में मजदूर नहीं मिल रहे हैं और चिंता मन पर सवार है।
तो नानक ने कहा, अब
तुम बोलो, तुमने नमाज पढ़ी जो मैं साथ दूं?
एक ओंकार सतनाम🙏
👉 चरित्र-रक्षा के लिये बलिदान
राजनर्तकी मुदाल के सौंदर्य की
ख्याति पूर्णमासी के चन्द्रमा की तरह सारे उरु प्रदेश में फैली हुई थी। उसे पाने
के लिए राजधानी के बड़े-बड़े सामंतों, विद्वानों, प्रचारकों तथा राज घराने तक के लोगों में कुचक्र चल रहा था। ठीक उसी समय
मुदाल अपने बिस्तर पर लेटी अपने और राष्ट्र के भविष्य पर विचार कर रही थी।
देश के कर्णधार मार्गदर्शक और
प्रभावशाली लोग ही चरित्र भ्रष्ट हो गये तो फिर सामान्य प्रजा का क्या होगा ? अभी
वह इस चिन्ता में डूबी थी कि किसी ने द्वार पर दस्तक दी- मुदाल ने दरवाजा खोला तो
सामने खड़े महाराज करुष को देखते ही स्तम्भित रह गई। इस समय आने का कारण महाराज! न
चाहते हुए भी मुदाल को प्रश्न करना पड़ा।
बड़ा विद्रूप उत्तर मिला- मुदाल!
तुम्हारे रूप और सौंदर्य पर सारा उरु प्रदेश मुग्ध है। त्यागी, तपस्वी
तुम्हारे लिए सर्वस्व न्यौछावर कर सकते हैं, फिर मेरे ही
यहाँ आने का कारण क्यों पूछती हो भद्रे!
महाराज! सामान्य प्रजा की बात आप
छोड़िये। आप इस देश के कर्णधार है, प्रजा मार्ग भ्रष्ट हो
जाये तो उसे सुधारा भी जा सकता है पर यदि समाज के शीर्षस्थ लोग ही चरित्र भ्रष्ट
हो जाये तो वह देश खोखला हो जाता है, ऐसे देश, ऐसी जातियाँ अपने अस्तित्व की रक्षा भी नहीं कर पाती महाराज! इसीलिये आपका
इस समय यहाँ आना, अशोभनीय ही नहीं, सामाजिक
अपराध भी है।
किसी ने सच कहा है अधिकार और अहंकार
मनुष्य के दो प्रबल शत्रु है। वह जिस अन्तः करण में प्रवेश कर जाते हैं उसमें उचित
और अनुचित के विचार की शक्ति भी नहीं रह पाती। मुदाल के यह सीधे-साधे शब्द करुष को
बाण की तरह चुभे। वे तड़प कर बोले- मुदाल हम तुम्हारा उपदेश सुनने नहीं आये, तुम
एक नर्तकी हो और शरीर का सौदा तुम्हारा धर्म है। कीमत माँग सकती हो, धर्म क्या है, अधर्म क्या है ? यह सोचना तुम्हारा काम नहीं है।
नर्तकी भर होते तब तो आपका कथन सत्य
था महाराज! मुदाल की गंभीरता अब दृढ़ता और वीरोचित स्वाभिमान में बदल रही थी -
किन्तु हम मनुष्य भी है और मनुष्य होने के नाते समाज के हित, अहित
की बात सोचना भी हमारा धर्म है। हम सत्ता को दलित करके अपने देशवासियों को
मार्ग-भ्रष्ट करने का पाप अपने सिर कदापि नहीं ले सकते।
स्थिति बिगड़ते देखकर महाराज करुष
ने बात का रुख बदल दिया। पर वे अब भी इस बात को तैयार नहीं थे कि साधारण नर्तकी
उनकी वासना का दमन कर जाये और मुदाल का कहना था कि विचारशील और सत्तारूढ़ का पाप
सारे समाज को पापी बना देता है। इसलिये चरित्र को वैभव के सामने झुकाया नहीं जा
सकता। मुदाल ने बहुत समझाया पर महाराज का रौद्र कम न हुआ। स्थिति अनियंत्रित होते
देखकर मुदाल ने कहा- महाराज यदि आप साधिकार चेष्टा करना ही चाहते हैं तो तीन दिन
और रुके,
मैं रजोदर्शन की स्थिति में हूँ आज से चौथे दिन आप मुझे “चैत्य
सरोवर” के समीप मिलें, आपको यह शरीर वही समर्पित होगा।
तीन दिन करुष ने किस तरह बिताये यह
वही जानते होगे। चौथे दिन चन्द्रमा के शीतल प्रकाश में अगणित उपहारों के साथ
महाराज करुष जब चैत्य विहार पहुँचे तो वहाँ जाकर उन्होंने जो कुछ देखा उससे उनकी
तृष्णा और कामुकता स्तब्ध रह गई। मुदाल का शरीर तो वहां उपस्थित था पर उसमें जीवन
नहीं था। एक पत्र पास ही पड़ा हुआ था - सौंदर्य राष्ट्र के चरित्र से बढ़कर नहीं
चरित्र की रक्षा के लिये यदि सौंदर्य का बलिदान किया जा सकता है तो उसके लिए मैं
सहर्ष प्रस्तुत हूँ शव देखने से लगता था मुदाल ने विषपान कर लिया है।
मुदाल के बलिदान ने करुष की आंखें
खोल दी। उस दिन से वे आत्म-सौंदर्य की साधना में लग गये।
📖 अखण्ड ज्योति 1971 फरवरी पृष्ठ 44
👉 संस्कार
सन्तोष मिश्रा जी के यहाँ पहला लड़का
हुआ तो पत्नी ने कहा, "बच्चे को गुरुकुल में शिक्षा दिलवाते
है, मैं सोच रही हूँ कि गुरुकुल में शिक्षा देकर उसे धर्म
ज्ञाता पंडित योगी बनाऊंगी।"
सन्तोष जी ने पत्नी से कहा, "पाण्डित्य पूर्ण योगी बना कर इसे भूखा मारना है क्या!! मैं इसे बड़ा अफसर
बनाऊंगा ताकि दुनिया में एक कामयाबी वाला इंसान बने।।"
संतोष जी सरकारी बैंक में मैनेजर के
पद पर थे! पत्नी धार्मिक थी और इच्छा थी कि बेटा पाण्डित्य पूर्ण योगी बने, लेकिन
सन्तोष जी नहीं माने।
दूसरा लड़का हुआ पत्नी ने जिद की, सन्तोष
जी इस बार भी ना माने, तीसरा लड़का हुआ पत्नी ने फिर जिद की,
लेकिन सन्तोष जी एक ही रट लगाते रहे, "कहां
से खाएगा, कैसे गुजारा करेगा, और नही
माने।"
चौथा लड़का हुआ, इस
बार पत्नी की जिद के आगे सन्तोष जी हार गए, और अंततः
उन्होंने गुरुकुल में शिक्षा दीक्षा दिलवाने के लिए वही भेज ही दिया।
अब धीरे धीरे समय का चक्र घूमा, अब
वो दिन आ गया जब बच्चे अपने पैरों पे मजबूती से खड़े हो गए, पहले
तीनों लड़कों ने मेहनत करके सरकारी नौकरियां हासिल कर ली, पहला
डॉक्टर, दूसरा बैंक मैनेजर, तीसरा एक
गोवरमेंट कंपनी मेें जॉब करने लगा।
एक दिन की बात है सन्तोष जी पत्नी से बोले, "अरे
भाग्यवान! देखा, मेरे तीनो होनहार बेटे सरकारी पदों पे हो गए
न, अच्छी कमाई भी कर रहे है, तीनो की
जिंदगी तो अब सेट हो गयी, कोई चिंता नही रहेगी अब इन तीनो
को। लेकिन अफसोस मेरा सबसे छोटा बेटा गुुुरुकुल का आचार्य बन कर घर घर यज्ञ करवा
रहा है, प्रवचन कर रहा है! जितना वह छ: महीने में कमाएगा
उतना मेरा एक बेटा एक महीने में कमा लेगा, अरे भाग्यवान!
तुमने अपनी मर्जी करवा कर बड़ी गलती की, तुम्हे भी आज इस पर
पश्चाताप होता होगा, मुझे मालूम है, लेकिन
तुम बोलती नही हो"।
पत्नी ने कहा, "हम मे से कोई एक गलत है, और ये आज दूध का दूध पानी
का पानी हो जाना चाहिए, चलो अब हम परीक्षा ले लेते है चारों
की, कौन गलत है कौन सही पता चल जाएगा।।"
दूसरे दिन शाम के वक्त पत्नी ने बाल
बिखरा,
अपनी साड़ी का पल्लू फाड़ कर और चेहरे पर एक दो नाखून के निशान मार कर
आंगन मे बैठ गई और पतिदेव को अंदर कमरे मे छिपा दिया ।।!!
बड़ा बेटा आया पूछा, "मम्मी क्या हुआ?"
माँ ने जवाब दिया, "तुम्हारे पापा ने मारा है!"
पहला बेटा :- "बुड्ढा, सठिया
गया है क्या ? कहां है ? बुलाओतो
जरा।।"
माँ ने कहा, "नही है , बाहर गए है!"
पहला बेटा - "आए तो मुझे बुला
लेना,
मैं कमरे मे हूँ, मेरा खाना निकाल दो मुझे भूख
लगी है!"
ये कहकर कमरे मे चला गया।
दूसरा बेटा आया पूछा तो माँ ने वही
जवाब दिया,
दूसरा बेटा : "क्या पगला गए है
इस बुढ़ापे मे, उनसे कहना चुपचाप अपनी बची खुची गुजार ले, आए तो मुझे बुला लेना और मैं खाना खाकर आया हूँ सोना है मुझे, अगर आये तो मुझे अभी मत जगाना, सुबह खबर लेता हूँ
उनकी।।",
ये कह कर वो भी अपने कमरे मे चला
गया।
तीसरा बेटा आया पूछा तो आगबबूला हो
गया,
"इस बुढ़ापे मे अपनी औलादो के हाथ से जूते खाने वाले काम कर
रहे है! इसने तो मर्यादा की सारी हदें पार कर दीं।"
यह कर वह भी अपने कमरे मे चला गया।।
संतोष जी अंदर बैठे बैठे सारी बाते
सुन रहे थे, ऐसा लग रहा था कि जैसे उनके पैरों के नीचे से जमीन खिसक
गई हो, और उसके आंसू नही रुक रहे थे, किस
तरह इन बच्चो के लिए दिन रात मेहनत करके पाला पोसा, उनको बड़ा
आदमी बनाया, जिसकी तमाम गलतियों को मैंने नजरअंदाज करके आगे
बढ़ाया! और ये ऐसा बर्ताव, अब तो बर्दाश्त ही नहीं हो रहा।।।।।
इतने मे चौथा बेटा घर मे ओम् ओम्
ओम् करते हुए अंदर आया।।
माँ को इस हाल मे देखा तो भागते हुए
आया,
पूछा, तो माँ ने अब गंदे गंदे शब्दो मे अपने
पति को बुरा भला कहा तो चौथे बेटे ने माँ का हाथ पकड़ कर समझाया कि "माँ आप
पिताजी की प्राण हो, वो आपके बिना अधूरे हैं,---अगर पिता जी ने आपको कुछ कह दिया तो क्या हुआ, मैंने
पिता जी को आज तक आपसे बत्तमीजी से बात करते हुए नही देखा, वो
आपसे हमेशा प्रेम से बाते करते थे, जिन्होंने इतनी सारी
खुशिया दी, आज नाराजगी से पेश आए तो क्या हुआ, हो सकता है आज उनको किसी बात को लेकर चिंता रही हो, हो
ना हो माँ ! आप से कही गलती जरूर हुई होगी, अरे माँ ! पिता
जी आपका कितना ख्याल रखते है, याद है न आपको, छ: साल पहले जब आपका स्वास्थ्य ठीक नही था, तो पिता जी ने कितने दिनों तक
आपकी सेवा कीे थी, वही भोजन बनाते थे, घर
का सारा काम करते थे, कपड़े धोते थे, तब
आपने फोन करके मुझे सूचना दी थी कि मैं संसार की सबसे भाग्यशाली औरत हूँ, तुम्हारे पिता जी मेरा बहुत ख्याल करते हैं।"
इतना सुनते ही बेटे को गले लगाकर
फफक फफक कर रोने लगी, सन्तोष जी आँखो मे आंसू लिए सामने खड़े थे।
"अब बताइये क्या कहेंगे आप
मेरे फैसले पर", पत्नी ने संतोष जी से पूछा।
सन्तोष जी ने तुरन्त अपने बेटे को
गले लगा लिया, !
सन्तोष जी की धर्मपत्नी ने कहा, "ये शिक्षा इंग्लिश मीडियम स्कूलो मे नही दी जाती। माँ-बाप से कैसे पेश आना
है, कैसे उनकी सेवा करनी है। ये तो गुरुकुल ही सिखा सकते हैं
जहाँ वेद गीता रामायण जैसे ग्रन्थ पढाये जाते हैैं संस्कार दिये जाते हैं।
अब सन्तोष जी को एहसास हुआ- जिन
बच्चो पर लाखो खर्च करके डिग्रीया दिलाई वे सब जाली निकले, असल
में ज्ञानी तो वो सब बच्चे है, जिन्होंने जमीन पर बैठ कर पढ़ा
है, मैं कितना बड़ा नासमझ था, फिर दिल
से एक आवाज निकलती है, काश मैंने चारो बेटो को गुरुकुल में
शिक्षा दीक्षा दी होती।
मातृमान पितृमान आचार्यावान् पुरुषो
वेद:।।
👉 राम का स्थान कहाँ?
एक सन्यासी घूमते-फिरते एक दुकान पर
आये,
दुकान मे अनेक छोटे-बड़े डिब्बे थे, सन्यासी के
मन में जिज्ञासा उतपन्न हुई, एक डिब्बे की ओर इशारा करते हुए
सन्यासी ने दुकानदार से पूछा, इसमे क्या है?
दुकानदारने कहा - इसमे नमक है ! सन्यासी
ने फिर पूछा, इसके पास वाले मे क्या है? दुकानदार
ने कहा, इसमे हल्दी है! इसी प्रकार सन्यासी पूछ्ते गए और
दुकानदार बतलाता रहा, अंत मे पीछे रखे डिब्बे का नंबर आया,
सन्यासी ने पूछा उस अंतिम डिब्बे मे क्या है? दुकानदार
बोला, उसमे राम-राम है!
सन्यासी ने हैरान होते हुये पूछा
राम राम?
भला यह राम-राम किस वस्तु का नाम है भाई? मैंने
तो इस नाम के किसी समान के बारे में कभी नहीं सुना। दुकानदार सन्यासी के भोलेपन पर
हंस कर बोला - महात्मन! और डिब्बों मे तो भिन्न-भिन्न वस्तुएं हैं, पर यह डिब्बा खाली है, हम खाली को खाली नही कहकर
राम-राम कहते हैं! संन्यासी की आंखें खुली की खुली रह गई !
जिस बात के लिये मैं दर दर भटक रहा
था, वो बात मुझे आज एक व्यपारी से समझ आ रही है। वो सन्यासी उस छोटे से किराने
के दुकानदार के चरणों में गिर पड़ा,,, ओह, तो खाली मे राम रहता है !
सत्य है भाई भरे हुए में राम को
स्थान कहाँ? (काम, क्रोध,लोभ,मोह, लालच, अभिमान, ईर्ष्या, द्वेष और भली- बुरी, सुख
दुख, की बातों से जब दिल-दिमाग भरा रहेगा तो उसमें ईश्वर का
वास कैसे होगा? राम यानी ईश्वर तो खाली याने साफ-सुथरे मन मे
ही निवास करता है!)
एक छोटी सी दुकान वाले ने सन्यासी
को बहुत बड़ी बात समझा दी थी! आज सन्यासी अपने आनंद में था।
👉 अच्छाई-बुराई :-
एक बार बुरी आत्माओं ने भगवान से
शिकायत की कि उनके साथ इतना बुरा व्यवहार क्यों किया जाता है, जबकी
अच्छी आत्माएँ इतने शानदार महल में रहती हैं और हम सब खंडहरों में, आखिर ये भेदभाव क्यों है, जबकि हम सब भी आप ही की
संतान हैं।
भगवान ने उन्हें समझाया- ”मैंने तो
सभी को एक जैसा ही बनाया पर तुम ही अपने कर्मो से बुरी आत्माएं बन गयीं। सो वैसा
ही तुम्हारा घर भी हो गया।“
भगवान के समझाने पर भी बुरी आत्माएँ
भेदभाव किये जाने की शिकायत करतीं रहीं और उदास होकर बैठ गयी।
इसपर भगवान ने कुछ देर सोचा और सभी
अच्छी-बुरी आत्माओं को बुलाया और बोले- “बुरी आत्माओं के अनुरोध पर मैंने एक
निर्णय लिया है, आज से तुम लोगों को रहने के लिए मैंने जो भी महल या
खँडहर दिए थे वो सब नष्ट हो जायेंगे, और अच्छी और बुरी
आत्माएं अपने अपने लिए दो अलग-अलग शहरों का निर्माण नए तरीके से स्वयं करेंगी।”
तभी एक आत्मा बोली- “ लेकिन इस
निर्माण के लिए हमें ईटें कहाँ से मिलेंगी?”
भगवान बोले- “जब पृथ्वी पर कोई
इंसान अच्छा या बुरा कर्म करेगा तो यहाँ पर उसके बदले में ईटें तैयार हो जाएंगी।
सभी ईटें मजबूती में एक सामान होंगी, अब ये तुम लोगों को तय
करना है कि तुम अच्छे कार्यों से बनने वाली ईंटें लोगे या बुरे कार्यों से बनने
वाली ईटें!”
बुरी आत्माओं ने सोचा, पृथ्वी
पर बुराई करने वाले अधिक लोग हैं इसलिए अगर उन्होंने बुरे कर्मों से बनने वाली
ईटें ले लीं तो एक विशाल शहर का निर्माण हो सकता है, और
उन्होंने भगवान से बुरे कर्मों से बनने वाली ईंटें मांग ली।
दोनों शहरों का निर्माण एक साथ शुरू
हुआ,
पर कुछ ही दिनों में बुरी आत्माओं का शहर वहाँ रूप लेने लगा,
उन्हें लगातार ईंटों के ढेर के ढेर मिलते जा रहे थे और उससे
उन्होंने एक शानदार महल बहुत जल्द बना भी लिया। वहीँ अच्छी आत्माओं का निर्माण
धीरे-धीरे चल रहा था, काफी दिन बीत जाने पर भी उनके शहर का
केवल एक ही हिस्सा बन पाया था।
कुछ दिन और ऐसे ही बीते, फिर
एक दिन अचानक एक अजीब सी घटना घटी। बुरी आत्माओं के शहर से ईटें गायब होने लगीं… दीवारों
से, छतों से, इमारतों की नीवों से,…
हर जगह से ईंटें गायब होने लगीं और देखते ही देखते उनका पूरा शहर खंडहर का रूप लेने लगा।
परेशान आत्माएं तुरंत भगवान के पास
भागीं और पुछा- “हे प्रभु! हमारे महल से अचानक ये ईटें क्यों गायब होने लगीं
…हमारा महल और शहर तो फिर से खंडहर बन गया?”
भगवान मुस्कुराये और बोले-
“ईटें गायब होने लगीं!! अच्छा! दरअसल जिन लोगों ने बुरे कर्म किए थे अब
वे उनका परिणाम भुगतने लगे हैं यानी अपने बुरे कर्मों से उबरने लगीं हैं उनके बुरे
कर्म और उनसे उपजी बुराइयाँ नष्ट होने लगे हैं। सो उनकी बुराइयों से बनी ईटें भी
नष्ट होने लगीं हैं। आखिर को जो आज बना है वह कल नष्ट भी होगा ही। अब किसकी आयु
कितनी होगी ये अलग बात है।“
इस तरह से बुरी आत्माओ ने अपना सिर
पकड़ लिया और सिर झुका के वहा से चली गई|
मित्रों! इस कहानी से हमें कई ज़रूरी
बातें सीखने को मिलती है, बुराई और उससे होने वाला फायदा बढता तो बहुत
तेजी से है। परंतु नष्ट भी उतनी ही तेजी से होता है।
वही सच्चाई और अच्छाई से चलने वाले
धीरे-धीरे आगे बढ़ते हैं पर उनकी सफलता स्थायी होती है। अतः हमें हमेशा सच्चाई की
बुनियाद पर अपने सफलता की इमारत खड़ी करनी चाहिए, झूठ और बुराई की
बुनियाद पर तो बस खंडहर ही बनाये जा सकते हैं।
👉 पुण्य की कमाई
" टिकट कहाँ है ? " -- टी सी ने बर्थ के नीचे छिपी लगभग तेरह - चौदह साल की लडकी से पूछा।"
नहीं है साहब।
"काँपती हुई हाथ जोड़े लडकी
बोली।
"तो गाड़ी से उतरो।" टी
सी ने कहा।
इसका टिकट मैं दे रहीं हूँ।।।।।।।।।।।।।पीछे
से ऊषा भट्टाचार्य की आवाज आई जो पेशे से प्रोफेसर थी ।
"तुम्हें कहाँ जाना है ?" लड़की से पूछा" पता नहीं मैम ! "" तब मेरे साथ चल बैंगलोर
तक ! ""
तुम्हारा नाम क्या है ? "" चित्रा
"बैंगलोर पहुँच कर ऊषाजी ने
चित्रा को अपनी एक पहचान के स्वंयसेवी संस्थान को सौंप दिया । और अच्छे स्कूल में
एडमीशन करवा दिया। जल्द ही ऊषा जी का ट्रांसफर दिल्ली होने की वजह से चित्रा से
कभी-कभार फोन पर बात हो जाया करती थी ।करीब बीस साल बाद ऊषाजी को एक लेक्चर के लिए
सेन फ्रांसिस्को (अमरीका) बुलाया गया । लेक्चर के बाद जब वह होटल का बिल देने
रिसेप्सन पर गई तो पता चला पीछे खड़े एक खूबसूरत दंपत्ति ने बिल भर दिया
था।"तुमने मेरा बिल क्यों भरा ? ? ""
मैम, यह बम्बई से
बैंगलोर तक के रेल टिकट के सामने कुछ नहीं है ।
""अरे चित्रा ! ! ? ? ? । । । ।
चित्रा कोई और नहीं इंफोसिस
फाउंडेशन की चेयरमैन सुधा मुर्ति थी, एवं इंफोसिस के संस्थापक
श्री नारायण मूर्ति जी की पत्नी थी।
यह उन्ही की लिखी पुस्तक "द डे
आई स्टाॅप्ड ड्रिंकिंग मिल्क" से लिया गया कुछ अंश
कभी कभी आपके द्वारा भी की गई
सहायता किसी की जिन्दगी बदल सकती है।
👉 बुजुर्गों को समय चाहिए
छोटे ने कहा," भैया, दादी कई बार कह चुकी हैं कभी मुझे भी अपने साथ
होटल ले जाया करो।" गौरव बोला, " ले तो जायें पर
चार लोगों के खाने पर कितना खर्च होगा। याद है पिछली बार जब हम तीनों ने डिनर लिया
था , तब सोलह सौ का बिल आया था। हमारे पास अब इतने पैसे कहाँ
बचे हैं।" पिंकी ने बताया," मेरे पास पाकेटमनी के
कुछ पैसे बचे हुए हैं।" तीनों ने मिलकर तय किया कि इस बार दादी को भी लेकर
चलेंगे, पर इस बार मँहगी पनीर की सब्जी की जगह मिक्सवैज
मँगवायेंगे और आइसक्रीम भी नहीं खायेंगे।
छोटू, गौरव और पिंकी
तीनों दादी के कमरे में गये और बोले," दादी इस' संडे को लंच बाहर लेंगे, चलोगी हमारे साथ।"
दादी ने खुश होकर कहा," तुम ले चलोगे अपने साथ।"
" हाँ दादी " ।
संडे को दादी सुबह से ही बहुत खुश
थी। आज उन्होंने अपना सबसे बढिया वाला सूट पहना, हल्का सा मेकअप
किया, बालों को एक नये ढंग से बाँधा। आँखों पर सुनहरे
फ्रेमवाला नया चश्मा लगाया। यह चश्मा उनका मँझला बेटा बनवाकर दे गया था जब वह
पिछली बार लंदन से आया था। किन्तु वह उसे पहनती नहीं थी, कहती
थी, इतना सुन्दर फ्रेम है, पहनूँगी तो
पुराना हो जायेगा। आज दादी शीशे में खुद को अलग अलग एंगिल से कई बार देख चुकी थी
और संतुष्ट थी।
बच्चे दादी को बुलाने आये तो पिंकी
बोली,"
अरे वाह दादी, आज तो आप बडी क्यूट लग रही
हैं"। गौरव ने कहा," आज तो दादी ने गोल्डन फ्रेम
वाला चश्मा पहना है। क्या बात है दादी किसी ब्यायफ्रैंड को भी बुला रखा है क्या।"
दादी शर्माकर बोली, " धत। "
होटल में सैंटर की टेबल पर चारो बैठ
गए। थोडी देर बाद वेटर आया, बोला, " आर्डर
प्लीज "। अभी गौरव बोलने ही वाला था कि दादी बोली," आज आर्डर मैं करूँगी क्योंकि आज की स्पेशल गैस्ट मैं हूँ।" दादी ने
लिखवाया__ दालमखनी, कढाईपनीर, मलाईकोफ्ता, रायता वैजेटेबिल वाला, सलाद, पापड, नान बटरवाली और
मिस्सी रोटी। हाँ खाने से पहले चार सूप भी।
तीनों बच्चे एकदूसरे का मुँह देख
रहे थे। थोडी देरबाद खाना टेबल पर लग गया। खाना टेस्टी था, जब
सब खा चुके तो वेटर फिर आया, "डेजर्ट में कुछ सर"।
दादी ने कहा, " हाँ चार कप आइसक्रीम "। तीनों बच्चों की हालत खराब, अब क्या होगा, दादी को मना भी नहीं कर सकते पहली बार
आईं हैं।
बिल आया, इससे
पहले गौरव उसकी तरफ हाथ बढाता, बिल दादी ने उठा लिया और कहा,"
आज का पेमेंट मैं करूँगी। बच्चों मुझे तुम्हारे पर्स की नहीं,
तुम्हारे समय की आवश्यकता है, तुम्हारी कंपनी
की आवश्यकता है। मैं पूरा दिन अपने कमरे में अकेली पडे पडे बोर हो जाती हूँ। टी।वी।
भी कितना देखूँ, मोबाईल पर भी चैटिंग कितना करूँ। बोलो
बच्चों क्या अपना थोडा सा समय मुझे दोगे," कहते कहते
दादी की आवाज भर्रा गई।
पिंकी अपनी चेयर से उठी, उसने
दादी को अपनी बाँहों में भर लिया और फिर
दादी के गालों पर किस करते हुए बोली," मेरी प्यारी दादी
जरूर।" गौरव ने कहा, " यस दादी, हम प्रामिस करते हैं कि रोज आपके पास बैठा करेंगे और तय रहा कि हर महीने
के सैकंड संडे को लंच या डिनर के लिए बाहर आया करेंगे और पिक्चर भी देखा करेंगे।"
दादी के होठों पर 1000 वाट की
मुस्कुराहट तैर गई, आँखों में फ्लैशलाइट सी चमक आ गई और चेहरे
की झुर्रियाँ खुशी के कारण नृत्य सा करती महसूस होने लगीं।।।-
बूढ़े मां बाप रूई के गटठर समान होते
है, शुरू में उनका बोझ नहीं महसूस होता, लेकिन बढ़ती
उम्र के साथ रुई भीग कर बोझिल होने लगती है। बुजुर्ग समय चाहते हैं पैसा नही,
पैसा तो उन्होंने सारी जिंदगी आपके लिए कमाया-की बुढ़ापे में आप
उन्हें समय देंगे।
👉 चरित्र
नेल्सन मंडेला दक्षिण अफ्रीका के
राष्ट्रपति बनने के बाद, अपने सुरक्षा कर्मियों के साथ एक रेस्तरां
में खाना खाने गए। सबने अपनी अपनी पसंद के खाना का आर्डर दिया और खाना के आने का
इंतजार करने लगे।
उसी समय मंडेला की सीट के सामने एक
व्यक्ति भी अपने खाने आने का इंतजार कर रहा था। मंडेला ने अपने सुरक्षा कर्मी को
कहा उसे भी अपनी टेबल पर बुला लो। ऐसा ही हुआ, खाना आने के बाद सभी खाने
लगे, वो आदमी भी अपना खाना खाने लगा, पर
उसके हाथ खाते हुए कांप रहे थे।
खाना खत्म कर वो आदमी सिर झुका कर
होटल से निकल गया। उस आदमी के खाना खा के जाने के बाद मंडेला के सुरक्षा अधिकारी
ने मंडेला से कहा कि वो व्यक्ति शायद बहुत बीमार था, खाते वक़्त उसकी
हाथ लगातार कांप रहे थे और वह कांप भी रहा था।
मंडेला ने कहा नहीं ऐसा नहीं है। वह उस जेल का जेलर था, जिसमें
मुझे रखा गया था। कभी मुझे जब यातनाएं दी जाती और मै कराहते हुवे पानी मांगता तो
ये मेरे ऊपर पेशाब करता था।
मंडेला ने कहा मै अब राष्ट्रपति बन
गया हूं,
उसने समझा कि मै भी उसके साथ ऐसा ही व्यवहार करूंगा। पर मेरा यह
चरित्र नहीं है। मुझे लगता है बदले की भावना से काम करना विनाश की ओर ले जाता है।
वहीं धैर्य और सहिष्णुता की मानसिकता हमें विकास की ओर ले जाती है।
👉 प्रभु कृपा।।।।
रात नौ बजे लगभग अचानक मुझे एलर्जी
हो गई। घर पर दवाई नहीं, न ही इस समय मेरे अलावा घर में कोई और।
श्रीमती जी बच्चों के पास दिल्ली और हम रह गए अकेले।
ड्राईवर मित्र भी अपने घर जा चुका
था। बाहर हल्की बारिश की बूंदे सावन महीने के कारण बरस रही थी। दवा की दुकान
ज्यादा दूर नहीं थी पैदल भी जा सकता था लेकिन बारिश की वज़ह से मैंने रिक्शा लेना
उचित समझा।
बगल में राम मन्दिर बन रहा था। एक
रिक्शा वाला भगवान की प्रार्थना कर रहा था। मैंने उससे पूछा, "चलोगे?", तो उसने सहमति में सर हिलाया और बैठ
गए हम रिक्शा में!
रिक्शा वाला काफी़ बीमार लग रहा था
और उसकी आँखों में आँसू भी थे। मैंने पूछा, "क्या हुआ भैया! रो
क्यूँ रहे हो और तुम्हारी तबियत भी ठीक नहीं लग रही।"
उसने बताया, "बारिश की वजह से तीन दिन से सवारी नहीं मिली और वह भूखा है बदन दर्द भी कर
रहा है, अभी भगवान से प्रार्थना कर रहा था क़ि आज मुझे भोजन
दे दो, मेरे रिक्शे के लिए सवारी भेज दो"।
मैं बिना कुछ बोले रिक्शा रुकवाकर
दवा की दुकान पर चला गया।
वहां खड़े खड़े सोच रहा था।।।
"कहीं भगवान ने तो मुझे इसकी
मदद के लिए नहीं भेजा। क्योंकि यदि यही एलर्जी आधे घण्टे पहले उठती तो मैं ड्राइवर
से दवा मंगाता, रात को बाहर निकलने की मुझे कोई ज़रूरत भी नहीं थी,
और पानी न बरसता तो रिक्शे में भी न बैठता।"मन ही मन भगवांन को
याद किया और पूछ ही लिया भगवान से! मुझे बताइये क्या आपने रिक्शे वाले की मदद के
लिए भेजा है?"मन में जवाब मिला।।। "हाँ"।।।।
मैंने भगवान को धन्यवाद दिया, अपनी
दवाई के साथ रिक्शेवाले के लिए भी दवा ली।
बगल के रेस्तरां से छोले भटूरे पैक
करवाए और रिक्शे पर आकर बैठ गया। जिस मन्दिर के पास से रिक्शा लिया था वही पहुंचने
पर मैंने रिक्शा रोकने को कहा।
उसके हाथ में रिक्शे के 30 रुपये
दिए,
गर्म छोले भटूरे का पैकेट और दवा देकर बोला,"खाना खा कर यह दवा खा लेना, एक एक गोली ये दोनों
अभीऔर एक एक कल सुबह नाश्ते के बाद,उसके बाद मुझे आकर फिर
दिखा जाना।
रोते हुए रिक्शेवाला बोला, "मैंने तो भगवान से दो रोटी मांगी थी मग़र भगवान ने तो मुझे छोले भटूरे दे
दिए। कई महीनों से इसे खाने की इच्छा थी। आज भगवान ने मेरी प्रार्थना सुन ली।
और जो मन्दिर के पास उसका बन्दा
रहता था उसको मेरी मदद के लिए भेज दिया।"
कई बातें वह बोलता रहा और मैं
स्तब्ध हो सुनता रहा।
घर आकर सोचा क़ि उस रेस्तरां में
बहुत सारी चीज़े थीं, मैं कुछ और भी ले सकता था,
समोसा या खाने की थाली ।।
पर मैंने छोले भटूरे ही क्यों लिए?
क्या सच में भगवान ने मुझे रात को
अपने भक्त की मदद के लिए ही भेजा था।।?
हम जब किसी की मदद करने सही वक्त पर
पहुँचते हैं तो इसका मतलब उस व्यक्ति की प्रार्थना भगवान ने सुन ली, और
हमें अपना प्रतिनिधि बनाकर उसकी मदद के लिए भेज दिया।
👉 गायत्री निवास
बच्चों को स्कूल बस में बैठाकर वापस
आ शालू खिन्न मन से टैरेस पर जाकर बैठ गई। सुहावना मौसम, हल्के
बादल और पक्षियों का मधुर गान कुछ भी उसके मन को वह सुकून नहीं दे पा रहे थे,
जो वो अपने पिछले शहर के घर में छोड़ आई थी।
शालू की इधर-उधर दौड़ती सरसरी नज़रें
थोड़ी दूर एक पेड़ की ओट में खड़ी बुढ़िया पर ठहर गईं। ‘ओह! फिर वही बुढ़िया, क्यों
इस तरह से उसके घर की ओर ताकती है?’
शालू की उदासी बेचैनी में तब्दील हो
गई, मन में शंकाएं पनपने लगीं। इससे पहले भी शालू उस बुढ़िया को तीन-चार बार
नोटिस कर चुकी थी। दो महीने हो गए थे शालू को पूना से गुड़गांव शिफ्ट हुए, मगर अभी तक एडजस्ट नहीं हो पाई थी।
पति सुधीर का बड़े ही शॉर्ट नोटिस पर
तबादला हुआ था, वो तो आते ही अपने काम और ऑफ़िशियल टूर में व्यस्त हो गए।
छोटी शैली का तो पहली क्लास में आराम से एडमिशन हो गया, मगर
सोनू को बड़ी मुश्किल से पांचवीं क्लास के मिड सेशन में एडमिशन मिला। वो दोनों भी
धीरे-धीरे रूटीन में आ रहे थे, लेकिन शालू, उसकी स्थिति तो जड़ से उखाड़कर दूसरी ज़मीन पर रोपे गए पेड़ जैसी हो गई थी,
जो अभी भी नई ज़मीन नहीं पकड़ पा रहा था।
सब कुछ कितना सुव्यवस्थित चल रहा था
पूना में। उसकी अच्छी जॉब थी। घर संभालने के लिए अच्छी मेड थी, जिसके
भरोसे वह घर और रसोई छोड़कर सुकून से ऑफ़िस चली जाती थी। घर के पास ही बच्चों के लिए
एक अच्छा-सा डे केयर भी था। स्कूल के बाद दोनों बच्चे शाम को उसके ऑफ़िस से लौटने
तक वहीं रहते। लाइफ़ बिल्कुल सेट थी, मगर सुधीर के एक तबादले
की वजह से सब गड़बड़ हो गया।
यहां न आस-पास कोई अच्छा डे केयर है
और न ही कोई भरोसे लायक मेड ही मिल रही है। उसका केरियर तो चौपट ही समझो और इतनी
टेंशन के बीच ये विचित्र बुढ़िया। कहीं छुपकर घर की टोह तो नहीं ले रही? वैसे
भी इस इलाके में चोरी और फिरौती के लिए बच्चों का अपहरण कोई नई बात नहीं है।
सोचते-सोचते शालू परेशान हो उठी।
दो दिन बाद सुधीर टूर से वापस आए, तो
शालू ने उस बुढ़िया के बारे में बताया। सुधीर को भी कुछ चिंता हुई, “ठीक है, अगली बार कुछ ऐसा हो, तो
वॉचमैन को बोलना वो उसका ध्यान रखेगा, वरना फिर देखते हैं,
पुलिस कम्प्लेन कर सकते हैं।” कुछ दिन ऐसे ही गुज़र गए।
शालू का घर को दोबारा ढर्रे पर लाकर
नौकरी करने का संघर्ष जारी था, पर
इससे बाहर आने की कोई सूरत नज़र नहीं आ रही थी।
एक दिन सुबह शालू ने टैरेस से देखा, वॉचमैन
उस बुढ़िया के साथ उनके मेन गेट पर आया हुआ था। सुधीर उससे कुछ बात कर रहे थे। पास
से देखने पर उस बुढ़िया की सूरत कुछ जानी पहचानी-सी लग रही थी। शालू को लगा उसने यह
चेहरा कहीं और भी देखा है, मगर कुछ याद नहीं आ रहा था। बात
करके सुधीर घर के अंदर आ गए और वह बुढ़िया मेन गेट पर ही खड़ी रही।
“अरे, ये तो वही बुढ़िया
है, जिसके बारे में मैंने आपको बताया था। ये यहां क्यों आई
है?” शालू ने चिंतित स्वर में सुधीर से पूछा।
“बताऊंगा तो आश्चर्यचकित रह जाओगी।
जैसा तुम उसके बारे में सोच रही थी, वैसा कुछ भी नहीं है।
जानती हो वो कौन है?”
शालू का विस्मित चेहरा आगे की बात
सुनने को बेक़रार था।
“वो इस घर की पुरानी मालकिन हैं।”
“क्या? मगर
ये घर तो हमने मिस्टर शांतनु से ख़रीदा है।”
“ये लाचार बेबस बुढ़िया उसी शांतनु
की अभागी मां है, जिसने पहले धोखे से सब कुछ अपने नाम करा
लिया और फिर ये घर हमें बेचकर विदेश चला गया, अपनी बूढ़ी मां
गायत्री देवी को एक वृद्धाश्रम में छोड़कर।
छी… कितना कमीना इंसान है, देखने
में तो बड़ा शरीफ़ लग रहा था।”
सुधीर का चेहरा वितृष्णा से भर उठा।
वहीं शालू याद्दाश्त पर कुछ ज़ोर डाल रही थी।
“हां, याद आया। स्टोर रूम
की सफ़ाई करते हुए इस घर की पुरानी नेमप्लेट दिखी थी। उस पर ‘गायत्री निवास’ लिखा
था, वहीं एक राजसी ठाठ-बाटवाली महिला की एक पुरानी फ़ोटो भी
थी। उसका चेहरा ही इस बुढ़िया से मिलता था, तभी मुझे लगा था
कि इसे कहीं देखा है, मगर अब ये यहां क्यों आई हैं?
क्या घर वापस लेने? पर
हमने तो इसे पूरी क़ीमत देकर ख़रीदा है।” शालू चिंतित हो उठी।
“नहीं, नहीं।
आज इनके पति की पहली बरसी है। ये उस कमरे में दीया जलाकर प्रार्थना करना चाहती हैं,
जहां उन्होंने अंतिम सांस ली थी।”
“इससे क्या होगा, मुझे
तो इन बातों में कोई विश्वास नहीं।”
“तुम्हें न सही, उन्हें
तो है और अगर हमारी हां से उन्हें थोड़ी-सी ख़ुशी मिल जाती है, तो हमारा क्या घट जाएगा?”
“ठीक है, आप
उन्हें बुला लीजिए।” अनमने मन से ही सही, मगर शालू ने हां कर
दी।
गायत्री देवी अंदर आ गईं। क्षीण
काया,
तन पर पुरानी सूती धोती, बड़ी-बड़ी आंखों के
कोरों में कुछ जमे, कुछ पिघले से आंसू। अंदर आकर उन्होंने
सुधीर और शालू को ढेरों आशीर्वाद दिए।
नज़रें भर-भरकर उस पराये घर को देख
रही थीं,
जो कभी उनका अपना था। आंखों में कितनी स्मृतियां, कितने सुख और कितने ही दुख एक साथ तैर आए थे।
वो ऊपरवाले कमरे में गईं। कुछ देर
आंखें बंद कर बैठी रहीं। बंद आंखें लगातार रिस रही थीं।
फिर उन्होंने दिया जलाया, प्रार्थना
की और फिर वापस से दोनों को आशीर्वाद देते हुए कहने लगीं, “मैं
इस घर में दुल्हन बनकर आई थी। सोचा था, अर्थी पर ही जाऊंगी,
मगर…” स्वर भर्रा आया था।
“यही कमरा था मेरा। कितने साल
हंसी-ख़ुशी बिताए हैं यहां अपनों के साथ, मगर शांतनु के पिता के
जाते ही…” आंखें पुनः भर आईं।
शालू और सुधीर नि:शब्द बैठे रहे।
थोड़ी देर घर से जुड़ी बातें कर गायत्री देवी भारी क़दमों से उठीं और चलने लगीं।
पैर जैसे इस घर की चौखट छोड़ने को
तैयार ही न थे, पर जाना तो था ही। उनकी इस हालत को वो दोनों भी महसूस कर
रहे थे।
“आप ज़रा बैठिए, मैं
अभी आती हूं।” शालू गायत्री देवी को रोककर कमरे से बाहर चली गई और इशारे से सुधीर
को भी बाहर बुलाकर कहने लगी, “सुनिए, मुझे
एक बड़ा अच्छा आइडिया आया है, जिससे हमारी लाइफ़ भी सुधर जाएगी
और इनके टूटे दिल को भी आराम मिल जाएगा।
क्यों न हम इन्हें यहीं रख लें? अकेली
हैं, बेसहारा हैं और इस घर में इनकी जान बसी है। यहां से
कहीं जाएंगी भी नहीं और हम यहां वृद्धाश्रम से अच्छा ही खाने-पहनने को देंगे
उन्हें।”
“तुम्हारा मतलब है, नौकर
की तरह?”
“नहीं, नहीं।
नौकर की तरह नहीं। हम इन्हें कोई तनख़्वाह नहीं देंगे। काम के लिए तो मेड भी है। बस,
ये घर पर रहेंगी, तो घर के आदमी की तरह मेड पर,
आने-जानेवालों पर नज़र रख सकेंगी। बच्चों को देख-संभाल सकेंगी।
ये घर पर रहेंगी, तो
मैं भी आराम से नौकरी पर जा सकूंगी। मुझे भी पीछे से घर की, बच्चों
के खाने-पीने की टेंशन नहीं रहेगी।”
“आइडिया तो अच्छा है, पर
क्या ये मान जाएंगी?”
“क्यों नहीं। हम इन्हें उस घर में
रहने का मौक़ा दे रहे हैं, जिसमें उनके प्राण बसे हैं, जिसे ये छुप-छुपकर देखा करती हैं।”
“और अगर कहीं मालकिन बन घर पर अपना
हक़ जमाने लगीं तो?”
“तो क्या, निकाल
बाहर करेंगे। घर तो हमारे नाम ही है। ये बुढ़िया क्या कर सकती है।”
“ठीक है, तुम
बात करके देखो।” सुधीर ने सहमति जताई।
शालू ने संभलकर बोलना शुरू किया, “देखिए,
अगर आप चाहें, तो यहां रह सकती हैं।”
बुढ़िया की आंखें इस अप्रत्याशित
प्रस्ताव से चमक उठीं। क्या वाक़ई वो इस घर में रह सकती हैं, लेकिन
फिर बुझ गईं।
आज के ज़माने में जहां सगे बेटे ने
ही उन्हें घर से यह कहते हुए बेदख़ल कर दिया कि अकेले बड़े घर में रहने से अच्छा
उनके लिए वृद्धाश्रम में रहना होगा। वहां ये पराये लोग उसे बिना किसी स्वार्थ के
क्यों रखेंगे?
“नहीं, नहीं।
आपको नाहक ही परेशानी होगी।”
“परेशानी कैसी, इतना
बड़ा घर है और आपके रहने से हमें भी आराम हो जाएगा।”
हालांकि दुनियादारी के कटु अनुभवों
से गुज़र चुकी गायत्री देवी शालू की आंखों में छिपी मंशा समझ गईं, मगर
उस घर में रहने के मोह में वो मना न कर सकीं।
गायत्री देवी उनके साथ रहने आ गईं
और आते ही उनके सधे हुए अनुभवी हाथों ने घर की ज़िम्मेदारी बख़ूबी संभाल ली।
सभी उन्हें अम्मा कहकर ही बुलाते। हर काम उनकी निगरानी में
सुचारु रूप से चलने लगा।
घर की ज़िम्मेदारी से बेफ़िक्र होकर
शालू ने भी नौकरी ज्वॉइन कर ली। सालभर कैसे बीत गया, पता ही नहीं चला।
अम्मा सुबह दोनों बच्चों को उठातीं, तैयार
करतीं, मान-मनुहार कर खिलातीं और स्कूल बस तक छोड़तीं। फिर
किसी कुशल प्रबंधक की तरह अपनी देखरेख में बाई से सारा काम करातीं। रसोई का वो
स्वयं ख़ास ध्यान रखने लगीं, ख़ासकर बच्चों के स्कूल से आने के
व़क़्त वो नित नए स्वादिष्ट और पौष्टिक व्यंजन तैयार कर देतीं।
शालू भी हैरान थी कि जो बच्चे चिप्स
और पिज़्ज़ा के अलावा कुछ भी मन से न खाते थे, वे उनके बनाए व्यंजन
ख़ुशी-ख़ुशी खाने लगे थे।
बच्चे अम्मा से बेहद घुल-मिल गए थे।
उनकी कहानियों के लालच में कभी देर तक टीवी से चिपके रहनेवाले बच्चे उनकी हर बात
मानने लगे। समय से खाना-पीना और होमवर्क निपटाकर बिस्तर में पहुंच जाते।
अम्मा अपनी कहानियों से बच्चों में
एक ओर जहां अच्छे संस्कार डाल रही थीं, वहीं हर व़क़्त टीवी देखने
की बुरी आदत से भी दूर ले जा रही थीं।
शालू और सुधीर बच्चों में आए सुखद
परिवर्तन को देखकर अभिभूत थे, क्योंकि उन दोनों के पास तो कभी बच्चों
के पास बैठ बातें करने का भी समय नहीं होता था।
पहली बार शालू ने महसूस किया कि घर
में किसी बड़े-बुज़ुर्ग की उपस्थिति, नानी-दादी का प्यार,
बच्चों पर कितना सकारात्मक प्रभाव डालता है। उसके बच्चे तो शुरू से
ही इस सुख से वंचित रहे, क्योंकि उनके जन्म से पहले ही उनकी
नानी और दादी दोनों गुज़र चुकी थीं।
आज शालू का जन्मदिन था। सुधीर और
शालू ने ऑफ़िस से थोड़ा जल्दी निकलकर बाहर डिनर करने का प्लान बनाया था। सोचा था, बच्चों
को अम्मा संभाल लेंगी, मगर घर में घुसते ही दोनों हैरान रह
गए। बच्चों ने घर को गुब्बारों और झालरों से सजाया हुआ था।
वहीं अम्मा ने शालू की मनपसंद डिशेज़
और केक बनाए हुए थे। इस सरप्राइज़ बर्थडे पार्टी, बच्चों के उत्साह
और अम्मा की मेहनत से शालू अभिभूत हो उठी और उसकी आंखें भर आईं।
इस तरह के वीआईपी ट्रीटमेंट की उसे
आदत नहीं थी और इससे पहले बच्चों ने कभी उसके लिए ऐसा कुछ ख़ास किया भी नहीं था।
बच्चे दौड़कर शालू के पास आ गए और
जन्मदिन की बधाई देते हुए पूछा, “आपको हमारा सरप्राइज़ कैसा लगा?”
“बहुत अच्छा, इतना
अच्छा, इतना अच्छा… कि क्या बताऊं…” कहते हुए उसने बच्चों को
बांहों में भरकर चूम लिया।
“हमें पता था आपको अच्छा लगेगा।
अम्मा ने बताया कि बच्चों द्वारा किया गया छोटा-सा प्रयास भी मम्मी-पापा को बहुत
बड़ी ख़ुशी देता है, इसीलिए हमने आपको ख़ुशी देने के लिए ये सब
किया।”
शालू की आंखों में अम्मा के लिए
कृतज्ञता छा गई। बच्चों से ऐसा सुख तो उसे पहली बार ही मिला था और वो भी उन्हीं के
संस्कारों के कारण।
केक कटने के बाद गायत्री देवी ने
अपने पल्लू में बंधी लाल रुमाल में लिपटी एक चीज़ निकाली और शालू की ओर बढ़ा दी।
“ये क्या है अम्मा?”
“तुम्हारे जन्मदिन का उपहार।”
शालू ने खोलकर देखा तो रुमाल में
सोने की चेन थी।
वो चौंक पड़ी, “ये
तो सोने की मालूम होती है।”
“हां बेटी, सोने
की ही है। बहुत मन था कि तुम्हारे जन्मदिन पर तुम्हें कोई तोहफ़ा दूं। कुछ और तो
नहीं है मेरे पास, बस यही एक चेन है, जिसे
संभालकर रखा था। मैं अब इसका क्या करूंगी। तुम पहनना, तुम पर
बहुत अच्छी लगेगी।”
शालू की अंतरात्मा उसे कचोटने लगी।
जिसे उसने लाचार बुढ़िया समझकर स्वार्थ से तत्पर हो अपने यहां आश्रय दिया, उनका
इतना बड़ा दिल कि अपने पास बचे इकलौते स्वर्णधन को भी वह उसे सहज ही दे रही हैं।
“नहीं, नहीं
अम्मा, मैं इसे नहीं ले सकती।”
“ले ले बेटी, एक
मां का आशीर्वाद समझकर रख ले। मेरी तो उम्र भी हो चली। क्या पता तेरे अगले जन्मदिन
पर तुझे कुछ देने के लिए मैं रहूं भी या नहीं।”
“नहीं अम्मा, ऐसा
मत कहिए। ईश्वर आपका साया हमारे सिर पर सदा बनाए रखे।” कहकर शालू उनसे ऐसे लिपट गई,
जैसे बरसों बाद कोई बिछड़ी बेटी अपनी मां से मिल रही हो।
वो जन्मदिन शालू कभी नहीं भूली, क्योंकि
उसे उस दिन एक बेशक़ीमती उपहार मिला था, जिसकी क़ीमत कुछ लोग
बिल्कुल नहीं समझते और वो है नि:स्वार्थ मानवीय भावनाओं से भरा मां का प्यार। वो
जन्मदिन गायत्री देवी भी नहीं भूलीं, क्योंकि उस दिन उनकी उस
घर में पुनर्प्रतिष्ठा हुई थी।
घर की बड़ी, आदरणीय,
एक मां के रूप में, जिसकी गवाही उस घर के बाहर
लगाई गई वो पुरानी नेमप्लेट भी दे रही थी, जिस पर लिखा था
‘गायत्री निवास’
यदि आपकी आंखे इस कहानी को पढ़कर
थोड़ी सी भी नम हो गई हो तो अकेले में 2
मिनट चिंतन करे कि पाश्चात्य संस्कृति की होड़ में हम अपनी मूल संस्कृति को भुलाकर, बच्चों की उच्च शिक्षा पर तो सभी
का ध्यान केंद्रित हैं किन्तु उन्हें संस्कारवान बनाने में हम पिछड़ते जा रहे हैं।
👉 मन की ऊँचाई:-
मंदिरों के शिखर और मस्जिदों की
मिनारें ही ऊँची नहीं करनी हैं, मन को भी ऊँचा करना हैं ताकि आदर्शों
की स्थापना हो सकें।
एक बार गौतम स्वामी ने महावीर
स्वामी से पूछा, ‘भंते ! एक व्यक्ति दिन-रात आपकी सेवा, भक्ति, पूजा में लीन रहता हैं, फलतः उसको दीन-दुखियों की सेवा के लिए समय नहीं मिलता और दूसरा व्यक्ति
दुखियों की सेवा में इतना जी-जान से संलग्न रहता हैं कि उसे आपकी सेवा-पूजा,
यहां तक कि दर्शन तक की फुरसत नहीं मिलती। इन दोनों में से श्रेष्ठ
कौन है।
भगवान महावीर ने कहा, वह
धन्यवाद का पात्र हैं जो मेरी आराधना-मेरी आज्ञा का पालन करके करता हैं और मेरी
आज्ञा यही हैं कि उनकी सहायता करों, जिनको तुम्हारी सहायता
की जरूरत हैं।
अज्ञानी जीव-अमृत में भी जहर खोज
लेता हैं और मन्दिर में भी वासना खोज लेता हैं। वह मन्दिर में वीतराग प्रतिमा के
दर्शन नहीं करता, इधर-उधर ध्यान भटकाता हैं और पाप का बंधन कर
लेता हैं। पता हैं चील कितनी ऊपर उड़ती
हैं ? बहुत ऊपर उड़ती हैं, लेकिन उसकी
नजर चांद तारों पर नहीं, जमीन पर पड़े, घूरे में पड़े हुए मृत चूहे पर
होती हैं।
यहीं स्थिति अज्ञानी मिथ्या दृष्टि
जीव की हैं। वह भी बातें तो बड़ी-बड़ी करता हैं, सिद्वान्तों की
विवेचना तो बड़े ही मन को हर लेने वाले शब्दों व लच्छेदार शैली में करता हैं,
लेकिन उसकी नजर घुरे में पड़े हुए मांस पिण्ड पर होती हैं, वासना पर होती हैं और ज्ञानी सम्यकदृष्टि जीव भले ही दलदल में रहे,
लेकिन अनुभव परमात्मा का करता हैं।
👉 अंकुरित
एक बच्चे को आम का पेड़ बहुत पसंद
था। जब भी फुर्सत मिलती वो आम के पेड के पास पहुच जाता। पेड के उपर चढ़ता, आम
खाता, खेलता और थक जाने पर उसी की छाया मे सो जाता। उस बच्चे
और आम के पेड के बीच एक अनोखा रिश्ता बन गया।
बच्चा जैसे-जैसे बडा होता गया
वैसे-वैसे उसने पेड के पास आना कम कर दिया। कुछ समय बाद तो बिल्कुल ही बंद हो गया।
आम का पेड उस बालक को याद करके अकेला रोता। एक दिन अचानक पेड ने उस बच्चे को अपनी
तरफ आते देखा और पास आने पर कहा, "तू कहां चला गया था? मै रोज तुम्हे याद किया करता था। चलो आज फिर से दोनो खेलते है।"
बच्चे ने आम के पेड से कहा, "अब मेरी खेलने की उम्र नही है मुझे पढना है,लेकिन
मेरे पास फीस भरने के पैसे नही है।"
पेड ने कहा, "तू मेरे आम लेकर बाजार मे बेच दे, इससे जो पैसे मिले
अपनी फीस भर देना।"
उस बच्चे ने आम के पेड से सारे आम
तोड़ लिए और उन सब आमो को लेकर वहा से चला गया। उसके बाद फिर कभी दिखाई नही दिया।
आम का पेड उसकी राह देखता रहता।
एक दिन वो फिर आया और कहने लगा, "अब मुझे नौकरी मिल गई है, मेरी शादी हो चुकी है,
मुझे मेरा अपना घर बनाना है,इसके लिए मेरे पास
अब पैसे नही है।"
आम के पेड ने कहा, "तू मेरी सभी डाली को काट कर ले जा,उससे अपना घर बना
ले।" उस जवान ने पेड की सभी डाली काट ली और ले के चला गया।
आम के पेड के पास अब कुछ नहीं था वो
अब बिल्कुल बंजर हो गया था।
कोई उसे देखता भी नहीं था। पेड ने
भी अब वो बालक/जवान उसके पास फिर आयेगा यह उम्मीद छोड दी थी।
फिर एक दिन अचानक वहाँ एक बुढा आदमी
आया। उसने आम के पेड से कहा, "शायद आपने मुझे नही पहचाना,
मैं वही बालक हूं जो बार-बार आपके पास आता और आप हमेशा अपने टुकड़े
काटकर भी मेरी मदद करते थे।"
आम के पेड ने दु:ख के साथ कहा, "पर बेटा मेरे पास अब ऐसा कुछ भी नही जो मै तुम्हे दे सकु।"
वृद्ध ने आंखो मे आंसु लिए कहा, "आज मै आपसे कुछ लेने नही आया हूं बल्कि आज तो मुझे आपके साथ जी भरके खेलना
है, आपकी गोद मे सर रखकर सो जाना है।"
इतना कहकर वो आम के पेड से लिपट गया
और आम के पेड की सुखी हुई डाली फिर से अंकुरित हो उठी।
वो आम का पेड़ हमारे माता-पिता हैं।
जब छोटे थे उनके साथ खेलना अच्छा
लगता था।
जैसे-जैसे बडे होते चले गये उनसे
दुर होते गये।
पास भी तब आये जब कोई जरूरत पडी,
कोई समस्या खडी हुई।
आज कई माँ बाप उस बंजर पेड की तरह
अपने बच्चों की राह देख रहे है।
जाकर उनसे लिपटे,
उनके गले लग जाये
फिर देखना वृद्धावस्था में उनका
जीवन फिर से अंकुरित हो उठेगा।
👉 आभास
एक बार एक व्यक्ति की उसके बचपन के
टीचर से मुलाकात होती है, वह उनके चरण स्पर्श कर अपना परिचय देता है।
वे बड़े प्यार से पुछती है, 'अरे
वाह, आप मेरे विद्यार्थी रहे है, अभी
क्या करते हो, क्या बन गए हो?'
'मैं भी एक टीचर बन गया हूं '
वह व्यक्ति बोला,' और इसकी प्रेरणा मुझे आपसे
ही मिली थी जब में 7 वर्ष का था।'
उस टीचर को बड़ा आश्चर्य हुआ, और
वे बोली कि,' मुझे तो आपकी शक्ल भी याद नही आ रही है,
उस उम्र में मुझसे कैसी प्रेरणा मिली थी??'
वो व्यक्ति कहने लगा कि ।।।।
'यदि आपको याद हो, जब में चौथी क्लास में पढ़ता था, तब एक दिन सुबह सुबह
मेरे सहपाठी ने उस दिन उसकी महंगी घड़ी
चोरी होने की आपसे शिकायत की थी, आपने क्लास का
दरवाज़ा बन्द करवाया और सभी बच्चो को क्लास में पीछे एक साथ लाइन में खड़ा होने को
कहा था, फिर आपने सभी बच्चों की जेबें टटोली थी, मेरी जेब से आपको घड़ी मिल गई थी, जो मैंने चुराई थी,
पर चूंकि आपने सभी बच्चों को अपनी आंखें बंद रखने को कहा था तो किसी
को पता नहीं चला कि घड़ी मैंने चुराई थी।
टीचर उस दिन आपने मुझे लज्जा व शर्म
से बचा लिया था, और इस घटना के बाद कभी भी आपने अपने व्यवहार से मुझे यह
नही लगने दिया कि मैंने एक गलत कार्य किया था, आपने बगैर कुछ
कहे मुझे क्षमा भी कर दिया और दूसरे बच्चे मुझे चोर कहते इससे भी बचा लिया था।'
ये सुनकर टीचर बोली,
'मुझे भी नही पता था बेटा कि
वो घड़ी किसने चुराई थी' वो व्यक्ति बोला,'नहीं टीचर, ये कैसे संभव है? आपने
स्वयं अपने हाथों से चोरी की गई घड़ी मेरे जेब से निकाली थी।'
टीचर बोली।।।।।
'बेटा मैं जब सबके पॉकेट चेक
कर रही थी, उस समय मैने कहा था कि सब अपनी आंखे बंद रखेंगे,
और वही मैंने भी किया था, मैंने स्वयं भी अपनी
आंखें बंद रखी थी'
मित्रो।।।।
किसी को उसकी ऐसी शर्मनाक परिस्थिति
से बचाने का इससे अच्छा उदाहरण और क्या हो सकता है?
यदि हमें किसी की कमजोरी मालूम भी
पड़ जाए तो उसका दोहन करना तो दूर, उस व्यक्ति को ये आभास भी ना होने देना
चाहिये कि आपको इसकी जानकारी भी है।
👉 शुक्राना करने का फल
रूप सिंह बाबा ने अपने गुरु अंगद
देव जी की बहुत सेवा की। 20 साल सेवा करते हुए बीत गए। गुरु रूप सिंह जी पर
प्रसन्न हुए और कहा मांगो जो माँगना है। रूप सिंह जी बोले गुरुदेव मुझे तो मांगने
ही नहीं आता। गुरु के बहुत कहने पर रूप सिंह जी बोले मुझे एक दिन का वक़्त दो
घरवाले से पूछ्के कल बताता हु। घर जाकर माँ से पुछा तो माँ बोली जमीन माँग ले।
मन नहीं माना। बीवी से पुछा तो बोली
इतनी गरीबी है पैसे मांग लो। फिर भी मन नहीं माना।
छोटी बिटिया थी उनको उसने बोला
पिताजी गुरु ने जब कहा है कि मांगो तो कोई छोटी मोटी चीज़ न मांग लेना। इतनी छोटी
बेटी की बात सुन के रूप सिंह जी बोले कल तू ही साथ चल गुरु से तू ही मांग लेना।
अगले दिन दोनो गुरु के पास गए। रूप सिंह
जी बोले गुरुदेव मेरी बेटी आपसे मांगेगी मेरी जगह।
वो नन्ही बेटी बहुत समझदार थी। रूप
सिंह जी इतने गरीब थे के घर के सारे लोग दिन में एक वक़्त का खाना ही खाते। इतनी
तकलीफ होने के बावजूद भी उस नन्ही बेटी ने गुरु से कहा गुरुदेव मुझे कुछ नहीं
चाहिए। आप के हम लोगो पे बहुत एहसान है। आपकी बड़ी रहमत है। बस मुझे एक ही बात
चाहिए कि आज हम दिन में एक बार ही खाना खाते है। कभी आगे एसा वक़्त आये के हमे चार
पांच दिन में भी अगर एक बार खाए तब भी हमारे मुख से शुक्राना ही निकले। कभी शिकायत
ना करे।
शुकर करने की दान दो।
इस बात से गुरु महाराज इतने प्रसन्न
हुए के बोले जा बेटा अब तेरे घर के भंडार सदा भरे रहेंगे। तू क्या तेरे घर पे जो
आएगा वोह भी खाली हाथ नहीं जाएगा।
तो यह है शुकर करने का फल।
सदा शुकर करते रहे।
सुख में सिमरन।
दुःख में अरदास।
हर वेले शुकराना।
👉 हार-जीत का फैसला!
बहुत समय पहले की बात है। आदि
शंकराचार्य और मंडन मिश्र के बीच सोलह दिन तक लगातार शास्त्रार्थ चला। शास्त्रार्थ
मे निर्णायक थी- मंडन मिश्र की धर्म पत्नी देवी भारती। हार-जीत का निर्णय होना
बाक़ी था,
इसी बीच देवी भारती को किसी आवश्यक कार्य से कुछ समय के लिये बाहर
जाना पड़ गया।
लेकिन जाने से पहले देवी भारती ने
दोनो ही विद्वानो के गले मे एक-एक फूल माला डालते हुए कहा, ये
दोनो मालाएं मेरी अनुपस्थिति मे आपके हार और जीत का फैसला करेगी। यह कहकर देवी
भारती वहाँ से चली गई। शास्त्रार्थ की प्रकिया आगे चलती रही।
कुछ देर पश्चात् देवी भारती अपना
कार्य पुरा करके लौट आई। उन्होने अपनी निर्णायक नजरो से शंकराचार्य और मंडन मिश्र
को बारी- बारी से देखा और अपना निर्णय सुना दिया। उनके फैसले के अनुसार आदि
शंकराचार्य विजयी घोषित किये गये और उनके पति मंडन मिश्र की पराजय हुई थी।
सभी दर्शक हैरान हो गये कि बिना
किसी आधार के इस विदुषी ने अपने पति को ही पराजित करार दे दिया। एक विद्वान ने
देवी भारती से नम्रतापूर्वक जिज्ञासा की- हे! देवी आप तो शास्त्रार्थ के मध्य ही
चली गई थी फिर वापस लौटते ही आपने ऐसा फैसला कैसे दे दिया ?
देवी भारती ने मुस्कुराकर जवाब
दिया- जब भी कोई विद्वान शास्त्रार्थ मे पराजित होने लगता है, और
उसे जब हार की झलक दिखने लगती है तो इस वजह से वह क्रुध्द हो उठता है और मेरे पति
के गले की माला उनके क्रोध की ताप से सूख चुकी है जबकि शंकराचार्य जी की माला के
फूल अभी भी पहले की भांति ताजे है। इससे ज्ञात होता है कि शंकराचार्य की विजय हुई
है।
विदुषी देवी भारती का फैसला सुनकर
सभी दंग रह गये, सबने उनकी काफी प्रशंसा की।
दोस्तो क्रोध मनुष्य की वह अवस्था
है जो जीत के नजदीक पहुँचकर हार का नया रास्ता खोल देता है। क्रोध न सिर्फ हार का
दरवाजा खोलता है बल्कि रिश्तो मे दरार का कारण भी बनता है। इसलिये कभी भी अपने
क्रोध के ताप से अपने फूल रूपी गुणों को
मुरझाने मत दीजिये।
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