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ज्ञानवर्धक कथाएं – भाग -17

 

ज्ञानवर्धक कथाएं – भाग -17

 

👉 "मर्द" आज के।।

 

आज हमेशा की तरह ट्रेन में कम भीड़ थी, पुष्पा ने खाली जगह पर अपना ऑफिस बैग रखा और खुद बगल में बैठ गई। पूरे डिब्बे में कुछ मर्दों के अलावा सिर्फ पुष्पा ही थी। रात का समय था सब उनींदे से सीट पर टेक लगाये या तो बतिया रहे थे या ऊंघ रहे थे।

 

अचानक डिब्बे में 3-4 तृतीय लिंगी तालियां बजाते हुए पहुंचे और मर्दों से 5-10 रूपये वसूलने लगे कुछ ने चुपचाप दे दिए और कुछ उनींदे से बड़बड़ाने लगे- क्या मौसी रात को तो छोड़ दिया करो ये हफ्ता वसूली।।। वह सभी पुष्पा की तरफ रुख न करते हुए सीधा आगे बढ़ गए, फिर ट्रेन कुछ देर रुकी और कुछ लड़के चढ़े, फिर दौड़ ली आगे की ओर।

 

पुष्पा की मंजिल अभी 1 घंटे के फासले पर थी वे 4-5 लड़के पुष्पा के नजदीक खड़े हो गए और उनमे से एक ने नीचे से उपर तक पुष्पा को ललचाई नजरो से देखा और बोला -मैडम अपना ये बैग तो उठा लो सीट बैठने के लिए है, सामान रखने के लिए नहीं।

 

साथी लड़कों ने वीभत्स हंसी से उसका साथ दिया, पुष्पा ने अपना बैग उठाया और सीट पर सिमट कर बैठ गई। वे सारे लड़के पुष्पा के बगल में आकर बैठ गए।

 

पुष्पा ने कातर नजरों से सामने बैठे 2-3 पुरुषों की ओर देखा पर वे ऐसा जाहिर करने लगे मानो पुष्पा का कोई अस्तित्व ही ना हो। तभी पास बैठे लड़के ने पुष्पा की बांह पर अपनी ऊंगली फेरी तो बाकी लड़कों ने फिर उसी वीभत्स हंसी से उसका उत्साहवर्धन किया।

 

ओ मिस्टर थोड़ा तमीज में रहिये- पुष्पा सीट से उठ खड़ी हुई और ऊंची आवाज में बोली। डिब्बे के सभी मर्द अब भी अपनी अपनी मोबाइल में विचरण कर रहे थे। किसी के मुंह से कुछ नहीं निकला।

 

अरे।।अरे मैडम तो गुस्सा हो गईं,अरे बैठ जाइये मैडम आपकी और हमारी मंजिल अभी दूर है तब तक हम आपका मनोरंजन करते रहेंगे,कत्थई दांतों वाला लड़का पुष्पा का हाथ पकड़कर बोला।

 

डिब्बे की सारीं सीटों पर मानो पत्थर की मूर्तियां विराजमान थी। तभी। अरे तूं क्या मनोरंजन करेगा? हम करतें हैं तेरा मनोरंजन।

 

शबाना उठा रे लहंगा, ले इस चिकने को लहंगे में बड़ी जवानी चढ़ी है इसे। आय हाय मुंह तो देखो सुअरों का,कुतिया भी ना चाटे। इनके बदन में बड़ी मस्ती चढ़ी है,अरे वो जूली उतारो इनके कपड़े,पूरी मस्ती निकालते हैं इन कमीनों की।

 

जूली नाम का भयंकर डीलडौल वाला तृतीय लिंगी जब उन लड़कों की तरफ बढ़ा तो सभी लड़के डिब्बे के दरवाजे की ओर भाग निकले और धीमे चलती ट्रेन से बाहर कूद पड़े।

पुष्पा की भीगी आंखों ने अपनी सुरक्षा करने के लिए सिर झुकाकर उन सभी तृतीय लिगिंयों का अभिवादन किया और फिर नजर जब डिब्बे के कथित मर्दों की तरफ पड़ी जो अपनी आंखे झुकाएं अपनी मोबाइल में व्यस्त थे।

 

और असली मर्द तालियां बजाते आगे की ओर बढ़ गये।

कौन है असली मर्द??

 

👉 झूठा अभिमान

 

एक मक्खी एक हाथी के ऊपर बैठ गयी। हाथी को पता न चला मक्खी कब बैठी। मक्खी बहुत भिनभिनाई आवाज की, और कहा, ‘भाई! तुझे कोई तकलीफ हो तो बता देना। वजन मालूम पड़े तो खबर कर देना, मैं हट जाऊंगी।’ लेकिन हाथी को कुछ सुनाई न पड़ा। फिर हाथी एक पुल पर से गुजरने लगा बड़ी पहाड़ी नदी थी, भयंकर गङ्ढ था, मक्खी ने कहा कि ‘देख, दो हैं, कहीं पुल टूट न जाए! अगर ऐसा कुछ डर लगे तो मुझे बता देना। मेरे पास पंख हैं, मैं उड़ जाऊंगी।’

 

हाथी के कान में थोड़ी-सी कुछ भिनभिनाहट पड़ी, पर उसने कुछ ध्यान न दिया। फिर मक्खी के बिदा होने का वक्त आ गया। उसने कहा, ‘यात्रा बड़ी सुखद हुई, साथी-संगी रहे, मित्रता बनी, अब मैं जाती हूं, कोई काम हो, तो मुझे कहना, तब मक्खी की आवाज थोड़ी हाथी को सुनाई पड़ी, उसने कहा, ‘तू कौन है कुछ पता नहीं, कब तू आयी, कब तू मेरे शरीर पर बैठी, कब तू उड़ गयी, इसका मुझे कोई पता नहीं है। लेकिन मक्खी तब तक जा चुकी थी सन्त कहते हैं, ‘हमारा होना भी ऐसा ही है। इस बड़ी पृथ्वी पर हमारे होने, ना होने से कोई फर्क नहीं पड़ता।

 

हाथी और मक्खी के अनुपात से भी कहीं छोटा, हमारा और ब्रह्मांड का अनुपात है । हमारे ना रहने से क्या फर्क पड़ता है? लेकिन हम बड़ा शोरगुल मचाते हैं। वह शोरगुल किसलिये है? वह मक्खी क्या चाहती थी? वह चाहती थी हाथी स्वीकार करे, तू भी है; तेरा भी अस्तित्व है, वह पूछ चाहती थी। हमारा अहंकार अकेले तो नहीं जी सक रहा है। दूसरे उसे मानें, तो ही जी सकता है। इसलिए हम सब उपाय करते हैं कि किसी भांति दूसरे उसे मानें, ध्यान दें, हमारी तरफ देखें; उपेक्षा न हो।

 

सन्त विचार- हम वस्त्र पहनते हैं तो दूसरों को दिखाने के लिये, स्नान करते हैं सजाते-संवारते हैं ताकि दूसरे हमें सुंदर समझें। धन इकट्ठा करते, मकान बनाते, तो दूसरों को दिखाने के लिये। दूसरे देखें और स्वीकार करें कि तुम कुछ विशिष्ट हो, ना की साधारण।

 

तुम मिट्टी से ही बने हो और फिर मिट्टी में मिल जाओगे, तुम अज्ञान के कारण खुद को खास दिखाना चाहते हो वरना तो तुम बस एक मिट्टी के पुतले हो और कुछ नहीं। अहंकार सदा इस तलाश में है–वे आंखें मिल जाएं, जो मेरी छाया को वजन दे दें।

 

याद रखना आत्मा के निकलते ही यह मिट्टी का पुतला फिर मिट्टी बन जाएगा इसलिए अपना झूठा अहंकार छोड़ दो और सब का सम्मान करो क्योंकि जीवों में परमात्मा का अंश आत्मा है।

 

👉 दर्द अपनेपन का

 

पचास वर्षीय राजेश बाबू ने सुबह सु-बह करवट ली और हमेशा की तरह अपनी पत्नी मीता को चाय बनाने को कहा और फिर रजाई ढक कर करवट ले ली। कुछ पल उन्होंने इंतजार की पर कोई हलचल ना होने पर उन्होंने दुबारा आवाज दी।।

 

ऐसा कभी भी नहीं हुआ था इसलिए राजेश बाबू ने लाईट जलाई और मीता को हिलाया पर कोई हलचल ना होने पर ना जाने वो घबरा से गए। रजाई हटाई तो मीता निढाल सी एक ओर पड़ी थी। ना जाने रात ही रात में क्या हो गया।।

 

अचानक मीता का इस तरह से उनकी जिंदगी से हमेशा - हमेशा ले लिए चले जाना …। असहनीय था। धीरे - धीरे जैसे पता चलता रहा लोग इकट्ठे होते रहे और उसका अंतिम संस्कार कर दिया।।

 

एक हफ्ता किस तरह बीता उन्हें कुछ याद ही नहीं। उन का एक ही बेटा था जो कि अमेरिका रहता था। पढाई के बाद वही नौकरी कर ली थी। बेटा आकर जाने की भी तैयारी कर रहा था।।

 

उसने अपने पापा को भी साथ चलने को कहा और वो तैयार भी हो गए। पर मीता की याद को अपने दिल से लगा लिया था। अब उन्हे हर बात मे उसकी अच्छाई ही नजर आने लगी। उन्हे याद आता कि कितना ख्याल रखती थी मीता उनका पर वो कोई भी मौका नही चूकते थे उसे गलत साबित करने का। ना कभी उसकी तारीफ करते और ना कभी उसका मनोबल बढाते बल्कि कर काम मे उसकी गलती निकालने मे उन्हे असीम शांति मिलती थी।।

 

उधर मीता दिनभर काम मे जुटी रहती थी। एक बार् जब काम वाली बाई 2 महीने की छुट्टी पर गई थी तब भी मीता इतने मजे से सारा काम बिना किसी दर्द और शिकन के आराम से गुनगुनाते हुए किया जबकि कोई दूसरी महिला होती तो अशांत हो जाती। दिन रात राजेश बाबू उनकी यादो के सहारे जीने लगे। काश वह तब उसकी कीमत जान पाते। काश वो तब उसकी प्रशंसा कर पाते। काश …। !!!

 

पर अब बहुत देर हो चुकी थी।। आज राजेश अमेरिका जाने के लिए सामान पैक कर रहे थे। पैक करते करते मीता की फोटो को देख कर अचानक फफक कर रो पडे और बोले मीता, मुझे माफ कर दो। प्लीज वापिस आ जाओ। मै तुम्हारे बिना कुछ नही हूं। आज जान गया हूं कि मै तुमसे कितना कितना प्यार करता हूं…।

 

तभी उन्हें किसी ने पीठ से झकोरा। इससे पहले वो खुद को सम्भाल पाते अचानक उनकी आखं खुल गई। मीता उन्हे घबराई हुई आवाज मे उठा रही थी। वो सब सपना था।।

 

एक बार तो उन्हे विश्वास ही नही हुआ पर दूसरे पल उन्होने मीता का हाथ अपने हाथो मे ले लिया पर आखो से आसूं लगातार बहे जा रहे थे, और मीता नम हुई आखो से अपलक राजेश को ही देखे जा रही थी…

 

👉 सरलता ही भक्ति का एक मात्र स्रोत

 

एक आलसी लेकिन भोलाभाला युवक था आनंद। दिन भर कोई काम नहीं करता बस खाता ही रहता और सोए रहता। घर वालों ने कहा चलो जाओ निकलो घर से, कोई काम धाम करते नहीं हो बस पड़े रहते हो। वह घर से निकल कर यूं ही भटकते हुए एक आश्रम पहुंचा। वहां उसने देखा कि एक गुरुजी हैं उनके शिष्य कोई काम नहीं करते बस मंदिर की पूजा करते हैं। उसने मन में सोचा यह बढिया है कोई काम धाम नहीं बस पूजा ही तो करना है।

 

गुरुजी के पास जाकर पूछा, क्या मैं यहां रह सकता हूं, गुरुजी बोले हां, हां क्यों नहीं? लेकिन मैं कोई काम नहीं कर सकता हूं गुरुजी: कोई काम नहीं करना है बस पूजा करनी होगी आनंद : ठीक है वह तो मैं कर लूंगा।।।

 

अब आनंद महाराज आश्रम में रहने लगे। ना कोई काम ना कोई धाम बस सारा दिन खाते रहो और प्रभु मक्ति में भजन गाते रहो। महीना भर हो गया फिर एक दिन आई एकादशी। उसने रसोई में जाकर देखा खाने की कोई तैयारी नहीं। उसने गुरुजी से पूछा आज खाना नहीं बनेगा क्या गुरुजी ने कहा नहीं आज तो एकादशी है

 

तुम्हारा भी उपवास है। उसने कहा नहीं अगर हमने उपवास कर लिया तो कल का दिन ही नहीं देख पाएंगे हम तो।।।। हम नहीं कर सकते उपवास।।। हमें तो भूख लगती है आपने पहले क्यों नहीं बताया? गुरुजी ने कहा ठीक है तुम ना करो उपवास, पर खाना भी तुम्हारे लिए कोई और नहीं बनाएगा तुम खुद बना लो। मरता क्या न करता गया रसोई में, गुरुजी फिर आए ''देखो अगर तुम खाना बना लो तो राम जी को भोग जरूर लगा लेना और नदी के उस पार जाकर बना लो रसोई। ठीक है, लकड़ी, आटा, तेल, घी, सब्जी लेकर आंनद महाराज चले गए, जैसा तैसा खाना भी बनाया, खाने लगा तो याद आया गुरुजी ने कहा था कि राम जी को भोग लगाना है।

 

वह भजन गाने लगा।।।आओ मेरे राम जी, भोग लगाओ जी प्रभु राम आइए, श्रीराम आइए मेरे भोजन का भोग लगाइए.... कोई ना आया, तो बैचैन हो गया कि यहां तो भूख लग रही है और राम जी आ ही नहीं रहे। भोला मानस जानता नहीं था कि प्रभु साक्षात तो आएंगे नहीं। पर गुरुजी की बात मानना जरूरी है। फिर उसने कहा , देखो प्रभु राम जी, मैं समझ गया कि आप क्यों नहीं आ रहे हैं। मैंने रूखा सूखा बनाया है और आपको तर माल खाने की आदत है इसलिए नहीं आ रहे हैं।।।। तो सुनो प्रभु ।।। आज वहां भी कुछ नहीं बना है, सबकी एकादशी है, खाना हो तो यह भोग ही खालो।।।

 

श्रीराम अपने भक्त की सरलता पर बड़े मुस्कुराए और माता सीता के साथ प्रकट हो गए। भक्त असमंजस में। गुरुजी ने तो कहा था कि राम जी आएंगे पर यहां तो माता सीता भी आईं है और मैंने तो भोजन बस दो लोगों का बनाया हैं। चलो कोई बात नहीं आज इन्हें ही खिला देते हैं। बोला प्रभु मैं भूखा रह गया लेकिन मुझे आप दोनों को देखकर बड़ा अच्छा लग रहा है लेकिन अगली एकादशी पर ऐसा न करना पहले बता देना कि कितने जन आ रहे हो, और हां थोड़ा जल्दी आ जाना। राम जी उसकी बात पर बड़े मुदित हुए। प्रसाद ग्रहण कर के चले गए। अगली एकादशी तक यह भोला मानस सब भूल गया। उसे लगा प्रभु ऐसे ही आते होंगे और प्रसाद ग्रहण करते होंगे। फिर एकादशी आई। गुरुजी से कहा, मैं चला अपना खाना बनाने पर गुरुजी थोड़ा ज्यादा अनाज लगेगा, वहां दो लोग आते हैं। गुरुजी मुस्कुराए, भूख के मारे बावला है। ठीक है ले जा और अनाज लेजा। अबकी बार उसने तीन लोगों का खाना बनाया। फिर गुहार लगाई प्रभु राम आइए, सीताराम आइए, मेरे भोजन का भोग लगाइए।।।

 

प्रभु की महिमा भी निराली है। भक्त के साथ कौतुक करने में उन्हें भी बड़ा मजा आता है। इस बार वे अपने भाई लक्ष्मण, भरत शत्रुघ्न और हनुमान जी को लेकर आ गए। भक्त को चक्कर आ गए। यह क्या हुआ। एक का भोजन बनाया तो दो आए आज दो का खाना ज्यादा बनाया तो पूरा खानदान आ गया। लगता है आज भी भूखा ही रहना पड़ेगा। सबको भोजन लगाया और बैठे-बैठे देखता रहा। अनजाने ही उसकी भी एकादशी हो गई। फिर अगली एकादशी आने से पहले गुरुजी से कहा, गुरुजी, ये आपके प्रभु राम जी, अकेले क्यों नहीं आते हर बार कितने सारे लोग ले आते हैं? इस बार अनाज ज्यादा देना। गुरुजी को लगा, कहीं यह अनाज बेचता तो नहीं है देखना पड़ेगा जाकर। भंडार में कहा इसे जितना अनाज चाहिए दे दो और छुपकर उसे देखने चल पड़े।

 

इस बार आनंद ने सोचा, खाना पहले नहीं बनाऊंगा, पता नहीं कितने लोग आ जाएं। पहले बुला लेता हूं फिर बनाता हूं। फिर टेर लगाई प्रभु राम आइए , श्री राम आइए, मेरे भोजन का भोग लगाइए।।। सारा राम दरबार मौजूद।।। इस बार तो हनुमान जी भी साथ आए लेकिन यह क्या प्रसाद तो तैयार ही नहीं है। भक्त ठहरा भोला भाला, बोला प्रभु इस बार मैंने खाना नहीं बनाया, प्रभु ने पूछा क्यों? बोला, मुझे मिलेगा तो है नहीं फिर क्या फायदा बनाने का, आप ही बना लो और खुद ही खा लो।।।। राम जी मुस्कुराए, सीता माता भी गदगद हो गई उसके मासूम जवाब से।।। लक्ष्मण जी बोले क्या करें प्रभु।।। प्रभु बोले भक्त की इच्छा है पूरी तो करनी पड़ेगी। चलो लग जाओ काम से। लक्ष्मण जी ने लकड़ी उठाई, माता सीता आटा सानने लगीं। भक्त एक तरफ बैठकर देखता रहा। माता सीता रसोई बना रही थी तो कई ऋषि-मुनि, यक्ष, गंधर्व प्रसाद लेने आने लगे। इधर गुरुजी ने देखा खाना तो बना नहीं भक्त एक कोने में बैठा है। पूछा बेटा क्या बात है खाना क्यों नहीं बनाया? बोला, अच्छा किया गुरुजी आप आ गए देखिए कितने लोग आते हैं प्रभु के साथ।।।।। गुरुजी बोले, मुझे तो कुछ नहीं दिख रहा तुम्हारे और अनाज के सिवा भक्त ने माथा पकड़ लिया, एक तो इतनी मेहनत करवाते हैं प्रभु, भूखा भी रखते हैं और ऊपर से गुरुजी को दिख भी नहीं रहे यह और बड़ी मुसीबत है। प्रभु से कहा, आप गुरुजी को क्यों नहीं दिख रहे हैं? प्रभु बोले : मैं उन्हें नहीं दिख सकता। बोला : क्यों  वे तो बड़े पंडित हैं, ज्ञानी हैं विद्वान हैं उन्हें तो बहुत कुछ आता है उनको क्यों नहीं दिखते आप? प्रभु बोले, माना कि उनको सब आता है पर वे सरल नहीं हैं तुम्हारी तरह। इसलिए उनको नहीं दिख सकता।।।।

 

आनंद ने गुरुजी से कहा, गुरुजी प्रभु कह रहे हैं आप सरल नहीं है इसलिए आपको नहीं दिखेंगे, गुरुजी रोने लगे वाकई मैंने सबकुछ पाया पर सरलता नहीं पा सका तुम्हारी तरह, और प्रभु तो मन की सरलता से ही मिलते हैं। प्रभु प्रकट हो गए और गुरुजी को भी दर्शन दिए। इस तरह एक भक्त के कहने पर प्रभु ने रसोई भी बनाई, भक्ति का प्रथम मार्ग सरलता है!

 

👉 दिवमारूहत तपसा तपस्वी

 

व्यक्तिगत जीवन, पारिवारिक बन्धन और सामाजिक संवेदन−तीनों अध्याय एक−एक कर दृश्यपटल पर घूमते जाते हैं। महाश्रमण महावीर के धर्मोपदेश उस प्रकाश की तरह हैं जिसमें इन तीनों के उज्ज्वल पृष्ठ ही नहीं कषाय−कल्मषों के कथानक भी एक के ऊपर एक उभरते चले आते हैं। मेघ अनुभव करते हैं कि तृष्णाओं, वासनाओं और अहंताओं के जाल में जकड़ा जीवन नष्ट होता चला जा रहा है, पर लिप्साएँ शान्त नहीं हो पा रही वरन् और अधिक बढ़ती हैं उनकी पूर्ति के लिये और अधिक अनैतिक कृत्य पापों की गठरी बढ़ रही है काल दौड़ा आ रहा है जहाँ से उपभोग का अन्त हो जायेगा शरीर को नाश कर देने वाला क्षण अब आया कि तब आया तब फिर पश्चाताप के अतिरिक्त हाथ कुछ लगने वाला नहीं। विषय वासनाओं के कीचड़ में फँसे जीवन को विवेक−ज्योति से देखने पर निज का जीवन ही अत्यधिक घृणास्पद लगा। मेघ ने उधर से दृष्टि फेर ली।

 

काम, क्रोध, मद, मोह, द्वेष, द्वंद्व, घृणा तिरष्कार अनैतिकता अवांछनीयतायें यदि यही संसार है तो इसमें और नरक में अन्तर ही क्या। कुविचारों की कुत्सा में झुलसते मायावी जीवन में भी भला किसी को शान्ति मिल सकती है। हमारे महापुरुष महावीर यही तो कहते हैं कि मनुष्य को आध्यात्मवादी होना चाहिये, उसके बिना लोक−जप सम्भव नहीं। मुझे तप का जीवन जीना चाहिये।

 

निश्चय अटल हो गया। श्रेणिक पुत्र मेघ ने भगवान् महावीर से मन्त्र दीक्षा ली और महाश्रमण के साथ ही रहकर तपस्या में लग गये?

 

विरक्त मन को उपासना से असीम शान्ति मिलती है। कूड़े से जीवन में मणि−मुक्ता की−सी ज्योति झलझलाने लगती है, मन वाणी चित्त अलौकिक स्फूर्ति से भर जाते हैं, साधक को रस मिलने लगता है सो मेघ भी अधिकांश समय उसी में लगाते। किन्तु आर्य श्रेष्ठ महावीर की दृष्टि अत्यन्त तीखी थी वह जानते थे रस−रस सब एक हैं−चाहे वह भौतिक हों या आध्यात्मिक। रस की आशा चिर नवीनता से बँधी है इसीलिये जब तक नयापन है तब तक उपासना में रस स्वाभाविक है किन्तु यदि आत्मोत्कर्ष की निष्ठा न रही तो मेघ का मन उचट जायेगा, अतएव उसकी निष्ठा को सुदृढ़ कराने वाले तप की आवश्यकता है। सो वे मेघ को बार−बार उधर धकेलने लगे।

 

मेघ ने कभी रूखा भोजन नहीं किया था अब उन्हें रूखा भोजन दिया जाने लगा, कोमल शैया के स्थान पर भूमि शयन, आकर्षक वेषभूषा के स्थान पर मोटे वत्कल वस्त्र और सुखद सामाजिक सम्पर्क के स्थान राजगृह आश्रम की स्वच्छता, सेवा व्यवस्था एक एक कर इन सब में जितना अधिक मेघ को लगाया जाता उनका मन उतना ही उत्तेजित होता, महत्वाकांक्षाएं सिर पीटतीं और अहंकार बार−बार आकर खड़ा होकर कहता−ओ रे मूर्ख मेघ! कहाँ गया वह रस जीवन के सुखोपभोग छोड़कर कहाँ आ फँसा। मन और आत्मा का द्वन्द्व निरंतर चलते−चलते एक दिन वह स्थिति आ गई जब मेघ ने अपनी विरक्ति का अस्त्र उतार फेंका और कहने लगे तात! मुझे तो साधना कराइये, तप कराइये जिससे मेरा अन्तःकरण पवित्र बने।

 

तथागत मुस्कराये और बोले−तात! यही तो तप है। विपरीत परिस्थितियों में भी मानसिक स्थिरता−यह गुण जिसमें आ गया वही सच्चा तपस्वी−वही स्वर्ग विजेता−उपासना तो उसका एक अंग मात्र है।

 

मेघ की आंखें खुल गई और वे एक सच्चे योद्धा की भाँति मन से लड़ने को चल पड़े।

 

👉 बड़ा आदमी

 

बाहर बारिश हो रही थी, और अन्दर क्लास चल रही थी।

तभी टीचर ने बच्चों से पूछा - अगर तुम सभी को 100-100 रुपया दिए जाए तो तुम सब क्या क्या खरीदोगे?

किसी ने कहा - मैं वीडियो गेम खरीदुंगा।।

किसी ने कहा - मैं क्रिकेट का बेट खरीदुंगा।।

किसी ने कहा - मैं अपने लिए प्यारी सी गुड़िया खरीदुंगी।।

तो, किसी ने कहा - मैं बहुत सी चॉकलेट्स खरीदुंगी।।

 

एक बच्चा कुछ सोचने में डुबा हुआ था

टीचर ने उससे पुछा - तुम

क्या सोच रहे हो, तुम क्या खरीदोगे?

बच्चा बोला -टीचर जी मेरी माँ को थोड़ा कम दिखाई देता है तो मैं अपनी माँ के लिए एक चश्मा खरीदूंगा !

टीचर ने पूछा - तुम्हारी माँ के लिए चश्मा तो तुम्हारे पापा भी खरीद सकते है तुम्हें अपने लिए कुछ नहीं खरीदना ?

बच्चे ने जो जवाब दिया उससे टीचर का भी गला भर आया !

बच्चे ने कहा -- मेरे पापा अब इस दुनिया में नहीं है

मेरी माँ लोगों के कपड़े सिलकर मुझे पढ़ाती है, और कम दिखाई देने की वजह से वो ठीक से कपड़े नहीं सिल पाती है इसीलिए मैं मेरी माँ को चश्मा देना चाहता हुँ, ताकि मैं अच्छे से पढ़ सकूँ बड़ा आदमी बन सकूँ, और माँ को सारे सुख दे सकूँ।!

 

टीचर -- बेटा तेरी सोच ही तेरी कमाई है! ये 100 रूपये मेरे वादे के अनुसार और, ये 100 रूपये और उधार दे रहा हूँ। जब कभी कमाओ तो लौटा देना और, मेरी इच्छा है, तू इतना बड़ा आदमी बने कि तेरे सर पे हाथ फेरते वक्त मैं धन्य हो जाऊं !

 

20 वर्ष बाद।।।।।।।।।।

 

बाहर बारिश हो रही है, और अंदर क्लास चल रही है !

अचानक स्कूल के आगे जिला कलेक्टर की बत्ती वाली गाड़ी आकर रूकती है स्कूल स्टाफ चौकन्ना हो जाता हैं!

स्कूल में सन्नाटा छा जाता हैं!

 

मगर ये क्या?

जिला कलेक्टर एक वृद्ध टीचर के पैरों में गिर जाते हैं, और कहते हैं -- सर मैं ।।।। उधार के 100 रूपये लौटाने आया हूँ!

पूरा स्कूल स्टॉफ स्तब्ध!

वृद्ध टीचर झुके हुए नौजवान कलेक्टर को उठाकर भुजाओं में कस लेता है, और रो पड़ता हैं!

 

👉 अपना - अपना भाग्य

 

एक राजा के तीन पुत्रियाँ थीं और तीनों बडी ही समझदार थी। वे तीनों राजमहल मे बड़े आराम से रहती थी। एक दिन राजा अपनी तीनों पुत्रियों सहित भोजन कर रहे थे, कि अचानक राजा ने बातों ही बातों मे अपनी तीनों पुत्रियों से कहा- एक बात बताओ, तुम तीनो अपने भाग्‍य से खाते-पीते हो या मेरे भाग्‍य से?"

 

दो बडी पुत्रियों ने कहा कि- "पिताजी हम आपके भाग्‍य से खाते हैं। यदि आप हमारे पिता महाराज न होते, तो हमें इतनी सुख-सुविधा व विभिन्न प्रकार के व्यंजन खाने को नसीब नहीं होते। ये सब आपके द्वारा अर्जित किया गया वैभव है, जिसे हम भोग रहे हैं।"

 

पुत्रियों के मुंह से यह सुन कर राजा को अपने आप पर बडा गर्व और खु:शी हो रही थी लेकिन राजा की सबसे छोटी पुत्री ने इसी प्रश्न के उत्तर में कहा कि- "पिताजी मैं आपके भाग्य से नहीं बल्कि अपने स्वयं के भाग्‍य से यह सब वैभव भोग रही हूँ।" छोटी पुत्री के मुख से ये बात सुन राजा के अहंकार को बडी ठेस लगी। उसे गुस्‍सा भी आया और शोक भी हुआ क्‍योंकि उसे अपनी सबसे छोटी पुत्री से इस प्रकार के जवाब की आशा नहीं थी।

 

समय बीतता गया, लेकिन राजा अपनी सबसे छोटी पुत्री की वह बात भुला नहीं पाया और समय आने पर राजा ने अपनी दोनो बडी पुत्रियो की विवाह दो राजकुमारो से करवा दिया परन्‍तु सबसे छोटी पुत्री का विवाह क्रोध के कारण एक गरीब लक्‍कडहारे से कर दिया और विदाई देते समय उसे वह बात याद दिलाते हुए कहा कि- "यदि तुम अपने भाग्‍य से राज वैभव का सुख भोग रही थी, तो तुम्‍हें उस गरीब लकड़हारे के घर भी वही राज वैभव का सुख प्राप्‍त होगा, अन्‍यथा तुम्‍हें भी ये मानना पडे़गा कि तुम्‍हे आज तक जो राजवैभव का सुख मिला, वह तुम्‍हारे नहीं बल्कि मेरे भाग्‍य से मिला।"

 

चूंकि, लक्‍कडहारा बहुत ही गरीब था, इसलिए निश्चित ही राजकुमारी को राजवैभव वाला सुख तो प्राप्‍त नहीं हो रहा था। लक्‍कड़हारा दिन भर लकडी काटता और उन्‍हें बेच कर मुश्किल से ही अपना गुजारा कर पाता था। सो, राजकुमारी के दिन बडे ही कष्‍ट दायी बीत रहे थे लेकिन वह निश्चित थी, क्‍योंकि राजकुमारी यही सोचती कि यदि उसे मिलने वाले राजवैभव का सुख उसे उसके भाग्‍य से मिला था, तो निश्चित ही उसे वह सुख गरीब लक्‍कड़हारे के यहाँ भी मिलेगा।

 

एक दिन राजा ने अपनी सबसे छोटी पुत्री का हाल जानना चाहा तो उसने अपने कुछ सेवको को उसके घर भेजा और सेवको से कहलवाया कि राजकुमारी को किसी भी प्रकार की सहायता चाहिए तो वह अपने पिता को याद कर सकती है क्‍योंकि यदि उसका भाग्‍य अच्‍छा होता, तो वह भी किसी राजकुमार की पत्नि होती।

 

लेकिन राजकुमारी ने किसी भी प्रकार की सहायता लेने से मना कर दिया, जिससे महाराज को और भी ईर्ष्‍या हुई अपनी पुत्री से। क्राेध के कारण महाराज ने उस जंगल को ही निलाम करने का फैसला कर लिया जिस पर उस लक्‍कड़हारे का जीवन चल रहा था।

 

एक दिन लक्‍कडहारा बहुत ही चिंता मे अपने घर आया और अपना सिर पकड़ कर झोपडी के एक कोने मे बैठ गया। राजकुमारी ने अपने पति को चिंता में देखा तो चिंता का कारण पूछा और लक्‍कड़हारे ने अपनी चिंता बताते हुए कहा कि- "जिस जंगल में मैं लकडी काटता हुँ, वह कल निलाम हो रहा है और जंगल को खरीदने वाले को एक माह में सारा धन राजकोष में जमा करना होगा, पर जंगल के निलाम हो जाने के बाद मेरे पास कोई काम नही रहेगा, जिससे हम अपना गुजारा कर सके।"

 

चूंकि, राजकुमारी बहुत समझदार थी, सो उसने एक तरकीब लगाई और लक्‍कडहारे से कहा कि- "जब जंगल की बोली लगे, तब तुम एक काम करना, तुम हर बोली मे केवल एक रूपया बोली बढ़ा देना।"

 

दूसरे दिन लक्‍कड़हारा जंगल गया और नीलामी की बोली शुरू हुई और राजकुमारी के समझाए अनुसार जब भी बोली लगती, तो लक्‍कड़हारा हर बोली पर एक रूपया बढा कर बोली लगा देता। परिणामस्‍वरूप अन्‍त में लक्‍कड़हारे की बोली पर वह जंगल बिक गया लेकिन अब लक्‍कड़हारे को और भी ज्‍यादा चिंता हुई क्‍योंकि वह जंगल पांच लाख में लक्‍कड़हारे के नाम पर छूटा था जबकि लक्‍कड़हारे के पास रात्रि के भोजन की व्‍यवस्‍था हो सके, इतना पैसा भी नही था।

 

आखिर घोर चिंता में घिरा हुआ वह अपने घर पहुँचा और सारी बात अपनी पत्नि से कही। राजकुमारी ने कहा- "चिंता न करें आप, आप जिस जंगल में लकड़ी काटने जाते है वहाँ मैं भी आई थी एक दिन, जब आप भोजन करने के लिए घर नही आये थे और मैं आपके लिए भोजन लेकर आई थी। तब मैंने वहाँ देखा कि जिन लकडियों को आप काट रहे थे, वह तो चन्‍दन की थी। आप एक काम करें। आप उन लकड़ीयों को दूसरे राज्‍य के महाराज को बेंच दें। चुंकि एक माह में जंगल का सारा धन चुकाना है सो हम दोनों मेहनत करके उस जंगल की लकडि़या काटेंगे और साथ में नये पौधे भी लगाते जायेंगे और सारी लकड़ीया राजा-महाराजाओ को बेंच दिया करेंगे।"

 

लक्‍कड़हारे ने अपनी पत्नि से पूंछा कि "क्‍या महाराज को नही मालुम होगा कि उनके राज्‍य के जंगल में चन्‍दन का पेड़ भी है।"

 

राजकुमारी ने कहा- "मालुम है, परन्‍तु वह जंगल किस और है, यह नही मालुम है।"

 

लक्‍कड़हारे को अपनी पत्नि की बात समझ में आ गई और दोनो ने कड़ी मेहनत से चन्‍दन की लकड़ीयों को काटा और दूर-दराज के राजाओं को बेंच कर जंगल की सारी रकम एक माह में चुका दी और नये पौधों की खेप भी रूपवा दी ताकि उनका काम आगे भी चलता रहे।

 

धीरे-धीरे लक्‍कड़हारा और राजकुमारी धनवान हो गए। लक्‍कड़हारा और राजकुमारी ने अपना महल बनवाने की सोच एक-दूसरे से विचार-विमर्श करके काम शुरू करवाया। लक्‍कड़हारा दिन भर अपने काम को देखता और राजकुमारी अपने महल के कार्य का ध्‍यान रखती। एक दिन राजकुमारी अपने महल की छत पर खडी होकर मजदूरो का काम देख रही थी कि अचानक उसे अपने महाराज पिता और अपना पूरा राज परिवार मजदूरो के बीच मजदूरी करता हुआ नजर आता है।

 

राजकुमारी अपने परिवारवालों को देख सेवको को तुरन्‍त आदेश देती है कि वह उन मजदूरो को छत पर ले आये। सेवक राजकुमारी की बात मान कर वैसा ही  करते हैं। महाराज अपने परिवार सहित महल की छत पर आ जाते हैं और अपनी पुत्री को महल में देख आर्श्‍चय से पूछते हैं कि तुम महल में कैसे?

 

राजकुमारी अपने पिता से कहती है कि- "महाराज… आपने जिस जंगल को निलाम करवाया, वह हमने ही खरीदा था क्‍योंकि वह जंगल चन्‍दन के पेड़ों का था।"

 

और फिर राजकुमारी ने सारी बातें राजा को कह सुनाई। अन्‍त में राजा ने स्वीकार किया कि उसकी पुत्री सही थी।

 

👉 परम मित्र कौन है?

 

एक व्यक्ति था उसके तीन मित्र थे। एक मित्र ऐसा था जो सदैव साथ देता था। एक पल, एक क्षण भी बिछुड़ता नहीं था।

 

दूसरा मित्र ऐसा था जो सुबह शाम मिलता।

 

और तीसरा मित्र ऐसा था जो बहुत दिनों में जब तब मिलता।

 

एक दिन कुछ ऐसा हुआ की उस व्यक्ति को अदालत में जाना था और किसी कार्यवश साथ में किसी को गवाह बनाकर साथ ले जाना था। अब वह व्यक्ति अपने सब से पहले अपने उस मित्र के पास गया जो सदैव उसका साथ देता था और बोला :- "मित्र क्या तुम मेरे साथ अदालत में गवाह बनकर चल सकते हो?

 

वह मित्र बोला :- माफ़ करो दोस्त, मुझे तो आज फुर्सत ही नहीं। उस व्यक्ति ने सोचा कि यह मित्र मेरा हमेशा साथ देता था। आज मुसीबत के समय पर इसने मुझे इंकार कर दिया।

 

अब दूसरे मित्र की मुझे क्या आशा है। फिर भी हिम्मत रखकर दूसरे मित्र के पास गया जो सुबह शाम मिलता था, और अपनी समस्या सुनाई।

 

दूसरे मित्र ने कहा कि :- मेरी एक शर्त है कि मैं सिर्फ अदालत के दरवाजे तक जाऊँगा, अन्दर तक नहीं।

 

वह बोला कि :- बाहर के लिये तो मै ही बहुत हूँ मुझे तो अन्दर के लिये गवाह चाहिए। फिर वह थक हारकर अपने तीसरे मित्र के पास गया जो बहुत दिनों में मिलता था, और अपनी समस्या सुनाई।

 

तीसरा मित्र उसकी समस्या सुनकर तुरन्त उसके साथ चल दिया।

 

अब आप सोच रहे होंगे कि।।।

वो तीन मित्र कौन है।।।?

 

तो चलिये हम आपको बताते है इस कथा का सार।

 

जैसे हमने तीन मित्रों की बात सुनी वैसे हर व्यक्ति के तीन मित्र होते हैं। सब से पहला मित्र है हमारा अपना 'शरीर' हम जहा भी जायेंगे, शरीर रुपी पहला मित्र हमारे साथ चलता है। एक पल, एक क्षण भी हमसे दूर नहीं होता।

 

दूसरा मित्र है शरीर के 'सम्बन्धी' जैसे :- माता - पिता, भाई - बहन, मामा -चाचा इत्यादि जिनके साथ रहते हैं, जो सुबह - दोपहर शाम मिलते है।

 

और तीसरा मित्र है :- हमारे 'कर्म' जो सदा ही साथ जाते है।

 

अब आप सोचिये कि आत्मा जब शरीर छोड़कर धर्मराज की अदालत में जाती है, उस समय शरीर रूपी पहला मित्र एक कदम भी आगे चलकर साथ नहीं देता। जैसे कि उस पहले मित्र ने साथ नहीं दिया।

 

दूसरा मित्र - सम्बन्धी श्मशान घाट तक यानी अदालत के दरवाजे तक "राम नाम सत्य है" कहते हुए जाते हैं तथा वहाँ से फिर वापिस लौट जाते है।

 

और तीसरा मित्र आपके कर्म हैं।

कर्म जो सदा ही साथ जाते है चाहे अच्छे हो या बुरे।

 

अब अगर हमारे कर्म सदा हमारे साथ चलते है तो हमको अपने कर्म पर ध्यान देना होगा अगर हम अच्छे कर्म करेंगे तो किसी भी अदालत में जाने की जरुरत नहीं होगी।

 

और धर्मराज भी हमारे लिए स्वर्ग का दरवाजा खोल देगा।

 

रामचरित मानस की पंक्तियां हैं कि।।।

"काहु नहीं सुख-दुःख कर दाता।

निजकृत कर्म भोगि सब भ्राता।।"

 

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तमसो मा ज्योतिर्गमय

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👉 विवेक:-

 

एक बार महावीर अपने पुत्र से कह रहे थे की एक बार मैं एक रेलवे स्टेशन पर बैठा था मेरे पास एक व्यक्ति और बैठा था हम दोनो बाते कर रहे थे उसने कहा की मुझे भी अमुक स्थान पर जाना है हम दोनो को एक ही स्थान पर जाना था !

 

मै केन्टिन में गया और चाय व कुछ नाश्ता लेकर आया मैंने देखा वो व्यक्ति फोन पर बात करते हुये आगे चला जा रहा!

 

शायद ट्रेन आने वाली थी मैंने बेग उठाया और तेजी से उसके पिछे चलने लगा शायद आगे जाने से सीट मिल जाये मेरे पिछे कई व्यक्ति चलने लगे और चलते चलते हम सभी प्लेटफार्म नम्बर एक से नम्बर दो पर पहुँच गये और वो वहाँ बैठा तब मेरे मन में एक विचार आया की मैं इसके पीछे पीछे कहाँ आ गया मरी ट्रेन तो प्लेटफार्म नम्बर एक पर आने वाली है और मैं तो बिल्कुल उल्टी जगह पर आ गया और देखते ही देखते मरी आँखो के सामने से मरी ट्रेन चली गई और जो चाय नाश्ता लिया वो भी वही रह गया!

 

अब मुझे उस व्यक्ति पर बड़ा गुस्सा आ रहा था और मैं उसके पास गया और उससे लड़ने लगा की तुम्हारी वजह से मरी ट्रेन छुट गई मैं अपशब्द पे अपशब्द बोले जा रहा था और वो सुने जा रहा था काफी देर बोलने के बाद मैं वहाँ बैठ गया फिर वो बड़े ही शालीनता के साथ बोले भाई सा। यदि आपकी बात समाप्त हो गई हो तो मैं कुछ बोलुं?

 

मैंने कहा हाँ बोलो तब उन्होंने मुझे वो शिक्षा दी जो मैं आज तक नही भुला उन्होंने कहा।

 

"भाई सा। अचानक मुझे घर से कॉल आया की मुझे दिल्ली की बजाय मुम्बई जाना है क्योंकि हम सभी का प्लान चेंज हो गया और मरी ट्रेन प्लेटफार्म नम्बर दो पर आयेगी पर आप मुझे एक बात बताईये की जब आपको पता था और बोर्ड पे साफ शब्दों में लिखा था और बार बार अलाउन्समेन्ट हो रहा था की दिल्ली जाने वाली ट्रेन प्लेटफार्म नम्बर एक पर आयेगी तो आपने मुझे फॉलो क्यों किया? क्या आपको उस बोर्ड और उस अलाउन्समेन्ट के ऊपर कोई विश्वास न था? आपकी सबसे बड़ी गलती यही थी की आपने अपने विवेक से काम नही किया बस बिना सोचे समझे किसी को फोलो किया इसलिये आपका चाय-नाश्ता भी गया और चाय से हाथ भी जलाया और आपकी आँखो के सामने से आपकी ट्रेन चली गई और आप बस देखते रह गये!

 

और इतने में उनकी ट्रेन आ गई और वो उसमें बैठकर चले गये और जाते जाते मुझे कह गये की भाई सा। जिन्दगी में एक बात अच्छी तरह से याद रखना की अंधाधुंध फोलो किसी को मत करना अपने विवेक से काम लेना की जिस राह पे तुम जा रहे हो क्या वो तुम्हे सही मंजिल तक पहुंचायेगा? किसी को फोलो करोगे तो भटक सकते हो!

 

यदि फोलो करना ही है तो रामायण को, धर्म -शास्त्र को फोलो करना ताकी तुम कही भटको नही किसी व्यक्ति को कभी फोलो मत करना क्योंकि पाप कभी भी किसी के भी मन में आ सकता है या फिर उसका लक्ष्य कब बदल जाये कुछ पता नही इसलिये स्वविवेक से काम लेना। अच्छाई दिखे और लगे की ये चीज प्रकाश से जोड़ सकती है परम पिता परमेश्वर से मिला सकती है और मुझे एक बेहतरीन इन्सान बना सकती है तो उसे ग्रहण कर लेना नही तो छोड़ देना और अंधाधुंध फोलो करोगे बिना परिणाम जाने भेड़-चाल चलोगे तो हो सकता है की तुम भटक जाओ और गहरे अन्धकार में लुप्त हो जाओ!

 

इसलिये जिन्दगी में हमेशा बेहतरीन इन्सान बनने की कोशिश करना पर किसी को अंधाधुंध फोलो मत करना फोलो प्रकाश दे सकता है तो गहरा अंधकार भी दे सकता है!

 

👉 मन और आत्मा

 

मन: कल तो में भाग मिल्खा भाग फिल्म देखकर आया, उस फिल्म के किरदार ने मेरे अंदर बहुत ही अधिक ऊर्जा भर दी है, और अब मुझमे इतना साहस आ चुका है कि में कुछ भी करके दिखा सकता हूँ।

 

मन घर आया और फिल्म की ऊर्जा के विश्वास पर अपने संकल्पो को पूरा करने लग गया, परन्तु दो दिन बाद ही उसकी ऊर्जा ध्वस्त हो गयी।

 

उस समय उसने सोचा की मुझे किसी और का मोटिवेशनल वीडियो देखना चाहिए। उसने you tube पर वीडियो देखे और फिर से उसने स्वयं के समस्त संकल्पो को मजबूत कर लिया और फिर से तैयारी शुरू कर दी। लेकिन वो फिर से हार गया।

 

परन्तु इस बार मन स्वयं की आत्मा से पूछने लगा आखिर में गलती क्या कर रहा हूँ।

 

आत्मा का जवाब: आप भाग मिल्खा भाग फिल्म देखकर आकर्षित तो हुए, किन्तु आपके आकर्षण का कारण उस  फिल्म के किरदार का अभिनय था। आपने बहुत ही कम समय में आपने आदर्श को चुन लिया

 

इसलिए  वो विचार आपकी "जीवात्मा" तक नही  पहुच सके

 

मन: है महान आत्मा अब मुझे क्या करना चाहिए। जिससे की मेरे विचार "आकर्षण के स्थान पर विवेक" को महत्व दें।

           

आत्मा: मेरे मित्र हमेशा उन्ही को सुनो उन्ही को अपनी अभिप्रेरणा बनाओ, जिनके पास "विचारो की सिद्धि हो"। जो पूजनीय है जिनका व्यक्तित्व अलौकिक है ऐसे लोग दुनिया में बहुत कम है जैसे कि👇👇

 

राम कृष्ण परमहंस, समर्थगुरु रामदास, प। श्रीराम शर्मा आचार्य, स्वामी विवेकानंद, महर्षि अरविन्द, महर्षि रमण आदि।

 

👉 निसंदेह: दुनिया में बहुत सारे विचारक है, हो सकता है वो श्रेष्ठ वक्ता भी हो, लेकिन वे लोग पूजनीय हो ये जरूरी नहीं।

 

👉 कोयले का टुकड़ा

 

अमित एक मध्यम वर्गीय परिवार का लड़का था। वह बचपन से ही बड़ा आज्ञाकारी और मेहनती छात्र था। लेकिन जब से उसने कॉलेज में दाखिला लिया था उसका व्यवहार बदलने लगा था। अब ना तो वो पहले की तरह मेहनत करता और ना ही अपने माँ-बाप की सुनता।  यहाँ तक की वो घर वालों से झूठ बोल कर पैसे भी लेने लगा था। उसका बदला हुआ आचरण सभी के लिए चिंता का विषय था। जब इसकी वजह जानने की कोशिश की गयी तो पता चला कि अमित बुरी संगती में पड़ गया है।  कॉलेज में उसके कुछ ऐसे मित्र बन गए हैं जो फिजूलखर्ची करने, सिनेमा देखने और धूम्र-पान करने के आदि हैं।

 

पता चलते ही सभी ने अमित को ऐसी दोस्ती छोड़ पढाई- लिखाई पर ध्यान देने को कहा; पर अमित का इन बातों से कोई असर नहीं पड़ता, उसका बस एक ही जवाब होता,  मुझे अच्छे-बुरे की समझ है, मैं भले ही ऐसे लड़को के साथ रहता हूँ पर मुझपर उनका कोई असर नहीं होता…

 

दिन ऐसे ही बीतते गए और धीरे-धीरे परीक्षा के दिन आ गए, अमित ने परीक्षा से ठीक पहले कुछ मेहनत की पर वो पर्याप्त नहीं थी, वह एक विषय में फेल हो गया । हमेशा अच्छे नम्बरों से पास होने वाले अमित के लिए ये किसी जोरदार झटके से कम नहीं था। वह बिलकुल टूट सा गया, अब ना तो वह घर से निकलता और ना ही किसी से बात करता। बस दिन-रात अपने कमरे में पड़े कुछ सोचता रहता। उसकी यह स्थिति देख परिवारजन और भी चिंता में पड़ गए। सभी ने उसे पिछला रिजल्ट भूल आगे से मेहनत करने की सलाह दी पर अमित को तो मानो सांप सूंघ चुका था, फेल होने के दुःख से वो उबर नही पा रहा था।

 

जब ये बात अमित के पिछले स्कूल के प्रिंसिपल को पता चली तो उन्हें यकीन नहीं हुआ, अमित उनके प्रिय छात्रों में से एक था और उसकी यह स्थिति जान उन्हें बहुत दुःख हुआ, उन्होंने निश्चय किया को वो अमित को इस स्थिति से ज़रूर निकालेंगे।

 

इसी प्रयोजन से उन्होंने एक दिन अमित को अपने घर बुलाया।

 

प्रिंसिपल साहब बाहर बैठे अंगीठी ताप रहे थे। अमित उनके बगल में बैठ गया। अमित बिलकुल चुप था , और प्रिंसिपल साहब भी कुछ नहीं बोल रहे थे। दस -पंद्रह मिनट ऐसे ही बीत गए पर  किसी ने एक शब्द नहीं कहा। फिर अचानक प्रिंसिपल साहब उठे और चिमटे से कोयले के एक धधकते टुकड़े को निकाल मिटटी में डाल दिया, वह टुकड़ा कुछ देर तो गर्मी  देता रहा पर अंततः ठंडा पड़ बुझ गया।

 

यह देख अमित कुछ उत्सुक हुआ और बोला,  प्रिंसिपल साहब, आपने उस टुकड़े को मिटटी में क्यों डाल दिया, ऐसे तो वो बेकार हो गया, अगर आप उसे अंगीठी में ही रहने देते तो अन्य टुकड़ों की तरह वो भी गर्मी देने के काम आता !

 

प्रिंसिपल साहब मुस्कुराये और बोले,  बेटा, कुछ देर अंगीठी में बाहर रहने से वो टुकड़ा बेकार नहीं हुआ, लो मैं उसे दुबारा अंगीठी में डाल देता हूँ…। और ऐसा कहते हुए उन्होंने टुकड़ा अंगीठी में डाल दिया।

 

अंगीठी में जाते ही वह टुकड़ा वापस धधक कर जलने लगा और पुनः गर्मी प्रदान करने लगा।

 

कुछ समझे अमित।  प्रिंसिपल साहब बोले, तुम उस कोयले के टुकड़े के समान ही तो हो, पहले जब तुम अच्छी संगती में रहते थे, मेहनत करते थे, माता-पिता का कहना मानते थे तो अच्छे नंबरों से पास होते थे, पर जैस वो टुकड़ा कुछ देर के लिए मिटटी में चला गया और बुझ गया, तुम भी गलत संगती में पड़ गए  और परिणामस्वरूप  फेल हो गए, पर यहाँ ज़रूरी बात ये है कि एक बार फेल होने से तुम्हारे अंदर के वो सारे गुण समाप्त नहीं हो गए… जैसे कोयले का वो टुकड़ा कुछ देर मिटटी में पड़े होने के बावजूब बेकार नहीं हुआ और अंगीठी में वापस डालने पर धधक कर जल उठा, ठीक उसी तरह तुम भी वापस अच्छी संगती में जाकर, मेहनत कर एक बार फिर मेधावी छात्रों की श्रेणी में आ सकते हो …

 

याद रखो,  मनुष्य ईश्वर की बनायीं सर्वश्रेस्ठ कृति है उसके अंदर बड़ी से बड़ी हार को भी जीत में बदलने की ताकत है, उस ताकत को पहचानो, उसकी दी हुई असीम शक्तियों का प्रयोग करो और इस जीवन को सार्थक बनाओ।

 

अमित समझ चुका था कि उसे क्या करना है, वह चुप-चाप उठा, प्रिंसिपल साहब के चरण स्पर्श किये और निकल पड़ा अपना भविष्य बनाने।

 

👉 सच्चा ज्ञान:-

 

एक संन्यासी ईश्वर की खोज में निकला और एक आश्रम में जाकर ठहरा। पंद्रह दिन तक उस आश्रम में रहा, फिर ऊब गया। उस आश्रम के जो बुढे गुरु थे वह कुछ थोड़ी सी बातें जानते थे, रोज उन्हीं को दोहरा देते थे।

 

फिर उस युवा संन्यासी ने सोचा, 'यह गुरु मेरे योग्य नहीं, मैं कहीं और जाऊं। यहां तो थोड़ी सी बातें हैं, उन्हीं का दोहराना है। कल सुबह छोड़ दूंगा इस आश्रम को, यह जगह मेरे लायक नहीं।'

 

लेकिन उसी रात एक ऐसी घटना घट गई कि फिर उस युवा संन्यासी ने जीवन भर वह आश्रम नहीं छोड़ा। क्या हो गया?

 

दरअसल रात एक और संन्यासी मेहमान हुआ। रात आश्रम के सारे मित्र इकट्ठे हुए, सारे संन्यासी इकट्ठे हुए, उस नये संन्यासी से बातचीत करने और उसकी बातें सुनने।

 

उस नये संन्यासी ने बड़ी ज्ञान की बातें कहीं, उपनिषद की बातें कहीं, वेदों की बातें कहीं। वह इतना जानता था, इतना सूक्ष्म उसका विश्लेषण था, ऐसा गहरा उसका ज्ञान था कि दो घंटे तक वह बोलता रहा। सबने मंत्रमुग्ध होकर सुना।

 

उस युवा संन्यासी के मन में हुआ; 'गुरु हो तो ऐसा हो। इससे कुछ सीखने को मिल सकता है। एक वह गुरु है, वह चुपचाप बैठे हैं, उन्हे कुछ भी पता नहीं। अभी सुन कर उस बूढ़े के मन में बड़ा दुख होता होगा, पश्चात्ताप होता होगा, ग्लानि होती होगी—कि मैंने कुछ न जाना और यह अजनबी संन्यासी बहुत कुछ जानता है।'

 

युवा संन्यासी ने यह सोचा कि 'आज वह बूढ़ा गुरु अपने दिल में बहुत—बहुत दुखी, हीन अनुभव करता होगा।'

 

तभी उस आए हुए संन्यासी ने बात बंद की और बूढ़े गुरु से पूछा कि- "आपको मेरी बातें कैसी लगीं?"

 

बूढे गुरु खिलखिला कर हंसने लगे और बोले- "तुम्हारी बातें? मैं दो घंटे से सुनने की कोशिश कर रहा हूँ तुम तो कुछ बोलते ही नहीं हो। तुम तो बिलकुल भी बोलते ही नहीं हो।"

 

वह संन्यासी बोला- "मै दो घंटे से मैं बोल रहा हूं आप पागल तो नहीं हैं! और मुझसे कहते हैं कि मैं बोलता नहीं हूँ।"

 

वृद्ध ने कहा- "हां, तुम्हारे भीतर से गीता बोलती है, उपनिषद बोलता है, वेद बोलता है, लेकिन तुम तो जरा भी नहीं बोलते हो। तुमने इतनी देर में एक शब्द भी नहीं बोला! एक शब्द तुम नहीं बोले, सब सीखा हुआ बोले, सब याद किया हुआ बोले, जाना हुआ एक शब्द तुमने नहीं बोला। इसलिए मैं कहता हूं कि तुम कुछ भी नहीं बोलते हो, तुम्हारे भीतर से किताबें बोलती हैं।"

 

'वास्तव में दोस्तों!! एक ज्ञान वह है जो उधार है, जो हम सीख लेते हैं। ऐसे ज्ञान से जीवन के सत्य को कभी नहीं जाना जा सकता। जीवन के सत्य को केवल वे जानते हैं जो उधार ज्ञान से मुक्त होते हैं।

 

हम सब उधार ज्ञान से भरे हुए हैं। हमें लगता है कि हमें ईश्वर के संबंध में पता है। पर भला ईश्वर के संबंध में हमें क्या पता होगा जब अपने संबंध में ही पता नहीं है? हमें मोक्ष के संबंध में पता है। हमें जीवन के सभी सत्यों के संबंध में पता है। और इस छोटे से सत्य के संबंध में पता नहीं है जो हम हैं! अपने ही संबंध में जिन्हें पता नहीं है, उनके ज्ञान का क्या मूल्य हो सकता है?

 

लेकिन हम ऐसा ही ज्ञान इकट्ठा किए हुए हैं। और इसी ज्ञान को जान समझ कर जी लेते हैं और नष्ट हो जाते हैं। आदमी अज्ञान में पैदा होता है और मिथ्या ज्ञान में मर जाता है, ज्ञान उपलब्ध ही नहीं हो पाता।

 

दुनिया में दो तरह के लोग हैं एक अज्ञानी और एक ऐसे अज्ञानी जिन्हें ज्ञानी होने का भ्रम है। तीसरी तरह का आदमी मुश्किल से कभी-कभी जन्मता है। लेकिन जब तक कोई तीसरी तरह का आदमी न बन जाए, तब तक उसकी जिंदगी में न सुख हो सकता है, न शांति हो सकती है।

 

👉 ख़ोज परमात्मा की: -

 

सुना है कि कोलरेडो में जब सबसे पहली दफा सोने की खदानें मिलीं, तो सारा अमेरिका दौड़ पड़ा कोलरेडो की तरफ। खबरें आईं कि जरा सा खेत खरीद लो और सोना मिल जाए। लोगों ने जमीनें खरीद डालीं।

 

एक करोड़पति ने अपनी सारी संपत्ति लगाकर एक पूरी पहाड़ी ही खरीद ली।

 

बड़े यंत्र लगाए। छोटे—छोटे लोग छोटे—छोटे खेतों में सोना खोद रहे थे, तो पहाड़ी खरीदी थी, बड़े यंत्र लाया था, बड़ी खुदाई की, बड़ी खुदाई की। लेकिन सोने का कोई पता न चला।

 

फिर घबड़ाहट फैलनी शुरू हो गई। सारा दांव पर लगा दिया था। फिर वह बहुत घबड़ा गया। फिर उसने घर के लोगों से कहा कि यह तो हम मर गए, सारी संपत्ति दांव पर लगा दी है और सोने की कोई खबर नहीं है!

 

फिर उसने इश्तहार निकाला कि मैं पूरी पहाड़ी बेचना चाहता हूं मय यंत्रों के, खुदाई का सारा सामान साथ है।

 

घर के लोगों ने कहा, कौन खरीदेगा? सबमें खबर हो गई है कि वह पहाड़ बिलकुल खाली है, और उसमें लाखों रुपए खराब हो गए हैं, अब कौन पागल होगा?

 

लेकिन उस आदमी ने कहा कि कोई न कोई हो भी सकता है।

 

एक खरीददार मिल गया। बेचनेवाले को बेचते वक्त भी मन में हुआ कि उससे कह दें कि पागलपन मत करो; क्योंकि मैं मर गया हूं। लेकिन हिम्मत भी न जुटा पाया कहने की, क्योंकि अगर वह चूक जाए, न खरीदे, तो फिर क्या होगा? बेच दिया।

 

बेचने के बाद कहा कि आप भी अजीब पागल मालूम होते हैं; हम बरबाद होकर बेच रहे हैं! पर उस आदमी ने कहा, जिंदगी का कोई भरोसा नहीं; जहां तक तुमने खोदा है वहां तक सोना न हो, लेकिन आगे हो सकता है। और जहां तुमने नहीं खोदा है, वहां नहीं होगा, यह तो तुम भी नहीं कह सकते। उसने कहा, यह तो मैं भी नहीं कह सकता।

 

और आश्चर्य—कभी—कभी ऐसे आश्चर्य घटते हैं— पहले दिन ही, सिर्फ एक फीट की गहराई पर सोने की खदान शुरू हो गई। वह आदमी जिसने पहले खरीदी थी पहाड़ी, छाती पीटकर पहले भी रोता रहा और फिर बाद में तो और भी ज्यादा छाती पीटकर रोया, क्योंकि पूरे पहाड़ पर सोना ही सोना था। वह उस आदमी से मिलने भी गया। और उसने कहा, देखो भाग्य!

 

उस आदमी ने कहा, "भाग्य नहीं, तुमने दांव पूरा न लगाया, तुम पूरा खोदने के पहले ही लौट गए। एक फीट और खोद लेते!"

 

हमारी जिंदगी में ऐसा रोज होता है। न मालूम कितने लोग हैं जो खोजते हैं परमात्मा को, लेकिन पूरा नहीं खोजते, अधूरा खोजते हैं; ऊपर—ऊपर खोजते हैं और लौटे जाते हैं। कई बार तो इंच भर पहले से लौट जाते हैं, बस इंच भर का फासला रह जाता है और वे वापस लौटने लगते हैं। और कई बार तो  साफ दिखाई पड़ता है कि यह आदमी वापस लौट चला, यह तो अब करीब पहुंचा था, अभी बात घट जाती; यह तो वापस लौट पड़ा।

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