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ज्ञानवर्धक कथाएं भाग -18

 

ज्ञानवर्धक कथाएं भाग -18

 

👉 प्रतिस्पर्धा :-

 

राजा ने मंत्री से कहा- मेरा मन प्रजा जनों में से जो वरिष्ठ हैं उन्हें कुछ बड़ा उपहार देने का हैं। बताओ ऐसे अधिकारी व्यक्ति कहाँ से और किस प्रकार ढूंढ़ें जाये?

 

मंत्री ने कहा - सत्पात्रों की तो कोई कमी नहीं, पर उनमें एक ही कमी है कि परस्पर सहयोग करने की अपेक्षा वे एक दूसरे की टाँग पकड़कर खींचते हैं। न खुद कुछ पाते हैं और न दूसरों को कुछ हाथ लगने देते हैं। ऐसी दशा में आपकी उदारता को फलित होने का अवसर ही न मिलेगा।

 

राजा के गले वह उत्तर उतरा नहीं। बोले! तुम्हारी मान्यता सच है यह कैसे माना जाये? यदि कुछ प्रमाण प्रस्तुत कर सकते हो तो करो।

 

मंत्री ने बात स्वीकार कर ली और प्रत्यक्ष कर दिखाने की एक योजना बना ली। उसे कार्यान्वित करने की स्वीकृति भी मिल गई।

 

एक छः फुट गहरा गड्ढा बनाया गया। उसमें बीस व्यक्तियों के खड़े होने की जगह थी। घोषणा की गई कि जो इस गड्ढे से ऊपर चढ़ आयेगा उसे आधा राज्य पुरस्कार में मिलेगा।

 

बीसों प्रथम चढ़ने का प्रयत्न करने लगे। जो थोड़ा सफल होता दिखता उसकी टाँगें पकड़कर शेष उन्नीस नीचे घसीट लेते। वह औंधे मुंह गिर पड़ता। इसी प्रकार सबेरे आरम्भ की गई प्रतियोगिता शाम को समाप्त हो गयी। बीसों को असफल ही किया गया और रात्रि होते-होते उन्हें सीढ़ी लगाकर ऊपर खींच लिया गया। पुरस्कार किसी को भी नहीं मिला।

 

मंत्री ने अपने मत को प्रकट करते हुए कहा - यदि यह एकता कर लेते तो सहारा देकर किसी एक को ऊपर चढ़ा सकते थे। पर वे ईर्ष्यावश वैसा नहीं कर सकें। एक दूसरे की टाँग खींचते रहे और सभी खाली हाथ रहे।

 

संसार में प्रतिभावानों के बीच भी ऐसी ही प्रतिस्पर्धा चलती हैं और वे खींचतान में ही सारी शक्ति गँवा देते है। अस्तु उन्हें निराश हाथ मलते ही रहना पड़ता है।

 

👉 लोभ और भय

 

मैंने सुना है, राजा भोज के दरबार में बड़े पंडित थे, बड़े ज्ञानी थे और कभी कभी वह उनकी परीक्षा भी लिया करता था। एक दिन वह अपना तोता राजमहल से ले आया दरबार में। तोता एक ही रट लगाता था, एक ही बात दोहराता था बार बार : 'बस एक ही भूल है, बस एक ही भूल है, बस एक ही भूल है।'

 

राजा ने अपने दरबारियों से पूछा, "यह कौन सी भूल की बात कर रहा है तोता?" पंडित बड़ी मुश्किल में पड़ गए। और राजा ने कहा, "अगर ठीक जवाब न दिया तो फांसी, ठीक जबाब दिया तो लाखों के पुरस्कार और सम्मान।"

 

अब अटकलबाजी नहीं चल सकती थी, खतरनाक मामला था। ठीक जवाब क्या हो? तोते से तो पूछा भी नहीं जा सकता। तोता कुछ और जानता भी नहीं। तोता इतना ही कहता है, तुम लाख पूछो, वह इतना ही कहता है : 'बस एक ही भूल है।'

 

सोच विचार में पड़ गए पंडित। उन्होंने मोहलत मांगी, खोजबीन में निकल गए। जो राजा का सब से बड़ा पंडित था दरबार में, वह भी घूमने लगा कि कहीं कोई ज्ञानी मिल जाए। अब तो ज्ञानी से पूछे बिना न चलेगा। शास्त्रों में देखने से अब कुछ अर्थ नहीं है। अनुमान से भी अब काम नहीं होगा। जहां जीवन खतरे में हो, वहां अनुमान से काम नहीं चलता। तर्क इत्यादि भी काम नहीं देते। तोते से कुछ राज़ निकलवाया नहीं जा सकता। वह अनेकों के पास गया लेकिन कहीं कोई जवाब न दे सका कि तोते के प्रश्न का उत्तर क्या होगा।

 

बड़ा उदास लौटता था राजमहल की तरफ कि एक चरवाहा मिल गया। उसने पूछा, "पंडित जी, बहुत उदास हैं? जैसे पहाड़ टूट पड़ा हो आप के ऊपर, कि मौत आनेवाली हो, इतने उदास! बात क्या है?" तो उसने अपनी अड़चन कही, दुविधा कही। उस चरवाहे ने कहा, "फिक्र न करें, मैं हल कर दूंगा। मुझे पता है। लेकिन एक ही उलझन है। मैं चल तो सकता हूँ लेकिन मैं बहुत दुर्बल हूँ और मेरा यह जो कुत्ता है इसको मैं अपने कंधे पर रखकर नहीं ले जा सकता। इसको पीछे भी नहीं छोड़ सकता। इससे मेरा बड़ा लगाव है।" पंडित ने कहा, "तुम फिक्र छोड़ो। मैं इसे कंधे पर रख लेता हूँ।"

 

उन ब्राह्मण महाराज ने कुत्ते को कंधे पर रख लिया। दोनों राजमहल में पहुंचे। तोते ने वही रट लगा रखी थी कि एक ही भूल है, बस एक ही भूल है। चरवाहा हंसा उसने कहा, "महाराज, देखें भूल यह खड़ी है।" वह पंडित कुत्ते को कंधे पर लिए खड़ा था। राजा ने कहा, "मैं समझा नहीं।" उसने कहा कि "शास्त्रों में लिखा है कि कुत्ते को पंडित न छुए और अगर छुए तो स्नान करे और आपका महापंडित कुत्ते को कंधे पर लिए खड़ा है। लोभ जो न करवाए सो थोड़ा है। बस, एक ही भूल है : लोभ और भय लोभ का ही दूसरा हिस्सा है, नकारात्मक हिस्सा। यह एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। एक तरफ भय, एक तरफ लोभ।

 

ये दोनों बहुत अलग अलग नहीं हैं। जो भय से धार्मिक है वह डरा है दंड से, नर्क से, वह धार्मिक नहीं है। और जो लोभ से धार्मिक है, जो लोलुप हो रहा है वह वासनाग्रस्त है स्वर्ग से, वह धार्मिक नहीं है।

 

फिर धार्मिक कौन है? धार्मिक वही है जिसे न लोभ है, न भय। जिसे कोई चीज लुभाती नहीं और कोई चीज डराती भी नहीं। जो भय और प्रलोभन के पार उठा है वही सत्य को देखने में समर्थ हो पाता है।

 

सत्य को देखने के लिए लोभ और भय से मुक्ति चाहिए। सत्य की पहली शर्त है अभय क्योंकि जब तक भय तुम्हें डांवाडोल कर रहा है तब तक तुम्हारा चित्त ठहरेगा ही नहीं। भय कंपाता है, भय के कारण कंपन होता है। तुम्हारी भीतर की ज्योति कंपती रहती है। तुम्हारे भीतर हजार तरंगें उठती हैं लोभ की, भय की।

 

👉 पाप का सौदा

 

एक बार घूमते-घूमते कालिदास बाजार गये। वहाँ एक महिला बैठी मिली। उसके पास एक मटका था और कुछ प्यालियाँ पड़ी थी। कालिदास ने उस महिला से पूछा: ” क्या बेच रही हो?

 

“महिला ने जवाब दिया: ” महाराज! मैं पाप बेचती हूँ। “ कालिदास ने आश्चर्यचकित होकर पूछा: ” पाप और मटके में? “महिला बोली: ” हाँ , महाराज! मटके में पाप है।

“ कालिदास : ” कौन-सा पाप है?

 

“ महिला : ” आठ पाप इस मटके में है। मैं चिल्लाकर कहती हूँ की मैं पाप बेचती हूँ पाप… और लोग पैसे देकर पाप ले जाते है।” अब महाकवि कालिदास को और आश्चर्य हुआ: ” पैसे देकर लोग पाप ले जाते है? “ महिला : ”हाँ, महाराज! पैसे से खरीदकर लोग पाप ले जाते है। “ कालिदास: ” इस मटके में आठ पाप कौन-कौन से है?

 

“महिला: ” क्रोध, बुद्धिनाश, यश का नाश, स्त्री एवं बच्चों के साथ अत्याचार और अन्याय, चोरी, असत्य आदि दुराचार, पुण्य का नाश, और स्वास्थ्य का नाश … ऐसे आठ प्रकार के पाप इस घड़े में है।

 

“कालिदास को कौतुहल हुआ की यह तो बड़ी विचित्र बात है। किसी भी शास्त्र में नहीं आया है की मटके में आठ प्रकार के पाप होते है।

 

वे बोले: ”आखिरकार इसमें क्या है?”

 

महिला : ”महाराज! इसमें शराब है शराब! “कालिदास महिला की कुशलता पर प्रसन्न होकर बोले:” तुझे धन्यवाद है! शराब में आठ प्रकार के पाप है यह तू जानती है और ‘मैं पाप बेचती हूँ ‘ ऐसा कहकर बेचती है फिर भी लोग ले जाते है। धिक्कार है ऐसे लोगों के जीवन पर।

 

👉 अहंकार मरता है।।।शरीर जलता है

 

ऐसा कहते हैं कि नानक देव जी जब आठ वर्ष के थे तब पहली बार अपने घर से अकेले निकल पड़े, सब घर वाले और पूरा गाँव चिंतित हो गया तब शाम को किसी ने नानक के पिता श्री कालू मेहता को खबर दी कि नानक तो श्मशान घाट में शांत बैठा है। सब दौड़े  और वाकई एक चिता के कुछ दूर नानक बैठे हैं और एक अद्भुत शांत मुस्कान के साथ चिता को देख रहे थे, माँ ने तुरंत रोते हुए गले लगा लिया और पिता ने नाराजगी जताई और पूछा यहां क्यों आऐ। नानक ने कहा पिता जी कल खेत से आते हुए जब मार्ग बदल कर हम यहां से जा रहे थे और मैंने देखा कि एक आदमी चार आदमीयों के कंधे पर लेटा है और वो चारो रो रहे हैं तो मेरे आपसे पूछने पर कि ये कौन सी जगह हैं, तो पिताजी आपने कहा था कि ये वो जगह है बेटा जहां एक न एक दिन सब को आना ही पड़ेगा और बाकी के लोग रोएगें ही।

 

बस तभी से मैंने सोचा कि जब एक दिन आना ही हैं तो आज ही चले और वैसे भी अच्छा नहीं हैं लगता अपने काम के लिए अपने चार लोगों को रुलाना भी और कष्ट भी दो उनके कंधों को, तो बस यही सोच कर आ गया।

 

तब कालू मेहता रोते हुए बोले नानक पर यहां तो मरने के बाद आते हैं इस पर जो आठ वर्षीय नानक बोले वो कदापि कोई आठ जन्मो के बाद भी बोल दे तो भी समझो जल्दी बोला

 

"नानक ने कहा पिता जी ये ही बात तो मैं सुबह से अब तक में जान पाया हूं कि लोग मरने के बाद यहां लाए जा रहे हैं, अगर कोई पूरे चैतन्य से यहां अपने आप आ जाए तो वो फिर  कभी मरेगा ही नहीं सिर्फ शरीर बदलेगा क्योंकि मरता तो अहंकार है और जो यहां आकर अपने अहंकार कि चिता जलाता है वो फिर कभी मरता ही नहीं मात्र मोक्ष प्राप्त कर लेता है।।

 

इसीलिए उन्होंने अमर वचन कहे जप जी साहब अर्थात  "एक ओंकार सतनाम "

 

👉 सकारात्मक हार

 

गोपालदास जी के एक पुत्र और एक पुत्री थे। उन्हें अपने पुत्र के विवाह के लिये संस्कार शील पुत्रवधु की तलाश थी। किसी मित्र ने सुझाया कि पास के गांव में ही स्वरूपदास जी के एक सुन्दर सुशील कन्या है।

 

गोपालदास जी किसी कार्य के बहाने स्वरूपदास जी के घर पहुंच गये, कन्या स्वरूपवान थी देखते ही उन्हें पुत्रवधु के रूप में पसन्द आ गई। गोपालदास जी ने रिश्ते की बात चलाई जिसे स्वरूपदास जी ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। स्वरूपदास जी की पत्नी ने मिष्ठान भोजन आदि से आगत स्वागत की।

 

संयोगवश स्वरूपदास जी की पत्नी के लिये नवसहर का सोने का हार आज ही बनकर आया था। समधन ने बडे उत्साह से समधी को दिखाया, हार वास्तव में सुन्दर था। गोपालदास जी ने जी भरकर उस हार की तारीफ की। कुछ देर आपस में बातें चली और फ़िर गोपालदास जी ने लौटने के लिये विदा मांगी और घर के लिये चल दिये।

 

चार दिन बाद ही स्वरूपदास जी की पत्नी को किसी समारोह में जाने की योजना बनी, और उन्हें वही हार पहनना था। उन्होंने ड्रॉअर का कोना कोना छान मारा पर हार नहीं मिला। सोचने लगी हार गया तो गया कहाँ? कुछ निश्चय किया और स्वरूपदास जी को बताया कि हार गोपालदास जी, चोरी कर गये है।

 

स्वरूपदास जी ने कहा भागवान! ठीक से देख, घर में ही कहीं होगा, समधी ऐसी हरक़त नहीं कर सकते। उसने कहा मैंने सब जगह देख लिया है और मुझे पूरा यकीन है हार गोपाल जी ही ले गये है, हार देखते ही उनकी आंखें फ़ट गई थी। वे बड़ा घूर कर देख रहे थे, निश्चित ही हार तो समधी जी ही लेकर गये हैं। आप गोपाल जी के यहां जाइए और पूछिए, देखना! हार वहां से ही मिलेगा।

 

बड़ी ना-नुकर के बाद पत्नी की जिद्द के आगे स्वरूप जी को झुकना पड़ा और बडे भारी मन से वे गोपाल जी के घर पहुंचे। अचानक स्वरूप जी को घर आया देखकर गोपाल जी शंकित हो उठे कि क्या बात हो गई?

 

स्वरूपजी दुविधा में कि आखिर समधी से कैसे पूछा जाये। इधर उधर की बात करते हुए साहस जुटा कर बोले- आप जिस दिन हमारे घर आए थे, उसी दिन घर एक हार आया था, वह मिल नहीं रहा।

 

कुछ क्षण के लिये गोपाल जी विचार में पडे, और बोले अरे हां, ‘वह हार तो मैं लेकर आया था’, मुझे अपनी पुत्री के लिये ऐसा ही हार बनवाना था, अतः सुनार को सेम्पल दिखाने के लिये, मैं ही ले आया था। वह हार तो अब सुनार के यहां है। आप तीन दिन रुकिये और हार ले जाईए। किन्तु असलियत में तो हार के बारे में पूछते ही गोपाल जी को आभास हो गया कि हो न हो समधन ने चोरी का इल्जाम लगाया है।

 

उसी समय सुनार के यहां जाकर, देखे गये हार की डिज़ाइन के आधार पर सुनार को बिलकुल वैसा ही हार,मात्र दो दिन में तैयार करने का आदेश दे आए। तीसरे दिन सुनार के यहाँ से हार लाकर स्वरूप जी को सौप दिया। लीजिये सम्हालिये अपना हार।

 

घर आकर स्वरूप जी ने हार श्रीमति को सौपते हुए हक़िक़त बता दी। पत्नी ने कहा- मैं न कहती थी, बाकी सब पकडे जाने पर बहाना है, भला कोई बिना बताए सोने का हार लेकर जाता है ? समधी सही व्यक्ति नहीं है, आप आज ही समाचार कर दीजिये कि यह रिश्ता नहीं हो सकता। स्वरूप जी ने फ़ोन पर गोपाल जी को सूचना दे दी, गोपाल जी कुछ न बोले । उन्हें आभास था ऐसा ही होना है।

 

सप्ताह बाद स्वरूप जी की पत्नी साफ सफ़ाई कर रही थी, उन्होंने पूरा ड्रॉअर ही बाहर निकाला तो पीछे के भाग में से हार मिला, निश्चित करने के लिये दूसरा हार ढूँढा तो वह भी था। दो हार थे। वह सोचने लगी, अरे यह तो भारी हुआ, समधी जी ने इल्जाम से बचने के लिये ऐसा ही दूसरा हार बनवा कर दिया है।

 

तत्काल उसने स्वरूप जी को वस्तुस्थिति बताई, और कहा समधी जी तो बहुत ऊंचे खानदानी है। ऐसे समधी खोना तो रत्न खोने के समान है। आप पुनः जाइए, उन्हें हार वापस लौटा कर  और समझा कर रिश्ता पुनः जोड़ कर आइए। ऐसा रिश्ता बार - बार नहीं मिलता।

 

स्वरूप जी पुनः दुविधा में फंस गये, पर ऐसे विवेकवान समधी से पुनः सम्बंध जोडने का प्रयास उन्हें भी उचित लग रहा था। सफलता में उन्हें भी संदेह था पर सोचा एक कोशिश तो करनी ही चाहिए।

 

स्वरूप जी, गोपाल जी के यहां पहुँचे, गोपाल जी समझ गये कि शायद पुराना हार मिल चुका होगा।

 

स्वरूप जी ने क्षमायाचना करते हुए हार सौपा और अनुनय करने लगे कि जल्दबाजी में हमारा सोचना गलत था। आप हमारी भूलो को क्षमा कर दीजिए, और उसी सम्बंध को पुनः कायम कीजिए।

 

गोपाल जी ने कहा देखो स्वरूप जी यह रिश्ता तो अब हो नहीं सकता, आपके घर में शक्की और जल्दबाजी के संस्कार है जो कभी भी मेरे घर के संस्कारों को प्रभावित कर सकते है।

 

लेकिन मैं आपको निराश नहीं करूंगा। मैं अपनी बेटी का रिश्ता आपके बेटे के लिये देता हूँ, मेरी बेटी में वो संस्कार है जो आपके परिवार को भी सुधार देने में सक्षम है। मुझे अपने संस्कारों पर पूरा भरोसा है। पहले रिश्ते में जहां दो घर बिगडने की सम्भावनाएं थी, वहां यह नया रिश्ता दोनों घर सुधारने में सक्षम होगा। स्वरूप जी की आंखें ऐसा हितैषी पाकर छल छला आई।

 

👉 ज्ञान की चार बात

 

एक राजा के विशाल महल में एक सुंदर वाटिका थी,जिसमें अंगूरों की एक बेल लगी थी। वहां रोज एक चिड़िया आती और मीठे अंगूर चुन-चुनकर खा जाती और अधपके और खट्टे अंगूरों को नीचे गिरा देती।

 

माली ने चिड़िया को पकड़ने की बहुत कोशिश की पर वह हाथ नहीं आई। हताश होकर एक दिन माली ने राजा को यह बात बताई। यह सुनकर भानुप्रताप को आश्चर्य हुआ। उसने चिड़िया को सबक सिखाने की ठान ली और वाटिका में छिपकर बैठ गया।

 

जब चिड़िया अंगूर खाने आई तो राजा ने तेजी दिखाते हुए उसे पकड़ लिया। जब राजा चिड़िया को मारने लगा,तो चिड़िया ने कहा- हे राजन !! मुझे मत मारो। मैं आपको ज्ञान की 4 महत्वपूर्ण बातें बताऊंगी।'

 

राजा ने कहा, 'जल्दी बता।'

 

चिड़िया बोली, 'हे राजन !! सबसे पहले, तो हाथ में आए शत्रु को कभी मत छोड़ो।'

 

राजा ने कहा, 'दूसरी बात बता।'

 

चिड़िया ने कहा, 'असंभव बात पर भूलकर भी विश्वास मत करो और तीसरी बात यह है कि बीती बातों पर कभी पश्चाताप मत करो।'

 

राजा ने कहा, 'अब चौथी बात भी जल्दी बता दो।'

 

इस पर चिड़िया बोली, 'चौथी बात बड़ी गूढ़ और रहस्यमयी है। मुझे जरा ढीला छोड़ दें क्योंकि मेरा दम घुट रहा है। कुछ सांस लेकर ही बता सकूंगी।'

 

चिड़िया की बात सुन जैसे ही राजा ने अपना हाथ ढीला किया,चिड़िया उड़ कर एक डाल पर बैठ गई और बोली, 'मेरे पेट में दो हीरे हैं।'

 

यह सुनकर राजा पश्चाताप में डूब गया। राजा की हालत देख चिड़िया बोली, 'हे राजन !! ज्ञान की बात सुनने और पढ़ने से कुछ लाभ नहीं होता,उस पर अमल करने से होता है। आपने मेरी बात नहीं मानी।

 

मैं आपकी शत्रु थी, फिर भी आपने पकड़कर मुझे छोड़ दिया।

 

मैंने यह असंभव बात कही कि मेरे पेट में दो हीरे हैं फिर भी आपने उस पर भरोसा कर लिया।

 

आपके हाथ में वे काल्पनिक हीरे नहीं आए, तो आप पछताने लगे।

 

👉👉 उपदेशों को आचरण में उतारे बगैर उनका कोई मोल नहीं।

 

👉 जानवर कौन?

 

एक बकरी थी, जो की माँ बनने वाली थी। माँ बनने से पहले ही मधु ने भगवान् से दुआएं मांगने शुरू कर दी। कि “हे भगवान् मुझे बेटी देना बेटा नहीं”। पर किस्मत को ये मंजूर ना था, मधु ने एक बकरे को जन्म दिया, उसे देखते ही मधु रोने लगी। साथ की बकरियां मधु के रोने की वजह जानती थी, पर क्या कहती। माँ चुप हो गई और अपने बच्चे को चाटने लगी। दिन बीतते चले गए और माँ के दिल में अपने बच्चे के लिए प्यार उमड़ता चला गया। धीरे- धीरे माँ अपने बेटे में सारी दुनियाँ को भूल गई, और भूल गई भविष्य की उस सच्चाई को जो एक दिन सच होनी थी। मधु रोज अपने बच्चे को चाट कर दिन की शुरूआत करती, और उसकी रात बच्चे से चिपक कर सो कर ही होती।

 

एक दिन बकरी के मालिक के घर भी बेटे जन्म लिया। घर में आते महमानों और पड़ोसियों की भीड़ देख बकरी ने साथी बकरी से पूछा “बहन क्या हुआ आज बहुत भीड़ है इनके घर पर” ये सुन साथी बकरी ने कहा की “अरे हमारे मालिक के घर बेटा हुआ है, इसलिए काफी चहल पहल है” मधु बकरी मालिक के लिए बहुत खुश हुई और उसके बेटे को बहुत दुआएँ दी। फिर मधु अपने बच्चे से चुपक कर सो गई। मधु सो ही रही थी के तभी उसके पास एक आदमी आया, सारी बकरियां डर कर सिमट गई, मधु ने भी अपने बच्चे को खुद से चिपका लिया। के तभी उस आदमी ने मधु के बेटे को पकड़ लिया और ले जाने लगा। मधु बहुत चिल्लाई पर उसकी सुनी ना गई, बच्चे को बकरियां जहाँ बंधी थी उसके सामने वाले कमरे में ले जाया गया।

 

बच्चा बहुत चिल्ला रहा था, बुला रहा था अपनी माँ को, मधु भी रस्सी को खोलने के लिए पूरे - पूरे पाँव रगड़ दिए पर रस्सी ना खुली। थोड़ी देर तक बच्चा चिल्लाया पर उसके बाद बच्चा चुप हो गया, अब उसकी आवाज नहीं आ रही थी। मधु जान चुकी थी के बच्चे के साथ क्या हुआ है, पर वह फिर भी अपने बच्चे के लिए आँख बंद कर दुआएँ मांगती रही। पर अब देर हो चुकी थी बेटे का सर धड़ से अलग कर दिया गया था। बेटे का सर मां के सामने पड़ा था, आज भी बेटे की नजर माँ की तरफ थी, पर आज वह नजरे पथरा चुकी थी, बेटे का मुंह आज भी खुला था, पर उसके मुह से आज माँ के लिए पुकार नहीं निकल रही थी, बेटे का मुंह सामने पड़ा था माँ उसे आखिरी बार चूम भी नहीं पा रही थी इस वजह से एक आँख से दस - दस आँसू बह रहे थे।

 

बेटे को काट कर उसे पका खा लिया गया। और माँ देखती रह गई, साथ में बैठी हर बकरियाँ इस घटना से अवगत थी पर कोई कुछ कर भी क्या सकती थी। दो माह बीत चुके थे मधु बेटे के जाने के गम में पहले से आधी हो चुकी थी, के तभी एक दिन मालिक अपने बेटे को खिलाते हुए बकरियों के सामने आया, ये देख एक बकरी बोली “ये है वो बच्चा जिसके होने पर तेरे बच्चे को काटा गया” मधु आँखों में आँसू भरे अपने बच्चे की याद में खोई उस मालिक के बच्चे को देखने लगी।

 

वह बकरी फिर बोली “देख कितना खुश है, अपने बालक को खिला कर, पर कभी ये नहीं सोचता की हमें भी हमारे बालक प्राण प्रिय होते है, मैं तो कहूँ जैसे हम अपने बच्चों के वियोग में तड़प जीते है वैसे ही ये भी जीए, इसका पुत्र भी मरे” ये सुनते ही मधु उस बकरी पर चिल्लाई कहा “उस बेगुनाह बालक ने क्या बिगाड़ा है, जो उसे मारने की कहती हो, वो तो अभी धरा पर आया है, ऐसा ना कहो भगवान् उसे लम्बी उम्र दे, क्योंकि एक बालक के मरने से जो पीड़ा होती है मैं उससे अवगत हूँ, मैं नहीं चाहती जो पीड़ा मुझे हो रही है वो किसी और को हो” ये सुन साथी बकरी बोली कैसी है तू उसने तेरे बालक को मारा और तू फिर भी उसी के बालक को दुआ दे रही है।” मधु हँसी और कहा “हाँ, क्योंकि मेरा दिल एक जानवर का है इंसान का नहीं।

 

ये कहना मात्र ही उस बकरी के लिए जवाब हो गया था कि मधु ने ऐसा क्यों कहा। मधु ने फिर कहा “ना जाने किस जन्म के पापों की वजह से आज इस योनि में जन्म मिला, ना जाने किस के बालक को छीना था जो पुत्र वियोग मिला, अब किसी को बालक को बद्दुआ दे उसे मारे फिर पाप पुण्य जन्म मृत्यु के चक्कर में नहीं फंसना, इसके कर्मों का दण्ड भगवान् देगा मैं नहीं। बकरी की यह बात सुन साथी बकरी चुप हो गई, क्यों की वह समझ चुकी थी के करनी की भरनी सबकी होती है मालिक की भी होगी।।

 

(कई बार सच समझ नहीं आता की जानवर असल में है कौन)

 

👉 अर्थपूर्ण केक:-

 

एक लड़की अपनी माँ के पास अपनी परेशानियों का बखान कर रही थीl वो परीक्षा में फेल हो गई थी।

 

सहेली से झगड़ा हो गया।

 

मनपसंद ड्रेस प्रैस कर रही थी वो जल गई।

 

वह रोते हुए बोली, "मम्मी, देखो ना, मेरी जिन्दगी के साथ सब कुछ उलटा -पुल्टा हो रहा है"।

 

माँ ने मुस्कराते हुए कहा:- "यह उदासी और रोना छोड़ो, चलो मेरे साथ रसोई में, तुम्हारा मनपसंद केक बनाकर खिलाती हूँ"। लड़की का रोना बंद हो गया और हंसते हुये बोली, "केक तो मेरी मनपसंद मिठाई है"। कितनी देर में बनेगा"

 

कन्या ने चहकते हुए पूछा।

 

माँ ने सबसे पहले मैदे का डिब्बा उठाया और प्यार से कहा, ले पहले मैदा खा लेl लड़की मुंह बनाते हुए बोली, इसे कोई खाता है भला। माँ ने फिर मुस्कराते हुये कहा "तो ले सौ ग्राम चीनी ही खा ले"। एसेंस और मिल्कमेड का डिब्बा दिखाया और  कहा लो इसका भी स्वाद चख लो।"

 

"माँ"आज तुम्हें क्या हो गया है ? जो मुझे इस तरह की चीजें खाने को दे रही हो"?

 

माँ ने बड़े प्यार और शांति से जवाब दिया,

 

"बेटा"केक इन सभी बेस्वादी चीजों से ही बनता है और ये सभी मिलकर ही तो केक को स्वादिष्ट बनाती हैं । मैं तुम्हें सिखाना चाह रही थी कि "जिंदगी का केक" भी इसी प्रकार की बेस्वाद घटनाओं को मिलाकर बनाया जाता है।"

 

"फेल हो गई हो तो इसे चुनौती समझो मेहनत करके पास हो जाओ। सहेली से झगड़ा हो गया है तो अपना व्यवहार इतना मीठा बनाओ कि फिर कभी किसी से झगड़ा न हो। यदि मानसिक तनाव के कारण "ड्रेस" जल गई तो आगे से सदा ध्यान रखो कि मन की स्थिति हर परिस्थिति में अच्छी हो। बिगड़े मन से काम भी तो बिगड़ेंगेl कार्यों को कुशलता से करने के लिए मन के चिंतनको कुशल बनाना अनिवार्य है।"

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