ज्ञानवर्धक
कथाएं भाग -21
👉 ईश्वर और विज्ञान
1970 के समय तिरुवनंतपुरम में
समुद्र के पास एक बुजुर्ग भगवद् गीता पढ़ रहे थे। तभी एक नास्तिक और होनहार नौजवान
उनके पास आकर बैठा, उसने उन पर कटाक्ष किया कि लोग भी कितने
मूर्ख है विज्ञान के युग में गीता जैसी ओल्ड फैशन्ड बुक पढ़ रहे है। उसने उन सज्जन
से कहा कि आप यदि यही समय विज्ञान को दे देते तो अब तक देश ना जाने कहाँ पहुँच
चुका होता, उन सज्जन ने उस नौजवान से परिचय पूछा तो उसने
बताया कि वो कोलकाता से है और विज्ञान की पढ़ाई की है अब यहाँ भाभा परमाणु अनुसंधान
में अपना कैरियर बनाने आया है।
आगे उसने कहा कि आप भी थोड़ा ध्यान
वैज्ञानिक कार्यो में लगाये भगवद्गीता पढ़ते रहने से आप कुछ हासिल नही कर सकोगे।
सज्जन मुस्कुराते हुए जाने के लिये
उठे,
उनका उठना था की 4 सुरक्षाकर्मी वहाँ उनके आसपास आ गए, आगे ड्राइवर ने कार लगा दी जिस पर लाल बत्ती लगी थी। लड़का घबराया और उसने
उनसे पूछा "आप कौन है??"
उन सज्जन ने अपना नाम बताया 'विक्रम
साराभाई' जिस भाभा परमाणु अनुसंधान में लड़का अपना कैरियर
बनाने आया था उसके अध्यक्ष वही थे।
उस समय विक्रम साराभाई के नाम पर 13
अनुसंधान केंद्र थे, साथ ही साराभाई को तत्कालीन प्रधानमंत्री
श्रीमती इंदिरा गांधी जी ने परमाणु योजना का अध्यक्ष भी नियुक्त किया था।
अब शर्मसार होने की बारी लड़के की थी
वो साराभाई के चरणों मे रोते हुए गिर पड़ा। तब साराभाई ने बहुत अच्छी बात कही, उन्होंने
कहा
"हर निर्माण के पीछे
निर्माणकर्ता अवश्य है। इसलिए फर्क नही पड़ता ये महाभारत है या आज का भारत, ईश्वर
को कभी मत भूलो।"
आज नास्तिक गण विज्ञान का नाम लेकर
कितना नाच ले मगर इतिहास गवाह है कि विज्ञान ईश्वर को मानने वाले आस्तिकों ने ही
रचा है,
फिर चाहे वो किसी भी धर्म को मानने वाले क्यों ना हो।
ईश्वर सत्य है।
👉 चीजें हमेशा वैसी नहीं होतीं, जैसी
दिखती हैं
एक साधु अपने शिष्य के साथ किसी
अंजान नगर में घूमते हुए पहुंचे। रात बहुत हो चुकी थी इसलिए वे दोनों रात गुजारने
के लिए किसी आसरे की तलाश कर रहे थे। तभी शिष्य ने अपने गुरु के कहने पर किसी के
घर का दरवाजा खटखटाया। वो घर किसी धनी परिवार का था। दरवाजे की आवाज सुनकर घर के
अंदर से परिवार का मुखिया बाहर निकलकर आया। वह संकीर्ण वृत्ति का था। साधु के आसरा
मांगने पर उसने कहा – ”मैं अपने घर के अंदर तो आपको नहीं ठहरा सकता, लेकिन
तलघर में हमारा गोदाम है। आप चाहें तो रात वहां गुजार सकते हैं, किंतु सवेरा होते ही आपको यहां से जाना होगा।”
साधु अपने शिष्य के साथ तलघर में
रात गुजारने के लिए मान गये। तलघर के कठोर आंगन पर वे विश्राम की तैयारी कर ही रहे
थे कि तभी साधु को दीवार में एक सुराख नजर आया। साधु ने सुराख को गौर से देखा और
कुछ देर चिंतन के बाद उसे भरने में जुट गये। शिष्य ने सुराख को भरने का कारण जानना
चाहा तो साधु ने कहा – ”चीजें हमेशा वैसी नहीं होतीं, जैसी
दिखती है।” दूसरी रात वे दोनों एक निर्धन किसान के घर आसरा मांगने पहुंचे।
किसान और उसकी पत्नी ने प्रेम व आदर
पूर्वक उनका स्वागत किया। इतना ही नही उनके पास जो कुछ भी रूखा-सूखा था, वह
उन्होंने अपने मेहमान के साथ बांटकर खाया और फिर उन्हें रात गुजारने के लिए अपना
बिस्तर भी दिया और स्वयं नीचे फर्श पर सो गये। सुबह होते ही साधु व उनके शिष्य ने
देखा कि किसान और उसकी पत्नी बहुत रो रहे थे क्योंकि उनका बैल खेत में मृत पड़ा था।
यह बैल किसान की रोज़ी-रोटी का सहारा था। यह सब देखकर शिष्य ने साधु से कहा –
”गुरुजी, आपके पास तो अनेक सिद्धियां हैं, फिर आपने यह सब कैसे होने दिया? उस धनी के पास तो
इतना कुछ था, फिर भी आपने उसके तलघर की मरम्मत करके उसकी
सहायता की। जबकि इस गरीब किसान के पास कुछ ना होते हुए भी इसने हमारा इतना सम्मान
किया। फिर आपने कैसे उसके बैल को मरने दिया।”
साधु ने कहा – चीज़ें हमेशा वैसी
नहीं होतीं, जैसी दिखती है।
साधु ने अपनी बात स्पष्ट कि – उस
धनी के तलघर में सुराख से मैंने देखा उस दीवार के पीछे स्वर्ण का भंडार था। लेकिन
वह धनी बेहद ही लोभी और कंजूस था। इस कारण मैंने उस सुराख को बंद कर दिया, ताकि
स्वर्ण का भंडार गलत हाथ में ना जाएं। जबकि इस ग़रीब किसान के घर में हम इसके
बिस्तर पर आराम कर रहे थे। रात्रि में इस किसान की पत्नी की मौत लिखी थी और जब
यमदूत उसके प्राण हरने आए तो मैंने उन्हें रोक दिया। चूंकि यमदूत खाली हाथ नहीं जा
सकते थे, इसलिए मैंने उनसे किसान के बैल के प्राण हरने के
लिए कहा।
अब तुम ही बताओ, मैंने
सही किया या गलत। यह सुनकर शिष्य अपने गुरु के समक्ष नतमस्तक हो गया।
दोस्तों, ठीक
इसी प्रकार दुनिया हमें वैसी नहीं दिखती जैसी वह हैं, बल्कि
वैसी ऩज़र आती हैं जैसे हम है। अगर सच में कुछ बदलना है तो सर्वप्रथम अपनी सोच,
कर्म व अपने आप को बदलने की कोशिश करों।
👉 अद्भुत पात्र
एक राजमहल के द्वार पर बड़ी भीड़
लगी थी किसी भिक्षुक ने राजा से भिक्षा मांगी थी राजा ने उससे कहा, जो
भी चाहते हो मांग लो दिवस के प्रथम याचक की कोई भी इच्छा पूरी करने का उसका नियम
था उस भिक्षुक ने अपने छोटे से भिक्षापात्र को आगे बढ़ाया और कहा बस इसे स्वर्ण
मुद्राओं से भर दे'।
राजा ने सोचा इससे सरल बात और क्या
हो सकती है लेकिन जब उस भिक्षा पात्र में स्वर्ण मुद्राएं डाली गई तो ज्ञात हुआ कि
उसे भरना असंभव था वह तो जादुई था जितनी अधिक मुद्राएं उसमें डाली गई वह उतना ही
अधिक खाली होता गया राजा को दुखी देख वह भिक्षुक बोला न भर सकें तो वैसा कह दे मैं
खाली पात्र को ही लेकर चला जाऊंगा राजा! ज्यादा से ज्यादा इतना ही होगा कि लोग
कहेंगे कि राजा अपना वचन पूरा नहीं कर सके।
राजा ने अपना सारा खजाना खाली कर
दिया,
उसके पास जो कुछ भी था सभी उस पात्र में डाल दिया गया लेकिन अद्भुत
पात्र न भरा, सो न भरा तब उस राजा ने पूछा भिक्षु तुम्हारा
पात्र साधारण नहीं है उसे भरना मेरी सामर्थ्य से बाहर है क्या मैं पूछ सकता हूं
कि इस अद्भुत पात्र का रहस्य क्या है।।?
वह भिक्षुक हंसने लगा और बोला कोई
विशेष रहस्य नहीं राजा यह पात्र मनुष्य के हृदय से बनाया गया है क्या आपको ज्ञात
नहीं है कि मनुष्य का हृदय कभी भी भरा नहीं जा सकता।।? धन
से पद से ज्ञान से- किसी से भी भरो वह खाली ही रहेगा, क्योंकि
इन चीजों से भरने के लिए वह बना ही नहीं है इस सत्य को न जानने के कारण ही मनुष्य
जितना पाता है उतना ही दरिद्र होता जाता है हृदय की इच्छाएं कुछ भी पाकर शांत नहीं
होती हैं क्यों।।? क्योंकि, हृदय तो
परमात्मा को पाने के लिए बना है और परमात्मा सत्य में बसता है शांति चाहते हो ?
संतृप्ति चाहते हो।।?
तो अपने संकल्प को कहने दो कि परमात्मा और सत्य के अतिरिक्त
और मुझे कुछ भी नहीं चाहिए।
👉 शांति की तलाश
एक बार भगवान बुद्ध अपने शिष्यों के
साथ कही जा रहे थे। उनके प्रिय शिष्य आनंद ने मार्ग में उनसे एक प्रश्न पूछा
-‘भगवान! जीवन में पूर्ण रूप से कभी शांति नहीं मिलती, कोई
ऐसा मार्ग बताइए कि जीवन में सदा शांति का अहसास हो।
बुद्ध आनंद का प्रश्न सुनकर मुसकुराते
हुए बोले,
तुम्हें इसका जबाव अवश्य देंगे किन्तु अभी हमें प्यास लगी है,
पहले थोडा जल पी ले। क्या हमारे लिए थोडा जल लेकर आओगे?
बुद्ध का आदेश पाकर आनंद जल की खोज
में निकला तो थोड़ी ही दूरी पर एक झरना नजर आया। वह जैसे ही करीब पहुंचा तब तक कुछ
बैलगाड़ियां वहां आ पहुंची और झरने को पार करने लगी। उनके गुजरने के बाद आनंद ने
पाया कि झील का पानी बहुत ही गन्दा हो गया था इसलिए उसने कही और से जल लेने का
निश्चय किया। बहुत देर तक जब अन्य स्थानों पर जल तलाशने पर जल नहीं मिला तो निराश
होकर उसने लौटने का निश्चय किया।
उसके खाली हाथ लौटने पर जब बुद्ध ने
पूछा तो उसने सारी बाते बताई और यह भी बोला कि एक बार फिर से मैं किसी दूसरी झील
की तलाश करता हूँ जिसका पानी साफ़ हो। यह कहकर आनंद जाने लगा तभी भगवान बुद्ध की
आवाज सुनकर वह रुक गया। बुद्ध बोले-‘दूसरी झील तलाश करने की जरूरत नहीं, उसी
झील पर जाओ।
आनन्द दोबारा उस झील पर गया किन्तु
अभी भी झील का पानी साफ़ नहीं हुआ था । कुछ पत्ते आदि उस पर तैर रहे थे। आनंद
दोबारा वापिस आकर बोला इस झील का पानी अभी भी गन्दा है। बुद्ध ने कुछ देर बाद उसे
वहाँ जाने को कहा। थोड़ी देर ठहर कर आनंद जब झील पर पहुंचा तो अब झील का पानी
बिलकुल पहले जैसा ही साफ़ हो चुका था। काई सिमटकर दूर जा चुकी थी, सड़े-
गले पदार्थ नीचे बैठ गए थे और पानी आईने की तरह चमक रहा था।
इस बार आनंद प्रसन्न होकर जल ले आया
जिसे बुद्ध पीकर बोले कि आनंद जो क्रियाकलाप अभी तुमने किया, तुम्हारा
जबाव इसी में छुपा हुआ है। बुद्ध बोले -हमारे जीवन के जल को भी विचारों की
बैलगाड़ियां रोज गन्दा करती रहती है और हमारी शांति को भंग करती हैं। कई बार तो हम
इनसे डर कर जीवन से ही भाग खड़े होते है, किन्तु हम भागे
नहीं और मन की झील के शांत होने कि थोड़ी प्रतीक्षा कर लें तो सब कुछ स्वच्छ और
शांत हो जाता है। ठीक उसी झरने की तरह जहाँ से तुम ये जल लाये हो। यदि हम ऐसा करने
में सफल हो गए तो जीवन में सदा शान्ति के अहसास को पा लेंगे।
👉 ईमानदारी ही सर्वश्रेष्ठ नीति
काम की तलाश में इधर-उधर धक्के खाने
के बाद निराश होकर जब वह घर वापस लौटने लगा तो पीछे से आवाज आयी, ऐ
भाई! यहाँ कोई मजदूर मिलेगा क्या?
उसने पीछे मुड़कर देखा तो पाया कि
एक झुकी हुई कमर वाला बूढ़ा तीन गठरियाँ उठाए हुए खड़ा है। उसने कहा, हाँ
बोलो क्या काम है? मैं ही मजदूरी कर लूँगा।
मुझे रामगढ़ जाना है। दो गठरियाँ
में उठा लूँगा, पर मेरी तीसरी गठरी भारी है, इस
गठरी को तुम रामगढ़ पहुँचा दो, मैं तुम्हें दो रुपये दूँगा।
बोलो काम मंजूर है।
ठीक है। चलो आप बुजुर्ग हैं। आपकी
इतनी मदद करना तो यूँ भी मैं अपना फर्ज समझता हूँ। इतना कहते हुए गठरी उठाकर अपने
सिर पर रख ली। किन्तु गठरी रखते ही उसे इसके भारीपन का अहसास हुआ। उसने बूढ़े से
कहा- ये गठरी तो काफी भारी लगती है।
हाँ।।।।। इसमें एक-एक रुपये के
सिक्के हैं। बूढ़े ने लगभग फुसफुसाते हुए कहा।
उसने सुना तो सोचा, होंगे
मुझे क्या? मुझे तो अपनी मजदूरी से मतलब है। ये सिक्के भला
कितने दिन चलेंगे? तभी उसने देखा कि बूढ़ा उस पर नजर रखे हुए
है। उसने सोचा कि ये बूढ़ा जरूर ये सोच रहा होगा, कहीं ये
भाग तो नहीं जाएगा। पर मैं तो ऐसी बेईमानी और चोरी करने में विश्वास नहीं करता।
मैं सिक्कों के लालच में फँसकर किसी के साथ बेईमानी नहीं करूँगा।
चलते-चलते आगे एक नदी आ गयी। वह तो
नदी पार करने के लिए झट से पानी में उतर गया, पर बूढ़ा नदी के किनारे
खड़ा रहा। उसने बूढ़े की ओर देखते हुए पूछा- क्या हुआ? आखिर
रुक क्यों गए?
बूढ़ा आदमी हूँ। मेरी कमर ऊपर से
झुकी हुई है। दो-दो गठरियों का बोझ नहीं उठा सकता।।।। कहीं मैं नदी में डूब ही न
जाऊँ। तुम एक गठरी और उठा लो। मजदूरी की चिन्ता न करना, मैं
तुम्हें एक रुपया और दे दूँगा।
ठीक है लाओ।
पर इसे लेकर कहीं तुम भाग तो नहीं
जाओगे?
क्यों, भला
मैं क्यों भागने लगा?
भाई आजकल किसी का क्या भरोसा? फिर
इसमें चाँदी के सिक्के जो हैं।
मैं आपको ऐसा चोर-बेईमान दिखता हूँ
क्या?
बेफिक्र रहें मैं चाँदी के सिक्कों के लालच में किसी को धोखा देने
वालों में नहीं हूँ। लाइए, ये गठरी मुझे दे दीजिए।
दूसरी गठरी उठाकर उसने नदी पार कर
ली। चाँदी के सिक्कों का लालच भी उसे डिगा नहीं पाया। थोड़ी दूर आगे चलने के बाद
सामने पहाड़ी आ गयी।
वह धीरे - धीरे पहाड़ी पर चढ़ने
लगा। पर बूढ़ा अभी तक नीचे ही रुका हुआ था। उसने कहा-आइए ना, फिर
से रुक क्यों गए? बूढ़ा आदमी हूँ। ठीक से चल तो पाता नहीं
हूँ। ऊपर से कमर पर एक गठरी का बोझ और, उसके भी ऊपर पहाड़ की
दुर्गम चढ़ाई।
तो लाइए ये गठरी भी मुझे दे दीजिए
बेशक और मजदूरी भी मत देना।
पर कैसे दे दूँ? इसमें
तो सोने के सिक्के हैं और अगर तुम इन्हें लेकर भाग गए तो मैं बूढ़ा तुम्हारे पीछे
भाग भी नहीं पाऊँगा।
कहा न मैं ऐसा आदमी नहीं हूँ।
ईमानदारी के चक्कर में ही तो मुझे मजदूरी करनी पड़ रही है, वरना
पहले मैं एक सेठजी के यहाँ मुनीम की नौकरी करता था। सेठजी मुझसे हिसाब में गड़बड़
करके लोगों को ठगने के लिए दबाव डालते थे। तब मैंने ऐसा करने से मना कर दिया और
नौकरी छोड़कर चला आया। उसने यूँ अपना बड़प्पन जताने के लिए गप्प हाँकी।
पता नहीं तुम सच कह रहे हो या।।।।।।
खैर उठा लो ये सोने के सिक्कों वाली तीसरी गठरी भी। मैं धीरे-धीरे आता हूँ। तुम
मुझसे पहले पहाड़ी पार कर लो, तो दूसरी तरफ नीचे रुककर मेरा इंतजार
करना।
वह सोने के सिक्कों वाली गठरी उठाकर
चल पड़ा। बूढ़ा बहुत पीछे रह गया था। उसके दिमाग में आया, अगर
मैं भाग जाऊँ, तो ये बूढ़ा तो मुझे पकड़ नहीं सकता और मैं एक
ही झटके में मालामाल हो जाऊँगा। मेरी पत्नी जो मुझे रोज कोसती रहती है, कितना खुश हो जाएगी? इतनी आसानी से मिलने वाली दौलत
ठुकराना भी बेवकूफी है।।।।।।।।।। एक ही झटके में धनवान हो जाऊँगा। पैसा होगा,
तो इज्जत-ऐश-आराम सब कुछ मिलेगा मुझे।।।।।।।।।
उसके दिल में लालच आ गया और बिना
पीछे देखे भाग खड़ा हुआ। तीन-तीन भारी गठरियों का बोझ उठाए भागते-भागते उसकी साँस
फूल गयी।
घर पहुँचकर उसने गठरियाँ खोल कर
देखीं,
तो अपना सिर पीटकर रह गया। गठरियों में सिक्कों जैसे बने हुए मिट्टी
के ढेले ही थे। वह सोच में पड़ गया कि बूढ़े को इस तरह का नाटक करने की जरूरत ही
क्या थी? तभी उसकी पत्नी को मिट्टी के सिक्कों के ढेर में से
एक कागज मिला, जिस पर लिखा था, “यह
नाटक इस राज्य के खजाने की सुरक्षा के लिए ईमानदार सुरक्षा मंत्री खोजने के लिए
किया गया। परीक्षा लेने वाला बूढ़ा और कोई नहीं स्वयं महाराजा ही थे। अगर तुम भाग
न निकलते तो तुम्हें मंत्री पद और मान-सम्मान सभी कुछ मिलता। पर। “
हम सभी को सचेत रहना चाहिए, न
जाने जीवन देवता कब हममें से किसकी परीक्षा ले ले। प्रलोभनों में न डिगकर
सिद्धान्तों को पकड़े रखने में ही दूरदर्शिता है।
~अखण्ड ज्योति- सितम्बर 1998
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