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ज्ञानवर्धक कथाएं -भाग- 20

 

ज्ञानवर्धक कथाएं -भाग- 20

 

👉 "विवेकशीलता का स्वर्ग"

 

एक सेनापति चीन के दार्शनिक नानुशिंगें के पास जिज्ञासा लेकर गया। उसने जाते ही पूछा-स्वर्ग और नरक के बारे में बताइए।

 

नानुशिंगे ने उसका परिचय पूछा तो अतिथि ने अपने को सेनापति बताया। सुनकर सन्त हँसे और बोले-शक्ल तो आपकी भिखारी जैसी है। सेनापति तो आप लगते नहीं।

 

सुनते ही वह लाल पीला हो गया और अपने अपमानों से उत्तेजित होकर तलवार खींच ली और सिर काटने पर उतारू हो गया।

 

नानुशिंगे ने फिर हँसते हुए कहा-तो तुम्हारे पास तलवार भी है? क्या सचमुच लोहे की है? क्या इस पर धार भी चढ़ी है और अगर है तो तुम्हारी कलाइयों में इतना दम-खम भी है कि मेरी गर्दन काट सको?

 

सेनापति आपे से बाहर हो गया। हाथ काँपने लगे। प्रतीत हुआ कि उसका वार होकर ही रहेगा।

 

नानुशिंगे गम्भीर हो गये। उनने कहा-योद्धा, यही है नरक, जिसकी बात तुम पूछ रहे थे।

 

योद्धा ठंडा पड़ गया। उसने तलवार म्यान में कर ली। इस पर नानुशिंगें ने ठंडी साँस खींचते हुए कहा-देखा, यही है विवेकशीलता का स्वर्ग।

 

जिज्ञासु का समाधान हो गया। वह घर वास लौट गया।

 

अखण्ड ज्योति जनवरी, 1987

 

👉 सच्ची साधना

 

पति का अकाल निधन साध्वी रोहिणी पर वज्राघात था, जिसे सहन कर सकना असम्भव था किन्तु पुत्र देव शर्मा के प्रति कर्त्तव्य और ममता ने उसे जीने के लिए विवश कर दिया। अभ्यास नहीं था तो भी उसने घोर परिश्रम किया और बेटे का न केवल पालन पोषण ही वरन् उसे वेदाँग के अध्ययन जैसी उच्च शिक्षा भी दिलाई। देवशर्मा माँ के प्रताप से अपने समय के श्रेष्ठ विद्वानों में गिना जाने लगा।

 

माँ वृद्धा हो गई थी नीति कहती थी अब बेटे को प्रत्युपकार-करना चाहिये पर दुष्ट कृतघ्नता को क्या कहा जाये-जहाँ भी उसका जन्म हुआ मर्यादायें, नीति और कर्त्तव्य भाव वहीं विश्रृंखलित हुये। संसार में यह जो कलह और अशाँति है कृतघ्नता ही उसका एक मात्र कारण है। बेटे के मन में यह समझ नहीं आई। अपनी मुक्ति, अपना स्वर्ग उसे अधिक आवश्यक लगा सो माँ और छोटी बहन को बिलखता छोड़कर देवशर्मा घर से भाग निकला और तीर्थाटन करते हुये नन्दिग्राम के एक मठ में जाकर तप करने लगा।

 

एक दिन देवशर्मा प्रातःकाल नदी के किनारे पहुँचे। स्नान कर अपना चीवर सूखने के लिये जमीन पर डाल दिया और स्वयं वहीं पर आसन डालकर ध्यान मग्न हो गये। प्रातःकालीन सन्ध्या समाप्त कर जैसे ही देवशर्मा उठे उन्होंने देखा एक कौवा और एक बकुल चीवर को चोंच में दबाकर उड़े जा रहे हैं। देवशर्मा के क्रोध का ठिकाना न रहा। उन्होंने बड़ी-बड़ी तान्त्रिक सिद्धियाँ प्राप्त की थी। शक्ति का मद बड़ा बुरा होता है। उन्होंने क्रोधपूर्ण दृष्टि से पक्षियों की ओर देखा। आँखों से अग्नि ज्वाला फूटी और दोनों पक्षी जलकर वहीं खाक हो गये। देवशर्मा अपनी सिद्धि देखकर फूले नहीं समाये। उन्हें लगा समस्त भूमंडल पर उन जैसा कोई दूसरा सिद्ध नहीं है।

 

अहंकार से भरे देवशर्मा मठ की ओर चल पड़े। मार्ग में नंदिग्राम पड़ता था सोचा आज की भिक्षा भी लेते चलें सो देवशर्मा ने एक सद् गृहस्थ के द्वार पर “भवति भिक्षाँ देहि” की पुकार लगाई और भिक्षा की प्रतीक्षा में वहीं खड़े हो गये।

 

भीतर से आवाज आ रही थी इससे पता चलता था कि गृह स्वामिनी अन्दर ही है पर कोई बाहर नहीं आ रहा यह देखकर देवशर्मा को बड़ा गुस्सा आया। उन्होंने दुबारा तिबारा और चौथी बार भी पुकारा पर हर बार भीतर से एक ही आवाज आई स्वामी जी ठहरिये! मैं अभी साधना कर रही हूँ साधना समाप्त कर लूँगी तक भिक्षा दूँगी तब तक आप खड़े रहिये। देवशर्मा का क्रोध सीमा पार गया। तड़प कर बोले-दुष्टा ! साधना कर रही है या परिहास-जानती नहीं इस अवहेलना का क्या परिणाम हो सकता है।

 

संयत और गम्भीर स्वर भीतर से बाहर आया- महात्मन् जानती हूँ आप शाप देना चाहेंगे किन्तु मैं कोई कौवा और बलाका नहीं, संत ! जो तुम्हारी कोप दृष्टि से जलकर नष्ट हो जाऊँगी। जिसने तुम्हें जीवन भर पाला उस माँ को त्यागकर अपनी मुक्ति चाहने वाले साधु ! आप मेरा कुछ भी तो बिगाड़ नहीं सकते ?

 

देवशर्मा का सिद्धि का अहंकार चूर-चूर हो गया। कुछ देर बाद गृह स्वामिनी घर से बाहर आई और भिक्षा देने लगी। देवशर्मा ने साश्चर्य पूछा-भद्रे ! आप मुझे यह बतादे कि आप कौन सी साधना करती हैं जिससे बिना देखे ही कौए के जलाने और माँ को असहाय छोड़ आने की घटना जान गई।

 

गृह स्वामिनी ने उत्तर दिया---कर्त्तव्य की साधना” महात्मन् ! म् अपने पति, अपने बच्चे, अपने परिवार, समाज और देश के प्रति कर्त्तव्यों का निष्ठापूर्वक पालन करती हूँ। उसी की सिद्धि है यह। देवशर्मा का सिर लज्जा से नीचे झुक गया। भीख नहीं ली उन्होंने -चुपचाप जिस घर को छोड़कर आये थे चल पड़े उसी ओर छोड़ी हुई कर्त्तव्य की साधना पूरी करने।

 

अखण्ड ज्योति दिसम्बर, 1971   

 

 

👉 यार~यार की लड़ाई

 

एक बार एक महात्मा जी बीच बाजार में से कहीँ जा रहे थे। वहीं पास के एक कोठे की छत पर एक वैश्या पान खा रही थी। अचानक उसने बेख्याली से उसने पान की पीक नीचे थूकी और वो पीक नीचे जा रहे महात्मा जी के ऊपर गिरी।

 

महात्मा जी ने ऊपर देखा वेश्या की ओर तथा मुस्करा कर आगे की और बढ़ गए। यह देखकर वैश्या को अपना अपमान समझ, गुस्सा आया। उसने वहीं पर बैठे अपने यार को कहा कि तुम्हारे होते, कोई मुझे देखकर मुस्कुरा रहा है और तुम यहाँ बैठे हो।

 

इतना सुनकर उसके यार ने वहीं पड़ा डंडा उठाया और नीचे उतरकर आगे जा रहे महातमा जी के सर पर जोर से दे मारा और वैश्या की तरफ देखकर मुस्कुराया, कि देख, मैंने बदला ले लिया है।

 

महात्मा जी ने अपना सर देखा जिसमे से खून निकल रहा था। तब भी महात्मा जी कुछ नहीं बोले और मुस्करा दिए और वहीं पास के एक पेड़ के नीचे बैठ गए। उस वैश्या का यार मुस्कुराता हुआ वापस लौटने लगा। जब वो कोठे की सीढ़ियां चढ़ रहा था, तो सबसे ऊपर की सीढ़ी से उसका पैर फिसला और वो सबसे नीचे आ गिरा और उसके बहुत ज्यादा चोट लगी।

 

ये सब वो वैश्या देख रही थी और वो समझ गई कि वो महात्मा जी बहुत ही नाम जपने वाले और सच्चे है। वो नीचे आई और महात्मा जी के पास जाकर पैरो में गिरकर बोली - महात्मा जी मुझे माफ़ कर दो मैंने ही आपके पीछे अपने यार को भेजा था। उसने ही आपके सर पर वार किया था मुझे माफ़ कर दो ।

 

तो उन महात्मा जी ने मुस्करा कर कहा कि बेटी इस सारे झगड़े में तू और मैं कहाँ से आ गए। इसमें  तुम्हारा और मेरा कोई दोष नहीं है ये यार~यार की लड़ाई है। "तुम्हारे यार से तुम्हारी बेइज्जती नहीं देखी गई" और मेरा यार जो वो ऊपरवाला है उससे मेरी तकलीफ नहीं देखी गई। इसलिए इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है। और तुम्हारा यार तो तुम्हारे पास कभी कभी ही आता है कभी दिन में कभी रात में, लेकिन मेरा यार हर वक़्त मेरे साथ ही रहता है।

 

इसलिए तुम भी उसी की शरण लो जो हर वक़्त तुम्हारे साथ ही रहे। "जिंदगी में भी और जिंदगी के बाद भी "

 

👉 माँ

 

गाँव के सरकारी स्कूल में संस्कृत की क्लास चल रही थी। गुरूजी दिवाली की छुट्टियों का कार्य बता रहे थे।

 

तभी शायद किसी शरारती विद्यार्थी के पटाखे से स्कूल के स्टोर रूम में पड़ी दरी और कपड़ो में आग लग गयी। देखते ही देखते आग ने भीषण रूप धारण कर लिया। वहां पड़ा सारा फर्निचर भी स्वाहा हो गया।

 

सभी विद्यार्थी पास के घरो से, हेडपम्पों से जो बर्तन हाथ में आया उसी में पानी भर भर कर आग बुझाने लगे।

 

आग शांत होने के काफी देर बाद स्टोर रूम में घुसे तो सभी विद्यार्थियों की दृष्टि स्टोर रूम की बालकनी (छज्जे) पर जल कर कोयला बने पक्षी की ओर गयी।

 

पक्षी की मुद्रा देख कर स्पष्ट था कि पक्षी ने उड़ कर अपनी जान बचाने का प्रयास तक नही किया था और वह स्वेच्छा से आग में भस्म हो गया था।

 

सभी को बहुत आश्चर्य हुआ।

 

एक विद्यार्थी ने उस जल कर कोयला बने पक्षी को धकेला तो उसके नीचे से तीन नवजात चूजे दिखाई दिए, जो सकुशल थे और चहक रहे थे।

 

उन्हें आग से बचाने के लिए पक्षी ने अपने पंखों के नीचे छिपा लिया और अपनी जान देकर अपने चूजों को बचा लिया था।

 

एक विद्यार्थी ने संस्कृत वाले गुरूजी से प्रश्न किया -

"गुरूजी, इस पक्षी को अपने बच्चो से कितना मोह था, कि इसने अपनी जान तक दे दी ?"

 

गुरूजी ने तनिक विचार कर कहा -

"नहीं,

यह मोह नहीं है अपितु माँ के ममत्व की पराकाष्ठा है, मोह करने वाला ऐसी विकट स्थिति में अपनी जान बचाता और भाग जाता।"

 

भगवान ने माँ को ममता दी है और इस दुनिया में माँ की ममता से बढ़कर कुछ भी नहीं है।

👉 अनुभव और समझ

 

एक बहुत विशाल पेड़ था। उस पर कई हंस रहते थे। उनमें एक बहुत सयाना हंस था। बुद्धिमान और बहुत दूरदर्शी। सब उसका आदर करते ‘ताऊ’ कह कर बुलाते थे। एक दिन उसने एक नन्ही-सी बेल को पेड़ के तने पर बहुत नीचे लिपटते पाया।

 

ताऊ ने दूसरे हंसों को बुलाकर कहा- ‘‘देखो !! उस बेल को नष्ट कर दो। एक दिन यह बेल हम सबको मौत के मुंह में ले जाएगी।’’

 

एक युवा हंस हंसते हुए बोला- ‘‘ताऊ यह छोटी-सी बेल हमें कैसे मौत के मुंह में ले जाएगी?’’

 

सयाने हंस ने समझाया- ‘‘आज यह तुम्हें छोटी-सी लग रही है। धीरे-धीरे यह पेड़ के सारे तने को लपेटा मारकर ऊपर तक आएगी। फिर बेल का तना मोटा होने लगेगा और पेड़ से चिपक जाएगा, तब नीचे से ऊपर तक पेड़ पर चढे के लिए सीढ़ी बन जाएगी। कोई भी शिकारी सीढ़ी के सहारे चढ़कर हम तक पहुंच जाएगा और हम मारे जाएंगे।’’

 

किसी हंस ने ताऊ की बात को गंभीरता से नहीं लिया। समय बीतता रहा। बेल लिपटते-लिपटते ऊपरी शाखाओं तक पहुंच गई। बेल का तना मोटा होना शुरू हुआ और सचमुच ही पेड़ के तने पर सीढ़ी बन गई। एक दिन जब सब हंस दाना चुगने बाहर गए हुए थे तब एक बहेलिया उधर आ निकला। पेड़ पर बनी सीढ़ी को देखते ही उसने पेड़ पर चढ़ कर जाल बिछाया और चला गया। सांझ को सारे हंस लौट आए और पेड़ पर उतरे तो बहेलिए के जाल में बुरी तरह फंस गए। सब ताऊ की बात न मानने के लिए लज्जित थे और अपने आपको कोस रहे थे।

 

एक हंस ने हिम्मत करके कहा- ‘‘ताऊ हम मूर्ख हैं,लेकिन अब हमसे मुंह मत फेरो।’’

 

दूसरा हंस बोला- ‘‘इस संकट से निकलने की तरकीब तुम ही हमें बता सकते हो। आगे हम तुम्हारी बात नहीं टालेंगे।’’

 

सभी हंसों ने हामी भरी, तब ताऊ ने उन्हें बताया- "‘‘मेरी बात ध्यान से सुनो। सुबह जब बहेलिया आएगा, सब मुर्दा होने का नाटक करना। बहेलिया तुम्हें मुर्दा समझकर जाल से निकाल कर जमीन पर रखता जाएगा। वहां भी मरे समान पड़े रहना। जैसे ही वह अंतिम हंस को नीचे रखेगा, मैं सीटी बजाऊंगा। मेरी सीटी सुनते ही सब एक साथ उड़ जाना।’’

 

सुबह बहेलिया आया। हंसों ने वैसा ही किया, जैसा ताऊ ने समझाया था। सचमुच बहेलिया हंसों को मुर्दा समझ कर जमीन पर पटकता गया। सीटी की आवाज के साथ ही सारे हंस उड़ गए। बहेलिया अवाक् होकर देखता रह गया।

 

👉 जिंदगी का सफर-ये कैसा सफर

 

एक प्रोफेसर अपनी क्लास में कहानी सुना रहे थे, जोकि इस प्रकार है–

 

एक बार समुद्र के बीच में एक बड़े जहाज पर बड़ी दुर्घटना हो गयी। कप्तान ने शिप खाली करने का आदेश दिया। जहाज पर एक युवा दम्पति थे। जब लाइफबोट पर चढ़ने का उनका नम्बर आया तो देखा गया नाव पर केवल एक व्यक्ति के लिए ही जगह है। इस मौके पर आदमी ने औरत को धक्का दिया और नाव पर कूद गया।

 

डूबते हुए जहाज पर खड़ी औरत ने जाते हुए अपने पति से चिल्लाकर एक वाक्य कहा।

 

अब प्रोफेसर ने रुककर स्टूडेंट्स से पूछा – तुम लोगों को क्या लगता है, उस स्त्री ने अपने पति से क्या कहा होगा? ज्यादातर विद्यार्थी फ़ौरन चिल्लाये – स्त्री ने कहा – मैं तुमसे नफरत करती हूँ! I hate you!

 

प्रोफेसर ने देखा एक स्टूडेंट एकदम शांत बैठा हुआ था, प्रोफेसर ने उससे पूछा कि तुम बताओ तुम्हे क्या लगता है?

 

वो लड़का बोला – मुझे लगता है, औरत ने कहा होगा – हमारे बच्चे का ख्याल रखना!

 

प्रोफेसर को आश्चर्य हुआ, उन्होंने लडके से पूछा – क्या तुमने यह कहानी पहले सुन रखी थी ? लड़का बोला- जी नहीं, लेकिन यही बात बीमारी से मरती हुई मेरी माँ ने मेरे पिता से कही थी।

 

प्रोफेसर ने दुखपूर्वक कहा – तुम्हारा उत्तर सही है!

 

प्रोफेसर ने कहानी आगे बढ़ाई – जहाज डूब गया, स्त्री मर गयी, पति किनारे पहुंचा और उसने अपना बाकि जीवन अपनी एकमात्र पुत्री के समुचित लालन-पालन में लगा दिया। कई सालों बाद जब वो व्यक्ति मर गया तो एक दिन सफाई करते हुए उसकी लड़की को अपने पिता की एक डायरी मिली। डायरी से उसे पता चला कि जिस समय उसके माता-पिता उस जहाज पर सफर कर रहे थे तो उसकी माँ एक जानलेवा बीमारी से ग्रस्त थी और उनके जीवन के कुछ दिन ही शेष थे।

 

ऐसे कठिन मौके पर उसके पिता ने एक कड़ा निर्णय लिया और लाइफबोट पर कूद गया। उसके पिता ने डायरी में लिखा था – तुम्हारे बिना मेरे जीवन को कोई मतलब नहीं, मैं तो तुम्हारे साथ ही समंदर में समा जाना चाहता था। लेकिन अपनी संतान का ख्याल आने पर मुझे तुमको अकेले छोड़कर जाना पड़ा।

जब प्रोफेसर ने कहानी समाप्त की तो, पूरी क्लास में शांति थी।

 

इस संसार में कईयों सही गलत बातें हैं लेकिन उसके अतिरिक्त भी कई जटिलतायें हैं, जिन्हें समझना आसान नहीं। इसीलिए ऊपरी सतह से देखकर बिना गहराई को जाने-समझे हर परिस्थिति का एकदम सही आकलन नहीं किया जा सकता।

 

कलह होने पर जो पहले माफ़ी मांगे, जरुरी नहीं उसी की गलती हो। हो सकता है वो रिश्ते को बनाये रखना ज्यादा महत्वपूर्ण समझता हो।

 

दोस्तों के साथ खाते-पीते, पार्टी करते समय जो दोस्त बिल पे करता है, जरुरी नहीं उसकी जेब नोटों से ठसाठस भरी हो। हो सकता है उसके लिए दोस्ती के सामने पैसों की अहमियत कम हो।

 

जो लोग आपकी मदद करते हैं, जरुरी नहीं वो आपके एहसानों के बोझ तले दबे हों। वो आपकी मदद करते हैं क्योंकि उनके दिलों में दयालुता और करुणा का निवास है।

 

👉 जिसे आप नहीं पचा सकते हो उसे भला कोई और कैसे पचा पायेगा ।।।।।?

 

राजा अक्षय का राज्य बहुत सुन्दर, समृद्ध और शांत था।  राजा महावीर और एक पराक्रमी योद्धा थे ! परन्तु सुरक्षा को लेकर अक्षय कुछ तनाव में रहते थे क्योंकि सूर्यास्त के बाद शत्रु अकसर उनके राज्य पर घात लगाकर आक्रमण करते रहते थे परन्तु कभी किसी शत्रु को कोई विशेष सफलता न मिली क्योंकि उनका राज्य एक किले पर स्थित था और पहाडी की चढ़ाई नामुमकिन थी और कोई भी शत्रु दिन में विजय प्राप्त नहीं कर सकता था !

 

राज्य में प्रवेश के लिये केवल एक दरवाजा था और दरवाजे को बँद कर दे तो शत्रु लाख कोशिश के बावजूद भी अक्षय के राज्य का कुछ नही बिगाड़ सकते थे !

मंत्री राजकमल हमेशा उस दरवाजे को स्वयं बँद करते थे !

 

एकबार मंत्री और राजा रात के समय कुछ विशेष मंत्रणा कर रहे थे तभी शत्रुओं ने उन्हे बन्दी बनाकर कालकोठरी में डाल दिया !

 

कालकोठरी में राजा और मंत्री बातचीत कर रहे थे ।।।।।।

 

अक्षय - क्या आपने अभेद्य दरवाजे को ठीक से बन्द नही किया था मंत्री जी ?

 

राजकमल - नही राजन मैंने स्वयं उस दरवाजे को बन्द किया था !

 

वार्तालाप चल ही रही थी की वहाँ शत्रु चंद्रेश अपनी रानी व उसके भाई के साथ वहाँ पहुँचा जब अक्षय ने उन्हे  देखा तो अक्षय के होश उड़ गये! और राजा अक्षय अपने गुरुदेव से मन ही मन क्षमा प्रार्थना करने लगे ! फिर शत्रु व उसकी रानी वहाँ से चले गये !

 

राजकमल - क्या हुआ राजन? किन विचारों में खो गये ?

 

अक्षय - ये मैं तुम्हे बाद में बताऊँगा पहले यहाँ से बाहर जाने की तैयारी करो !

 

राजकमल - पर इस अंधेर कालकोठरी से बाहर निकलना लगभग असम्भव है राजन !

 

अक्षय - आप उसकी चिन्ता न कीजिये कल सूर्योदय तक हम यहाँ से चले जायेंगे ! क्योंकि गुरुदेव ने भविष्य को ध्यान में रखते हुये कुछ विशेष तैयारियाँ करवाई थी !

 

कालकोठरी से एक गुप्त सुरंग थी जो सीधी राज्य के बाहर निकलती थी जिसकी पुरी जानकारी राजा के सिवा किसी को न थी और उनके गुरुदेव ने कुछ गहरी राजमय सुरंगों का निर्माण करवाया था और राजा को सख्त आदेश दिया था की इन सुरंगों का राज किसी को न देना, राजा रातोंरात वहाँ से निकलकर मित्र राष्ट्र में पहुँचे सैना बनाकर पुनः आक्रमण किया और पुनः अपने राज्य को पाने में सफल रहे।

 

परन्तु इस युध्द में उनकी प्रिय रानी, उनका पुत्र और आधी से ज्यादा जनता समाप्त हो चुकी थी! जहाँ चहुओर वैभव और समृद्धता थी राज्य शान्त था खुशहाली थी आज चारों तरफ सन्नाटा पसरा था मानो सबकुछ समाप्त हो चुका था!

 

राजकमल – हे  राजन मेरी अब भी ये समझ में नही आया की वो अभेद्य दरवाजा खुला कैसे? शत्रु ने प्रवेश कैसे कर लिया? जब की हमारा हर एक सैनिक पुरी तरह से वफादार है आखिर गलती किसने की ?

 

अक्षय - वो गलती मुझसे हुई थी मंत्रीजी! और इस तबाही के लिये मैं स्वयं को जिम्मेदार मानता हूँ यदि मैंने गुरू आदेश का उल्लंघन न किया होता तो आज ये तबाही न आती मेरी एक गलती ने सबकुछ समाप्त कर दिया ।।!

 

राजकमल - कैसी गलती राजन?

 

अक्षय - शत्रु की रानी का भाई जयपाल कभी मेरा बहुत गहरा मित्र हुआ करता था और उसके पिता अपनी पुत्री का विवाह मुझसे करना चाहते थे पर विधि को कुछ और स्वीकार था और फिर एक छोटे से जमीनी विवाद की वजह से वो मुझे अपना शत्रु मानने लगा! और इस राज्य में प्रवेश का एक और दरवाजा है जो गुरुदेव और मेरे सिवा कोई न जानता था और गुरुदेव ने मुझसे कहा था की शत्रु कब मित्र बन जाये और मित्र कब शत्रु, कोई नही जानता है इसलिये जिन्दगी में एक बात हमेशा याद रखना की जो राज तुम्हे बर्बाद कर सकता है उस राज को राज ही रहने देना कोई कितना भी घनिष्ठ क्यों न हो उसे भी वो राज कभी मत बताना जिसकी वजह से तुम्हारा पतन हो सकता है!

 

और बस यही पर मैंने वो गलती कर दी और वो राज उस मित्र को जा बताया जो शत्रु की रानी का भाई था! जो कभी मित्र था राजदार था वही आगे जाकर शत्रु हो गया इसीलिये आज ये हालात हो गये!

 

राजा राज्य को चारों तरफ से सुरक्षित करके मंत्री को सोप दिया और स्वयं वन को चले गये !

 

ऐसा कोई भी राज जो गोपनीय रखा जाना बहुत आवश्यक हो जिस राज के बेपर्दा होने पर किसी प्रकार का अमंगल हो सकता है सम्भवतः उसे घनिष्ठ से घनिष्ठ व्यक्ति को भी मत बताना क्योंकि काल के गर्भ में क्या छिपा कौन जाने? जिसे आप स्वयं राज नही रख सकते हो उसकी उम्मीद किसी और से क्यों करते हो की वो उस राज को राज बनाये रखेगा ।

 

आज का दिन आपके लिए शुभ एवं मंगलमय हो।

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