ज्ञानवर्धक
कथाएं भाग -23
👉 तोड़ कर जोड़ो
भगवान बुद्ध एक बार निबिड़ वन को
पार करते हुए कहीं जा रहे थे। रास्ते में उनकी भेंट अंगुलिमाल डाकू से हो गई। वह
सदैव अनेक निर्दोषों का वध करके उनकी उंगलियों की माला अपने गले में धारण किया
करता था। आज सामने आये हुए साधु को देखकर उसकी बाछें खिल उठीं।
“आज आप ही मेरे पहले शिकार होंगे” अँगुलिमाल
ने बुद्ध से कहा और अपनी पैनी तलवार म्यान से बाहर निकाली। तथागत मुसकराये, उनने
कहा—”वत्स, तुम्हारा मनोरथ पूर्ण होगा। मैं कहीं भागने वाला
नहीं हूँ। दो क्षण का विलम्ब सहन कर सको तो मेरी एक बात सुन लो।”
डाकू ठिठक गया, उसने
कहा—”कहिए—क्या कहना है?”
तथागत ने कहा—”सामने वाले वृक्ष से
एक पत्ता तोड़कर जमीन पर रख दो।” डाकू ने वैसा ही कर दिया। उन्होंने फिर कहा—”अब
इसे पुनः पेड़ से जोड़ दो।” डाकू ने कहा—यह कैसे संभव है। तोड़ना सरल है पर उसे
जोड़ा नहीं जा सकता।
बुद्ध ने गंभीर मुद्रा में कहा—वत्स, इस
संसार में मार-काट तोड़-फोड़ उपद्रव और विनाश यह सभी सरल हैं। इन्हें कोई तुच्छ
व्यक्ति भी कर सकता है फिर तुम इसमें अपनी क्या विशेषता सोचते हो और किस बात का
अभिमान करते हो? बड़प्पन की बात निर्माण है—विनाश नहीं। तुम
विनाश के तुच्छ आचरण को छोड़कर निर्माण का महान कार्यक्रम क्यों नहीं अपनाते?
अंगुलिमाल के अन्तःकरण में वे शब्द
तीर की तरह घुसते गये। तलवार उसके हाथ से छूट पड़ी। कातर होकर उसने तथागत से
पूछा—”इतनी देर तक पाप कर्म करने पर भी क्या मैं पुनः धर्मात्मा हो सकता हूँ?” वे
बोले—”वत्स, मनुष्य अपने विचार और कार्यों को बदल कर कभी भी
पाप से पुण्य की ओर मुड़ सकता है। धर्म का मार्ग किसी के लिए अवरुद्ध नहीं है। तुम
अपना दृष्टिकोण बदलोगे तो सारा जीवन ही बदल जायगा।” विचार बदले तो मनुष्य बदला।
अँगुलिमाल ने दस्यु कर्म छोड़कर प्रव्रज्या ले ली। वह भगवान बुद्ध के प्रख्यात
शिष्यों में से एक हुआ।
👉 असली पारसमणी
एक व्यक्ति एक संत के पास आया व
उनसे याचना करने लगा कि वह निर्धन है। वे उसे कुछ धन आदि दे दें, ताकि
वह जीविका चला सके। संत ने कहा–– हमारे पास तो वस्त्र के नाम पर यह लँगोटी व
उत्तरीय है। लँगोटी तो आवश्यक है, पर उत्तरीय तुम ले जा सकते
हो। इसके अलावा ओर कोई ऐसी निधि हमारे पास है नहीं। वह व्यक्ति बराबर गिड़गिड़ता
ही रहा, तो वे बोले–– अच्छा, झोंपड़ी
के पीछे एक पत्थर पड़ा होगा। कहते हैं, उससे लोहे को छूकर
सोना बनाया जा सकता है। तुम उसे ले जाओ। प्रसन्नचित्त वह व्यक्ति भागा व उसे लेकर
आया। खुशी से चिल्ला पड़ा–– महात्मन्ǃ यह
तो पारसमणि है। आपने यह ऐसे ही फेंक दी।
संत बोले––हाँ बेटाǃ मैं जानता हूँ और यह भी कि यह नरक की
खान भी है। मेरे पास प्रभुकृपा से आत्मसंतोष रूपी धन है, जो
मुझे निरंतन आत्मज्ञान और अधिक ज्ञान प्राप्त करने को प्रेरित करता है। मेरे लिए
इस क्षणिक उपयोग की वस्तु का क्या मूल्यॽ वह व्यक्ति
एकटक देखता रह गया।
फेंक दी उसने भी पारसमणि। बोला––
भगवन्ǃ जो आत्मसंतोष आपको है व जो कृपा आप पर
बरसी है। उससे मैं इस पत्थर के कारण वंचित नहीं होना चाहता। आप मुझे भी उस दिशा
में बढ़ने की प्रेरणा दें, जो सीधे प्रभुप्राप्ति की ओर ले
जाती है। संत ने उसे शिष्य के रूप में स्वीकार किया। वे दोनों मोक्षसुख पा गये।
विवेकवान् के समक्ष हर वैभव, हर
संपदा तुच्छ है। वह सतत अपने चरमलक्ष्य परमपद की प्राप्ति की ओर बढ़ता रहता है।
👉 साधु की संगति:-
एक चोर को कई दिनों तक चोरी करने का
अवसर ही नहीं मिला। उसके खाने के लाले पड़ गए। मरता क्या न करता। मध्य रात्रि गांव
के बाहर बनी एक साधु की कुटिया में ही घुस गया। वह जानता था कि साधु बड़े त्यागी
हैं। अपने पास कुछ संचय करते तो नहीं रखते फिर भी खाने पीने को तो कुछ मिल ही
जायेगा। आज का गुजारा हो जाएगा फिर आगे की सोची जाएगी।
चोर कुटिया में घुसा ही था कि
संयोगवश साधु बाबा लघुशंका के निमित्त बाहर निकले। चोर से उनका सामना हो गया। साधु
उसे देखकर पहचान गये क्योंकि पहले कई बार देखा था पर उन्हें यह नहीं पता था कि वह
चोर है। उन्हें आश्चर्य हुआ कि यह आधी रात को यहाँ क्यों आया ! साधु ने बड़े प्रेम
से पूछा- कहो बालक! आधी रात को कैसे कष्ट किया ? कुछ काम है क्या ?
चोर बोला- महाराज! मैं दिन भर का भूखा हूं।
साधु बोले- ठीक है, आओ
बैठो। मैंने शाम को धूनी में कुछ शकरकंद डाले थे। वे भुन गये होंगे, निकाल देता हूं। तुम्हारा पेट भर जायेगा। शाम को आये होते तो जो था हम
दोनों मिलकर खा लेते। पेट का क्या है बेटा! अगर मन में संतोष हो तो जितना मिले
उसमें ही मनुष्य खुश रह सकता है। यथा लाभ संतोष’ यही तो है। साधु ने दीपक जलाया,
चोर को बैठने के लिए आसन दिया, पानी दिया और
एक पत्ते पर भुने हुए शकरकंद रख दिए।
साधु बाबा ने चोर को अपने पास में
बैठा कर उसे इस तरह प्रेम से खिलाया, जैसे कोई माँ भूख से
बिलखते अपने बच्चे को खिलाती है। उनके व्यवहार से चोर निहाल हो गया।
सोचने लगा- एक मैं हूं और एक ये
बाबा है। मैं चोरी करने आया और ये प्यार से खिला रहे हैं! मनुष्य ये भी हैं और मैं
भी हूं। यह भी सच कहा है- आदमी-आदमी में अंतर, कोई हीरा कोई कंकर। मैं तो
इनके सामने कंकर से भी बदतर हूं।
मनुष्य में बुरी के साथ भली
वृत्तियाँ भी रहती हैं जो समय पाकर जाग उठती हैं। जैसे उचित खाद-पानी पाकर बीज पनप
जाता है,
वैसे ही संत का संग पाकर मनुष्य की सदवृत्तियाँ लहलहा उठती हैं। चोर
के मन के सारे कुसंस्कार हवा हो गए। उसे संत के दर्शन, सान्निध्य
और अमृत वर्षा सी दृष्टि का लाभ मिला। तुलसी दास जी ने कहा है-
एक घड़ी आधी घड़ी, आधी
में पुनि आध।
तुलसी संगत साध की, हरे
कोटि अपराध।।
साधु की संगति पाकर आधे घंटे के संत
समागम से चोर के कितने ही मलिन संस्कार नष्ट हो गये। साधु के सामने अपना अपराध
कबूल करने को उसका मन उतावला हो उठा।
फिर उसे लगा कि ‘साधु बाबा को पता
चलेगा कि मैं चोरी की नियत से आया था तो उनकी नजर में मेरी क्या इज्जत रह जायेगी!
क्या सोचेंगे बाबा कि कैसा पतित प्राणी है, जो मुझ संत के यहाँ चोरी
करने आया!
लेकिन फिर सोचा, ‘साधु
मन में चाहे जो समझें, मैं तो इनके सामने अपना अपराध स्वीकार
करके प्रायश्चित करूँगा। दयालु महापुरुष हैं, ये मेरा अपराध
अवश्य क्षमा कर देंगे। संत के सामने प्रायश्चित करने से सारे पाप जलकर राख हो जाते
हैं।
भोजन पूरा होने के बाद साधु ने कहा-
बेटा ! अब इतनी रात में तुम कहाँ जाओगे। मेरे पास एक चटाई है। इसे ले लो और आराम
से यहीं कहीं डालकर सो जाओ। सुबह चले जाना। नेकी की मार से चोर दबा जा रहा था। वह
साधु के पैरों पर गिर पड़ा और फूट-फूट कर रोने लगा। साधु समझ न सके कि यह क्या
हुआ! साधु ने उसे प्रेमपूर्वक उठाया, प्रेम से सिर पर हाथ फेरते
हुए पूछा- बेटा ! क्या हुआ?
रोते-रोते चोर का गला रूँध गया।
उसने बड़ी कठिनाई से अपने को संभालकर कहा-महाराज ! मैं बड़ा अपराधी हूं। साधु
बोले- भगवान सबके अपराध क्षमा करने वाले हैं। शरण में आने से बड़े-से-बड़ा अपराध
क्षमा कर देते हैं। उन्हीं की शरण में जा।
चोर बोला-मैंने बड़ी चोरियां की हैं।
आज भी मैं भूख से व्याकुल आपके यहां चोरी करने आया था पर आपके प्रेम ने मेरा जीवन
ही पलट दिया। आज मैं कसम खाता हूँ कि आगे कभी चोरी नहीं करूँगा। मुझे अपना शिष्य
बना लीजिए।
साधु के प्रेम के जादू ने चोर को
साधु बना दिया। उसने अपना पूरा जीवन उन साधु के चरणों में सदा के समर्पित करके
जीवन को परमात्मा को पाने के रास्ते लगा दिया। महापुरुषों की सीख है, सबसे
आत्मवत व्यवहार करें क्योंकि सुखी जीवन के लिए निःस्वार्थ प्रेम ही असली खुराक है।
संसार इसी की भूख से मर रहा है। अपने हृदय के आत्मिक प्रेम को हृदय में ही मत छिपा
रखो।
प्रेम और स्नेह को उदारता से खर्च
करो। जगत का बहुत-सा दुःख दूर हो जाएगा। भटके हुए व्यक्ति को अपनाकर ही मार्ग पर
लाया जा सकता है, दुत्कार कर नहीं।
👉 सच्चा सद्भाव
पुत्र की उम्र पचास को छूने लगी।
पिता पुत्र को व्यापार में स्वतन्त्रता नहीं देता था, तिजोरी
की चाबी भी नहीं। पुत्र के मन में यह बात खटकती रहती थी। वह सोचता था कि यदि मेरा
पिता पन्द्रह-बीस वर्ष तक और रहेगा तो मुझे स्वतन्त्र व्यापार करने का कोई अवसर
नहीं मिलेगा। स्वतन्त्रता सबको चाहिये। मन में चिढ़ थी, कुढ़न
थी। एक दिन वह फूट पड़ी। पिता-पुत्र में काफी बकझक हुई। सम्पदा का बँटवारा हुआ।
पिता अलग रहने लगा। पुत्र अपने बहू-बच्चोंक साथ अलग रहने लगा।
पिता अकेले थे। उनकी पत्नी का
देहान्त हो चुका था। किसी दूसरे को सेवा के लिए नहीं रखा; क्योंकि
उनके स्वभावमें किसी के प्रति विश्वास नहीं था, यहाँ तक कि
पुत्र के प्रति भी नहीं था। वे स्वयं ही अपने हाथ से रुखा-सूखा भोजन बनाकर कर लेते,
कभी भूखे सो जाते। जब उनकी पुत्रवधू को यह बात मालूम पड़ी तो उसे
बहुत दु:ख हुआ। आत्मग्लानि भी हुई। उसे बाल्यकाल से ही धर्म का संस्कार था- बड़ों
के प्रति आदर एवं सेवा का भाव था। उसने अपने पति को मनाने का प्रयास किया, परंतु वे नहीं माने। पिता के प्रति पुत्र के मन में कोई सद्भाव नहीं था।
अब बहू ने एक विचार अपने मन में दृढ़ कर लिया और कार्यान्वित किया। वह पहले रोटी
बनाकर अपने पति-पुत्र को खिलाकर दूकान और स्कूल भेज देती। स्वयं श्वसुर के गृह चली
जाती। वहाँ भोजन बनाकर श्वसुर को खिला देती और सायंकाल के लिए पराठे बनाकर रख
देती।
कुछ दिनों तक ऐसा ही चलता रहा। जब
पति को मालूम पड़ा तो उन्होंने रोका- ‘ऐसा क्यों करती हो? बीमार
पड़ जाओगी। आखिर शरीर ही तो है, कितना परिश्रम सहेगा!’ बहू बोली-
‘मेरे ईश्वर के समान आदरणीय श्वसुर भूखे रहें’; इसके बिना
मुझे कुछ संतोष नहीं है, बड़ी ग्लानि है। मैं उन्हें खिलाये
बिना खा नहीं सकती। भोजन के समय उनकी याद आने पर मुझे आँसू आने लगते हैं। उन्होंने
ही तुम्हें पाल-पोसकर बड़ा किया है, तब तुम मुझे पति के रुप में
मिले हो। तुम्हारे मन में कृतज्ञता का भाव नहीं है तो क्या हुआ; मैं उनके प्रति कैसे कृतघ्न हो सकती हूँ?
पत्नी के सद्भाव ने पतिकी निष्ठुरता
पर विजय प्राप्त कर ली। उसने जाकर पिता के चरण छुये, क्षमा माँगी,
घर ले आये- पति-पत्नी दोनों पिताकी सेवा करने लगे। पिता ने व्यापार
का सारा भार पुत्र पर छोड़ दिया। वे अब पुत्रके किसी कार्य में हस्तक्षेप नहीं करते
थे।
परिवार के किसी भी व्यक्ति में यदि
सच्चा सद्भाव हो तो वह सबके मन को जोड़ सकता है। मन का मेल ही सच्चा पारिवारिक सुख
है।
👉 कस्तूरी कुण्डल बसे, मृग
ढूँढे बन माँहि!!
एक बार भगवान दुविधा में पड़ गए।
लोगों की बढ़ती साधना वृत्ति से वह प्रसन्न तो थे पर इससे उन्हें व्यावहारिक
मुश्किलें आ रही थीं। कोई भी मनुष्य जब मुसीबत में पड़ता,तो
भगवान के पास भागा-भागा आता और उन्हें अपनी परेशानियां बताता। उनसे कुछ न कुछ
मांगने लगता। भगवान इससे दुखी हो गए थे।
अंतत: उन्होंने इस समस्या के
निराकरण के लिए देवताओं की बैठक बुलाई और बोले- देवताओं !! मैं मनुष्य की रचना
करके कष्ट में पड़ गया हूं। कोई न कोई मनुष्य हर समय शिकायत ही करता रहता है, जिससे
न तो मैं कहीं शांति पूर्वक रह सकता हूं,न ही तपस्या कर सकता
हूं। आप लोग मुझे कृपया ऐसा स्थान बताएं जहां मनुष्य नाम का प्राणी कदापि न पहुंच
सके।
प्रभू के विचारों का आदर करते हुए
देवताओं ने अपने-अपने विचार प्रकट किए।
गणेश जी बोले- आप हिमालय पर्वत की
चोटी पर चले जाएं।
भगवान ने कहा- यह स्थान तो मनुष्य
की पहुंच में है। उसे वहां पहुंचने में अधिक समय नहीं लगेगा।
इंद्रदेव ने सलाह दी कि वह किसी
महासागर में चले जाएं।"
वरुण देव बोले आप अंतरिक्ष में चले
जाइए।
भगवान ने कहा- एक दिन मनुष्य वहां
भी अवश्य पहुंच जाएगा।
भगवान निराश होने लगे थे। वह मन ही
मन सोचने लगे- क्या मेरे लिए कोई भी ऐसा गुप्त स्थान नहीं है, जहां
मैं शांतिपूर्वक रह सकूं ?
अंत में सूर्य देव बोले- प्रभू !!
आप ऐसा करें कि मनुष्य के हृदय में बैठ जाएं। मनुष्य अनेक स्थान पर आपको ढूंढने
में सदा उलझा रहेगा। पर वह यहाँ आपको कदापि न तलाश करेगा।
ईश्वर को सूर्य देव की बात पसंद आ
गई। उन्होंने ऐसा ही किया। वह मनुष्य के हृदय में जाकर बैठ गए। उस दिन से मनुष्य
अपना दुख व्यक्त करने के लिए ईश्वर को ऊपर, नीचे, दाएं,बाएं,आकाश, पाताल में ढूंढ रहा है पर वह मिल नहीं रहे। मनुष्य अपने भीतर बैठे हुए
ईश्वर को नहीं देख पा रहा है।
👉 सम्मान
एक
वृद्ध माँ रात को 11:30 बजे रसोई में बर्तन साफ कर रही है, घर
में दो बहुएँ हैं, जो बर्तनों की आवाज से परेशान होकर अपने
पतियों को सास को उल्हाना देने को कहती हैं
वो कहती है आपकी माँ को मना करो
इतनी रात को बर्तन धोने के लिये हमारी नींद खराब होती है साथ ही सुबह 4 बजे उठकर
फिर खट्टर पट्टर शुरू कर देती है सुबह 5 बजे पूजा
आरती करके हमे सोने नही देती ना रात
को ना ही सुबह जाओ सोच क्या रहे हो जाकर माँ को मना करो
बड़ा बेटा खड़ा होता है और रसोई की
तरफ जाता है रास्ते मे छोटे भाई के कमरे में से भी वो ही बाते सुनाई पड़ती जो उसके
कमरे हो रही थी वो छोटे भाई के कमरे को खटखटा देता है छोटा भाई बाहर आता है।
दोनो भाई रसोई में जाते हैं, और
माँ को बर्तन साफ करने में मदद करने लगते है, माँ मना करती
पर वो नही मानते, बर्तन साफ हो जाने के बाद दोनों भाई माँ को
बड़े प्यार से उसके कमरे में ले जाते है, तो देखते हैं पिताजी
भी जागे हुए हैं
दोनो भाई माँ को बिस्तर पर बैठा कर
कहते हैं,
माँ सुबह जल्दी उठा देना, हमें भी पूजा करनी
है, और सुबह पिताजी के साथ योगा भी करेंगे
माँ बोली ठीक है बच्चों, दोनो
बेटे सुबह जल्दी उठने लगे, रात को 9:30 पर ही बर्तन मांजने
लगे, तो पत्नियां बोलीं माता जी करती तो हैं आप क्यों कर रहे
हो बर्तन साफ, तो बेटे बोले हम लोगो की शादी करने के पीछे एक
कारण यह भी था कि माँ की सहायता हो जायेगी पर तुम लोग ये कार्य नही कर रही हो कोई
बात नही हम अपनी माँ की सहायता कर देते है
हमारी तो माँ है इसमें क्या बुराई
है, अगले तीन दिनों में घर मे पूरा बदलाव आ गया बहुएँ जल्दी बर्तन इसलिये साफ
करने लगी की नही तो उनके पति बर्तन साफ
करने लगेंगे साथ ही सुबह भी वो भी पतियों के साथ ही उठने लगी और पूजा आरती में
शामिल होने लगी
कुछ दिनों में पूरे घर के वातावरण
में पूरा बदलाव आ गया बहुएँ सास ससुर को पूरा सम्मान देने लगी ।
कहानी का सार।
माँ का सम्मान तब कम नही होता जब
बहुवे उनका सम्मान नही करती, माँ का सम्मान तब कम होता है जब बेटे
माँ का सम्मान नही करे या माँ के कार्य मे सहयोग ना करे ।
जन्म का रिश्ता हैं।
माता पिता पहले आपके हैं।
👉 धन नहीं धन का संग्रह पाप:-
गोपाल्लव हजार गायों का स्वामी
नगर-सेठ। धन की अथाह राशि थी उसके पास। किन्तु तो भी गोपाल्लव के जीवन में कोई रस
नहीं था,
शान्ति नहीं थी, कभी उसने सन्तोष का अनुभव
किया हो ऐसा कभी भी नहीं हुआ। वैभव विलास से परिपूर्ण जीवन का एक क्षण भी तो उसे
ऐसा याद नहीं आ रहा था जब उसने निर्द्वंदता प्राप्त की हो।
विषय-भोगी गोपाल्लव को यह सब भली
प्रकार सोचने का अवसर तब मिला जब राजयक्ष्मा से पीड़ित होकर वह रोग शैया से जा
लगा। गोपाल्लव सोच रहे- 'धन की आसक्ति, विषयों
के सुख का आकर्षण कितना प्रबल है कि मनुष्य यह भी नहीं सोच पाता कि इस संसार से
परे भी कुछ है क्या ? शरीर कृश और जराजीर्ण हो गया तब कहीं
मृत्यु याद आती है और मनुष्य सोचता है कि जीवन व्यर्थ गया,पाया
कुछ नहीं, गांठ में था सो भी खो दिया।'
गोपाल्लव पड़े यही सोच रहे थे तभी
उसके कर्ण-कुहरों पर टकराई एक ध्वनि-बहुत मीठी, भक्ति की भावनाओं से
ओत-प्रोत। ऐसा लगा द्वार पर ही बैठा हुआ कोई व्यक्ति भक्ति-गीत गा रहा है। मन को
सच्चा सुख भावनाओं में मिलता है। जीवन भर के भूले भटके राही को परमपिता परमात्मा
की क्षणिक अनुभूति भी कितना सुख कितना विश्राम देती है यह उस गोपाल्लव को देखता तो
सहज ही पता चल जाता। भजन सुनने से ऐसा आराम मिला मानो जलते घावों पर किसी ने शीतल
मरहम लगा दिया हो। गोपाल्लव को नींद आ गई आज वे पूर्ण-प्रगाढ़ नींद भर सोये।
नींद टूटी तो वह स्वर-अन्तर्धान हो
चुका था। गोपाल्लव ने परिचारक से पूछा- "अभी थोड़ी देर पूर्व बाहर कौन गा रहा
था उसे भीतर तो बुलाना, बड़ा ही कर्ण प्रिय स्वर था। उसने मुझे जो
शान्ति प्रदान की वह अब तक कभी भी नहीं मिली।"
परिचारक ने हंसकर कहा- "वह कोई
संगीतज्ञ नहीं था आर्य! वह तो नगर का मोची है यहीं बैठकर जूते गांठता है और दिन भर
के निर्वाह योग्य धन मिलते ही उठकर चला जाता है। सुना है वह अपने ही बनाये पद गाता
है, बड़ा ईश्वर भक्त है। तभी तो उसके हर शब्द से रस टपकता है।"
प्रातःकाल वही स्वर फिर सुनाई दिया।
गोपाल्लव ने मोची को बुलाकर उसे एक स्वर्ण मुद्रा देते हुए कहा- "तात! यह लो
स्वर्ण मुद्रा तुम्हारे कल के गीत ने मुझे अपूर्व शान्ति प्रदान की।"
स्वर्ण मुद्रा पाकर मोची बड़ा
प्रसन्न हुआ। खुशी-खुशी घर लौट आया किन्तु उसके बाद कई दिन तक उसका स्वर सुनाई न
दिया। सप्ताहान्त मोची आया और सीधे गोपाल्लव के पास जाकर बोला- ”अर्थ
कामेष्वसक्तानाँ धर्म ज्ञानं विधीयते” तात! धन और इंद्रियों के वशवर्ती नहीं है जो
वहीं धर्म और ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। आत्म-कल्याण के मार्ग में यह दोनों
वस्तुयें बाधक हैं।"
यह कहकर उसने स्वर्ण मुद्रा लौटा
दी। गोपाल्लव ने पूछा- "कई दिन से आये नहीं।"
मोची ने उत्तर दिया- "आर्य! धन
की तृष्णा बुरी होती है आपकी दी इस स्वर्ण मुद्रा की रक्षा और उसके उपयोग का
चिन्तन करने के आगे मुझे अपना मार्ग ही भूल गया था इसीलिए तो इसे लौटाने आया
हूँ।"
गोपाल्लव ने अनुभव किया धन का
जीवनोपयोगी उपभोग ही पर्याप्त है परिग्रह से कभी शान्ति नहीं मिल सकती अपना धर्म
धर्मार्थ व्यय कर उसने भी मोची की तरह परम शान्ति पाई।
📖 अखण्ड ज्योति जून 1971 पृष्ठ
👉 कर्म फल
एक बार शंकर जी पार्वती जी भ्रमण पर
निकले। रास्ते में उन्होंने देखा कि एक तालाब में कई बच्चे तैर रहे थे, लेकिन
एक बच्चा उदास मुद्रा में बैठा था। पार्वती जी ने शंकर जी से पूछा, यह बच्चा उदास क्यों है? शंकर जी ने कहा, बच्चे को ध्यान से देखो। पार्वती जी ने देखा, बच्चे
के दोनों हाथ नही थे, जिस कारण वो तैर नही पा रहा था।
पार्वती जी ने शंकर जी से कहा कि आप शक्ति से इस बच्चे को हाथ दे दो ताकि वो भी
तैर सके।
शंकर जी ने कहा, हम
किसी के कर्म में हस्तक्षेप नही कर सकते हैं क्योंकि हर आत्मा अपने कर्मो के फल
द्वारा ही अपना काम अदा करती है। पार्वती जी ने बार बार विनती की। आखिरकर शंकर जी
ने उसे हाथ दे दिए। वह बच्चा भी पानी में तैरने लगा।
एक सप्ताह बाद शंकर जी पार्वती जी
फिर वहाँ से गुज़रे। इस बार मामला उल्टा था, सिर्फ वही बच्चा तैर रहा
था और बाकी सब बच्चे बाहर थे। पार्वती जी ने पूछा यह क्या है ? शंकर जी ने कहा, ध्यान से देखो। देखा तो वह बच्चा
दूसरे बच्चों को पानी में डुबो रहा था इसलिए सब बच्चे भाग रहे थे। शंकर जी ने जवाब
दिया : हर व्यक्ति अपने कर्मो के अनुसार फल भोगता है। भगवान किसी के कर्मो के फेर
में नही पड़ते है। उसने पिछले जन्मो में हाथों द्वारा यही कार्य किया था इसलिए उसके
हाथ नही थे। हाथ देने से पुनः वह दूसरों की हानि करने लगा है।
प्रकृति नियम के अनुसार चलती है, किसी
के साथ कोई पक्षपात नही। आत्माएँ जब ऊपर से नीचे आती हैं तो अच्छी ही होती हैं,
कर्मो अनुसार कोई अपाहिज है तो कोई भिखारी, तो
कोई गरीब तो कोई अमीर लेकिन सब परिवर्तन शील है। अगर महलों में रहकर या पैसे के
नशे में आज कोई बुरा काम करता है तो कल उसका भुगतान तो सबको करना ही पड़ेगा।
👉 सहनशीलता एवं क्षमाशीलता
बुद्ध भगवान एक गाँव में उपदेश दे
रहे थे। उन्होंने कहा कि “हर किसी को धरती माता की तरह सहनशील तथा क्षमाशील होना
चाहिए। क्रोध ऐसी आग है जिसमें क्रोध करने वाला दूसरों को जलाएगा तथा खुद भी जल
जाएगा।”
सभा में सभी शान्ति से बुद्ध की
वाणी सुन रहे थे, लेकिन वहाँ स्वभाव से ही अतिक्रोधी एक ऐसा
व्यक्ति भी बैठा हुआ था जिसे ये सारी बातें बेतुकी लग रही थी। वह कुछ देर ये सब
सुनता रहा फिर अचानक ही आग- बबूला होकर बोलने लगा, “तुम
पाखंडी हो। बड़ी-बड़ी बातें करना यही तुम्हारा काम है। तुम लोगों को भ्रमित कर रहे
हो, तुम्हारी ये बातें आज के समय में कोई मायने नहीं रखतीं “
ऐसे कई कटु वचनों सुनकर भी बुद्ध
शांत रहे। अपनी बातों से ना तो वह दुखी हुए, ना ही कोई प्रतिक्रिया की;
यह देखकर वह व्यक्ति और भी क्रोधित हो गया और उसने बुद्ध के मुंह पर
थूक कर वहाँ से चला गया।
अगले दिन जब उस व्यक्ति का क्रोध
शांत हुआ तो उसे अपने बुरे व्यवहार के कारण पछतावे की आग में जलने लगा और वह
उन्हें ढूंढते हुए उसी स्थान पर पहुंचा, पर बुद्ध कहाँ मिलते वह तो
अपने शिष्यों के साथ पास वाले एक अन्य गाँव निकल चुके थे।
व्यक्ति ने बुद्ध के बारे में लोगों
से पूछा और ढूंढते- ढूंढते जहाँ बुद्ध प्रवचन दे रहे थे वहाँ पहुँच गया। उन्हें
देखते ही वह उनके चरणो में गिर पड़ा और बोला , “मुझे क्षमा कीजिए प्रभु!”
बुद्ध ने पूछा : "कौन हो भाई? तुम्हे
क्या हुआ है ? क्यों क्षमा मांग रहे हो?”
उसने कहा : “क्या आप भूल गए। मै वही
हूँ जिसने कल आपके साथ बहुत बुरा व्यवहार किया था। मै शर्मिन्दा हूँ। मैं मेरे
दुष्ट आचरण की क्षमा याचना करने आया हूँ।”
भगवान बुद्ध ने प्रेमपूर्वक कहा :
“बीता हुआ कल तो मैं वहीं छोड़कर आया और तुम अभी भी वहीँ अटके हुए हो। तुम्हें
अपनी ग़लती का आभास हो गया, तुमने पश्चाताप कर लिया; तुम निर्मल हो चुके हो; अब तुम आज में प्रवेश करो।
बुरी बातें तथा बुरी घटनाएँ याद करते रहने से वर्तमान और भविष्य दोनों बिगड़ते
जाते है। बीते हुए कल के कारण आज को मत बिगाड़ो।”
उस व्यक्ति का सारा बोझ उतर गया।
उसने भगवान बुद्ध के चरणों में पड़कर क्रोध त्याग कर तथा क्षमाशीलता का संकल्प
लिया;
बुद्ध ने उसके मस्तिष्क पर आशीष का हाथ रखा। उस दिन से उसमें
परिवर्तन आ गया, और उसके जीवन में सत्य, प्रेम व करुणा की धारा बहने लगी।
मित्रों, बहुत
बार हम भूत में की गयी किसी गलती के बारे में सोच कर बार-बार दुखी होते और खुद को कोसते
हैं। हमें ऐसा कभी नहीं करना चाहिए, गलती का बोध हो जाने पर
हमे उसे कभी ना दोहराने का संकल्प लेना चाहिए और एक नयी ऊर्जा के साथ वर्तमान को
सुदृढ़ बनाना चाहिए।
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