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ज्ञानवर्धक कथाएं भाग -24

 

ज्ञानवर्धक कथाएं भाग -24

 

 

👉 सत्संग

 

एक शिष्य ने अपने गुरुदेव से पूछा- "गुरुदेव, आपने कहा था कि धर्म से जीवन का रूपान्तरण होता है। लेकिन इतने दीर्घ समय तक आपके चरणों में रहने के बावजूद भी मैं अपने रूपान्तरण को महसूस नहीं कर पा रहा हूँ, तो क्या धर्म से जीवन का रूपान्तरण नहीं होता है?"

 

गुरुदेव मुस्कुराये और उन्होंने बतलाया- "एक काम करो, थोड़ी सी मदिरा लेकर आओ।" शिष्य चौंक गया पर फिर भी शिष्य उठ कर गया और लोटे में मदिरा लेकर आया।

 

गुरुदेव ने शिष्य से कहा- "अब इससे कुल्ला करो।" मदिरा को लोटे में भरकर शिष्य कुल्ला करने लगा। कुल्ला करते-करते लोटा खाली हो गया।

 

गुरुदेव ने पुछा- "बताओ तुम्हें नशा चढ़ा या नहीं?"

 

शिष्य ने कहा- "गुरुदेव, नशा कैसे चढ़ेगा? मैंने तो सिर्फ कुल्ला ही किया है। मैंने उसको कंठ के नीचे उतारा ही नहीं, तो नशा चढ़ने का सवाल ही पैदा नहीं होता।

 

इस पर संत ने कहा- "इतने वर्षो से तुम धर्म का कुल्ला करते आ रहे हो। यदि तुम इसको गले से नीचे उतारते तो तुम पर धर्म का असर पड़ता।

 

जो लोग केवल सतही स्तर पर धर्म का पालन करते हैं। जिनके गले से नीचे धर्म नहीं उतरता, उनकी धार्मिक क्रियायें और जीवन-व्यवहार में बहुत अंतर दिखाई पड़ता है। वे मंदिर में कुछ होते हैं, व्यापार में कुछ और हो जाते है। वे प्रभु के चरणों में कुछ और होते हैं एवं अपने जीवन-व्यवहार में कुछ और, धर्म ऐसा नहीं हैं, जहाँ हम बहुरूपियों की तरह जब चाहे जैसा चाहे वैसा स्वांग रच ले। धर्म स्वांग नहीं है, धर्म अभिनय नहीं है, अपितु धर्म तो जीने की कला है, एक श्रेष्ठ पद्धति है।।"

 

👉 "जीवन चलने का नाम"

 

सरला नाम की एक महिला थी। रोज वह और उसके पति सुबह ही काम पर निकल जाते थे। दिन भर पति ऑफिस में अपना टारगेट पूरा करने की ‘डेडलाइन’ से जूझते हुए साथियों की होड़ का सामना करता था। बॉस से कभी प्रशंसा तो मिली नहीं और तीखी-कटीली आलोचना चुपचाप सहता रहता था। पत्नी सरला भी एक प्रावेट कम्पनी में जॉब करती थी। वह अपने ऑफिस में दिनभर परेशान रहती थी। ऐसी ही परेशानियों से जूझकर सरला लौटती है। खाना बनाती है। शाम को घर में प्रवेश करते ही बच्चों को वे दोनों नाकारा होने के लिए डाँटते थे पति और बच्चों की अलग-अलग फरमाइशें पूरी करते-करते बदहवास और चिड़चिड़ी हो जाती है। घर और बाहर के सारे काम उसी की जिम्मेदारी हैं।

 

थक-हार कर वह अपने जीवन से निराश होने लगती है। उधर पति दिन पर दिन खूंखार होता जा रहा है। बच्चे विद्रोही हो चले हैं। एक दिन सरला के घर का नल खराब हो जाता है। उसने प्लम्बर को नल ठीक करने के लिए बुलाया। प्लम्बर ने आने में देर कर दी। पूछने पर बताया कि साइकिल में पंक्चर के कारण देर हो गई। घर से लाया खाना मिट्टी में गिर गया, ड्रिल मशीन खराब हो गई, जेब से पर्स गिर गया।।।। इन सब का बोझ लिए वह नल ठीक करता रहा।

 

काम पूरा होने पर महिला को दया आ गई और वह उसे गाड़ी में छोड़ने चली गई। प्लंबर ने उसे बहुत आदर से चाय पीने का आग्रह किया। प्लम्बर के घर के बाहर एक पेड़ था। प्लम्बर ने पास जाकर उसके पत्तों को सहलाया, चूमा और अपना थैला उस पर टांग दिया। घर में प्रवेश करते ही उसका चेहरा खिल उठा। बच्चों को प्यार किया, मुस्कराती पत्नी को स्नेह भरी दृष्टि से देखा और चाय बनाने के लिए कहा।

 

सरला यह देखकर हैरान थी। बाहर आकर पूछने पर प्लंबर ने बताया - यह मेरा परेशानियाँ दूर करने वाला पेड़ है। मैं सारी समस्याओं का बोझा रातभर के लिए इस पर टाँग देता हूं और घर में कदम रखने से पहले मुक्त हो जाता हूँ। चिंताओं को अंदर नहीं ले जाता। सुबह जब थैला उतारता हूं तो वह पिछले दिन से कहीं हलका होता है। काम पर कई परेशानियाँ आती हैं, पर एक बात पक्की है- मेरी पत्नी और बच्चे उनसे अलग ही रहें, यह मेरी कोशिश रहती है। इसीलिए इन समस्याओं को बाहर छोड़ आता हूं। प्रार्थना करता हूँ कि भगवान मेरी मुश्किलें आसान कर दें। मेरे बच्चे मुझे बहुत प्यार करते हैं, पत्नी मुझे बहुत स्नेह देती है, तो भला मैं उन्हें परेशानियों में क्यों रखूँ। उसने राहत पाने के लिए कितना बड़ा दर्शन खोज निकाला था।।।!

 

यह घर-घर की हकीकत है। गृहस्थ का घर एक तपोभूमि है। सहनशीलता और संयम खोकर कोई भी इसमें सुखी नहीं रह सकता। जीवन में कुछ भी स्थायी नहीं, हमारी समस्याएं भी नहीं। प्लंबर का वह ‘समाधान-वृक्ष’ एक प्रतीक है। क्यों न हम सब भी एक-एक वृक्ष ढूँढ लें ताकि घर की दहलीज पार करने से पहले अपनी सारी चिंताएं बाहर ही टाँग आएँ।

 

सबसे बड़ी सेवा

 

दूसरों के संकल्प और विचार जान लेना बहुत कठिन है। किन्तु अपने मन की भावनाओं को बहुत स्पष्ट समझा, सुना और परखा जा सकता है, यदि औरों की सेवा करना चाहते हैं तो पहले अपनी सेवा की योजना बनाओ, अपना सुधार सबसे सरल है। साथियो! तुम जितना अपने अन्तःकरण का परिमार्जन और सुधार कर लोगे, यह संसार तुम्हें उतना ही सुधरा हुआ परिलक्षित होगा।

 

जब तुम दर्पण में अपना मुख देखते हो तो, चेहरे की सुन्दरता के साथ उसके धब्बे और मलिनता भी प्रकट होती है, तब तुम उसे प्रयत्नपूर्वक साफ कर डालते हो। मुख उज्ज्वल साफ और सुन्दर निकल आता है। प्रसन्नता बढ़ जाती है, बहुत अच्छा लगने लगता है।

 

अन्तःकरण भी एक मुख है। उसे चेतना के दर्पण में देखने और परखने से उसकी महानतायें भी दिखाई देने लगती हैं और सौंदर्य भी। आत्म-निरीक्षण की आवश्यकता इसलिये पड़ी कि उन छोटी-छोटी मलीनताओं को दूर करें, जो एक पर्त की तरह आत्मा के अनन्त सौंदर्य को प्रभावित और आच्छादित किये रहते हैं। जब वह महानतायें मिट जाती हैं तो आत्मा का उज्ज्वल, साफ और सुन्दर स्वरूप परिलक्षित होने लगता है और संसार का सब कुछ अच्छा और प्रिय मालूम होने लगता है।

 

मन से प्रश्न करना चाहिये- क्या तुम भयभीत हो? क्या तुम्हें इन्द्रिय-जन्य वासनाओं में मोह है? क्या तुम्हारे विचार गन्दे हैं? यदि हाँ तो सुधार के प्रयत्न में तत्काल जुट जाओ। अपना सुधार ही संसार की सबसे बड़ी सेवा है। जिस दिन इन प्रश्नों का उत्तर ‘नहीं’ मिलने लगेगा, उस दिन से तुम संसार में सबसे सुखी व्यक्ति होंगे।

 

महात्मा बुद्ध

 

एक औरत रोटी बनाते बनाते मंत्र जाप कर रही थी, अलग से पूजा का समय कहाँ निकाल पाती थी बेचारी, तो बस काम करते करते ही।।।।

 

एकाएक धड़ाम से जोरों की आवाज हुई और साथ मे दर्दनाक चीख। कलेजा धक से रह गया जब आंगन में दौड़ कर झांकी तो आठ साल का चुन्नू चित्त पड़ा था,  खुन से लथपथ। मन हुआ दहाड़ मार कर रोये। परंतु घर मे उसके अलावा कोई था नही, रोकर भी किसे बुलाती, फिर चुन्नू को संभालना भी तो था। दौड़ कर  नीचे गई तो देखा चुन्नू आधी बेहोशी में माँ माँ की रट लगाए हुए है।

 

अंदर की ममता ने आंखों से निकल कर अपनी मौजूदगी का अहसास करवाया। फिर 10 दिन पहले करवाये अपेंडिक्स के ऑपरेशन के बावजूद ना जाने कहाँ से इतनी शक्ति आ गयी कि चुन्नू को गोद मे उठा कर पड़ोस के नर्सिंग होम की ओर दौड़ी। रास्ते भर भगवान को जी भर कर कोसती रही, बड़बड़ाती रही, हे प्रभु क्या बिगाड़ा था मैंने तुम्हारा, जो मेरे ही बच्चे को।।।

 

खैर डॉक्टर साहब मिल गए और समय पर इलाज होने पर चुन्नू बिल्कुल ठीक हो गया। चोटें गहरी नही थी, ऊपरी थीं तो कोई खास परेशानी नही हुई।।।।

 

रात को घर पर जब सब टीवी देख रहे थे तब उस औरत का मन बेचैन था। भगवान से विरक्ति होने लगी थी। एक मां की ममता प्रभुसत्ता को चुनौती दे रही थी।

 

उसके दिमाग मे दिन की सारी घटना चलचित्र की तरह चलने लगी। कैसे चुन्नू आंगन में गिरा की एकाएक उसकी आत्मा सिहर उठी, कल ही तो पुराने चापाकल का पाइप का टुकड़ा आंगन से हटवाया है, ठीक उसी जगह था जहां चिंटू गिरा पड़ा था। अगर कल मिस्त्री न आया होता तो।।? उसका हाथ अब अपने पेट की तरफ गया जहां टांके अभी हरे ही थे, ऑपरेशन के। आश्चर्य हुआ कि उसने 20-22 किलो के चुन्नू को उठाया कैसे, कैसे वो आधा किलोमीटर तक दौड़ती चली गयी? फूल सा हल्का लग रहा था चुन्नू। वैसे तो वो कपड़ों की बाल्टी तक छत पर नही ले जा पाती।

 

फिर उसे ख्याल आया कि डॉक्टर साहब तो 2 बजे तक ही रहते हैं और जब वो पहुंची तो साढ़े 3 बज रहे थे, उसके जाते ही तुरंत इलाज हुआ, मानो किसी ने उन्हें रोक रखा था।

 

उसका सर प्रभु चरणों मे श्रद्धा से झुक गया। अब वो सारा खेल समझ चुकी थी। मन ही मन प्रभु से अपने शब्दों के लिए क्षमा मांगी।

 

भगवान कहते हैं, "मैं तुम्हारे आने वाले संकट रोक नहीं सकता, लेकिन तुम्हे इतनी शक्ति दे सकता हूँ कि तुम आसानी से उन्हें पार कर सको, तुम्हारी राह आसान कर सकता हूँ। बस धर्म के मार्ग पर चलते रहो।"

 

उस औरत ने घर के मंदिर में झांक कर देखा, लगा भगवान मुस्करा रहे थे।

 

 

👉 चन्दन का कोयला तो न बनायें

 

एक राजा वन विहार के लिए गया। शिकार का पीछा करते-करते राह भटक गया। घने जंगल में जा पहुँचा। रास्ता साफ नहीं दीख पड़ता था। साथी कोई रहा नहीं। रात हो गई। जंगल के हिंसक पशु दहाड़ने लगे। राजा डरा और रात्रि बिताने के लिए किसी आश्रय की तलाश करने लगा।

 

ऊँचे पेड़ पर चढ़कर देखा तो उत्तर दिशा में किसी झोंपड़ी में दीपक जलता दिखाई दिया। राजा उसी दिशा में चल पड़ा और किसी वनवासी की झोपड़ी में जा पहुँचा।

 

अपने को एक राह भूला पथिक बताते हुए राजा ने उस व्यक्ति से एक रात निवास कर लेने देने की प्रार्थना की। वनवासी उदार मन वाला था। उसने प्रसन्नता पूर्वक ठहराया और घर में जो कुछ खाने को था, देकर उसकी भूख बुझाई। स्वयं जमीन पर सोया और अतिथि को आराम से नींद लेने के लिए अपनी चारपाई दे दी।

 

राजा ने भूख बुझाई। थकान मिटाई और गहरी नींद सोया। वनवासी की उदारता पर उसका मन बहुत प्रसन्न था। सवेरा होने पर उस वनवासी ने सही रास्ते पर छोड़ आने के लिए साथ चलने की भी सहायता की।

 

दोनों एक दूसरे से विलग होने लगे। तो राजा को उस एक दिन के गान और आतिथ्य का बदला चुकाने का मन आया। परन्तु क्या दे? कुछ दे भी तो उस एकान्तवासी पर चोर रहने क्यों देंगे? इसलिए ऐसी भेंट देनी चाहिए जिसके चोरी होने का डर भी नहीं और आवश्यकतानुसार उसमें से आवश्यक राशि उपलब्ध होती रहे।

 

उसी जंगल में राजा का एक विशाल चंदन उद्यान था। उसमें बढ़िया चंदन के सैकड़ों पेड़ थे। राजा ने अपना पूरा परिचय वनवासी को दिया और अपने हाथ से लिखकर उसे चंदन उद्यान का स्वामी बना दिया। दोनों संतोष पूर्वक अपने-अपने घर चले गये।

 

वनवासी लकड़ी बेचकर गुजारा करता था। इसने लकड़ी का कोयला बना कर बेचने में कम श्रम पड़ने तथा अधिक पैसा मिलने की जानकारी प्राप्त कर ली थी। वही रीति-नीति अपनायी। पेड़ अच्छे और बड़े थे। आसानी से कोयला बनने लगा। उसने एक के बजाय दो फेरी निकट के नगर में लगानी आरंभ कर दी ताकि दूनी आमदनी होने लगे। वनवासी बहुत प्रसन्न था। अधिक पैसा मिल जाने पर उसने अधिक सुविधा सामग्री खरीदनी आरम्भ कर दी और अधिक शौक मौज से रहने लगा।

 

दो वर्ष में चन्दन का प्रायः पूरा उद्यान कोयला बन गया। एक ही पेड़ बचा। एक दिन वर्षा होने से कोयला तो न बन सका। कुछ प्राप्त करने के लिए पेड़ से एक डाली काटी और उसे ही लेकर नगर गया। लकड़ी में से भारी सुगंध आ रही थी। खरीददारों ने समझ लिया चह चंदन है। कोयले की तुलना में दस गुना अधिक पैसा मिला। सभी उस लकड़ी की माँग करने लगे। कहा कि- “भीगी लकड़ी के कुछ कम दाम मिले हैं। सूखी होने पर उसकी और भी अधिक कीमत देंगे।

 

वन वासी पैसे लेकर लौटा और मन ही मन विचार करने लगा। यह लकड़ी तो बहुत कीमती है। मैंने इसके कोयले बनाकर बेचने की भारी भूल की, यदि लकड़ी काटता बेचता रहता तो कितना धनाढ्य बन जाता और इतनी सम्पदा इकट्ठी कर लेता जो पीढ़ियों तक काम देती।

 

राजा के पास जाने व पुनः याचना कर अपनी मूर्खता दर्शाने में कोई सार न था। शरीर भी बुड्ढा हो गया था। कुछ अधिक पुरुषार्थ करने का उत्साह नहीं था। झाड़ियाँ काटकर कोयले बनाने और पेट पालने की वही पुरानी प्रक्रिया अपना ली और जैसे-तैसे गुजारा करने लगा।

 

मनुष्य जीवन चंदन उद्यान है इसकी एक-एक टहनी असाधारण मूल्यवान है। जो इसका सदुपयोग कर सकें, वे धन्य होंगे, जिनने प्रमाद बरता वे वनवासी की तरह पछतायेंगे।

 

👉 उत्तरदायित्व व प्राथमिकता पर ध्यान

 

जंगल में एक गर्भवती हिरनी बच्चे को जन्म देने को थी। वो एकांत जगह की तलाश में घुम रही थी, कि उसे नदी किनारे ऊँची और घनी घास दिखी। उसे वो उपयुक्त स्थान लगा शिशु को जन्म देने के लिये।

 

वहां पहुँचते  ही उसे प्रसव पीडा शुरू हो गयी।

उसी समय आसमान में घनघोर बादल वर्षा को आतुर हो उठे और बिजली कडकने लगी।

 

उसने दाये देखा, तो एक शिकारी तीर का निशाना, उस की तरफ साध रहा था। घबराकर वह दाहिने मुडी, तो वहां एक भूखा शेर, झपटने को तैयार बैठा था। सामने सूखी घास आग पकड चुकी थी और पीछे मुडी, तो नदी में जल बहुत था।

 

मादा हिरनी क्या करती? वह प्रसव पीडा से व्याकुल थी। अब क्या होगा? क्या हिरनी जीवित बचेगी? क्या वो अपने शावक को जन्म दे पायेगी? क्या शावक जीवित रहेगा?

 

क्या जंगल की आग सब कुछ जला देगी? क्या मादा हिरनी शिकारी के तीर से बच पायेगी? क्या मादा हिरनी भूखे शेर का भोजन बनेगी?

वो एक तरफ आग से घिरी है और पीछे नदी है। क्या करेगी वो?

 

हिरनी अपने आप को शून्य में छोड, अपने बच्चे को जन्म देने में लग गयी। कुदरत का करिश्मा देखिये। बिजली चमकी और तीर छोडते हुए, शिकारी की आँखे चौंधिया गयी। उसका तीर हिरनी के पास से गुजरते, शेर की आँख में जा लगा, शेर दहाडता हुआ इधर उधर भागने लगा। और शिकारी, शेर को घायल ज़ानकर भाग गया। घनघोर बारिश शुरू हो गयी और जंगल की आग बुझ गयी। हिरनी ने शावक को जन्म दिया।

 

हमारे जीवन में भी कभी कभी कुछ क्षण ऐसे आते है, जब हम चारो तरफ से समस्याओं से घिरे होते हैं और कोई निर्णय नहीं ले पाते। तब सब कुछ नियति के हाथों सौंपकर अपने उत्तरदायित्व व प्राथमिकता पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। अन्तत: यश, अपयश, हार, जीत, जीवन, मृत्यु का अन्तिम निर्णय ईश्वर करता है। हमें उस पर विश्वास कर उसके निर्णय का सम्मान करना चाहिए।

 

कुछ लोग हमारी सराहना करेंगे,

कुछ लोग हमारी आलोचना करेंगे।

 

दोनों ही मामलों में हम फायदे में हैं,

 

एक हमें प्रेरित करेगा और

दूसरा हमारे भीतर सुधार लाएगा।।

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