ज्ञानवर्धक कथाएं भाग -28
क्रोध पर नियंत्रण:-
एक बार एक राजा घने जंगल में भटक
जाता है जहाँ उसको बहुत ही प्यास लगती है। इधर उधर हर जगह तलाश करने पर भी उसे
कहीं पानी नहीं मिलता। प्यास से उसका गला सुखा जा रहा था तभी उसकी नजर एक वृक्ष पर
पड़ी जहाँ एक डाली से टप टप करती थोड़ी -थोड़ी पानी की बून्द गिर रही थी।
वह राजा उस वृक्ष के पास जाकर नीचे
पड़े पत्तों का दोना बनाकर उन बूंदों से दोने को भरने लगा जैसे तैसे लगभग बहुत समय
लगने पर वह दोना भर गया और राजा प्रसन्न होते हुए जैसे ही उस पानी को पीने के लिए
दोने को मुंह के पास ऊँचा करता है तब ही वहाँ सामने बैठा हुआ एक तोता टेटे की आवाज
करता हुआ आया उस दोने को झपट्टा मार के वापस सामने की और बैठ गया उस दोने का पूरा
पानी नीचे गिर गया।
राजा निराश हुआ कि बड़ी मुश्किल से
पानी नसीब हुआ और वो भी इस पक्षी ने गिरा दिया लेकिन अब क्या हो सकता है। ऐसा
सोचकर वह वापस उस खाली दोने को भरने लगता है।
काफी मशक्कत के बाद वह दोना फिर भर
गया और राजा पुनः हर्षचित्त होकर जैसे ही उस पानी को पीने दोने को उठाया तो वही
सामने बैठा तोता टे टे करता हुआ आया और दोने को झपट्टा मार के गिराके वापस सामने
बैठ गया।
अब राजा हताशा के वशीभूत हो क्रोधित
हो उठा कि मुझे जोर से प्यास लगी है, मैं इतनी मेहनत से पानी
इकट्ठा कर रहा हूँ और ये दुष्ट पक्षी मेरी सारी मेहनत को आकर गिरा देता है अब मैं
इसे नही छोड़ूंगा अब ये जब वापस आएगा तो
इसे खत्म कर दूंगा।
इस प्रकार वह राजा अपने हाथ में
चाबुक लेकर वापस उस दोने को भरने लगता है। काफी समय बाद उस दोने में पानी भर जाता
है तब राजा पीने के लिए उस दोने को ऊँचा करता है और वह तोता पुनः टे टे करता हुआ
जैसे ही उस दोने को झपट्टा मारने पास आता है वैसे ही राजा उस चाबुक को तोते के ऊपर
दे मारता है और उस तोते के वहीं प्राण पखेरू उड़ जाते हैं।
तब राजा सोचता है कि इस तोते से तो
पीछा छूंट गया लेकिन ऐसे बून्द -बून्द से कब वापस दोना भरूँगा और कब अपनी प्यास
बुझा पाउँगा इसलिए जहा से ये पानी टपक रहा है वहीं जाकर झट से पानी भर लूँ ऐसा
सोचकर वह राजा उस डाली के पास जाता है जहां से पानी टपक रहा था वहाँ जाकर जब राजा
देखता है तो उसके पाँवो के नीचे की जमीन खिसक जाती है।
क्योंकि उस डाली पर एक भयंकर अजगर
सोया हुआ था और उस अजगर के मुंह से लार टपक रही थी राजा जिसको पानी समझ रहा था वह
अजगर की जहरीली लार थी।
राजा के मन में पश्चात्ताप का समन्दर उठने लगता है की हे प्रभु! मैंने
यह क्या कर दिया। जो पक्षी बार बार मुझे
जहर पीने से बचा रहा था क्रोध के वशीभूत होकर मैंने उसे ही मार दिया।
काश मैंने सन्तों के बताये उत्तम क्षमा मार्ग को धारण किया होता, अपने
क्रोध पर नियंत्रण किया होता तो ये मेरे हितैषी निर्दोष पक्षी की जान नहीं जाती।
हे भगवान मैंने अज्ञानता में कितना बड़ा पाप कर दिया? हाय ये
मेरे द्वारा क्या हो गया ऐसे घोर पश्चाताप से प्रेरित हो वह राजा दुखी हो उठता है।
इसी लिये कहते हैं कि।।
क्षमा औऱ दया धारण करने वाला सच्चा
वीर होता है।
क्रोध में व्यक्ति दूसरों के साथ-
साथ अपने खुद का ही बहुत नुकसान कर देता है।
क्रोध वो जहर है जिसकी उत्पत्ति
अज्ञानता से होती है और अंत पश्चाताप से होता है। इसलिए हमेशा क्रोध पर
नियंत्रण रखना चाहिए।
👉 द्वेष का कुचक्र
द्रोणाचार्य और द्रुपद एक साथ ही
गुरुकुल में पढ़ते थे। द्रुपद बड़े होकर राजा हो गये। एक बार किसी प्रयोजन की
आवश्यकता पड़ी। वे उनसे मिलने गये। राज सभा में पहुँचकर द्रोणाचार्य ने बड़े प्रेम
से उन्हें सखा कहकर संबोधन किया। पर द्रुपद ने उपेक्षा ही नहीं दिखाई तिरस्कार भी
किया। उसने कहा-जो राजा नहीं वह राजा का सखा नहीं हो सकता। बचपन की बातों का बड़े
होने पर कोई मूल्य नहीं उनका स्मरण करके आप मेरे सखा बनने की अनधिकार चेष्टा करते
हैं।
द्रोणाचार्य को इस तिरस्कार का बड़ा
दुःख हुआ। उसने इसका बदला लेने का निश्चय किया। वे हस्तिनापुर जाकर पाँडवों और
कौरव बालकों को अस्त्र विद्या सिखाने लगे। जब शिक्षा पूर्ण हो गई और शिष्यों ने
गुरु से दक्षिणा माँगने की प्रार्थना की तो पाँडवों से उसने यही माँग, कि
राजा द्रुपद को जीतकर उन्हें बाँधकर मेरे सामने उपस्थित करो। भीम और अर्जुन ने यही
किया, उसने द्रुपद को बाँधकर द्रोणाचार्य के सामने उपस्थित
कर दिया।
द्वेष का कुचक्र टूटता नहीं। द्रुपद
के मन में द्रोणाचार्य के लिए प्रतिशोध की भावना बनी रही। उसने भी द्रोणाचार्य को
नीचा दिखाने की ठानी और बाज़ ऋषि को प्रसन्न करके मन्त्र शक्ति से एक ऐसा पुत्र
प्राप्त करने में सफलता प्राप्त की जो द्रोणाचार्य को मार सके। उस पुत्र का नाम
धृष्टद्युम्नः रखा गया। बड़े होने पर महाभारत में उसी ने द्रोणाचार्य को मारा।
📖 अखण्ड ज्योति नवम्बर 1961
👉 सत्संग की शक्ति
एक बार वशिष्ठ जी विश्वामित्र ऋषि
के आश्रम में गये। उनने बड़ा स्वागत सरकार और आतिथ्य किया। कुछ दिन उन्हें बड़े
आदरपूर्वक अपने पास रखा। जब वशिष्ठ जी चलने लगे तो विश्वामित्र ने उन्हें एक हजार
वर्ष की अपनी तपस्या का पुण्य फल उपहार स्वरूप दिया। बहुत दिन बाद संयोगवश
विश्वामित्र भी वशिष्ठ के आश्रम में पहुँचे। उनका भी वैसा ही स्वागत सत्कार हुआ।
जब विश्वामित्र चलने लगे तो वशिष्ठ जी ने एक दिन के सत्संग का पुण्य फल उन्हें भेंट
किया।
विश्वामित्र मन ही मन बहुत खिन्न
हुए। वशिष्ठ को एक हजार वर्ष की तपस्या का पुण्य भेंट किया था। वैसा ही मूल्यवान
उपहार न देकर वशिष्ठ जी ने केवल एक दिन के सत्संग का तुच्छ फल दिया। इसका कारण
उनकी अनुदारता और मेरे प्रति तुच्छता की भावना का होना ही हो सकता है। यह दोनों ही
बातें अनुचित हैं।
वशिष्ठ जी विश्वामित्र के मनोभाव को
ताड़ गए और उनका समाधान करने के लिए विश्वामित्र को साथ लेकर विश्व भ्रमण के लिए
चल दिये। चलते चलते दोनों वहाँ पहुँचे जहाँ शेष जी अपने फन पर पृथ्वी का बोझ लादे
हुए बैठे थे। दोनों ऋषियों ने उन्हें प्रणाम किया और उनके समीप ठहर गये।
अवकाश का समय देखकर वशिष्ठ जी ने
शेष जी से पूछा-भगवन् एक हजार वर्ष का तप अधिक मूल्यवान है या एक दिन का सत्संग? शेष
जी ने कहा-इसका समाधान केवल वाणी से करने की अपेक्षा प्रत्यक्ष अनुभव से करना ही
ठीक होगा। मैं सिर पर पृथ्वी का इतना भार लिए बैठा हूँ। जिसके पास तप बल है वह
थोड़ी देर के लिए इस बोझ को अपने ऊपर ले लें। विश्वामित्र को तप बल पर गर्व था। उसने
अपनी संचित एक हजार वर्ष की तपस्या के बल को एकत्रित करके उसके द्वारा पृथ्वी का
बोझ अपने ऊपर लेने का प्रयत्न किया पर वह जरा भी नहीं उठी। अब वशिष्ठ जी को कहा
गया कि वे एक दिन के सत्संग बल से पृथ्वी उठावें। वशिष्ठ जी ने प्रयत्न किया और
पृथ्वी को आसानी से अपने ऊपर उठा लिया।
शेष जी ने कहा- ‘तप बल की महत्ता
बहुत है। सारा विश्व उसी की शक्ति से गतिमान है। परंतु उसकी प्रेरणा और प्रगति का
स्त्रोत सत्संग ही है। इसलिए उसकी महत्ता भी तप से भी बड़ी है।’
विश्वामित्र का समाधान हो गया और उसने
अनुभव किया कि वशिष्ठ जी ने न तो कम मूल्य की वस्तु भेंट की थी और न उनका तिरस्कार
किया था। सत्संग से ही तप की प्रेरणा मिलती है। इसलिए तप का पिता होने के कारण
सत्संग को अधिक प्रशंसनीय माना गया है। यों शक्ति का उद्भव तो तप से ही होता है।
📖 अखण्ड ज्योति नवम्बर 1940
👉 जीवन कहानी
एक बड़ा सुन्दर शहर था, उसका
राजा बड़ा उदार और धर्मात्मा था। प्रजा को प्राणों के समान प्यार करता और उनकी
भलाई के लिए बड़ी बड़ी सुन्दर राज व्यवस्थाएं करता। उसने एक कानून प्रचलित किया कि
अमुक अपराध करने पर देश निकाले की सजा मिलेगी। कानून तोड़ने वाले अनेक दुष्टात्मा
राज्य से निकाल बाहर किये गये, राज्य में सर्वत्र सुख शान्ति
का साम्राज्य था।
एक बार किसी प्रकार वही जुर्म राजा
से बन पड़ा। बुराई करते तो कर गया पर पीछे उसे बहुत दुःख हुआ। राजा था सच्चा, अपने
पाप को वह छिपा भी सकता था पर उसने ऐसा किया नहीं।
दूसरे दिन बहुत दुखी होता हुआ वह
राज दरबार में उपस्थित हुआ और सबके सामने अपना अपराध कह सुनाया। साथ ही यह भी कहा
मैं अपराधी हूँ इसलिए मुझे दण्ड मिलना चाहिए। दरबार के सभासद ऐसे धर्मात्मा राजा
को अलग होने देना नहीं चाहते थे फिर भी राजा अपनी बात पर दृढ़ रहा उसने कड़े
शब्दों में कहा राज्य के कानून को मैं ही नहीं मानूँगा तो प्रजा उसे किस प्रकार
पालन करेगी? मुझे देश निकाला होना ही चाहिये।
निदान यह तय करना पड़ा कि राजा को
निर्वासित किया जाये। अब प्रश्न उपस्थित हुआ कि नया राजा कौन हो? उस
देश में प्रजा में से ही किसी व्यक्ति को राजा बनाने की प्रथा थी। जब तक नया राजा
न चुन लिया जाये तब तक उसी पुराने राजा को कार्य भार सँभाले रहने के लिए विवश किया
गया। उसे यह बात माननी पड़ी।
उस जमाने में आज की तरह वोट पड़कर
चुनाव नहीं होते थे। तब वे लोग इस बात को जानते ही न हों सो बात न थी। वे अच्छी
तरह जानते थे कि यह प्रथा उपहास्पद है। लालच, धौंस, और झूठे प्रचार के बल पर कोई नालायक भी चुना जा सकता है। इसलिए उपयुक्त
व्यक्ति की कसौटी उनके सद्गुण थे। जो अपनी श्रेष्ठता प्रमाणित करता था वही अधिकारी
समझा जाता था।
उस देश का राजा जैसा धर्मात्मा था
वैसा ही प्रधान मन्त्री बुद्धिमान था। उसने नया राजा चुनने की तिथि नियुक्त की। और
घोषणा की कि अमुक तिथि को दिन के दस बजे जो सबसे पहले राजमहल में जाकर महाराज से
भेंट करेगा वही राजा बना दिया जायेगा। राजमहल एक पथरीली पहाड़ी पर शहर से जरा एकाध
मील हठ कर जरूर था पर उसके सब दरवाजे खोल दिये गये थे भीतर जाने की कोई रोक टोक न
थी। राजा के बैठने की जगह भी खुले आम थी और वह मुनादी करके सबको बता दी गई थी।
राजा के चुनाव से एक दो दिन पहले
प्रधान मन्त्री ने शहर खाली करवाया और उसे बड़ी अच्छी तरह सजाया। सभी सुखोपभोग की
सामग्री जगह जगह उपस्थिति कर दी। उन्हें लेने की सबको छुट्टी थी किसी से कोई कीमत
नहीं ली जाती। कहीं मेवे मिठाइयों के भण्डार खुले हुए थे तो कहीं खेल, तमाशे
हो रहे थे कहीं आराम के लिए मुलायम पलंग बिछे हुए थे तो कहीं सुन्दर वस्त्र,
आभूषण मुफ्त मिल रहे थे। कोमलाँगी तरुणियाँ सेवा सुश्रूषा के लिए
मौजूद थीं जगह -जगह नौकर दूध और शर्बत के गिलास लिये हुए खड़े थे। इत्रों के
छिड़काव और चन्दन के पंखे बहार दे रहे थे। शहर का हर एक गली कूचा ऐसा सज रहा था
मानो कोई राजमहल हो।
चुनाव के दिन सबेरे से ही राजमहल
खोल दिया गया और उस सजे हुए शहर में प्रवेश करने की आज्ञा दे दी गई। नगर से बाहर
खड़े हुए प्रजाजन भीतर घुसे तो वे हक्के-बक्के रह गये। मुफ्त का चन्दन सब कोई
घिसने लगा। किसी ने मिठाई के भण्डार पर आसन बिछाया तो कोई सिनेमा की कुर्सियों पर
जम बैठा,
कोई बढ़िया बढ़िया कपड़े पहनने लगा तो किसी ने गहने पसन्द करने शुरू
किये। कई तो सुन्दरियों के गले में हाथ डालकर नाचने लगे सब लोग अपनी अपनी रुचि के
अनुसार सुख सामग्री का उपयोग करने लगे।
एक दिन पहले ही सब प्रजाजनों को बता
दिया गया था कि राजा से मिलने का ठीक समय 10 बजे है। इसके बाद पहुँचने वाला राज का
अधिकारी न हो सकेगा। शहर सजावट चन्द रोजा है, वह कल समय बाद हटा दी
जायेगी एक भी आदमी ऐसा नहीं बचा था जिसे यह बातें दुहरा दुहरा कर सुना न दी गई हों,
सबने कान खोलकर सुन लिया था।
शहर की सस्ती सुख सामग्री ने सब का
मन ललचा लिया उसे छोड़ने को किसी का जी नहीं चाहता था। राज मिलने की बात को लोग
उपेक्षा की दृष्टि से देखने लगे। कोई सोचता था दूसरों को चलने दो मैं उनसे आगे
दौड़ जाऊँगा, कोई ऊंघ रहे थे अभी तो काफी वक्त पड़ा है, किसी का ख्याल था सामने की चीजों को ले लो, राज न
मिला तो यह भी हाथ से जाएंगी, कोई तो राज मिलने की बात का
मजाक उड़ाने लगे कि यह गप्प तो इसलिये उड़ाई गई है कि हम लोग सामने वाले सुखों को
न भोग सकें। एक दो ने हिम्मत बाँधी और राजमहल की ओर चले भी पर थोड़ा ही आगे बढ़ने
पर महल का पथरीला रास्ता और शहर के मनोहर दृश्य उनके स्वयं बाधक बन गये बेचारे
उल्टे पाँव जहाँ के तहाँ लौट आये। सारा नगर उस मौज बहार में व्यस्त हो रहा था।
दस बज गये पर हजारों लाखों
प्रजाजनों में से कोई वहाँ न पहुँचा। बेचारा राजा दरबार लगाये एक अकेला बैठा हुआ
था। प्रधान मन्त्री मन ही मन खुश हो रहा था कि उसकी चाल कैसी सफल हुई। जब कोई न
आया तो लाचार उसी राजा को पुनः राज भार सँभालना पड़ा।
यह कहानी काल्पनिक है परन्तु मनुष्य
जीवन में यह बिल्कुल सच उतरती है। ईश्वर को प्राप्त करने पर हम राज्य मुक्ति अक्षय
आनन्द प्राप्त कर सकते हैं। उसके पाने की अवधि भी नियत हैं मनुष्य जन्म समाप्त
होने पर यह अवसर हाथ से चला जाता है। संसार के मौज तमाशे थोड़े समय के हैं यह कुछ
काल बाद छिन जाते हैं। सब किसी ने यह घोषणा सुन रखी है कि संसार के भोग नश्वर हैं, ईश्वर
की प्राप्ति में सच्चा सुख है, प्रभु की प्राप्ति का अवसर
मनुष्य जन्म में रहने तक ही है। परन्तु हममें से कितने हैं जो इस घोषणा को याद रख
कर नश्वर माया के लालच में नहीं डूबे रहते?
अवसर चला जा रहा है। हम माया के
भुलावे में फँस कर तुच्छ वस्तुओं को समेट रहे हैं और अक्षय सुख की ओर आँख उठाकर भी
नहीं देखते। हमारे इस व्यवहार को देखकर प्रधान मन्त्री शैतान मन ही मन खुश हो रहा
है कि मेरी चाल कैसी सफल हो रही है। यह कहानी हमारे जीवन का एक कथा चित्र है।
📖 अखण्ड ज्योति नवम्बर 1940
👉 कर्तव्य पालन की साधना।
कौशिक नामक एक ब्राह्मण बड़ा तपस्वी
था। तप के प्रभाव से उसमें बहुत आत्म बल आ गया था। एक दिन वह वृक्ष के नीचे बैठा
हुआ था कि ऊपर बैठी हुई चिड़िया ने उस पर बीट कर दी। कौशिक को क्रोध आ गया। लाल
नेत्र करके ऊपर को देखा तो तेज के प्रभाव से चिड़िया जल कर नीचे गिर पड़ी।
ब्राह्मण को अपने बल पर गर्व हो गया।
दूसरे दिन वह एक सद् गृहस्थ के यहाँ
भिक्षा माँगने गया। गृहिणी पति को भोजन परोसने में लगी थी। उसने कहा-भगवान थोड़ी
देर ठहरें अभी आपको भिक्षा दूँगी। इस पर ब्राह्मण को क्रोध आया कि मुझ जैसे तपस्वी
की उपेक्षा करके यह पति सेवा को अधिक महत्व दे रही है। गृह स्वामिनी ने दिव्य
दृष्टि से सब बात जान ली। उसने ब्राह्मण से कहा-क्रोध न कीजिए मैं चिड़िया नहीं
हूँ। अपना नियत कर्तव्य पूरा करने पर आपकी सेवा करूँगी।
ब्राह्मण क्रोध करना तो भूल गया, उसे
यह आश्चर्य हुआ कि चिड़िया वाली बात इसे कैसे मालूम हुई? ब्राह्मणी
ने इसे पति सेवा का फल बताया और कहा कि इस संबंध में अधिक जानना हो तो मिथिला पुरी
में तुलाधार वैश्य के पास जाइए। वे आपको अधिक बता सकेंगे।
भिक्षा लेकर कौशिक चल दिया और
मिथिलापुरी में तुलाधार के घर जा पहुँचा। वह तौल नाप के व्यापार में लगा हुआ था।
उसने ब्राह्मण को देखते ही प्रणाम अभिवादन किया ओर कहा-तपोधन कौशिक देव! आपको उस
सद्गृहस्थ गृह स्वामिनी ने भेजा है सो ठीक है। अपना नियत कर्म कर लू तब आपकी सेवा
करूँगा कृपया थोड़ी देर बैठिये। ब्राह्मण को बड़ा आश्चर्य हुआ कि मेरे बिना बताये ही
इसने मेरा नाम तथा आने का उद्देश्य कैसे जाना? थोड़ी देर में जब वैश्य
अपने कार्य से निवृत्त हुआ तो उसने बताया कि मैं ईमानदारी के साथ उचित मुनाफ़ा
लेकर अच्छी चीजें लोकहित की दृष्टि से बेचता हूँ। इस नियत कर्म को करने से ही मुझे
यह दिव्य दृष्टि प्राप्त हुई है। अधिक जानना हो तो मगध के निजात चाण्डाल के पास
जाइए।
कौशिक मगध चल दिया और चाण्डाल के
यहाँ पहुँचा। वह नगर की गंदगी झाड़ने में लगा हुआ था। ब्राह्मण को देखकर उसने
साष्टांग प्रणाम किया और कहा-भगवान आप चिड़िया मारने जितना तप करके उस सद्गृहस्थ
देवी और तुलाधार वैश्य के यहाँ होते हुए यहाँ पधारे यह मेरा सौभाग्य है। मैं नियत
कर्म कर लू, तब आपसे बात करूँगा तब तक आप विश्राम कीजिए।
चाण्डाल जब सेवा वृत्ति से निवृत्त
हुआ तो उन्हें संग ले गया और अपने वृद्ध माता पिता को दिखाकर कहा अब मुझे इनकी
सेवा करनी है। मैं नियत कर्तव्य कर्मों में निरंतर लगा रहता हूँ इसी से मुझे दिव्य
दृष्टि प्राप्त है।
तब कौशिक की समझ में आया कि केवल तप
साधना से ही नहीं, नियत कर्तव्य कर्म निष्ठा पूर्व करते रहने
से भी आध्यात्मिक लक्ष’ पूरा हो सकता है और सिद्धियाँ मिल सकती हैं।
📖 अखण्ड ज्योति अगस्त 1961
0 Comments
If you have any Misunderstanding Please let me know