ब्रह्म विज्ञान - 2
✍️ रणसिंह
आर्य
योगाभ्यास का महत्व एवं लाभ
१. मेधा बुद्धि
की प्राप्ति ।
२. तीव्र स्मृति
की प्राप्ति ।
३. एकाग्रता की
प्राप्ति ।
४. मनादि
इन्द्रियों पर नियन्त्रण होना।
५. कुसंस्कारों
का नाश व सुसंस्कारों का उदय होना ।
६. 'मैं कौन हूँ' इस का ज्ञान होना।
७. शान्त, प्रसन्न, सन्तुष्ट व निर्भय होना।
८. निष्काम
कत्त्ता बनना ।
९. जीवन के परम
लक्ष्य का परिज्ञान होना।
१०. कष्ट सह कर
आदर्श पर आरूढ़ रह सकने में समर्थ होना।
११.
आत्मसाक्षात्कार होना व जीवनमुक्त बनना ।
१२. ब्रह्मानन्द
की प्राप्ति।
योग का फल
१. तमेव विद्वान् न बिभाय मृत्योः । (अथर्व. १०/८/४४)
ईश्वर को जानकर
व्यक्ति मृत्यु से नहीं डरता ।
२. न च पुनरावर्तते । (छान्दो. ८/१५/१)
जब तक मोक्ष का
फल पूरा न हो जावे, तब तक जीव बीच में दु:ख को प्राप्त
नहीं होता।
३. वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमसः परस्तात् ।
तमेव विदित्वाति मृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय ॥ (यजुर्वेद ३१/१८)
उस सर्वज्ञ
सर्वशक्तिमान् परमेश्वर को जानकर ही मनुष्य जन्म-मरण आदि दु:खों से पार हो सकता
है। मुक्ति के लिये और कोई मार्ग नहीं है।
४. रसो वै सः । रसं ह्येवायं लब्ध्वाऽऽनन्दी भवति ॥
(तैत्ति. उप. ब्रह्मा. व.
७)
ईश्वर आनन्द
स्वरूप है। यह जीवात्मा उसी आनन्द स्वरूप परमेश्वर को प्राप्त करके आनन्दवान् होता
है।
५. भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः ।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे पराऽवरे ॥ (मुण्ड.
२/२/८)
उस सर्वव्यापक ईश्वर को
योग के द्वारा जान लेने पर हृदय की अविद्यारूपी गांठ कट जाती है, सभी प्रकार के संशय दूर हो जाते हैं। और भविष्य में किये जा सकने वाले पाप
कर्म नष्ट हो जाते हैं अर्थात् ईश्वर को जान लेने पर व्यक्ति भविष्य में पाप नहीं
करता ।
योगाभ्यास न करने
से हानियाँ
योगाभ्यास न करने
वाला व्यक्ति-
१. अपने व्यवहार
से अन्यों को दुःखी करता है।
२. कृतघ्न और
महामूर्ख होता है ।
३. मन इन्द्रियों
का दास होता है।
४. वेद व ऋषियों
की सूक्ष्म बातों (विषयों) को समझने में असमर्थ होता है।
५. रोग, वियोग, अपमान, अन्याय, हानि,
विश्वासघात, मृत्यु आदि से
होने वाले दुःखों को सहन नहीं कर सकता।
६. काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि से
सम्बन्धत कुसंस्कारों को नष्ट नहीं कर पाता और सुसंस्कारों की वृद्धि नहीं कर
पाता।
७. समस्याओं का
ठीक समाधान नहीं कर सकता।
८. समाधि से
उपलब्ध होने वाले ईश्वरीय गुण विशेष ज्ञान, बल, आनन्द, निर्भयता, स्वतन्त्रता आदि से वंचित रहता है।
९. जीवन के मुख्य
लक्ष्य-समस्त दु:खों से छूटकर स्थायी सुख (नित्य आनन्द) को प्राप्त नहीं कर सकता
है।
योग में प्रवेश व पात्रता
ब्रह्मविद्या पूर्ण
आत्म-समर्पण करके, श्रद्धापूर्वक, प्रेमपूर्वक प्राप्त की जाती है। सिखाने वाले निपुण हैं यह मानकर केवल भावुकता
से आकर नहीं बैठ जायें। वैदिक परम्परा में बिना परीक्षा किये नहीं, परन्तु सत्यासत्य की परीक्षा व निर्णय करके ही गुरु बनाकर विद्या प्राप्त करते
हैं।
वैदिक योग
विज्ञान को सीखने की पद्धति, प्रक्रिया तथा
रीति-ज्ञान-कर्म-उपासना की है।
(१) ज्ञान-विज्ञान में ईश्वर क्या है? हम क्या हैं? यह संसार क्या है ? यह सिखाया जायेगा। इनके जाने बिना
योग में प्रवेश नहीं हो सकता। जो व्यक्ति ज्ञान के क्षेत्र में ईश्वर- जीव-
प्रकृति को नहीं जानता, वह लौकिक क्षेत्र में भी निष्फल रहता
है।
(२) ज्ञान के बाद वैदिक योग में कर्म का विषय आता है। कर्म शुभ- अशुभ, अच्छा-बुरा, मन-वाणी-शरीर से होता है। क्या बुरा और
क्या अच्छा यह जानकर बुरे को छोड़ता व अच्छे को करता है। लौकिक उद्देश्यों को
लक्ष्य बनाकर कर्म करना 'सकाम कर्म' और ईश्वर प्राप्ति के लिये करना 'निष्काम कर्म' कहाता है। अशुभ को छोड़ शुभ कर्म करने हैं और शुभ कर्मों को भी निष्काम भावना
से करना है।
(३) तीसरा भाग है - उपासना। ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना, उपासना किस प्रकार करनी चाहिए? उसके क्या-क्या विरोधी हैं ? ईश्वर से उचित सम्बन्ध
की स्थापना कैसे हो ? आदि। बिना कृतज्ञता पूर्वक उपासना के
ईश्वर की सहायता प्राप्त नहीं होती। यदि उपासना नहीं करें तो कृतध्नता से कुछ लाभ
नहीं होगा।
'योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः' जिससे चित्त की वृत्तियों को रोका जा सके, जिससे
मोक्ष-ईश्वर को प्राप्त करें, जिससे सारे दु:खों से
छूट जायें उसका नाम योग है। जिसके अनुसार चलने से उपरोक्त बातें प्राप्त नहीं होती
वह योग की परिभाषा में नहीं आता। ईश्वर के स्वरूप में मग्न (तल्लीन) होना योग है।
पात्रता - सीखने वाला
व्यक्ति पात्र के रूप में अपने को उपस्थित नहीं करता तो उसे यह विद्या नहीं आती।
जो मन की एक-एक चेष्टा को दिन भर नियन्त्रित (वश में) नहीं रखता, वह व्यक्त योग विद्या नहीं प्राप्त कर पाता। जिसके अधिकार में (नियन्त्रण में)
अपने मन ,
वाणी, शरीर नहीं, वह इस विद्या को प्राप्त नहीं कर सकता। प्रत्येक साधक को यह काम स्वयं करना
पड़ता है। जो साधक बिना ही किसी के कहे, बिना किसी के डर
के स्वभावत: ऐसा ही रहता है वह सफल होता है। जो बार-बार कहने पर भी अपने काम को
नहीं करता, इच्छुक भी नहीं होता वरन् लौकिक चेष्टा
करता है तो वह सफल नहीं होता। उसको दण्ड देना पड़ता है । फिर भी नहीं सुधरे तो वह
ढीठ हो जाता है। जैसे चोर डाकू कारागार में से छूटने पर भी फिर डाका डालते हैं।
साधक को कहा जाता है मत
बोलिये, भोजन के समय बातें न करिये फिर भी बोलते
ही जाते हैं, नहीं मानते तो पात्र नहीं बनेंगे और
निष्फल होगें। अपने व्यवहार को सब के साथ ठीक रखें, फिर योग-विद्या आयेगी, सीखने में सफलता मिलेगी।
योग जिज्ञासु के आवश्यक कर्तव्य
(१) 'मनुष्य जीवन का परम लक्ष्य ईश्वर को प्राप्त करना तथा अन्यों को प्राप्त
करवाना है'। यह बात योग जिज्ञासु को अपने मन में
निश्चय से बिठा लेनी चाहिए। जैसा कि वेदादि सत्य शास्त्रों में लिखा है -
१. वेदाहमेतं पुरुषं
महान्तम्... (यजुर्वेद ३१/१८)
२.
इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति न चेदिहावेदीन्महती विनष्टि: । (केनोपनिषद २/५)
३. आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः
श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः । (बृहदारण्यक उपनिषद् २/४/५)
(1)
योगाभ्यासी को यम-नियमों का पालन मन, वचन और शरीर से
श्रद्धापूर्वक करना चाहिए।
(2) साधक
स्वयं अनुशासन में रहे और अनुशासन बनाये रखने में सहयोग देवे ।
(3)
योगाभ्यासी को महरषि व्यासजी के अनुसार यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिये के 'नाऽतपस्विनो योगः सिध्यति' अर्थात् बिना तपस्या के
योग की सिद्धि नहीं होती।
(4) योग
साधक को वेद, दर्शन, उपनिषद्, स्मृति आदि ग्रन्थों के शब्द प्रमाण पर
पूर्ण विश्वास रखकर चलना चाहिये। इन आप्त वचनों पर संशय न करे।
(5)
योगाभ्यासी को चाहिए कि व्यवहार में वह इतना सावधान रहे कि किसी भी प्रकार की
त्रुटि (दोष) होने ही न दे, यदि कभी हो भी
जावे तो उसको वह शीघ्र स्वीकार करे, उसका
प्रायश्चित्त करे (दण्ड लेवे) और भविष्य में न होवे ऐसा प्रयास करे।
(6)
योगाभ्यासी वाणी का प्रयोग बहुत ही सावधानी से करे अर्थात् आवश्यक होने पर ही बोले, सत्य ही बोले, सत्य भी मधुर भाषा में बोले और वह भी
हितकारी होना चाहिये।
(7)
योगाभ्यासी को अपने सम्मान की इच्छा कदापि नहीं करनी चाहिये और अपमान होने पर उसको
सहन करना चाहिये, (दु:खी नहीं होना चाहिये)।
(8) योग
साधक को अपना प्रत्येक कार्य ईश्वर की प्राप्ति (साक्षात्कार) के लिये करना चाहिये, न कि सांसारिक सुख और सुख के साधनों की प्राप्ति के लिये।
(9)योगाभ्यासी
ब्रह्मविद्या (= योगविद्या) को श्रवण, मनन, निदिध्यासन और साक्षात्कार की पद्धति से प्राप्त करने हेतु पूर्ण प्रयास करे।
(10) साधक
को चाहिये कि वह योग सम्बन्धी विषयों का ही अध्ययन करे, उन पढ़े हुए विषयों पर ही चर्चा, विचार आदि करे।
अन्य सांसारिक विषयों से सम्बन्धित चर्चा न करे।
(11)
योगाभ्यासी को चाहिये कि वह ब्रह्मविद्या के महत्त्व को समझे और इसकी प्राप्ति के
लिये स्वयं को पात्र बनाये, जैसे कि जनक आदि
राजा थे । राजा जनक ने याज्ञवल्क्य से निम्न बात कही-
'सोऽहं भगवते विदेहान् ददामि माञ्चापि सह दास्यायेति'
(बृ.उप.४/४/२३)
हे याज्ञवल्क्य !
मैं आपको अपना सम्पूर्ण विदेह राज्य भेंट करता हूँ और स्वयं को भी आपके आदेश का
पालन करने के लिये समर्पित करता हूँ।
(12)
योगाभ्यासी को चाहिये कि स्वयं कष्ट उठा कर (अपनी सुख-सुविधाओं का परित्याग करके)
भी दूसरों को सुख पहुँचाने का प्रयास न करें ।
(13)
योगाभ्यासी दूसरे के गुणों को ही देखे दोषों को नहीं, और अपने दोषों को देखे, गुणों को नहीं।
(14) भौतिक वस्तुओं (भोजन, वस्त्र, मकान, यानादि) का
प्रयोग शरीर की रक्षा के लिये ही करे, न कि सुख
प्राप्ति के लिये ।
(15) योग साधक को चाहिये
कि आवश्यकता न होने पर भोजन न करे तथा आवश्यकता की पूर्ति हो जाने पर भोजनादि का
अधिक प्रयोग न करे अर्थात् अपनी रसना आदि इन्द्रियों पर संयम रखे ।
(16) ईश्वर की शीघ्र
प्राप्ति हेतु योगाभ्यासी को चाहिये की ' हेय, हेयहेतु, हान, हानोपाय' (दु:ख,
दु:ख का कारण, सुख, सुख का उपाय) इन पदार्थों को अच्छी प्रकार समझने का प्रयास करे ।
(17) योगाभ्यासी के मन
में योग सम्बन्धी विभिन्न शंकाओं के उपस्थित होने पर, किसी योगनिष्ठ गुरु के पास जाकर, उनसे आज्ञा लेकर
प्रेम पूर्वक, जिज्ञासा भाव से शंकाओं का समाधान करना
चाहिए, किन्तु किसी के साथ विवादादि नहीं करना चाहिए।
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