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देवताओं की शक्ति-परीक्षा

 

 
देवताओं की शक्ति-परीक्षा


 

       देवताओं और असुरों में अकसर पटती नहीं थी । आये दिन छोटी- छोटी बातों में उनके बीच झगड़ा-फसाद हुआ करता था। एक बार यह रंजिश बहुत बढ़ गई और दोनों ओर से जमकर लड़ाई की तैयारी हुई । देवताओं के राजा इन्द्र ने अग्नि, वायु आदि बलवान देवताओं की सहायता से डटकर असुरों का सामना किया । संयोग की बात । असुर सब के सब मारे गए । जो थोड़े-बहुत बचे भी वह देश छोड़कर भाग गये। इस लड़ाई से देवताओं की धाक जम गई, चारों और उनकी वीरता की प्रशंसा होने लगी। यों तो सभी देवताओं ने प्राण होम कर इस लड़ाई में वीरता दिखाई थी, पर अग्नि और वायु का तो इसमें बहुत बड़ा हाथ था। जो काम करता है, वह नाम भी चाहता है। नाम का ही ऐसा लोभ होता है कि लोग जान की परवाह न करके बड़े से बड़ा काम कर डालते हैं। देवताओं को भी नाम खूब मिला । सारी दुनिया में उनकी बड़ी तारीफ होने लगी । ईश्वर को छोड़कर सब लोग देवताओं की ही पूजा करने लगे। इस मान- प्रतिष्ठा को पाकर देवताओं को बड़ा घमंड हो गया। वह सोचने लगे कि अब दुनिया में हम लोगों से बढ़कर दूसरा कोई नहीं है।

 

      ईश्वर की पूजा में पहले वह बहुत मन लगाते थे पर जब यह देखा  कि सारी दुनिया हमारी पूजा करती है तो हमें किसी की पूजा करने से क्या लाभ है १ इस विजय गव में उन्मत्त होकर वह इतने गुमराह हो गए कि खुद अपने ही मुंह से अपनी-अपनी तारीफ करने लगे । पहले जहाँ वह सृष्टि के कण-कण में परमात्मा का दर्शन पाते थे वहाँ अभिमान के कारण दिखाऊ पूजा-पाठ करने पर भी उन्हें हृदय में परम ज्योति का दर्शन दुर्लभ बन गया । ईश्वर की सर्वशक्तिमान सत्ता का विश्वास उनके दिल में एकदम हट गया । वह स्वयं एकदम से असुर बन बैठे ।

 

      भगवान को अपने भक्तों की सदा सुध बनी रहती है। जैसे पिता अपने प्यारे पुत्र का अनभल कभी नहीं देख सकता उसी तरह भगवान के मन में भी देवताओं की इस गर्व-भावना से बड़ी चिन्ता हुई । उन्होंने सोचा कि यह सचमुच देवता बेहोश हो गए हैं । अभिमान के नशे में यह कुछ भी नहीं समझ रहे हैं, कि वास्तव में हमारा क्या हो रहा है ? अगर इन्हें समय रहते ही सचेत नहीं किया जाता है, तो इतने दिनों तक हमारी सेवा करने का इन्हें क्या फल मिलेगा? अगर में इस समय इनकी इस करतूत को सह लेता हूँ तो इसका नतीजा यही होगा कि यह सब भी असुरों की तरह नष्ट हो जायेंगे। और इनके कारण सारी दुनिया फिर नरक बन जायेगी। विजय प्राप्त कर के इतना घमंड इनमें जो आ गया है, सो निश्चय ही सब का विनाश कर के छोड़ेगा । जो बड़े होते हैं वे इस तरह विजय पाकर पागल नहीं बन जाते, बल्कि उनमें ओर भी नम्रता आ जाती है । फल लगने पर पेड़ की डाली और भी नीचे की और झुक जाती हैं। इस तरह का विचार करके भगवान ने देवताओं का घमंड दूर करने की एक अच्छा उपाय निकाला । सबेरे का सुहावना समय था।

 

        अमरावती पुरी के नन्‍दन वन में इन्द्र का दरबार लगा था। सब देवता मारे घमंड के अपनी - अपनी डींगें हाँकते हुए एक दूसरे से झगड़ रहे थे कि बीच आसमान से एक परम तेजस्वी यक्ष पुरुष नीचे जमीन की ओर उतरता हुआ दिखाई पड़ा । उस समय दसों दिशाओं में चका- चौंध मच गई । देवताओं की चमकदार आँखें मंदने-सी लगीं । यहाँ तक उग्र अग्नि भी, जो अपने तेज को बहुत सजा बजा कर बैठे हुए थे, उस तेज से मलीन बन गये । देवताओं की हंसी एकाएक बन्द हो गई ।

 

     सब की अधखुली आंखें सामने दिखाई पड़ने वाले उस परम तेजस्वी यक्ष पुरुष की ओर लग गई । उसके परम तेज से सब का चेहरा फीका पड़ने लगा । थोड़ी देर तक सभी चुप बने रहे और इस तरह देखते ही देखते देवराज इन्द्र की सारी सभा में एक दम सन्नाटा छा गया। आखिरकार सब देवताओं ने उस परम तेजस्वी यक्ष पुरुष के भेद को जानने के लिए अग्नि से बड़ी विनती की, क्योंकि वही सबसे अधिक तेजस्वी थे भी । पिछले महायुद्ध में उनकी वीरता की धाक सब देवताओं पर जम चुकी थी । थोड़ी देर तक अग्नि इधर-उधर की टाल मटोल करते रहे, लेकिन जय देवराज इन्द्र ने उन्हें बड़ी खरी बाते सुनाई तो मजबूर होकर उन्हें वहाँ से पता लगाने के लिए उठना ही पड़ा ।

 

         बेचारे अग्नि मारे शर्म के उस तेजस्वी यक्ष पुरुष की ओर धीरे-धीरे कदम बढ़ाने लगे । किन्तु थोड़ी दूर तक भी नहीं पहुँच सके थे कि उनका बुरा हाल होने लगा । आंखें एक दम बन्द सी हो गईं । सिवाय प्रकाश को तीव्रता के उनकी आंखों से वह यक्ष पुरुष की आकृति भी धीरे-धीरे गुम होने लगी । तेज की भयानक गरमी से उनका शरीर जलने लगा । पर क्या करते, मजबूर होकर समीप तक तो जाना ही था। किसी तरह अग्नि उस यक्ष पुरुष से थोड़ी दूर पर पहुँच तो गए', पर वहां जाकर भी उनकी बोलने की हिम्मत नहीं हुई । थोड़ी देर तक आंखें बन्द कर वह असह्य ताप सहन करते हुए, किसी तरह खड़े रहे ।

 

      भगवान को दया आई । अपनी मन्‍द मुसकराहट से आकाश और

दिशाओं को उद्भासित करते हुए वह बोले-'नाई । तुम कौन हो !  इस तरह यहाँ खड़ा होने का तुम्हारा मतलब क्या है ? अग्नि का तेज है कभी इतना गला तो था नहीं। स्वर को बनावटी ढंग से गम्भीर बनाते हुए उन्होंने कहा--'मेरा नाम अग्नि है। कोई-कोई मुझे जातवेदा भी कहते हैं। मैं जानना चाहता हूँ कि आप कौन हैं १? भगवान ने जान लिया कि अग्नि का-स्वर कितना बनावटी है। और उसमें घमंड की बू तनिक भी कम नहीं हुई है । दिल की बाते सामने लाने के लिए उन्होंने पूछा--भाई अग्नि । क्या मुझे यह बतला सकते हो कि तुम्हारा काम क्या है ” अग्नि को उस तेजस्वी पुरुष की इन विनयपूर्ण बातों से और भी बढ़ावा मिला । आँखों को खोलने की चेष्टा करते हुए उन्होंने कहा--सौम्य ! क्या आप को अग्नि का पराक्रम मालूम नहीं है। मैं सारे संसार को पल भर में जला देने की शक्ति रखता हूँ । जमीन की तो बात ही क्या आसमान में जितने तारे है वह भी हमारे तेज से पल भर भी नहीं ठहर सकते ।

 

भगवान ने देखा कि अग्नि का दिमाग अभी ठीक नहीं हुआ है । जमीन से एक तिनका उठाकर उन्होंने अग्नि की ओर फेंकते हुए कहा- अग्नि देव को मैं सचमुच नहीं जानता कि तुम किस तरह किसी वस्तु को जला सकते हों । इसलिए' तुम इस तिनके को जला कर मुझे तनिक अपना पराक्रम तो दिखला दों! अग्नि से इतनी बातें कह भगवान ने अग्नि के शरीर से अपना तेजस्वी रूप भीतर ही भीतर अपने में खींच लिया, जिससे देखते ही देखते अग्नि का तेजस्वी शरीर निस्तेज हो गया । अपने पूरे पराक्रम को याद करके वह उस तिनके को जलाने के लिए तैयार तो हो गए, किन्तु भीतर से उनकी हिम्मत टूट चुकी थी।

 

       वह तिनका, जो अग्नि की एक गरम उसांस से राख बन सकता था, अभी उसी तरह अग्नि के सामने मानों उनका मजाक-सा करता हुआ पड़ा था । अग्नि की सारी मानसिक चेष्टा निष्फल हो गई, पर तिनके का शिरा भी नहीं मुरझाया । देर होती गई, पर तिनका ज्यों का त्यों बना ही रह गया । उधर उस तेजस्वी यक्ष का तेज पहले अधिक भयानक हो गया, ओर निस्तत्व अग्नि का शरीर झुलसने लगा । फिर तो वह” चुपचाप पीछे खिसककर देवताओं के समीप वापस आ गये । उनकी आंखें नीचे की ओर घंस गई थी ओर चेहरे का पहले वाला तेज जाने कहाँ गायब हो चुका था।

 

इन्द्र समेत देवतओं ने देखा अग्नि एकदम मृतक के समान निर्जीव होकर उनके बीच में खड़े हैं, न बुलाने पर बोलते हैं और न कुछ खुद ही कहना चाहते हैं, उनकी सारी तेजस्विता नष्ट हो चुकी है, आँख नीचे धंस गई हैं और तेजस्वी मुखमण्डल पोपला और पीला पड़ गया है। देवराज ने अग्नि को अधिक परेशान करना ठीक नहीं समझा । सान्त्वना भरी वाणी में स्नेह प्रकट करते हुए कहा-- भाई अग्नि । कुछ बताओ तो सही, इसमें शर्म की क्‍या बात है, थोड़ी देर बाद बहुत सकुचाते हुए अग्नि का सीर नीचा करके बोलना ही पड़ा--देवराज ! बहुत कोशिश करके भी में उस तेजस्वी यक्ष पुरुष का कुछ पता लगा नहीं सका । वह असुरों से भी भयानक है । मेरी सामर्थ्य नहीं है कि उसका पता लगा सकूँ।? देव सभा से अग्नि की इन निराशा भरी बातों से गहरा आतंक छा गया । सब चुप हो गये ।

 

      थोड़ी देर तक चुप रहने के बाद इन्द्र ने वायु की ओर ताका, उस समय उनका सभी बुरा हाल हो रहा था, क्योंकि अग्नि के बाद अपनी वीरता का लंबी डिगे हाँकने में वह भी सब से आगे थे । इन्द्र की आँखों को अपनी ओर लगी देखकर वह दूसरी ओर ताकने लगे । पर राजा को इससे क्‍या, उसे तो काम लेना आता ही है। सभा की चुप्पी तोड़ते हुए देवराज ने पुकारा--वायु ! मैं समझता हूँ कि तुम्हें उस तेजस्वी यक्ष पुरुष का पता लगाने में कोई कठिनाई नहीं होगी ।

 

       तुम इस चराचर संसार के सभी जीवों से सब से बढ़ कर बलवान हो । तुम्हारे बिना कोई एक पल भी नहीं जी सकता। जाओ, देखो तो वह कौन है ? देवराज अपने साथियों की इतनी तारीफ कभी करते नहीं थे। वायु का गिरा मन हरा हो उठा। वह जाने को तैयार होकर आगे बढ़े । पर थोड़ी ही दूर जाने के बाद उस तेजस्वी पुरुष के तेज: पुंज की ओर ताकना भी वायु के लिए बड़ा कठिन हो गया । किसी तरह कुछ दूर समीप चलकर वह भी खड़े हो गये पर पूछने की हिम्मत बाकी नहीं रह गई।

 

     दीन दशा में वायु को थोड़ी देर तक खड़ा रहने के बाद भगवान

ने पूछा-- भाई ! तुम कौन हो? यहाँ आने का तुम्हारा मतलब क्या है? वायु को कुछ ढांढस हुआ । शरीर को कुछ सजीव बनाने की चेष्टा करते हुए उन्होंने कहा--'सौम्य? मेरा नाम वायु है। सारे संसार की जिन्दगी मेरे हाथ में रहती है । क्‍या तुम मुझे जानते नहीं?

 

       सारी पृथ्वी की सुगंध मैं अपने में समेट कर बहता हूँ, इसी से कोई-कोई मुझे गन्धवाह कहते हैं । संसार की कोई भी वस्तु आसमान से नहीं चल सकता पर में वहाँ भी वे-रोक टोक चलता हूँ, इसी से मातरिश्वा नाम भी मेरा सब जानते हैं । इसी तरह मेरे अनेक नाम हैं। क्या आज तक तुम ने मेरा एक नाम भी नहीं सुना है?

 

      मुसकराते हुए भगवान ने वायु के बनावटी चेहरे पर एक नजर डाली । उनका रहा-सहा धीरज भी जाता रहा । आँखें एक दम मुंद गई । नसों में सनसनाहट पैदा हों गई । भगवान ने कहा--“भाई !

      नाम तो मैंने तुम्हारा अवश्य कही सुना है, पर काम देखना चाहता हूँ। क्‍या तुम अपने काम के बारे में कुछ हमें बतला सकते हो? वायु को विश्वास हो गया कि जो मेरा नाम जानता है वह मेरी इज्जत भी करेगा । उसके सामने अपने कामों को दिखा देना ठीक ही है । स्वर को कुछ गम्भीर बनाते हुए उन्होंने कहा--मैं इस सारे ब्रह्मांड को हिला सकता हूँ । आसमान के तारो और ग्रहों को गिरा सकता हूं । इन पहाड़ों अथवा पेड़ों की क्‍या बिसात है जो मेरे सामने थोड़ा देर भी टिक सके?

 

     यह सुन कर भगवान ने घमंडी वायु के शरीर को निस्तेज करते हुए अपना सारा तेज पल भर में खींच लिया, जिससे वह गिरते-गिरते बचे । मगर एक बार डींग हाँक कर भागना भी सरल नहीं था। उनके सामने भी तिनका को रख कर भगवान कहा इसे जरा उड़ा कर दिखाओ, वायु देव ने अपनी पूरी शक्ति गा दिया, किंतु वह तिनका अभी उसी जगह पड़ा था। भगवान ने कहा--“भाई ! यह जो तिनका तुम्हारे सामने पड़ा हुआ हे, उसे उड़ाकर दूर तो कर दो, क्योंकि तभी मुझे तुम्हारी शक्ति पर कुछ विश्वास होगा?

 

     वायु ने अपनी सारी शक्ति लगा दी। पर तिनका ज्यों का त्यों पड़ा रहा। उस समय वह हिमालय से बढ़कर भारी बन गया । उड़ना तो दूर उस से कम्पन भी नहीं हुआ । निश्चेष्ट वायु बड़ी देर तक बल आजमाते रहे पर सब बेकार रहा । आखिरकार सीर नीचे कर चुपके से वह भी पीछे चले आये । ओर चुपचाप आकर देव सभा के एक कोने में छिप-से गए।

 

      देवराज इन्द्र ने वायु का उदास चेहरा देख कर सब ताड़ लिया। सारी देव सभा मूर्तियों की तरह निश्चेष्ट होकर बैठी रही। थोड़ी देर तक चुप रहने के बाद देवराज ने पूछा--“भाई वायु । वहाँ का कुछ हाल तो बताओ। इस तरह शरमाने की जरूरत नहीं हे । मैं जानता हूँ कि अपनी शक्ति भर तुमने प्रयास किया होगा।

 

      वायु ने विनीत स्वर में कहा--“देवराज ! वह अद्भुत तेजस्वी युक्त पुरुष पता नहीं कौन है ! मैं उसका कुछ भी भेद नहीं जान सका। वायु की निराश बाते सुन देवताओं के होश गुम हो गए। काटो तो खून नहीं । जिस वायु और अग्नि के बल का उन्हें घमंड था, जब उनका यह हाल है तो पता नहीं अब कौन-सी नई विपदा आने वाली है। सभी बड़े सोच में पड़ गए।

 

देवताओं के गुरु बृहस्पति बड़े बुद्धिमान‌ और दूरदर्शी थे । अग्नि ओर वायु की घमंड भरी बाते उन्हें जरा भी नहीं सुहाती थीं ।

 

       इसलिए उन लोगों की इस अप्रतिष्ठा से उन्हें जरा भी अफसोस नहीं हुआ । अपने ऊंचे आसन से उन्होंने एक बार सब की ओर नजर डालते हुए इन्द्र से कहा--'देवराज ! उस तेजस्वी पुरुष का पता आप को छोड़कर किसी दूसरे से नहीं लगेगा । कृपा कर आप ही जाकर उसका पता लगाइये और सब को निश्चिन्त कीजिए, इन्द्र विवश थे । लाचार होकर उन्हें खुद जाना पड़ा । देवता लोग मन ही मन बहुत दिनों बाद आज इस विपदा में पड़कर भगवान का ध्यान करने लगे ।

 

       किसी तरह उस तेजस्वी यक्ष पुरुष के पास जब देवराज इन्द्र पहुँच  भी गए तो देखते क्या हैं कि वह तेज सारे आसमान और पृथ्वी को एक बारगी चकाचौंध करते हुए पता नहीं कहाँ गायब हो गया । पर उनकी आंखों में अब भी लाल, पीला, नीला, हरा प्रतिबिंब दिखाई पड़ रहा था । थोड़ी देर तक खड़े रहने के बाद जब उनकी आंखें कुछ ठीक हुई तो देखने पर वहाँ ऐसी कोई चीज थी ही नहीं । बेचारे देवराज बड़े विस्मय में पड़ गए ।

 

     कुछ भी हो। जिन्होंने देवताओं पर इतने दिनों तक शासन किया, परम बुद्धिमान तथा शक्तिशाली असुरों को हराया, वह इतनी जल्दी हिम्मत कैसे हारते । उन्होंने समझ लिया कि सिवाय भगवान के और किसी दूसरे की करतूत यह नहीं है । वही समाधि में बैठ कर ध्यान करने लगे । बड़ी देर तक ध्यान करते रहने के बाद उन्हें आसमान से फिर उसी तरह का तेज पुंज नीचे उतरता हुआ दिखाई पड़ा पर इस बार वह तेजः पुंज पुरुष रूप में नहीं था । अपनी एक सहस्त्र आंखों से ध्यान पूर्वक देखने पर इन्द्र को पता लगा कि उसके सारे शरीर पर सोने के आभूषणों की शोभा विराजमान है। शरीर की कान्ति भी एक दम सोने की तरह दमक रही है । उन्हें हेमवतार हिमवान्‌ पुत्री, पार्वती का ध्यान आया ; सचमुच वह वही थीं । समीप आकर वह गम्भीर मुद्रा में इन्द्र की ओर देखते हुए खड़ी हो गई । देवराज इन्द्र भा सहम कर समाधि से उठ खड़े हुए ओर सादर झुककर प्रणाम भी किया ।

 

     थोड़ी देर तक खड़े रहने के बाद इन्द्र ने विनय भर स्वर में पूछा आप सारे संसार का जननी हैं । भगवान शंकर की आधार स्वरूप हैं । आप से इस चराचर संसार में कोई भी वस्तु अज्ञात नहीं है । अभी थोड़ी ही देर हुईं, यहीं पर एक परम तेजस्वी यक्ष पुरुष दिखाई पड़ा था। मैंने अग्नि और वायु को उसका भेद जानने के लिए भेजा पर वह निराश लौट गए। कुछ भी नहीं जान सके । अंत में निरुपाय होकर मुझे स्वयं आना पड़ा । मगर समीप आते-आते वह जाने कहाँ विलीन हो गया। आप उसे अवश्य जानती होंगी। कृपया उसका भेद बतलाकर मेरे मन का विस्मय दूर कीजिए।

 

       जगदम्बा को अपने पुत्र पर दया क्‍यों न आती ? अपने मुखचन्द्र के हास्य रूप अमृत से इन्द्र के मुरझाए हुए चेहरे को सींचती हुई वह बोली वत्स ! वह यक्ष पुरुष कोई साधारण पुरुष नहीं था, वह साक्षात्‌ ब्रह्म था । जिसका भेद अग्नि ओर वायु क्‍या बता सकेंगे ? सारे संसार में ऐसा कोई नहीं है, जो उसका भेद जान सके । वह सब का उपकार करता है ओर सब का विनाश भी करता है। अच्छे काम करने वालों का वहीं साथी है ओर बुरे काम करने वालों का वही दुश्मन है । उसी ने तुम्हारी ओर से असुरों का विनाश किया है । तुम सब तो एक दिखावटी बहाने थे । उसकी इच्छा के बीना कोई चींटी की टांग भी नहीं टेढ़ी कर सकता। अग्नि ओर वायु ने बहुत चाहा कि उस तिनके का कुछ बिगाड़ दे मगर उनकी जब इच्छा नहीं थी तो वह क्या कर सकते थे । उसी ब्रह्म की महिमा से ही तुम्हारे शत्रु असुरों का विनाश हुआ । क्योंकि वे हमेशा बुरे कामों में लगे रहते थे। मगर तुम लोगों ने यह समझ लिया कि असुरों का विनाश हम सबा ने किया है। और यही समझ कर तुम सब में घोर अभिमान भी हो आया है। उस अभिमान को छोड़ दो, वही सब पापों की जड़ है। भगवान्‌ पाप से बड़ी घृणा करता है। वह उसी पाप करने वाले से घृणा नहीं करता बल्कि उसके अवगुणों से करता है। अवगुणों को छोड़ के पापी से पापी भी उसका भक्त बन जाता है । थोड़े से यही समझ लो कि इस संसार में वही सब से बड़ा दयालु और सब से बड़ा शक्तिशाली है। अपने अभिमान को छोड़ देने पर तुम सब पहले की तरह फिर उसके प्रिय वन जाओगे।

 

      भगवती पावर्ती की इन सीधी सादी बातों ने देवराज इन्द्र पर अपना जादू कर दिया । उनकी अभिमान से काली आत्मा इस उपदेश रूपी अमृत से घुलकर चमक उठी । आंखों से कृतज्ञता के आंसू निकल पड़े ओर उसी से दिल की सारी जलन भी बाहर हो गई । माता के चरणों पर गिर कर उन्होंने उसके वरदायी हाथों का कोमल और सुखदायी स्पर्श अनुभव किया । आखिरकार चिर काल तक सुखी होने का पवित्र आशीर्वाद पाकर देवराज इन्द्र अपनी सभा की ओर वापस लौटे । जगदम्बा पार्वती भी आशीर्वाद देकर वहीं अन्तर ध्यान हो गई ।

 

 

     देव सभा उत्सुक आंखों से कब से इन्द्र की राह देख रही थी । इन्द्र के पहुँचते ही सब देवता उठकर खड़े दो गए । उस समय प्रसन्नता और शान्ति से इन्द्र का तेज कई गुना अधिक हो गया था । ब्रह्म के निर्मल प्रकाश में उन्हें संसार के सब तत्त्व स्पष्ट हो रहे थे । कोई गांठ उनके दिल में नहीं रह गई थी और न कोई आशंका की सिहरन ही थी । इशारे से सब को अपने-अपने आसनों पर बैठने का आदेश देकर वह अपने रत्न जटित सिंहासन पर शोभायमान हो गए । और सब देवताओं के बीच में सर्वप्रथम ब्रह्म का उपदेश किया । इन्द्र के उपदेश रूपी अमृत से अग्नि और वायु की कलुषित और मुमुक्षु आत्मा भी हरी भरी हो गई और ब्रह्म रस के अमृत संचार से उनकी पूर्व शक्ति फिर वापस आ गई । सारे देवताओं की दूषित भावनाएँ सदा के लिए दब गई । सब लोग नए सिरे से जन्म पाने के समान सुखदायी जीवन का अनुभव करने लगे।

 

       अब वह सचमुच विजयी देवता बन गये थे, क्योंकि उनके भीतरी शत्रु घमंड रूपी असुर की सदा के लिए मृत्यु हो गई थी ।

 

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