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ज्ञानवर्धक कथाएं भाग -30

 

ज्ञानवर्धक कथाएं भाग -30

 

👉 मूर्ख कौन?

 

किसी गांव में एक सेठ रहता था। उसका एक ही बेटा था, जो व्यापार के काम से परदेस गया हुआ था। सेठ की बहू एक दिन कुएँ पर पानी भरने गई। घड़ा जब भर गया तो उसे उठाकर कुएँ के मुंडेर पर रख दिया और अपना हाथ-मुँह धोने लगी। तभी कहीं से चार राहगीर वहाँ आ पहुँचे। एक राहगीर बोला, "बहन, मैं बहुत प्यासा हूँ। क्या मुझे पानी पिला दोगी?"

 

सेठ की बहू को पानी पिलाने में थोड़ी झिझक महसूस हुई, क्योंकि वह उस समय कम कपड़े पहने हुए थी। उसके पास लोटा या गिलास भी नहीं था जिससे वह पानी पिला देती। इसी कारण वहाँ उन राहगीरों को पानी पिलाना उसे ठीक नहीं लगा।

 

बहू ने उससे पूछा, "आप कौन हैं?"

राहगीर ने कहा, "मैं एक यात्री हूँ"

बहू बोली, "यात्री तो संसार में केवल दो ही होते हैं, आप उन दोनों में से कौन हैं? अगर आपने मेरे इस सवाल का सही जवाब दे दिया तो मैं आपको पानी पिला दूंगी। नहीं तो मैं पानी नहीं पिलाऊंगी।"

बेचारा राहगीर उसकी बात का कोई जवाब नहीं दे पाया।

 

तभी दूसरे राहगीर ने पानी पिलाने की विनती की।

बहू ने दूसरे राहगीर से पूछा, "अच्छा तो आप बताइए कि आप कौन हैं?"

दूसरा राहगीर तुरंत बोल उठा, "मैं तो एक गरीब आदमी हूँ।"

सेठ की बहू बोली, "भइया, गरीब तो केवल दो ही होते हैं। आप उनमें से कौन हैं?"

प्रश्न सुनकर दूसरा राहगीर चकरा गया। उसको कोई जवाब नहीं सूझा तो वह चुपचाप हट गया।

 

तीसरा राहगीर बोला, "बहन, मुझे बहुत प्यास लगी है। ईश्वर के लिए तुम मुझे पानी पिला दो"

बहू ने पूछा, "अब आप कौन हैं?"

तीसरा राहगीर बोला, "बहन, मैं तो एक अनपढ़ गंवार हूँ।"

यह सुनकर बहू बोली, "अरे भई, अनपढ़ गंवार तो इस संसार में बस दो ही होते हैं। आप उनमें से कौन हैं?'

बेचारा तीसरा राहगीर भी कुछ बोल नहीं पाया।

 

अंत में चौथा राहगीह आगे आया और बोला, "बहन, मेहरबानी करके मुझे पानी पिला दें। प्यासे को पानी पिलाना तो बड़े पुण्य का काम होता है।"

सेठ की बहू बड़ी ही चतुर और होशियार थी, उसने चौथे राहगीर से पूछा, "आप कौन हैं?"

वह राहगीर अपनी खीज छिपाते हुए बोला, "मैं तो।। बहन बड़ा ही मूर्ख हूँ।"

बहू ने कहा, "मूर्ख तो संसार में केवल दो ही होते हैं। आप उनमें से कौन हैं?"

वह बेचारा भी उसके प्रश्न का उत्तर नहीं दे सका। चारों पानी पिए बगैर ही वहाँ से जाने लगे तो बहू बोली, "यहाँ से थोड़ी ही दूर पर मेरा घर है। आप लोग कृपया वहीं चलिए। मैं आप लोगों को पानी पिला दूंगी"

 

चारों राहगीर उसके घर की तरफ चल पड़े। बहू ने इसी बीच पानी का घड़ा उठाया और छोटे रास्ते से अपने घर पहुँच गई। उसने घड़ा रख दिया और अपने कपड़े ठीक तरह से पहन लिए।

 

इतने में वे चारों राहगीर उसके घर पहुँच गए। बहू ने उन सभी को गुड़ दिया और पानी पिलाया। पानी पीने के बाद वे राहगीर अपनी राह पर चल पड़े। सेठ उस समय घर में एक तरफ बैठा यह सब देख रहा था। उसे बड़ा दुःख हुआ। वह सोचने लगा, इसका पति तो व्यापार करने के लिए परदेस गया है, और यह उसकी गैर हाजिरी में पराए मर्दों को घर बुलाती है। उनके साथ हँसती बोलती है। इसे तो मेरा भी लिहाज नहीं है। यह सब देख अगर मैं चुप रह गया तो आगे से इसकी हिम्मत और बढ़ जाएगी। मेरे सामने इसे किसी से बोलते बतियाते शर्म नहीं आती तो मेरे पीछे न जाने क्या-क्या करती होगी। फिर एक बात यह भी है कि बीमारी कोई अपने आप ठीक नहीं होती। उसके लिए वैद्य के पास जाना पड़ता है। क्यों न इसका फैसला राजा पर ही छोड़ दूं। यही सोचता वह सीधा राजा के पास जा पहुँचा और अपनी परेशानी बताई। सेठ की सारी बातें सुनकर राजा ने उसी वक्त बहू को बुलाने के लिए सिपाही बुलवा भेजे और उनसे कहा, "तुरंत सेठ की बहू को राज सभा में उपस्थित किया जाए।"

 

राजा के सिपाहियों को अपने घर पर आया देख उस सेठ की पत्नी ने अपनी बहू से पूछा, "क्या बात है बहू रानी? क्या तुम्हारी किसी से कहा-सुनी हो गई थी जो उसकी शिकायत पर राजा ने तुम्हें बुलाने के लिए सिपाही भेज दिए?"

 

बहू ने सास की चिंता को दूर करते हुए कहा, "नहीं सासू मां, मेरी किसी से कोई कहा-सुनी नहीं हुई है। आप जरा भी फिक्र न करें।"

 

सास को आश्वस्त कर वह सिपाहियों से बोली, "तुम पहले अपने राजा से यह पूछकर आओ कि उन्होंने मुझे किस रूप में बुलाया है। बहन, बेटी या फिर बहू के रुप में? किस रूप में में उनकी राजसभा में मैं आऊँ?"

 

बहू की बात सुन सिपाही वापस चले गए। उन्होंने राजा को सारी बातें बताई। राजा ने तुरंत आदेश दिया कि पालकी लेकर जाओ और कहना कि उसे बहू के रूप में बुलाया गया है।

 

सिपाहियों ने राजा की आज्ञा के अनुसार जाकर सेठ की बहू से कहा, "राजा ने आपको बहू के रूप में आने के ले पालकी भेजी है।" बहू उसी समय पालकी में बैठकर राज सभा में जा पहुँची। राजा ने बहू से पूछा, "तुम दूसरे पुरूषों को घर क्यों बुला लाईं, जबकि तुम्हारा पति घर पर नहीं है?"

 

बहू बोली, "महाराज, मैंने तो केवल कर्तव्य का पालन किया। प्यासे पथिकों को पानी पिलाना कोई अपराध नहीं है। यह हर गृहिणी का कर्तव्य है। जब मैं कुएँ पर पानी भरने गई थी, तब तन पर मेरे कपड़े अजनबियों के सम्मुख उपस्थित होने के अनुरूप नहीं थे। इसी कारण उन राहगीरों को कुएँ पर पानी नहीं पिलाया। उन्हें बड़ी प्यास लगी थी और मैं उन्हें पानी पिलाना चाहती थी। इसीलिए उनसे मैंने मुश्किल प्रश्न पूछे और जब वे उनका उत्तर नहीं दे पाए तो उन्हें घर बुला लाई। घर पहुँचकर ही उन्हें पानी पिलाना उचित था।"

राजा को बहू की बात ठीक लगी। राजा को उन प्रश्नों के बारे में जानने की बड़ी उत्सुकता हुई जो बहू ने चारों राहगीरों से पूछे थे।

 

राजा ने सेठ की बहू से कहा, "भला मैं भी तो सुनूं कि वे कौन से प्रश्न थे जिनका उत्तर वे लोग नहीं दे पाए?"

 

बहू ने तब वे सभी प्रश्न दुहरा दिए। बहू के प्रश्न सुन राजा और सभासद चकित रह गए। फिर राजा ने उससे कहा, "तुम खुद ही इन प्रश्नों के उत्तर दो। हम अब तुमसे यह जानना चाहते हैं।"

 

बहू बोली, "महाराज, मेरी दृष्टि में पहले प्रश्न का उत्तर है कि संसार में सिर्फ दो ही यात्री हैं–सूर्य और चंद्रमा। मेरे दूसरे प्रश्न का उत्तर है कि बहू और गाय इस पृथ्वी पर ऐसे दो प्राणी हैं जो गरीब हैं। अब मैं तीसरे प्रश्न का उत्तर सुनाती हूं। महाराज, हर इंसान के साथ हमेशा अनपढ़ गंवारों की तरह जो हमेशा चलते रहते हैं वे हैं–भोजन और पानी। चौथे आदमी ने कहा था कि वह मूर्ख है, और जब मैंने उससे पूछा कि मूर्ख तो दो ही होते हैं, तुम उनमें से कौन से मूर्ख हो तो वह उत्तर नहीं दे पाया।" इतना कहकर वह चुप हो गई।

 

राजा ने बड़े आश्चर्य से पूछा, "क्या तुम्हारी नजर में इस संसार में सिर्फ दो ही मूर्ख हैं?"

"हाँ, महाराज, इस घड़ी, इस समय मेरी नजर में सिर्फ दो ही मूर्ख हैं।"

राजा ने कहा, "तुरंत बतलाओ कि वे दो मूर्ख कौन हैं।"

इस पर बहू बोली, "महाराज, मेरी जान बख्श दी जाए तो मैं इसका उत्तर दूं।"

 

राजा को बड़ी उत्सुकता थी यह जानने की कि वे दो मूर्ख कौन हैं। सो, उसने तुरंत बहू से कह दिया, "तुम निःसंकोच होकर कहो। हम वचन देते हैं तुम्हें कोई सज़ा नहीं दी जाएगी।"

बहू बोली, "महाराज, मेरे सामने इस वक्त बस दो ही मूर्ख हैं।" फिर अपने ससुर की ओर हाथ जोड़कर कहने लगी, "पहले मूर्ख तो मेरे ससुर जी हैं जो पूरी बात जाने बिना ही अपनी बहू की शिकायत राजदरबार में की। अगर इन्हें शक हुआ ही था तो यह पहले मुझसे पूछ तो लेते, मैं खुद ही इन्हें सारी बातें बता देती। इस तरह घर-परिवार की बेइज्जती तो नहीं होती।"

 

ससुर को अपनी गलती का अहसास हुआ। उसने बहू से माफ़ी मांगी। बहू चुप रही।

राजा ने तब पूछा, "और दूसरा मूर्ख कौन है?"

बहू ने कहा, "दूसरा मूर्ख खुद इस राज्य का राजा है जिसने अपनी बहू की मान-मर्यादा का जरा भी खयाल नहीं किया और सोचे-समझे बिना ही बहू को भरी राजसभा में बुलवा लिया।"

 

बहू की बात सुनकर राजा पहले तो क्रोध से आग बबूला हो गया, परंतु तभी सारी बातें उसकी समझ में आ गईं। समझ में आने पर राजा ने बहू को उसकी समझदारी और चतुराई की सराहना करते हुए उसे ढेर सारे पुरस्कार देकर सम्मान सहित विदा किया।

 

👉 नालायक

 

देर रात अचानक ही उनकी तबियत बिगड़ गयी। आहट पाते ही नालायक उनके सामने था। माँ ड्राईवर बुलाने की बात हुई, पर उसने सोचा अब इतनी रात को इतना जल्दी ड्राईवर कहाँ आ पायेगा?? यह कहते हुये उसने सहज जिद और अपने मजबूत कंधो के सहारे बाऊजी को कार में बिठाया और तेज़ी से हॉस्पिटल की ओर भागा।

 

बाउजी दर्द से कराहने के साथ ही उसे डांट भी रहे थे "धीरे चला नालायक, एक काम जो इससे ठीक से हो जाए।"

 

नालायक बोला

"आप ज्यादा बातें ना करें बाउजी, बस तेज़ साँसें लेते रहिये, हम हॉस्पिटल पहुँचने वाले हैं।" अस्पताल पहुँचकर उन्हे डाक्टरों की निगरानी में सौंप,वो बाहर चहलकदमी करने लगा, बचपन से आज तक अपने लिये वो नालायक ही सुनते आया था। उसने भी कहीं न कहीं अपने मन में यह स्वीकार कर लिया था की उसका नाम ही शायद नालायक ही हैं।

 

तभी तो स्कूल के समय से ही घर के लगभग सब लोग कहते थे की नालायक फिर से फेल हो गया। नालायक को अपने यहाँ कोई चपरासी भी ना रखे। कोई बेवकूफ ही इस नालायक को अपनी बेटी देगा।

 

शादी होने के बाद भी वक्त बेवक्त सब कहते रहते हैं की इस बेचारी के भाग्य फूटें थे जो इस नालायक के पल्ले पड़ गयी। हाँ बस एक माँ ही हैं जिसने उसके असल नाम को अब तक जीवित रखा है, पर आज अगर उसके बाउजी को कुछ हो गया तो शायद वे भी।।

 

इस ख़याल के आते ही उसकी आँखे छलक गयी और वो उनके लिये हॉस्पिटल में बने एक मंदिर में प्रार्थना में डूब गया। प्रार्थना में शक्ति थी या समस्या मामूली, डाक्टरों ने सुबह सुबह ही बाऊजी को घर जाने की अनुमति दे दी।

 

घर लौटकर उनके कमरे में छोड़ते हुये बाऊजी एक बार फिर चीखें, "छोड़ नालायक ! तुझे तो लगा होगा कि बूढ़ा अब लौटेगा ही नहीं।"

 

उदास वो उस कमरे से निकला, तो माँ से अब रहा नहीं गया, "इतना सब तो करता है, बावजूद इसके आपके लिये वो नालायक ही है ???

 

विवेक और विशाल दोनो अभी तक सोये हुए हैं उन्हें तो अंदाजा तक नही हैं की रात को क्या हुआ होगा ।।।।।बहुओं ने भी शायद उन्हें बताना उचित नही समझा होगा ।

 

यह बिना आवाज दिये आ गया और किसी को भी परेशान नही किया भगवान न करे कल को कुछ अनहोनी हो जाती तो ?????

 

और आप हैं की ????

 

उसे शर्मिंदा करने और डांटने का एक भी मौका नही छोड़ते।

 

कहते कहते माँ रोने लगी थी

 

इस बार बाऊजी ने आश्चर्य भरी नजरों से उनकी ओर देखा और फिर नज़रें नीची करली माँ रोते रोते बोल रही थी अरे, क्या कमी है हमारे बेटे में ?????

 

हाँ मानती हूँ पढाई में थोङा कमजोर था ।।।।

तो क्या ????

क्या सभी होशियार ही होते हैं ??

 

वो अपना परिवार, हम दोनों को, घर-मकान, पुश्तैनी कारोबार, रिश्तेदार और रिश्तेदारी सब कुछ तो बखूबी सम्भाल रहा है जबकि बाकी दोनों जिन्हें आप लायक समझते हैं वो बेटे सिर्फ अपने बीबी और बच्चों के अलावा ज्यादा से ज्यादा अपने ससुराल का ध्यान रखते हैं ।

 

कभी पुछा आपसे की आपकी तबियत कैसी हैं ??????

 

और आप हैं की ।।।।

 

बाऊजी बोले सरला तुम भी मेरी भावना नही समझ पाई ????

 

मेरे शब्द ही पकङे न ??

 

क्या तुझे भी यहीं लगता हैं की इतना सब के होने बाद भी इसे बेटा कह के नहीं बुला पाने का, गले से नहीं लगा पाने का दुःख तो मुझे नही हैं ?? क्या मेरा दिल पत्थर का हैं ??

हाँ सरला सच कहूँ दुःख तो मुझे भी होता ही है, पर उससे भी अधिक डर लगता है कि कहीं ये भी उनकी ही तरह लायक ना बन जाये।

 

इसलिए मैं इसे इसकी पूर्णताः का अहसास इसे अपने जीते जी तो कभी नही होने दूगाँ ।।।।

 

माँ चौंक गई ।।।।।

 

ये क्या कह रहे हैं आप ???

 

हाँ सरला ।।।यहीं सच हैं

 

अब तुम चाहो तो इसे मेरा स्वार्थ ही कह लो। "कहते हुये उन्होंने रोते हुए नजरे नीची किये हुए अपने हाथ माँ की तरफ जोड़ दिये जिसे माँ ने झट से अपनी हथेलियों में भर लिया।

 

और कहा अरे ।।।अरे ये आप क्या कर रहे हैं

मुझे क्यो पाप का भागी बना रहे हैं ।

मेरी ही गलती हैं मैं आपको इतने वर्षों में भी पूरी तरह नही समझ पाई ।।।।।।

 

और दूसरी ओर दरवाज़े पर वह नालायक खड़ा खङा यह सारी बातचीत सुन रहा था वो भी आंसुओं में तरबतर हो गया था।

 

उसके मन में आया की दौड़ कर अपने बाऊजी के गले से लग जाये पर ऐसा करते ही उसके बाऊजी झेंप जाते, यह सोच कर वो अपने कमरे की ओर दौड़ गया।

 

कमरे तक पहुँचा भी नही था की बाऊजी की आवाज कानों में पङी।।

 

अरे नालायक ।।।।।वो दवाईयाँ कहा रख दी

गाड़ी में ही छोड़ दी क्या ??????

 

कितना भी समझा दो इससे एक काम भी ठीक से नही होता ।।।।

 

नालायक झट पट आँसू पौछते हुये गाड़ी से दवाईयाँ निकाल कर बाऊजी के कमरे की तरफ दौङ गया।

 

👉 सकारात्मक सोच:--

 

पुराने समय की बात है, एक गाँव में दो किसान रहते थे। दोनों ही बहुत गरीब थे, दोनों के पास थोड़ी थोड़ी ज़मीन थी, दोनों उसमें ही मेहनत करके अपना और अपने परिवार का गुजारा चलाते थे।

 

अकस्मात कुछ समय पश्चात दोनों की एक ही दिन एक ही समय पे मृत्यु हो गयी। यमराज दोनों को एक साथ भगवान के पास ले गए। उन दोनों को भगवान के पास लाया गया। भगवान ने उन्हें देख के उनसे पूछा, ” अब तुम्हे क्या चाहिये, तुम्हारे इस जीवन में क्या कमी थी, अब तुम्हें क्या बना के मैं पुनः संसार में भेजूं।”

 

भगवान की बात सुनकर उनमे से एक किसान बड़े गुस्से से बोला, ” हे भगवान! आपने इस जन्म में मुझे बहुत घटिया ज़िन्दगी दी थी। आपने कुछ भी नहीं दिया था मुझे। पूरी ज़िन्दगी मैंने बैल की तरह खेतो में काम किया है, जो कुछ भी कमाया वह बस पेट भरने में लगा दिया, ना ही मैं कभी अच्छे कपड़े पहन पाया और ना ही कभी अपने परिवार को अच्छा खाना खिला पाया। जो भी पैसे कमाता था, कोई आकर के मुझसे लेकर चला जाता था और मेरे हाथ में कुछ भी नहीं आया। देखो कैसी जानवरों जैसी ज़िन्दगी जी है मैंने।”

 

उसकी बात सुनकर भगवान कुछ समय मौन रहे और पुनः उस किसान से पूछा, ” तो अब क्या चाहते हो तुम, इस जन्म में मैं तुम्हे क्या बनाऊँ।”

 

भगवान का प्रश्न सुनकर वह किसान पुनः बोला, ” भगवन आप कुछ ऐसा कर दीजिये, कि मुझे कभी किसी को कुछ भी देना ना पड़े। मुझे तो केवल चारो तरफ से पैसा ही पैसा मिले।”

 

अपनी बात कहकर वह किसान चुप हो गया। भगवान से उसकी बात सुनी और कहा, ” तथास्तु, तुम अब जा सकते हो मैं तुम्हे ऐसा ही जीवन दूँगा जैसा तुमने मुझसे माँगा है।”

 

उसके जाने पर भगवान ने पुनः दूसरे किसान से पूछा, ” तुम बताओ तुम्हे क्या बनना है, तुम्हारे जीवन में क्या कमी थी, तुम क्या चाहते हो?”

 

उस किसान ने भगवान के सामने हाथ जोड़ते हुए कहा, ” हे भगवन। आपने मुझे सबकुछ दिया, मैं आपसे क्या मांगू। आपने मुझे एक अच्छा परिवार दिया, मुझे कुछ जमीन दी जिसपे मेहनत से काम करके मैंने अपना परिवार को एक अच्छा जीवन दिया। खाने के लिए आपने मुझे और मेरे परिवार को भरपेट खाना दिया। मैं और मेरा परिवार कभी भूखे पेट नहीं सोया। बस एक ही कमी थी मेरे जीवन में, जिसका मुझे अपनी पूरी ज़िन्दगी अफ़सोस रहा और आज भी हैं। मेरे दरवाजे पे कभी कुछ भूखे और प्यासे लोग आते थे। भोजन माँगने के लिए, परन्तु कभी कभी मैं भोजन न होने के कारण उन्हें खाना नहीं दे पाता था, और वो मेरे द्वार से भूखे ही लौट जाते थे। ऐसा कहकर वह चुप हो गया।”

 

भगवान ने उसकी बात सुनकर उससे पूछा, ” तो अब क्या चाहते हो तुम, इस जन्म में मैं तुम्हें क्या बनाऊँ।” किसान भगवान से हाथ जोड़ते हुए विनती की, ” हे प्रभु! आप कुछ ऐसा कर दो कि मेरे द्वार से कभी कोई भूखा प्यासा ना जाये।” भगवान ने कहा, “तथास्तु, तुम जाओ तुम्हारे द्वार से कभी कोई भूखा प्यासा नहीं जायेगा।”

 

अब दोनों का पुनः उसी गाँव में एक साथ जन्म हुआ। दोनों बड़े हुए।

 

पहला व्यक्ति जिसने भगवान से कहा था, कि उसे चारो तरफ से केवल धन मिले और मुझे कभी किसी को कुछ देना ना पड़े, वह व्यक्ति उस गाँव का सबसे बड़ा भिखारी बना। अब उसे किसी को कुछ देना नहीं पड़ता था, और जो कोई भी आता उसकी झोली में पैसे डालके ही जाता था।

 

और दूसरा व्यक्ति जिसने भगवान से कहा था कि उसे कुछ नहीं चाहिए, केवल इतना हो जाये की उसके द्वार से कभी कोई भूखा प्यासा ना जाये, वह उस गाँव का सबसे अमीर आदमी बना। उसके यहां से कोई खाली हाथ नहीं जाता था ।

  

                                                

दोस्तों ईश्वर ने जो दिया है उसी में संतुष्ट होना बहुत जरुरी है। अक्सर देखा जाता है कि सभी लोगों को हमेशा दूसरे की चीज़ें ज्यादा पसंद आती हैं और इसके चक्कर में वो अपना जीवन भी अच्छे से नहीं जी पाते। मित्रों हर बात के दो पहलू होते हैं –

 

सकारात्मक और नकारात्मक, अब ये आपकी सोच पर निर्भर करता है कि आप चीज़ों को नकारत्मक रूप से देखते हैं या सकारात्मक रूप से। अच्छा जीवन जीना है तो अपनी सोच को अच्छा बनाइये, चीज़ों में कमियाँ मत निकालिये बल्कि जो भगवान ने दिया है उसका आनंद लीजिये और हमेशा दूसरों के प्रति सेवा भाव रखिये !!  

 

👉 "संकल्प"

 

बात नेताजी सुभाषचंद्र बोस के बचपन की है जब वे स्कूल में पढ़ा करते थे। बचपन से ही वे बहुत होशियार थे और सारे विषयो में उनके अच्छे अंक आते थे, लेकिन वे बंगाली में कुछ कमजोर थे। बाकि विषयों की अपेक्षा बंगाली मे उनके अंक कम आते थे।

 

एक दिन अध्यापक ने सभी छात्रों को बंगाली में निबंध लिखने को कहा। सभी छात्रों ने बंगाली में निबंध लिखा। मगर सुभाष के निबंध में बाकि छात्रों की तुलना में अधिक कमियाँ निकली।

 

अध्यापक ने जब इन कमियों का जिक्र कक्षा में किया तो सभी छात्र उनका मजाक उड़ाने लगे।

 

उनकी कक्षा का ही एक विद्यार्थी सुभाषचंद्र बोस से बोला- “वैसे तो तुम बड़े देशभक्त बने फिरते हो मगर अपनी ही भाषा पर तुम्हारी पकड़ इतनी कमजोर क्यों है।”

 

यह बात सुभाषचन्द्र बोस को बहुत बुरी और यह बात उन्हें अन्दर तक चुभ गई। सुभाषचंद्र बोस ने मन ही मन निश्चय कर लिया कि वह अपनी भाषा बंगाली सही तरीके से जरुर सीखेंगे।

 

चूँकि उन्होंने संकल्प कर लिया था इसलिये तभी से उन्होंने बंगाली का बारीकी से अध्ययन शुरू कर दिया। उन्होंने बंगाली के व्याकरण को पढ़ना शुरू कर दिया, उन्होंने दृढ निश्चय किया कि वे बंगाली में केवल पास ही नहीं होंगे बल्कि सबसे ज्यादा अंक लायेंगे।

 

सुभाष ने बंगाली पढ़ने में अपना ध्यान केन्द्रित किया और कुछ ही समय में उसमे महारथ हासिल कर ली। धीरे धीरे वार्षिक परीक्षाये निकट आ गई।

 

सुभाष की कक्षा के विद्यार्थी सुभाष से कहते – भले ही तुम कक्षा में प्रथम आते हो मगर जब तक बंगाली में तुम्हारे अंक अच्छे नहीं आते, तब तक तुम सर्वप्रथम नहीं कहलाओगे।

 

वार्षिक परीक्षाएं ख़त्म हो गई। सुभाष सिर्फ कक्षा में ही प्रथम नहीं आये बल्कि बंगाली में भी उन्होंने सबसे अधिक अंक प्राप्त किये। यह देखकर विद्यार्थी और शिक्षक सभी दंग रहे गये।

 

उन्होंने सुभाष से पूछा – यह कैसे संभव हुआ ?

 

तब सुभाष विद्यार्थियों से बोले – यदि मन ,लगन ,उत्साह और एकग्रता हो तो, इन्सान कुछ भी हाँसिल कर सकता है।

 

👉 समय की आवश्यकता "संघ शक्ति": -

 

कई मोर्चे खुले पर सब जगह हार देवताओं की हुई! असुर उनके एक-एक कर सभी दुर्ग जीतते चले गये, देवताओं का अस्तित्व ही संकट में पड़ गया! पराजित देवता प्रजापति ब्रह्मा के पास पहुँचे! पराजय के कारण और उनसे असुरों पर विजय का उपाय पूछा! पराजय के कारण और विजय की नई योजनाओं पर कुछ देर तक विचार करने के बाद ब्रह्मा जी बोले-

 

देवताओं! तुम सभी दिव्य गुणों वाले हो, त्यागी और तपस्वी भी कम नहीं हो, शक्ति और साहस का तुम में अभाव भी नहीं है किन्तु एक बहुत बड़ी कमी तुम में भी है संगठन का अभाव! तुम्हारी शक्तियाँ बिखरी होने के कारण अभीष्ट प्रभाव उत्पन्न नहीं कर पातीं जब कि पापी और दुर्गुणी होकर भी केवल संगठित होने के कारण थोड़े से असुरों की शक्ति में वह बल आ जाता है कि वे तुम सब को जब चाहते परास्त करके रख देते हैं!

 

फिर ब्रह्मा जी ने सभी देवताओं से शक्ति का थोड़ा अंश लेकर दुर्गा का अवतरण किया।

 

यह इस रहस्य का उद्घाटन करता है की देवताओं ने मिलकर अपनी-अपनी शक्ति का अंश देकर एक संघ शक्ति का निर्माण किया, दुर्गा उस संस्था एवं संगठन  का प्रतीक है जिसमें श्रेष्ठ व्यक्तियों की शक्तियाँ संघ-बद्ध होकर काम करती हैं!

 

यह संघ शक्ति अवतरित हुई, उसने सिंह को अपना वाहन बनाया! सिंह साहस और स्फूर्ति का प्रतीक है उसका भावार्थ यह होता है कि देवताओं ने अपनी संगठित शक्ति का तेजी से साहसपूर्वक प्रयोग किया, उसका फल यह हुआ कि बड़े-बड़े दुर्दान्त और दिग्गज राक्षस आये पर दुर्गा उन सब को मारती-काटती चली गयी! वह अपने वाहन सहित राक्षसों पर टूट पड़ी, राक्षसों में अब उनका सामना करने की हिम्मत नहीं रही!

 

पुराणों की दुर्गा-अवतरण की कथा में संघ शक्ति का अलंकारिक चित्रण है, उसका उपयोग प्रकरान्तर से प्रत्येक युग में होता आया है, रावण जैसे शक्तिशाली असुर के सामने रीछ वानरों की कोई औकात नहीं थी पर यह उनकी संगठित शक्ति का परिणाम था कि एक लाख पुत्र, सवा लाख नातियों के कुनवे वाला मायावी रावण भी धराशायी कर दिया गया! इन्द्र के कोप का सामना करना कठिन हो जाता यदि यादवों ने कृष्ण के इशारे पर संगठित होकर गोवर्धन को नहीं उठा लिया होता! भगवान् बुद्ध को तो "बुद्धं शरणं गच्छामि" के साथ "संघं शरण गच्छामि" का भी नारा लगाना पड़ा था! तब कहीं उस युग में व्याप्त धर्म के नाम पर आडम्बर, अज्ञान, अनाचार और मत-मतान्तरों का अँधड़ रोका जा सका था!

 

अभी कुछ दिन पुर्व ही यही प्रयोग स्वतंत्रता सेनानियों ने किया! देशभक्तों के रूप में दुर्गा शक्ति ने अवतार लिया था तभी अंग्रेजी हुकूमत जैसी शक्तिशाली सत्ता पर भारतियों को विजय मिल सकी थी!

 

आज समाज में अच्छे लोगों का अभाव नहीं! लोग आस्तिक हैं, पूजा उपासना करते हैं, दान पुण्य करते हैं, उनमें नेक आदमियों के सब लक्षण है तो भी असुरता चाहे वह मनुष्यों के रूप में हो या दुष्प्रवृत्तियों के रूप में जीतती चली जाती है, अच्छे लोग आये दिन संकट में पड़ते, कष्ट भोगते रहते हैं यह सब उनमें संगठन शक्ति के आभाव के कारण है!

 

यदि आज भी लोग संगठित हो जायें तो इस युग की असुरता, पाप और अत्याचार को उसी प्रकार भगाया जा सकता है जिस प्रकार दुर्गा को जन्म देकर देवताओं ने असुरों को मार भगाया!!

 


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