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ज्ञानवर्धक कथाएं भाग -31

 

ज्ञानवर्धक कथाएं भाग -31

 

👉 ऐसी हो गुरु में निष्ठा:-

 

प्राचीनकाल में गोदावरी नदी के किनारे वेदधर्म मुनि के आश्रम में उनके शिष्य वेद-शास्त्रादि का अध्ययन करते थे। एक दिन गुरु ने अपने शिष्यों की गुरुभक्ति की परीक्षा लेने का विचार किया। सत्शिष्यों में गुरु के प्रति इतनी अटूट श्रद्धा होती है कि उस श्रद्धा को नापने के लिए गुरुओं को कभी-कभी योगबल का भी उपयोग करना पड़ता है।

 

वेदधर्म मुनि ने शिष्यों से कहाः "हे शिष्यो ! अब प्रारब्धवश मुझे कोढ़ निकलेगा, मैं अंधा हो जाऊँगा इसलिए काशी में जाकर रहूँगा। है कोई हरि का लाल, जो मेरे साथ रहकर सेवा करने के लिए तैयार हो?" शिष्य पहले तो कहा करते थेः ʹगुरुदेव ! आपके चरणों में हमारा जीवन न्योछावर हो जाय मेरे प्रभु!ʹअब सब चुप हो गये।

 

उनमें संदीपक नाम का शिष्य खूब गुरु सेवापरायण, गुरुभक्त था। उसने कहाः "गुरुदेव! यह दास आपकी सेवा में रहेगा।" गुरुदेवः "इक्कीस वर्ष तक सेवा के लिए रहना होगा।" संदीपकः "इक्कीस वर्ष तो क्या मेरा पूरा जीवन ही अर्पित है। गुरुसेवा में ही इस जीवन की सार्थकता है।"

 

वेदधर्म मुनि एवं संदीपक काशी में मणिकर्णिका घाट से कुछ दूर रहने लगे। कुछ दिन बाद गुरु के पूरे शरीर में कोढ़ निकला और अंधत्व भी आ गया। शरीर कुरूप और स्वभाव चिड़चिड़ा हो गया। संदीपक के मन में लेशमात्र भी क्षोभ नहीं हुआ।

 

वह दिन रात गुरु जी की सेवा में तत्पर रहने लगा। वह कोढ़ के घावों को धोता, साफ, करता, दवाई लगाता, गुरु को नहलाता, कपड़े धोता, आँगन बुहारता, भिक्षा माँगकर लाता और गुरुजी को भोजन कराता। गुरुजी गाली देते, डाँटते, तमाचा मार देते, डंडे से मारपीट करते और विविध प्रकार से परीक्षा लेते किंतु संदीपक की गुरुसेवा में तत्परता व गुरु के प्रति भक्तिभाव अधिकाधिक गहरा और प्रगाढ़ होता गया।

 

काशी के अधिष्ठाता देव भगवान विश्वनाथ संदीपक के समक्ष प्रकट हो गये और बोलेः "तेरी गुरुभक्ति एवं गुरुसेवा देखकर हम प्रसन्न हैं। जो गुरु की सेवा करता है वह मानो मेरी ही सेवा करता है। जो गुरु को संतुष्ट करता है वह मुझे ही संतुष्ट करता है।

 

बेटा ! कुछ वरदान माँग ले।" संदीपक गुरु से आज्ञा लेने गया और बोलाः।"शिवजी वरदान देना चाहते हैं आप आज्ञा दें तो वरदान माँग लूँ कि आपका रोग एवं अंधेपन का प्रारब्ध समाप्त हो जाय।" गुरु ने डाँटाः "वरदान इसलिए माँगता है कि मैं अच्छा हो जाऊँ और सेवा से तेरी जान छूटे! अरे मूर्ख! मेरा कर्म कभी-न-कभी तो मुझे भोगना ही पड़ेगा।" संदीपक ने शिवजी को वरदान के लिए मना कर दिया।।शिवजी आश्चर्यचकित हो गये कि कैसा निष्ठावान शिष्य है!

 

शिवजी गये विष्णुलोक में और भगवान विष्णु से सारा वृत्तान्त कहा। विष्णु भी संतुष्ट हो संदीपक के पास वरदान देने प्रकटे। संदीपक ने कहाः "प्रभु ! मुझे कुछ नहीं  चाहिए। "भगवान ने आग्रह किया तो बोलाः "आप मुझे यही वरदान दें कि गुरु में मेरी अटल श्रद्धा बनी रहे।

 

गुरुदेव की सेवा में निरंतर प्रीति रहे,।गुरुचरणों में दिन प्रतिदिन भक्ति दृढ़ होती रहे। "भगवान विष्णु ने संदीपक को गले लगा लिया। संदीपक ने जाकर देखा तो वेदधर्म मुनि स्वस्थ बैठे थे। न कोढ़, न कोई अँधापन!

 

शिवस्वरूप सदगुरु ने संदीपक को अपनी तात्त्विक दृष्टि एवं उपदेश से पूर्णत्व में प्रतिष्ठित कर दिया। वे बोलेः "वत्स ! धन्य है तेरी निष्ठा और सेवा ! पुत्र ! तुम धन्य हो ! तुम सच्चिदानंद स्वरूप हो।" गुरु के संतोष से संदीपक गुरु-तत्त्व में जग गया, गुरुस्वरूप हो गया।

 

अपनी श्रद्धा को कभी भी, कैसी भी परिस्थिति में सदगुरु पर से तनिक भी कम नहीं करना चाहिए। वे परीक्षा लेने के लिए कैसी भी लीला कर सकते हैं। गुरु आत्मा में अचल होते हैं, स्वरूप में अचल होते हैं। जो हमको संसार-सागर से तारकर परमात्मा में मिला दें, जिनका एक हाथ परमात्मा में हो और दूसरा हाथ जीव की परिस्थितियों में हो, महापुरुषों का नाम सदगुरु है।

 

सदगुरु मेरा सूरमा, करे शब्द की चोट।

मारे गोला प्रेम का, हरे भरम की कोट।।

 

गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूँ पाये।

बलिहारी गुरु आपने, गोविन्द दियो बताय।।

 

👉 शुभ कर्मों से प्रीति

 

एक गांव था ! वह ऐसी जगह बसा था।।। जहाँ आने जाने के लिए एक मात्र साधन नाव थी ।।।। क्योंकि बीच में नदी पड़ती थी और कोई रास्ता भी नहीं था।

 

एक बार उस गाँव  में महामारी फैल गई और बहुत सी मौते हो गयी।।। लगभग सभी लोग वहाँ से जा चुके थे।।।

 

अब कुछ ही गिने चुने लोग बचें थे और वो नाविक गाँव में बोल कर आ गया था कि मैं इसके बाद नहीं आऊँगा जिसको चलना है वो आ जाये।।।। सबसे पहले एक भिखारी आ गया और बोला मेरे पास देने के लिए कुछ भी नहीं है।।।। मुझे अपने साथ ले चलो।।। ईश्वर आपका भला करेगा! नाविक सज्जन पुरुष था।।।। उसने कहा कि यही रुको यदि जगह बचेगी तो तुम्हें मैं ले जाऊँगा।।।।

 

धीरे -धीरे करके पूरी नाव भर गई सिर्फ एक ही जगह बची ! नाविक भिखारी को बोलने ही वाला था कि एक आवाज आयी रुको मैं भी आ रहा हूँ ।।।।

यह आवाज जमीदार की थी।।।। जिसका धन-दौलत से लोभ और मोह देख कर उसका परिवार भी उसे छोड़कर जा चुका था।।।। अब सवाल यह था कि किसे लिया जाए।।।।।

 

जमीदार ने नाविक से कहा - मेरे पास सोना चांदी है ।।।। मैं तुम्हें दे दूँगा और भिखारी ने हाथ जोड़कर कहा कि भगवान के लिए मुझे ले चलो।।। नाविक समझ नहीं पा रहा था कि क्या करूँ तो उसने फैसला नाव में बैठे सभी लोगों पर छोड़ दिया और वो सब आपस में चर्चा करने लगे।।।। इधर जमीदार सबको अपने धन का प्रलोभन देता रहा और उसने उस भिखारी को बोला ये सबकुछ तू ले ले।।।। मैं तेरे हाथ पैर जोड़ता हूँ।।।।मुझे जाने दे !  तो भिखारी ने कहा:- मुझे भी अपनी जान बहुत प्यारी है  अगर मेरी जिंदगी ही नहीं रहेगी   तो मैं इस धन दौलत का क्या करूँगा।।? जीवन है तो जहान है!

 

तो सभी ने मिलकर।।। ये फैसला किया कि ये जमीदार ने आज तक हमसे लुटा ही है ब्याज पर ब्याज लगाकर हमारी जमीन अपने नाम कर ली।।।।।और माना की ये भिखारी हमसे हमेशा माँगता रहा पर उसके बदले में इसने हमें खूब दुआएं दी और इस तरह भिखारी को साथ में ले लिया गया।।।!

बस यही फैसला है।।।  ईश्वर भी वही हमारे साथ  न्याय करता है।।। जब अंत समय आता हैं ।।। वो सारे कर्मों का लेखा- जोखा हमारे सामने रख देता हैं और फैसले उसी हिसाब से होते हैं ।।। फिर रोना गिड़गिगिड़ाना काम नहीं आता !  शुभ कर्म ही साथ  होते है।।।

 

इसलिए अभी भी वक्त है- हमारे पास सम्भलने का।।।।और शुभ कर्म करने का।।।।। बाद में कुछ नहीं होगा।।।  शायद इसलिए कहा गया है।। अब पछताय क्या जब चिड़ियाँ चुग गयी खेत।।।।

 

शनिवार, 6 जून 2020

👉 समर्पण

 

एक बार किसी देश का राजा अपनी प्रजा का हाल-चाल पूछने के लिए गाँवो में घूम रहा था।

 

घूमते-घूमते उसके कुर्ते का बटन टूट गया, उसने अपने मंत्री को कहा कि, पता करो की इस गाँव में कौन सा दर्जी हैं,जो मेरे बटन को सिल सके, मंत्री ने पता किया, उस गाँव में सिर्फ एक ही दर्जी था, जो कपडे सिलने का काम करता था।

 

उसको राजा के सामने ले जाया गया, राजा ने कहा, क्या तुम मेरे कुर्ते का बटन सी सकते हो, दर्जी ने कहा,यह कोई मुश्किल काम थोड़े ही है, उसने मंत्री से बटन ले लिया, धागे से उसने राजा के कुर्ते का बटन फोरन सी दिया, क्योंकि बटन भी राजा के पास था, सिर्फ उसको अपना धागे का प्रयोग करना था।

 

राजा ने दर्जी से पूछा कि, कितने पैसे दू, उसने कहा, महाराज रहने दो, छोटा सा काम था, उसने मन में सोचा कि, बटन भी राजा के पास था, उसने तो सिर्फ धागा ही लगाया हैं, राजा ने फिर से दर्जी को कहा, कि, नहीं नहीं बोलो कितनीे माया दू, दर्जी ने सोचा कि, 2 रूपये मांग लेता हूँ, फिर मन में सोचा कि; कहीं राजा यह ने सोचलें,कि, बटन टाँगने के मुझ से 2 रुपये ले रहा हैं, तो गाँव वालों से कितना लेता होगा, क्योंकि उस जमाने में २ रुपये की कीमत बहुत होती थी।

 

दर्जी ने राजा से कहा, कि, महाराज जो भी आपको उचित लगे, वह दे दो, अब था तो राजा ही, उसने अपने हिसाब से देना था, कहीं देने में उसकी पोजीशन ख़राब न हो जाये।

 

उसने अपने मंत्री से कहा कि, इस दर्जी को २ गाँव दे दों, यह हमारा हुकम है।

 

कहाँ वो दर्जी सिर्फ २ रुपये की मांग कर रहा था, और कहाँ राजा ने उसको २ गाँव दे दिए ,, जब हम प्रभु पर सब कुछ छोड़ देते हैं, तो वह अपने हिसाब से देता हैं, सिर्फ हम मांगने में कमी कर जाते है, देने वाला तो पता नही क्या देना चाहता हैं, इसलिए संत-महात्मा कहते है, प्रभु के चरणों पर अपने आपको -अर्पण कर दों,, फिर देखो उनकी लीला।

समस्या रूपी बंदर:-

 

एक बार स्वामी विवेकानंद को बंदरों का सामना करना पड़ा था। वह इस आप बीती को कई अवसरों पर बड़े चाव के साथ सुनाया करते थे। इस अनुभव का लाभ उठाने की बात भी करते थे।

 

उन दिनों स्वामी जी काशी में थे वह एक तंग गली में गुजर रहे थे। सामने बंदरों का झुंड आ गया। उनसे बचने के लिए स्वामी जी पीछे को भागे। परंतु वे उनके आक्रमण को रोक नहीं पाए। बंदरों ने उनके कपडे तो फाड़े ही शरीर पर बहुत-सी खरोंचें भी आ गईं। दो-तीन जगह दांत भी लगे। शोर सुनकर पास के घर से एक व्यक्ति ने उन्हें खिड़की से देखा तुरंत कहा- “स्वामी जी! रुक जाओ, भागो मत। घूंसा तानकर उनकी तरफ बढ़ो। “स्वामी जी के पांव रुके। घूंसा तानते हुए उन्हें ललकारने लगे। बंदर भी डर गए और इधर-उधर भाग खड़े हुए। स्वामीजी गली को बड़े आराम से पार कर गए।

 

इस घटना को सुनाते हुए स्वामी जी अपने मित्रों तथा शिष्यों को कहा करते- “मित्रो! हमें चाहिए कि विपरीत हालात में डटे रहें, भागें नहीं। घूंसा तानें। सीधे हो जाएं। आगे बढ़ें। पीछे नहीं हटें। कामयाबी हमारे कदमों में होगी।“वास्तव में समस्या पलायन से नहीं सामना करने से खत्म होती है। भागने वालों का समस्या बंदर की भाँति पीछा करती है।

 

👉 सकारात्मक रहे।। सकारात्मक जिए!

 

एक दिन एक किसान का बैल कुएँ में गिर गया। वह बैल घंटों ज़ोर -ज़ोर से रोता रहा और किसान सुनता रहा और विचार करता रहा कि उसे क्या करना चाहिऐ और क्या नहीं।

 

अंततः उसने निर्णय लिया कि चूंकि बैल काफी बूढा हो चूका था अतः उसे बचाने से कोई लाभ होने वाला नहीं था और इसलिए उसे कुएँ में ही दफना देना चाहिऐ।।

 

किसान ने अपने सभी पड़ोसियों को मदद के लिए बुलाया सभी ने एक-एक फावड़ा पकड़ा और कुएँ में मिट्टी डालनी शुरू कर दी। जैसे ही बैल कि समझ में आया कि यह क्या हो रहा है वह और ज़ोर-ज़ोर से चीख़ चीख़ कर रोने लगा और फिर ,अचानक वह आश्चर्यजनक रुप से शांत हो गया।

 

सब लोग चुपचाप कुएँ में मिट्टी डालते रहे तभी किसान ने कुएँ में झाँका तो वह आश्चर्य से सन्न रह गया।। अपनी पीठ पर पड़ने वाले हर फावड़े की मिट्टी के साथ वह बैल एक आश्चर्यजनक हरकत कर रहा था वह हिल-हिल कर उस मिट्टी को नीचे गिरा देता था और फिर एक कदम बढ़ाकर उस पर चढ़ जाता था।

 

जैसे-जैसे किसान तथा उसके पड़ोसी उस पर फावड़ों से मिट्टी गिराते वैसे -वैसे वह हिल-हिल कर उस मिट्टी को गिरा देता और एक सीढी ऊपर चढ़ आता जल्दी ही सबको आश्चर्यचकित करते हुए वह बैल कुएँ के किनारे पर पहुंच गया और फिर कूदकर बाहर भाग गया । 

 

ध्यान रखे आपके जीवन में भी बहुत तरह से मिट्टी फेंकी जायेगी बहुत तरह की गंदगी आप पर गिरेगी जैसे कि, आपको आगे बढ़ने से रोकने के लिए कोई बेकार में ही आपकी आलोचना करेगा कोई आपकी सफलता से ईर्ष्या के कारण आपको बेकार में ही भला बुरा कहेगा कोई आपसे आगे निकलने के लिए ऐसे रास्ते अपनाता हुआ दिखेगा जो आपके आदर्शों के विरुद्ध होंगे।।।

 

ऐसे में आपको हतोत्साहित हो कर कुएँ में ही नहीं पड़े रहना है बल्कि साहस के साथ हर तरह की गंदगी को गिरा देना है और उससे सीख ले कर उसे सीढ़ी बनाकर बिना अपने आदर्शों का त्याग किये अपने कदमों को आगे बढ़ाते जाना है।

 

👉 परमात्मा ने जो दिया है

 

एक बहुत अरबपति महिला ने एक गरीब चित्रकार से अपना चित्र बनवाया, पोट्रट बनवाया। चित्र बन गया, तो वह अमीर महिला अपना चित्र लेने आयी। वह बहुत खुश थी। चित्रकार से उसने कहा, कि क्या उसका पुरस्कार दूं?

 

चित्रकार गरीब आदमी था। गरीब आदमी वासना भी करे तो कितनी बड़ी करे, मांगे भी तो कितना मांगे? हमारी मांग, सब गरीब आदमी की मांग है परमात्मा से। हम जो मांग रहे हैं, वहक्षुद्र है। जिससे मांग रहे हैं, उससे यह बात मांगनी नहीं चाहिए।तो उसने सोचा मन में कि सौ डालर मांगूं, दो सौ डालर मांगूं, पांच सौ डालर मांगूं। फिर उसकी हिम्मत डिगने लगी। इतना देगी, नहीं देगी! फिर उसने सोचा कि बेहतर यह हो कि इसी पर छोड़ दूं, शायद ज्यादा दे। डर तो लगा मन में कि इस पर छोड़ दूं, पता नहीं दे या न दे, या कहीं कम दे और एक दफा छोड़ दिया तो फिर! तो उसने फिर भी हिम्मत की। उसने कहा कि आपकी जो मर्जी। तो उसके हाथ में जो उसका बैग था, पर्स था, उसने कहा, तो अच्छा तो यह पर्स तुम रख लो। यह बडा कीमती पर्स है।

 

पर्स तो कीमती था, लेकिन चित्रकार की छाती बैठ गयी कि पर्स को रखकर करूंगा भी क्या? माना कि कीमती है और सुंदर है, पर इससे कुछ आता-जाता नहीं। इससे तो बेहतर था कुछ सौ डालर ही मांग लेते। तो उसने कहा, नहीं-नहीं, मैं पर्स का क्या करूंगा, आप कोई सौ डालर दे दें। उस महिला ने कहा, तुम्हारी मर्जी। उसने पर्स खोला, उसमें एक लाख डालर थे, उसने सौ डालर निकाल कर चित्रकार को दे दिये और पर्स लेकर वह चली गयी। सुना है कि चित्रकार अब तक छातीपीट रहा है और रो रहा है–मर गये, मारे गये, अपने से ही मारे गये!

 

आदमी करीब-करीब इस हालत में है। परमात्मा ने जो दिया है, वह बंद है, छिपा है। और हम मांगे जा रहे हैं–दो-दो पैसे, दो-दो कौड़ी की बात। और वह जीवन की जो संपदा उसने हमें दी है, उस पर्स को हमने खोल कर भी नहीं देखा है। जो मिला है, वह जो आप मांग सकते हैं, उससे अनंत गुना ज्यादा है। लेकिन मांग से फुरसत हो, तो दिखायी पड़े, वह जो मिला है।

 

👉 *** जिंदगी की कहानी ***

 

टॉल्सटॉय की प्रसिद्ध कहानी है कि एक आदमी के घर एक संन्यासी मेहमान हुआ – एक परिव्राजक। रात गपशप होने लगी; उस परिव्राजक ने कहा कि तुम यहाँ क्या छोटी-मोटी खेती में लगे हो। साइबेरिया में मैं यात्रा पर था तो वहाँ जमीन इतनी सस्ती है मुफ्त ही मिलती है। तुम यह जमीन छोड़-छाड़कर, बेच-बाचकर साइबेरिया चले जाओ। वहाँ हजारों एकड़ जमीन मिल जाएगी इतनी जमीन में। वहाँ करो फसलें और बड़ी उपयोगी जमीन है और लोग वहाँ के इतने सीधे-सादे हैं कि करीब-करीब मुफ्त ही जमीन दे देते हैं।

उस आदमी को वासना जगी। उसने दूसरे दिन ही सब बेच-बाचकर साइबेरिया की राह पकड़ी। जब पहुँचा तो उसे बात सच्ची मालूम पड़ी। उसने पूछा कि मैं जमीन खरीदना चाहता हूँ। तो उन्होंने कहा, जमीन खरीदने का तुम जितना पैसा लाए हो, रख दो; और जीवन का हमारे पास यही उपाय है बेचने का कि कल सुबह सूरज के ऊगते तुम निकल पड़ना और साँझ सूरज के डूबते तक जितनी जमीन तुम घेर सको घेर लेना।

 

बस चलते जाना… जितनी जमीन तुम घेर लो। साँझ सूरज के डूबते-डूबते उसी जगह पर लौट आना जहाँ से चले थे- बस यही शर्त है। जितनी जमीन तुम चल लोगे, उतनी जमीन तुम्हारी हो जाएगी।

 

रात-भर तो सो न सका वह आदमी। तुम भी होते तो न सो सकते; ऐसे क्षणों में कोई सोता है ? रातभर योजनाएँ बनाता रहा कि कितनी जमीन घेर लूँ। सुबह ही भागा। गाँव इकट्ठा हो गया था। सुबह का सूरज ऊगा, वह भागा। उसने साथ अपनी रोटी भी ले ली थी, पानी का भी इंतजाम कर लिया था। रास्ते में भूख लगे, प्यास लगे तो सोचा था चलते ही चलते खाना भी खा लूँगा, पानी भी पी लूँगा। रुकना नहीं है; चलना क्या है; दौड़ना है। दौड़ना शुरू किया, क्योंकि चलने से तो आधी ही जमीन कर पाऊँगा, दौड़ने से दुगनी हो सकेगी – भागा …भागा।

 

सोचा था कि ठीक बारह बजे लौट पड़ूँगा; ताकि सूरज डूबते – डूबते पहुँच जाऊँ। बारह बज गए, मीलों चल चुका है, मगर वासना का कोई अंत है? उसने सोचा कि बारह तो बज गए, लौटना चाहिए; लेकिन सामने और उपजाऊ जमीन, और उपजाऊ जमीन…थोड़ी सी और घेर लूँ। जरा तेजी से दौड़ना पड़ेगा लौटते समय – इतनी ही बात है, एक ही दिन की तो बात है, और जरा तेजी से दौड़ लूँगा।

 

उसने पानी भी न पीया; क्योंकि रुकना पड़ेगा उतनी देर – एक दिन की ही तो बात है, फिर कल पी लेंगे पानी, फिर जीवन भर पीते रहेंगे। उस दिन उसने खाना भी न खाया। रास्ते में उसने खाना भी फेंक दिया, पानी भी फेंक दिया, क्योंकि उनका वजन भी ढोना पड़ा रहा है, इसलिए दौड़ ठीक से नहीं पा रहा है। उसने अपना कोट भी उतार दिया, अपनी टोपी भी उतार दी, जितना निर्भार हो सकता था हो गया।

 

एक बज गया, लेकिन लौटने का मन नहीं होता, क्योंकि आगे और-और सुंदर भूमि आती चली जाती है। मगर फिर लौटना ही पड़ा; दो बजे तक वो लौटा। अब घबड़ाया। सारी ताकत लगाई; लेकिन ताकत तो चुकने के करीब आ गई थी। सुबह से दौड़ रहा था, हाँफ रहा था, घबरा रहा था कि पहुँच पाऊँगा सूरज डूबते तक कि नहीं। सारी ताकत लगा दी। पागल होकर दौड़ा। सब दाँव पर लगा दिया। और सूरज डूबने लगा…। ज्यादा दूरी भी नहीं रह गई है; लोग दिखाई पड़ने लगे। गाँव के लोग खड़े हैं और आवाज दे रहे हैं कि आ जाओ, आ जाओ! उत्साह दे रहे हैं, भागे आओ! अजीब सीधे-सादे लोग हैं – सोचने लगा मन में; इनको तो सोचना चाहिए कि मैं मर ही जाऊँ, तो इनको धन भी मिल जाए और जमीन भी न जाए। मगर वे बड़ा उत्साह दे रहे हैं कि भागे आओ!

 

उसने आखिरी दम लगा दी – भागा – भागा…। सूरज डूबने लगा; इधर सूरज डूब रहा है, उधर वो भाग रहा है…। सूरज डूबते – डूबते बस जाकर गिर पड़ा। कुछ पाँच – सात गज की दूरी रह गई है, घिसटने लगा।

 

अभी सूरज की आखिरी कोर क्षितिज पर रह गई। घिसटने लगा। और जब उसका हाथ उस जमीन के टुकड़े पर पहुँचा, जहाँ से भागा था, उस खूँटी पर, सूरज डूब गया। वहाँ सूरज डूबा, यहाँ यह आदमी भी मर गया। इतनी मेहनत कर ली! शायद हृदय कर दौरा पड़ गया। और सारे गाँव के सीधे – सादे लोग जिनको वह समझाता था, हँसने लगे और एक – दूसरे से बात करने लगे!

 

ये पागल आदमी आते ही जाते हैं! इस तरह के पागल लोग आते ही रहते हैं! यह कोई नई घटना न थी; अक्सर लोग आ जाते थे खबरें सुनकर, और इसी तरह मरते थे। यह कोई अपवाद नहीं था; यही नियम था। अब तक ऐसा एक भी आदमी नहीं आया था, जो घेरकर जमीन का मालिक बन पाया हो।

 

यह कहानी तुम्हारी कहानी है, तुम्हारी जिंदगी की कहानी है, सबकी जिंदगी की कहानी है। यही तो तुम कर रहे हो – दौड़ रहे हो कि कितनी जमीन घेर लें! बारह भी बज जाते हैं, दोपहर भी आ जाती है, लौटने का भी समय होने लगता है – मगर थोड़ा और दौड़ लें! न भूख की फिक्र है, न प्यास की फिक्र है।

 

जीने का समय कहाँ है; पहले जमीन घेर लें, पहले जितोड़ी भर लें, पहले बैंक में रुपया इकट्ठा हो जाए, फिर जी लेंगे, फिर बाद में जी लेंगे, एक ही दिन का तो मामला है। और कभी कोई नहीं जी पाता। गरीब मर जाते हैं भूखे; अमीर मर जाते हैं भूखे, कभी कोई नहीं जी पाता। जीने के लिए थोड़ी विश्रांति चाहिए। जीने के लिए थोड़ी समझ चाहिए। जीवन मुफ्त नहीं मिलता।

 

👉 अच्छे कर्म करते रहिए

 

एक राजा की आदत थी, कि वह भेस बदलकर लोगों की खैर-ख़बर लिया करता था, एक दिन अपने वज़ीर के साथ गुज़रते हुए शहर के किनारे पर पहुंचा तो देखा एक आदमी गिरा पड़ा हैl

 

राजा ने उसको हिलाकर देखा तो वह मर चुका था! लोग उसके पास से गुज़र रहे थे, राजा ने लोगों को आवाज़ दी लेकिन लोग राजा को पहचान ना सके और पूछा क्या बात है? राजा ने कहा इस को किसी ने क्यों नहीं उठाया? लोगों ने कहा यह बहुत बुरा और गुनाहगार इंसान है

 

राजा ने कहा क्या ये "इंसान" नहीं है? और उस आदमी की लाश उठाकर उसके घर पहुंचा दी, उसकी बीवी पति की लाश देखकर रोने लगी, और कहने लगी "मैं गवाही देती हूं मेरा पति बहुत नेक इंसान है" इस बात पर राजा को बड़ा ताज्जुब हुआ कहने लगा "यह कैसे हो सकता है? लोग तो इसकी बुराई कर रहे थे और तो और इसकी लाश को हाथ लगाने को भी तैयार ना थे?"

 

उसकी बीवी ने कहा "मुझे भी लोगों से यही उम्मीद थी, दरअसल हकीकत यह है कि मेरा पति हर रोज शहर के शराबखाने में जाता शराब खरीदता और घर लाकर नालियों में डाल देता और कहता कि चलो कुछ तो गुनाहों का बोझ इंसानों से हल्का हुआ, उसी रात इसी तरह एक बुरी औरत यानी वेश्या के पास जाता और उसको एक रात की पूरी कीमत देता और कहता कि अपना दरवाजा बंद कर ले, कोई तेरे पास ना आए घर आकर कहता भगवान का शुक्र है,आज उस औरत और नौजवानों के गुनाहों का मैंने कुछ बोझ हल्का कर दिया, लोग उसको उन जगहों पर जाता देखते थे।

 

मैं अपने पति से कहती "याद रखो जिस दिन तुम मर गए लोग तुम्हें नहलाने तक नहीं आएंगे,ना ही कोई तुम्हारा क्रियाकर्म करेंगा ना ही तुम्हारी चिता को कंधा देंगे वह हंसते और मुझसे कहते कि घबराओ नहीं तुम देखोगी कि मेरी चिता खुद राजा और भगवान के नेक बंदे उठायेंगे।।

 

यह सुनकर बादशाह रो पड़ा और कहने लगा मैं राजा हूं, अब इसका क्रियाकर्म में ही करूँगा ओर इसको कंधा भी में ही दूंगा

 

हमेशा याद रखिये अपना किया कर्म कभी खाली नही जाता

 

इसलिए अच्छे कर्म करते रहिए

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