ज्ञानवर्धक
कथाएं भाग -32
👉 अच्छा लड़ाका क्रोध नहीं करता
वर्ष की अंतिम प्रतियोगिता होने
वाली थी मुर्गों की लड़ाई की, एक सम्राट भी अपने मुर्गे को लड़ाई में
भेजना चाहता था। तो उसने एक बहुत बड़े झेन फकीर को बुलाया। क्योंकि उस झेन फकीर की
बड़ी प्रसिद्धि थी कि उसे युद्ध में कोई हरा नहीं सकता। हराना तो दूर, उसके पास आकर लोग हारने को उत्सुक हो जाते थे। उसके पास हार कर प्रसन्न
होकर लौटते थे। उसके साथ हार जाना बड़ी महिमा की बात थी। तो सम्राट ने सोचा कि यह
फकीर अगर मुर्गे को तैयार कर दे।
फकीर को बुलाया। मुर्गा फकीर ले
गया। तीन सप्ताह बाद सम्राट ने खबर भेजी, मुर्गा तैयार है? फकीर ने कहा, अभी नहीं। अभी तो दूसरे मुर्गे को देख
कर वह सिर खड़ा करके आवाज देता है। सम्राट थोड़ा हैरान हुआ कि यह तो ठीक ही लक्षण
है। क्योंकि लड़ना है तो सिर खड़ा करके आवाज न दोगे तो दूसरे मुर्गे को डराओगे कैसे?
खैर, कुछ देर और
प्रतीक्षा की। फिर तीन सप्ताह बाद पुछवाया। फकीर ने कहा, अभी
भी नहीं। अब पुरानी आदत तो जा चुकी है, लेकिन दूसरा मुर्गा
आता है तो तन जाता है, तनाव भर जाता है। और तीन सप्ताह बीत
गए। फिर पुछवाया। फकीर ने कहा कि अब थोड़ा-थोड़ा तैयार हो रहा है, लेकिन अभी थोड़ी देर है। अब दूसरा मुर्गा कमरे के भीतर आए तो खड़ा तो रहता
है, लेकिन भीतर व्यथित हो जाता है, भीतर
एक तनाव की रेखा खिंच जाती है। और तीन सप्ताह बाद फकीर ने कहा, अब मुर्गा बिलकुल तैयार है। अब वह ऐसे खड़ा रहता है जैसे न कोई आया,
न कोई गया। और अब कोई फिक्र नहीं है। पर सम्राट ने कहा कि यह मुर्गा
जीतेगा कैसे? उस फकीर ने कहा, तुम
फिक्र ही मत करो; अब हारने की कोई संभावना ही न रही। दूसरे
मुर्गे इसे देखते ही भाग खड़े होंगे। इसको लड़ना नहीं पड़ेगा। इसकी मौजूदगी काफी है।
और यही हुआ। जब प्रतियोगिता में
मुर्गा खड़ा किया गया। तो दूसरे मुर्गों ने सिर्फ झांक कर उस मुर्गे को देखा; न
तो उसने आवाज दी, क्योंकि वह कमजोरी का लक्षण है, वह भय का लक्षण है। भय को छिपाने के लिए वह जोर से कुकडूं कूं बोलता है।
वह डरवाना चाहता है आवाज से, लेकिन खुद डरा हुआ है। न तो उस
मुर्गे ने आवाज दी, न उस मुर्गे ने देखा। जैसे कुत्ते भौंकते
रहते हैं और हाथी गुजर जाता है। ऐसे वह मुर्गा खड़ा ही रहा, जैसे
पत्थर की मूर्ति हो। दूसरे मुर्गों ने देखा, उनको कंपकंपी
छूट गई। क्योंकि यह तो बड़ा, यह तो मुर्गे जैसा मुर्गा ही
नहीं है! इसके पास जाना तो खतरे से खाली नहीं है। वे भाग खड़े हुए। प्रतियोगिता में
दूसरे मुर्गे उतर ही न सके।
लाओत्से कहता है, "अच्छा लड़ाका क्रोध नहीं करता।' यह लक्षण है योद्धा
का कि वह क्रोध न करे, कि वह उत्तप्त न हो जाए, कि उसका मन ज्वरग्रस्त न हो, कि वह ऐसा शांत बना रहे
जैसे बुद्धत्व को उपलब्ध हो गया हो।
👉 कौन सा रास्ता सही
एक गरीब युवक, अपनी
गरीबी से परेशान होकर, अपना जीवन समाप्त करने नदी पर गया,
वहां एक साधू ने उसे ऐसा करने से रोक दिया। साधू ने, युवक की परेशानी को सुन कर कहा, कि मेरे पास एक
विद्या है, जिससे ऐसा जादुई घड़ा बन जायेगा जो भी इस घड़े से
मांगोगे, ये जादुई घड़ा पूरी कर देगा, पर
जिस दिन ये घड़ा फूट गया, उसी समय, जो
कुछ भी इस घड़े ने दिया है, वह सब गायब हो जायेगा।
अगर तुम मेरी 2 साल तक सेवा करो, तो
ये घड़ा, मैं तुम्हे दे सकता हूँ और, अगर
5 साल तक तुम मेरी सेवा करो, तो मैं, ये
घड़ा बनाने की विद्या तुम्हे सिखा दूंगा। बोलो तुम क्या चाहते हो, युवक ने कहा, महाराज मैं तो 2 साल ही आप की सेवा करना चाहूँगा , मुझे
तो जल्द से जल्द, बस ये घड़ा ही चाहिए, मैं
इसे बहुत संभाल कर रखूँगा, कभी फूटने ही नहीं दूंगा।
इस तरह 2 साल सेवा करने के बाद, युवक
ने वो जादुई घड़ा प्राप्त कर लिया, और अपने घर पहुँच गया।
उसने घड़े से अपनी हर इच्छा पूरी
करवानी शुरू कर दी, महल बनवाया, नौकर चाकर
मांगे, सभी को अपनी शान शौकत दिखाने लगा, सभी को बुला-बुला कर दावतें देने
लगा और बहुत ही विलासिता का जीवन जीने लगा, उसने शराब
भी पीनी शुरू कर दी और एक दिन नशें में, घड़ा सर पर रख नाचने
लगा और ठोकर लगने से घड़ा गिर गया और फूट गया।
घड़ा फूटते ही सभी कुछ गायब हो गया, अब
युवक सोचने लगा कि काश मैंने जल्दबाजी न की होती और घड़ा बनाने की विद्या सीख ली
होती, तो आज मैं, फिर से कंगाल न होता।
"ईश्वर हमें हमेशा 2 रास्ते पर
रखता है एक आसान -जल्दी वाला और दूसरा थोडा लम्बे समय वाला, पर
गहरे ज्ञान वाला, ये हमें चुनना होता है की हम किस रास्ते पर
चलें"
"कोई भी काम जल्दी में करना
अच्छा नहीं होता, बल्कि उसके विषय में गहरा ज्ञान आपको अनुभवी
बनाता है।"
👉 अनलहंक, अहं ब्रह्मास्मि!
अलहिल्लज मंसूर एक प्रसिद्ध सूफी
हुआ,
जिसका अंग-अंग काट दिया मुसलमानों ने, क्योंकि
वह ऐसी बातें कह रहा था जो कुरान के खिलाफ पड़ती थीं। धर्म के खिलाफ नहीं। मगर
किताबें बड़ी छोटी हैं, उनमें धर्म समाता नहीं। अलहिल्लज
मंसूर की एक ही आवाज थी--- अनलहंक, अहं ब्रह्मास्मि! और यह
मुसलमानों के लिए बरदाश्त के बाहर था कि कोई अपने को ईश्वर कहे। उन्होंने उसे जिस
तरह सताकर मारा है, उस तरह दुनिया में कोई आदमी कभी नहीं
मारा गया। उस दिन दो धटनाएं घटी। मंसूर का गुरू जुन्नैद, सिर्फ
गुरू ही रहा होगा। गुरू जो कि दर्जनों में खरीदे जा सकते हैं, हर जगह मौजूद हैं, गांव-गांव में मौजूद हैं। कुछ भी
कान में फूंक देते हैं और गुरू बन जाते हैं।
जुन्नैद उसको कह रहा था कि देख, भला
तेरा अनुभव सच हो कि तू ईश्वर है, मगर कह मत। अलहिल्लज कहता
कि यह मेरे बस के बाहर है। क्योंकि जब मैं मस्ती मे छाता हूं और जब मौज की घटनाएँ
मुझे घेर लेती है, तब न तुम मुझे याद रहते हो न मुसलमान याद
रहते हैं, न दुनिया याद रहती हैं, न
जीवन न मौत। तब मैं अनलहक का उदघोष करता हूं ऐसा नहीं है। उदघोष हो जाता है। मेरी
सांस-सांस में वह अनुभव व्याप्त है।
अंततः वह पकड़ा गया। जिस दिन वह
पकड़ा गया, वह अपनी ही परिक्रमा कर रहा था। लोगों ने पूछा, यह तुम क्या कर रहे हो? ये दिन तो काबा जाने के दिन
हैं। और जाकर काबा के पवित्र पत्थर के चक्कर लगाने के दिन हैं। तुम खड़े होकर खुद
ही अपने चक्कर दे रहे हो? मंसूर ने कहा, कोई पत्थर अहं ब्रह्मास्मि का अनुभव नहीं कर सकता, जो
मैं अनुभव करता हूं। अपना चक्कर दे लिया, हज हो गईं। बिना
कहीं गए, घर बैठे अपने ही आंगन में ईश्वर को बुला लिया। ऐसी
सच्ची बातें कहने वाले आदमी को हमेशा मुसीबत में पड़ जाना है। उसे सुली पर लटकाया
गया, पत्थर फेंके गए, वह हंसता रहा।
जुन्नैद भी भीड़ में खड़ा था। जुन्नैद डर रहा था कि अगर उसने कुछ भी न फेंका तो भीड़
समझेगी कि वह मंसूर के खिलाफ नहीं है। तो वह एक फूल छिपा लाया था। पत्थर तो वह मार
नहीं सकता था। वह जानता था कि मंसूर जो भी कह रहा है, उसकी
अंतर-अनुभूति है। हम नहीं समझ पा रहे हैं; यह हमारी भूल है।
उसने फूल फेंककर मारा।
उस भीड़ मे जहां पत्थर पड़ रहे थे।।।जब
तक पत्थर पड़ते रहे, मंसूर हंसता रहा। और जैसे ही फूल उसे लगा,
उसकी आंखों से आंसू टपकने लगे! किसी ने पूछा कि क्यों पत्थर तुम्हें
हंसते हैं, फूल तुम्हें रूलाते हैं? मंसूर
ने कहा, पत्थर जिन्होंने मारे थे वे अनजान थे। फूल जिसने
मारा है, उसे वहम है कि वह जानता है। उस पर मुझे दया आती है।
मेरे पास उसके लिए देने को आंसूओं के सिवाय और कुछ भी नहीं है। और जब उसके पैर
काटे गए और हाथ काटे गए, तब उसने आकाश की ओर देखा और जोर से
खिलखिलाकर हंसा। लहूलुहान शरीर, लाखों की भीड़। लोगों ने पूछा,
तुम क्यों हंस रहे हो? तो उसने कहा, मै ईश्वर को कह रहा हूं कि क्या खेल दिखा रहे हो! जो नहीं मर सकता उसे
मारना का इतना आयोजन।।।। नाहक इतने लोगों का समय खराब कर रहे हो। और इसलिए हंस रहा
हूं कि तुम जिसे मार रहे हो, वह मैं नहीं हूं। और जो मैं हूं,
उसे तुम छू भी नहीं सकते। तुम्हारी तलवारें उसे नहीं काट सकती। और
तुम्हारी आगे उसे नहीं जला सकती। एक बार अपने जीवन की धारा से थोड़ा सा परिचय हो
जाए, मौत का भय मिट जाता है।
👉 मन के पार जाना
मन के पार जाना, उन्मन
होना। जिसको झेन सन्त नो माइंड कहते हैं।
एक ऐसी दशा अपने भीतर खोज लेनी है
जहां कुछ भी स्पर्श नहीं करता। और वैसी दशा भीतर छिपी पड़ी है। वही है आत्मा। और जब
तक उसे न जाना तब तक उस एक को नहीं जाना, जिसे जानने से सब जान लिया
जाता है। उस एक को जानने से फिर द्वंद्व मिट जाता है। फिर दो के बीच चुनाव नहीं रह
जाता, अचुनाव पैदा होता है। उस अचुनाव में ही आनंद है,
सच्चिदानंद है।
जनक के जीवन में एक उल्लेख है।
जनक रहते तो राजमहल में थे, बड़े
ठाठ— बाट से। सम्राट थे और साक्षी भी। अनूठा जोड़ था। सोने में सुगंध थी। भगवान
बुद्ध साक्षी हैं यह कोई बड़ी महत्वपूर्ण बात नहीं। भगवान महावीर साक्षी हैं यह कोई
बड़ी महत्वपूर्ण बात नहीं, सरल बात है। सब छोड़ कर साक्षी हैं।
जनक का साक्षी होना बड़ा महत्वपूर्ण है। सब है और साक्षी हैं।
एक गुरु ने अपने शिष्य को कहा कि तू
वर्षों से सिर धुन रहा है और तुझे कुछ समझ नहीं आती। अब तू मेरे बस के बाहर है। तू
जा, जनक के पास चला जा। उसने कहा कि आप जैसे महाज्ञानी के पास कुछ न हुआ तो यह
जनक जैसे अज्ञानी के पास क्या होगा? जो अभी महलों में रहता,
नृत्य देखता है। आप मुझे कहां भेजते हैं? लेकिन
गुरु ने कहा, तू जा।
गया शिष्य। बेमन से गया। न जाना था
तो भी गया, क्योंकि गुरु की आज्ञा थी तो आज्ञानवश गया। था तो पक्का
कि वहां क्या मिलेगा। मन में तो उसके निंदा थी। मन में तो वह सोचता था, उससे ज्यादा तो मैं ही जानता हूं।
जब वह पहुंचा तो संयोग की बात, जनक
बैठे थे, नृत्य हो रहा था। वह तो बड़ा ही नाराज हो गया। उसने
जनक को कहा, महाराज, मेरे गुरु ने भेजा
है इसलिए आ गया हूं। भूल हो गई है। क्यों उन्होंने भेजा है, किस
पाप का मुझे दंड दिया है यह भी मैं नहीं जानता। लेकिन अब आ गया हूं तो आपसे यह
पूछना है कि यह अफवाह आपने किस भांति उड़ा दी है कि आप ज्ञान को उपलब्ध हो गए हैं?
यह क्या हो रहा है यहां? यह
राग—रंग चल रहा है। इतना बड़ा साम्राज्य, यह महल, यह धन—दौलत, यह सारी व्यवस्था, इस सबके बीच में आप बैठे हैं तो ज्ञान को उपलब्ध कैसे हो सकते हैं?
त्यागी ही ज्ञान को उपलब्ध होते हैं।
सम्राट जनक ने कहा, तुम
जरा बेवक्त आ गए। यह कोई सत्संग का समय नहीं है। तुम एक काम करो, मैं अभी उलझा हूं। तुम यह दीया ले लो। पास में रखे एक दीये को दे दिया और
कहा कि तुम पूरे महल का चक्कर लगा आओ। एक—एक कमरे में हो आना। मगर एक बात खयाल
रखना, इस महल की एक खूबी है; अगर दीया
बुझ गया तो फिर लौट न सकोगे, भटक जाओगे।
बड़ा विशाल महल था। दीया न बुझे इसका
खयाल रखना। सब महल को देख आओ। तुम जब तक लौटोगे तब तक मैं फुरसत में हो जाऊंगा, फिर
सत्संग के लिए बैठेंगे। वह गया युवक उस दीये को लेकर। उसकी जान बड़ी मुसीबत में
फंसी। महलों में कभी आया भी नहीं था। वैसे ही यह महल बड़ा तिलिस्मी, इसकी खबरें उसने सुनी थीं कि इसमें लोग खो जाते हैं, और एक झंझट। और यह दीया अगर बुझ जाए तो जान पर आ बने। ऐसे ही संसार में
भटके हैं, और संसार के भीतर यह और एक झंझट खड़ी हो गई। अभी
संसार से ही नहीं छूटे थे और एक और मुसीबत आ गई।
लेकिन अब महाराजा जनक ने कहा है और
गुरु ने भेजा है तो वह दीये को लेकर गया बड़ा डरता—डरता। महल बड़ा सुंदर था; अति
सुंदर था। महल में सुंदर चित्र थे, सुंदर मूर्तियां थीं,
सुंदर कालीन थे, लेकिन उसे कुछ दिखाई न पड़ता।
वह तो इसे ही देख रहा है कि दीया न
बुझ जाए। वह दीये को सम्हाले हुए है। और सारे महल का चक्कर लगा कर जब आया तब
निश्चित हुआ। दीया रख कर उसने कहा कि महाराज, बचे। जान बची तो लाखों पाए,लौट कर घर को आए। यह तो जान पर ऐसी मुसीबत हो गई, हम
सन्यासी आदमी और यह महल जरूर उपद्रव है, मगर दीये ने बचाया।
सम्राट ने कहा, छोड़ो
दीये की बात; तुम यह बताओ, कैसा लगा?
उसने कहा, किसको फुरसत थी देखने की? जान फंसी थी। जान पर आ गई थी। दीया देखें कि महल देखें? कुछ देखा नहीं।
सम्राट ने कहा, ऐसा
करो, अब आ गए हो तो रात रुक जाओ। सुबह सत्संग कर लेंगे। तुम
भी थके हो और यह महल का चक्कर भी थका दिया है। और मैं भी थक गया हूं। बड़े सुंदर
भवन में बड़ी बहुमूल्य शय्या पर उसे सुलाया। और जाते वक्त सम्राट कह गया कि ऊपर जरा
खयाल रखना। ऊपर एक तलवार लटकी है। और पतले धागे में बंधी है—शायद कच्चे धागे में
बंधी हो। जरा इसका खयाल रखना कि यह कहीं गिर न जाए। और इस तलवार की यह खूबी है कि
तुम्हारी नींद लगी कि यह गिरी।
उसने कहा, क्यों
फंसा रहे हैं मुझको झंझट में? दिन भर का थका—मादा जंगल से चल
कर आया, यह महल का उपद्रव और अब यह तलवार! सम्राट ने कहा,
यह हमारी यहां की व्यवस्था है। मेहमान आता है तो उसका सब तरह का
स्वागत करना।
रात भर वह पड़ा रहा और तलवार देखता
रहा। एक क्षण को पलक झपकने तक में घबडाए कि कहीं तलवार भ्रांति से भी समझ ले कि सो
गया और टपक पड़े तो जान गई। सुबह जब सम्राट ने पूछा तो वह तो आधा हो गया था सूखकर, कि
कैसी रही रात? बिस्तर ठीक था?
उसने कहा, कहा
की बातें कर रहे हैं! कैसा बिस्तर? हम तो अपने झोपड़े में
जहां जंगल में पड़े रहते थे वहीं सुखद था। ये तो बड़ी झंझटों की बातें हैं। रात एक
दीया पकड़ा दिया कि अगर बुझ जाए तो खो जाओ। अब यह तलवार लटका दी। रात भर सो भी न
सके, क्योंकि अगर यह झपकी आ जाए।। ।उठ—उठ कर बैठ जाता था रात
में। क्योंकि जरा ही डर लगे कि झपकी आ रही है कि तलवार टूट जाए। कच्चे धागे में
लटकी है।
गरीब आदमी हूं कहां मुझे फंसा दिया!
मुझे बाहर निकल जाने दो। मुझे कोई सत्संग नहीं करना। सम्राट ने कहा, अब
तुम आ ही गए हो तो भोजन तो करके जाओ। सत्संग भोजन के बाद होगा। लेकिन एक बात
तुम्हें और बता दूं कि तुम्हारे गुरु का संदेश आया है कि अगर सत्संग में तुम्हें
सत्य का बोध न हो सके तो जान से हाथ धो बैठोगे। शाम को सूली लगवा देंगे। सत्संग
में बोध होना ही चाहिए।
उसने कहा, यह
क्या मामला है? अब सत्संग में बोध होना ही चाहिए यह भी कोई
मजबूरी है? हो गया तो हो गया, नहीं हुआ
तो नहीं हुआ। यह मामला।।।। सम्राट जनक ने कहा तुम्हें राजाओं—महाराजाओं का हिसाब
नहीं मालूम। तुम्हारे गुरु की आज्ञा है। हो गया बोध तो ठीक, नहीं
हुआ बोध तो शाम को सूली लग जाएगी। अब वह भोजन करने बैठा। बड़ा सुस्वादु भोजन है,
सब है, मगर कहां स्वाद? अब
यह घबड़ाहट कि तीस साल गुरु के पास रहे तब बोध नहीं हुआ, इसके
पास एक सत्संग में बोध होगा कैसे?
किसी तरह भोजन कर लिया। सम्राट ने
पूछा,
स्वाद कैसा— भोजन ठीक—ठाक? उसने कहा, आप छोड़ो। किसी तरह यहां से बच कर निकल जाएं, बस इतनी
ही प्रार्थना है। अब सत्संग हमें करना ही नहीं है।
सम्राट ने कहा, बस
इतना ही सत्संग है कि जैसे रात तुम दीया लेकर घूमे और बुझने का डर था, तो महल का सुख न भोग पाए, ऐसा ही मैं जानता हूं कि
यह दीया तो बुझेगा, यह जीवन का दीया बुझेगा यह बुझने ही वाला
है।
रात दीये के बुझने से तुम भटक जाते।
और यह जीवन का दीया तो बुझने ही वाला है। और फिर मौत के अंधकार में भटकन हो जाएगी।
इसके पहले कि दीया बुझे, जीवन को समझ लेना जरूरी है। मैं हूं महल में,
महल मुझमें नहीं है।
रात देखा, तलवार
लटकी थी तो तुम सो न पाए। और तलवार प्रतिपल लटकी है। तुम पर ही लटकी नहीं, हरेक पर लटकी है। मौत हरेक पर लटकी है। और किस भी दिन, कच्चा धागा है, किसी भी क्षण टूट सकता है। और मौत
कभी भी घट सकती है। जहां मौत इतनी सुगमता से घट सकती है वहां कौन उलझेगा राग—रंग
में न: बैठता हूं राग—रंग में; उलझता नहीं हूं।
अब तुमने इतना सुंदर भोजन किया
लेकिन तुम्हें स्वाद भी न आया। ऐसा ही मुझे भी। यह सब चल रहा है, लेकिन
इसका कुछ स्वाद नहीं है। मैं अपने भीतर जागा हूं। मैं अपने भीतर के दीये को
सम्हाले हूं। मैं मौत की तलवार को लटकी देख रहा हूं। फांसी होने को है। यह जीवन का
पाठ अगर न सीखा, अगर इस सत्संग का लाभ न लिया तो मौत तो आने
को है।
मौत के पहले कुछ ऐसा पा लेना है
जिसे मौत न छीन सके। कुछ ऐसा पा लेना है जो अमृत हो। इसलिए यहां हूं सब, लेकिन
इससे कुछ भेद नहीं पड़ता।
यह जो सम्राट जनक ने कहा : महल में
हूं महल मुझमें नहीं है; संसार में हूं संसार मुझमें नहीं है,
यह ज्ञानी का परम लक्षण है। वह कर्म करते हुए भी किसी बात में लिप्त
नहीं होता। लिप्त न होने की प्रक्रिया है, साक्षी होना।
लिप्त न होने की प्रक्रिया है, निस्तर्षमानस:। मन के पार हो
जाना।
जैसे ही मन के पार हुए,एकरस
हुए। मन में अनेक रस हैं, मन के पार एकरस। क्योंकि मन अनेक
है इसलिए अनेक रस हैं। भीतर एक मन थोड़े ही है,जैसा सभी सोचते
हैं। भगवान महावीर ने कहा है, मनुष्य बहुचित्तवान है। एक
चित्त नहीं है मनुष्य के भीतर, बहुत चित्त हैं। क्षण— क्षण
बदल रहे हैं चित्त। सुबह कुछ, दोपहर कुछ, सांझ कुछ। चित्त तो बदलता ही रहता है। इतने चित्त हैं।
आधुनिक मनोविज्ञान कहता है, मनुष्य
पोलीसाइकिक है। वह ठीक भगवान महावीर का शब्द है। पोलीसाइकिक का अर्थ होता है,
बहुचित्तवान। बहुत चित्त हैं।
गुरजिएफ कहा करते थे, मनुष्य
भीड़ है, एक नहीं। सुबह बड़े प्रसन्न हैं, तब एक चित्त था। फिर जरा सी बात में खिन्न हो गए और दूसरा चित्त हो गया।
फिर कोई पत्र आ गया मित्र का, बड़े खुश हो गए। तीसरा चित्त हो
गया। पत्र खोला, मित्र ने कुछ ऐसी बात लिख दी, फिर खिन्न हो गए; फिर दूसरा चित्त हो गया।
चित्त चौबीस घंटे बदल रहा है। तो
चित्त के साथ एक रस तो कैसे उपलब्ध होगा? एक रस तो उसी के साथ हो
सकता है, जो एक है। और एक भीतर जो साक्षी है; उस एक को जान कर ही जीवन में एकरसता पैदा होती है। और एकरस आनंद का दूसरा
नाम है।
'सर्वदा आकाशवत निर्विकल्प
ज्ञानी को कहां संसार है, कहां आभास है, कहां साध्य है, कहां साधन है?' वह जो अपने भीतर आकाश की तरह साक्षीभाव में निर्विकल्प होकर बैठ गया है
उसके लिए फिर कोई संसार नहीं है।
संसार है मन और चेतना का जोड़। संसार
है साक्षी का मन के साथ तादात्म्य। जिसका मन के साथ तादात्म्य टूट गया उसके लिए
फिर कोई संसार नहीं। संसार है भ्रांति मन की; मन के महलों में भटक जाना।
वह दीया बुझ गया साक्षी का तो फिर मन के महल में भटक जाएंगे। दीया जलता रहे तो मन
के महल में न भटक पाएंगे।
इतनी सी बात है। बस इतनी सी ही बात
है सार की, समस्त शास्त्रों में। फिर कहां साध्य है, कहां साधन है। जिसको साक्षी मिल गया उसके लिए फिर कोई साध्य नहीं, कोई साधन नहीं। न उसे कुछ विधि साधनी है, न कोई योग,
जप—तप; न उसे कहीं जाना है, कोई मोक्ष, कोई स्वर्ग, कोई
परमात्मा;न ही उसे कहीं जाना, न ही उसे
कुछ करना। पहुंच गया।
साक्षी में पहुंच गए तो मुक्त हो
गए। साक्षी में पहुंच गए तो पा लिया फलों का फल। भीतर ही जाना है। अपने में ही आना
है।
👉 संगठन का महत्व : -
एक क्षेत्र में भयंकर दुर्भिक्ष
पड़ा। निर्धन परिवार ने कहीं सुविधा के अन्य क्षेत्र में जाने की तैयारी की आवश्यक
सामान साथ में बाँध लिया।
रात में एक पेड़ के नीचे विश्राम
किया। तीन लड़के थे। एक को आदेश मिला ईंधन ढूंढ़ कर लाओ। दूसरे को आग और तीसरे को
पानी लाने का आदेश मिला तीनों ही तुरन्त चल पड़े और अपनी जिम्मे की वस्तुएँ ले
आये। चूल्हा जलाया गया। पर प्रश्न था कि इसमें पकाया क्या जाय।
परिवार के स्वामी ने पेड़ की तरफ
इशारा किया कि चढ़ जाओ और जो कुछ मिले उसे लाओ।
तीनों लड़के पेड़ पर चढ़ गये। उस पर
एक देव रहता था। उसने समझा यह अनुशासित परिवार मिलजुल कर हर काम पूरे कर लेता है
तो मुझे पकड़ेंगे और चूल्हे में पकायेंगे। उसने डर कर पेड़ की जड़ में गढ़ा हुआ
अशर्फियों का एक घड़ा दे दिया और कहा मुझे मत पकड़ो। इस धन से अपना गुजारा करो।
दूसरे दिन परिवार अपने घर लौट आया
और प्राप्त धन के सहारे आनन्दपूर्वक अपना गुजारा करने लगा।
यह बात पड़ोस वालों ने भी सुन ली।
पड़ोसी ने भी यह तरकीब काम में लाने का प्रयत्न किया। वह भी अपने परिवार को लेकर
उसी पेड़ के नीचे आ बैठा। उसके भी तीन लड़के थे। तीनों को काम सौंपे तो वे जाने को
तैयार न हुए आपस में लड़ने झगड़ने लगे। चूल्हा जलाने की नौबत न आई।
परिवार का स्वामी पेड़ पर देव
पकड़ने चढ़ा। देवता ने कहा तुम लोगों में आपस में एकता तो है नहीं। मुझे पकड़ने
पकाने की व्यवस्था तो कर ही कैसे सकोगे। धन मिल गया तो उसके लिए ही लड़ मरोगे।
यह कहकर देव ने उस परिवार को भगा
दिया। वे निराश घर वापस लौट आये।
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