Ad Code

ज्ञानवर्धक कथाएं भाग -36

 

ज्ञानवर्धक कथाएं भाग -36

 

👉 संसार और स्वप्न

 

एक किसान था। उसके एक लड़का था। और कोई सन्तान न थी। वह लड़के को बड़ा प्यार करता था और खूब लाड़ से पालन पोषण करता। एक दिन वह खेत पर काम कर रहा था तो उसे लोगों ने खबर दी कि तुम्हारा लड़का बड़ा बीमार है। उसकी हालत बहुत खराब है। किसान घर पर पहुँचा तो देखा लड़का मर चुका है। घर में स्त्रियाँ रोने लगी, पड़ोसिनें भी उस होनहार लड़के के लिए रोती हुई आईं। किन्तु किसान न रोया न दुःखी हुआ। वह शान्त चित्त से उसके अन्तिम संस्कार की व्यवस्था करने लगा। स्त्री कहने लगी “कैसा पत्थर का कलेजा है आपका, एकमात्र बच्चा था वह मर जाने से भी आपका दिल नहीं दुखा? थोड़ी देर बाद में किसान ने स्त्री को बुलाकर कहा देखो रात को मैंने एक स्वप्न देखा था। उसमें मैं राजा बन गया। मेरे सात राजकुमार थे जो बड़े ही सुन्दर और वीर थे। प्रचुर धन सम्पत्ति थी। सुबह आँखें खुलते ही देखा तो सब नष्ट। अब तुम ही बताओ कि उन सात पुत्रों के लिए रोऊं या इसके लिए। यह कहते हुए अपनी स्त्री को भी समझाया।

 

ज्ञानियों के लिए जैसा स्वप्न है वैसा ही यह दृश्य जगत। यह भी स्वप्नवत है, यह जानकर ज्ञानी लोग इसके हानि लाभ से प्रभावित नहीं होते और अपनी सदा एक रस, सत्य नित्य रहने वाली आत्म स्थिति में स्थिर रहते हैं।

 

📖 अखण्ड ज्योति अप्रैल 1962 

 

👉 परदोष दर्शन भी एक बड़ा पाप है

 

गाँव के बीच शिव मन्दिर में एक संन्यासी रहा करते थे। मंदिर के ठीक सामने ही एक वेश्या का मकान था। वेश्या के यहाँ रात−दिन लोग आते−जाते रहते थे। यह देखकर संन्यासी मन ही मन कुड़−कुड़ाया करता। एक दिन वह अपने को नहीं रोक सका और उस वेश्या को बुला भेजा। उसके आते ही फटकारते हुए कहा—तुझे शर्म नहीं आती पापिन, दिन रात पाप करती रहती है। मरने पर तेरी क्या गति होगी?”

 

संन्यासी की बात सुनकर वेश्या को बड़ा दुःख हुआ। वह मन ही मन पश्चाताप करती भगवान से प्रार्थना करती अपने पाप कर्मों के लिए क्षमा याचना करती।

 

बेचारी कुछ जानती नहीं थी। बेबस उसे पेट के लिए वेश्यावृत्ति करनी पड़ती किन्तु दिन रात पश्चाताप और ईश्वर से क्षमा याचना करती रहती।

 

उस संन्यासी ने यह हिसाब लगाने के लिए कि उसके यहाँ कितने लोग आते हैं एक−एक पत्थर गिनकर रखने शुरू कर दिये। जब कोई आता एक पत्थर उठाकर रख देता। इस प्रकार पत्थरों का बड़ा भारी ढेर लग गया तो संन्यासी ने एक दिन फिर उस वेश्या को बुलाया और कहा “पापिन? देख तेरे पापों का ढेर? यमराज के यहाँ तेरी क्या गति होगी, अब तो पाप छोड़।”

 

पत्थरों का ढेर देखकर अब तो वेश्या काँप गई और भगवान से क्षमा माँगते हुए रोने लगी। अपनी मुक्ति के लिए उसने वह पाप कर्म छोड़ दिया। कुछ जानती नहीं थी न किसी तरह से कमा सकती थी। कुछ दिनों में भूखी रहते हुए कष्ट झेलते हुए वह मर गई।

 

उधर वह संन्यासी भी उसी समय मरा। यमदूत उस संन्यासी को लेने आये और वेश्या को विष्णु दूत। तब संन्यासी ने बिगड़कर कहा “तुम कैसे भूलते हो। जानते नहीं हो मुझे विष्णु दूत लेने आये हैं और इस पापिन को यमदूत। मैंने कितनी तपस्या की है भजन किया है, जानते नहीं हो।”

 

यमदूत बोले “हम भूलते नहीं, सही है। वह वेश्या पापिन नहीं है पापी तुम हो। उसने तो अपने पाप का बोध होते ही पश्चाताप करके सच्चे हृदय से भगवान से क्षमा याचना करके अपने पाप धो डाले। अब वह मुक्ति की अधिकारिणी है और तुमने सारा जीवन दूसरे के पापों का हिसाब लगाने की पाप वृत्ति में, पाप भावना में जप तप छोड़ छाड़ दिए और पापों का अर्जन किया। भगवान के यहाँ मनुष्य की भावना के अनुसार न्याय होता है। बाहरी बाने या दूसरों को उपदेश देने से नहीं। परनिन्दा,छिद्रान्वेषण, दूसरे के पापों को देखना उनका हिसाब करना, दोष दृष्टि रखना अपने मन को मलीन बनाना ही तो है। संसार में पाप बहुत है, पर पुण्य भी क्या कम हैं। हम अपनी भावनाऐं पाप, घृणा और निन्दा में डुबाये रखने की अपेक्षा सद्विचारों में ही क्यों न लगावें?

 

📖 अखण्ड ज्योति अप्रैल 1962 

 

👉 पाप का भागी कौन—पाप किसने किया

 

एक ब्राह्मण ने बगीचा लगाया। उसे बड़े मनोयोगपूर्वक सम्हालता, पेड़ लगाता, पानी देता। एक दिन गाय चरती हुई बाग में आ गई और लगाये हुए कुछ पेड़ चरने लगी। ब्राह्मण का ध्यान उस ओर गया तो उसे बड़ा क्रोध आया। उसने एक लठ्ठ लेकर उसे जोर से मारा। कोई चोट उस गाय पर इतने जोर से पड़ी कि वह वहीं मर गई। गाय को मरा जानकर ब्राह्मण बड़ा पछताया। कोई देख न ले इससे गाय को घसीट के पास ही बाग के बाहर डाल दिया। किन्तु पाप तो मनुष्य की आत्मा को कोंचता रहता है न। उसे सन्तोष नहीं हुआ और गौहत्या के पाप की चिन्ता ब्राह्मण पर सवार हो गई।

 

बचपन में कुछ संस्कृत ब्राह्मण ने पढ़ी थी। उसी समय एक श्लोक उसमें पढ़ा जिसका आशय था कि हाथ इन्द्र की शक्ति प्रेरणा से काम करते हैं, अमुक अंग अमुक देवता से। अब तो उसने सोचा कि हाथ सारे काम इन्द्र शक्ति से करता है तो इन हाथों ने गाय को मारा है इसलिए इन्द्र ही गौहत्या का पापी है मैं नहीं?

 

मनुष्य की बुद्धि की कैसी विचित्रता है जब मन जैसा चाहता है वैसे ही हाँककर बुद्धि से अपने अनुकूल विचार का निर्णय करा लेता है। अपने पाप कर्मों पर भी मिथ्या विचार करके अनुकूल निर्णय की चासनी चढ़ाकर कुछ समय के लिए कुनैन जैसे कडुए पाप से सन्तोष पा लेता है।

 

कुछ दिनों बाद गौहत्या का पाप आकर ब्राह्मण से बोला—मैं गौहत्या का पाप हूँ तुम्हारा विनाश करने आया हूँ।

 

ब्राह्मण ने कहा—गौहत्या मैंने नहीं की, इन्द्र ने की है। पाप बेचारा इन्द्र के पास गया और वैसा ही कहा। इन्द्र अचम्भे में पड़ गये। सोच विचारकर कहा—अभी मैं आता हूँ।’ और वे उस ब्राह्मण के बाग के पास में बूढ़े ब्राह्मण का वेश बनाकर गये और तरह−तरह की बातें कहते करते हुए जोर−जोर से बाग और उसके लगाने वाले की प्रशंसा करने लगा। प्रशंसा सुनकर ब्राह्मण भी वहाँ आ गया और अपने बाग लगाने के काम और गुणों का बखान करने लगा। “देखो मैंने ही यह बाग लगाया है। अपने हाथों पेड़ लगाये हैं, अपने हाथों से सींचता हूँ। सब काम बाग का अपने हाथों से करता हूँ। इस प्रकार बातें करते−करते इन्द्र ब्राह्मण को उस तरफ ले गये जहाँ गाय मरी पड़ी थी। अचानक उसे देखते इन्द्र ने कहा। यह गाय कैसे मर गई। “ब्राह्मण बोला—इन्द्र ने इसे मारा है।”

 

इन्द्र अपने निज स्वरूप में प्रकट हुआ और बोला—जिसके हाथों ने यह बाग लगाया है, ये पेड़ लगाये हैं, जो अपने हाथों से इसे सींचता है उसके हाथों ने यह गाय मारी है इन्द्र ने नहीं। यह तुम्हारा पाप लो।” यह कहकर इन्द्र चले गये। गौ हत्या का पाप विकराल रूप में ब्राह्मण के सामने आ खड़ा हुआ।

 

भले ही मनुष्य अपने पापों को किसी भी तरह अनेक तर्क, युक्तियाँ लगाकर टालता रहे किन्तु अन्त में समय आने पर उसे ही पाप का फल भोगना पड़ता है। पाप जिसने किया है उसी को भोगना पड़ता, दूसरे को नहीं। यह मनुष्य की भूल है कि वह तरह−तरह की युक्तियों से, पाप से बचना चाहता है। अतः जो किया उसका आरोप दूसरे पर न करते हुए स्वयं को भोगने के लिए तैयार रहना चाहिए।

 

 

👉 एक विश्वास

 

मेरी बेटी की शादी थी और मैं कुछ दिनों की छुट्टी ले कर शादी के तमाम इंतजाम को देख रहा था। उस दिन सफर से लौट कर मैं घर आया तो पत्नी ने आ कर एक लिफाफा मुझे पकड़ा  दिया। लिफाफा अनजाना था लेकिन प्रेषक का नाम देख कर मुझे एक आश्चर्यमिश्रित जिज्ञासा हुई।

 

‘अमर विश्वास’ एक ऐसा नाम जिसे मिले मुझे वर्षों बीत गए थे। मैं ने लिफाफा खोला तो उस में 1 लाख डालर का चेक और एक चिट्ठी थी। इतनी बड़ी राशि वह भी मेरे नाम पर। मैं ने जल्दी से चिट्ठी खोली और एक सांस में ही सारा पत्र पढ़ डाला। पत्र किसी परी कथा की तरह मुझे अचंभित कर गया। लिखा था :

 

आदरणीय सर, मैं एक छोटी सी भेंट आप को दे रहा हूं। मुझे नहीं लगता कि आप के एहसानों का कर्ज मैं कभी उतार पाऊंगा। ये उपहार मेरी अनदेखी बहन के लिए है। घर पर सभी को मेरा प्रणाम।

आप का, अमर।

 

मेरी आंखों में वर्षों पुराने दिन सहसा किसी चलचित्र की तरह तैर गए।

 

एक दिन मैं चंडीगढ़ में टहलते हुए एक किताबों की दुकान पर अपनी मनपसंद पत्रिकाएं उलटपलट रहा था कि मेरी नजर बाहर पुस्तकों के एक छोटे से ढेर के पास खड़े एक लड़के पर पड़ी। वह पुस्तक की दुकान में घुसते हर संभ्रांत व्यक्ति से कुछ अनुनयविनय करता और कोई प्रतिक्रिया न मिलने पर वापस अपनी जगह पर जा कर खड़ा हो जाता। मैं काफी देर तक मूकदर्शक की तरह यह नजारा देखता रहा। पहली नजर में यह फुटपाथ पर दुकान लगाने वालों द्वारा की जाने वाली सामान्य सी व्यवस्था लगी, लेकिन उस लड़के के चेहरे की निराशा सामान्य नहीं थी। वह हर बार नई आशा के साथ अपनी कोशिश करता, फिर वही निराशा।

 

मैं काफी देर तक उसे देखने के बाद अपनी उत्सुकता दबा नहीं पाया और उस लड़के के पास जा कर खड़ा हो गया। वह लड़का कुछ सामान्य सी विज्ञान की पुस्तकें बेच रहा था। मुझे देख कर उस में फिर उम्मीद का संचार हुआ और बड़ी ऊर्जा के साथ उस ने मुझे पुस्तकें दिखानी शुरू कीं। मैं ने उस लड़के को ध्यान से देखा। साफसुथरा, चेहरे पर आत्मविश्वास लेकिन पहनावा बहुत ही साधारण। ठंड का मौसम था और वह केवल एक हलका सा स्वेटर पहने हुए था। पुस्तकें मेरे किसी काम की नहीं थीं फिर भी मैं ने जैसे किसी सम्मोहन से बंध कर उस से पूछा, ‘बच्चे, ये सारी पुस्तकें कितने की हैं?’

 

‘आप कितना दे सकते हैं, सर?’

 

‘अरे, कुछ तुम ने सोचा तो होगा।’

 

‘आप जो दे देंगे,’ लड़का थोड़ा निराश हो कर बोला।

 

‘तुम्हें कितना चाहिए?’ उस लड़के ने अब यह समझना शुरू कर दिया कि मैं अपना समय उस के साथ गुजार रहा हूं।

 

‘5 हजार रुपए,’ वह लड़का कुछ कड़वाहट में बोला।

 

‘इन पुस्तकों का कोई 500 भी दे दे तो बहुत है,’ मैं उसे दुखी नहीं करना चाहता था फिर भी अनायास मुंह से निकल गया।

 

अब उस लड़के का चेहरा देखने लायक था। जैसे ढेर सारी निराशा किसी ने उस के चेहरे पर उड़ेल दी हो। मुझे अब अपने कहे पर पछतावा हुआ। मैं ने अपना एक हाथ उस के कंधे पर रखा और उस से सांत्वना भरे शब्दों में फिर पूछा, ‘देखो बेटे, मुझे तुम पुस्तक बेचने वाले तो नहीं लगते, क्या बात है। साफसाफ बताओ कि क्या जरूरत है?’

 

वह लड़का तब जैसे फूट पड़ा। शायद काफी समय निराशा का उतारचढ़ाव अब उस के बरदाश्त के बाहर था।

‘सर, मैं 10+2 कर चुका हूं। मेरे पिता एक छोटे से रेस्तरां में काम करते हैं। मेरा मेडिकल में चयन हो चुका है। अब उस में प्रवेश के लिए मुझे पैसे की जरूरत है। कुछ तो मेरे पिताजी देने के लिए तैयार हैं, कुछ का इंतजाम वह अभी नहीं कर सकते,’ लड़के ने एक ही सांस में बड़ी अच्छी अंगरेजी में कहा।

 

‘तुम्हारा नाम क्या है?’ मैं ने मंत्रमुग्ध हो कर पूछा?

 

‘अमर विश्वास।’

 

‘तुम विश्वास हो और दिल छोटा करते हो। कितना पैसा चाहिए?’

 

‘5 हजार,’ अब की बार उस के स्वर में दीनता थी।

 

‘अगर मैं तुम्हें यह रकम दे दूं तो क्या मुझे वापस कर पाओगे? इन पुस्तकों की इतनी कीमत तो है नहीं,’ इस बार मैं ने थोड़ा हंस कर पूछा।

 

‘सर, आप ने ही तो कहा कि मैं विश्वास हूं। आप मुझ पर विश्वास कर सकते हैं। मैं पिछले 4 दिन से यहां आता हूं, आप पहले आदमी हैं जिस ने इतना पूछा। अगर पैसे का इंतजाम नहीं हो पाया तो मैं भी आप को किसी होटल में कपप्लेटें धोता हुआ मिलूंगा,’ उस के स्वर में अपने भविष्य के डूबने की आशंका थी।

 

उस के स्वर में जाने क्या बात थी जो मेरे जेहन में उस के लिए सहयोग की भावना तैरने लगी। मस्तिष्क उसे एक जालसाज से ज्यादा कुछ मानने को तैयार नहीं था, जबकि दिल में उस की बात को स्वीकार करने का स्वर उठने लगा था। आखिर में दिल जीत गया। मैं ने अपने पर्स से 5 हजार रुपए निकाले, जिन को मैं शेयर मार्किट में निवेश करने की सोच रहा था, उसे पकड़ा दिए। वैसे इतने रुपए तो मेरे लिए भी माने रखते थे, लेकिन न जाने किस मोह ने मुझ से वह पैसे निकलवा लिए।

 

‘देखो बेटे, मैं नहीं जानता कि तुम्हारी बातों में, तुम्हारी इच्छाशक्ति में कितना दम है, लेकिन मेरा दिल कहता है कि तुम्हारी मदद करनी चाहिए, इसीलिए कर रहा हूं। तुम से 4-5 साल छोटी मेरी बेटी भी है मिनी। सोचूंगा उस के लिए ही कोई खिलौना खरीद लिया,’ मैं ने पैसे अमर की तरफ बढ़ाते हुए कहा।

 

अमर हतप्रभ था। शायद उसे यकीन नहीं आ रहा था। उस की आंखों में आंसू तैर आए। उस ने मेरे पैर छुए तो आंखों से निकली दो बूंदें मेरे पैरों को चूम गईं।

 

‘ये पुस्तकें मैं आप की गाड़ी में रख दूं?’

 

‘कोई जरूरत नहीं। इन्हें तुम अपने पास रखो। यह मेरा कार्ड है, जब भी कोई जरूरत हो तो मुझे बताना।’

वह मूर्ति बन कर खड़ा रहा और मैं ने उस का कंधा थपथपाया, कार स्टार्ट कर आगे बढ़ा दी।

 

कार को चलाते हुए वह घटना मेरे दिमाग में घूम रही थी और मैं अपने खेले जुए के बारे में सोच रहा था, जिस में अनिश्चितता ही ज्यादा थी। कोई दूसरा सुनेगा तो मुझे एक भावुक मूर्ख से ज्यादा कुछ नहीं समझेगा। अत: मैं ने यह घटना किसी को न बताने का फैसला किया।

 

दिन गुजरते गए। अमर ने अपने मेडिकल में दाखिले की सूचना मुझे एक पत्र के माध्यम से दी। मुझे अपनी मूर्खता में कुछ मानवता नजर आई। एक अनजान सी शक्ति में या कहें दिल में अंदर बैठे मानव ने मुझे प्रेरित किया कि मैं हजार 2 हजार रुपए उस के पते पर फिर भेज दूं। भावनाएं जीतीं और मैं ने अपनी मूर्खता फिर दोहराई।

 

दिन हवा होते गए। उस का संक्षिप्त सा पत्र आता जिस में 4 लाइनें होतीं। 2 मेरे लिए, एक अपनी पढ़ाई पर और एक मिनी के लिए, जिसे वह अपनी बहन बोलता था। मैं अपनी मूर्खता दोहराता और उसे भूल जाता। मैं ने कभी चेष्टा भी नहीं की कि उस के पास जा कर अपने पैसे का उपयोग देखूं, न कभी वह मेरे घर आया। कुछ साल तक यही क्रम चलता रहा। एक दिन उस का पत्र आया कि वह उच्च शिक्षा के लिए आस्ट्रेलिया जा रहा है। छात्रवृत्तियों के बारे में भी बताया था और एक लाइन मिनी के लिए लिखना वह अब भी नहीं भूला।

 

मुझे अपनी उस मूर्खता पर दूसरी बार फख्र हुआ, बिना उस पत्र की सचाई जाने। समय पंख लगा कर उड़ता रहा। अमर ने अपनी शादी का कार्ड भेजा। वह शायद आस्ट्रेलिया में ही बसने के विचार में था। मिनी भी अपनी पढ़ाई पूरी कर चुकी थी। एक बड़े परिवार में उस का रिश्ता तय हुआ था। अब मुझे मिनी की शादी लड़के वालों की हैसियत के हिसाब से करनी थी। एक सरकारी उपक्रम का बड़ा अफसर कागजी शेर ही होता है। शादी के प्रबंध के लिए ढेर सारे पैसे का इंतजाम…उधेड़बुन…और अब वह चेक?

 

मैं वापस अपनी दुनिया में लौट आया। मैं ने अमर को एक बार फिर याद किया और मिनी की शादी का एक कार्ड अमर को भी भेज दिया।

 

शादी की गहमागहमी चल रही थी। मैं और मेरी पत्नी व्यवस्थाओं में व्यस्त थे और मिनी अपनी सहेलियों में। एक बड़ी सी गाड़ी पोर्च में आ कर रुकी। एक संभ्रांत से शख्स के लिए ड्राइवर ने गाड़ी का गेट खोला तो उस शख्स के साथ उस की पत्नी जिस की गोद में एक बच्चा था, भी गाड़ी से बाहर निकले।

 

मैं अपने दरवाजे पर जा कर खड़ा हुआ तो लगा कि इस व्यक्ति को पहले भी कहीं देखा है। उस ने आ कर मेरी पत्नी और मेरे पैर छुए।

 

‘‘सर, मैं अमर…’’ वह बड़ी श्रद्धा से बोला।

 

मेरी पत्नी अचंभित सी खड़ी थी। मैं ने बड़े गर्व से उसे सीने से लगा लिया। उस का बेटा मेरी पत्नी की गोद में घर सा अनुभव कर रहा था। मिनी अब भी संशय में थी। अमर अपने साथ ढेर सारे उपहार ले कर आया था। मिनी को उस ने बड़ी आत्मीयता से गले लगाया। मिनी भाई पा कर बड़ी खुश थी।

 

अमर शादी में एक बड़े भाई की रस्म हर तरह से निभाने में लगा रहा। उस ने न तो कोई बड़ी जिम्मेदारी मुझ पर डाली और न ही मेरे चाहते हुए मुझे एक भी पैसा खर्च करने दिया। उस के भारत प्रवास के दिन जैसे पंख लगा कर उड़ गए।

इस बार अमर जब आस्ट्रेलिया वापस लौटा तो हवाई अड्डे पर उस को विदा करते हुए न केवल मेरी बल्कि मेरी पत्नी, मिनी सभी की आंखें नम थीं। हवाई जहाज ऊंचा और ऊंचा आकाश को छूने चल दिया और उसी के साथसाथ मेरा विश्वास भी आसमान छू रहा था।

 

मैं अपनी मूर्खता पर एक बार फिर गर्वित था और सोच रहा था कि इस नश्वर संसार को चलाने वाला कोई भगवान नहीं हमारा विश्वास ही है।

 

👉 कर्म करो तभी मिलेगा

 

कौरवों की राज सभा लगी हुई है। एक ओर कौने में पाण्डव भी बैठे हैं। दुर्योधन की आज्ञा पाकर दुःशासन उठता है और द्रौपदी को घसीटता हुआ राज सभा में ला रहा है। आज दुष्टों के हाथ उस अबला की लाज लूटी जाने वाली है। उसे सभा में नंग किया जायेगा। वचनबद्ध पाण्डव सिर नीचा किए बैठे हैं।

 

द्रौपदी अपने साथ होने वाले अपमान से दुःखी हो उठी। उधर सामने दुष्ट दुःशासन आ खड़ा हुआ। द्रौपदी ने सभा में उपस्थित सभी राजों महाराजों, पितामहों को रक्षा के लिए पुकारा, किन्तु दुर्योधन के भय से और उसका नमक खाकर जीने वाले कैसे उठ सकते थे। द्रौपदी ने भगवान को पुकारा अन्तर्यामी घट−घटवासी कृष्ण दौड़े आये कि आज भक्त पर भीर पड़ी है। द्रौपदी को दर्शन दिया और पूछा किसी को वस्त्र दिया हो तो याद करो? द्रौपदी को एक बात याद आई और बोली—भगवान् एक बार पानी भरने गई थी तो तपस्या करते हुए ऋषि की लँगोटी नदी में बह गई, तब उसे धोती में से आधी फाड़कर दी थी। कृष्ण भगवान ने कहा—द्रौपदी अब चिन्ता मत करो। तुम्हारी रक्षा हो जायगी और जितनी साड़ी दुःशासन खींचता गया उतनी ही बढ़ती गई। दुःशासन हारकर बैठ गया, किन्तु साड़ी का ओर छोर ही नहीं आया।

 

यदि मनुष्य का स्वयं का कुछ किया हुआ न हो तो स्वयं विधाता भी उसकी सहायता नहीं कर सकता। क्योंकि सृष्टि का विधान अटल है। जिस प्रकार विधान बनाने वाले विधायकों को स्वयं उसका पालन करना पड़ता है वैसे ही ईश्वरीय अवतार महापुरुष स्वयं भगवान भी अपने बनाये विधानों का उल्लंघन नहीं कर सकते। इससे तो उनका सृष्टि संचालन ही अस्त−व्यस्त हो जायेगा।

 

इस सम्बन्ध में उन लोगों को सचेत होकर अपना कर्म करना चाहिए जो सोचते हैं कि भगवान सब कर देंगे और स्वयं हाथ पर हाथ धरे बैठे रहें। जीवन में जो कुछ मिलता है अपने पूर्व या वर्तमान कर्मों के फल के अनुसार। बैंक बैलेन्स में यदि रकम नहीं हो तो खातेदार को खाली हाथ लौटना पड़ता है। मनुष्य के कर्मों के खाते में यदि जमा में कुछ नहीं हो तो कुछ नहीं मिलने का। कर्म की पूँजी जब इकट्ठी करेंगे तभी कुछ मिलना सम्भव है। भगवान और देवता क्या करेंगे?

👉 एक अच्छा मनुष्य बनाइएगा

 

मैं बिस्तर पर से उठा,अचानक छाती में दर्द होने लगा मुझे।।। हार्ट की तकलीफ तो नहीं है। ।।? ऐसे विचारों के साथ। ।।मैं आगे वाले बैठक के कमरे में गया।।।मैंने नज़र की।।।कि मेरा परिवार मोबाइल में व्यस्त था।।।

 

मैंने ।।। पत्नी को देखकर कहा।।।काव्या थोड़ा छाती में रोज से आज ज़्यादा दु:ख रहा है।।।डाक्टर को बताकर आता हूँ । ।।

हां, मगर संभलकर जाना।।।काम हो तो फोन करना  मोबाइल में देखते देखते ही काव्या बोली।।।

 

मैं।।। एक्टिवा की चाबी लेकर पार्किंग में पहुँचा ।।। पसीना,मुझे बहुत आ रहा था।।।एक्टिवा स्टार्ट नहीं हो रहा था।।।

ऐसे वक्त्त।।। हमारे घर का काम करने वाला ध्रुव सायकल लेकर आया।।। सायकल को ताला मारते ही उसे मैंने मेरे सामने खड़ा देखा।।।

क्यों साब? एक्टिवा चालू नहीं हो रहा है।।।मैंने कहा नहीं।।।

 

आपकी तबीयत ठीक नहीं लगती साब।।। इतना पसीना क्यों आया है ?

 

साब।।। स्कूटर को किक इस हालत में नहीं मारते।।।।मैं किक मारके चालू कर देता हूँ ।।।ध्रुव ने एक ही किक मारकर एक्टिवा चालू कर दिया, साथ ही पूछा।।साब अकेले जा रहे हो

 

मैंने कहा।।। हां

ऐसी हालत में अकेले नहीं जाते।।।चलिए मेरे पीछे बैठ जाइए।।।मैंने कहा तुम्हें एक्टिवा चलाना आता है? साब।।। गाड़ी का भी लाइसेंस है, चिंता  छोड़कर बैठ जाओ।।।

 

पास ही एक अस्पताल में हम पहुँचे, ध्रुव दौड़कर अंदर गया, और व्हील चेयर लेकर बाहर आया।।।

साब।।। अब चलना नहीं, इस कुर्सी पर बैठ जाओ।।

 

ध्रुव के मोबाइल पर लगातार घंटियां बजती रही।।।मैं समझ गया था।।। फ्लैट में से सबके फोन आते होंगे।।कि अब तक क्यों नहीं आया? ध्रुव ने आखिर थक कर किसी को कह दिया कि।।। आज नहीँ आ सकता।।।।

 

ध्रुव डाक्टर के जैसे ही व्यवहार कर रहा था।।।उसे बगैर पूछे मालूम हो गया था कि, साब को हार्ट की तकलीफ हो रही है।।। लिफ्ट में से व्हील चेयर ICU कि तरफ लेकर गया।।।।

 

डाक्टरों की टीम तो तैयार ही थी।।। मेरी तकलीफ सुनकर।।। सब टेस्ट शीघ्र ही किये।।। डाक्टर ने कहा, आप समय पर पहुँच गए हो।।।।इस में भी आपने व्हील चेयर का उपयोग किया।।।वह आपके लिए बहुत फायदेमंद रहा।।।

 

अब।।। कोई भी प्रकार की राह देखना।।। वह आपके लिए हानिकारक होगी।।।इसलिए बिना देर किए हमें हार्ट का ऑपरेशन करके आपके ब्लोकेज जल्द ही दूर करने होंगे।।।इस फार्म पर आप के स्वजन के हस्ताक्षर की ज़रूरत है।।।डाक्टर ने ध्रुव को सामने देखा।।।

 

मैंने कहा, बेटे, दस्तखत करने आते है? साब इतनी बड़ी जवाबदारी मुझ पर न रखो।।।

 

बेटे।।। तुम्हारी कोई जवाबदारी नहीं है।।। तुम्हारे साथ भले ही लहू का संबंध नहीं है।।। फिर भी बगैर कहे तुमने तुम्हारी जवाबदारी पूरी की, वह जवाबदारी हकीकत में मेरे परिवार की थी।।।एक और जवाबदारी पूरी कर दो बेटा, मैं नीचे लिखकर सही करके लिख दूंगा कि मुझे कुछ भी होगा तो जवाबदारी मेरी है, ध्रुव ने सिर्फ मेरे कहने पर ही हस्ताक्षर  किये हैं, बस अब। ।।

 

और हां, घर फोन लगा कर खबर कर दो।।।

 

बस, उसी समय मेरे सामने, मेरी पत्नी काव्या का मोबाइल ध्रुव के मोबाइल पर आया।वह शांति से काव्या को सुनने लगा।।।

 

थोड़ी देर के बाद ध्रुव बोला, मैडम, आपको पगार काटने का हो तो काटना, निकालने का हो तो निकाल दो, मगर अभी अस्पताल ऑपरेशन शुरु होने के पहले पहुँच जाओ। हां मैडम, मैं साब को अस्पताल लेकर आया हूँ। डाक्टर ने ऑपरेशन की तैयारी कर ली है, और राह देखने की कोई जरूरत नहीं है।।।

 

मैंने कहा, बेटा घर से फोन था।।।?

 

हाँ साब।

मैंने मन में सोचा, काव्या तुम किसकी पगार काटने की बात कर रही है, और किस को निकालने की बात कर रही हो? आँखों में आंसू के साथ ध्रुव के कंधे पर हाथ रख कर, मैं बोला, बेटा चिंता नहीं करते।।

 

मैं एक संस्था में सेवाएं देता हूं, वे बुज़ुर्ग लोगों को सहारा देते हैं, वहां तुम जैसे ही व्यक्तियों की ज़रूरत है।

तुम्हारा काम बरतन कपड़े धोने का नहीं है, तुम्हारा काम तो समाज सेवा का है।।।बेटा। ।।पगार मिलेगा, इसलिए चिंता ना करना।

 

ऑपरेशन बाद, मैं होश में आया।।। मेरे सामने मेरा पूरा परिवार नतमस्तक खड़ा था, मैं आँखों में आंसू के साथ बोला, ध्रुव कहाँ है?

 

काव्या बोली-: वो अभी ही छुट्टी लेकर गांव गया, कहता था, उसके पिताजी हार्ट अटैक में गुज़र गऐ है।।। 15 दिन के बाद फिर से आयेगा।

 

अब मुझे समझ में आया कि उसको मेरे में उसका बाप दिखता होगा।।।

 

हे प्रभु, मुझे बचाकर आपने उसके बाप को उठा लिया!

 

पूरा परिवार हाथ जोड़कर, मूक नतमस्तक माफी मांग रहा था।।।

 

एक मोबाइल की लत (व्यसन)।।।अपने व्यक्ति को अपने दिल से कितना दूर लेकर जाता है।।। वह परिवार देख रहा था।।।।यही नहीं मोबाइल आज घर घर कलह का कारण भी बन गया है बहू छोटी-छोटी बाते तत्काल अपने मां-बाप को बताती है और मां की सलाह पर ससुराल पक्ष के लोगो से व्यवहार करती है परिणामस्वरूप वह बीस बीस साल भी ससुराल पक्ष के लोगो से अपनापा जोड़ नहीं पाती।

 

डाक्टर ने आकर कहा, सब से पहले यह बताइए ध्रुव भाई आप के क्या लगते?

 

मैंने कहा डाक्टर साहब, कुछ संबंधों के नाम या गहराई तक न जाएं तो ही बेहतर होगा उससे संबंध की गरिमा बनी रहेगी।

 

बस मैं इतना ही कहूंगा कि, वो आपात स्थिति में मेरे लिए फरिश्ता बन कर आया था!

 

पिन्टू बोला :- हमको माफ करो पप्पा।।। जो फर्ज़ हमारा था, वह ध्रुव ने पूरा किया, वह हमारे लिए शर्मजनक है, अब से ऐसी भूल भविष्य में कभी भी नहीं होगी। ।।

 

बेटा, जवाबदारी और नसीहत (सलाह) लोगों को देने के लिए ही होती है।।।

जब लेने की घड़ी आये, तब लोग ऊपर नीचे (या बग़ल झाकते है) हो जातें है।

 

अब रही मोबाइल की बात।।।

 

बेटे, एक निर्जीव खिलोने ने, जीवित खिलोने को गुलाम कर दिया है, समय आ गया है, कि उसका मर्यादित उपयोग करना है।

 

नहीं तो।।।। परिवार, समाज और राष्ट्र को उसके गंभीर परिणाम भुगतने पडेंगे और उसकी कीमत चुकाने को तैयार रहना पड़ेगा।

बेटे और बेटियों को बड़ा अधिकारी या व्यापारी बंनाने की जगह एक अच्छा मनुष्य बनाइएगा।

Post a Comment

0 Comments

Ad Code