ज्ञानवर्धक
कथाएं भाग -35
👉 बोलना ही बंधन है
एक राजा के घर एक राजकुमार ने जन्म
लिया। राजकुमार स्वभाव से ही कम बोलते थे। राजकुमार जब युवा हुआ तब भी अपनी उसी
आदत के साथ मौन ही रहता था। राजा अपने राजकुमार की चुप्पी से परेशान रहते थे कि
आखिर ये बोलता क्यों नहीं है। राजा ने कई ज्योतिषियों,साधु-महात्माओं
एवं चिकित्सकों को उन्हें दिखाया परन्तु कोई हल नहीं निकला। संतो ने कहा कि ऐसा
लगता है पिछले जन्म में ये राजकुमार कोई साधु थे जिस वजह से इनके संस्कार इस जन्म
में भी साधुओं के मौन व्रत जैसे हैं। राजा ऐसी बातों से संतुष्ट नहीं हुए।
एक दिन राजकुमार को राजा के मंत्री
बगीचे में टहला रहे थे। उसी समय एक कौवा पेड़ की डाल पर बैठ कर काव - काव करने
लगा। मंत्री ने सोचा कि कौवे कि आवाज से राजकुमार परेशान होंगे इसलिए मंत्री ने
कौवे को तीर से मार दिया। तीर लगते ही कौवा जमीन पर गिर गया। तब राजकुमार कौवे के
पास जा कर बोले कि यदि तुम नहीं बोले होते तो नहीं मारे जाते। इतना सुन कर मंत्री
बड़ा खुश हुआ कि राजकुमार आज बोले हैं और तत्काल ही राजा के पास ये खबर पहुंचा दी।
राजा भी बहुत खुश हुआ और मंत्री को खूब ढेर - सारा उपहार दिया।
कई दिन बीत जाने के बाद भी राजकुमार
चुप ही रहते थे। राजा को मंत्री कि बात पे संदेह हो गया और गुस्सा कर राजा ने
मंत्री को फांसी पर लटकाने का हुक्म दिया। इतना सुन कर मंत्री दौड़ते हुए राज
कुमार के पास आया और कहा कि उस दिन तो आप बोले थे परन्तु अब नहीं बोलते हैं। मैं
तो कुछ देर में राजा के हुक्म से फांसी पर लटका दिया जाऊंगा। मंत्री की बात सुन कर
राजकुमार बोले कि यदि तुम भी नहीं बोले होते तो आज तुम्हें भी फांसी का हुक्म नहीं
होता। बोलना ही बंधन है। जब भी बोलो उचित और सत्य बोलो अन्यथा मौन रहो। जीवन में
बहुत से विवाद का मुख्य कारण अत्यधिक बोलना ही है। एक चुप्पी हजारों कलह का नाश
करती है।
राजा छिप कर राजकुमार की ये बातें
सुन रहा था,उसे भी इस बात का ज्ञान हुआ और राजकुमार को पुत्र रूप में
प्राप्त कर गर्व भी हुआ। उसने मंत्री को फांसी मुक्त कर दिया।
असंभव कुछ नहीं:-
एक समय की बात है किसी राज्य में एक
राजा का शासन था। उस राजा के दो बेटे थे – अवधेश और विक्रम।
एक बार दोनों राजकुमार जंगल में
शिकार करने गए। रास्ते में एक विशाल नदी थी। दोनों राजकुमारों का मन हुआ कि क्यों
ना नदी में नहाया जाये।
यही सोचकर दोनों राजकुमार नदी में
नहाने चल दिए। लेकिन नदी उनकी अपेक्षा से कहीं ज्यादा गहरी थी।
विक्रम तैरते -तैरते
थोड़ा दूर निकल गया, अभी थोड़ा तैरना शुरू ही किया था कि एक
तेज लहर आई और विक्रम को दूर तक अपने साथ ले गयी।
विक्रम डर से अपनी सुध बुध खो बैठा
गहरे पानी में उससे तैरा नहीं जा रहा था अब वो डूबने लगा था।
अपने भाई को बुरी तरह फँसा देख के
अवधेश जल्दी से नदी से बाहर निकला और एक लकड़ी का बड़ा लट्ठा लिया और अपने भाई
विक्रम की ओर उछाला।
लेकिन दुर्भाग्यवश विक्रम इतना दूर
था कि लकड़ी का लट्ठा उसके हाथ में नहीं आ पा रहा था।
इतने में सैनिक वहां पहुँचे और
राजकुमार को देखकर सब यही बोलने लगे – अब ये नहीं बच पाएंगे, यहाँ
से निकलना नामुमकिन है।
यहाँ तक कि अवधेश को भी ये अहसास हो
चुका था कि अब विक्रम नहीं बच सकता, तेज बहाव में बचना नामुमकिन
है, यही सोचकर सबने हथियार डाल दिए और कोई बचाव को आगे नहीं
आ रहा था। काफी समय बीत चुका था, विक्रम अब दिखाई भी नहीं दे
रहा था।
अभी सभी लोग किनारे पर बैठ कर
विक्रम का शोक मना रहे थे कि दूर से एक सन्यासी आते हुए नजर आये उनके साथ एक
नौजवान भी था। थोड़ा पास आये तो पता चला वो नौजवान विक्रम ही था।
अब तो सारे लोग खुश हो गए लेकिन
हैरानी से वो सब लोग विक्रम से पूछने लगे कि तुम तेज बहाव से बचे कैसे?
सन्यासी ने कहा कि आपके इस सवाल का
जवाब मैं देता हूँ – ये बालक तेज बहाव से इसलिए बाहर निकल आया क्योंकि इसे वहां
कोई ये कहने वाला नहीं था कि “यहाँ से निकलना नामुमकिन है”
इसे कोई हताश करने वाला नहीं था, इसे
कोई हतोत्साहित करने वाला नहीं था। इसके सामने केवल लकड़ी का लट्ठा था और मन में
बचने की एक उम्मीद बस इसीलिए ये बच निकला।
दोस्तों हमारी जिंदगी में भी कुछ
ऐसा ही होता है, जब दूसरे लोग किसी काम को असम्भव कहने लगते हैं तो हम भी
अपने हथियार डाल देते हैं क्योंकि हम भी मान लेते हैं कि ये असम्भव है। हम अपनी
क्षमता का आकलन दूसरों के कहने से करते हैं।
आपके अंदर अपार क्षमताएं हैं, किसी
के कहने से खुद को कमजोर मत बनाइये। सोचिये विक्रम से अगर बार - बार कोई बोलता
रहता कि यहाँ से निकलना नामुमकिन है, तुम नहीं निकल सकते,
ये असम्भव है तो क्या वो कभी बाहर निकल पाता? कभी
नहीं……।
उसने खुद पे विश्वास रखा, खुद
पे उम्मीद थी बस इसी उम्मीद ने उसे बचाया।
👉 साधन और साध्य
एक बार अकबर ने तानसेन से कहा था कि
तेरा वीणावादन देखकर कभी—कभी यह मेरे मन में खयाल उठता है कि कभी संसार में किसी
आदमी ने तुझसे भी बेहतर बजाया होगा या कभी कोई बजाएगा? मैं
तो कल्पना भी नहीं कर पाता कि इससे
श्रेष्ठतर कुछ हो सकता ‘है।
तानसेन ने कहा,क्षमा
करें, शायद आपको पता नहीं कि मेरे: गुरु अभी जिन्दा हैं। और
एक बार अगर आप उनकी वीणा सुन लें तो कहां वे और कहां मैं!
बड़ी जिज्ञासा जगी अकबर को। अकबर ने
कहा तो फिर उन्हें बुलाओ! तानसेन ने कहा, इसीलिए कभी मैंने उनकी बात
नही छेड़ी। आप मेरी सदा प्रशंसा करते थे, मैं चुपचाप पी लेता
था, जैसे जहर का घूंट कोई पीता है, क्योंकि
मेरे गुरु अभी जिन्दा हैं, उनके सामने मेरी क्या प्रशंसा! यह
यूं ही है जैसे कोई सूरज को दीपक दिखाये। मगर मैं चुपचाप रह जाता था, कुछ कहता न था, आज न रोक सका अपने को, बात निकल गयी। लेकिन नहीं कहता था इसीलिए कि आप तत्क्षण कहेंगे, ‘उन्हें बुलाओ’। और तब मैं मुश्किल में पड़ुगा, क्योंकि
वे यूं आते नहीं। उनकी मौज हो तो जंगल में बजाते हैं, जहां
कोई सुनने वाला नहीं। जहां कभी—कभी जंगली जानवर जरूर इकट्ठे हो जाते हैं सुनने को।
वृक्ष सुन लेते हैं, पहाड़ सुन लेते हैं। लेकिन फरमाइश से तो
वे कभी बजाते नहीं। वे यहां दरबार मे न आएंगे। आ भी जाएं किसी तरह और हम कहें उनसे
कि बजाओ तो वे बजाएंगे नहीं।
तो अकबर ने कहा, फिर
क्या करना पड़ेगा, कैसे सुनना पड़ेगा? तो
तानसेन ने कहा, एक ही उपाय है कि यह मैं जानता हूं कि रात
तीन बजे वे उठते हैं, यमुना के तट पर आगरा में रहते
हैं—हरिदास उनका नाम है—हम रात में चलकर छुप जाएं—दो बजे रात चलना होगा; क्योंकि कभी तीन बजे बजाए, चार बजे —बजाए, पांच बजे बजाए; मगर एक बार (जरूर सुबह—सुबह स्नान के
बाद वे वीणा बजाते हैं— तो हमें चोरी से ही सुनना होगा, बाहर
झोपड़े के छिपे रहकर सुनना होगा।।। शायद ही दुनिया के इतिहास में किसी सम्राट ने,
अकबर जैसे बड़े सम्राट ने चोरी से किसी की वीणा सुनी हो!।। लेकिन
अकबर गया।
दोनों छिपे रहे एक झाड़ की ओट में, पास
ही झोपड़े के पीछे। कोई तीन बजे स्नान करके हरिदास यमुना सैर आये और उन्होंने अपनी
वीणा उठायी और बजायी। कोई घंटा कब बीत गया—यूं जैसे पल बीत जाए! वीणा तो बंद हो
गयी, लेकिन जो राग भीतर अकबर के जम गया था वह जमा ही रहा।
आधा घंटे बाद तानसेन ने उन्हें
हिलाया और कहा कि अब सुबह होने के करीब है, हम चलें! अब कब तक बैठे
रहेंगे। अब तो वीणा बंद भी हो। चुकी। अकबर ने कहा, बाहर की
तो वीणा बंद हो गयी मगर भीतर की वीणा बजी ही चली जाती है। तुम्हें मैंने बहुत बार
सुना, तुम जब बंद करते हो तभी बंद ‘हो जाती है। यह पहला मौका
है कि जैसे मेरे भीतर के तार छिड़ गये हैं।। और आज सच में ही मैं तुमसे कहता हूं कि
तुम ठीक ही कहते थे कि कहा तुम और कहां तुम्हारे गुरु!
अकबर की आंखों से आंसू झरे जा रहे
हैं। उसने कहा, मैंने बहुत संगीत सुना, इतना भेद
क्यों है? और तेरे संगीत में और तेरे गुरु के संगीत में इतना
भेद क्यों है? जमीन—आसमान का फर्क है।
तानसेन ने कहा - कुछ बात कठिन नहीं
है। मैं बजाता हूं कुछ पाने के लिए; और वे बजाते हैं क्योंकि
उन्होंने कुछ पा लिया है। उनका बजाना किसी उपलब्धि की,किसी
अनुभूति की अभिव्यक्ति है। मेरा बजाना तकनीकी है। मैं बजाना जानता हूं मैं बजाने
का पूरा गणित जानता हूं मगर गणित! बजाने का अध्यात्म मेरे पास नहीं! और मैं जब
बजाता होता हूं तब भी इस आशा में कि आज क्या आप देंगे? हीरे
का हार भेंट करेंगे, कि मोतियों की माला, कि मेरी झोली सोने से भर देंगे, कि अशरफियों से?
जब बजाता हूं तब पूरी नजर भविष्य पर अटकी रहती है, फल पर लगी रहती है। वे बजा रहे हैं, न कोई फल है,
न कोई भविष्य,वर्तमान का क्षण ही सब कुछ है।
उनके जीवन में साधन और साध्य में बहुत फर्क है, साधन ही
साध्य है; ओर मेरे जीवन में अभी साधन और साध्य में कोई फर्क
नहीं है। बजाना साधन है। पेशेवर हूं मैं। उनका बजाना आनंद है, साधन नहीं। वे मस्ती में हैं।
👉 देने की नीति
कड़ाके की ठंड पड़ी। पृथ्वी पर
रेंगने वाले कीटक उससे सिकुड़ कर मरने लगे। वन्य प्राणियों के लिए आहार की समस्या
उत्पन्न हो गई। लोग शीत निवारण के लिए जलावन ढूंढ़ने निकले। सब के शरीर अकड़ रहे
थे तो भी कष्ट निवारण का उपाय किसी से बन नहीं पड़ रहा था।
वृक्ष से यह सब देखा न गया। इन कष्ट
पीड़ितों की सहायता के लिए उसे कुछ तो करना ही चाहिए। पर करें भी तो क्या। उसके
पास न बुद्धि थी न पुरुषार्थ न धन न अवसर।
फिर भी वह सोचता ही रहा- क्या मेरे
पास कुछ भी नहीं है? भला ऐसा कैसे होगा सर्वथा साधन हीन तो इस
सृष्टि में एक कण भी नहीं रचा गया है? गहराई से विचार किया
तो लगा कि वह भी साधनहीन नहीं है। पत्र-पल्लवों की प्रचुर संपदा प्रकृति ने उसे
उन्मुक्त हाथों से प्रदान की है। वृक्ष ने संतोष की साँस ली। पुलकन उसके रोम-रोम
में दौड़ गई।
वृक्ष ने अपने सारे पत्ते जमीन पर
गिरा दिए। रेंगने वालों ने आश्रय पाया, पशुओं को आहार मिला,
जलावन को समेट कर मनुष्यों ने आग तापी और जो रहा बचा सो खाद के
गड्ढे में डाल दिया। दुम हिलाते रंग बदलते गिरगिट अपनी कोतर से निकला और वृक्ष से
पूछने लगा- अपनी शोभा सम्पदा गँवाकर तुम ठूँठ बन गये। इस मूर्खता में आखिर क्या
पाया।
वृक्ष गिरगिट को निहारता भर रहा पर
उत्तर कुछ नहीं दिया। कुछ समय उपरान्त बसन्त आया। उसने ठूँठ बनकर खड़े हुए वृक्ष
को दुलारा और पुराने पके पत्तों के स्थान पर नई कोपलों से उसका अंग प्रत्यंग सजा
दिया। यह तो उसके दान का प्रतिदान था। अभी उपहार का अनुदान शेष था सो भी बसन्त ने नया
बसंती फूलों से मधुर फलों से लाद कर पूरा कर दिया। वृक्ष गौरवान्वित था और
सन्तुष्ट भी।
गिरगिट फिर एक दिन उधर से गुजरा।
वृक्ष पहले से अधिक सम्पन्न था। उसने देने की नीति अपना कर खोया कम और पाया ज्यादा
यह उसने प्रत्यक्ष देखा।
पूर्व व्यंग की निरर्थकता का उसे अब
आभास हुआ सो लज्जा से लाल पीला होता हुआ वह फिर अपने पुराने कोंतर में वापिस लौट
गया।
👉 सिद्धान्तों और व्यवहार कुशलता में सामञ्जस्य
हो
एक जंगल में एक महात्मा रहा करते
थे। वे नित्य अपने शिष्यों को उपदेश दिया करते थे। एक दिन उन्होंने अपने शिष्यों
को उपदेश दिया कि सर्वप्राणियों में परमात्मा का निवास है। अतः सभी का सम्मान करो
और नमन करो। एक दिन उनका एक शिष्य बन में लकड़ियाँ लेने गया। उस दिन वहाँ यह शोर
मचा हुआ था कि जंगल में एक पागल हाथी घूम रहा है। उससे बचने के लिए भागो। शिष्य ने
सोचा कि हाथी में भी तो परमात्मा का निवास है मुझे क्यों भागना चाहिए। वह वहाँ ही
खड़ा रहा। हाथी उसी की ओर चला आ रहा था। लोगों ने उसे भागने को कहा किन्तु वह टस
से मस नहीं हुआ। इतने में हाथी पास में आया और उसे सूँड़ से पकड़कर दूर फेंक दिया।
शिष्य चोट खाकर बेहोश हो गया। यह खबर गुरु को लगी तो वे उसे तलाश करते हुए जंगल
में पहुँचे। कई शिष्यों ने उसे उठाया और आश्रम में ले आये और आवश्यक चिकित्सा की
तब कहीं शिष्य होश में आया। एक शिष्य ने कुछ समय बाद उससे पूछा “क्यों भाई जब पागल
हाथी तुम्हारी ओर आ रहा था तो तुम वहाँ से भागे क्यों नहीं?” उसने
कहा—
“गुरुजी ने कहा था कि सब भूतों में
नारायण का वास है यही सोचकर मैं भागा नहीं वरन् खड़ा रहा।” गुरुजी ने कहा “बेटा
हाथी नारायण आ रहे थे यह ठीक है किन्तु अन्य लोगों ने जो भी नारायण ही थे तुम्हें
भागने को कहा तो क्यों नहीं भागे?”
सब भूतों में परमात्मा का वास है यह
तो ठीक है किन्तु मेल−मिलाप भले और अच्छे आदमियों से ही करना चाहिए। व्यावहारिक
जगत में साधु−असाधु, भक्त −अभक्त , सज्जन-दुर्जनों
का ध्यान रखकर व्यवहार व सम्बन्ध रखना चाहिए। जैसे किसी जल से भगवान की पूजा होती
है, किसी से नहा सकते हैं, किसी से
कपड़ा धोने एवं बर्तन माँजने का ही काम चलाते हैं। किसी जल को व्यवहार में ही नहीं
लाते। वैसे जल देवता एक ही है। इसी प्रकार संसार में भी व्यवहार करना चाहिए।
📖 अखण्ड ज्योति अप्रैल 1962
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