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ज्ञानवर्धक कथाए भाग-3

 👉 1- प्रभु के योग्य स्वयं बनें:-


🔵 एक राजा सायंकाल में महल की छत पर टहल रहा था. अचानक उसकी दृष्टि महल के नीचे बाजार में घूमते हुए एक सन्त पर पड़ी. संत तो संत होते हैं, चाहे हाट बाजार में हों या मंदिर में अपनी धुन में खोए चलते हैं।


🔴 राजा ने महूसस किया वह संत बाजार में इस प्रकार आनंद में भरे चल रहे हैं जैसे वहां उनके अतिरिक्त और कोई है ही नहीं. न किसी के प्रति कोई राग दिखता है न द्वेष।


🔵 संत की यह मस्ती इतनी भा गई कि तत्काल उनसे मिलने को व्याकुल हो गए।


🔴 उन्होंने सेवकों से कहा इन्हें तत्काल लेकर आओ।


🔵 सेवकों को कुछ न सूझा तो उन्होंने महल के ऊपर ऊपर से ही रस्सा लटका दिया और उन सन्त को उस में फंसाकर ऊपर खींच लिया।


🔴 चंद मिनटों में ही संत राजा के सामने थे. राजा ने सेवकों द्वारा इस प्रकार लाए जाने के लिए सन्त से क्षमा मांगी. संत ने सहज भाव से क्षमा कर दिया और पूछा ऐसी क्या शीघ्रता आ पड़ी महाराज जो रस्सी में ही खिंचवा लिया!


🔵 राजा ने कहा- एक प्रश्न का उत्तर पाने के लिए मैं अचानक ऐसा बेचैन हो गया कि आपको यह कष्ट हुआ।


🔴 संत मुस्कुराए और बोले- ऐसी व्याकुलता थी अर्थात कोई गूढ़ प्रश्न है. बताइए क्या प्रश्न है।


🔵 राजा ने कहा- प्रश्न यह है कि भगवान् शीघ्र कैसे मिलें, मुझे लगता है कि आप ही इसका उत्तर देकर मुझे संतुष्ट कर सकते हैं ? कृपया मार्ग दिखाएं।


🔴 सन्त ने कहा‒‘राजन् ! इस प्रश्न का उत्तर तो तुम भली-भांति जानते ही हो, बस समझ नहीं पा रहे. दृष्टि बड़ी करके सोचो तुम्हें पलभर में उत्तर मिल जाएगा।


🔵 राजा ने कहा‒ यदि मैं सचमुच इस प्रश्न का उत्तर जान रहा होता तो मैं इतना व्याकुल क्यों होता और आपको ऐसा कष्ट कैसे देता. मैं व्यग्र हूं. आप संत हैं. सबको उचित राह बताते हैं।


🔴 राजा एक प्रकार से गिड़गिड़ा रहा था और संत चुपचाप सुन रहे थे जैसे उन्हें उस पर दया ही न आ रही हो. फिर बोल पड़े सुनो अपने उलझन का उत्तर।


🔵 सन्त बोले- सुनो, यदि मेरे मन में तुमसे मिलने का विचार आता तो कई अड़चनें आतीं और बहुत देर भी लगती. मैं आता, तुम्हारे दरबारियों को सूचित करता. वे तुम तक संदेश लेकर जाते।


🔴 तुम यदि फुर्सत में होते तो हम मिल पाते और कोई जरूरी नहीं था कि हमारा मिलना सम्भव भी होता या नहीं।


🔵 परंतु जब तुम्हारे मन में मुझसे मिलने का विचार इतना प्रबल रूप से आया तो सोचो कितनी देर लगी मिलने में?


🔴 तुमने मुझे अपने सामने प्रस्तुत कर देने के पूरे प्रयास किए. इसका परिणाम यह रहा कि घड़ी भर से भी कम समय में तुमने मुझे प्राप्त कर लिया।


🔵 राजा ने पूछा- परंतु भगवान् के मन में हमसे मिलने का विचार आए तो कैसे आए और क्यों आए?


🔴 सन्त बोले- तुम्हारे मन में मुझसे मिलने का विचार कैसे आया?


🔵 राजा ने कहा‒ जब मैंने देखा कि आप एक ही धुन में चले जा रहे हैं और सड़क, बाजार, दूकानें, मकान, मनुष्य आदि किसी की भी तरफ आपका ध्यान नहीं है, उसे देखकर मैं इतना प्रभावित हुआ कि मेरे मन में आपसे तत्काल मिलने का विचार आया।


🔴 सन्त बोले- यही तो तरीका है भगवान को प्राप्त करने का. राजन् ! ऐसे ही तुम एक ही धुन में भगवान् की तरफ लग जाओ, अन्य किसी की भी तरफ मत देखो, उनके बिना रह न सको, तो भगवान् के मन में तुमसे मिलने का विचार आ जायगा और वे तुरन्त मिल भी जायेंगे।


👉 सम्मान पाने के लिए कष्टों से गुजरना पड़ता है।


🔵 बार-बार पैरों तले कुचले जाने के कारण मिट्टी अपने भाग्य पर रो पड़ी। अहो! मैं कैसी बदनसीबी हूँ कि सभी लोग मेरा अपमान करते हैं। कोई भी मुझे सम्मान की दृष्टि से नहीं देखता जबकि मेरे ही भीतर से प्रस्फुटित होने वाले फूल का कितना सम्मान है। फूलों की माला पिरोकर गले में पहनी जाती है। भक्त लोग अपने उपास्य के चरणों में चढ़ाते हैं। वनिताएं अपने बालों में गूंथ कर गर्व का अनुभव करती हैं। क्या ही अच्छा हो कि मैं भी लोगों के मस्तिष्क पर चढ़ जाऊं!


🔴 मिट्टी के अंदर से निकलती हुई आह को जानकर कुंभकार बोला- मिट्टी! तुम यदि सम्मान पाना चाहती हो तो तुम्हें बड़ा सम्मान दिला सकता हूँ लेकिन एक शर्त है।


🔵 'एक क्या तुम्हारी जितनी भी शर्ते हों, मुझे सभी स्वीकार हैं। बस मुझे लोगों के पैरों तले से हटा दो,' कुंभकार की बात को बीच में ही काटते हुए मिट्टी ने कहा।


🔴 'तो फिर ठीक है, तैयार हो जाओ'- कहते हुए कुंभकार ने जमीन खोदकर मिट्टी बाहर निकाली। उसे घर ले आया। पानी में डालकर उसे बहुत समय तक गीली रखा। इतना ही नहीं फिर पैरों से उसे खूब रौंदा। कष्टों को सहते हुए मिट्टी बोली, 'अरे भाई! मै सम्मान का पात्र कब बनूंगी?'


🔵 'मिट्टी बहिन! धैर्य रखो। अभी सहती जाओ, तुम्हें इसका मधुर फल जरूर मिलेगा।'


🔴 कुंभकार की बात सुनकर मिट्टी कुछ नहीं बोली।


🔵 कुंभकार ने मिट्टी को चाक पर चढ़ाया और उसे तेजी से घुमाते हुए घड़े का रूप दिया। फिर धूप में सुखाया। कष्ट सहते-सहते जब मिट्टी का धैर्य टूटने लगा तो कुंभकार बोला, 'बस बहन! अब केवल एक अग्नि-परीक्षा ही शेष है। और सभी में तुम उत्तीर्ण हो चुकी हो। यदि उसमें भी उत्तीर्ण रही तो लोग सती सीता की तरह तुम्हें भी मस्तक पर चढ़ा लेंगे। सीता को लोग सिर झुकाकर सम्मान देते हैं किन्तु तुम्हें तो वनिताएं सिर पर सजा कर घूमेंगी। '


🔴 आखिर मिट्टी ने सब कुछ सह कर अग्नि-परीक्षा भी उत्तीर्ण कर ली। फिर क्या था! सचमुच सुंदरियां उसे सिर पर उठाए फिरने लगी। मिट्टी अपने सम्मान पर प्रफुल्लित हो उठी। आखिर सम्मान पाने के लिए कष्ट तो सहने ही पड़ते हैं।


👉 गुरु नानक की सज्जनोचित उदारता


🔵 सिक्ख संप्रदाय के आदि गुरु- गुरु नानक प्रारंभ से ही बडे उदार और दयावान् थे। किसी को कष्ट देना तो वे जानते ही न थे। संतों की सेवा और उनके सत्संग में उन्हें बडा आनंद आता था। जब कभी भी उन्हें इसका अवसर मिलता था तो उसका लाभ अवश्य उठाते थे। उनके इन्हीं गुणों ने उन्हें एक उच्च कोटि का महात्मा बना दिया। उन्होंने अपना सारा जीवन लोगों को सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा देने मे लगा दिया।


🔴 एक अच्छे ज्ञानी और संत होने पर भी गुरु नानक ने अपने आवश्यक कर्तव्यों से कभी मुँह नहीं मोडा। उन्हें जो भी काम दिया जाता था उसे करने में कभी संकोच नहीं करते थे। एक बार उनके पिता ने उन्हें खेती का काम करने के लिए नियुक्त किया। गुरु नानक ने उसे खुशी-खुशी स्वीकार कर लिया। उन्होंने अपने हाथ से खेती का सारा काम करके बडी अच्छी फसल तैयार की। पकने तक फसल की रखवाली करने का काम भी उन्हें सौंपा गया और वे फसल की रखवाली भी करने लगे।


🔵 एक बार कुछ गाएँ आकर फसल खाने लगीं नानक ने उन्हें डाँटा, फटकारा और ललकारा लेकिन गायों ने एक न सुनी और वे सारा खेत खा गई। पिता को पता चला तो वे नानक से बडे नाराज हुए-बोले "तूनै गायों को भगाया क्यों नहीं" नानक ने कहा-"मैंने तो उन्हें बहुत मना किया, डाँटा-ललकारा भी, लेकिन वे इतनी भूखी थीं कि मानी ही नहीं।" पिता ने और डाँटा और कहा-"बेवकूफ अगर वे ललकारने से नहीं भागी तो चार-चार डंडे क्यों नहीं जड दिए" नानक ने तुरंत उदास होकर उत्तर दिया- भला मैं भूखी गौ माताओं को डंडे से मारने का पाप कैसे करता, वे बेचारी खुद तो खेती करती नहीं। आदमियों के ही सहारे रहती हैं। हमारी खेती में भगवान् ने उनका भी अंश रखा होगा तभी तो आकर खा गई।


🔴 पिता ने नानक की अटपटी बातों में एक सार देखा और फिर उसके बाद कुछ नहीं कहा।


🔵 एक बार गुरु नानक खेत रखाते हुए एक पेड की छाया में लेटे हुए थे। लेटे-लेटे उनकी आँख लग गई। तभी  ऊपर से गाँव का एक परिचित व्यक्ति निकला। वह क्या देखता है कि गुरु नानक सो रहे है और उनके सिर पर एक सर्प फन फैलाए पास ही जड़ पर बैठा है। वह इस कौतुक को देखने के लिये थोडा आगे बढ़ा तो आहट पाकर सर्प चला गया। उस आदमी ने नानक को जगाया और सर्प वाली बात नहीं बतलाई, लेकिन इतना जरूर कहा बेटा! ऐसी वैसी जगह बेखबर मत सो जाया करो।


🔴 उस व्यक्ति ने इस पिषय में सुन रक्खा था कि जिसके सिर पर सर्प फन की छाया कर देता है, वह बडा भाग्यवान् और भविष्य में बडा़ आदमी होता है। उसने यह घटना नानक के पिता को बतलाकर कहा- ''भाई अपने लड़के से ऐसे-वैसे काम न लिया करो। यह बडा नक्षत्री आदमी है। संसार में बडा यश पायेगा। इसे किसी अच्छे काम में लगाओ।''


🔵 नानक के पिता ने उन्हें रुपये दिए और कहा- 'तू बडा़ नक्षत्री बतलाया जाता है। आ कुछ कार-रोजगार करके धन कमा तो जानूँ कि तू नक्षत्री है। भाग्यवान् होगा तो खूब दौलत कमाकर बड़ा आदमी बन जायेगा। गुरुनानक पैसा लेकर रोजगार करने चले तो रास्ते में सबसे पहले उनकी भेंट भूखे-नंगे भिखमगों से हो गई। नानक को उनकी दशा पर बड़ी दया आई और उन्होंने उन गरीबों को भोजन कराया और कपड़े मोल ले दिए। जो कुछ पैसा बचा उसे लेकर आगे बढे तो अनेक साधु-संतों का साक्षात्कार हो गया। उन्होंने उनका सत्संग किया और उनकी बातों तथा शिक्षण में बडा सार पाया। नानक ने बहुत समय तक जी भर उनका सत्संग किया और सारा पैसा उनकी सेवा में खर्च कर दिया। जब नानक सत्संग का लाभ उठाकर घर लौटे तो बिल्कुल खाली हाथ थे।


🔴 पिता ने पूछा- 'बता क्या रोजगार किया! लाभ की आशा है या नहीं ?'' नानक ने बडे विश्वास से और हर्ष के साथ उत्तर दिया-रोजगार तो मैंने किया जिसका अवसर जल्दी-जल्दी किसी को मिलता नहीं और अगर मिलता भी है तो दुर्भाग्य से उसका साहस नहीं पडता। जहाँ तक लाभ की बात है, सो तो लोक से परलोक तक और जन्म से जन्मांतर तक लाभ ही लाभ है।


🔵 पिता की कुछ समझ में नहीं आया बोले- साफ-साफ बतला क्या कमाई की, और ला कमाई कहाँ है ?" नानक ने सारी घटना बतला दी तो पिता ने हताश होकर कहा-राम जाने तू कैसा नक्षत्री है, नानक के इन्हीं गुणों ने उन्हें एक विख्यात संत बनाकर संसार से तार दिया।


🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य

🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 159, 160


👉 ऐसी सीख न दीजिए


🔵 सुप्रसिद्ध दार्शनिक कन्फ्यूशियस के बुद्धिमान् शिष्य चाँग-होचाँग एक बार देश भ्रमण के लिए निकले। प्रजा की भलाई के लिए सामाजिक अध्ययन और उपयुक्त वातावरण का शोध इस भ्रमण का मुख्य उद्देश्य था।


🔴 घूमते-घूमते चाँग ताईवान पहुँचे। एक युवक माली कुँए से जल निकाल रहा था, बाल्टी पानी निकालने और फिर ढोकर हेर पौधे तक पहुँचाने में उसे बहुत अधिक परिश्रम करना पड रहा था तो भी काफी काम बाकी पड़ा था। चाँग को उस पर बडी दया आई। काफी देर सोचते रहे कोई ऐसा उपाय नहीं है क्या, जिससे माली का परिश्रम हलका किया जा सके।


🔵 विचार करे तो सैकडो़ वर्षों की सडी़-गली परंपराएँ रीति-रिवाज भी सगे-संबंधी की तरह चिपके कष्ट देते रहते हैं, पर विचार की एक छोटी-सी चिनगारी भी उन्नतियों के राजमहल खड़ी कर सकती है। चाँग ने सोचा यदि लकडी़ की एक घिर्री बनाकर उसमें रस्सी लपेटकर खड़े-खड़े ही खींचने का प्रबध हो जाए और यहीं से प्रत्येक वृक्ष तक के लिए नाली खोद ली जाए, तो माली का यथेष्ट श्रम बच सकता है। इतने ही परिश्रम में वह पहले से अधिक काम कर सकता है।


🔴 माली ने इस योजना के लाभ समझे और उसे मान लिया। ढेंकलीनुमा व्यवस्था हो गई। माली वहीं खडा-खड़ा पानी निकाल कर पौधे सींचने लगा।


🔵 समय तो बचा, पर माली ने देखा उसके चलने-फिरने-झुकने-लचकने के कई व्यायाम अब नहीं रहे इसलिए शरीर के कुछ अंग शिथिल रहने लगे हैं, तो भी उसे इस बात का संतोष था कि तब से कुछ काम अधिक हो जाने से शरीर का हर अवयव का कुछ-न-कुछ तो क्रियाशील हो ही जाता है इसलिए स्वास्थ्य में गिरावट की कोइ विशेष चिंता नहीं हुई।


🔴 चाँग आगे बढ़ गए। बहुत दूर तक घूम चुकने के बाद वे फिर से उसी रास्ते वापस लौटे तो उनके मस्तिष्क में एक और बात याद आई कि यदि कुएँ में भाप से चलने वाली गशीन डाल दी जाए तो परिश्रम भी बिलकुल कम हो जाए और वृक्षों को जल भी खूब मिलने लगे। माली ने वह प्रस्ताव भी स्वीकार कर लिया। भाप का इंजन लग गया, माली को चैन हो गया।


🔵 काफी दिन बीतने के बाद एक दिन चाँग की इच्छा उस बाग को देखने की हुई, उसने सोचा था बगीचा अब लहलहा रहा होगा, पर वहाँ जाकर देखा तो स्तब्ध रह गया। पूछने पर पता चला, माली बीमार रहता है, इसलिये समय बे समय ही पानी मिल पाता है, इसी से पेड-पौधे मुरझा रहे हैं।


🔴 चाँग माली को देखने उसके घर गए। सचमुच माली बीमार था। उसके हाथ सूख गए थे, टाँगे कमजोर हो गई थीं, पेट दो रोटी से ज्यादा नहीं पचा सकता था, माली का मुँह पीला पड गया था।


🔵 चाँग ने हँसकर पूछा- कहो भाई, अभी भी अधिक परिश्रम करना पड़ता है क्या तो कोई और तरकीब सोचें। पास खडी मालिन ने कहा-श्रीमान् जी, और तरकीब लडाने की अपेक्षा तो आप इन्हें ऐसी सीख दीजिए कि पहले की तरह फिर से अपने हाथ से ही काम करने लगें। ढेंकली का आराम ही इनकी बीमारी का कारण है। चाँग अपने एकांगी चिंतन पर बहुत पछताए, उन्होंने सोचा मनुष्य यांत्रिक और बिना परिश्रम के जीवन के आकर्षण में न पडता तो वह क्यों अस्वस्थ होता, क्यों रोगी ? उसने माली से अपनी स्त्री की ही राय मान लेने की सीख दी और वही से वापस चला आया। माली अपनी पूर्व जीवन पद्धति में आकर पुन: स्वस्थ हो गया पर उसकी छूत आज की पीढ़ी को लग गई, जो मशीनों से काम लेकर स्वयं आराम से बैठा केवल कलम घिसना चाहता है। माली की तरह वह न तो उत्पादन बढा पाता है न बीमारी हटा पाता है। केवल मशीनें बढ़ रही है और मनुष्य उसमें निरंतर दबता पिसता चला जा रहा है।


🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य

🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 157, 158


👉 सीमित से असीम जीवन की ओर


🔵 शंकराचार्य जी अपनी माता की इकलौती संतान थे। माता ने सतान प्राप्ति के लिये शिव की घोर तपस्या की। तपस्या के फलस्वरूप जो संतान मिली-उसका नाम शंकर रखा।


🔴 साधारण स्त्रियों की तरह वे भी यही स्वप्न देखा करतीं थी कि कुछ ही दिनों में जब हमारा शंकर और बड़ा हो जायेगा तो उसका ब्याह करुँगी। बहू घर में आयेगी। हमारा घर भी कुछ ही दिनों में नाती पोतों से भरा-पूरा हो जायेगा। बहू की सेवाओं से हमें भी तृप्ति मिलेगी। जीवन की अंतिम घडियाँ सुख-शांति और वैभवपूर्ण ढ़ंग से समाप्त होंगी। ज्यो-ज्यों शकर बडे होते जाते, माता का वह स्वप्न और भी तीव्र होता जाता।


🔵 जन्म-जात प्रतिभा-संपन्न शंकर का ध्यान जप, तप, पूजा-पाठ और दूसरे की सेवा, सहायता में ही अधिक लगता था। ज्ञानार्जन करना और इस प्रसाद को दूसरों तक वितरित करने की एक आकांक्षा हृदय के एक कोने से धीरे-धीरे प्रदीप्त हो रही थी। समाज की दयनीय दशा देखकर, उन्हे तरस आ रहा था। समाज को एक प्रखर, सच्चे और एकनिष्ठ सेवक की उन्हें आवश्यकता प्रतीत हो रही थी। ऐसे विषम समय में वे अपनी प्रतिभा को सांसारिक माया-जाल मे फँसाकर नष्ट नहीं करना चाहते थे।


🔴 उधर माता बच्चे की ऐसी प्रवृति को देखकर खिन्न हो रही थी। वे अपने किशोर शंकर को यही समझाया करती थीं कि वह घर गृहस्थी सँभाले, आजीविका कमाए और विवाह कर ले।


🔵 किशोर शंकर को माता के प्रति अगाध निष्ठा थी। वे उनका पूरा सम्मान करते थे और सेवा-सुश्रूषा में रंच मात्र भी न्यूनता नहीं आने देते थे। फिर भी अंतरात्मा यह स्वीकार न कर रही थी कि मोहग्रस्त व्यक्ति यदि अविवेकपूर्ण किसी बात का आग्रह कर रहा हो तो भी उसे स्वीकार ही कर लिया जाए। माता की ममता का मूल्य बहुत है, पर विश्व-माता मानवता की सेवा करने का मूल्य उससे भी अधिक है। विवेक ने- "बडे के लिए छोटे का त्याग" उचित बतलाया है। अंतरात्मा ने ईश्वर की अतरंग प्रेरणा का अनुभव किया और उसी को ईश्वर का निर्देश मानकर शंकर ने विश्व-सेवा करने का निश्चय किया।


🔴 माता को कष्ट न हो, स्वीवृति भी मिल जाए। ऐसा कौन-सा उपाय हो सकता है-यही उनके मस्तिष्क में गूँजने लगा। सोचते-सोचते एक विचित्र उपाय सूझा। एक दिन माता पुत्र दोनों नदी मे स्नान करने साथ-साथ गए। माता तो किनारे पर ही खडी रही, पर बेटा उछलते-कूदते गहरे पानी तक चला गया। वहाँ उसने अपने उपाय का प्रयोग किया। अचानक चिल्लाया-बचाओ। कोई बचाओ 'मुझे मगर पकड़े लिए जा रहा है। बेटे की चीत्कार सुनकर माता घबडा गई। किकर्तव्यविमूढ़ता की स्थिति में उन्हें कोई उपाय ही न सूझ रहा था। बेटे ने माता से कहा- 'माता मेरे बचने का एक ही उपाय अब शेष है। तुम मुझे भगवान् शंकर को अर्पित कर दो। वही मेरी प्राण रक्षा कर सकते है'' मर जाने से जीवित रहने का मूल्य अधिक है। भले ही लड़का संन्यासी बनकर रहेगा-यह निर्णय करते माता को देर न लगी। उन्होंने भगवान् शंकर की प्रार्थना की कि- मेरा बेटा मगर के मुख से निकल जाए तो उसे आपको समर्पित कर दूँगी। इतना कहते ही बेटे की आंतरिक प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। वह धीरे-धीरे किनारे पर आ गया।


🔵 इस प्रकार विश्व-सेवा के प्रेम और मानवता की सेवा की सच्ची निष्ठा ने ममता और मोह पर विजय पाई। यह युवक शंकर-संन्यासी शंकराचार्य के रूप में धर्म एवं संस्कृति की महान् सेवा में प्रवृत हुए।


🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य

🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 154, 155


👉 अंधविश्वास का पर्दाफाश


🔵 सिक्ख संप्रदाय के दसवें गुरु गोविंदसिंह एक महान् योद्धा होने के साथ बडे बुद्धिमान् व्यक्ति थे। धर्म के प्रति उनकी निष्ठा बडी गहरी थी। वह धर्म के लिए ही जिए और धर्म के लिए ही मरे। धर्म के प्रति अडिग आस्थावान् होते हुए भी वे अंधविश्वासी जरा भी न थे और न अंधविश्वासियों को पसंद करते थे।


🔴 गुरु गोविंदसिंह का संगठन और शक्ति बढा़ने की चिता में रहते थे। उनकी इस चिंता से एक पंडित ने लाभ उठाने की सोची। वह गुरु गोविंदसिंह के पास आया और बोला-यदि आप सिक्खो की शक्ति बढाना चाहते हैं, तो दुर्गा देवी का यज्ञ कराइए। यज्ञ की अग्नि से देवी प्रकट होगी और वह सिक्खों को शक्ति का वरदान दे देगी। गुरु गोविंदसिंह यज्ञ करने को तैयार हो गये। उस पंडित ने यज्ञ कराना शुरू किया।


🔵 कई दिन तक यज्ञ होते रहने पर भी जब देवी प्रकट नही हुइ तो उन्होंने पंडित से कहा-" महाराज! देवी अभी तक प्रकट नहीं हुई।'' धूर्त पंडित ने कहा-देवी अभी प्रसन्न नहीं हुई है। वह प्रसन्नता के लिये बलिदान चाहती है। यदि आप किसी पुरुष का वलिदान दे सकें तो वह प्रसन्न होकर दर्शन दे देगी और बलिदानी व्यक्ति को स्वर्ग की प्राप्ति होगी।


🔴 देवी की प्रसन्नता के लिए नर बलि की बात सुनकर गुरु गोविंदसिंह उस पंडित की धूर्तता समझ गए। उन्होंने उस पडित को पकडकर कहा- 'बलि के लिए आपसे अच्छा आदमी कहाँ मिलेगा। आपका बलिदान पाकर देवी तो प्रसन्न हो ही जायेगी, आपको भी स्वर्ग मिल जायेगा। इस प्रकार हम दोनों का काम बन जाएगा। गुरु गोविंदसिंह का व्यवहार देखकर पंडित घबरा गया, गुरु गोविंदसिंह ने बलिदान दूसरे दिन के लिए स्थगित करके पंडित को एक रावटी में रख दिया।


🔵 पंडित घबराकर गुरु गोबिंदसिंह के पैरों पर गिर पड़ा और गिडगिडाने लगा-'मुझे नहीं मालूम था कि बलिदान की बात मेरे सिर पर ही आ पडेगी, गुरु जी, मुझे छोड़ दीजिए। मैं आपसे क्षमा माँगता हूँ। गुरु गोविंदसिंह ने कहा क्यों घबराते हो ? बलिदान से तो स्वर्ग मिलेगा, क्यों पंडित जी, बलिदान की बातें तभी तक अच्छी लगती हैं न जब तक वह दूसरों के लिए होती हैं? अपने सिर आते ही असलियत खुल गई न।''


🔴 पंडित बोला- इस बार क्षमा कर दीजिए महाराज। अब कभी ऐसी बातें नहीं करूँगा।'' गुरु गोविंदसिंह ने उसे छोड़ दिया और समझाया-इस प्रकार का अंध-विश्वास समाज में फैलाना ठीक नही। देवी अपने नाम पर किसी के प्राण लेकर प्रसन्न नहीं होती। वह प्रसन्न होती है अपने नाम पर किए गए अच्छे कामो से। '' बाद में गुरु गोविंदसिंह ने उसे रास्ते का खर्च देकर भगा दिया। गोविदसिंह ने सिक्खों को समझाया। किसी देवी-देवता के नाम पर जीव हत्या करने से न तो पुण्य है और न शक्ति। धर्म के नाम पर किसी जीव का प्राण लेना घोर पाप है। शक्ति बढती आपस में प्रेम रखने से, धर्म का पालन करने से। शक्ति बढ़ती है-ईश्वर की उपासना करने से और उसके लिए त्याग-करने से। शक्ति बढ़ती है-अन्याय और अत्याचार का विरोध और निर्बल तथा असहायों की सहायता करने से। सभी लोग एक मति और एक गति होकर संगठित हो जाएँ और धर्म रक्षा में रणभूमि में अपने प्राणो की बलि दें। देवी इसी सार्थक बलिदान से प्रसन्न होगी और आज के इसी मार्ग से मुक्ति मिलेगी। अंध-विश्वास के आधार पर अपनी जान देने अथवा किसी दूसरे जीव की जान लेने से न तो देवी-देवता प्रसन्न होते हैं और न सद्गति मिलती है।


🔵 गुरु गोविंदसिंह के इन सार वचनों को सभी सिक्खों ने हृदयगम किया। उस पर आचरण किया और अपने जीवन का कण-कण देश धर्म की रक्षा में लगाकर ऐतिहासिक यश प्राप्त किया।


🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य

🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 151, 152


👉 हिम्मत इंसान की मदद भगवान् की


🔵 सन् १९३९ तब रूस के मुखिया स्टालिन थे। फिनलैंड के कई बंदरगाह रूस के लिए सामरिक महत्त्व के थे, इसलिये उन्होंने अपनी शक्ति के बल पर फिनलैंड को धमकी दी-यह बंदरगाह रूस को दे दिये जाएँ? यदि फिनलैंड ने बात न मानी तो रूस शक्ति प्रयोग करना भी जानता है।''


🔴 वह वैसा ही अपराध था जैसे चोरी, डकैती, अपहरण या लूटपाट। यदि संसार में शक्ति और सैन्यबल ही सब कुछ हो तो फिर न्याय-नीति आदि सद्भावनाओ को प्रश्रय कहॉ मिले? पर किया क्या जाए? ऐसे लोग भी इस दुनिया में हैं, जो केवल शक्ति और उद्दंडता की भाषा समझते हैं। इनसे रक्षा भी हिम्मत से ही करनी पडती है। स्वल्प क्षमता के लोग साहसपूर्वक संघर्ष कर बैठते हैं तो उनकी मदद भगवान् करता है। बाहर से दिखाई देने वाला राक्षसी बल तब जीतता है, जब अच्छाई की शक्तियॉ भले ही सीमित सही-संघर्ष करने से भय खा जाती है।


🔵 फिनलैण्ड़ की कुल २ लाख सेना रूस की ४० लाख की विशाल सेना और आधुनिक शस्त्र सज्जा के सामने जा डटी। रूसियों को अनुमान था- प्रात: होते देर है, फिनलैंड को जीतना देर नहीं, उनको यह आशा महंगी पडी।


🔴 एक स्थान पर फिनलैंड के एक सेनाधिकारी लेफ्टिनेंट हीन सारेला को नियुक्त किया गया। साथ में कुल ४९ सिपाही थे। हथियार भी उस समय के जब बंदूके बनना प्रारभ हुईं थीं। रात से ही रूसी टैंको की गडगडा़हट सुनाई देने लगी। रूसी सेना मार्च करती हुई बढी चली आ रही थी।


🔵 ४९ सैनिकों के आगे हजारों की सेना। सैनिकों ने हाथ ढीले कर दिए और कहा- भेड़िये-भेड का युद्ध नहीं होता। लडाना है तो हमें आप ही मार डालिये। युद्ध के मोर्चे पर आगे बढ़ना तो एक प्रकार से जानबूझकर हमारी हत्या कराना है। लेफ्टिनेंट सारेला का माथा ठनक गया। यह बात उसके अपने मन में आई होती तो वह गोली मार लेता-उसने कडककर कहा-सैनिको! यह मत भूलो संसार में वही जातियाँ जीवित रहती है, जो संघर्ष से नहीं घबडातीं। जो बाह्य आक्रमण का मुकाबला नहीं कर सकते वह अपने सामाजिक जीवन में दृढ़ नही हो सकते। प्रतिरोध से घबडाने वाले लोगों में अपने से ही उद्दंड और अभद्र लोग पैदा हो जाते हैं और सामाजिक शांति एवं व्यवस्था को चौपट कर डालते हैं। पाप, दुर्भाव, उद्दंडता और उच्छृंखलता मुर्दा जातियों के जीवन में पाई जाती है। साहसी शूर-वीरो के राज्य में चोर, उठाईगीर क्या-डकैत, आतताई लोग भी मजदूरी करते है। उनमें अंधविश्वास और रूढिवादिता नहीं, पौरुष और पराक्रम का विकास होता है, इसलिये वे थोड़े-से भी हों तो भी संसार में छाए रहते हैं। निश्चय करो, तुम्हें पराधीनता का जीवन जीना है या फिर शानदार जीवन की प्राप्ति के लिए संधर्ष की तैयारी करनी है।


🔴 सैनिको के हृदयों में सारेला का तेजस्वी भाषण सुनकर विद्युत् कौंध गई। हथियार उठा-उठाकर उन्होंने प्रतिज्ञा की लडे़ंगे और रक्त की आखिरी बूंद तक संघर्ष करेंगे।


🔵 मुट्ठी-मर जवान विकराल दानवी सेना से जूझ पडे। ४९ जवान दिन भर कुछ खाए-पिए बिना जमीन में रैंगते शत्रुओ को मारते हुए आगे बढते गए और जब उस दिन का युद्ध समाप्त हुआ तो संसार के अखबारो ने बडे़ बडे़ अक्षरों में छापा-मुट्ठी भर फिनलैण्ड़ के सिपाहियो ने रूसी सेना की अग्रिम पंक्ति के बीस हजार सैनिकों को कुचलकर रख दिया। ५० गाडियों और १२० टेंकों को भी उन्होंने ध्वस्त करके रख दिया था।


🔴 सच है जिंदा दिल कौमें बुराइयों और अपराधों के आगे घुटने नही टेकती, उनसे लड पडती है और विजय पाती हैं। हिम्मत करने वाले इंसान की मदद भगवान् करता है। स्टालिन जैसे सशक्त व्यक्ति ने भी इस पराजय को चमत्कार ही माना था।


🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य

🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 149, 150



👉 शंकर मिश्र की माँ की प्रतिज्ञा


🔵 दरभंगा में एक तालाब है। उसे 'दाई का तालाब' कहते है। तालाब के निर्माण का इतिहास सज्जनता और ईमानदारी, कर्तव्यपरायणता और नैतिकता का जीता-जागता आदर्श है। उसे पढ़कर जीवन के निष्काम प्रेम की अनुभूति का आनंद मिलता है।


🔴 शंकर मिश्र जन्मे तब इनकी माता जी के स्तनों में दूध नहीं आता था। बच्चे को प्रारंभ से ही ऊपर का दूध दिया नही जा सकता था, इसलिए उसे किसका दूध दिया जाए? यह एक संकट आ गया।


🔵 एक धाय रखनी पड़ी। इस धाय ने शंकर को अपना बच्चा समझकर दूध पिलाया। मातृत्च का जो भी लाड़ और स्नेह एक माँ अपने बच्चे को दे सकती है, धाय ने वही स्नेह और ममता बच्चे को पिलाई। आज के युग में जब भाई-भाई एक-दूसरे को स्वार्थ और कपट की दृष्टि सें देखते हैं, तब एक साधारण स्त्री का यह भावनात्मक अनुदान स्वर्गीय ही कहा जा सकता है। संसार के सब मनुष्य जीवन के कठोर कर्तव्यों का पालन करते हुए भी यदि इस सुरह प्रेम कर्तव्यशीलता का व्यवहार कर सकें तो संसार स्वर्ग बन जाए।


🔴 शंकर मिश्र बढ़ने लगे। धाय उनकी सब प्रकार सेवा सुश्रूषा करती, नीति और सदाचार की बातें भी सिखाती। सामान्य कर्तव्य पालन में कभी ऐसा समझ में नहीं आया, जब बाहर से देखने वालों को यह पता चला हो कि यह असली माँ नही है। धाय के इस आत्म-भाव से शंकर की माँ बहुत प्रभावित हुई। एक दिन उन्होंने धाय की सराहना करते हुए वचन दिया तुमने मेरे बच्चे के अपने बच्चे जैसा पाला है, जब वह बडा हो जायेगा तो इसकी पहली कमाई पर तुम्हारा अधिकार होगा।'' कुछ दिन यह बात आई गई हो गई।


🔵 शंकर मिश्र बाल्यावस्था से ही संस्कृत के प्रकाड विद्वान् दिखाई देने लगे। बाद में तो उनकी प्रतिभा ऐसी चमकी कि उनका यश चारों ओर फैलता गया। उनकी एक काव्य-रचना पर तल्ललीन दरभंगा नरेश बहुत ही प्रभावित हुए। उन्होंने दरबार में बुलाकर उनका बडा सम्मान किया और उपहार स्वरूप एक हार भेंट किया। इसे लेकर शंकर घर आए और हार अपनी माँ को सौंप दिया।


🔴 हार बहुत कीमती था उसे देखकर किसी के भी मन में लोभ और लालच आ सकता था, पर यह सब सामान्य मनुष्यों के आकर्षण की बातें है। उदार हृदय व्यक्ति, कर्तव्यपरायण और आदर्शों को ही जीवन मानने वाले सज्जनों के लिए रुपये पैसे का क्या महत्व, मानवता जैसी वस्तु खोकर धन, संपत्ति, पद, यश प्रतिष्ठा कुछ भी मिले निरर्थक है, उससे आत्मा का कभी भला नही होता।


🔵 शंकर मिश्र की माता ने धाय को बुलाया और अपनी प्रतिज्ञा की याद दिलाते हुए हार उसे दे दिया। धाय हार लेकर घर आई। उसे शक हुआ हार बहुत कीमती है, तो उसकी कीमत जंचवाई। जौहरियों से पता चला कि उसकी कीमत लाखों रुपयों की है। लौटकर धाय ने कहा- माँ जी मुझे तो सौ-दो सौ की भेंट ही उपयुक्त थी। इस कीमती हार को लेकर मैं क्या करूँगी ? कहकर हार लौटाने लगी।


🔴 पर शंकर की माँ ने भी दृढता से कहा- जो भी हो एक बार दे देने के बाद चाहे वह करोड़ की संपत्ति हो मेरे लिए उसका क्या महत्व ? हार तुम्हारा हो गया-जाओ। उन्होंने किसी भी मूल्य पर हार स्वीकार न किया।


🔵 विवश धाय उसे ले तो गई पर उसने कहा- जो मेरे परिश्रम की कमाई नहीं उसका उपयोग करूँ तो वह पाप होगा। अतएव उसने उसे बेचकर एक पक्का तालाब बनवा दिया।


🔴 यही तालाब 'धाय का तालाब' के नाम से शंकर की माँ के वचन और धाय की उत्कृष्ट नैतिकता के रूप में आज भी लोगों को प्रेरणा देता है।


🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य

🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 146, 147


👉 मानवता के हित में महत्त्वाकांक्षा त्यागी


🔵 घटना उस समय की है, जब यमन के राष्ट्रपति अब्दुल्ला सलाल को अपदस्थ कर रिपब्लिकन नेता श्री रहमान हरयानी को सत्तारूढ किया गया। यह क्रांति रक्तहीन था। बाद में प्रकाशित समचारों से पता चला है कि जन-जीवन को रक्तपात और लूटमार से बचाने का संपूर्ण श्रेय अपदस्थ राष्ट्रपति सलाल को ही था।


🔴 इस युग में जब कि हर देश के नेता अपनी स्वार्थलिप्सा और महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए घृणित से घृणित कार्य करने से भी नहीं चूकते, श्री सलाल ने एक आदर्श सिद्धांत स्थापित किया है कि कोई बात मानवता के हित में है तो उसके लिए अपनी महत्वाकांक्षाओं को ठुकराया भी जा सकता है। श्री सलाल के इस आदर्श ने उनकी खोई प्रतिष्ठा से भी अधिक उन्हें श्रेय और सम्मान दिलाया।


🔵 राष्ट्रपति सलाल जब सत्तारूढ थे, तभी उनकी कई नीतियों का यमन मे तीव्र विरोध चल रहा था। जन-चेतना को सामूहिक शक्ति आज के युग की प्रबलतम शक्ति गिनी गई है। संगठित व्यक्तियों के आगे वैसे भी किसी की चल नहीं सकती। यदि जनतंत्र में बौद्धिक जागृति हो तब तो उसका मुकाबला सेना और तलवारें भी नहीं कर सकती। यदि कुछ हो सकता है तो संघर्ष और रक्तपात अवश्य हो सकता है। यमन में उसी की तैयारी चल पडी थी और अब्दुल्ला सलाल को उस सबकी पूरी और पक्की जानकारी भी थी।


🔴 राष्ट्रपति सलाल सत्तारूढ थे, चाहते तो गृह युद्ध करा देते। अपने अनेक विरोधियों को मारकर वे उस अस्थिरता को समाप्त भी कर सकते थे पर सिद्धॉंतवादी व्यक्ति अपने शत्रु के साथ भी अमानवीय का व्यवहार नहीं करते, यह जो कुछ हो रहा था, वह तो उनके ही देशवासी कर रहे थे, उसके प्रति सलाल जैसा सहृदय व्यक्ति क्रूर एवं कठोर क्यों होता ?


🔵 उन्होंने बगदाद और मास्को यात्रा का कार्यक्रम इसी उद्देश्य से बनाया। एक पक्ष जब निबल पड जायेगा तो गृह-युद्ध की स्थिति ही न आने पायेगी। विरोधी व्यक्तियों ने समझा, यह सब विद्रोह के लिए अच्छा रहेगा। बाद मे सही स्थिति का पता चला तो वह लोग, जिन्होंने श्री सलाल के विरुद्ध बगावत की थी, वह भी उनकी प्रशंसा किये बिना न रहे।


🔴 सबसे पहले अल अनवर समाचार पत्र ने यह खबर देते हुए बताया कि श्री सलाल जब बगदाद यात्रा के लिए चलने लगे तो उन्होंने विद्रोही नेता श्री अनवर हरयानी को पत्र लिखा कि अपने देश को रक्तपात और दूसरे देशों के सामने शर्मिदगी से बचाने के लिए मैं देश छोड रहा हूँ। मैं अपने विरुद्ध की गई हर तैयारी से अवगत हूँ किंतु अपनी प्रजा के अहित के साथ मेरा नाम जुडे मैं यह कभी नहीं चाहता। आप मेरा स्थान ग्रहण करने के लिए चुने गये हैं, तब तक आप गणराज्य बनाए रख सकते है। मैं पहला व्यक्ति हूँ जो इस बात का स्वागत करता हूँ।


🔵 राष्ट्रपति सलाल ने इसके बाद शेष जीवन बगदाद में ही रहकर ईश्वर की उपासना और आत्म-कल्याण में बिताने का निश्चय किया। सारे संसार के नेता ऐसे उदार और मानवता के हितैषी हो जाये तो रक्तपात की परिस्थितियाँ संसार में आए ही क्यों?


🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य

🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 143, 144


👉 बहादुर हो तो सच्चाई की राह पर बढ़ो


🔴 सन् १९२२ में अमावस्या की एक काली रात और वामक नदी का किनारा। गुजरात के प्रष्ठि समाजसेवी रविशंकर महाराज नदी के किनारे पगडंडी पर आगे बढ़ते चले जा रहे थे। तभी उनके कधे पर पीछे से हाथ रखते हुए किसी ने कहा- महाराज! आप आगे कहाँ जा रहे है ? चलिए वाप॑स लौट चलिए।


🔵 महाराज ने स्वर पहचान लिया, "पूछा कौन है? पुंजा"

हाँ महाराज आगे मत जाइए। आगे खतरा है।''

"कैसा खतरा है ?"

"आगे रास्ते में बहारबटिया छिपे है।"

"कौन ?---  नाम दरिया है।"


🔴 हाँ वही है। मेरी राय है कि आप आगे न जाएँ। व्यर्थ में ही इज्जत देने से क्या लाभ होगा ?


🔵 महाराज हँसे। उन्होंने कहा- "भाई मेरी इज्जत इतनी छोटी नहीं है जो थोडी-सी बात में समाप्त हो जाए। मैं उन्हीं की तलाश में इधर आया था। चलो अब तुम्ही मुझे वहीं तक पहुंचा दो, क्योंकि तुम्हारा सारा रास्ता देखा है और वह ठिकाने भी तुम्हे मालूम है जहाँ यह लोग छिपे रहते है।


🔴 नहीं-नहीं महाराज मेरी हिम्मत वहाँ जाने की नहीं है। अगर उन्होंने कोई हमला किया तो मैं आपको बचा भी न पाऊँगा और मेरे प्राण बेकार में चले जायेंगे।'


🔵 इतना कह पुंजा ठिठक गया। "अच्छा तो तुम रुको। मैं आगे जाता हूँ।" इतना कहकर महाराज आगे बढ़ गए।


🔴 वह चलते-चलते एक खेत की मेड पर खडे हो गए। इतने में ही उन्होंने देखा कि एक व्यक्ति साफा बाँधे बंदूक लिए उनकी ओर बढ़ता चला आ रहा है। जब दोनों के बीच की दूरी कम रह गई तो उसने सामने बंदूक तान दी।


🔵 महाराज खिलखिला कर हँस पडे। उन्हें वारदोली सत्याग्रह का स्मरण हो आया और उनका साहस दुगुना हो गया। वे बोले क्यो ? क्या आज अकेले ही हो ? तुम्हारे अन्य साथी कहाँ हैं ?


🔴 अब महाराज और बंदूकधारी दोनों ही पास की झोंपडी के निकट आ गए जहाँ अन्य डाकू छिपे थे। एक ने गरजकर कहा खबरदार! जो एक कदम भी आगे बढाया, और महाराज लापरवाही से उसी ओर बढ़ने लगे जिस ओर यह ललकार आई थी। सामने एक घुडसवार डकैत ने आकर पूछा- तुम कौन हो ?


🔵 मैं गाँधी की टोली का बहारबटिया हूँ। आओ हम लोग बैठकर बातचीत करें। मैं तुम सबको बुलाने ही तो आया हूँ।' इतना कहकर महाराज ने घोडे की लगाम पकडने के लिए हाथ बढा़ दिया।


🔴 सब लोग उसी झोंपडी के पास ही बैठ गये। महाराज ने समझाना शुरू किया 'भाइयो! यदि तुमको जौहर ही दिखाना है तो उन अंग्रेजों को क्यों नही दिखाते, जिन्होंने सारा देश ही तबाह कर दिया है। इन गरीबों को लूटकर मर्दानगी दिखाना तो लज्जा की बात है। अब गाँधी जी के नेतृत्व में शीघ्र ही आंदोलन शुरू होगा, यदि तुम में सचमुच पौरुष है, तो गोली खाने चलो। गाँधी जी ने तुम सबको आमंत्रित किया है। यह कहते-कहते महाराज के नेत्र सजल हो गये। गला रुँध-सा गया। डाकू इस अंतरग स्नेह से आविर्भूत हो उठे।


🔵 अपने हथियार डालते हुए उनके सरदार ने कहा-आप निश्चित होकर जाइए। आज हम आपके गॉव में डाका डालने को थे, पर अब नही डालेंगे। साथ में एक आदमी भेज देता हूँ।


🔴 महाराज ने कहा आप मेरी चिंता न करिए, मै अकेला ही आया था और अकेला ही चला जाऊँगा। साथ देना है तो उस काम में साथ दो जिसे गाँधी जी ने, भगवान् ने हम सबको सौंपा है।


🔵 डाकूओं में से कई ने कुकृत्य छोड़ दिये और कईयों ने सत्याग्रह आंदोलन में भारी सहयोग किया।


🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य

🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 143, 144



👉 वह व्यक्तित्व-जिसने सबका हृदय जीता


🔴 महात्मा गाँधी के व्यक्तित्व में एक विशेषता यह थी कि वह हर स्तर के व्यक्ति को प्रभावित कर लेते थे। बडे लोगों के प्रति लोगों में सम्मान एवं श्रद्धा का भाव तो होता है, किंतु आत्मीयता नहीं होती। इसी प्रकार छोटों की विशेषताओं की प्रशंसा तो करते हैं किंतु उनके प्रति समानता का व्यवहार नहीं कर पाते। गाँधी जी में वह गुण था जिसके कारण वह समाज के हर वर्ग के साथ आत्मीयता का भाव स्थापित कर लेते थे तथा स्नेह एवं सम्मान दोनों समान रूप से प्राप्त कर लेते थे। वह वास्तव में जन नेता कहे जा सकते थे और उनका जादू सर चढ़कर बोलता था। प्रस्तुत घटना से उनके व्यक्तित्व के इस पक्ष पर प्रकाश पड़ता है।


🔵 घटना दिसंबर सन् १९४५ की है। भारत को राजनैतिक स्वतंत्रता प्राप्त होना लगभग निश्चित हो गया था। किसी परामर्श वार्ता के सिलसिले में बंगाल के गवर्नर श्री आर० जी० केसी ने गाँधीजी को राजभवन में बुलाया था। श्री केसी प्रतिष्ठित आस्ट्रेलियायी राजनीतिज्ञ थे।


🔴 गाँधी जी के वार्तालाप में उन्हें इतना रस आया कि वे भोजन का समय भी भूल गये। वार्ता के मध्य किसी का जाना मना था, अत: कोई याद दिलाने भी न जा सका। वार्ता समाप्त हुई तो बापू उठकर चल दिए। उन्हें पहुंचाने पीछे-पीछे गवर्नर महोदय भी चल रहे थे। सामान्य शिष्टाचार के नाते भी तथा व्यक्तिगत रूप से गाँधी जी से प्रभावित होने के कारण भी उनका ऐसा करना स्वाभाविक था।


🔵 बाहर जाने के मार्ग में जब वह दोनों बडे़ हाल मे छँचे तो गवर्नर चौंक पडे़। उन्होंने देखा कि हाल में राजभवन के सारे के सारे कर्मचारी उपस्थित है। धोबी से रसोइए तक चौकीदार व अन्य कर्मचारियों से लेकर माली तक, सब मिलाकर लगभग जिनकी संख्या २०० थी, सबके सब उपस्थित थे। सभी शांति के साथ दो लंबी कतारों में खडे़ थे, मानो किसी को गार्ड ऑफ आनर देने की तैयारी है। निश्चित रूप से उन्हें किसी ने एकत्र होने को नही कहा था। वह तो बापू के प्रति सहज इच्छा के कारण उनके दर्शनार्थ एकत्र हो गये थे। उनमें से अनेक तो काम करते-करते वैसे ही भागकर आ गये थे। ऐसी पोशाक में थे कि उस अवस्था मे गवर्नर के सामने आना अनुशासनहीनता के रूप मे दंडनीय था, किंतु यहाँ वह गवर्नर के लिये नहीं, अपने प्यारे बापू के लिये आए थे। बापू यहाँ से गुजरे तो सबने श्रद्धा के साथ अभिवादन किया। उनका अभिवादन स्वीकार करते हुए बापू अपनी मुस्कान से सबको संतोष देते हुए आगे बड गए।


🔴 श्री केसी खोये-खोये से साथ थे। उन्हें कुछ कहते न बन पड़ रहा था। विचित्र वेशभूषा में कर्मचारियों को देख संकुचित भी थे तथा गाँधी जी के प्रति अनुराग देखकर चकित भी। बोले गाँधीजी! यकीन रखिये, मैंनै उन्हें एकत्र होने के लिए नहीं कहा था। बापू उत्तर न देते हुए, केवल मुस्कुराकर विदा माँगकर चल दिए। श्री केसी को उस समय तक इस विषय में शंका थी कि भारत में विभिन्न संप्रदायों को एक सूत्र में बिना भय के बॉधा जा सकता है, किंतु गाँधी जी का वह अनोखा गार्ड ऑफ आनर देखकर उनकी मान्यता बदल गई। उनके कर्मचारियों में अधिकांश मुसलमान व कुछ इसाई भी थे। उन्होंने स्वीकार किया कि देश के हर वर्ग के हृदय में गाँधी ने इतना गहरा स्थान बना लिया है इसकी उन्हें कल्पना भी नहीं थी।


🔵 जन-जन के अंतःकरण मे गाँधी जी ने इतना महत्वपूर्ण स्थान कैसे पा किया था यह अध्ययन का विषय है। उन्होंने जी जान से सबके हित का प्रयास किया था। अपना सब कुछ जनता को देकर ही उन्होने वह स्थान बनाया था, जो किसी भी जन नेता कहलाने वाले के लिए शोभनीय है। बिना उसके थोथी वाह-वाही भले ही कोई पा ले, न तो सही अर्थों में सबका स्नेह पा सकता है और न ही सफल नेतृत्व कर सकता है।


🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य

🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 141, 142



👉 घृणास्पद व्यक्ति नहीं, दुष्प्रवृति


🔵 खेतडी नरेश ने स्वामी विवेकानंद को एकबार अपनी सभा में आमंत्रित किया। स्वामीजी वहाँ गये भी और लोगों को तत्त्वज्ञान का उपदेश भी किया। समाज सेवा का प्रसंग आया और वे समझाने लगे कि मनुष्य छोटा हो या बड़ा, शिक्षित हो या अशिक्षित उसका अस्तित्व समाज में टिका हुआ है, इसलिए बिना किसी भेदभाव के ईश्वर उपासना की तरह ही समाज-सेवा का व्रत भी पालन करना चाहिए। उसमें कोई व्यक्ति छोटा नहीं होता, वरन् उपासना की तरह सेवा भी मानव अंतकरण को विशाल ही बनाती है।


🔴 आगे की बात स्वामी जी पूरी नहीं कर सके, क्योंकि उधर से नर्तकियों का एक दल आ पहुँचा। सामंतों का स्वभाव ही कुछ ऐसा होता है कि उनका ध्यान उधर चला गया, इसलिये प्रवचन अपने आप समाप्त हो गया। इधर नर्तकियों के नृत्य की तैयारी होने लगी। जैसे ही एक नर्तकी ने सभा मंडप में प्रवेश किया कि स्वामी जी का मन धृणा और विरक्ति से भर गया। वे उठकर वहाँ से चल दिए। स्वामी जी की यह उदासीनता और किसी के लिए कष्टकारक प्रतीत हुई हो या नही, पर उस नर्तकी के हृदय को आघात अवश्य पहुँचा।


🔵 घृणा चाहे जिस व्यक्ति के प्रति हो, अच्छी नहीं। बुरे कर्मों का फल कर्ता आप भोगता है, भगवान् की सृष्टि ही कुछ ऐसी है कि खराब काम के दंड से कोई भी बच नहीं सकता, पर यह दंड-व्यवस्था उसी के हाथों तक सीमित रहनी चाहिए, वह सर्वद्रष्टा है पर मनुष्य की पहुँच किसी के सूक्ष्म अंतःकरण तक नहीं, इसलिए उसे केवल कानूनी दण्ड़ का ही अधिकार एक सीमा तक प्राप्त है। घृणा तो दुश्मनी ही पैदा करती है, भले ही वह कोई दलित या अशक्त व्यक्ति क्यों न हो। प्रतिशोध कभी भी अहित कर सकता है। स्वामी दयानंद जी के घात का कारण पूछो तो ऐसी ही घृणा थी, जो मनुष्य के लिए कभी अपेक्षित नहीं।


🔴 नृत्य प्रारंभ हुआ। नर्तकी ने अलाप किया- "प्रभु मेरे अवगुण चित न धरो" और वह ध्वनि स्वामी जी के कानों में पडी़। स्वामी जी चौंक पडे। मस्तिष्क में जोर के झटके से विचार उठा-परमात्मा का अवगाहन हम इसीलिये तो करते है कि पाप परिस्थितियों के कारण हमारे अंतकरण कलुषित हुए पडे हैं, हम उनमे निर्मल और निष्पाप बने। सामाजिक परिस्थितियों से कौन बचा है' यह बेचारी नर्तकी ही दोषी क्यों ? मालूम नहीं समाज की किस अवस्था के कारण इस बेचारी को इस वृत्ति का सहारा लेना पडा़ अन्यथा वह भी किसी प्रतिष्ठित घराने की बहू और बेटी होती।


🔵 अब तक मस्तिष्क में जो स्थान घृणा ने भर रखा था, वह अब भस्मीभूत हो गया। अब स्वच्छ करुणा और विवेक का उदय हुआ-संसार में व्यक्ति घृणा का पात्र नहीं, वृत्ति को ही धृणित मानना चाहिए।


🔴 स्वामी विवेकानंद वापस लौटे, अपना स्थान पुन-ग्रहण किया। लोगों के मन में उनके प्रति जो श्रद्धा थी वह और द्विगुणित हो उठी। स्वामी जी जब तक नृत्य हुआ, कला की सूक्ष्मता और उससे होने वाली मानसिक प्रसन्नता का अध्ययन करते रहे। विद्यार्थी के समान उन्होंने संपूर्ण रास केवल अध्ययन दृष्टि से देखा, न कोई मोह था न आसक्ति। नृत्य समाप्त होने पर ही वापस अपने डेरे को लौटे।


🔵 इतनी भूल सुधार के कारण उन्होंने सभी सभासदो और नर्तकी को भी यह शिक्षा तो दी ही दी कि "व्यक्ति को घृणास्पद मानने का अर्थ यह नहीं कि वृत्ति को भी घृणा न की जाए। उससे तो बचना ही चाहिए। आजीविका के लिए वह नर्तकी कला प्रदर्शन तो करती रही, पर उस दिन उसे स्वामी जी के प्रति श्रद्धा ने वासना से विरक्ति दे दी और उसने आजीवन व्रतशील जीवनयापन किया। सभासदों में से अनेक ने अपनी दोष दृष्टि का परित्याग किया।


🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य

🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 139, 140


👉 गुरु नानक की ईश्वर निष्ठा


🔵 भौतिक अथवा आध्यात्मिक कोई भी क्षेत्र क्यों न हो, उसमें उन्नति करने के लिए लगन और एकाग्रता के साथ निष्ठा की आवश्यकता होती है। बिना सच्ची लगन और एकनिष्ठा के सिद्धि पा लेना संभव नही होता। गुरुनानक ने अपने लिये भक्ति का मार्ग चुना और अपनी निष्ठा के बल पर वे एक महान् संत बने और समाज में उनकी पूजा-प्रतिष्ठा हुई। उनके जीवन की तमाम घटनाएं उनकी इस निष्ठ की साक्षी हुई है।


🔴 नानक जब किशोरावस्था में थे, तभी से वे अपने उद्देश्य की पूर्ति में लग गये थे। यह आयु खेलने-खाने की होती है। नानक भी खेला करते थे, पर उनके खेल दूसरों से भिन्न होते थे। जहाँ और लडके गुल्लीडंडा, गेंद बल्ला, कबड्डी आदि का खेल खेला करते थे, वहाँ नानक भगवान् की पूजा, उपासना का खेल और साथियों को प्रसाद बाँटते थे।


🔵 एक बार वे इस प्रकार के खेल मे संलग्न थे। भोजन का समय हो गया था। कई बार बुलावा आया, लेकिन वे खेल अधूरा छोड्कर नहीं गए। अंत मे उनके पिता उन्हें जबरदस्ती उठा ले गए। भोग लगाकर प्रसाद बाँटने का खेल बाकी रह गया। नानक को खेल में विघ्न पड़ने का बडा दुःख हुआ, लेकिन उन्होंने न तो किसी से कुछ कहा और न रोए-धोए ही, तथापि वे गंभीरतापूर्वक मौन हो गये और भोजन न किया। बहुत कुछ मनाने, कहने और कारण पूछने पर भी जब नानक ने कुछ उत्तर नहीं दिया और खिलाने पर भी जब ग्रास नहीं निगला तो उनके पिता को चिंता हुई कि बालक को कहीं कोइ बीमारी तो नहीं हो गई।


🔴 वैद्य बुलाकर नानक को दिखलाया गया। वैद्य आया और उसने भी जब पूछताछ करने पर कोई उत्तर न पाया और खिलाने से ग्रास स्वीकार नहीं किया तो उसने उनके मुँह में उँगली डालकर यह परीक्षा करनी चाही कि लडके का गला तो कहीं बंद नहीं हो गया है। इस पर नानक से न रहा गया। वे बोले वैद्य जी, आप अपनी बीमारी का उपचार करिए। मेरी बीमारी तो यही ठीक करेगा जिसने लगाई है। नानक की गूढ़ बात सुनकर उनके पिता ने उनकी मानसिक स्थिति समझ ली और फिर उन्हें उनके प्रिय खेल से कभी नहीं उठाया।


🔵 इस प्रकार जब वे पाठशाला में पढ़ने के लिए भेजे गए, तब अध्यापक ने उन्हें तख्ती पर लिखकर वर्णमाला पढा़नी शुरू की। उन्होंने 'अ' लिखा और नानक से कहा-कहो 'अ'। नानक ने कहा 'अ'। उसके बाद अध्यापक ने 'अ' लिखा और कहा- कहो 'अ'। नानक ने कहा-'अ' नाम भगवान् का रूप। जब यही पढ़ लिया तो अब आगे पढ़कर क्या करूँगा?''


🔴 अध्यापक ने समझाया तुम मेरे पास पढ़ने और ज्ञान सीखने आए हो। बिना विद्या पढे ज्ञानी कैसे बनोगे ? नानक ने कहा कि आप तो मुझे समझ में आने वाली विद्या पढाइए, जिससे परमात्मा का ज्ञान हो, उसके दर्शन मिलें। आपकी यह शिक्षा मेरे लाभ की नहीं है। अध्यापक ने फिर कहा- यह विद्या यदि तुम नही पढो़गे तो संसार मै खा-कमा किस तरह सकोगे ? खाने कमाने के लिए तो यह विद्या पडनी जरूरी है।' नानक ने उत्तर दिया-'गुरुजी! आदमी को खाने के लिए चाहिए ही कितना "एक मुट्ठी अन्न। वह तो सभी आसानी से कमा सकते ही हैं, उसकी चिंता में भगवान् को पाने की विद्या छोडकर और विद्याएँ पढने की क्या आवश्यकता", "मुझे तो वह विद्या सिखाइए, जिससे मै मूल तत्व परमात्मा के पाकर सच्ची शांति पा सकूं।"


🔵 गुरु नानक की बातों में उनका हृदय, उनकी आत्मा और भगवान् के प्रति उनकी सच्ची निष्ठा बोल रही थी। उनकी बातों का प्रभाव अध्यापक पर पडा़ जिससे कि वे दुनियादारी से विरत होकर भगवान के सच्चे भक्त बन गए। ऐसी थी नानक की निष्ठा और परमात्मा को प्राप्त करने की लगन। इसी आधार पर उनकी उपासना और साधना सफल हुई। वे एक उच्चकोटि के महात्मा बने। उनकी वाणी बोलती थी और उनका हृदय उसका मंदिर बन गया था। वे दिन-रात भगवान् की भक्ति में तन्मय रहकर लोक-कल्याण के लिए उपदेश करते और लोगों को सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा देते थे। उन्होंने अपना पूरा जीवन भगवान् की भक्ति और संसार का कल्याण करने में लगा दिया। हजारों-लाखों लोग उनके शिष्य बने। आज जो सिक्ख संप्रदाय दिखलाई देता है, वह गुरुनानक के शिष्यो द्वारा ही बना है। निष्ठा और लगन में बडी शक्ति होती है। उसके बल पर सांसारिक उन्नति तो क्या भगवान् तक को पाया जा सकता है।


🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य

🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 137, 138


👉 महामानव बनने में चरित्रबल का योगदान


🔵 मेसीडोन के राजा फिलिप अपने पुत्र सिकंदर को एक महान् पुरुष के रूप में देखना चाहते थे। उनकी प्रतिभा, शक्ति, सामर्ध्य, क्रियाशीलता, धैर्य, साहस और सूझ-बूझ से वे अच्छी तरह परिचित हो गये थे। अब इस बात की आवश्यकता अनुभव कर रहे थे कि किस व्यक्ति के पास अपने बच्चे को शिक्षा हेतु भेजा जाए, जो इसकी इन शक्तियों को कुमार्गगामी बनने से रोके और महामानव बनने की प्रबल प्रेरणा उत्पन्न कर सके। सोचते-सोचते उसकी नजर तत्कालीन महान् दार्शनिक अरस्तु पर पडी, जो इस कार्य को कुशलतापूर्वक सपन्न कर सकते थे। सिकंदर उनकी पाठशाला में भेज दिया गया।


🔴 अरस्तू सिकंदर की विलक्षण प्रतिभा देखकर फूले न समाये। उनकी यह प्रबल इच्छा हुई कि इस बच्चे की शक्तियों को सन्मार्ग में विकसित करना चाहिए। यदि ऐसा हो सका तो निश्चय ही यह संसार के महान् व्यक्तियों में से एक होगा।


🔵 शिक्षा के साथ-साथ गुरु का ध्यान गुण, स्वभाव और चरित्रबल की तरफ विशेष था। दार्शनिक अरस्तु यह जानते थे कि जीवन के महान् विकास के लिए इन गुणों के विकास की नितांत आवश्यकता है। जिन दुर्गुणों से मनुष्य की शक्तियों का क्षरण होता रहता है, यदि उनका उन्मूलन न हो सका तो फिर शक्ति का स्रोत किसी अन्य मार्ग से निकलकर व्यर्थ हो जायेगा। फिर जीवन विकास के सारे प्रयास निर्बल, निस्तेज और निष्प्राण हो जायेंगे।


🔴 इन्हीं बातों को सोच-सोचकर अरस्तु अन्य विद्यार्थियों के साथ-साथ सिकंदर की हर क्रिया-कलाप पर विशेष ध्यान रखते थे। उन्हें सिकंदर का उतना ही ध्यान रहता था जितना किसी पिता को अपने एक होनहार पुत्र का रहता है।


🔵 एक बार सिकंदर का किसी स्त्री से अनुचित संबंध हो गया। अरस्तु को पता चल गया। उन्होंने सिकंदर को समझाया और डॉटा तथा इस रास्ते को छोडने का आग्रह किया। उस स्त्री को यह पता चला तो सोचने लगी कि यह अरस्तु ही मेरे संबंध में रोडे अटका रहा है, अत: ऐसा करना चाहिए, जिससे गुरु-शिष्य में शत्रुता हो। फिर बुरा काम आसानी से चलता रहेगा, वह कुटिल नारी एक दिन अरस्तु के पास पहुँची और एकांत में मिलने का प्रस्ताव रखा। अरस्तु ने प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। जिस उद्यान में उन्हें मिलने के लिए बुलाया गया था उसमें ठीक समय पर पहुँच गए।


🔴 मनोवैज्ञानिक अरस्तु यह जानते थे कि कोरी शिक्षा की अपेक्षा प्रमाणों का मनोभूमि पर अधिक प्रभाव पडता है। उन्होंने कुटिल चाल से लाभ उठाया। अरस्तु ने अपने अन्य शिष्यों द्वारा इस घटना की सूचना सिकंदर तक भी पहुंचवा दी। साथ ही सूचना अरस्तु ने भिजवाई है, यह भेद न खुलने की कडी मनाही कर दी। सिकंदर आकर एक छिपे स्थान में टोह मे बैठ गया।


🔵 कुछ समय बाद वह तरुणी आई। उसने अरस्तु के गले में बाहुपाश डाले और कहा क्या ही अच्छा होता, थोडी देर तक हम लोग क्रीडा-विनोद का आनंद लेते। अरस्तू की स्वीकृति मिल गई। युवती ने दार्शनिक अरस्तू को घोडा़ बनाया और पीठ पर चडकर उन्हें चलाने लगी। बूढा घोडा़ युवती को अपनी पीठ पर बिठाकर घुटनों के बल चल रहा था। स्वाभिमानी सिकंदर जो जीवन में कभी झुकना नहीं जानता था अपने गुरु की यह स्थिति अधिक देर तक सहन न कर सका और तुरंत सामने आकर कहा- "क्यों गुरुदेव! यह सब क्या हो रहा है ?"


🔴 अरस्तू ने कहा देखते नहीं। मुझे यह माया किस तरह घुटनों के बल चलने को विवश कर रही है, फिर तुमको तो वह पेट के बल रँगने को विवश कर देगी। सिकंदर को वस्तुस्थिति समझ में आ गई। उसने अपना मुँह मोड़कर चरित्र गठन में अपना सारा ध्यान लगा दिया, जिससे वह संसार का एक महान् पुरुष- 'सिकंदर महान्' कहलाया।


🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य

🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 135, 136


👉 बुद्ध और विनायक


🔵 भिक्षु विनायक को वाचलता की लत पड़ गई थी। जोर- जोर से चिल्लाकर जनपथ पर लोगों को जमा कर लेता और धर्म की लम्बी- चौड़ी बातें करता।


🔴 तथागत के समाचार मिला तो उन्होंने विनायक को बुलाया और स्नेह भरे शब्दों में पूछा- 'भिक्षु यदि कोई ग्बाला सड़क पर निकलने वाली गायें गिनता रहे तो क्या उनका मालिक बन जायेगा?, विनायक ने सहज भाव से कहा- ' नहीं भन्ते! ऐसा कैसे हो सकता है। गौओं के स्वामी ग्वाले को तो उनकी सम्भाल और सेवा में लगा रहना पड़ता है। ' तथागत गम्भीर हो गये। उनने कहा- 'तो तात! धर्म को जिह्वा से नहीं जीवन से व्यक्त करो और जनता की सेवा साधना में संलग्न रहकर उसे प्रेमी बनाओ। ' इस तरह सत्कर्म को पाठ तक नहीं, कर्तव्य में भी उतार लिया जाय, तो जीवन में सच्चे अर्थो में समग्रता आ जाती है।


प्रज्ञा पुराण भाग 1 पृष्ठ 26


👉 आदर्श पर अडिग- श्री विद्यासागर


🔵 बंगाल के लैफ्टिनेंट गवर्नर सर फ्रेड्रिक हैडिले अपनी बैठक में उद्विग्न से टहल रहे थे। उनके मन में तरह-तरह के संकल्प विकल्प उठ रहे थे। श्री ईश्वरचंद्र विद्यासागर को दिए हुए उनके आश्वासन के शब्द उन्हें बार-बार याद आ रहे थे। भारत के वायसराय लार्ड एलेनबरा के आज के पत्र ने उनको परेशानी में डाल दिया था। थोडी देर टहलने के बाद उन्होंने अपने प्राईवेट सेक्रेटरी को बुलाकर श्री विद्यासागर जी को बुलावा भिजवा दिया।


🔴 ईश्वरचंद्र जी की शिक्षण संबंधी सूझ-बूझ तथा व्यवहारिक योजनाओं से सारा देश परिचित हो चुका था। शिक्षा निदेशक से कुछ सैद्धांतिक मतभेद हो जाने के कारण उन्होंने सरकारी नौकरी से त्याग-पत्र दे दिया था। उनकी योग्यता से प्रभावित गवर्नर फ्रैड्रिक ने उन्हें समझाकर समझौता कराने का प्रयास किया। वह इतने दुर्लभ व्यक्ति को हाथ से नहीं जाने देना चाहते थे, किंतु ईश्वरचंद्र सैद्धांतिक व्यक्ति थे। उन्होंने नम्रतापूर्वक समझौते की बात से इन्कार कर दिया। उनका कहना था कि-कार्य-पद्धति में हेर-फेर किया जा सकता है-सिद्धांतो में नहीं। अनुशासन के नाते मुझको बडे अधिकारी की बात माननी चाहिए, किंतु अपनी आंतरिक प्रेरणा की उपेक्षा भी तो नहीं की जा सकती है, अतः अकारण अप्रिय प्रसंगों से वातावरण विषाक्त बनाने की अपेक्षा मैंने स्वयं मार्ग से हट जाना ही अच्छा समझा। इस विषय में मुझ पर दबाव न डाला जाए यही ठीक होगा। वैसे मैं हर सेवा के लिए तैयार हूँ।''


🔵 हारकर सर फ्रैड्रिक उनसे बंगाल में शिक्षा-प्रसार के लिए कोई अच्छी योजना बनाने का आग्रह कर रहे थे। योजना को राजकीय स्तर पर कार्यान्वित करने का अपना विचार भी उन्होंने व्यक्त कर दिया। ईश्वरचंद जी ने यह कार्य सहर्ष स्वीकार भी कर लिया। एक विषय में किसी से मतभेद होने का यह अर्थ तो नहीं होता कि अन्य संभावित सहयोग के कार्यो में भी विरोध किया जाए विचारक का विचार साधन-संपन्नों द्वारा प्रसारित किया जाना लाभकारी ही है। देश के उत्थान के लिए यदि विरोधी के साथ मिलकर भी कार्य करने में लाभ दिखता है तो किसी विचारशील को हिचकना नहीं चाहिए। विरोध व्यक्तियों से नहीं, विचारों से ही मानना उचित है। दस विचारों में मतभेद होने पर भी यदि एक में साम्य है, तो कोई कारण नहीं कि उसकी पूर्ति हेतु सम्मिलित प्रयास न करें। यह बात यदि आज के कथित देशसेवियों की समझ में आ सके तो आधी से अधिक समस्याओं का समाधान देखते-देखते निकल आए।


🔴 श्री ईश्वरचंद्र जी ने बडी मेहनत के साथ एक योजना बनाकर गवर्नर साहब को दी। गवर्नर साहब ने उसे देखा तो बहुत प्रसन्न हुए। योजना की व्यवहारिकता देखकर उन्होंने आश्वासन दे दिया कि इसे राज्य के व्यय पर क्रियान्वित किया जा सकेगा और उस योजना को स्वीकृति हेतु वायसराय के पास भेज दिया। उन्हें पूरी आशा थी कि इतनी अच्छी योजना अवश्य स्वीकार कर ली जायेगी।


🔵 किंतु उनकी आशा के विपरीत जब वायसराय ने उस पर नकारात्मक आदेश लिख दिया तो उन्हें बहुत चोट पहुँची। ईश्वरचंद्र जी ने उन्हें सांत्वना दी और कहा-''आप दुःख न मानो। मेरे कार्य अपनी सचाई के आधार पर स्वयं खडे हो सकते हैं।" मेरी योजना में समाज के हित की शक्ति होगी तो वह अपने बल पर भी चल जायेगी और वास्तव में उनकी सार्वजनिक घोषणा पर उस योजना का जनता ने भारी स्वागत किया। शिक्षा प्रेमियों ने भी अपना हर प्रकार का सहयोग उस हेतु दिया। योजना में बंगाल में शिक्षा का व्यापक प्रसार भी हुआ। उपयोगी योजना ने अपना मार्ग स्वयं बना लिया। ईश्वरचंद्र की वह बात आज भी सही है। अपने लाभ की बात जनता अभी भी स्वीकार कर सकती है। आवश्यकता है ऐसी योजना बनाने तथा उसे जनता को समझाने की।


🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य

🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 132, 133


👉 मूर्तिमान् सांस्कृतिक स्वाभिमानी


🔴 एक बडे विद्यालय में, जिसमें अधिकांश छात्र अप दू डेट फैशन वाले दिखाई पडते थे। एक नये विद्यार्थी ने प्रवेश लिया। प्रवेश के समय उसकी पोशाक धोती, कुर्ता, टोपी, जाकेट और पैरों में साधारण चप्पल।


🔵 विद्यालय के छात्रों के लिए सर्वथा नया दृश्य था। कुछ इस विचित्रता पर हँसे, कुछ ने व्यंग्य किया- तुम कैसे विद्यार्थी हो ? तुम्हें अप टू डेट रहना भी नहीं आता ? कम-से-कम अपना पहनावा तो ऐसा बनाओ, जिससे लोग इतना तो जान सकें कि तुम एक बड़े विद्यालय के विद्यार्थी हो।


🔴 छात्र ने हँसकर उत्तर दिया अगर पोशाक पहनने से ही व्यक्तित्व ऊपर उठ जाता है तो पैंट और कोट पहनने वाले हर अंग्रेज महान् पंडित होते, मुझे तो उनमें ऐसी कोई

विशेषता नहीं देती। रही शान घटने की बात तो अगर सात समुद्र पार से आने वाले और भारतवर्ष जैसे गर्म देश में ठंडे मुल्क के अंग्रेज केवल इसलिए अपनी पोशाक नही बदल सकते कि वह इनकी संस्कृति का अंग। है, तो मैं ही अपनी संस्कृति को क्यों हेय होने दूँ ? मुझे अपने मान, प्रशंसा और प्रतिष्ठा से ज्यादा धर्म प्यारा है, संस्कृति प्रिय है, जिसे जो कहना हो कहे, मैं अपनी संस्कृति का परित्याग नहीं कर सकता। भारतीय पोशाक छोड देना मेरे लिए मरणतुल्य है।''


🔵 लोगों को क्या पता था कि साधारण दिखाई देने वाला छात्र लौहनिष्ठा का प्रतीक है। इसके अंतःकरण मे तेजस्वी विचारों की ज्वालाग्नि जल रही है। उसने व्यक्तित्व और विचारों से विद्यालय को इतना प्रभावित किया कि विद्यालय के छात्रों ने उसे अपना नेता बना लिया, छात्र-यूनियन का अध्यक्ष निर्वाचित किया। इस विद्यार्थी को सारा देश गणेश शंकर विद्यार्थी के नाम से जानता है।


🔴 गणेश शंकर अपनी संस्कृति के जितने भक्त थे उतने ही न्यायप्रिय भी थे। इस मामले में किसी भी कठोर टक्कर से वह नही घबराते थे और न ही जातीय या सांप्रदायिक भेदभाव आने देते थे।


🔵 उन दिनो पोस्टकार्ड का टिकट काटकर कागज में चिपका कर भेजना कानून-विरुद्ध न था। गणेश शंकर विद्याथी ने ऐसा ही एक टिकट चिपकाया हुआ पोस्ट कार्ड प्रेषित किया। पोस्टल डिपार्टमेंट ने उसे बैरंग कर दिया। युवक ने इसके लिये फड़फडाती लिखा-पढी की, जिससे घबराकर अधिकारियों को अपनी भूल स्वीकार करनी पडी।


🔴 न्याय और निष्ठा के पुजारी विद्यार्थी जी मानवीय एकता और सहृदयता के भी उतने ही समर्थक थे। इस दृष्टि से तो यह युवक-संत कहलाने योग्य हैं। अत्याचार वे किसी पर भी नहीं देख सकते थे। १९३१ में जब हिंदू-मुसलमानों के बीच दंगा फैला तो गणेश शंकर जी ने बडी बहादुरी के साथ उसे मिटाने का प्रयास किया। जिन मुसलमान बस्तियों में अकेले जाने की हिम्मत अधिकारियों की भी न होती थी वहाँ विद्यार्थी जी बेखटके चले जाते थे। कानपुर मे उन्होंने हजारों हिंदू-मुसलमानों को कटने से बचाया।


🔵 दुर्भाग्य से एक धर्मांध मुसलमान के हाथों वह शहीद हो गये, पर अल्पायु में ही वह मानवीय एकता न्याय और संस्कृतिनिष्ठा का जो पाठ पढा गये वह अभूतपूर्व है। उससे अंनत भविष्य तक हमारे समाज में गणेश शंकर विद्यार्थी जैसे युवक जन्म लेते रहेगे, तब तक भारतीय संस्कृति का मुख भी उज्जल बना रहेगा।


👉 बंजर


🔴 चौधरी साहब की हवेली में आज बड़ी रौनक थी। ढोलक की थाप पूरे घर में गूँज रही थी। आज उनके घर उनकी छोटी बहू की मुहं दिखाई थी। सुनीता बहुत व्यस्त थी। सभी मेहमानों के आवभगत की ज़िम्मेदारी उसी पर थी। सभी सुनीता की तारीफ कर रहे थे। वाही थी जो अपनी छोटी चचेरी बहन प्रभा को अपनी देवरानी बना कर लाई थी। प्रभा के रूप और व्यवहार ने आते ही सब पर अपना जादू चला दिया था।


🔵 चाचा चाची के निधन के बाद प्रभा सुनीता के घर रह कर ही पली थी। सुनीता ने उस अनाथ लड़की को सदैव अपनी छोटी बहन सा स्नेह दिया था। यही कारण था कि उसे अपनी देवरानी बनाने की उसने पूरी कोशिश की थी। अपनी कोशिश में वह सफल भी हो गई।


🔴 दो वर्ष पूर्व सुनीता इस घर की बड़ी बहू बन कर आई थी। अपने सेवाभाव और हंसमुख स्वाभाव से वह सास ससुर पति देवर सबकी लाडली बन गई थी। पूरे घर पर उसका ही राज था। उसकी सलाह से ही सब कुछ होता था। कमी यदि थी तो बस यही कि अब तक वह माँ नहीं बन पाई थी। हालांकि उसके घरवालों ने कभी भी इस बात का ज़िक्र नहीं किया था किंतु आस पड़ोस में होने वाली कानाफूसी उसके कान में पड़ती रहती थी।


🔵 ब्याह के कुछ महीनों के बाद ही प्रभा के पांव भारी हो गए। पूरे घर में ख़ुशी की लहर दौड़ गई। सुनीता भी खुश थी। प्रभा को सुनीता के माँ ना बन पाने का दुःख था। उस अनाथ लड़की को स्नेह देने वाली सुनीता ही थी। अतः जब प्रभा ने अपने बेटे को जन्म दिया तो उसे सुनीता की गोद में ही सौंप दिया।


🔴 बच्चा सबको अपनी तरफ आकर्षित करता था। अतः उसका नाम मोहन रखा गया। मोहन सुनीता को ही अपनी माँ मानता था। उसी के हांथों से खाता और उसी की गोद में सोता था।


🔵 मोहन चार वर्ष का हो गया था। यूँ तो सब सही चल रहा था। किंतु धीरे धीरे सुनीता को यह महसूस होने लगा था कि घर में अब उसका वह स्थान नहीं रहा है जो पहले था। उस स्थान को अब प्रभा ने ले लिया है। इंसानी स्वभाव बड़ा विचित्र होता है। अपनी खुशियाँ बाँट कर हम गौरवान्वित होते हैं किंतु दूसरों को ख़ुद से अधिक प्रसन्न देख हमें ईर्ष्या होती है। सुनीता के साथ भी ऐसा ही हुआ। प्रभा की ख़ुशी से अब उसे ईर्ष्या होने लगी थी।


🔴 उसकी ईर्ष्या की परिणिति क्रोध में हो रही थी। जिसका केंद्र मोहन था। उसे लगता था कि प्रभा के बढ़ते रुतबे का कारण मोहन है। जहाँ पहले उसके ह्रदय में ममता का सागर हिलोरे मारता था वहीं अब केवल विष रह गया था। वह मोहन को रास्ते से हटाने की बात सोंचने लगी थी।


🔵 जल्दी ही उसे इसका मौका भी मिल गया। उसके ससुराल में किसी करीबी रिश्तेदार की शादी थी। सभी जाने को तैयार थे किंतु तभी मोहन को ज्वर हो गया। सुनीता ने सबसे कहा कि वो लोग चले जाएँ वह मोहन की देखभाल कर लेगी। प्रभा अपने बेटे को छोड़ कर जाना नहीं चाहती थी। किंतु सुनीता ने यह कह कर उसे मना लिया की वह उस पर यकीन रखे। प्रभा भारी मन से चली गई।


🔴 आधी रात को सुनीता आँगन में टहल रही थी। उसे किसी की प्रतीक्षा थी। कुछ देर बाद किसी ने धीरे से कुंडी खटखटाई। सुनीता ने द्वार खोल दिया। एक व्यक्ति ने अपनी पोटली से निकाल कर उसे एक टोकरी दी जिस पर ढक्कन लगा था। सुनीता ने उसे पैसे दिए और दरवाज़ा बंद कर लिया।


🔵 कमरे में मोहन सोया हुआ था। सुनीता ने टोकरी का ढक्कन खोल कर उसे फर्श पर रख दिया। एक काला ज़हरीला नाग निकल कर मोहन की तरफ बढ़ा। रात के सन्नाटे को चीरती हुई एक ह्रदय विदारक चीख ने आस पड़ोस को दहला दिया " हाय मेरे लाल को सांप ने डस लिया। " देखते ही देखते लोग घर में जमा हो गए। आँगन में बैठी सुनीता अपनी छाती पीट रही थी।


🔴 मोहन के जाने से पूरा घर हिल गया था। प्रभा स्वयं को कोसती थी कि क्यों वह अपने बीमार बच्चे को छोड़ कर चली गई।


🔵 जब सुनीता के दिल में छाए ईर्ष्या के बादल छंटे और क्रोध की ज्वाला शांत हुई तब उसे एहसास हुआ कि वह क्या कर बैठी है। उसने अपने ही हांथों खुद को बाँझ बना दिया। अब वह गुमसुम रहती थी। किसी से कुछ नहीं बोलती थी। उसके भीतर के सारे भाव सूख गए थे। वो बंजर हो गई थी।


👉 ज्योतिष पुरुषार्थ का प्रबल शत्रु


🔵 नेपोलियन बोनापार्ट की प्रेमिका जेसोफाइन ने एक बार उसे एक पत्र लिखा-मैं देखती हूँ, जो फ्रांस एक दिन पुरुषार्थ के ढाँचे में पूरी तरह ढल चुका था, जिसे आपने पराक्रम का पाठ पढा़या था, आज उसी फ्रांस की नसें आपके देववाद के आश्रय के कारण शिथिल पडती जा रही है। मनुष्य अपनी भुजाओं, अपने शस्त्र पर भरोसा न करे और यह सोचे कि घडी, शकुन, देवता उसकी सहायता कर जायेंगे। मैं समझती इससे बड़कर मानवीय शक्ति का और कोई दूसरा अपमान नहीं ही सकता।


🔴 ऐसा पत्र लिखने का खास कारण था। एक समय था, जब नेपोलियन ज्योतिष पर बिल्कुल भी विश्वास नही करता था। उसके सेनापति चाहते थे कि नेपोलियन ज्योतिषियों से पूछकर कोई कदम बढा़या करे, किंतु नेपोलियन ने उनको डाँटकर कहा-ईश्वर यदि सहायक हो सकता है तो वह पराक्रमी और पुरुषार्थियों के लिए है। भाग्यवाद का आश्रय लेने वालों को पिसने और असफलता का मुँह देखने के अतिरिक्त हाथ कुछ नहीं लगता।


🔵 जब तक नेपोलियन अपने सिद्धांत पर दृढ़ रहा, तब तक वह अकेला ही दुश्मनों के छक्के छुड़ाता रहा, पर दुर्भाग्य, एक दिन वह स्वयं भी देववाद पर विश्वास करने लगा। वह पत्र उसी संदर्भ में लिखा गया था। नेपोलियन की यही ढील अंतत उसके पराजय का कारण बनी।


🔴 भारतीय तत्वदर्शन की अनेक शाखाओं में ज्योतिष का भी विधान है, पर वह विशुद्ध गणित के रूप है और उसका विकास होना चाहिए, किंतु उसके फलितार्थ सामूहिक रूप से सारी पृथ्वी और मानव जाति के जीवन को प्रभावित करते हैं। व्यक्तिगत जीवन में स्थान-स्थान पर ज्योतिष और भाग्यवाद के पुँछल्ले असफलता और पतन के ही कारण हो सकते है। नेपोलियन बोनापार्ट की तरह हमारे देश भारतवर्ष के साथ भी ऐसा ही हुआ। फलित के चक्कर में पड़कर सारे देश के पराक्रम की नसे ढीली पड गई और हमें सर्वत्र पराजय का मुँह देखना पडा। सोमनाथ का मंदिर लुटा तब ज्योतिषियों के अनुसार मुहूर्त नहीं था। यदि सैनिक उस पाखंड को न मानते तो भारत देश की यह दुर्गति न होती। आज भी ज्योतिष के चक्कर में पड़कर हमारी सफलता के सोमनाथ लुटते रहते है और हम अपनी उन्नति के लिये भाग्य का मुख ताकते खडे रहते हैं।


🔵 आज हमारे देश को अब्राहम लिंकन जैसे औंधे भाग्य को अपने पुरुषार्थ और पराक्रम से सीधा करने वाले होनहारों की आवश्यकता है। उत्तरी और दक्षिणी अमेरिका में गृह-युद्ध शुरू हो गया था। लगता था दोनों राज्य अलग-अलग होकर ही रहेंगे। तभी अब्राहम लिंकन ने अपना एक ऐतिहासिक निर्णय दिया कि दोनों प्रदेशों की एकता सैनिक शक्ति के द्वारा अक्षुण्ण रखी जायेगी। उसने युद्ध की सारी तैयारी कर भी ली।


🔴 उसी समय उनका एक मित्र आया। उसने कहा-महोदय! अपने निर्णय पर अमल करने से पूर्व आप ज्योतिषियों से भी राय ले लें, मैं तीन ज्योतिषियों को लेकर आया हूँ। वे पास के कमरे मैं ही आपकी प्रतीक्षा कर रहे है।


🔵 लिंकन ने सोचा ज्योतिषी कभी एक राय के नही होते इसी से सिद्ध है कि वे अंतिम सत्य नही। लिंकन ने अपने सैनिक बुलाए और कहा-इस बगल के कमरे में राष्ट्र के तीन शत्रु बैठे हैं, दरवाजा बंद कर ताला लगा दो जब तक हम विजयी होकर नहीं लौटते ताला न खोला जाए। ज्योतिषवाद के भ्रम में पड़कर लिंकन अपने पराक्रम ओर पुरुषार्थ के पथ से विचलित हो जाते तो अमेरिका एकता के युद्ध का और ही दृश्य होता। हमारे जीवन में जो पग-पग पर असफलताएँ दिखाई दे रही हैं, वह हमारे भाग्यवाद के कारण ही है, यदि हम हीन भाव को भगा दें तो जीवन संग्राम में हम भी लिंकन के समान ही सर्वत्र सफलता अर्जित कर सकते है।


🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य

🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 127, 128


👉 परंपरा जब अंधी हो जाती है


🔵 बात उन दिनों की है जब रूस में जार अलेक्जेंडर का शासन था। उसके व्यक्तिगत निवास में बहुत थोडे और विश्वसनीय लोग ही पहुँच सकते थे, इसलिए कितने ही रहस्य ऐसे थे, जो औरो तक कभी प्रकट नहीँ नहीं हो सके।


🔴 एक दिन प्रशा के राजदूत बिस्मार्क जार से भेंट करने उनके महल पर गये। बिरमार्क जहाँ बैठे थे उसके ठीक सामने खिड़की पडती थी बहुत पीछे तक का बाहरी दृश्य भी वहाँ से अच्छी तरह दिखाई दे रहा था। बिस्मार्क ने देखा कि बहुत देर से एक रायफलधारी संतरी मैदान मे खडा है जबकि रक्षा करने जैसी कोई वस्तु वहाँ पर नहीं है। शांतिकाल था- इसलिये सैनिक गश्त जैसी कोई बात भी नहीं थी।


🔵 बडी़ देर हो गई तब बिस्मार्क ने जार से पूछा-यह संतरी क्यों खडा़ है? जार को स्वयं भी पता नहीं था कि संतरी वहाँ किस बात का पहरा दे रहा है ?


🔴 जार ने अपने अंगरक्षक सेनाधिकारी को बुलाया और पूछा- यह संतरी इस पीछे के मैदान में किसलिए नियुक्त किया जाता है ? सेनाधिकारी ने बताया-सरकार! यह बहुत दिनों से ही यही खड़ा होता चला आ रहा है। जार ने थोडा कडे़ स्वर में कहा- यह तो मैं भी देख रहा हूँ मेरा प्रश्न यह है कि संतरी यहाँ किसलिए खडा होता है ' जाओ और पता लगाकर पूरी बात मालूम करो।''


🔵 सेनाधिकारी को कई दिन तो यह पता लगाने में ही लग गए थे। चौथे दिन सारी स्थिति का पता कर वह जार के सम्मुख उपस्थित हुआ और बताया- 'पुराने सरकारी कागजात देखने से पता चला कि ८० वर्ष पहले महारानी कैथरीन के आदेश से एक संतरी वहां खडा किया गया था। बात यह थी कि एक दिन जब वे घूमने के लिए निकली, तब इरा मैदान में बर्फ जमा थी। सारे मैदान में एक ही फूल का पौधा था और उसमें एक बहुत सुंदर फूल खिला हुआ था। कैथरीन को वह फूल बेहद सुंदर लगा सो उसकी सुरक्षा के लिए तत्काल वहाँ एक संतरी खडा़ करने का आदेश दिया और इस तरह वहाँ संतरी खडा़ करने की परपरा चल पडी़। ८० वर्ष हो गए न किसी ने आदेश को बदला, न किसी ने उसकी आवश्यकता अनुभव की, सो उस स्थान पर व्यर्थ ही पहरेदारी बराबर चलती आ रही है। जार को गुस्सा भी आया और हँसी भी। गुस्सा इसलिए कि परंपराओं का निरीक्षण न होने से यह खर्च व्यर्थ ही होता रहा और हँसी इसलिये कि पहले तो एक भी फूल था पर ८० वर्ष से तो उस मैदान में अच्छी घास भी नहीं है, न जाने संतरी किसकी रखवाली कर रहा है ?


🔴 कहानी यहाँ समाप्त नहीं हो गई वरन् सही कहानी अब प्रारंभ होती है और वह यह है कि समाज में स्वय आज दहेज, पर्दा प्रथा जाति-पाँति ऊँच-नीच, मृतक भोज स्वस्थ परंपरा के रूप में प्रचलित किए गये थे। अब अंध परंपरा बन चुके हैं। वर्तमान परिस्थितियों में न तो उनकी आवश्यकता है और न उपयोगिता फिर भी न तो कोई यह देख रहा कि यह परंपराऐं आखिर किस उद्देश्य से बनी थी और न ही कोई उन्हें मिटाने का साहस कर रहा है। हम व्यर्थ ही उपहास और अपव्यय के पात्र बने उन्हें अपने छाती से वैसे ही चिपकाए है जैसे-रूस का यह बिना कारण-पहरा।


🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य

🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 125, 126

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