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ज्ञानवर्धक कथाएं - भाग-4

👉 पीड़ितों के अनन्य सेवक माणिक्यलाल वर्मा


🔵 राजस्थान के लब्ध प्रतिष्ठ समाजसेवी श्री माणिक्यलाल वर्मा की जीवन कहानी अनोखी है। बैलगाडी पर अपनी सारी गृहस्थी सहित सपेरे नगर-नगर और ग्राम-ग्राम भटकने वाले गाडिया लुहार उनको खूब जानते थे। रेलवे स्टेशन से सैकडों मील दूर घने जंगलों में पहाडी की टेकरियों पर झोपड़ी बनाकर रहने वाले अधनंगे भील भी उनसे अपरिचित नहीं थे। कंजर और खारी, जिनके माथे पर समाज ने जन्म-जात अपराधी होने का टीका लगा दिया था, उन्हें अपना समझते थे। कालबेलिये जो साँपों को पालते हैं और बनजारे, जो बैलों की पीठ पर अनाज लादकर एक स्थान से दूसरे स्थान को ले जाते हैं, उन्हें अच्छी तरह पहचानते थे। राजस्थान और पाकिस्तान की सीमा पर रेत के टीलों के बीच रहने वाले हरिजनों और गोपालक मुसलमानों से उनकी मित्रता थी।


🔴 जो अभावग्रस्त हैं, भूख और गरीबी के शिकार है दलित और शोषित हैं, पिछडे हुए हैं, अझान और अंधविश्वास के पाश में जकड़े हुए है, ऐसे लाखों स्त्री पुरुषों और बच्चों का माणिक्यलाल जी ने प्यार और आदर पाया था। उनकी मृत्यु पर उन सबने यह महसूस कि उनकी सुध लेने वाला उनका आत्मीय और उनका सहारा उनसे छिन गया।


🔵 माणिक्यलाल वर्मा के निधन पर राजस्थान में सरकारी दफ्तरों पर झंडे झुका दिए गए और उनकी अत्येष्टि राजकीय सम्मान के साथ की गई। राष्ट्रपति ने उन्हें पद्ग भूषण की उपाधि से अलंकृत था। यह राजकीय सम्मान की बात विस्मृत हो जायेगी, किंतु गरीबों के लिए उनके दिल में जो तड़प थी, वह बिजली की तरह कौंधती रहेगी। राजस्थान में बिजोलिया ने हिंदुस्तान में सत्याग्रह का शंख सबसे पहले फूँका था और माणिक्यलाल जी राजस्थान को और देश को इसी बिजोलिया को देन थे।


🔴 उन्होंने सामंती अत्याचारों से मोर्चा लिया और अकथनीय कष्ट झेलै। उनका एक पाँव जेल के भीतर और दूसरा बाहर रहा। स्वराज्य आया, तब भी वे चैन से नहीं बैठे। पिछड़ी जातियों को ऊँचा उठाने के लिये रात-दिन भटकते रहे। गाड़िया लुहारों को वसाने का उन्होंने भगीरथ प्रयत्न किया। गाड़िया लुहार राणा प्रताप के लिए तोप-बंदूक बनाते थे। चित्तौड़ दुर्ग पर जब मुगलों ने अधिकार कर लिया तब वे यह प्रतिज्ञा करके निकल पडे कि जब तक यह दुर्ग पुन: स्वतंत्र न होगा वे कहीं घर बनाकर नहीं रहेंगे। माणिक्य लाल जी ने गाडिया लुहारों के वनवास को समाप्त कराया। वह नेहरू जी को खींचकर चित्तौड दुर्ग पर ले गए और हजारों गाडिया लुहारों की उपस्थिति में दुर्ग पर राष्ट्रीय झंडा फहराकर उन्हें विश्वास दिलाया कि सैकडों वर्षों बाद उनकी प्रतिज्ञा पूरी हुई और वे अब घर बनाकर बस सकते है।


🔵 आज से कोई ३५ वर्ष पहले की बात है। रेलवे स्टेशन से करीब एक सौ मील दूर भूतपूर्व डुंगरपुर रियासत में भीलों की बस्ती के मध्य खड़लाई की पाल में एक पहाड़ी की टेकरी पर माणिक्य लाल जी ने अपना डेरा डाला था। ऊपर खुला आकाश, उसकी तलहटी में एक नाला बहता था। माणिक्य लाल जी में यह चमत्कारी गुण था कि बात ही बात में लोगों के घरों और उनके दिलों में प्रविष्ट हो जाते थे। आते-जाते भीलों ने जल्दी ही जंगल से लकडी़ काटकर उनके लिए झोंपडा खडा़ कर दिया और एकाएक दो-दो मील दूर से भी बालक और बालिकाऐं उनके विद्यालय में पढ़ने आने लगे। अंधेरी रात में शेर पहाड़ी नाले पर पानी पीने के लिए पास से गुजर जाता, परंतु माणिक्य लाल जी निर्भय होकर अपनी झोंपडी में सोते रहते।


🔴 वे अपने पीछे ऐसे समर्पित जीवन की मशाल जला गए, जो चिरकाल तक बराबर रोशनी देती रहेगी, उनका सेवाभावी जीवन तरुणों को अन्याय और अत्याचारों के खिलाफ संघर्ष के लिये सदैव प्रेरणादायी सिद्ध होगा।


🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य

🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 123, 124


👉 सच्चे जीवन की झलक


🔵 श्रीमती लस्सीचेस इंगलैंड की निवासी थीं। उनके पति भारतीय सेना में मेजर के पद पर थे। भौतिकवाद की समर्थक ब्रिटिश सभ्यता में पली नारी और फिर एक फौजी मेजर की पत्नी-लस्सीचेस, बडे़ ठाठ-बाट से रहतीं और सैर-सपाटा करती। जिंदगी उनके लिए एक उत्सव के समान थी और उसे उसी प्रकार जी भी रही थीं।


🔴 श्रीमती लस्सीचेस को दो खास शौक थे। एक फिल्म देखना और दूसरा मित्रों को दावत देना। उनके घर आए दिन मित्रों की दावत होती रहती थी और हर नयी फिल्म को वे देखे बिना नहीं रहती थी। पैसे के संबंध मे लस्सीचेस पति पर ही निर्भर न रहती थी। उन्हें अपने पिता से वसीयत में एक लबी रकम मिली हुई थी। पैसे की उन्हें जरा भी कमी नहीं थी।


🔵 एक लंबे अरसे तक यह जीवन चलता रहा, फिर सहसा बदल गया। यह परिवर्तन उनमें तब हुआ, जब वे कुछ दिन भारत मे पति के साथ रहकर लंदन वापिस आ गई। भारत प्रवास के बाद उन्होंने शराब पीना छोड दिया। रंगीन कीमती और तड़क भड़क वाले कपडों से उन्हें अरुचि हो गई। रहन-सहन और आचार, विचार में शालीनता आ गई। उनका प्रतिमास खर्च हजारों से घटकर सैकडों मे आ गया। भारत से आने के बाद श्रीमती लस्सीचेस में एक अप्रत्याशित संतत्व आ गया।


🔴 परिचितों, मित्रों और सखी-सहेलियों को श्रीमती चेस के इस आमूल एवं आकस्मिक परिवर्तन पर बडा आश्चर्य हुआ, वे अपने लिए इस आश्चर्य से व्यग्र होकर पूछ ही बैठे- ''श्रीमती चैस! आप जब से भारत प्रवास से वापस आई है, तब से आपका जीवन ही बदल गया है। आखिर ऐसा कौन-सा शोक आपके हृदय मे घुस बैठा है, जिससे आप जिंदगी से उदासीन हो गई हैं ?"


🔵 श्रीमती लस्सीचेस ने मित्रों को धैर्यपूर्वक सुना और उत्तर दिया- ''भारत-प्रवास के समय मैं उसके प्राचीन साहित्य को पढ़ चुकी हूँ और उसकी प्रेरणा से मुझे यह प्रकाश मिला है, जो शांति सादगी में है, उसका रंचमात्र प्रदर्शन में नहीं है। फिर भी अभी मेरा जीवन अपूर्ण है। कुछ ही समय में मैं उसकी पूर्ति करने का कार्यक्रम चलाने वाली हूँ।'


🔴 और वास्तव में कुछ ही समय बाद लोगों ने देखा कि श्रीमती लस्सीचेस ने समाज-सेवा का कार्यक्रम शुरू कर दिया। उन्होने लंदन की मजदूर तथा गरीब बस्तियों में जाना और स्वच्छता तथा शिक्षा का प्रचार करना प्रारंभ कर दिया। वे गरीब तथा महिला-मजदूरों और उनके बच्चों को स्वयं पढातीं और शराब य सिगरेट पीने से विरत करती। अपने जीवन का उदाहरण देकर उन्हें जीवन का सच्चा मार्ग बतलाती और अनुभव कराती कि गरीबी में भी सुंदरतापूर्वक रहा जा सकता है, यदि उसे दुर्व्यसनों से दूषित न किया जाए।


🔵 श्रीमती लस्सीचेस अपने शौक आदि पर जो रुपया खर्च करती थीं, वह अब अपने पर खर्च न करके समाज-सेवा व गरीबों की सेवा में खर्च करने लगीं जिससे उन्हें न केवल आत्म-शांति ही मिलती बल्कि वे अपने सेवा-क्षेत्र में देवी के रूप मे पूजी जाने लगीं।


🔴 कुछ समय बाद उनके पति का देहांत हो गया। उनके मित्रों तथा संबंधियो ने बहुत कुछ समझाया कि वे फिर विवाह कर लें और अपनी संपत्ति का जी भरकर उपभोग करें। श्रीमती चेस इसके लिए किसी प्रकार भी तैयार न हुई। उन्होंने बार-बार यही उत्तर दिया कि मै समाज की हूँ मेरी संपत्ति समाज की है, उसे फूँकने और बहाने का मुझे कोई अधिकार नहीं है। अब इसका व्यक्तिगत जीवन में उपभोग करने का प्रश्न ही नही उठता। हाँ इसका सामाजिक हित में सदुपयोग अवश्य करूगी। श्रीमती चेस की इस दृढ़ता एवं उच्चता से प्रप्रगिवत होकर उनके संपर्क में अन्ने वाली कितनी ही महिलाओं का जीवन बदला तथा सुधर गया।


🔵 कुछ समय बाद जब उनकी मृत्यु हुई तो उनकी वसीयत के अनुसार उनकी लाखों की संपत्ति इंग्लैंड के गिरजाघरों को बाँट दी गई जिन्हें उस देश में सच्चे धर्म, गरीबों की सहायता तथा उन विधवाओं की मदद में खर्च करने के लिए निर्देश दिया गया था, जो पुन: विवाह न कर शेष जीवन उन्हीं की तरह समाज की सेवा में लगाने की इच्छूक हों।


🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य

🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 121, 122


👉 न्याय सबके लिए एक जैसा


🔵 राज-कर्मचारियों को विशेष अधिकर मिलते है, वह पद का कर्तव्य सुविधापूर्वक निभा सकने के लिये होते हैं। व्यक्ति की प्रतिष्ठा से उन अधिकारों का कोई संबध नहीं रहता। इस तथ्य को सिद्धांत रूप में मानने वाले अधिकारीगण ही अपने कर्तव्यों का पालन नेकी और ईमानदारी से कर सकते हैं। अधिकारों से अपनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता या प्रतिष्ठा को ऊंचा दिखाने की स्वार्थपूर्ण भावना के कारण ही भ्रष्टाचार बढ़ता है और जन-साधारण में बुराइयों के प्रसार का साहस बढ़ता है।


🔴 लोकतंत्र मे कर्तव्य के पालन की अवहेलना की जाती है, तभी वह जनता के लिए घातक बनता है। इसलिए उसकी सफलता का सारा भार उन अधिकारियों पर आता है, जो कानून और व्यवस्था पर नियंत्रण रखने के लिए नियुक्त किए जाते हैं। इनमे जितनी अधिक ईमानदारी और इंसाफ पसंदगी होगी लोकतंत्र उतना ही खुशहाल होगा, उतना ही अधिक जनता को सुविधाएं मिलेंगी। राष्टीय जीवन में व्यापक तौर पर नैतिकता का प्रसार भी बहुत कुछ इस बात पर निर्भर है कि अधिकारी वर्ग अपने उत्तरदायित्वों का पालन किस निष्ठा के साथ करते हैं?


🔵 ऐसे उदाहरणों में एक उदाहरण कोंडागिल (मद्रास) के सत्र न्यायाधीश श्री के० एम० सजीवैया का भी है, जिन्होंने कर्तव्य पालन में सर्वोत्कृष्ट ईमानदारी का परिचय दिया। कसौटी का समय तय आया, जब उनकी अदालत में एक ऐसा अभियुक्त पेश किया गया जो उन्हीं का पुत्र था और एक मित्र के फर्म में चोरी करने के आरोप में पकडा गया था। अभियुक्त की पैरवी उसके चाचा कर रहे थे। पुलिस केस था, इसलिये मामले का सारा उत्तरदायित्व भी सरकार पर ही था।


🔴 सरकारी वकील ने मुकदमा प्रारंभ होने पर आपत्ति कि चूँकि अभियुक्त का सबंध सीधे जज महोदय से है इसलिये उसे दूसरी अदालत में बदल दिया जाना चाहिए। माननीय जज के लिये यह परीक्षा का समय था। उन्होंने विचार किया कि यदि अपने प्रभाव का उपयोग करना हो तो वह दूसरी अदालत में भी संभव है, पर यदि ईमानदारी के साथ अपने कर्तव्य पालन की परीक्षा ही होती है तो अभियुक्त के रूप मे भले ही उनका पुत्र प्रस्तुत हो, उन्हें मुकदमा करना चाहिए और उसमें उतनी ही कठोरता बरती जानी चाहिए जितनी अन्य अभियुक्तों के साथ होती है।


🔵 विद्वान जज ने दलील दी कि मामला दूसरी अदालत में तभी जा सकता है, जब यहाँ का फैसला असंतोषजनक हो, अपने कार्य को दूसरे पर टालने की अनावश्यकता का उन्होंने विरोध किया, जिससे मामले की सुनवाई उसी अदालत में हुई। प्रत्येक तारीख के बाद जब जज साहब घर लौटते तो उनकी धर्मपत्नी आग्रह करती- ''आपका ही पुत्र है, इसे बचाने की जिम्मेदारी भी तो आप पर ही है।'' अपने उत्तर में जज साहब हलकी-सी मुस्कान के साथ आश्वासन देते, वे इसके लिए प्रयत्नशील रहेंगे।


🔴 आखिर वह दिन आया जब फैसले की तिथि आ पडी। कचहरी में जज साहब की पत्नी के अतिरिक्त उनके बहुत-से संबंधी भी एकत्रित थे। फैसला करने से पहले उन पर दबाव भी डाला गया, पर जब उन्होंने अपराधी बेटे को २ वर्ष सख्त कैद की सजा सुनाई तो सारे कोर्ट मे सन्नाटा छा गया। न्यायालय की कार्यवाही पर सरकारी कर्मचारियों ने जहाँ संतोष व्यक्त किया और जज साहब की न्यायप्रियता की प्रशंसा हुई, वही उनकी धर्मपत्नी और संबंधियो ने उन पर तीखे आक्षेप भी किए। जज साहब ने अपने कुटुंबियों से कहा-अभियुक्त का पिता होने के कारण मेरी उसके साथ सहानुभूति थी, किंतु न्यायालय में मेरा उसका सबंध अपराधी और न्यायाधीश का होता था। वह स्थान मुझे न्याय के लिए मिला है, उसमे अपने-पराये का प्रश्न नही उठता।। सब चुप हो गये। सभी ने जज साहब के कर्तव्य पालन पर संतोष ही अनुभव किया।


🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य

🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 119, 120


👉 राष्ट्र निर्माण के लिए राष्ट्र भाषा की प्रगति अनिवार्य है


🔵 बाबू राजेंद्र प्रसाद का विद्यारंभ संस्कार उस समय के अनुसार एक मौलवी के पास उर्दू-फारसी में कराया गया था। नतीजा यह हुआ कि वे स्कूल और कालेज में भी इंटर तक अंग्रेजी के साथ उर्दू-फारसी ही पढ़ते चले गए। पर जब वे कलकत्ता जाकर बी० ए० में भर्ती हुए, तो उनके सामने कई भाषाओं में से एक चुनने का प्रश्न आया। यद्यपि उन्होंने अब तक हिंदी नही पढी़ थी और कालेज में हिंदी के अध्ययन की व्यवस्था नहीं थी, तो भी उनका सुझाव विशेष रूप से हिंदी की ही तरफ हुआ। संभवत: इसका कारण उनकी राष्ट्रीय और जातीय भावनाएँ ही थी। उनके कई मित्रों ने कहा कि तुम हिंदी लेकर बडी़ गलती कर रहे हो। जब अब तक तुमने हिंदी नहीं पढी़ तब एकाएक बी० ए० में लेने का नतीजा यह होगा कि तुम्हे बहुत कम नंबर मिलेंगे और तुम्हारा डिवीजन खराब हो जायेगा। पर राजेंद्र बाबू ने उनका समाधान यह कहकर दिया कि हिंदी तो हमारी मातृभाषा है उसके न सीख सकने या नंबर कम आने का संदेह करना व्यर्थ है। हमको आखिर अपनी इस मातृभूमि और मातृभाषा की हृदय से सेवा करके अपना कर्तव्य पालन करना ही होगा। तब उसको बिना सीखे किस प्रकार काम चल सकता है ?


🔴 उन्होंने सब विचार त्यागकर हिंदी ही ली और घर पर निजी तौर पर अध्ययन करके बहुत अच्छे नंबरों से पास हो गये।


🔵 राजेद्र बाबू ने जैसा सोचा था, वही कुछ समय पश्चात् सामने आया। राष्ट्रीय आंदोलन के साथ देश में राष्ट्रभाषा की आवश्यकता और उसके प्रचार के लिये प्रयत्न करने की तरफ नेताओं का ध्यान गया। श्री पुरुषोत्तमदास जी टंडन तथा उनके सहयोगियों ने प्रयाग मे हिंदी-साहित्य सम्मेलन की स्थापना की जिसका उद्देश्य राष्ट्रभाषा के रूप मे समस्त भारत में हिंदी का प्रचार करना था।


🔴 सम्मेलन का तीसरा वार्षिकोत्सव सन् १९१३ मे कलकता में हुआ और राजेंद्र बाबू को स्वागत समिति का प्रधानमंत्री बनाया गया। उसी समय पटना में आल इंडिया कांग्रेस का अधिवेशन हो रहा था,। पर आप हिदी साहित्य सम्मेलन की व्यवस्था में इतने व्यस्त रहे कि पटना न जा सके। सन् १९२३ में "हिंदी साहित्य सम्मेलन" के , सभापति भी बनाए गए। प्रांतीय हिंदी साहित्य सम्मेलनों के कई अधिवेशनों में आपने अध्यक्षता की थी।


🔵 आपने जो हिंदी प्रचार का काम १९१३ मे उठाया था वह आजन्म चलता ही रहा। आगे चलकर आप ही सम्मेलन की राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के अध्यक्ष बनाए गए और उसके द्वारा मदास तथा आसाम जैसे दूरवर्ती प्रांतो में वर्षों तक हिंदी के पठनपाठन और प्रचार की व्यवस्था की गई। कुछ लोग उस समय इस प्रचार की उपयोगिता न समझकर, उसकी विपरीत आलोचना करते थे। ऐसे लोगों को उत्तर देते हुए आपने लिखा था- "राष्ट्र के लिये राष्ट्रभाषा आवश्यक है और वह भाषा हिंदी ही हो सकती है।" इसमें दक्षिण वालों ने पूरा सहयोग दिया। इधर कई वर्षों से इस कार्य में होने वाला वहाँ का सारा खर्च वहाँ के लोगों से ही मिल जाता है और उत्तर भारत से वहाँ पर धन नहीं भेजना पडता। मैं समझता हूँ कि इसी प्रकार अन्य हिंदी प्रांतों में भी कुछ दिनों काम करने के बाद हमारा वैसा ही अनुभव होगा। हिंदी-प्रचार को मैं भीख की झोली नही मानता और न यह मानता हूँ कि इसके पीछे कोई द्वेष बुद्धि है। इसका एक उद्देश्य है सारे देश के लिए एक राष्ट्रभाषा का प्रचार। किसी भी प्रांतीय भाषा को मिटाने ता कमजोर करने की इच्छा किसी के दिल में स्वप्न में भी नहीं आई और न आएगी। हम राष्ट्र के प्रति अपना कर्त्तव्य मात्र कर रहे है और उसे करते रहने में ही हमारा और देश का कल्याण है।''


🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य

🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 118, 119


👉 अक्का महादेवी- जिसने वासना पर विजय पाई


🔵 कर्नाटक प्रांत के एक छोटे-से ग्राम उद्रुतडी में एक साधारण गृहस्थ के घर एक कन्या ने जन्म लिया-अक्का महादेवी उसका नाम रखा गया।


🔴 अक्का को उनके पिता श्री निर्मल ने संस्कृत की शिक्षा दिलाई। उससे धार्मिक संस्कार बल पा गए, उनके मन मे आध्यात्मिक जिज्ञासाएँ जोर पकड़ गई, उन्होंने सत्य की शोध का निश्चय कर लिया और उसी के फलस्वरूप वे ईश्वर-भक्ति, साधना और योगाभ्यास में लग गई।


🔵 आज हमें पाश्चात्य सभ्यता बंदी बना रही है। उन दिनों भारतवर्ष में मुस्लिम संस्कृति और सभ्यता की आँधी आई हुई थी। मुसलमान शासकों की दमन नीति से भयभीत भारतीय अपने धर्म अपनी संस्कृति को तेजी से छोड़ते जा रहे थे। ऐसे लोग थोडे़ ही रह गये जिनके मन में इस धार्मिक अवसान के प्रति चिंता और क्षोभ रहा हो, जिन्होंने अपने धर्म और संस्कृति के प्रति त्याग भावना का प्रदर्शन किया हो।


🔴 अक्का महादेवी-एक साधारण-सी ग्राम्य बाला ने प्रतिज्ञा की कि वह आजीवन ब्रह्मचारिणी रहकर, ईश्वर उपासना और समाज सेवा में रत रहकर अपने धार्मिक गौरव को बढायेगी।


🔵 अक्का का सौंदय वैसे ही अद्वितीय था, उस पर संयम और सदाचार की तेजस्विता की कांति सोने में सुहागा बन गई। उनके सौदर्य की तुलना राजकुमारियों से की जाने लगी।


🔴 तत्कालीन कर्नाटक के राजा कौशिक को अक्का महादेवी के अद्वितीय सौदर्य का पता चला तो उनके सामने विवाह का प्रस्ताव रखा। साधारण लोगों ने इसे अक्का का महान् सौभाग्य समझा पर अक्का ने उस प्रलोभन को भगवान् की उपस्थित की हुई परीक्षा अनुभव की। उन्होंने विचार करके देखा-सांसारिकता और धर्म-सेवा दोनों बातें एक साथ नहीं चल सकती। भोग और योग में कोई संबंध नहीं। यदि अपनी संस्कृति को जीवन देना है तो सांसारिक सुखोपभोग को बढ़ाया नहीं जा सकता।


🔵 इच्छाओं को बलिदान करके ही उस लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है। यह विचार आते ही उन्होने कौशिक का प्रस्ताव ठुकरा दिया।


🔴 जिनके उद्देश्य छोटे और तृष्णा-वासनाओं से घिरे हुए हों, वह बेचारे त्याग तपश्चर्या का महत्त्व क्या जान सकते हैं, कौशिक ने इसे अपना अपमान समझा। उसने अक्का के माता-पिता को बंदी बनाकर कारागार में डलवाकर एक बार पुन: संदेश भेजा- ''अब भी संबंध स्वीकार कर लो अन्यथा तुम्हारे माता-पिता का वध कर दिया जायेगा। ''


🔵 अक्का ने विचार किया-लोक में अपने माता-पिता, भाई-बंधु भी आते है। सबके कल्याण की बात सोंचें तो उनके ही कल्याण को क्यों भुलाऐं ? सचमुच यह बडा सार्थक भाव था उसे भुलाने का भाव ही पलायनवाद के रूप में इस देश में पनपा तो भी उन्होंने सूझ से काम लिया-इन्होंने एक शर्त पर प्रस्ताव स्वीकार कर लिया कि वह समाज-सेवा, संयम और साधना का परित्याग न करेगी। कौशिक ने यह बात मान ली।


🔴 विवाह उन्होंने कर लिया पर अपनी निष्ठा से अपने कामुक पति को बदलकर संत वना दिया। अक्का और कौशिक दोनों ने मिलकर अपने धर्म, अपनी संस्कृति का सर्वत्र खूब प्रसार किया, उसी का यह फल है कि कर्नाटक प्रांत अभी भी पाश्चात्य सभ्यता के बुरे रंग से बहुत कुछ बचा हुआ है।


🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य

🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे


👉 रवींद्र की काव्य-साधना-गीतांजलि


🔴 आठ-नौ साल की आयु के रवींद्रनाथ को जब स्कूल में पढ़ने को भेजा गया तो शीघ्र ही एक दिन वहाँ से लौटने पर उन्होंने कहा- पिताजी मैं कल से स्कूल में पढ़ने नहीं जाऊंगा। वह तो कारागार है। वहाँ बालकों को दंड दिया जाता है, उन्हें बेंचों पर खडा कर दिया जाता है और फिर उन पर कक्षा की सभी स्लेटों का बोझ लाद दिया जाता है और फिर वहाँ कोई आकर्षण भी तो नहीं है। वही डेस्क, वही बेंच, सुबह से शाम तक एक-सी ही बातें होती रहती हैं।


🔵 पिता ने पुत्र की व्यथा को समझ लिया और शिक्षकों से कह दिया- यह बालक पढने के लिए पैदा नहीं हुआ। हम स्कूल वालों को जो वेतन देते हैं, वह केवल इसलिये है कि यह वहाँ बैठा रहे।'' पुस्तकों को याद करने और रटने के बजाय बाल्यावस्था में रविबाबू अपने विशाल भवन के एक बरामदे में रखी हुई पुरानी पालकी में घुसकर बैठ जाते। उस अँधेरे स्थान में पहुँचकर वे कल्पनाओं में निमग्न हो जाते। उस अवस्था में उनकी पालकी सैकडों कहारों के कंधों पर लदी हुई अनेक वन, पर्वतों को पार करती पृथ्वी के एक छोर से दूसरे छोर तक जा पहुँचकर स्थल का मार्ग समाप्त हो जाता और कहार कहने लगते है- अब आगे रास्ता नहीं है, अन्नदाता! सब तरफ जल ही जल ही दीख पड़ता है।'' पर बालक रवींद्र कल्पना की उडान में कब मानने वाला था ? उसकी पालकी असीम जलराशि पर तैरने लगती। कितनी ही प्रचंड लहरें पालकी से टकराती कितने ही भीषण तूफान आते, किंतु उसकी पालकी बराबर आगे बढ़ती हुई उस पार पहुँच जाती। उस प्रदेश के सुंदर भवन, बाग, संगीत और गान-वाद्य की स्वर लहरी नृत्य आदि उसे आनंद विभोर कर देते। वह स्वयं भी मस्त होकर कुछ गुनगुनाने लगता।


🔴 और कुछ साल बाद वास्तव में ऐसा समय आया जब बाल्यावस्था का स्वप्न साकार होने लगा। कवि अपनी रचनाओं के बल पर जहाज रूपी पालकी द्वारा योरोप, अमरीका तक जा पहुँचे, वहाँ के बडे-बडे विद्वानों, गुणवानों, श्रीमानों ने आपका स्वागत-सत्कार बडे प्रेम से किया। वहाँ के नर-नारी आपकी प्रतिभा और अपूर्व सौंदर्य पर मुग्ध हो गये और सैकड़ों विशाल सभाओं और गोष्ठियों में उन देशों के सर्वोत्तम संगीत और कला-प्रदर्शन द्वारा आपका स्वागत किया गया। धार्मिक जनों को आप ईसाइयों के किसी प्राचीन संत की तरह जान पडते थे और वे बड़ी श्रद्धा से आपके चोगे (लबादा) का दामन चूमने लगते थे।


🔵 कवि जब अपनी "गीतांजलि" की कविताओं को गाकर सुनाने लगते तो श्रोता मुग्ध होकर भाव-विभोर हो जाते और चारों तरफ से रवि बाबू पर साधुवादों की वर्षा होने लगती। अंत में वहाँ का विद्वान् समाज इनकी बहुमुखी प्रतिभा और योग्यता से इतना प्रभावित हुआ कि उस महाद्वीप का सर्वश्रेष्ठ समझा जाने वाला सवा लाख डॉलर का "नोबल पुरस्कार" "गीतांजलि" के उपलक्ष्य में उन्हीं को प्रदान किया गया। कलकत्ता विश्वविद्यालय ने विद्या की सबसे बडी़ उपाधि डी० लिट० (डॉक्टर आफ लिटरेचर) प्रदान की और समस्त देश ने एक स्वर से उनको "विश्वकवि" घोषित कर दिया। "गीतांजलि'' की महिमा-गान करते हुए कहा गया-


🔴 'यह आध्यात्मिक भावनाओं का सार है। इसमें वैष्णव कवियों की प्रेम भावना का अनुपम सम्मिश्रण है। उपनिषदों के सारगर्भित विचारों का इसमें बड़ी मार्मिकता से समावेश किया गया है और बताया गया है कि जो मनुष्य संपूर्ण प्राणियों में ईश्वर को देखता है। वह कभी न तो पाप कर सकता है और न पाप से प्रभावित हो सकता है। ऐसे व्यक्ति को मृत्यु तक का भय नहीं जान पडता, क्योंकि भगवान् को अपने अंतर में देख लेने पर वह अमर जीवन हो जाता है। आज भी गीतांजलि से यही वाणी मुखरित हो रही है।


 🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य

🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ ११६, ११७


👉 अनावश्यक वस्तुओं का क्या करूँ?


🔴 बल्लभाचार्य के समय में अनेक वैष्णव भक्त हुए पर उनमें कुंभनदास का नाम आज भी बडी़ श्रद्धा से लिया जाता है। यद्यपि वह परिवार में रहते थे पर परिवार उनमें नहीं। कषि कार्य करने के बाद भी वह इतना समय बचा लेते थे कि जिसमें भक्ति के अनेक सुंदर-सुंदर गीतों की रचना कर सकें।


🔵 जब वे अपने भक्ति-रस से पूर्ण गीतों को मधुर कंठ से गाते थे तो राह चलते लोग खड़े होकर सुनने लगते थे। भगवान् के भक्त निर्धनता को वरदान समझते हैं। उनका विश्वास है कि अभाव का जीवन जीने वाले भक्तों की ईश्वर को याद सदैव आती रहती है।


🔴 हाँ कुंभनदास भी भौतिक संपदाओं से वंचित थे। वह इतने निर्धन थे कि मुख देखने के लिए एक दर्पण तक न खरीद सकते थे। स्नान के बाद जब कभी चंदन लगाने की आवश्यकता होती तो किसी पात्र में जल भरकर अपना चेहरा देखते थे।


🔵 जल से भरे पात्र को सामने रखे कुंभनदास तिलक लगा रहे थे कि महाराजा मानसिंह उनके दर्शन हेतु पधार गये। महाराजा ने आकर अभिवादन में 'जय श्रीकृष्ण' कहा-उत्तर में भक्त ने भी उन्हें पास बैठने का संकेत देते हुए 'जय श्री कृष्ण' कहा। पर जल्दी में उस पात्र का जल फैल गया। अतः कुंभनदास ने अपनी पुत्री से पुनः जल भरकर लाने को कहा। राजा को वस्तु स्थिति समझते देर न लगी। उन्हें यह जानकर बडा दुःख हुआ कि भगवान् का भक्त एक छोटी-सी वस्तु दर्पण के अभाव में कैसा कष्ट उठा रहा है ? राजा मानसिंह ने अपने महल में एक सेवक भेजकर स्वर्णजटित दर्पण मँगवाया और भक्त के चरणों मे अर्पित कर क्षमा माँगी।


🔴 कुंभनदास बोले-'राजन्! हम जैसे निर्धन व्यक्ति के घर में इतनी मूल्यवान वस्तु क्या शोभा दे सकती है ?

 

🔵 मेरी तरफ से यह तुच्छ भेंट तो आपको स्वीकार ही करनी पडेगी। आपको जिन-जिन वस्तुओं की आवश्यकता हो उनकी सूची दे दीजिए। घर जाकर मैं आपकी सुख-सुविधा का पूर्ण ध्यान रखकर समस्त वस्तुओं की व्यवस्था करवा दूँगा। राजा मानसिंह ने आग्रह के स्वर में अपनी बात कही।


🔴 'राजन् निश्चिंत रहिए और अपनी जनता के प्रति उदार तथा कर्तव्य की भावना बनाए रखिए। मुझे किसी भी वस्तु की आवश्यकता नहीं, भगवान् की कृपा से सब प्रकार आनंद है। आप देखते नहीं भगवान का नाम स्मरण हेतु माला, आचमन और पूजन के लिए पंचपात्र बैठने के लिए आसन आदि सभी उपयोगी वस्तुऐं तो हैं। कृपया आप यह दर्पण वापिस ले जाइए। जिस दिन भक्त भी इसी प्रकार का भोग विलासमय जीवन व्यतीत करने लगेंगे उन दिन उनकी भक्ति समाप्त हो जायेगी।


👉 राष्ट्र-हित के लिए सर्वस्व का त्याग 


🔴 स्वतंत्रता के अमर पुजारी महाराणा प्रताप मेवाड रक्षा का अंतिम प्रयास करते हुए भी निराश हो चले थे। सारा राज्य-वैभव समाप्त हो गया। अकबर की विशाल सेना का मुकाबला मुट्ठी भर राजपूत ही कर रहे थे। अपने शौर्य, पराक्रम और वीरता से उन्होंने दुश्मनों के दाँत खट्टे कर दिए थे, परंतु बेचारे करते क्या ? इधर अल्पसंख्यक राजपूत, उधर टिड्डी दल की तरह मुगलों की अपरमित सेना। जब एक सेना समाप्त हो जाती, दूसरी पुनः लडने के लिये भेज दी जाती। जब एक जगह को रसद पानी समाप्त हो जाता, दूसरे जगह से शीघ्र ही सहायतार्थ पहुँचा दिया जाता। अकबर की इस विशाल सेना और अतुल साधन का मुकाबला महाराणा अपने थोडे़ सैनिक और अल्प-साधनों से अब तक करते आ रहे थे।


🔵 अंत में समय ऐसा आ गया जब सारा धन और सारी सेना समाप्त हो गई। अब न पास में पैसा रहा और न अन्य साधन ही, जिससे पुनः सेना तैयार करते। मातृभूमि की रक्षा के लिये उपाय सोचे बिना नहीं चूके, परंतु क्या करते अब एक भी वश नहीं चल रहा था। उधर सेना बढ़ती ही चली आ रही थी। अरावली की पहाडियों में छिपकर जीवन बिता लेने की कोई सूरत न दीख रही थी। शत्रुदल वहाँ भी अपनी टोह लगाए बैठा हुआ था।


🔴 अपने जीवन की ऐसी विषम घडि़यों में एक दिन महाराणा व्यथित हृदय एकांत में विचार करने लगे- ''अब मातृभूमि की रक्षा न हो सकेगी। माँ की रक्षा न कर सकने वाले मुझ अभागे को इस समय देश का त्याग कर कम से कम अपनी रक्षा तो कर ही लेनी चाहिए, जिससे भविष्य में कभी दिन लौटे और पुनः माँ को शत्रु के हाथों से स्वतंत्र कर सकूँ।''


🔵 दूसरे दिन प्रात: अपने परिवार और बचे-खुचे साथियों सहित वे सिंध प्रदेश की तरफ चल दिए। अभी थोडी ही दूर गए ही होंगे कि पीछे से किसी ने आर्त्त भरी आवाज लगाई- 


🔴 "राणा ठहरो' हम अभी जीवित है।" राणा ने पीछे मुड़कर देखा तो राज्य के पुराने मंत्री भामाशाह दौडते-हॉफते हुए उनकी ओर चले आ रहे है। उन्होंने अभी-अभी राणा के देश त्याग का समाचार पाया था।


🔵 समीप पहुँचकर आँखें डबडबाते हुये भामा बोले- 'राजन्! आप निराश हो जायेंगे तो आशा फिर किसके सहारे जीवित रहेगी' मुख मलीन किए हुए राणा प्रताप बोले, मंत्रिवर! देश रक्षा के मेरे सारे साधन समाप्त हो चले। किसी साधन की खोज में ही कहीं चल पड़ा हूँ। यदि सुयोग हुआ तो फिर लौट सकूँगा, वर्ना सदा के लिये मातृभूमि से नाता तोड़ के जा रहा हूँ।"


🔴 स्वतंत्रता के पुजारी और मेवाड़ के सिंह की बातें बूढे भामाशाह के कलेजे में तीर जैसी जा चुभी। वे हाथ जोडकर बोले- "अपने घोड़े की बाग को मोडिये और नए सिरे से लडा़ई की तैयारी पूरी कीजिए। इसमें जो कुछ भी खर्च पड़ेगा उसे मैं दूँगा। मेरे पास आपके पूर्वजों की दी हुई पर्याप्त धनराशि पड़ी हुई है। जिस दिन मेवाड़ शत्रु के हाथों चला जायेगा, उस दिन वह अतुल सपत्ति भी तो उसी की हो जाएगी। फिर इससे अधिक सुयोग और क्या हो सकता है" जब मातृ-भूमि से उपार्जित कमाई का एक-एक पैसा उसकी रक्षा मे लगा दिया जाए।


🔵 भामाशाह के इस अपूर्व त्याग और देशभक्ति की बातें सुनकर महाराणा प्रताप का दिल भर आया। वे वापस लौटे और उस संपत्ति से एक विशाल सेना तैयार करके शत्रु से जा डटे और सफलता प्राप्त की। कहते हैं कि भामाशाह ने इतनी संपत्ति अर्पित की जिससे महाराणा की पच्चीस हजार सेना का बारह वर्ष तक खर्च चला था। भामाशाह चले गए और राणा भी अब नहीं हैं, पर उनकी कृतियाँ अब भी है और सदा रहेंगी। देश को जब भी आवश्यकता पडेगी, उनकी प्रेरणाएँ अनेक राणा तैयार करेगी और उसी प्रकार अनेक भामाशाह भी पैदा होते रहेंगे जो अपनी चिर-संचित पूँजी को मातृभूमि के रक्षार्थ अर्पण करते रहेंगे।


👉 संपत्ति में परिवार ही नही समाज भी हिस्सेदार


🔴 प्रसिद्ध साहित्यकार एवं दैनिक 'मराठा' के संपादक आचार्य प्रहलाद केशव अत्रे अपने पीछे एक वसीयत लिख गए। अपनी लाखों रुपये की संपत्ति का सही उपयोग की इच्छा रखने वाले अत्रे काफी दिनों से यह विचार कर रहे थे। परिवार के उत्तराधिकारी सदस्यों को तो अपनी संपति का वही भाग देना चाहिए, जो उनके लिए आवश्यक हो। जो संपत्ति बिना परिश्रम के प्राप्त हो जाती है जिसमें पसीना नहीं बहाना पडता, उसके खर्च के समय भी कोई विवेकशीलता से काम नहीं लेता और थोडे समय में ही लाखों की सपत्ति चौपट कर दी जाती है।


🔵 आचार्य अत्रे का हृदय विशाल था और दृष्टिकोण विस्तृत। उनका परिवार केवल भाई, भतीजे और पत्नी तक ही सीमित न था। वह तो संपूर्ण धरा को एक कुटुंब मानते थे। अत: उस कुटुंब के सदस्यो की सहायता करना प्रत्येक व्यक्ति का नैतिक कर्तव्य होना चाहिए। इसी भावना ने उन्हें विवश किया कि जीवन भर की जुडी हुई कमाई केवल अपने ही कहे जाने वाले पारिवारिक सदस्यों पर न खर्च की जाए वरन् उसका बहुत बड़ा भाग उन लोगो पर खर्च करना चाहिए, जिन्हें सचमुच आवश्यकता है।


🔴 आचार्य ने अपनी वसीयत में स्पष्ट लिखा है कि मुझे कोई भी पैतृक संपत्ति प्राप्त नहीं हुई थी। मैंने अपने परिश्रम से ही सारी संपत्ति अर्जित की है, जिस पर मेरा अधिकार है। मैंने जो प्राइवेट लिमिटेड कंपनी बनाई हैं, उनमें किसी का नाम नहीं है। अतः मै अपनी संपत्ति महाराष्ट्र की जनता को सौंपता हूँ।


🔵 इस प्रकार आचार्य अत्रे ने महाराष्ट्र की जनता हेतु लगभग ५० लाख रुपये का दान दे दिया है और श्री एस० ए० डांगे. श्री डी० एस० देसाई. बैंकिंग विशेषज्ञ श्री वी० पी० वरदे तथा अपने निजी मित्र राव साहब कलके को ट्र्स्टी बनाया गया है। वसीयत में उन्होंने यह भी इच्छा प्रकट की कि 'मराठा' और 'सांज मराठा' का एक कर्मचारी भी ट्रस्टी रखा जाए, जिसका सेवा-काल दस साल से कम न हो।


🔴 श्री अत्रे ने वसीयत में पत्नी को केवल पाँच सौ रुपये मासिक और तीन नौकर रखने की सुविधा दी है। भाई को कुछ रुपये प्रतिमास तथा बहन को भी मासिक वृत्ति देने की व्यवस्था की गई है। उन्होंने अपनी समृद्ध पुत्रियाँ मे कुछ भी नहीं दिया है।


🔵 उनके निवास स्थान 'शिव शक्ति' के केवल एक भाग में रहने के लिये पत्नी को अधिकार दिया है। कुछ भाग को अतिथि-गृह बनाया जायेगा और सुभाष हाल को सांस्कृतिक कार्यक्रमों के लिए सुरक्षित रखा जायेगा। ट्रस्टीज ने यह अनुरोध किया है कि यदि संभव हो तो एक अंग्रेजी दैनिक पत्र का प्रकाशन शुरू कर दे। लाखों रुपयो की संपत्ति की देखमाल के लिए प्रत्येक ट्रस्टी से कफी समय देना होगा, अतः उन्हों दो ट्र्स्टीज को पाँच-पाँच सौ रुपया प्रतिमाह वेतन लेने के लिये भी लिखा है। अन्य ट्र्स्टी मार्ग व्यय तथा दैनिक भत्ता मात्र प्राप्त कर सकते हैं।


🔴 शिक्षा प्रेमी अत्रे ने अपने गाँव के स्कूल के लिए पाँच हजार रुपये का दान तथा पूना विश्वाविद्यालय को मराठी लेकर बी० ए० में उच्च अंक प्राप्त करने वाले छात्रों को पाँच हजार रुपये के पुरस्कार की व्यवस्था की है। इस प्रकार उदारमना अत्रे ने अपनी संपति महाराष्ट्र के लोगो के कल्याण हेतु सौंपकर पूँजीपतियो के सम्मुख एक अनुकरणीय आदर्श प्रस्तुत किया है।


👉 यह विनम्रता


🔵 बात उन दिनों की है जब महामना मदनमोहन मालवीय जी जीवित थे। विश्वविद्यालय के कुछ छात्र एक दिन नौका बिहार कर रहे थे, उनकी कुछ असावधानी के कारण नाव को काफी क्षति पहुँच गई अब वह इस स्थिति में न रह गई, जो उससे काम लिया जा सके।


🔴 बेचारा मल्लाह उसी के सहारे जीविकोपार्जन करता। चार बच्चे, पत्नी और स्वयं इस प्रकार कुल छह आदमियों का पेट पालन कर रहा था। छात्रो की इस उच्छृंखलता पर मल्लाह को बहुत गुस्सा आया। आना भी स्वाभाविक ही था। अब वह किसके सहारे बच्चों का पालन -पोषण करता। 


🔵 अपने आवेश को वह रोक न सका। तरह-तरह की भली-बुरी गालियाँ बकता हुआ मालवीय जी के यहाँ चल दिया।


🔴 संयोगवश उस दिन मालवीय जी अपने निवास स्थान पर ही थे। कोई आवश्यक मीटिंग चल रही थी। विश्वविद्यालय के सभी वरिष्ठ अधिकारी और काशी नगरी के प्राय सभी गणमान्य व्यक्ति वहाँ उपस्थित थे।


🔵 मल्लाह गालियाँ बडबडाता हुआ वहाँ भी पहुँच गया जहाँ बैठक चल रही थी। रास्ते के कई लोग जो उसकी गालियाँ सुन रहे थे उसे वहां जाने से रोकना चाहा; परंतु असफल रहे। वह न केवल छात्रों को ही गालियाँ देता वरन् मालवीय जी को भी भलाचुरा कह रहा था। उसका इस तरह का बडबडाना सुनकर सब लोगों का ध्यान उधर आकर्षित हो गया। मीटिंग में चलती हुई बातों का क्रम भंग हो गया। उसका चेहरा यह स्पष्ट बतला रहा था कि किसी कारणवश बेतरह क्रुद्ध और दुखित है। मालवीय जी ने भी उसे ध्यानपूर्वक देखा और उसके आंतरिक कष्ट को समझा।


🔴 अपने स्थान से वे सरल स्वभाव से उठे और जाकर विनम्रता से बोले- ''भाई! लगता है जाने-अनजाने में हमसे कोई गलती हो गई है। कृपया अपनी तकलीफ बतलावें। जब तक अपने कष्ट की बतलावेंगे नहीं, हम उसे कैसे समझ सकेगे '


🔵 मल्लाह को यह आशा न थी कि उसकी व्यथा इतनी सहानुभूति पूर्वक सुनने को कोई तैयार होगा। उसका क्रोध शांत हो गया तथा अपने ही अभद्र व्यवहार पर मन ही मन पश्चात्ताप करने लगा और लज्जित भी होने लगा। उसने सारी घटना बताई और अपनी आशिष्टता के लिये क्षमा माँगने लगा।


🔴 मालवीय जी ने कहा- 'कोई बात नही लडकों से जो आपकी क्षति हुई है उसे पूरा कराया जायेगा पर इतना आपको भी भविष्य के लिए ध्यान रखा जाना चाहिए कि किसी भी प्रिय-अप्रिय धटना पर इतना जल्दी इतनी अधिक मात्रा में क्रुद्ध नही हो जाना चाहिए। पहली गलती तो विद्यार्थियों ने की और दूसरी आप कर रहे हैं। गलती का प्रतिकार गलती से नहीं किया जाता, आप संतोषपूर्वक अपने घर जायें। आपकी नाव की मरम्मत हो जायेगी। मल्लाह अपने घर चला गया। उपस्थित सभी लोग मालतीय जी की शिष्टता, विनम्रता और सहनशीलता को देखकर आश्चर्य चकित रह गये। उन्होंने लोगों से कहा- ''भाई! नासमझ लोगों से निपट लेने का इससे सुंदर तरीका और कोई नहीं। यदि हम भी वैसी ही गलती करें और मामूली-सी बात पर उलझ जाएँ तो फिर हममें और उनमें अंतर ही क्या रह जायेगा ? सभी लोगों ने बात की वास्तविकता को हृदय से स्वीकार किया और इस घटना से बहुत बड़ी शिक्षा ग्रहण की।


🔵 बाद में मालवीय जी के आदेशानुसार उन लडकों के दड स्वंरूप उस नाव की पुन: मरम्मत करवा दी।


👉 धैर्य हो तो नैपोलियन जैसा


🔴 सन् १८०७ की बात है। नैपोलियन बोनापार्ट की सेनाएँ नदी के किनारे खडी़ थीं। दुश्मन ने उसे चारों तरफ ऐसे घेर रखा था जैसे पिंजडे़ में शेर। दाहिनी तरफ आस्ट्रियन फौजें थीं, पीछे जर्मन। रूस की दिशाल सेना आगे अडी़-खडी़ थी। नैपोलियन के लिये फ्रांस से संबध बनाए रखना भी कठिन हो गया।


🔵 यह स्थिति ऐसी ही थी जैसे कोई व्यक्ति स्वयं तो बीमार हो पत्नी, बच्चे भी बीमार हो जाए। मकान गिर जाए और नौकरी से भी एकाएक नोटिस मिल जाए। घात-प्रतिघात चारों ओर से आते है। मुसीबत को अकेले आना कमी पसंद नहीं लालची मेहमान की तरह बाल बच्चे लेकर आते हैं। संकटों की सेना देखते ही सामान्य लोग बुरी तरह घबडा़ उठते, नियंत्रण खो बैठते और कुछ का कुछ कर डालते हैं। आपात काल में धीरज और धर्म को परख कर चलने को चेतावनी इसलिए दी गई है कि मनुष्य इतना उस समय न धबडा जाए कि आई मुसीबत प्राणघातक बन जाए।


🔵 नैपोलियन बोनापार्ट-धैर्य का पुतला, उसने इस सीख को सार्थक कर यह दिखा दिया कि घोर आपत्ति में भी मनुष्य अपना मानसिक संतुलन बनाए रखे तो वह भीषण संकटों को भी देखते-देखते पार कर सकता है।


🔴 नैपोलियन ने घबडा़ती फौज को विश्राम की आज्ञा दे दी। उच्च सेनाधिकारी हैरान थे कहीं नैपोलियन का मस्तिष्क तो खराब नही हो गया। उनका यह विश्वास बढ़ता ही गया, जब नैपोलियन को आगे और भी विलक्षण कार्य करते देखा। जब उसकी सेनाएँ चारों ओर से घिरी थीं उसने नहर खुदवानी प्रारंभ करा दी। पोलैंड और प्रसिया को जोड़ने वाली सडक का निर्माण इसी समय हुआ। फ्रेंच कालेज की स्थापना और उसका प्रबंध नैपोलियन स्वयं करता था। फ्रांस के सारे समाचार इन दिनो नैपोलियन के साहसप्रद लेखों से भरे होते थे। फ्रांस, इटली और स्पेन तक से सैनिक इसी अवधि में भरे गये नैपोलियन ने इस अवधि में जितने गिरिजों का निर्माण कराया उतना वह शांति काल में कभी नही करा सका, लोग कहते थे नैपोलियन के साथ कुछ प्रेत रहते हैं, यही सब इतना कम करते हैं पर सही बात तो यह है कि नैपोलियन यह सब काम खुद से करता था। उसका शरीर एक स्थान पर रहता था पर मन दुश्मन पर चौकसी भी रखता था और पूर्ण निर्भीक भाव से इन प्रबंधो में भी जुटा रहता था।


🔵 नैपोलियन की इतनी क्रियाशीलता देखकर दुश्मन सेनाओं के सेनापतियों ने समझा कि नैपोलियन की सेना अब आक्रमण करेगी, अब आक्रमण करेगा। वे बेचारे चैन से नही सोये, दिन रात हरकत करते रहे, इधर से उधर मोर्चे जमाते रहे। डेढ-दो महीनों में सारी सेनाएं थककर चूर हो गईं। नैपोलियन ने इस बीच सेना के लिए भरपूर रसद, वस्त्र, जूते और हथियार भर कर रख लिए।


🔴 तब तक बरसात आ गई। दुश्मन सेनाएँ जो नैपोलियन की उस अपूर्व क्रियाशीलता से भयभीत होकर अब तक थक चुकी थीं विश्राम करने लगी। उन्होंने कल्पना भी न की थी कि वर्षा ऋतु में भी कोई आक्रमण कर सकता है।


🔵 आपत्तिकाल में धैर्य इसलिये आवश्यक है कि उस घडी में सही बात सूझती है कोई न कोई प्रकाश का ऐसा द्वार मिल जाता है, जो न केवल संकट से पार कर देता है वरन् कई सफलताओ के रहस्य भी खोल जाता है।


🔴 वर्षा के दिन जब सारी सेनाएँ विश्राम कर रही थी, नैपोलियन ने तीनों तरफ से आक्रमण कर दिया और दुश्मन की फौजों को मार भगाया। बहुत-सा शस्त्र और साज-सामान उसके हाथ लगा जिससे उसकी स्थिति और भी मजबूत हो गई।


🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य

🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 99


👉 अखंड ब्रह्मचर्य और उसका प्रभाव


🔴 सारे देश में भारतीय धर्म व संस्कृति के व्यापक प्रचार अनेको वैदिक संस्थाओं की स्थापना, शास्त्रार्थों में विजय और वेदों के भाष्य आदि अनेक अलौकिक सफलताओं से आश्चर्यचकित एक सज्जन महर्षि दयानंद के पास गए, पूछा-भगवन् आपके शरीर  में इतनी शक्ति कहाँ से आती हैं ? आहार तो आपका बहुत ही कम है।''


🔵 महर्षि दयानद ने सहज भाव से उत्तर दिया- ''भाई संयम और ब्रह्मचर्य से कुछ भी असंभव नहीं। आप नहीं जानते, जो व्यक्ति आजीवन ब्रह्मचर्य से रहता है उसमें सूक्ष्म से सूक्ष्म वस्तु के परखने की बुद्धि आ जाती है। उसमें ऐसी शक्ति आ जाती है जिससे वह बडा़ काम कर दिखाए। मैं जो कुछ कर सका अखंड ब्रह्मचर्य की कृपा का ही फल है।''


🔴 ''क्षमा करे महात्मन्! एक बात पूछने की इच्छा हो रही है। आज्ञा हो तो प्रश्न करूँ "उस व्यक्ति ने बडे संकोच से कहा। इस पर महर्षि ऐसे हँस पडे कि जैसे वे पहले ही जान गए हों, यह व्यक्ति क्या पूछना चाहता है ? उन्होंने उसकी झिझक मिटाते हुए कहा-''तुम जो कुछ भी पूछना चाहो, निःसंकोच पूछ सकते हो।''


🔵 उस व्यक्ति ने पूछा- 'महात्मन्! कभी ऐसा भी समय आया है क्या ? जब आपने भी काम पीडा अनुभव की हो। महर्षि दयानद ने एक क्षण के लिए नेत्र बंद किए फिर कहा- 'मेरे मन में आज तक कभी भी काम विकार नहीं आया। यदि मेरे पास कभी ऐसे विचार आए भी तो वह शरीर में प्रवेश नही कर सके। मुझे अपने कामों से अवकाश ही कहाँ मिलता है, जो यह सब सोचने का अवसर आए।''


🔴 स्वप्न में तो यह संभव हो सकता है ? उस व्यक्ति ने इसी तारतम्य में पूछा- 'क्या कभी रात्रि में भी सोते समय आपके मन में काम विकार नहीं आया ?


🔵 महर्षि ने उसी गंभीरता के साथ बताया- जब कामुक विचार को शरीर में प्रवेश करने का समय नहीं मिला, तो वे क्रीडा कहाँ करते ? जहाँ तक मुझे स्मरण है, इस शरीर से शुक्र की एक बूंद भी बाहर नहीं गई है। यह सुनकर गोष्ठी में उपस्थित सभी व्यक्ति अवाक् रह गये।


🔴 जिज्ञासु उस रात्रि को स्वामी जी के पास ही ठहर गया। उनका नियम था वे प्रति दिन प्रातःकाल ताजे जल से ही स्नान करते थे। उनका एक सेवक था जो प्रतिदिन स्नान के लिए ताजा पानी कुँए से लाता था। उस दिन आलस्यवश वह एक ही बाल्टी पानी लाया और उसे शाम के रखे वासी जल में मिलाकर इस तरह कर दिया कि स्वामी जी को पता न चले कि यह पानी ताजा नहीं। 


🔵 नियमानुसार स्वामी जी जैसे ही स्नान के लिए आए और कुल्ला करने के लिये मुंह में पानी भरा, वे तुरंत समझ गए। सेवक को बुलाकर पूछा, क्यों भाई! आज बासी पानी और ताजे पानी में मिलावट क्यों कर दी ?


🔴 सेवक घबराया हुआ गया और दो बाल्टी ताजा पानी ले आया। यह खबर उस व्यक्ति को लगी तो उसे विश्वास हो गया-जो बातें साधारण मनुष्य के लिए चमत्कार लगती हैं, अखंड ब्रह्मचर्य से वही बातें सामान्य हो जाती है।


🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य

🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 99, 100


👉 साहस के रास्ते हजार


🔴 भाई परमानंद क्रांतिकारियों में अप्रतिम साहस के लिए प्रसिद्ध थे। कैसी भी संकटपूर्ण घडी में भी उन्होंने भयभीत होना नहीं सीखा था। इसलिए कई बार वह ऐसे काम भी कर लाते थे जो और कोई भी बुद्धिमान् क्रांतिकारी नही कर पाता था।


🔵 साहस को इसी से तो मनुष्य जीवन की सबसे बडी योग्यता कहा गया है। हिम्मत न हो तो बडी से बडी योजनाएँ धरी की धरी ही रह जाती है। पर साहसी व्यक्ति रेत में भी फूल उगा लेते है।


🔴 बम बनाने की योजना बन गई। विस्फोटक आदि सब सामान तो जुटा लिया गया, पर बमों के लिए लोहे के खोल (शेल) कहाँ से आयें, यह एक समस्या थी। ऐसी घडी में भाई परमानंद को याद किया गया।


🔵 बडी देर तक विचार करने के बाद उन्होंने एक योजना बना ही डाली। काम था तो जोखिम का पर "हिम्मते मरदॉं मददे खुदा" वाली कहावत सामने थी, भाई परमानंद ने अमरसिंह को साथ लिया और वहाँ से चल पडे।


🔴 उन्होने अमरसिंह को सारी योजना समझाई। अमरसिंह को एकाएक तो विश्वास नहीं हुआ कि एक अंग्रेज को चकमा देकर बमों के खोल कैसे बनवाए जा सकते हैं, पर वह परमानन्द की हिम्मत को जानते थे, इसलिए साथ-साथ जीने-मरने के लिए तैयार हो गए। अगले ही क्षण वे एक लोहा फैक्ट्री के सामने खडे हुए थे। 


🔵 सब कुछ स्वाभाविक तरीके से ही हो सकता था। बातचीत से लेकर हाव-भाव तक नकली बात तभी चल सकती थी, जब वह पूरी हिम्मत के साथ बयान की गई हो। थोडा भी सकपका जाने या अस्वाभाविक प्रतीत होने पर तुरंत गिरफ्तार होने का भय था, सो तो था ही एक बडी भारी योजना के विफल हो जाने का अपयश भी था।


🔴 परमानद भाई नकली माली और अमरसिंह मजदूर बनकर, गये थे। अंग्रेज मैनेजर से बोले-साहब सर सुंदरसिंह मजीठिया के बगीचे को सजाने के लिए लोहे के खंभे लगाए गए हैं। आपने देखा ही होगा, हमारे साहब की इच्छा है कि उनके ऊपर लोहे के गुंबज लगाए जाएँ ताकि शोभा और बढे ?


🔵 सर सुंदरसिंह मजीठिया हिंदुस्तानी पर अंग्रेजी ''सर '' की उपाधि प्राप्त-साहब बहादुर भला इनकार कैसे करते ? बोले कितने खोल चाहिए, हिसाब लगाने में जरा भी कम अकली से अंग्रेज मैनेजर को संदेह हो सकता था। साहस की यही तो पहचान है कि हृदय और मुख में जरा शिकन न आए भय पास न फटके।


🔴 यही दो हजार आवश्यक होंगे, नकली माली बने परमानंद ने कहा- अफसर थोड़ा चौंका तो पर परमानंद के साहस ने सब कुछ ढॉप लिया। आर्डर तय हो गया। १ सप्ताह में खोल बन जाने की साई तय हो गई।


🔵 ठीक एक सप्ताह बाद उसी तरह बमों के खोल ले आए और मैनेजर को कुछ भी भान न हुआ। वह तो कभी पता न चलता यदि कुछ क्रांतिकारी बंदी न बना लिए जाते और उनके साथ की बात का भंडा-फोड़ न हो जाता।


🔴 मुकदमा चला। कचहरी में अग्रेज मैनेजर भी उपस्थित हुआ। उसने अपनी भूल तो स्वीकार कर ली, पर यह कहे बिना वह भी न रहा-परमानंद सचमुच गजब का साहसी है, मुझे भी धोखा दे गया।


🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य

🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 95, 96


👉 हाँ हाँ, मैं बहरा था, बहरा हूँ और बहरा रहूँगा,.......तुम लोगों के लिए………


🔴 एक बार एक सीधे पहाड़ में चढ़ने की प्रतियोगिता हुई. बहुत लोगों ने हिस्सा लिया. प्रतियोगिता को देखने वालों की सब जगह भीड़ जमा हो गयी. माहौल  में  सरगर्मी थी , हर तरफ शोर ही शोर था. प्रतियोगियों ने चढ़ना शुरू किया। लेकिन सीधे पहाड़ को देखकर भीड़ में एकत्र हुए किसी भी आदमी को ये यकीन नहीं हुआ कि कोई भी व्यक्ति ऊपर तक पहुंच पायेगा…


🔵 हर तरफ यही सुनाई देता …“ अरे ये बहुत कठिन है. ये लोग कभी भी सीधे पहाड़ पर नहीं चढ़ पायंगे, सफलता का तो कोई सवाल ही नहीं, इतने सीधे पहाड़ पर तो चढ़ा ही नहीं जा सकता और यही हो भी रहा था, जो भी आदमी कोशिश करता, वो थोडा ऊपर जाकर नीचे गिर जाता, कई लोग दो -तीन बार गिरने के बावजूद अपने प्रयास में लगे हुए थे …पर भीड़ तो अभी भी चिल्लाये जा रही थी, ये नहीं हो सकता, असंभव और वो उत्साहित प्रतियोगी भी ये सुन-सुनकर हताश हो गए और अपना प्रयास धीरे धीरे करके छोड़ने लगे,


🔴 लेकिन उन्हीं लोगों के बीच एक प्रतियोगी था, जो बार -बार गिरने पर भी उसी जोश के साथ ऊपर पहाड़ पर चढ़ने में लगा हुआ था ….वो लगातार ऊपर की ओर बढ़ता रहा और अंततः वह सीधे पहाड़ के ऊपर पहुच गया और इस प्रतियोगिता का विजेता बना. उसकी जीत पर सभी को बड़ा आश्चर्य हुआ, सभी लोग उसे घेर कर खड़े हो गए और पूछने लगे, तुमने ये असंभव काम कैसे कर दिखाया, भला तुम्हे अपना लक्ष्य प्राप्त करने की शक्ति कहाँ से मिली, ज़रा हमें भी तो बताओ कि तुमने ये विजय कैसे प्राप्त की?


🔵 तभी  पीछे  से  एक  आवाज़  आई … अरे उससे क्या पूछते हो, वो तो बहरा है तभी उस व्यक्ति ने कहा कि हर नकारात्मक बात के लिए -

" मैं बहरा था, बहरा हूँ और बहरा रहूँगा "।



🔴 मित्रों, अक्सर  हमारे अन्दर अपना लक्ष्य प्राप्त करने की काबीलियत होती है, पर हम अपने चारों तरफ मौजूद नकारात्मकता की वजह से खुद को कम आंक बैठते हैं और हमने जो बड़े-बड़े सपने देखे होते हैं उन्हें पूरा किये बिना ही अपनी ज़िन्दगी गुजार देते हैं।


🔵 मित्रों, आवश्यकता इस बात की है हमें कमजोर बनाने वाली हर एक आवाज के प्रति बहरे और ऐसे हर एक दृश्य के प्रति अंधे होना पड़ेगा और तभी हमें सफलता के शिखर पर पहुँचने से कोई नहीं रोक पायेगा।


👉 सादगी के दो नमूने


🔴 अपने भू० पू० राष्ट्रपति-स्वर्गीय राजेंद्र प्रसाद जी का जीवन सादगी का जीता-जागता उदाहरण कहा जा सकता है। प्रस्तुत घटना सन १९३५ की है। राजेंद्र बाबू अगले होने वाले कांग्रेस अधिवेशन के अध्यक्ष थे। वे इलाहाबाद स्टेशन पर उतरे। किसी आवश्यक कार्य से आए थे। 'लीडर' अखबार में उन्हें अपना एक वक्तव्य भी देना था। उन दिनों उसके संपादक थे सी० वाई० चिंतामणि। अच्छा परिचय था उनसे राजेंद्र बाबू का। सोचा, क्यों न वक्तव्य स्वयं ही कार्यालय जाकर दे आऐ। सीधे चल पडे़ वह भी पैदल।


🔵 सर्दी के दिन थे। हल्की बूंदाबाँदी हो रही थी। पहुँचते-पहुँचते कपडे़ थोडे गीले हो गए।


🔴 जाकर चपरासी को अपना परिचय पत्र दिया। वह जाकर संपादक महोदय की टेबल पर रख दिया।


🔵 संपादक जी उस समय कुछ लिखने में व्यस्त थे, उसने बीच में बोलना उचित न समझा। बाहर आकर कह दिया कि-साहब अभी व्यस्त हैं। देर लगेगी।


🔴 थोडी देर प्रतीक्षा की, फिर उनकी दृष्टि सामने गई जहाँ कुछ चपरासी एक सिगडी के सहारे हाथ सेक रहे थे, बस फिर क्या था वे भी चले गए और अपने गीले कपडे़ सुखाने लगे।


🔵 थोडी देर बाद जब चिंतामणि जी ने दृष्टि उठाइ काम पर से, तब अनायास ही कार्ड दिखाई दे गया।


🔴 घंटी बजाई और चपरासी को बुलाकर पूछा कार्ड कौन लाया था ?'' चपरासी ने उत्तर दिया, "वह आदमी बाहर खडा है।" वे शीघ्रता से बाहर आए। पर वहाँ कोई न था, फिर चपरासी से पूछा- 'ये सज्जन कहाँ हैं ? तब चपरासी ने उधर की ओर इशारा कर दिया, जहाँ वे अपने गीले कपडे़ सुखा रहे थे। श्री चिंतामणि दौडकर उनके पास गये और क्षमा याचना की।


🔵 पर वहाँ कहाँ कोई बात थी उनके मन में। हँसकर कहने लगे मैंने सोचा इतनी देर में यही काम कर डालूँ। कपडे़ सुखाना भी तो जरूरी थे।


🔴 इसी प्रकार एक बार विश्व-विख्यात वैज्ञानिक एवं गणितज्ञ श्री आइंस्टीन, बेलजियम की महारानी के निमंत्रण पर उनके यहाँ जा रहे थे, महारानी ने अपने यहाँ के उच्च अधिकारियों को लेने स्टेशन भेजा, कितु उनकी वेशभूषा इतनी साधारण थी कि उनमें से कोई भी उन्हें पहचान न सका। महान् मनीषी कहाँ इस बात की परवाह करते हैं कि लिबास या रहन-सहन के उपकरण भड़कीले तथा आकर्षक हैं या नहीं, बल्कि उन्हें वे अनुपयोगी तथा अनावश्यक ही मानते हैं। ''सादा जीवन-उच्च विचार'' ही उनका जीवन आदर्श होता है।


🔵 अधिकारीगण निराश होकर लौट गए। इधर विज्ञानाचार्य महोदय उतरे और अपना बैग लिए हुए महल के द्वार पर जा पहुँचे। महारानी समझ रही थीं कि वे आए ही नही। इस प्रकार उनके पहुँचने पर उन्होंने बडा खेद प्रगट किया और कहा- "आपको पैदल ही आना पडा। इसका मुझे बहुत ही दुःख है।" किंतु आइंस्टीन महोदय मुस्कराते हुये कहने लगे- 'आप इस जरा-सी बात के लिए दुःख न करें, मुझे चलना बहुत अच्छा लगता है।"


🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य

🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 93, 94


👉 सहकारिता ने गवर्नर बनाया


🔴 आगे पढ़ने की बहुत इच्छा थी पर करते क्या पास में तो गुजारे का भी प्रबध नहीं था। युवक ने सोचा बाहर चलना चाहिए, आजीविका और पढा़ई के खर्च का प्रबंध आप करके पढ़ना अवश्य है। ऐसा निश्चय करके उसने अभिभावकों से २० रुपये और किराए का प्रबध करा लिया और बंबई चला आया।


🔵 उन दिनों बंबई इतनी महँगी नहीं थी जितनी आज है। पाँच रुपये मासिक पर मकान किराए में मिल जाता था। पर जिसके पास आदि से अंत तक २० रुपये ही थे, उसके लिये पाँच ही पहाड के बराबर थे। अब क्या किया जाए ? यदि ५ रुपये मासिक किराए का कमरा लेता हूँ तो २० रुपये कुल ४ महीने के किराए भर के लिए है ? इस विचार-चिंतन के बीच युवक को एक उपाय सूझा सहयोग और सहकारिता का जीवन।


🔴 एक सीक बुहारी नहीं कर सकती, अकेला व्यक्ति सेना नहीं खडा़ कर सकता। एक लडके के लिए स्कूल खुले तो संसार की अधिकांश धनराशि पढाई मे ही चली जाए। इसी प्रकार की दिक्कतों से बचने के लिए सहकारिता एक देवता है जिसमें छोटी-छोटी शक्तियाँ एक करके अनेक लोग महत्त्वपूर्ण साधन सुविधाएं जुटा लेते हैं छोटी शक्तियां मिलकर बडे लाभ अर्जित कर ले जाती हैं। जिस समाज, जिन देशों में सहयोग और सहकरिता का भाव जितना अधिक होगा वह देश उतना सुखी, सशक्त और समुन्नत होगा।


🔵 यह उदाहरण युवक का प्रकाश बन गया। उसने अपनी तरह के ४ और निर्धन विद्यार्थी खोज लिए और एक कमरा ५ रुपए मासिक पर किराये में ले लिया। प्रत्येक लडके को अब १ रुपए मासिक देना होगा। इस तरह जो २० रुपये केवल ५ माह के किराए भर के लिए पर्याप्त होते। युवक की सूझ-बूझ ने यह सिद्ध कर दिया कि यदि उन्हें किराए में ही खर्च किया जाता तो ५ गुना अधिक समय अर्थात् २० महीने के लिये पर्याप्त होते।


🔴 फिर सामने आइ भोजन की समस्या यदि अकेले ही भोजन पकाते, २० रुपये एक ही महीने के लिए होते। लकडी, कोयले, बर्तन एक व्यक्ति के लिए भी उतने ही चाहिए जितने में ५ व्यक्ति आराम से खाना बनाकर खा लेते। व्यक्तिवाद  सामूहिकता से हर दृष्टि से पीछे है। सामूहिक परिवार आर्थिक और भावनात्मक दृष्टि से भी लामदायक है। उन्होंने इस वैज्ञानिक लाभ के कारण को प्रतिष्ठपित किया।


🔵 युवक ने इस समस्या का हल भी ऐसे ही निकाला। एक ढा़बा ढूढ़ लिया, जिसमें कई लोगों का खाना एक साथ पकता था। यह भी उसमे सम्मिलित हो गये, मासिक खर्च कुल ५ रुपया आया। जो पैसे १ महीने के खाना देने भर के लिए थे अब उनसे कम से कम ४ माह की निश्चितता हो गई।


🔴 अब रही बात पढ़ने की सो वह एक स्कूल में भरती हो गया। किताबों का खर्च था उसे भी सामूहिकता के स्वरूप पीटिट नामक पुस्तकालय ने कर दिया। अनेक लोगों के सहयोग और चंदे से बना पुस्तकालय न होता तो उससे इस युवक की तरह सैकडो हजारों लोगों की ज्ञानार्जन की पिपासाऐं अतृप्त ही रह गइ होती। एक रुपये की सदस्यता से पढी़ इस स्कोल की पुस्तके काम देती गई। आप विश्वास न करेंगे उसने इसी तरह एडवोकेट बनने तक की शिक्षा पाई। इस बीच वह कई स्थानों पर लिखने का काम करता रहा, जिससे वह कपड़े-लत्ते शाक-भाजी का खर्च निकालता रहा। इस युवक का नाम था कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी (के० एम० मुंशी) जो एक समय उत्तर प्रदेश के गवर्नर पद तक पहुँचे और जो देश के माने हुए साहित्यकार एवं राजनैतिक नेता थे।


🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य

🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 89, 90


👉 पीड़ित मानवता की करुणाशील सेवा


🔵 ज्येष्ठ का महीना था। दोपहर की कडकडा़ती हुई धूप अपनी चरम सीमा पर थी। इन्हीं दिनों ईश्वरचंद्र विद्यासागर को बंगाल के कालना गाँव में आवश्यक काम से जाना पडा।


🔴 अभी कुछ ही दूर गये होंगे, एक गरीब आदमी कराहता, हाँफता हुआ रास्ते पर पडा़ दिखाई दिया। उन्होंने दखा कि उसकी गठरी एक तरफ पडी़ हुई है। दूसरी तरफ फटे-पुराने कपडो़ से अपना तन किसी तरह ढके हुए तडफडा रहा है। 


🔵 दीन-हीन नेत्रों से किसी की सहायता के लिए देख रहा है, पर किसका ध्यान उसकी तरफ जाता है ? सभी लोग आते और उसे ऐसी अवस्था में देखकर आँखें फेरते हुए चले जाते। मानो उसे देखा ही नहीं। बेचारा हैजे से बुरी तरह पीडित हो चुका था, कपडे़ मल-मूत्र में सन चुके थे।


🔴 उसे इस स्थिति में देखते ही ईश्वरचंद्र विद्यासागर का दयालु हृदय करुणा से उमड़ पड़ा। काम तो बडा़ जरूरी था और शीघ्र आवश्यक था। पर उससे भी आवश्यक काम यह दिखाई लगा। अपने कंधे में लटकता हुआ बैग उतारकर एक तरफ रख दिया। रोगी के पास जाकर उसकी स्थिति को अच्छी तरह समझा। उस बेचारे की तो दम निकल रही थी। उसके सिर और पीठ पर हाथ फेरा और कुछ पूछा। पर वह कहाँ बोलता ?  इशारे रो पानी माँगा। आशय समझ गये। चलते समय उन्होंने बैग में शीशियाँ रख ली थीं। तुरंत ही पानी लाए और एक खुराक दवा दी। कपड़े वगैरा कुछ साफ किए। हाथ-पैरों और शरीर में लगी हुई टट्टी साफ की और तुरंत ही अपनी पीठ पर लादकर गॉव को चल दिए।


🔵 साथ में एकदूसरे अधिकारी गिरीशचंद्र जी भी चुप न रह सके। कुछ तो उन्हें भी करना चाहिए था। सो लोक-लाज वश उन्होंने भी पास ही पडी हुई बीमार की गठरी सिर पर रखकर पीछे-पीछे चल दिए। गाँव अभी काफी दूर था। बीच बीच में श्री गिरीश जी रोगी को ले चलने में सहायता करने की बात पूछते, परंतु विद्यासागर ने यही कहा- ''आपका इतना सहयोग भी हमें बहुत साहस दे रहा है। चिंता न करें, हमें कोइ कष्ट नहीं है। गाँव तक सुगमता से लिये चलेंगे।


🔴 कालना पहुँचते ही रोगी को तुरंत उन्होंने हॉस्पिटल में भरती कराया। कालना बडा गाँव है और अच्छा हॉस्पिटल है, डॉक्टर से तुरत मिले और रोगी की स्थिति का पूरा-पूरा विवरण दिया। वहाँ कुछ समय तक रुककर रोगी की सेवा सुश्रूषा में स्वयं भी हाथ बटाते रहे। जब रोगी पूरी तरह अच्छा हो गया तो उसे कुछ रुपये देकर विदा किया।


🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य

🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 87, 88


👉 सिंक्लेयर स्वस्थ हो गये कैसे?


🔵 'दि जंगल' और 'आयल' आदि प्रसिद्ध उपन्यासों के रचयिता डॉ० अप्टन सिंक्लेयर अमेरिका के विद्वान् लेखक थे। अपना साहित्यिक कार्य वे दिन के १४-१४ घंटे तक करते थे। पर्याप्त विश्राम और जीवन में मनोविनोद का अभाव होने के साथ ही उनकी दिनचर्या भी स्वास्थ्य के लिए बहुत हानिकारक थीं।


🔴 सिंक्लेयर यद्यपि शराब न पीते, चाय और तंबाकू आदि का प्रयोग न करते थे पर असंयम, समय पर भोजन न करना, जब करना तो भूख से अधिक कर जाना मिर्च-मसालों का उपयोग यह आदतें ही कौन-सी चाय तंबाकू के विष से कम थी। सिंक्लेयर का स्वास्थ्य गिरने लगा। आए दिन जुकाम, खॉसी और बुखार। उनकी साहित्यिक गतिविधियाँ ठप्प पड गई और सामान्य जीवन का भी चलाना कठिन हो गया। आदतें खराब कर लेने पर जो स्वास्थ्य पर दबाव किसी अन्य व्यक्ति पर हो सक्ता था सिंक्लेयर भी उस कष्ट से कैसे बच पाते ?


🔵 वे कुछ दिन जी० एच० कैलाग के बैटल क्रीक सैनिटोरियम में रहे, अच्छी-से-अच्छी दवाइयां की तत्काल तो कुछ आराम मिलता पर दवाओं की प्रतिक्रिया किसी अन्य रूप में फूट पडती। एक तरफ से अच्छे होते और दूसरी ओर नई बीमारी में जकड़ जाते। सिंक्लेयर का जीवन आफत का पुतला बन गया।


🔴 एक दिन उनकी एक महिला से भेंट हुई। यह स्त्री पहले गठिया, जुकाम अग्निमांद्य और नाडी-विकार से पीडित होने के कारण बिल्कुल निर्बल और कांतिविहीन थी, पर इस बार जब वह सिंक्लेयर से मिली तो ऐसी स्वस्थ और सौंदर्ययुक्त दिखाई दे रही थी जैसे इस जीवन में कभी रोग का शिकार हुई ही न हो।


🔵 सिंक्लेयर ने पूछा- ''देवी जी, आपके इस उत्तम स्वास्थ्य का रहस्य क्या है? तो उस भद्र महिला ने बताया- 'उपवास। मैने प्रारंभ में आठ दिन का उपवास किया। प्रारंभ में दो दिन कुछ कठिनाइ जान पड़ी पर तुरंत मुझे पता चला कि मेरे शरीर के दूषित तत्त्व टूट रहे है। कई दिन तक तबियत खराब रही। पसीना, भूक और शरीर से बदबू आती रही और जब उपवास तोडा तो सबसे निचली सतह से रक्त के तेज-कण निकलने लगे, रोग मिटने लगे, भूख बढने लगी। नया खून बढा, शरीर मे ताजगी आई। सौंदर्य और स्वास्थ्य उसी की देन है।''


🔴 सिंक्लेयर को मानो खोये हुए स्वास्थ्य को पाने का एक नया रास्ता मिल गया। उन्होंने पहला उपवास व्रत ११ दिन का रखा ग्यारहवें दिन संतरे का रस लेकर उपवास तोडा। उसके बाद अट्ठाइस दिन तक दुग्ध-कल्प किया। आहार में जब आए तो बिल्कुल हल्के अणुओं वाले खाद्य पदार्थ कुछ दिन तक लेते रहे। उपवास के नियमों का कडाई से पालन किया।


🔵 बारह दिन के उपवास में वजन १७ पौंड घट गया था, चिंतित हो उठे पर उस प्रयोग के मूर्तिमान् लाभ वे देख चुके थे, इसलिए घबराए नहीं। दस दिन के दुग्ध कल्प में उनका वजन २३ पौंड बढ गया और उसके बाद तो उनका शरीर ही चमकने लगा। इससे उन्हें इतनी प्रसत्रता हुई कि कुछ दिन तक अपना सारा ध्यान उपवास द्वारा आरोग्य की उपलब्धि पर केंद्रित रखा। अपने अनुभव बताते हुए वे लिखते हैं- उपवास को मैं अपने जीवन की निधि मानता हूँ मेरा विश्वास है कि छोटे रोग तो उपवास से ऐसे ही दूर किए जा सकते है कि दुबारा होने का डर ही न रहे।"


🔴 सिंक्लेयर के अनुभव का लाभ बाद में उनकी धर्मपत्नी ने भी उठाया। वे भी कमजजोरी, वजन की कमी व नाडी़ दौर्बल्य से बचीं। उपवास द्वारा कई महिलाओं ने भी लाभ उठाए।


🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य

🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 85, 86


👉 धर्म पर आस्था रखने वाले दया न छोडे़ं


🔵 नावेल्ड (अलवानिया) का एक छोटा देहाती गाँव है, जहाँ अधिकांश कृषक रहते हैं वहाँ की परंपरा और स्थिति ऐसी है, जिससे वहाँ अधिकांश व्यक्ति मांसाहार को स्वाभाविक भोजन मानते और प्रयोग करते हैं।


🔴 ऐसे ही एक कृषक परिवार का छोटा बालक न्यूनररिचे पास के मिशन स्कूल में भर्ती हुआ। स्कूल में सामान्य शिक्षा के अतिरिक्त एक घंटा धर्म-शिक्षा की भी होती थी। ढर्रा मुद्दतों से चल रहा था। पादरी बाइबिल पढाते और लड़के उसे पढते। ऊँचे आदर्शों की चर्चा होती, ईसाई धर्म का गौरव बताया जाता पर था वह सब धर्म-शिक्षण-जानकारी की आवश्यकता पूरी करने तक ही सीमित।


🔵 एक दिन धर्म-शिक्षा के घंटे में पादरी प्रभु यीशु की सहृदयता और शिक्षा की विवेचना कर रहे थे। वे बता रहे थे- 'यीशु ने दया और करुणा की सरिता बहाई और अपने अनुयायियों को हर प्राणी के साथ दया का, सहृदय व्यवहार करने का उपदेश दिया। सच्चे ईसाई को ऐसा ही दयावान् होना चाहिए।"


🔴 यह सब एक लकीर पीटने के लिये पढा़-पढाया जाता था। पर बालक रिचे ने उसे गंभीर रूप में लिया। वह कई दिन तक लगातार यही सोचता रहा क्या हम सच्चे ईसाई नहीं है "क्या हम प्रमु यीशु के उपदेशों को कहते-सुनते भर ही है ? उन्हें अपनाते क्यों नहीं ? उन पर चलते क्यों नहीं ?


🔵 बालक ने कई दिन तक अपने घर में मांस के लिये छोटे जानवरों और पक्षियों का वध होते देखा था। उनके कष्ट और उत्पीडन को भी आँसू भरकर देखा था। कोमल भावना वाले बालक ने एक दिन इस दृश्य को देखकर, तडफते हुये प्राणी के साथ अपनी आत्मीयता जोड़ी तो उसे लगा जैसे उसी को काटा उधेडा जा रहा है। बेचारा घर से बाहर चला गया और सुबक सुबक कर घंटों रोता रहा।


🔴 तब वह इतना छोटा था कि अपने मनोभाव घर के लोगों पर ठीक तरह प्रकट नही कर सकता था पर अब वह बडा़ हो चला था, लगभग दस साल का। अपनी संवेदनाओं को प्रकट करने लायक शब्द उसके हाथ आ गये थे। अपनी वेदना उसने दूसरे दिन शिक्षक पादरी के सामने रखी और पूछा क्या मांस के लिए पशु-पक्षियों की हत्या करना ईसाई धर्म के और प्रमु यीशु की शिक्षाओ के अनुरूप है।


🔵 पादरी स्वयं मांस खाते थे। वहाँ घर-घर में माँस खाया जाता था। इसलिये स्पष्ट न कह सके। अगर-मगर के साथ दया और मांसाहार के प्रतिपादन के समर्थन की बात बताने लगे। आत्मय शिक्षक बालक के गले सुशिक्षित पादरी की लंबी-चौडी व्याख्या तनिक भी न उतरी। उसे लगा वह बहकाया जा रहा है। यदि दया, धर्म का अंग है, तो उसे धर्मात्मा लोग हर प्राणी के लिए प्रयोग क्यो न करें?  यदि धर्म वास्तविक है तो उसे व्यवहार में क्यों न उतारा जाए ?


🔴 बालक रिचे ने निश्चय किया कि वह सच्चा ईसाई बनेगा, प्रभु यीशु का सच्चा अनुयायी। उसने मांस न खाने का निश्चय कर लिया। सामने भोजन आया तो उसने मांस की कटोरी दूर हटा दी। कारण पूछा गया तो उसने यह कहा-यदि हम धर्म पर आस्था रखते है तो हमें उसकी शिक्षाओं को व्यवहार में भी लाना चाहिए।

हत्यारे और रक्तपिपासु लोग धर्मात्म नही हो सकते।' घर के लोगों ने मांस न खाने से शरीर कमजोर हो जाने की दलील दी तो उसने पूछा-क्या शारीरिक कमजोरी आत्मिक पतन से अधिक घृणित है ? घर वालों का समझाना-बुझाना बेकार चला गया, रिचे ने माँस खाना छोडा सो छोड ही दिया।


🔵 ईसाई धर्म और यीशु की दया शिक्षा का प्रसंग जहाँ भी चलता तब रिचे रूखे कंठ और डब-डबाई आँखों से यही पूछता- क्या पेट को बूचडखाना बनाए रखने वालों को धर्म और परमेश्वर की चर्चा करने का अधिकार है ? लोगों के तर्क कुंठित हो जाते और सच्चाई के आगे सिर नीचा हो जाता।


🔴 बालक रिचे जब भी मांस की प्राप्ति के लिए होने वाले उत्पीड़न पर विचार करता तभी उसकी आत्मा रो पडती इस मनोदशा से उसकी माँ प्रभावित हुई फिर दोनों बडी बहिन। तीनों ने माँस छोडा। भावनओं का मोड अशुभ या शुभ की दिशा में जिधर भी मुड चले उधर बढ़ता ही जाता है। इस प्रकर सारे परिवार ने मांस खाना छोड़ दिया। यह हवा आगे बडी। पडोस और परिचय क्षेत्र में यह विचार जड जमाने लगा कि सच्चे धर्मात्मा को दयालु होना ही चाहिए। जो दयालु होगा वह मांसाहार कर कैसे सकेगा ?


🔵 रिचे बडे़ होकर पादरी बने। उन्होंने घर घर घूमकर सच्ची धार्मिकता का प्रचार किया और माँसाहार से विरति उत्पन्न कराई।


🔴 श्रद्धालु धर्म प्रेमियों की संस्था नामक संगठन ने अलबानिया में अनेकों धर्म-प्रचारकों तथा प्रचार-सामग्री के माध्यम से जो लोक शिक्षण किया, उससे प्रभावित होकर लाखों व्यक्तियों ने मांसाहार छोडा़ और धार्मिकता अपनाई। रिचे के सत्प्रयत्नों को धार्मिक क्षेत्रों में सराहा जाता रहा है।


🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य

🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 83, 84


👉 धन व्यक्ति का नही सारी प्रजा का


🔵 नासिरुद्दीन दिल्ली की गद्दी पर बैठा, पर वह वैभव और ऐश्वर्य भी उसकी ईश्वर निष्ठा, सादगी, सिद्धांतप्रियता और सरलता को मिटा न सका। होता यह है कि जब किसी को कोई उच्चाधिकार मिलता है, तो भले ही कार्य प्रजा और समाज की सेवा और भलाई का हो, वह अपना स्वार्थ-साधन करने लगता है, अहंकारपूर्वक वर्गहित का ध्यान भूल जाता है।


🔴 उन सबके लिए नासिरुद्दीन का जीवन एक पाठ है। उससे शिक्षा मिलती है कि बडप्पन मनुष्य की आदतों, भावनाओं और सच्चाईपूर्वक कर्तव्य परायणता का है दर्प और स्वार्थ का, धन का नहीं।


🔵 नासिरुद्दीन गद्दी पर बैठे तब भी उनकी धर्मपत्नी को भोजन अपने हाथ से ही पकाना पडता था। राजा स्वयं उन्हीं के हाथों का भोजन करता। उस भोजन में न तो बहुत विविधता होती, न मिर्च मसाले। सीधा सरल औसत दर्जे का भोजन बनता और राज-परिवार इसे ही ग्रहण करता। यद्यपि राजकोष और धन की कमी न थी। नासिरुद्दीन चाहते तो राजसी ठाठ-बाट का भोजन भी पकवाते। दस बीस रसोईये भी रख लेना उनके लिए पलकें मारने की तरह सरल था, तो भी सरल सम्राट ने प्रदर्शन नहीं किया, अपने आपको भी सामान्य नागरिक जैसा ही प्रस्तुत किया। अपने काम वह स्वयं अपने हाथ से करता तो बेगम को क्यों न वैसा ही जीवन बिताना पडता?


🔴 सामान्य जीवन में जो कठिनाइयों रहती हैं, उनका अभ्यास उन्हें भी करना पडा इस से उन्हें प्रजा का यथार्थ हित समझने का अवसर मिला, प्रजा भी ऐसे नेक राजा से बडा स्नेह रखती संसार कैसा भी हो लोग आदर्श, सच्चे और ईमानदारी का सम्मान और प्रतिष्ठा करते हैं, भले ही वह छोटा आदमी क्यों न हो? अहंकारी और धूर्त लोग चाहे कितने ही वैभवशाली क्यों न हो, उन्हें हृदय से कोई सम्मान नहीं देता।


🔵 गर्मी के दिन थे। इन दिनो गर्मी तो होती ही है, लू भी चलती है, बेगम एक दिन भोजन बना रहीं थी, कि बाहर से हवा का झोंका आया, लपट उठीं और उससे उनका हाथ जल गया वे बहुत दुःखी हुई आँखें भर आईं, आँसू बहने लगे नासिरुद्दीन भोजन के लिये आये तो बेगम ने विनीत भाव से पूछा- ''मुझे अकेले सब काम करने पडते हैं, उससे बडी मुश्किल पडती है, आपके पास इतना सारा राज्यकोष और वैभव है, क्या हमारे लिये भोजन पकाने वालों की भी यवस्था नही कर सकते?


🔴 चिंतनशील नासिरुद्दीन गंभीर हो गया उसने कहा- बेगम आपकी इच्छा पूरी की जा सकती है, पर उसका एक ही उपाय है कि हम अपने सिद्धांतो से डिगे, बनावट और बेईमानदारी का जीवन जियें। यह धन जो तुम देखती हो, वह मेरा नहीं सारी प्रजा का है, मैं तो उसका मात्र व्यवस्थापक हूँ। व्यवस्थापक के लिए जितनी सुविधाएं और पारिश्रमिक चाहिए हम उतना ही लेते हैं अब आप ही बताइए अतिरिक्त व्यवस्था के लिए अतिरिक्त धन कहाँ से आए? फिजूलखर्ची न तो मेरे हित में है और न ही प्रजा के हित में फिर वैसी व्यवस्था कैसे की जा सकती है?


🔵 नासिरुद्दीन की दृढ़ता और सिद्धांतप्रियता के आगे बेगम को चुप रह जाना पड़ा। इससे वह असंतुष्ट नहीं वरन् पति से सच्चे देवत्व के दर्शन कर प्रसन्न ही हुई।


🔴 जब तक राजा रहा नासिरुद्दीन ने कभी भी वैभव का जीवन नहीं, बिताया। अपने अतिरिक्त व्यय की व्यवस्था वह अतिरिक्त परिश्रम से करता था। अवकाश के समय सिली हुई टोपियॉ, लिखी हुई कुरानों की बिक्री से जो धन मिलता था, नासिरुद्दीन उसे ही काम में लेता था। इस तरह उसने अधिकारी और प्रजा के बीच समन्वय का अनुकरणीय आदर्श प्रस्तुत किया।


🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य

🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 81, 82

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