ज्ञानवर्धक
कथाएं भाग -42
👉 डर पर जीत हासिल करने की सीख देती कहानी
सुमित और रोहित एक छोटे से गाँव में
रहते थे। एक बार दोनों ने फैसला किया कि वे गाँव छोड़कर शहर जायेंगे और वही कुछ
काम-धंधा खोजेंगे। अगली सुबह वे अपना-अपना सामान बांधकर निकल पड़े। चलते-चलते उनके
रास्ते में एक नदी पड़ी, ठण्ड अधिक होने के कारण नदी का पानी जम चुका
था। जमी हुई नदी पे चलना आसान नहीं था, पाँव फिसलने पर गहरी
चोट लग सकती थी।
इसलिए दोनों इधर-उधर देखने लगे कि
शायद नदी पार करने के लिए कहीं कोई पुल हो! पर बहुत खोजने पर भी उन्हें कोई पुल
नज़र नहीं आया। रोहित बोला, “हमारी तो किस्मत ही खराब है, चलो वापस चलते हैं, अब गर्मियों में शहर के लिए
निकलेंगे! “नहीं”, सुमित बोला, “नदी
पार करने के बाद शहर थोड़ी दूर पर ही है और हम अभी शहर जायेंगे…”और ऐसा कह कर वो
धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगा।
अरे ये क्या का रहे हो…।पागल हो गए
हो…तुम गिर जाओगे…”रोहित चिल्लाते हुए बोल ही रहा था कि सुमित पैर फिसलने के कारण
गिर पड़ा। “कहा था ना मत जाओ।।”, रोहित झल्लाते हुए बोला। सुमित ने कोई
जवाब नही दिया और उठ कर फिर आगे बढ़ने लगा एक-दो-तीन-चार…।और पांचवे कदम पे वो फिर
से गिर पड़ा।। रोहित लगातार उसे मना करता रहा…मत जाओ…आगे मत बढ़ो…गिर जाओगे…चोट लग
जायेगी… लेकिन सुमित आगे बढ़ता रहा।
वो शुरू में दो-तीन बार गिरा ज़रूर
लेकिन जल्द ही उसने बर्फ पर सावधानी से चलना सीख लिया और देखते-देखते नदी पार कर
गया। दूसरी तरफ पहुँच कर सुमित बोला, ” देखा मैंने नदी पर कर
ली…और अब तुम्हारी बारी है!” “नहीं, मैं यहाँ पर सुरक्षित
हूँ… लेकिन तुमने तो शहर जाने का निश्चय किया था।” “मैं ये नहीं कर सकता! नहीं कर
सकते या करना नहीं चाहते! सुमित ने मन ही
मन सोचा और शहर की तरफ आगे बढ़ गया।
शिक्षा:-
दोस्तों, हम
सबकी ज़िन्दगी में कभी न कभी ऐसे मोड़ आ ही जाते हैं जब जमी हुई नदी के रूप में कोई
बड़ी बाधा या Challenge हमारे सामने आ जाता है। और ऐसे में हमें कोई निश्चय करना होता है। तब क्या
हम खतरा उठाने का निश्चय लेते हैं और तमाम मुश्किलों, डर,
और असफलता के भय के बावजूद नदी पार करते हैं? या
हम Safe रहने के लिए वही खड़े रह जाते हैं जहाँ हम सालों से
खड़े थे?
जहाँ तक दुनिया के सफल लोगों का
सवाल है वे रिस्क लेते हैं…अगर आप नहीं लेते तो हो सकता है आज आप बिलकुल सुरक्षित
हों आपके शरीर पर एक भी घाव ना हों…लेकिन जब आप अपने भीतर झाकेंगे तो आपको अपने
अन्दर ज़रूर कुछ ऐसे ज़ख्म दिख जायेंगे जो आपके द्वारा अपने सपनो को के लिए कोई
प्रयास ना करने के कारण आज भी हरे होंगे।
दोस्तों, पंछी
सबसे ज्यादा सुरक्षित एक पिंजड़े में होता है…लेकिन क्या वो इसलिए बना है? या फिर वो आकाश की ऊँचाइयों को चूमने और आज़ाद घूमने के लिए दुनिया में आया
है? फैसला आपका है…आप पिंजड़े का पंछी बनना चाहते हैं या खुले
आकाश का?
👉 दानवीर कर्ण
एक बार की बात है, कि
श्री कृष्ण और अर्जुन कहीं जा रहे थे। रास्ते में अर्जुन ने श्री कृष्ण जी,
से पूछा कि हे प्रभु! एक जिज्ञासा है, मेरे मन
में, यदि आज्ञा हो तो पूछूँ? श्री
कृष्ण जी ने कहा, पूछो अर्जुन। तब अर्जुन ने कहा कि मुझे आज
तक यह बात समझ नहीं आई है। कि दान तो मै भी बहुत करता हूँ, परन्तु
सभी लोग कर्ण को ही सब से बड़ा दानी क्यों कहते हैं?
यह प्रश्न सुन कर श्री कृष्ण जी मुसकुराये
और बोले कि आज मैं तुम्हारी यह जिज्ञासा अवश्य शान्त करूंगा। श्री कृष्ण जी ने पास
की ही दो स्थित पहाड़ियों को सोने का बना दिया। इस के पश्चात वह अर्जुन से बोले कि
"हे अर्जुन" इन दोनों सोने की पहाड़ियों को तुम आस-पास के गाँव वालों में
बाँट दो।
अर्जुन प्रभु से आज्ञा ले कर तुरन्त
ही यह काम करने के लिए चल दिया। उस ने सभी गाँव वालों को बुलाया और उनसे कहा कि वह
लोग पंक्ति बना लें। अब मैं आपको सोना बाटूंगा और सोना बांटना आरम्भ कर दिया।
गाँव वालों ने अर्जुन की बहुत
प्रशंसा की। अर्जुन सोने को पहाड़ी में से तोड़ते गए और गाँव वालों को देते गए।
लगातार दो दिन और दो रातों तक अर्जुन सोना बाँटते रहे।
उन में अब तक अहंकार आ चुका था।
गाँव के लोग वापस आ कर दोबारा से लाईन में लगने लगे थे। इतने समय पश्चात अर्जुन
बहुत थक चुके थे। जिन सोने की पहाड़ियों से अर्जुन सोना तोड़ रहे थे, उन
दोनों पहाड़ियों के आकार में कुछ भी कमी नहीं आई थी।
उन्होंने श्री कृष्ण जी से कहा कि
अब मुझ से यह काम और न हो सकेगा। मुझे थोड़ा विश्राम चाहिए, प्रभु
ने कहा कि ठीक है! तुम अब विश्राम करो और उन्होंने कर्ण को बुला लिया।
उन्होंने कर्ण से कहा कि इन दोनों
पहाड़ियों का सोना इन गांव वालों में बाँट दो। कर्ण तुरन्त सोना बाँटने चल दिये।
उन्होंने गाँव वालों को बुलाया और उन से कहा यह सोना आप लोगों का है, जिस
को जितना सोना चाहिए वह यहां से ले जाये। ऐसा कह कर कर्ण वहां से चले गए।
अर्जुन बोले कि ऐसा विचार मेरे मन
में क्यों नहीं आया?
इस पर श्री कृष्ण जी ने उत्तर दिया, कि
तुम्हें सोने से मोह हो गया था। तुम स्वयं यह निर्णय कर रहे थे, कि किस गाँव वाले की कितनी आवश्यकता है। उतना ही सोना तुम पहाड़ी में से
खोद कर उन्हें दे रहे थे।
तुम में दाता होने का भाव आ गया था, दूसरी
ओर कर्ण ने ऐसा नहीं किया। वह सारा सोना गाँव वालों को देकर वहां से चले गए। वह
नहीं चाहते थे कि उनके सामने कोई उन की जय जय-कार करें या प्रशंसा करें। उनके पीठ
पीछे भी लोग क्या कहते हैं, उस से उनको कोई अन्तर नहीं पड़ता।
यह उस व्यक्ति की निशानी है, जिसे
आत्मज्ञान प्राप्त हो चुका है। इस प्रकार श्री कृष्ण ने अर्जुन के प्रश्न का उत्तर
दिया, अर्जुन को भी उसके प्रश्न का उत्तर मिल चुका था।
दान देने के बदले में धन्यवाद या
बधाई की इच्छा करना उपहार नहीं सौदा
कहलाता है।
यदि हम किसी को कुछ दान या सहयोग
करना चाहते हैं। तो हमें यह कार्य बिना किसी अपेक्षा या आशा के करना चाहिए। ताकि
यह हमारा सत्कर्म हो, ना कि हमारा अहंकार।
बड़ा दानी वही है जो बिना किसी
इच्छा के दान देता है और जब वह दान देता है। तो यह नहीं चाहता, कि
कोई मेरी जय जयकार करें। वह तो केवल दान देता है, बदले में
उसे और कुछ नहीं चाहिए होता। जो दान देने में ऐसा भाव रखता है, वही असली दान देने वाला कहलाता है।
👉 उम्मीद का दिया
एक घर में पांच दिए जल रहे थे।
एक दिन पहले एक दिए ने कहा -
इतना जलकर भी मेरी रोशनी की लोगों
को कोई कदर नहीं है।।।
तो बेहतर यही होगा कि मैं बुझ जाऊं।
वह दिया खुद को व्यर्थ समझ कर बुझ
गया।
जानते है वह दिया कौन था?
वह दिया था उत्साह का प्रतीक।
यह देख दूसरा दिया जो शांति का
प्रतीक था, कहने लगा -
मुझे भी बुझ जाना चाहिए।
निरंतर शांति की रोशनी देने के
बावजूद भी लोग हिंसा कर रहे है।
और शांति का दिया बुझ गया।
उत्साह और शांति के दिये के बुझने
के बाद,
जो तीसरा दिया हिम्मत का था, वह भी अपनी
हिम्मत खो बैठा और बुझ गया।
उत्साह, शांति
और अब हिम्मत के न रहने पर चौथे दिए ने बुझना ही उचित समझा।
चौथा दिया समृद्धि का प्रतीक था।
सभी दिए बुझने के बाद केवल पांचवां
दिया अकेला ही जल रहा था।
हालांकि पांचवां दिया सबसे छोटा था
मगर फिर भी वह निरंतर जल रहा था।
तब उस घर में एक लड़के ने प्रवेश
किया।
उसने देखा कि उस घर में सिर्फ एक ही
दिया जल रहा है।
वह खुशी से झूम उठा।
चार दिए बुझने की वजह से वह दुखी नहीं
हुआ बल्कि खुश हुआ।
यह सोचकर कि कम से कम एक दिया तो जल
रहा है।
उसने तुरंत पांचवां दिया उठाया और
बाकी के चार दिए फिर से जला दिए।
जानते है वह पांचवां अनोखा दिया कौन
सा था?
वह था उम्मीद का दिया।।।
इसलिए अपने घर में अपने मन में
हमेशा उम्मीद का दिया जलाए रखिये।
चाहे सब दिए बुझ जाए लेकिन उम्मीद
का दिया नहीं बुझना चाहिए।
ये एक ही दिया काफी है बाकी सब
दियों को जलाने के लिए।।।।
ख़ुशियाँ आएगी, कुछ
समय बाद सब सामान्य होगा, उम्मीद का दिया जलाए रखें।
👉 Aadha Kilo Aata आधा किलो
आटा
एक नगर का सेठ अपार धन सम्पदा का
स्वामी था। एक दिन उसे अपनी सम्पत्ति के मूल्य निर्धारण की इच्छा हुई। उसने तत्काल
अपने लेखा अधिकारी को बुलाया और आदेश दिया कि मेरी सम्पूर्ण सम्पत्ति का मूल्य
निर्धारण कर ब्यौरा दीजिए, पता तो चले मेरे पास कुल कितनी सम्पदा है।
सप्ताह भर बाद लेखाधिकारी ब्यौरा
लेकर सेठ की सेवा में उपस्थित हुआ। सेठ ने पूछा- “कुल कितनी सम्पदा है?” लेखाधिकारी
नें कहा – “सेठ जी, मोटे तौर पर कहूँ तो आपकी सात पीढ़ी बिना
कुछ किए धरे आनन्द से भोग सके इतनी सम्पदा है आपकी”
लेखाधिकारी के जाने के बाद सेठ
चिंता में डूब गए, ‘तो क्या मेरी आठवी पीढ़ी भूखों मरेगी?’
वे रात दिन चिंता में रहने लगे।
तनाव ग्रस्त रहते, भूख भाग चुकी थी, कुछ ही दिनों में कृशकाय हो गए। सेठानी द्वारा बार बार तनाव का कारण पूछने
पर भी जवाब नहीं देते। सेठानी से हालत देखी नहीं जा रही थी। उसने मन स्थिरता व
शान्त्ति के किए साधु संत के पास सत्संग में जाने को प्रेरित किया। सेठ को भी यह
विचार पसंद आया। चलो अच्छा है, संत अवश्य कोई विद्या जानते
होंगे जिससे मेरे दुख दूर हो जाय।
सेठ सीधा संत समागम में पहूँचा और
एकांत में मिलकर अपनी समस्या का निदान जानना चाहा। सेठ नें कहा- “महाराज मेरे दुख
का तो पार नहीं है, मेरी आठवी पीढ़ी भूखों मर जाएगी। मेरे पास
मात्र अपनी सात पीढ़ी के लिए पर्याप्त हो इतनी ही सम्पत्ति है। कृपया कोई उपाय
बताएँ कि मेरे पास और सम्पत्ति आए और अगली पीढ़ियाँ भूखी न मरे। आप जो भी बताएं मैं
अनुष्ठान, विधी आदि करने को तैयार हूँ”
संत ने समस्या समझी और बोले- “इसका
तो हल बड़ा आसान है। ध्यान से सुनो सेठ, बस्ती के अन्तिम छोर पर एक
बुढ़िया रहती है, एक दम कंगाल और विपन्न। उसके न कोई कमानेवाला
है और न वह कुछ कमा पाने में समर्थ है। उसे मात्र आधा किलो आटा दान दे दो। अगर वह
यह दान स्वीकार कर ले तो इतना पुण्य उपार्जित हो जाएगा कि तुम्हारी समस्त मनोकामना
पूर्ण हो जाएगी। तुम्हें अवश्य अपना वांछित प्राप्त होगा।”
सेठ को बड़ा आसान उपाय मिल गया। उसे
सब्र कहां था, घर पहुंच कर सेवक के साथ कुन्तल भर आटा लेकर पहुँच गया
बुढिया के झोपडे पर। सेठ नें कहा- “माताजी मैं आपके लिए आटा लाया हूँ इसे स्वीकार
कीजिए”
बूढ़ी मां ने कहा- “बेटा आटा तो मेरे
पास है,
मुझे नहीं चाहिए”
सेठ ने कहा- “फिर भी रख लीजिए”
बूढ़ी मां ने कहा- “क्या करूंगी रख
के मुझे आवश्यकता नहीं है”
सेठ ने कहा- “अच्छा, कोई
बात नहीं, कुन्तल नहीं तो यह आधा किलो तो रख लीजिए”
बूढ़ी मां ने कहा- “बेटा, आज
खाने के लिए जरूरी, आधा किलो आटा पहले से ही मेरे पास है, मुझे
अतिरिक्त की जरूरत नहीं है”
सेठ ने कहा- “तो फिर इसे कल के लिए
रख लीजिए”
बूढ़ी मां ने कहा- “बेटा, कल
की चिंता मैं आज क्यों करूँ, जैसे हमेशा प्रबंध होता है कल
के लिए कल प्रबंध हो जाएगा” बूढ़ी मां ने
लेने से साफ इन्कार कर दिया।
सेठ की आँख खुल चुकी थी, एक
गरीब बुढ़िया कल के भोजन की चिंता नहीं कर रही और मेरे पास अथाह धन सामग्री होते
हुए भी मैं आठवी पीढ़ी की चिन्ता में घुल रहा हूँ। मेरी चिंता का कारण अभाव नहीं
तृष्णा है।
वाकई तृष्णा का कोई अन्त नहीं है।
संग्रहखोरी तो दूषण ही है। संतोष में ही शान्ति व सुख निहित है।
👉 Lakdi Ka Katora लकड़ी का
कटोरा
एक वृद्ध व्यक्ति अपने बहु – बेटे
के यहाँ शहर रहने गया उम्र के इस पड़ाव पर
वह अत्यंत कमजोर हो चुका था, उसके हाथ कांपते थे और
दिखाई भी कम देता था वो एक छोटे से घर में
रहते थे, पूरा परिवार और उसका चार वर्षीया पोता एक साथ डिनर
टेबल पर खाना खाते थे लेकिन वृद्ध होने के कारण उस व्यक्ति को खाने में बड़ी दिक्कत
होती थी कभी मटर के दाने उसकी चम्मच से निकल कर फर्श पे बिखर जाते तो कभी हाँथ से
दूध छलक कर मेजपोश पर गिर जाता।
बहु-बेटे एक -दो
दिन ये सब सहन करते रहे पर अब उन्हें अपने पिता की इस काम से चिढ होने लगी हमें इनका कुछ करना पड़ेगा, लड़के
ने कहा बहु ने भी हाँ में हाँ मिलाई और बोली, आखिर कब तक हम
इनकी वजह से अपने खाने का मजा किरकिरा रहेंगे, और हम इस तरह
चीजों का नुक्सान होते हुए भी नहीं देख सकते।
अगले दिन जब खाने का वक़्त हुआ तो
बेटे ने एक पुरानी मेज को कमरे के कोने में लगा दिया, अब
बूढ़े पिता को वहीँ अकेले बैठ कर अपना भोजन करना था यहाँ तक की उनके खाने के
बर्तनों की जगह एक लकड़ी का कटोरा दे दिया
गया था, ताकि अब और बर्तन ना टूट -फूट सकें बाकी लोग पहले की
तरह ही आराम से बैठ कर खाते और जब कभी -कभार उस बुजुर्ग की तरफ देखते तो उनकी
आँखों में आंसू दिखाई देते यह देखकर भी बहु-बेटे का मन नहीं पिघलता, वो उनकी छोटी से छोटी गलती पर ढेरों बातें सुना देते वहां बैठा बालक भी यह
सब बड़े ध्यान से देखता रहता, और अपने में मस्त रहता।
एक रात खाने से पहले, उस
छोटे बालक को उसके माता-पिता ने ज़मीन पर बैठ कर कुछ करते हुए देखा, “तुम क्या बना रहे हो ?” पिता ने पूछा।
बच्चे ने मासूमियत के साथ उत्तर
दिया,
अरे मैं तो आप लोगों के लिए एक लकड़ी का कटोरा बना रहा हूँ, ताकि जब मैं बड़ा हो जाऊं तो आप लोग इसमें खा सकें, और
वह पुनः अपने काम में लग गया पर इस बात का उसके माता -पिता पर बहुत गहरा असर हुआ,
उनके मुंह से एक भी शब्द नहीं निकला और आँखों से आंसू बहने लगे वो
दोनों बिना बोले ही समझ चुके थे कि अब उन्हें क्या करना है उस रात वो अपने बूढ़े
पिता को वापस डिनर टेबल पर ले आये,
और फिर कभी उनके साथ अभद्र व्यवहार नहीं किया।
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