ज्ञानवर्धक
कथाएं भाग -41
👉 शरण
एक गरीब आदमी की झोंपड़ी पर…रात को
जोरों की वर्षा हो रही थी। सज्जन था, छोटी सी झोंपड़ी थी । स्वयं
और उसकी पत्नी, दोनों सोए थे। आधी रात किसी ने द्वार पर
दस्तक दी।
उन सज्जन ने अपनी पत्नी से कहा -
उठ! द्वार खोल दे। पत्नी द्वार के करीब सो रही थी । पत्नी ने कहा - इस आधी रात में
जगह कहाँ है? कोई अगर शरण माँगेगा तो तुम मना न कर सकोगे?
वर्षा जोर की हो रही है। कोई शरण
माँगने के लिए ही द्वार आया होगा न! जगह कहाँ है? उस सज्जन ने कहा -
जगह? दो के सोने के लायक तो काफी है, तीन
के बैठने के लायक काफी हो जाएगी। तू
दरवाजा खोल!
लेकिन द्वार आए आदमी को वापिस तो
नहीं लौटाना है। दरवाजा खोला। कोई शरण ही माँग रहा था। भटक गया था और वर्षा
मूसलाधार थी । वह अंदर आ गया । तीनों बैठकर गपशप करने लगे । सोने लायक तो जगह न थी
।
थोड़ी देर बाद किसी और आदमी ने दस्तक
दी। फिर फकीर ने अपनी पत्नी से कहा - खोल ! पत्नी ने कहा - अब करोगे क्या? जगह
कहाँ है? अगर किसी ने शरण माँगी तो?
उस सज्जन ने कहा - अभी बैठने लायक
जगह है फिर खड़े रहेंगे । मगर दरवाजा खोल! जरूर कोई मजबूर है । फिर दरवाजा खोला ।
वह अजनबी भी आ गया । अब वे खड़े होकर बातचीत करने लगे । इतना छोटा झोंपड़ा ! और खड़े
हुए चार लोग!
और तब अंततः एक कुत्ते ने आकर जोर से
आवाज की । दरवाजे को हिलाया । फकीर ने कहा - दरवाजा खोलो । पत्नी ने दरवाजा खोलकर
झाँका और कहा - अब तुम पागल हुए हो!
यह कुत्ता है । आदमी भी नहीं! सज्जन
बोले - हमने पहले भी आदमियों के कारण दरवाजा नहीं खोला था, अपने
हृदय के कारण खोला था!! हमारे लिए कुत्ते और आदमी में क्या फर्क?
हमने मदद के लिए दरवाजा खोला था ।
उसने भी आवाज दी है । उसने भी द्वार हिलाया है । उसने अपना काम पूरा कर दिया, अब
हमें अपना काम करना है । दरवाजा खोलो!
उनकी पत्नी ने कहा - अब तो खड़े होने
की भी जगह नहीं है! उसने कहा - अभी हम जरा आराम से खड़े हैं, फिर
थोड़े सटकर खड़े होंगे । और एक बात याद रख ! यह कोई अमीर का महल नहीं है कि जिसमें
जगह की कमी हो!
यह गरीब का झोंपड़ा है, इसमें
खूब जगह है!! जगह महलों में और झोंपड़ों में नहीं होती, जगह
दिलों में होती है!
अकसर आप पाएंगे कि गरीब कभी कंजूस
नहीं होता! उसका दिल बहुत बड़ा होता है!!
कंजूस होने योग्य उसके पास कुछ है
ही नहीं । पकड़े तो पकड़े क्या? जैसे- जैसे आदमी
अमीर होता है, वैसे कंजूस होने लगता है, उसमें मोह बढ़ता है, लोभ बढ़ता है ।
जरूरतमंद को अपनी क्षमता अनुसार शरण
दीजिए । दिल बड़ा रखकर अपने दिल में औरों के लिए जगह जरूर रखिये ।
👉 रिश्तों की अहमियत
"मैंने कोरोना को नहीं
हराया"
मैं एक प्रायवेट कम्पनी में बाबू
हूँ। हमेशा की तरह मैं कम्पनी में काम कर रहा था।
मुझे हल्का बुखार आया,शाम
तक सर्दी भी हो गई। पास ही के मेडिकल स्टोर से दवाइयां बुला कर खाई।
3-4 दिन थोड़ा ठीक रहा,एक
दिन अचानक साँस लेने में दिक्कत हुई। आक्सीजन लेबल कम होने लगा। मेरी पत्नी तत्काल
रिक्शा में लेकर मुझे अस्पताल पहुंची। सरकारी अस्पताल में पलंग फुल चल रहे थे,
मैं देख रहा था मेरी पत्नी मेरे इलाज के लिये डॉक्टर के सामने गिड़गिड़ा
रही थी। अपने परिवार को असहाय-सा बस देख ही पा रहा था। मेरी तकलीफ बढ़ती जा रही
थी।
मेरी पत्नी मुझे हौसला दिला रही थी, कह
रही थी, कुछ नहीं होगा हिम्मत रखो। (यह वही औरत थी जिसे मैं
हमेशा कहता था कि तुम बेवकूफ औरत हो, तुम्हें क्या पता
दुनिया में क्या चल रहा है?)
उसने एक प्रायवेट अस्पताल में लड़
झगड़ कर मुझे भरतीं करवाया, फिर अपने भाई याने मेरे साले को फोन लगाकर
सारी बातें बताई। उसकी उम्र होगी 20 साल करीबन (जो मेरी नजर में आवारा और निठल्ला
था जिसे मेरे घर आने की परमीशन नहीं थी।)
वह अकसर मेरी गैर हजारी में ही मेरे
घर आता-जाता था। अपने देवर को याने मेरे छोटे भाई को फोन लगा कर उसने बुलाया, जो
मेरे साले की उम्र का ही था (जो बेरोजगार था और मैं उसे कहता था - "काम का ना
काज का दुश्मन अनाज का")
दोनों घबराते हुए अस्पताल पहुंचे। दोनों की आंखों में आंसू
थे। दोनों कह रहे थे कि -
आप घबराना मत आपको हम कुछ नहीं होने
देंगे। डॉक्टर साहब कह रहे थे कि हम 3-4 घन्टे ही आक्सीजन दे पायेंगे फिर आपको ही
सिलेंडर की व्यवस्था करनी होगी।
मेरी पत्नी बोली- डॉक्टर साहब ये सब
हम कहां से लायेंगे? तभी मेरा भाई और साला बोले- हम लायेंगे
सिलेंडर आप इलाज शुरु कीजिए। दोनों वहां से रवाना हो गये। मुझ पर बेहोशी छाने लगी
और जब होश आया तो मेरे पास आक्सीजन सिलेंडर रखा था। मैंने पत्नी से पूछा- ये कहां
से आया? उसने कहा- तुम्हारा भाई और मेरा भाई दोनों लेकर आये
हैं। मैंने पूछा- कहां से लाये?
उसने कहा- ये तो वो ही जाने?
अचानक मेरा ध्यान पत्नी की खाली
कलाइयों पर गया। मैंने कहा - तुम्हारे कंगन कहां गये? (कितने
साल से लड़ रही थी कंगन दिलवाओ कंगन दिलवाओ। अभी पिछले महीने शादी की सालगिरह पर
दिलवाये थे बोनस मिला था उससे।) वह बोली - आप चुपचाप सो जाइये कंगन यहीं हैं कहीं
नहीं गये । मुझे उसने दवाइयां दी, मैं आराम करने लगा। नींद आ
गई जैसे ही नींद खुली क्या देखता हूं- *मेरी पत्नी कई किलो वजनी सिलेंडर को उठा कर
ले जा रही थी ।
(जो थोड़ा - सा भी वजनी सामान उठाना
होता था मुझे आवाज देती थी।)
आज कैसे कई किलो वजनी सिलेंडर तीसरी
मंजिल से नीचे ले जा रही थी और नीचे से भरा हुआ सिलेंडर ऊपर ला रही थी। मुझे
गुस्सा आया मेरे साले और मेरे भाई पर , ये दोनों कहाँ मर गये?
फिर सोचा आयेंगे तब फटकारूंगा। फिर पड़ोस के बैड पर भी एक सज्जन भरतीं
थे उनसे बातें करने लगा - मैंने कहा कि अच्छा अस्पताल है नीचे सिलेंडर आसानी से
मिल रहे हैं।
उन्होंने कहा - क्या खाक अच्छा
अस्पताल है यहां से 40 किलोमीटर दूर बड़े शहर में 7-8 घन्टे लाइन में लगने के बाद
बड़ी मुश्किल से एक सिलेंडर मिल पा रहा
है। आज ही अस्पताल में आक्सीजन की कमी से 17 मौतें हुई हैं ।
मैं सुनकर घबरा गया, सोचने
लगा कि शायद मेरा साला और भाई भी ऐसे ही सिलेंडर ला रहे होंगे। पहली बार दोनों के
प्रति सम्मान का भाव जागा था। कुछ सोचता इससे पहले पत्नी बड़ा-सा खाने का टिफ़िन
लेकर आती दिखी। पास आकर बोली - उठो खाना खा लो। उसने मुझे खाना दिया ।एक कौर खाते
ही मैंने कहा - ये तो माँ ने बनाया है। उसने कहा - हां माँ ने ही बनाया है।
माँ कब आई गाँव से? उसने
कहा - कल रात को ।अरे! वो कैसे आ गई अकेले तो वो कभी नहीं आई शहर ।
पत्नी बोली बस से उतर कर ऑटो वाले
को घर का पता जो एक पर्चे में लिखा था वह दिखा कर घर पहुंच गई ।
(मेरी माँ ने शायद बाबूजी के
स्वर्गवास के बाद पहली बार ही अकेले सफर किया होगा । गाँव की जमीन मां बेचने नहीं
दे रही थी तो मेरी माँ से मनमुटाव चल रहा था । कहती थी मेरे मरने के बाद जैसा लगे
वैसा करना, जीते जी तो नहीं बेचने दूंगी ।) पत्नी बोली -मुझे भी अभी
मेरी मां ने बताया कि आपकी माँ रात को आ गई थी । वो ही अपने घर से खाना लेकर आई है
। मैंने कहा- पर तुम्हारी मां को तो पैरों में तकलीफ है, उनसे
चलते नहीं बनता है । (मेरे ससुर के स्वर्गवास के बाद बहुत कम ही घर से निकलती है।)
पत्नी बोली आप आराम से खाना खाइये।
मैं खाना खाने लगा कुछ देर बाद मेरे फटीचर दोस्त का फोन आया ।
बोला हमारे लायक कोई काम हो तो बताना (मैंने मन में सोचा जो मुझसे उधार ले रखे हैं
3000 वही वापस नहीं किया, काम क्या बताऊं तुझे ? फिर भी मैंने मन में कहा - ठीक है जरूरत होगी तो बता दूंगा।)
मैंने मुंह बना कर फोन काट दिया 16 दिनों तक
मेरी पत्नी सिलेंडर ढोती रही मेरा भाई और साला लाईन में लगकर सिलेंडर लाते रहे।
फिर हालत में सुधार हुआ और 18 वें
दिन अस्पताल से छुट्टी हुई । मुझे खुद पर गर्व था कि मैंने कोरोना को हरा दिया।
मैं फूला नहीं समा रहा था।
घर पहुंच कर असली कहानी पता चली कि, मेरे
इलाज में बहुत सारा रुपया लगा है। कितना ये तो नहीं पता पर मेरी पत्नी के सारे
जेवर जो उसने मुझसे लड़-लड़ कर बनवाये थे,बिक चुके थे। मेरे
साले के गले की चेन बिक चुकी थी,जो मेरी पत्नी ने मुझसे साले
की जनेऊ में 15 दिन रूठ कर जबरदस्ती दिलवाई थी। मेरा भाई जिस बाइक को अपनी जान से
ज्यादा रखता था वो भी घर में दिखाई नहीं दे रही थी। मेरी माँ जिस जमीन को जीते जी
नहीं बेचना चाहती थी मेरे स्वर्गीय बाबूजी की आखिरी निशानी थी , वो भी मेरे इलाज में बिक चुकी थी।
मेरी पत्नी से लड़ाई होने पर मैं
गुस्से में कहता था कि जाओ अपनी माँ के घर चली जाओ वो मेरे ससुराल का घर भी गिरवी
रखा जा चुका था। मेरे निठल्ले दोस्त ने जो मुझसे 3000 रुपये लिए थे, ब्याज
सहित वापस कर दिये थे। जिन्हें मैं किसी
काम का नहीं समझता था,वे मेरे जीवन को बचाने के लिये पूरे
बिक चुके थे। मैं अकेला रोये जा रहा था बाकी सब लोग खुश थे क्योंकि मुझे लग रहा था
सब कुछ चला गया ,और उन्हें लग रहा कि मुझे बचा कर उन्होंने
सब कुछ बचा लिया।
अब मुझे कोई भ्रम नहीं था कि मैंने
कोरोना को हराया है क्योंकि कोरोना को तो मेरे अपनों ने, परिवार
ने हराया था।
सब कुछ बिकने के बाद भी मुझे लग रहा
था कि आज दुनिया में मुझसे अमीर कोई नहीं है।
👉 गुरु दक्षिणा
एक बार एक शिष्य ने विनम्रता पूर्वक
अपने गुरु जी से पूछा- ‘गुरु जी, कुछ लोग कहते हैं कि जीवन एक संघर्ष है,
कुछ अन्य कहते हैं कि जीवन एक खेल है और कुछ जीवन को एक उत्सव की
संज्ञा देते हैं। इनमें कौन सही है?’
गुरु जी ने तत्काल बड़े ही
धैर्यपूर्वक उत्तर दिया- ‘पुत्र,जिन्हें गुरु नहीं मिला उनके लिए जीवन
एक संघर्ष है; जिन्हें गुरु मिल गया उनका जीवन एक खेल है और
जो लोग गुरु द्वारा बताये गए मार्ग पर चलने लगते हैं, मात्र
वे ही जीवन को एक उत्सव का नाम देने का साहस जुटा पाते हैं।’
यह उत्तर सुनने के बाद भी शिष्य
पूरी तरह से संतुष्ट न था। गुरु जी को इसका आभास हो गया। वे कहने लगे- ‘लो,तुम्हें
इसी सन्दर्भ में एक कहानी सुनाता हूँ। ध्यान से सुनोगे तो स्वयं ही अपने प्रश्न का
उत्तर पा सकोगे।’
उन्होंने जो कहानी सुनाई, वह
इस प्रकार थी-
एक बार की बात है कि किसी गुरुकुल
में तीन शिष्यों ने अपना अध्ययन सम्पूर्ण करने पर अपने गुरु जी से यह बताने के लिए
विनती की कि उन्हें गुरुदाक्षिणा में, उनसे क्या चाहिए। गुरु जी
पहले तो मंद-मंद मुस्कराये और फिर बड़े स्नेह पूर्वक कहने लगे- ‘मुझे तुमसे
गुरुदक्षिणा में एक थैला भर के सूखी पत्तियां चाहिए, ला सकोगे?’
वे तीनों मन ही मन बहुत प्रसन्न हुए
क्योंकि उन्हें लगा कि वे बड़ी आसानी से अपने गुरु जी की इच्छा पूरी कर सकेंगे।
सूखी पत्तियाँ तो जंगल में सर्वत्र बिखरी ही रहती हैं| वे
उत्साहपूर्वक एक ही स्वर में बोले- "जी गुरु जी, जैसी
आपकी आज्ञा।’'
अब वे तीनों शिष्य चलते-चलते एक
समीपस्थ जंगल में पहुंच चुके थे। लेकिन यह देखकर कि वहाँ पर तो सूखी पत्तियाँ केवल
एक मुट्ठी भर ही थीं, उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा। वे सोच में
पड़ गये कि आखिर जंगल से कौन सूखी पत्तियां उठा कर ले गया होगा? इतने में ही उन्हें दूर से आता हुआ कोई किसान दिखाई दिया। वे उसके पास
पहुँच कर, उससे विनम्रता पूर्वक याचना करने लगे कि वह उन्हें
केवल एक थैला भर सूखी पत्तियां दे दे। अब उस किसान ने उनसे क्षमायाचना करते हुए,
उन्हें यह बताया कि वह उनकी मदद नहीं कर सकता क्योंकि उसने सूखी
पत्तियों का ईंधन के रूप में पहले ही उपयोग कर लिया था। अब, वे
तीनों, पास में ही बसे एक गाँव की ओर इस आशा से बढ़ने लगे थे
कि हो सकता है वहाँ उस गाँव में उनकी कोई सहायता कर सके। वहाँ पहुंच कर उन्होंने
जब एक व्यापारी को देखा तो बड़ी उम्मीद से उससे एक थैला भर सूखी पत्तियां देने के
लिए प्रार्थना करने लगे लेकिन उन्हें फिर से एक बार निराशा ही हाथ आई क्योंकि उस
व्यापारी ने तो, पहले ही, कुछ पैसे
कमाने के लिए सूखी पत्तियों के दोने बनाकर बेच दिए थे लेकिन उस व्यापारी ने उदारता
दिखाते हुए उन्हें एक बूढी माँ का पता बताया जो सूखी पत्तियां एकत्रित किया करती
थी। पर भाग्य ने यहाँ पर भी उनका साथ नहीं दिया क्योंकि वह बूढी माँ तो उन
पत्तियों को अलग-अलग करके कई प्रकार की ओषधियाँ बनाया करती थी।।अब निराश होकर वे
तीनों खाली हाथ ही गुरुकुल लौट गये।
गुरु जी ने उन्हें देखते ही स्नेह
पूर्वक पूछा- ‘पुत्रों, ले आये गुरु दक्षिणा?’
तीनों ने सर झुका लिया।
गुरु जी द्वारा दोबारा पूछे जाने पर
उनमें से एक शिष्य कहने लगा- ‘गुरुदेव, हम
आपकी इच्छा पूरी नहीं कर पाये। हमने सोचा था कि सूखी पत्तियां तो जंगल में सर्वत्र
बिखरी ही रहती होंगी लेकिन बड़े ही आश्चर्य की बात है कि लोग उनका भी कितनी तरह से
उपयोग करते हैं।"
गुरु जी फिर पहले ही की तरह
मुस्कराते हुए प्रेम पूर्वक बोले- ‘निराश क्यों होते हो? प्रसन्न
हो जाओ और यही ज्ञान कि सूखी पत्तियां भी व्यर्थ नहीं हुआ करतीं बल्कि उनके भी
अनेक उपयोग हुआ करते हैं; मुझे गुरु दक्षिणा के रूप में दे
दो।’
तीनों शिष्य गुरु जी को प्रणाम करके
खुशी-खुशी अपने-अपने घर की ओर चले गये।
वह शिष्य जो गुरु जी की कहानी
एकाग्रचित्त हो कर सुन रहा था, अचानक बड़े उत्साह से बोला- ‘गुरु जी,अब मुझे अच्छी तरह से ज्ञात हो गया है कि आप क्या कहना चाहते हैं। आप का
संकेत, वस्तुतः इसी ओर है न कि जब सर्वत्र सुलभ सूखी
पत्तियां भी निरर्थक या बेकार नहीं होती हैं तो फिर हम कैसे, किसी भी वस्तु या व्यक्ति को छोटा और महत्वहीन मान कर उसका तिरस्कार कर
सकते हैं? चींटी से लेकर हाथी तक और सुई से लेकर तलवार
तक-सभी का अपना-अपना महत्व होता है।’
गुरु जी भी तुरंत ही बोले- ‘हाँ, पुत्र,
मेरे कहने का भी यही तात्पर्य है कि हम जब भी किसी से मिलें तो उसे
यथायोग्य मान देने का भरसक प्रयास करें ताकि आपस में स्नेह, सद्भावना,
सहानुभूति एवं सहिष्णुता का विस्तार होता रहे और हमारा जीवन संघर्ष
के बजाय उत्सव बन सके। दूसरे, यदि जीवन को एक खेल ही माना
जाए तो बेहतर यही होगा कि हम निर्विक्षेप, स्वस्थ एवं शांत
प्रतियोगिता में ही भाग लें और अपने निष्पादन तथा निर्माण को ऊंचाई के शिखर पर ले
जाने का अथक प्रयास करें।’
"यदि हम मन, वचन
और कर्म- इन तीनों ही स्तरों पर इस कहानी का मूल्यांकन करें, तो भी यह कहानी खरी ही उतरेगी। सब के प्रति पूर्वाग्रह से मुक्त मन वाला
व्यक्ति अपने वचनों से कभी भी किसी को आहत करने का दुःसाहस नहीं करता और उसकी यही
ऊर्जा उसके पुरुषार्थ के मार्ग की समस्त बाधाओं को हर लेती है। वस्तुतः, हमारे जीवन का सबसे बड़ा ‘उत्सव’
पुरुषार्थ ही होता है-ऐसा विद्वानों का मत है।
अब शिष्य पूरी तरह से संतुष्ट था।
👉 'सफल जीवन'
एक बार एक शिष्य ने अपने गुरु से
पूछा-
गुरुदेव ये 'सफल
जीवन' क्या होता है?
गुरु शिष्य को पतंग उड़ाने ले गए।
शिष्य गुरु को ध्यान से पतंग उड़ाते
देख रहा था।
थोड़ी देर बाद शिष्य बोला-
गुरुदेव।। ये धागे की वजह से पतंग
अपनी आजादी से और ऊपर की ओर नहीं जा पा रही है, क्या हम इसे तोड़ दें?
ये और ऊपर चली जाएगी।
गुरु ने धागा तोड़ दिया ।।
पतंग थोड़ा सा और ऊपर गई और उसके बाद
लहरा कर नीचे आयी और दूर अनजान जगह पर जा कर गिर गई।।।
तब गुरु ने शिष्य को जीवन का दर्शन
समझाया।।।
बेटे।। 'जिंदगी में हम जिस ऊंचाई पर
हैं।।
हमें अक्सर लगता की कुछ चीजें, जिनसे
हम बंधे हैं वे हमें और ऊपर जाने से रोक रही हैं; जैसे :
-घर-
-परिवार-
-अनुशासन-
-माता-पिता-
-गुरू-और-
-समाज-
और हम उनसे आजाद होना चाहते हैं।।।
वास्तव में यही वो धागे होते हैं -
जो हमें उस ऊंचाई पर बना के रखते हैं।।
इन धागों के बिना हम एक बार तो ऊपर
जायेंगे परन्तु बाद में हमारा वो ही हश्र होगा, जो बिन धागे की पतंग का
हुआ।।।'
अतः जीवन में यदि तुम ऊंचाइयों पर
बने रहना चाहते हो तो, कभी भी इन धागों से रिश्ता मत तोड़ना।।"
धागे और पतंग जैसे जुड़ाव के सफल
संतुलन से मिली हुई ऊंचाई को ही 'सफल जीवन कहते हैं।।"
घर पर ही रहकर अपना और अपने का
ध्यान रखे सभी का जीवन मंगलमय हो।
👉 ईश्वर से डर
एक दिन सुबह-सुबह दरवाजे की घंटी
बजी। दरवाजा खोला तो देखा एक आकर्षक कद- काठी का व्यक्ति चेहरे पे प्यारी सी
मुस्कान लिए खड़ा है।
मैंने कहा, "जी कहिए।।"
तो उसने कहा,अच्छा
जी, आप तो रोज़ हमारी
ही गुहार लगाते थे?
मैंने कहा माफ कीजिये, भाई साहब! मैंने
पहचाना नहीं आपको।।।"
तो वह कहने लगे, "भाई साहब, मैं वह हूँ, जिसने
तुम्हें साहेब बनाया है।।। अरे ईश्वर हूँ।।, ईश्वर।। तुम
हमेशा कहते थे न कि नज़र में बसे हो पर नज़र नहीं आते।।। लो आ गया।।! अब आज पूरे दिन
तुम्हारे साथ ही रहूँगा।"
मैंने चिढ़ते हुए कहा,"ये क्या मज़ाक है?" "अरे मज़ाक नहीं है,
सच है। सिर्फ तुम्हें ही नज़र आऊंगा। तुम्हारे सिवा कोई देख-सुन नहीं
पाएगा मुझे। "कुछ कहता इसके पहले पीछे से माँ आ गयी।। "अकेला ख़ड़ा-खड़ा
क्या कर रहा है यहाँ, चाय तैयार है, चल
आजा अंदर। अब उनकी बातों पे थोड़ा बहुत यकीन होने लगा था, और
मन में थोड़ा सा डर भी था।। मैं जाकर सोफे पर बैठा ही था कि बगल में वह आकर बैठ गए।
चाय आते ही जैसे ही पहला घूँट पीया कि मैं गुस्से से चिल्लाया, अरे मॉं, ये हर रोज इतनी चीनी? "इतना कहते ही ध्यान आया कि अगर ये सचमुच में ईश्वर है तो इन्हें कतई पसंद
नहीं आयेगा कि कोई अपनी माँ पर गुस्सा करें। अपने मन को शांत किया और समझा भी दिया कि 'भई, तुम नज़र में हो आज।।। ज़रा ध्यान से!'
बस फिर मैं जहाँ-जहाँ।।। वह मेरे
पीछे-पीछे पूरे घर में।।। थोड़ी देर बाद नहाने के लिये जैसे ही मैं बाथरूम की तरफ
चला,
तो उन्होंने भी कदम बढ़ा दिए।।मैंने कहा, "प्रभु, यहाँ तो बख्श दो।।।"
खैर, नहाकर, तैयार होकर मैं पूजा घर में गया, यकीनन पहली बार
तन्मयता से प्रभु वंदन किया, क्योंकि आज अपनी ईमानदारी जो
साबित करनी थी।। फिर ऑफिस के लिए निकला, अपनी कार में बैठा,
तो देखा बगल में महाशय पहले
से ही बैठे हुए हैं। सफ़र शुरू हुआ तभी एक फ़ोन आया, और फ़ोन
उठाने ही वाला था कि ध्यान आया, 'तुम नज़र में हो।'
कार को साइड में रोका, फ़ोन
पर बात की और बात करते-करते कहने ही वाला था कि 'इस काम के
ऊपर के पैसे लगेंगे' ।।।पर ये तो गलत था, : पाप था,
तो प्रभु के सामने ही कैसे कहता तो एकाएक ही मुंह से निकल गया,"आप आ जाइये। आपका काम हो
जाएगा।"
फिर उस दिन ऑफिस में ना स्टॉफ पर
गुस्सा किया, ना किसी कर्मचारी से बहस की 25-50 गालियाँ तो रोज़
अनावश्यक निकल ही जातीं थीं मुंह से, पर उस दिन सारी गालियाँ,
'कोई बात नहीं, इट्स ओके।।।'में तबदील हो गयीं।
वह पहला दिन था जब क्रोध, घमंड,
किसी की बुराई, लालच, अपशब्द,
बेईमानी, झूठ- ये सब मेरी दिनचर्या का हिस्सा
नहीं बने।
शाम को ऑफिस से निकला, कार
में बैठा, तो बगल में बैठे ईश्वर को बोल ही दिया।।।
"प्रभु सीट बेल्ट लगा लें, कुछ
नियम तो आप भी निभाएं।।। उनके चेहरे पर संतोष भरी मुस्कान थी।।।"
घर पर रात्रि-भोजन जब परोसा गया तब
शायद पहली बार मेरे मुख से निकला,
"प्रभु, पहले
आप लीजिये।"
और उन्होंने भी मुसकुराते हुए
निवाला मुंह में रखा। भोजन के बाद माँ बोली, "पहली बार खाने में
कोई कमी नहीं निकाली आज तूने। क्या बात है ? सूरज पश्चिम से
निकला है क्या, आज?"
मैंने कहा माँ आज सूर्योदय मन में
हुआ है।।। रोज़ मैं महज खाना खाता था, आज प्रसाद ग्रहण किया है
माँ, और प्रसाद में कोई कमी नहीं होती।"
थोड़ी देर टहलने के बाद अपने कमरे में
गया,
शांत मन और शांत दिमाग के
साथ तकिये पर अपना सिर रखा तो ईश्वर ने प्यार से सिर पर हाथ फिराया और कहा,
"आज तुम्हें नींद के लिए किसी
संगीत,
किसी दवा और किसी किताब के सहारे की ज़रूरत नहीं है।"
गहरी नींद गालों पे थपकी से उठी
कब तक सोयेगा ।।, जाग
जा अब।
माँ की आवाज़ थी।।। सपना था शायद।।।
हाँ,
सपना ही था पर नींद से जगा गया।।। अब समझ में आ गया उसका इशारा।।।
"तुम मेरी नज़र में हो।।।।"
जिस दिन ये समझ गए कि
"वो" देख रहा है, सब कुछ ठीक हो जाएगा। सपने में आया एक विचार
भी आँखें खोल सकता है।
दोषारोपण🌻🌻
एक आदमी रेगिस्तान से गुजरते वक़्त
बुदबुदा रहा था,“कितनी बेकार जगह है ये,बिलकुल भी
हरियाली नहीं है और हो भी कैसे सकती है यहाँ तो पानी का नामो-निशान भी नहीं है।
तपती रेत में वो जैसे-जैसे आगे बढ़
रहा था उसका गुस्सा भी बढ़ता जा रहा था। अंत में वो आसमान की तरफ देख झल्लाते हुए
बोला- क्यों भगवान आप यहाँ पानी क्यों नहीं देते? अगर यहाँ पानी होता
तो कोई भी यहाँ पेड़-पौधे उगा सकता था और तब ये जगह भी कितनी खूबसूरत बन जाती!
ऐसा बोल कर वह आसमान की तरफ ही
देखता रहा मानो वो भगवान के उत्तर की प्रतीक्षा कर रहा हो! तभी एक चमत्कार होता है,नज़र
झुकाते ही उसे सामने एक कुंवा नज़र आता है!
वह उस इलाके में बरसों से आ-जा रहा
था पर आज तक उसे वहां कोई कुँवा नहीं दिखा था… वह आश्चर्य में पड़ गया और दौड़ कर
कुंवे के पास गया। कुंवा लाबालब पानी से भरा था।
उसने एक बार फिर आसमान की तरफ देखा
और पानी के लिए धन्यवाद करने की बजाये बोला - “पानी तो ठीक है लेकिन इसे निकालने
के लिए कोई उपाय भी तो होना चाहिए !!”
उसका ऐसा कहना था कि उसे कुँवें के
बगल में पड़ी रस्सी और बाल्टी दिख गयी। एक बार फिर उसे अपनी आँखों पर यकीन नहीं
हुआ! वह कुछ घबराहट के साथ आसमान की ओर देख कर बोला, “लेकिन मैं ये पानी
ढोउंगा कैसे?”
तभी उसे महसूस होता है कि कोई उसे
पीछे से छू रहा है,पलट कर देखा तो एक ऊंट उसके पीछे खड़ा था!अब
वह आदमी अब एकदम घबड़ा जाता है, उसे लगता है कि कहीं वो
रेगिस्तान में हरियाली लाने के काम में ना फंस जाए और इस बार वो आसमान की तरफ देखे
बिना तेज क़दमों से आगे बढ़ने लगता है।
अभी उसने दो-चार कदम ही बढ़ाया था कि
उड़ता हुआ पेपर का एक टुकड़ा उससे आकर चिपक जाता है।उस टुकड़े पर लिखा होता है –
मैंने तुम्हे पानी दिया,बाल्टी
और रस्सी दी।पानी ढोने का साधन भी दिया,अब तुम्हारे पास वो हर एक चीज है जो तुम्हे रेगिस्तान को हरा-भरा बनाने के
लिए चाहिए। अब सब कुछ तुम्हारे हाथ में है ! आदमी एक क्षण के लिए ठहरा !! पर अगले
ही पल वह आगे बढ़ गया और रेगिस्तान कभी भी हरा-भरा नहीं बन पाया।
मित्रों !! कई बार हम चीजों के अपने
मन मुताबिक न होने पर दूसरों को दोष देते हैं। कभी हम परिस्थितियों को दोषी ठहराते
हैं,कभी अपने बुजुर्गों को,कभी संगठन को तो कभी भगवान के
उपर इस दोषारोपण के चक्कर में हम इस
आवश्यक चीज को अनदेखा कर देते हैं कि - एक इंसान होने के नाते हममें वो शक्ति है
कि हम अपने सभी सपनों को खुद साकार कर सकते हैं।
शुरुआत में भले लगे कि ऐसा कैसे संभव है पर जिस तरह इस कहानी में उस इंसान
को रेगिस्तान हरा-भरा बनाने के सारे साधन मिल जाते हैं उसी तरह हमें भी प्रयत्न
करने पर अपना लक्ष्य प्राप्त करने के लिए ज़रूरी सारे उपाय मिल सकते हैं।
👉 दोस्तों !! समस्या ये है कि ज्यादातर लोग इन
उपायों के होने पर भी उस आदमी की तरह बस शिकायतें करना जानते है। अपनी मेहनत से अपनी
दुनिया बदलना नहीं! तो चलिए, आज इस कहानी से सीख लेते हुए हम शिकायत
करना छोडें और जिम्मेदारी लेकर अपनी दुनिया बदलना शुरू करें क्योंकि सचमुच सब कुछ
तुम्हारे हाथ में है !!
🌸हम बदलेंगे, युग बदलेगा।🌸
👉 बेटी
दिव्या विदा होकर चली गई, सुषमा
को अभी भी विश्वास नही हो रहा था। दिन भर मानो घर मे रौनक ही दिव्या से ही थी।
कभी लड़ना, कभी
बाहें गले मे डाल कर लटक जाना, कभी बाजार साथ, उनकी बेस्ट फ्रेंड थी दिव्या----
पूरा घर सांय सांय कर रहा था। यूं
तो घर मे बेटा मोहित, बहू शिल्पा, नन्हा
पोता सब थे, पर दिव्या-----
फिर से उनकी आंखें भरने लगी थीं।
करवट बदल कर लेटी ही थीं, की एक तेज आवाज सुनाई दी, ओफ्फो मम्मी! कितनी देर सोती रहेंगी? मुझे कॉलेज
निकलने में देर हो रही है।
इतनी तेज आवाज!!! शिल्पा तो नही हो
सकती। दिव्या!!! वो हड़बड़ा कर उठीं---
संभल कर!, अरे
ये क्या उनके सामने शिल्पा थी।
अचानक उनके मुँह से निकला, "कैसे बोल रही हो शिल्पा? क्या बिल्कुल ही भूल गई कि
किससे बात कर रही हो? थोड़ा तमीज----"
पर शिल्पा ने बीच मे ही बात काट कर कहा,
"किससे कर रही हूँ पता है---, मम्मी
से---"
क्या एक कप चाय भी मुझे निकलने से
पहले खुद ही बनानी होगी?
शिल्पा की आवाज में पहले वाली तेजी
बरकरार थी।
अब तक सुषमा बिस्तर छोड़ चुकीं थीं, गुस्से
में कुछ कहने के लिए मुँह खोला ही था, कि शिल्पा के चेहरे पर
नज़र पड़ी,
होंठों पर मंद स्मित और आंखों में
नमी---
सुषमा को अब सब समझ आ चुका था। आगे
बढ़कर उन्होंने शिल्पा को गले लगा लिया---
मेरी बेटी---
अब दोनो मां बेटी की आंखें भीग चुकी
थीं।
लाती हूँ चाय, पर
शाम को सब्जी तू ही बनाएगी कहे देती हूँ।
कह कर सुषमा हल्के मन से किचन की
तरफ बढ़ गई।
👉 अहंकार
एक दिन रामकृष्ण परमहंस किसी सन्त
के साथ बैठे हुए थे। ठण्ड के दिन थे। सांयकाल हो गया था। तब सन्त ने ठण्ड से बचने
के लिए कुछ लकड़ियां एकट्ठा कीं और धूनी जला दी। दोनों सन्त धर्म और अध्यात्म पर
चर्चा कर रहे थे।
इनसे कुछ दूर एक गरीब व्यक्ति भी
बैठा हुआ। उसे भी ठण्ड लगी तो उसने भी कुछ लकड़ियां एकट्ठा कर लीं। अब लकड़ी जलाने
के लिए उसे आग की आवश्यकता थी। वह तुरन्त ही दोनों संतों के पास पहुंचा और धूनी से
जलती हुई लकड़ी का एक टुकड़ा उठा लिया।
एक व्यक्ति ने सन्त द्वारा जलाई गई
धूनी को छू लिया तो सन्त गुस्सा हो गए। वे उसे मारने लगे। संत ने कहा कि तू
पूजा-पाठ नहीं करता है, भगवान का ध्यान नहीं करता, तेरी हिम्मत कैसे हुई, तूने मेरे द्वारा जलाई गई
धूनी को छू लिया।
रामकृष्ण परमहंस ये सब देखकर
मुस्कुराने लगे। जब संत ने परमहंसजी को प्रसन्न देखा तो उन्हें और गुस्सा आ गया।
उन्होंने परमहंसजी से कहा, ‘आप इतना प्रसन्न क्यों हैं? ये व्यक्ति अपवित्र है, इसने गन्दे हाथों से मेरे
द्वारा जलाई गई अग्नि को छू लिया है तो क्या मुझे गुस्सा नहीं होना चाहिए?’
परमहंसजी ने कहा, ‘मुझे
नहीं मालूम था कि कोई वस्तु छूने से अपवित्र हो जाती है। अभी आप ही कह रहे थे कि
सभी व्यक्तियों में परमात्मा का वास है। और थोड़ी ही देर पश्चात् आप ये बात स्वयं
ही भूल गए।’ उन्होंने आगे कहा, ‘वास्तव में इसमें आपकी गलती
नहीं है। आपका शत्रु आपके अन्दर ही है, वह है अहंकार।
घमण्ड के कारण ही हमारा सारा ज्ञान
व्यर्थ हो जाता है, इसीलिए हमें इससे बचना चाहिए। इस बुराई पर
विजय पाना बहुत कठिन है।
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