ब्रह्म विज्ञान - 4
अष्टाङ्ग – योग
यम, नियम,
आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान तथा समाधि
ये आठ योग के अङ्ग हैं । यम-नियम अष्टाङ्ग योग के आधार बिन्दु हैं ।
यम
यम पांच हैं जो
"सार्वभौमा महाब्रतम्" कहलाते हैं ।
अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः । (योगदर्शन २/३०)
(१) अहिंसा- शरीर, वाणी तथा मन से सब काल में, समस्त प्राणियों के साथ वैरभाव (= द्वेषभाव) छोड़कर प्रेमपूर्वक व्यवहार करना।
अहिंसा से अगले सत्यादि चार यम और सभी नियम अहिंसा पर आश्रित और इसकी सिद्धि के
लिये हैं।
(२) सत्य - जैसा देखा, सुना, पढ़ा,
अनुमान किया हुआ ज्ञान मन में है, वैसा ही वाणी से बोलना और शरीर से आचरण करना। आवश्यकता होने पर सत्य न बोलना
(चुप रहना) भी असत्य है। सत्य सब प्राणियों के हित के लिये हो ।
(३) अस्तेय - किसी वस्तु के स्वामी की आज्ञा के बिना उस वस्तु को न तो शरीर से
लेना, न लेने के लिये किसी को वाणी से कहना और न ही मन में लेने की इच्छा करना। तन, मन व धन से किसी पात्र को सहयोग न करना भी चोरी है ।
(४) ब्रह्मचर्य - मन तथा इन्द्रियों पर संयम करके वीर्य आदि शारीरिक शक्तियों
की रक्षा करना, वेदादि सत्य शास्त्रों को पढ़ना तथा ईश्वर
की उपासना करना।
(५) अपरिग्रह - हानिकारक एवं अनावश्यक
वस्तुओं का तथा हानिकारक एवं अनावश्यक विचारों का संग्रह न करना।
जातिदेशकालसमयानवच्छिन्नाः सार्वभौमा महाव्रतम् ।
(योगदर्शन २/३१)
जाति, देश,
काल और समय की सीमा से रहित सब अवस्थाओं में अनुष्ठान किये
जाने वाले उपरोक्त यम महाव्रत माने गये हैं ।
१. जाति - शरीर
(पशु, पक्षी, कीट, पतंग, मनुष्य आदि),
२. देश - स्थान
विशेष (मन्दिर, तीर्थस्थान इत्यादि)
३. काल - दिवस
विशेष (एकादशी, पूर्णिमा इत्यादि)
४. समय - अपना
नियम = सिद्धान्त (अतिथि को माँस खिलाऊँगा, स्वयं नहीं खाऊँगा इत्यादि)।
ये अहिंसा आदि यम जाति, देश,
काल और समय की सीमा से रहित (= सभी अवस्थाओं में पालन करने
योग्य) सब प्राणियों के लिये हितकारी महान् कर्त्तव्य हैं। अर्थात् सब प्राणियों
के साथ इन यमों का पालन करने से मनुष्य का जीवन महान् बनता है।
नियम
शौचसंतोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः । (योगदर्शन २/३२)
यमों के अनुष्ठान के साथ
नियमों का पालन योगाभ्यासी को अपने लक्ष्य की ओर बढ़ाता है, किन्तु यमों के बिना नियमों का पालन करना बाह्य दिखावा मात्र होने से पतन का
कारण भी हो सकता है।
(१) शौच- अद्भिर्गात्राणि शुध्यन्ति मनः सत्येन शुध्यति ।
विद्यातपोभ्यां भूतात्मा, बुद्धिज्ञानेन शुध्यति ॥ (मनु. ५/९)
अर्थ - जल से शरीर की, सत्य से मन की, विद्या और तप जीवात्मा की और ज्ञान
से बुद्धि की शुद्धि होती है।
बाह्य शुद्धि- शरीर, वस्त्र, निवास स्थान और आहार को पवित्र रखना
बुद्धिनाशक नशीले मद्य-मांस आदि का त्याग करना।
आन्तरिक शुद्धि- चित्तस्थ
मलों को दूर करना अर्थात् ईष्ष्या, द्वेष, लोभ,
मोह, क्रोध, रागादि मलों का त्याग कर देना।
(२) संतोष- यथाशक्ति ज्ञान व योग्यता अनुसार उत्तम कर्मों को करना, उससे प्राप्त फल से अधिक की इच्छा न करना। इससे लोभादि की वृत्तियाँ दु:ख नहीं
देतीं। सन्तोष पालन से प्राप्त सुख सर्वश्रेष्ठ होता है ।
(३) तप - उत्तम कर्मों के करने में हानि, अपमान, कष्ट,
बाधा आदि आने पर भी उस कर्म को न छोड़ना। गर्मी-सदी, सुख-दुःख, भूख-प्यास, मान-अपमान आदि द्वन्द्वों को सहना।
(४) स्वाध्याय - मोक्ष प्राप्ति का उपदेश करने वाले वेदादि सत्य शास्त्रों का
अध्ययन और ओंकारादि पवित्र मंत्रों का जप करना।
(५) ईश्वर प्रणिधान - समस्त साधनों शरीर, धन, मकान,
भूमि, सम्पदा, शक्ति, बुद्धि, सामर्थ्य आदि ईश्वर का मानकर उसकी आज्ञानुसार कर्म करना तथा उसके फल की इच्छा
छोड़ देना। जीवनमुक्त योगी पुरुष चाहे शय्या वा आसन पर स्थित हो, चाहे मार्ग में जा रहा हो, वह ईश्वर प्रणिधान
द्वारा स्वस्थ स्वरूप में ही स्थित होता है। उसके समस्त वितर्क-जाल संशय, अज्ञान, हिंसा आदि नष्ट हो गये होते हैं और वह योगी संसार के बीज ( अविद्यादि क्लेशों)
तथा उनके संस्कारों का नाश करता हुआ मोक्ष के आनन्द का अधिकारी बन जाता है।
आसन
आसन की परिभाषा -
उपाय तथा फल -
स्थिरसुखमासनम् ।- योगदर्शन २/४६
।
जिस स्थिति में बिना
हिले-डुले सुख पूर्वक ईश्वर का ध्यान किया जाता है, उसे आसन कहते हैं।
प्रयत्नशैथिल्यानन्तसमापत्तिभ्याम् । योगदर्शन २/४७
सब प्रयत्नों-चेष्टाओं को
समाप्त कर देने तथा अनन्त ईश्वर में ध्यान करने से आसन की सिद्धि होती है। आसन
सिद्धि के बिना ध्यान नहीं बनता। सर्वव्यापक परमात्मा हिलता-डुलता नहीं क्योंकि
उसे हिलने डुलने की जगह नहीं, जरूरत भी नहीं।
जब व्यक्ति न हिलने -डुलने वाले का ध्यान करता है तो वैसा ही न हिलने-डुलने वाला
बन जाता है। जैसे को देखता-विचार करता वैसा ही बन जाता है। आसन एक ही स्थान पर
लगायें। बिछाने वाला आसन चुभने वाला न हो।
आसन में प्रयत्न (चेष्टाओं)
को रोक देना चाहिये, अनन्त ईश्वर का ध्यान करना चाहिये
अर्थात् प्रभु सर्वत्र ठसा-ठस भरा हुआ है यह सुनते हैं, जानते हैं पर मानते-करते नहीं। आसन सिद्धि से भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी आदि नहीं सतायेंगे, परिणामत: ध्यान
भी लगेगा। सरलता से आसन लगने पर चित्त अनन्त आकाश व अनन्त ध्येय में चला जाता है
तब योगी को अपना शरीर सम्भालने का ज्ञान नहीं रहता ।
लक्ष्य स्मरण रखें कि मैं इस आसन पर
इसलिये बैठा हूँ कि ईश्वर प्राप्ति करूँगा। साथ ही ईश्वर समर्पित रहना। मन-वाणी से
हे ईश्वर ! आप सत्-चित् -आनन्द स्वरूप व निराकार हैं। हे भगवान् ! आप की ही उपासना
करने योग्य है। ऐसा न मानें कि वह कहीं अन्यत्र रहता है। ईश्वर को सर्वत्र
सर्वव्यापक मानना। साधक जब ध्यान में बैठता है तब ईश्वर को कहीं अन्यत्र बाहर या
अन्दर शरीर में खोजने लगता है। यह दोनों जगह गलत हैं। जहाँ जानता है कि मैं हूँ, यह आत्मा की अनुभूति जहाँ मैं हूँ वही ईश्वर है। वहीं ईश्वर को सीधे संबोधित
करे "मैं क्लेश-वासना आदि सहित हूँ, आप इनसे रहित
पुरुष विशेष हैं। में अल्पज्ञ, कर्म करने में स्वतन्त्र, पर फल भोगने में परतन्त्र हूँ। आप सच्चिदानन्द हैं, आपका नाम प्रणव: ओ३म् है।"
प्राणायाम
प्राणायाम की
परिभाषा-
तस्मिन्सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेदः प्राणायामः । (योगदर्शन २/४९)
उस उपर्युक्त आसन के सिद्ध होने पर विधि
पूर्वक,
विचार से यथाशक्ति श्वास-प्रश्वास की गति रोकने की जो
क्रिया है उसका नाम प्राणायाम है।
बाह्याभ्यन्तरस्तम्भवृत्तिर्देशकालसंख्याभिः परिदृष्टो
दीर्घसूक्ष्मः। और बाह्याभ्यन्तरविषयाक्षेपी चतुर्थ:।
(योगदर्शन
२/५०-५१)
यह प्राणायाम चार प्रकार का होता है। बाह्य, आभ्यन्तर, स्तम्भवृत्ति और बाह्य आभ्यन्तर
विषयाक्षेपी।
लाभ - ततः क्षीयते प्रकाशावरणम् । (योगदर्शन २/५२)
प्राणायाम
के अभ्यास से प्रकाश (ज्ञान) को ढकनेवाला आच्छादन नष्ट जाता है और 'धारणासु च योग्यता मनस:' (योगदर्शन २/५३) मस्तक, नासिका आदि स्थानों पर मन को रोकने की योग्यता बढ़ जाती है । प्राणायाम करने
से एक तो चित्तस्थ अशुद्धि का नाश और दूसरे मन के एकाग्र करने में पर्याप्त सहायता
मिलती है । जैसे अग्नि में तपाने से स्वर्ण आदि धातुओं के मल नष्ट हो जाते हैं
वैसे ही प्राणायाम से मनादि इन्द्रियों के मल नष्ट हो जाते हैं। प्राणायाम से अनेक
लाभ हैं।
(१) प्राण के वश में होने
पर मन स्वत: वश में हो जाता है। (२) आयु की वृद्धि होती है। (३) शारीरिक बल, वीर्य, पराक्रमादि बढ़ते हैं। (४) शारीरिक मानसिक
उन्नति होती है। (५) बुरे विचार नष्ट होते हैं। (६) रोग दूर होकर शरीर स्वस्थ होता
है। (७) चित्त का मल दूर होकर मुक्ति तक ज्ञान बढ़ता जाता है। (८) मन आदि
इन्द्रियों पर वशित्व होता है, मन एकाग्र होता है। (९)
बुद्धि बढ़ती है। (१०) छाती की पेशियाँ मजबूत होती हैं। (११) अन्त:करण में
विषय-भोग की वासना का नाश होता है। (१२) हित-अहित को पहचानने की योग्यता बढ़ती है।
(१३) भूख बढ़ती है। (१४) ब्रह्मचर्य का पालन होता है । (१५) आलस्य दूर होकर शरीर
हलका, स्फूर्ति वाला होता है। (१६) चञ्चलता का अभाव, शान्ति और धर्म में प्रवृत्ति होती है ।
प्रत्याहार
स्वयविषयासंप्रयोगे चित्तस्वरूपानुकार इवेन्द्रयाणां
प्रत्याहारः ॥ (योगदर्शन २/५४)
अर्थात् इन्द्रियों का अपने विषयों के साथ
सम्बन्ध न रहने पर मन के स्वरूप जैसा हो जाना (= रुक जाना) प्रत्याहार कहलाता है।
मन के रुक जाने पर नेत्रादि इन्द्रियों का अपने-अपने विषयों के साथ सम्बन्ध नहीं
रहता, अर्थात् इन्द्रियाँ शान्त होकर अपना कार्य बंद कर देती हैं, इस स्थिति का नाम प्रत्याहार है।
प्रत्याहार की सिद्धि होने से योगाभ्यासी
का इन्द्रियों पर सर्वोत्कृष्ट वशीकरण (= अच्छा नियंत्रण) हो जाता है। वह अपने मन
को जहां और जिस विषय में लगाना चाहता है, लगा लेता है, तथा जिस विषय से हटाना चाहता है, हटा लेता है।
धारणा ध्यान
योग के आठ अङ्गों में यम, नियम,
आसन, प्राणायाम व प्रत्याहार योग के
बहिरङ्ग साधन हैं तो धारणा, ध्यान और समाधि ये योग के अन्तरङ्ग
साधन हैं।
धारणा की परिभाषा - देशबन्धश्चित्तस्य धारणा ॥ योगदर्शन ३/१ ॥
मस्तक, नासिका, कण्ठ,
नाभि, हृदय आदि किसी एक स्थान
पर मन को स्थिर करना 'धारणा' है। ईश्वर विषयक ज्ञान को लगातार बनाये रखना बीच में किसी अन्य विषय को न आने
देना 'ध्यान' है | ईश्वर की
गवेषणा-खोज करना (ढूँढ़ना) ध्यान है।
ध्यान की परिभाषा - (१) तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम् ।। योगदर्शन ३/२ ॥
धारणा वाले स्थान पर मन को स्थिर करके, ईश्वर की खोज सम्बन्धी ज्ञान का लगातार बने रहना ध्यान है।
(२) ध्यानं निर्विषयं मनः ॥ सांख्य ६/२५ ॥ मन में सांसारिक विषयों का न रहना तथा ईश्वर का चिन्तन होते
रहना ध्यान है।
(३) रागोपहतिध्ध्यानम् ॥ सांख्य ३/३० ॥ सांसारिक विषयों के प्रति राग का नष्ट हो जाना तथा ईश्वर का
चिन्तन करते रहना ध्यान है।
प्रश्न- ध्यान
किसका नहीं होता ?
उत्तर - (१) जिस वस्तु के स्वरूप का ज्ञान
न हो उसका ध्यान नहीं होता। (२) जो प्रत्यक्ष ही मूर्तिमान हो उसका ध्यान नहीं
होता कारण कि वह तो ज्ञात-प्राप्त हो गया। (३) विपरीत लक्षण से अर्थात् मिथ्या
ज्ञान से भी वस्तु का ध्यान नहीं होता।
ईश्वर जिस गुण-कर्म-स्वभाव वाला नहीं है
वैसी कल्पना करना ध्यान नहीं अध्यान है, इससे ईश्वर
प्राप्त नहीं होगा।
जो वस्तु जैसी है उसको उसी रूप में मन
में रखकर उसकी जो खोज की जाती है उसी का नाम ध्यान है। जब ईश्वर निराकार है तो कोई
व्यक्ति उसको साकार मानकर लाखों जन्मों तक भी गवेषणा करे, तो भी उसका साक्षात्कार नहीं कर सकेगा। ईश्वर के वास्तविक स्वरूप को न जान कर, उसको शरीरधारी अवतार के रूप में मानकर ध्यान करने से अत्यन्त हानि हुई है।
लाखों-करोड़ों लोग ईश्वर की प्राप्ति से वञ्चित रह गये। ऐसे लोग विविध प्रकार के
दु:खों को भोगते हैं तथा भिन्न-भिन्न विरुद्ध रूप में ईश्वर को मानकर परस्पर
लड़ाई-झगड़े करके तन, मन और धन को नष्ट-भ्रष्ट करते हैं।
ईश्वर के वास्तविक स्वरूप को न समझना ही दु:खों का मुख्य
योग में ध्यान का स्थान - योग में ध्यान
का विशेष महत्त्व है | यदि ध्यान न करना आये तो योग में सफल
नहीं हो सकता। ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव व नाम जानकर जप और अर्थ भावना का विचार समर्पित भावना से करना ध्यान का
सच्चा स्वरूप है।
वैदिक रीति को छोड़ ध्यान की जो सैकड़ों
कल्पनायें की जाती हैं उनसे ईश्वर प्राप्ति=साक्षात्कार नहीं होता। उपनिषद् में
ध्यान (जप) की विधि -
प्रणवो धनुः शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते ।
अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत् ॥
(मुण्डकोपनिषद)
प्रणव धनुष है, आत्मा तीर है और ब्रह्म लक्ष्य है। ओ३म् रूपी धनुष आत्मा रूपी तीर को चढ़ाकर
लक्ष्य परमात्मा पर पहुँचा देगा, ईश्वर में आत्मा तीर की
भांति घुस जायेगा। परन्तु अन्य लोग पहले मन में विपरीत सिद्धान्त बना लेते हैं फिर
वेद-उपनिषद् की व्याख्या करते हैं। अर्थ में खींचतान करते हैं। गलत सिद्धान्त से
मानव जीवन नष्ट हो रहा है। जब जीव ही नहीं तो कौन ध्यान करे? ईश्वर (ध्यान का) विषय नहीं तो किसका ध्यान ? परन्तु
केवल शब्दज्ञान रखकर व्यक्ति क्रियारूप
नहीं देता तो मिथ्या अभिमान होगा, वह भी 'अहं ब्रह्मास्मि' मानने वालों की भांति कोरा रहेगा।
व्यवहार और उपासना काल में हमारे सारे सम्बन्ध ईश्वर से जुड़े रहने चाहिये।
ध्यान के लिये प्रसन्नता - ध्यान के लिये
मन की प्रसन्नता जरूरी है। खिन्नता, क्षोभ, राग,
द्वेष आदि रहित मन ही ध्यान में लगता है। परिवार में कोई
हानिकारक घटना हो गई। तो खिन्नता-क्षोभ गया। भोजन बांटने वाला एक, दो व तीसरी बार भी निकल गया पर हमें नहीं दिया तो मन में खिन्नता आ गई। परन्तु
साधक सावधान रहें, विपरीत भावना जागने पर मन को खिन्न न
होने दें। शरीर में सामान्य पीड़ा हो तो भी पुरुषार्थी साधक मन लगा सकेगा। साधक को
सदा सावधान रहना पड़ता है। उस ड्राईवर की भाँति जो गंगोत्री जमनोत्री मार्ग पर
चलता है,
पलक झपकते ही क्षण भर भी असावधानी बरते तो खाई में जा गिरे।
पढ़ते-लिखते, जानते होते हुए भी जो व्यवहार में प्रेम
से नहीं रह पाते वे दु:खी रहते हैं। खिन्नता न लाकर सन्तोष का प्रयोग करना पड़ता
है। उसे कोई चीज मिले न मिले उसकी अवस्था शान्त रहती है। एक तो मित्र खाना न
खिलाये तो भूख का दुःख, फिर क्यों न खिलाया यह मानसिक दुःख
स्वयं पैदा करता है। वृत्ति निरोध से दुःख दूर किया जा सकता है।
चित की प्रसन्नता के लिये जब व्यवहार में
प्रवृत्त हो तो इस प्रकार व्यवहार रखें।
मैत्रीकरुणामुदितो पेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां
भावनातश्चित्तप्रसादनम् ।
(योगदर्शन १/३३)
सुखी (= साधन सम्पन्न) व्यक्तियों के साथ
मित्रता,
दु:खी लोगों के प्रति दया, पुण्यात्माओं (धार्मिक, विद्वान्, परोपकारी लोगों) को देखकर प्रसन्न होना और पापियों के प्रति उपेक्षा (न राग न
द्वेष) की भावना (= व्यवहार) करने से योगाभ्यासी का मन प्रसन्न रहता है और प्रसन्न
मन एकाग्रता=स्थिरता को प्राप्त होता हैं।
ध्यान के लिये स्थिति (आसन) - आसनासीन होकर
ही ध्यान करें। ब्रह्मोपासना आसन से ही सम्भव है। शयान को आलस्य (नीन्द) घेर लेता
है। खड़ा श्रान्त हो जाता है। चलता हुआ चञ्चल होता है। जहाँ शान्त-एकान्त स्थल हो
वहाँ आसन लगायें। अचल रहने से ही ध्यान निष्पन्न होता है। हिलने-डुलने से मन डुल
जाता है।
ध्यान के लिये मनोनियंत्रण - भले ही लौकिक
व्यक्ति के मन में कोई विचार आये कोई विचार जाये, परन्तु योगाभ्यासी को अपना मन नियन्त्रण में रखना पड़ता है। जैसे कुशल
सेनाध्यक्ष युद्ध में सतत निरीक्षण करके किसी शत्रु को अपने क्षेत्र में प्रवेश
नहीं करने देता। इसी प्रकार योगाभ्यासी की आंखें उसके नियंत्रण में रहती हैं, वे चाहे जो नहीं देख सकतीं। वह आंख को ईश्वर की आज्ञा के अनुकूल ही देखने देता
है विरुद्ध नहीं। वह द्वेष दृष्टि से नहीं प्यार की दृष्टि से देखता है जैसे ईश्वर
सब प्राणियों को देखता है या अभ्यासी स्वयं अपने को प्यार की दृष्टि से देखता है ।
जब व्यक्ति ध्यान में बैठता है तो उसकी
स्थिति विचित्र, बहुत ऊँची होती है। सामान्य व्यवहार से
अलग। जिससे अपना मन मुटाव है, ध्यान अवस्था में उस
व्यक्ति से प्यार हो जाता है। उस समय उससे ईष्ष्या समाप्त हो जाती है। एक उद्देश्य
को दृढ़ बनाने के लिये आधा घण्टा विचार करें, ताकि संशय मिट
सके। संशयात्मक ज्ञान ईश्वर में प्रीति नहीं होने देता।
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