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ब्रह्म विज्ञान - 5

 

ब्रह्म विज्ञान - 5

 

 

जीवन जीने का उपदेश

 

 

      जैसे पृथ्वी की सत्ता वास्तविक है ऐसे ईश्वर की भी है। जब प्रत्यक्ष, अनुमान या शब्द प्रमाण से विचार करेंगे तब निदिध्यासन से निश्चय हो जायेगा। जैसे भूमि अन्नादि देती है, इसी तरह ईश्वर आनन्द-सुख देता है।

 

     ध्यान की एक पद्धति - ध्यान के लिये साधक प्रति दिन किसी निश्चित शान्त समय में तथा किसी नीरव स्थान पर शरीर को शिथिल करके आराम की सहज मुद्रा में सुखासन में बैठ जाये। साधक तटस्थ होकर चिन्तन प्रवाह को देखता रहे। केवल द्रष्टा बनकर आत्मनिरीक्षण करते हुए विश्लेषण, तुलना, मूल्यांकन आदि करके देखे कि विचार कहाँ से आते हैं ? कौन उठाता है ? तो पायेगा कि न तो जड़ मन में विचार स्वयं उठते हैं न कोई अन्य उठाता है। विचार उठाने वाला स्वयं निरीक्षण करने लगा तो विचार आने बन्द हो गये। तटस्थ द्रष्टा रहकर इस विचार प्रवाह को देखता रहे तथा स्वयं उसमें न जुड़े अन्यथा मन में तनाव आ जायेगा। वे सब इच्छायें और भय हमारे ही हैं जो हमें अनजाने दुःखी करते रहते हैं। धैर्य रखें तथा तटस्थ द्रष्टा होकर अपने भीतर के गहरे स्तर को देखते रहें । वास्तव में जड़ मन भी गतिमान् तो निरन्तर रहता है किन्तु हमें इस ध्यान अवस्था में ही उसका विशेष ज्ञान होता है। तब हमारे निरीक्षण के समक्ष जड़ मन नग्न होकर दीखने लगता है।

 

      ध्यान की दूसरी पद्धति - प्रणव 'ओम्' अथवा 'गायत्री मंत्र' को अर्थ सहित समर्पण भाव से थोड़ी देर तक धीरे-धीरे बोल कर जप करना चाहिये तथा स्वयं अपने मंत्रोच्चारण की ध्वनि को सुनना चाहिये। फिर मानसिक जप को प्रारम्भ कर देना चाहिये और आंख बन्द कर के अपने मानसिक जप को सुनने का प्रयत्न करना चाहिए। यह मानसिक जप करते हुए साधक को आत्म-समर्पण भाव से ओत-प्रोत होकर भाव पूर्ण प्रार्थना करनी चाहिए। परमेश्वर हृदय की वाणी, कातर पुकार को अवश्य सुनते हैं। वास्तव में जप या ध्यान साधन है, साध्य है प्रभु के साथ प्रत्यक्ष सम्बन्ध स्थापित करना। इसके द्वारा ईश्वर से सम्बन्ध जोड़ा जाता है। प्रार्थना करते हुए उपासक भाव विभोर हो जाता है। उसे कुछ समय के लिये अपने तन-मन तथा बहिर्जगत् का भान नहीं रहता तथा जप आदि छूट जाते हैं और साधक आनन्दलीन हो जाता है।

 

 

        ध्यानस्थ स्थिति व लाभ -  ध्यानावस्था में साधक को समीप के कोलाहल का नगण्य सा आभास हो सकता है; किन्तु तल्लीनता के कारण उसे बाधा का अनुभव न हो सकेगा। ध्यान की अवस्था में शरीर अत्यन्त भारहीन, मन सूक्ष्म और श्वास-प्रश्वास अलक्षित प्रतीत होते हैं। दूर प्रतीत होने वाला ईश्वर समीप अनुभव होने लगता है।

 

        ध्यान से दुःख की निवृत्ति - ध्यान द्वारा मन पर नियन्त्रण करने से काम, क्रोध, मोह आदि से पैदा होने वाले दु:ख बिलकुल नहीं छूते। शारीरिक दु:ख एक सीमा तक रोके जा सकते हैं। ईश्वर का ध्यान करने पर शारीरिक दु:ख कम सतायेंगे अथवा कम मात्रा वाले बिलकुल नहीं सतायेंगे। व्यवहारिक जीवन में यम-नियम का पालन करने से दोनों काल की सन्ध्या में (=ध्यान में) सफलता मिलती है।

 

समाधि

 

समाधि की विविध व्याख्यायें -

(१) तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधि: | (योगदर्शन ३/३)

 

     वह ध्यान ही केवल अर्थ (ईश्वर) के स्वसरूप को प्रकाशित करने वाला, अपने स्वरूप से शून्य जैसा 'समाधि' कहा जाता है।

 

        इसमें वस्तु तत्त्व (ईश्वर) प्रधान हो जाता है और व्यक्ति अपने को भूल सा जाता है। जिसमें भी समाधि लगाएगा वही दीखेगा। ध्यान केवल अप्रत्यक्ष का होता है, जो प्रत्यक्ष है ही उस दीखनेवाली वस्तु का ध्यान क्या? साधक ने अभ्यास करते हुए चित्त पर इतना अधिकार कर लिया कि कल्याण के लिये एक लक्ष्य 'ओ३म्' सर्वरक्षक पर जमा रहा, बीच में कोई वृत्ति नहीं उठाई। दूसरे विचार भी कि मैं शरीर हूँ या अन्य तत्त्व हूँ आदि किसी पर भी कोई वृत्ति उठाये बिना लगे रहना। जैसे विद्यार्थी पाठ को कण्ठस्थ करने के लिये अन्य विषयों को नहीं उठाता। तब ऐसे ही निर्धारित विषय ईश्वर में स्थित होने पर योगी की असम्प्रज्ञात समाधि होती है। और जब ईश्वर से भिन्न प्राकृतिक पदार्थ या जीव समाधि का विषय होते हैं तब वह सम्प्रज्ञात समाधि कहलाती है।

 

 

       (२) चित्तस्य (मनसः) ऐकाग्रयं समाधि: | अर्थात् चित्त की एकाग्रता को भी समाधि कहते हैं।

 

 

        (३) मनसः (चित्तस्यः) बरह्मणि समाधानं स्थिरीकरणं वा समाधिः । अर्थात् मन को ईश्वर में स्थिर कर देना समाधि है ।

 

(४) तदनारम्भ आत्मस्थे मनसि शरीरस्य दुःखाभाव: स योगः । (वैशेषिक दर्शन ५/२/१६)

 

      जब मनुष्य अपने मन को समस्त सांसारिक विषयों से हटाकर आत्मा-परमात्मा में स्थिर कर लेता है, तब वह समस्त शारीरिक और मानसिक दु:खों से रहित हो जाता है, इसे ही योग (समाधि) कहते हैं।

(५) तन्निवृत्तावुपशान्तोपरागः स्वस्थः। (सांख्य २/३४) वृत्तियों के समाप्त हो जाने पर इन्द्रियों के विषयों का प्रभाव शान्त हो जाने से, जिसका राग शान्त हो (रुक) गया है ऐसा व्यक्ति अपने आत्मा में स्थित हो जाता है, इसको समाधि (योग) कहते हैं ।

 

    जब व्यक्ति मन में किसी न किसी सांसारिक पदार्थ की अनुभूति (भोग) कर रहा होता है वह व्युत्थान अवस्था है। ध्यान से, समाधि से, एकान्त उपासना से, ईश्वर प्रणिधान अथवा अत्यन्त ब्रह्मविचार करने से जब मन केवल ब्रह्म में रत (मग्न) होता है, तब बाह्य जगत् से वह लापरवाह सा रहता है। उसे वह दिखाई ही नहीं पड़ता।

 

       समाधि के प्रारम्भिक काल में ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान का भेद नहीं रहता। यह अवस्था दूसरों को वाणी से पूर्णत: बतलाई नहीं जा सकती, अनुभव ही की जा सकती है। शान्त सम-बुद्धिवाला परमेश्वर के समान ही सदा आनन्दमय रहता है। व्यवहार में भी उसको लोगों से भय अथवा उससे लोगों को जरा भी अन्यायपूर्वक कष्ट नहीं होता। जो हर्ष -खेद, भय-विषाद, सुख-दुःख आदि बन्धनों से मुक्त, सदा अपने आप में ही सन्तुष्ट है। त्रिगुणों से जिसका अन्त:करण चञ्चल नहीं होता। स्तुति या निन्दा और मान या अपमान जिसे सम=एक से हैं। तथा प्राणी मात्र के अन्तर्गत आत्मा की एकता-समानता को परख, साम्य बुद्धि से आसक्ति छोड़कर, धैर्य और उत्साह से अपना कर्त्तव्य कर्म करता है वह स्थितप्रज्ञ, समाधि अवस्था को प्राप्त होता है।

 

         मन का निग्रह तथा योगाभ्यास करने से हमारे ऋषियों को ऐसी अवस्था (जीवनमुक्तावस्था) सहज थी। परन्तु आज लाखों मनुष्यों में एकाध ही इसके लिये प्रयत्न करता है; और इन प्रयत्न करने वालों में से किसी विरले को ही अनेक जन्मों के अनन्तर मोक्ष की स्थिति प्राप्त होती है।

 

          समाधि का स्वरूप - वह ध्यान ही समाधि बन जाता है। जैसे कोई बढ़ई लकड़ी को छीलता-छीलता उसे कुर्सी का आकार दे देता है वैसे ही ध्यान करते-करते समाधि में परिवर्तित हो जाता है। फिर ध्यान करने वाला जिस वस्तु को खोज रहा था वह तो प्रकाशित हो गई और खोजने वाला शून्य सा दीखने लग गया। वहाँ दीखना अर्थात् अनुभूति है। इसके लिये यह जरूरी नहीं कि वह वस्तु आकार वाली ही हो। जैसे अग्नि आँख से दीखने वाली है,

 

       जैसे अन्योन्य पदार्थ अलग-अलग इन्द्रियों से दीखते हैं, ज्ञात होते हैं। इसी प्रकार आत्मा को भी परमात्मा की अनुभूति या दर्शन होता है। समाधि में एक विचित्र सी दशा हो जाती है।

 

प्रज्ञा प्रसादमारुह्य अशोच्यः शोचतो जनान् ।भूमिष्ठानिव शैलस्थः सर्वान्प्राज्ञोऽनुपश्यति ॥

 

      जैसे पहाड़ पर रहने वाला भूमि पर रहने वालों को देखता है वैसे ही पुरुषार्थ से विवेक, वैराग्य को प्राप्त होकर उच्च स्थिति में पहुँचा योगी नीचे लौकिक जनों को क्लेशादि से पिसता हुआ अत्यन्त दु:खी देखता है।

 

      यह स्थिति सम्प्रज्ञात समाधिस्थ योगी की होती है। असम्प्रज्ञात समाधि में ईश्वर का साक्षात्कार होता है तब सारे संसार को ईश्वर में डूबा हुआ सा देखता है, जैसे कच्ची मिट्टी का टीला समुद्र में डूब जाता है। और योगाभ्यासी की हालत जलमग्न हुई रूई के समान अर्थात् जिसके भीतर-बाहर जल ही जल भरा हुआ है ऐसी होती है।

 

        समाधि लगने पर व्यक्ति मुक्त आकाश में विचरने जैसा अनुभव करता है। समाधि टूटती है तो भूमि पर लोक में उतर आने जैसा अनुभव करता है। लौकिक व्यक्ति को यह स्थिति बड़ी भयावह लगती है। क्योंकि उसे अपने सिवा कुछ भी दिखाई नहीं देता है। यह स्थिति प्रलय अवस्था जैसी होती है। किन्तु योगी (समाधिस्थ व्यक्ति) के लिये यह स्थिति निर्भय बनानेवाली होती है। योगी उस स्थिति को छोड़ना नहीं चाहता । इस अवस्था में शुद्ध ज्ञान-विज्ञान होता है, ऐसा अन्य अवस्था में नहीं होता।

 

       समाधि प्राप्ति की विधि - जो सृष्टि रचना को समझ लेता है, पुरुष व प्रकृति को विवेक -वैराग्य-अभ्यास से जान लेता है उसकी समाधि शीघ्र लग जाती है। ईश्वर-जीव-प्रकृति इन तीन को अपने ज्ञान में विशुद्ध रूप में लाकर खड़ा कर लेता है तो समाधि प्राप्त हो सकती है, यदि नहीं तो नहीं।

 

 

वेदों का महत्व

 

 

          मन जड़ है, क्योंकि यह तीन जड़ पदार्थों (सत्त्व-रज-तम) से उत्पन्न हुआ है। जो-जो चीज इन तीन जड़ त्त्वों के सम्मिलन से पैदा होती है वह जड़ होती है जैसे पृथिवी ।

 

      मन की अवस्थाएँ (१) क्षिप्त (२) मूढ़ (३) विक्षिप्त (४) एकाग्र (५) निरुद्ध इनको व्यक्ति समझ ले तो ठीक, यदि नहीं समझता तो त्रुटि है ।

 

      अभ्यासी अष्टाङ्ग योग का अभ्यास करते- करते ऊपर उठे। योग में क्या क्या गति हुई, क्या क्या अनुभूतियाँ हुई इसका सतत निरीक्षण करता रहे। यह कैसे पता लगाएँ कि समाधि लग गई है? वह विचारे कि क्या ऋषियों वाला अनुभव हमें मिलता है? यदि मिलता है तो समझें कि हमारी समाधि लग गई, यदि नहीं तो वह समाधि नहीं कहलायेगी। जैसी कोई कहे समाधि में मुझे ईश्वर जीवात्मा एक हो गये दीखते हैं तो गलत है क्योंकि वे एक हैं ही नहीं। यदि पुत्रैषणा, वित्तैषणा और लोकैषणा इन तीनों में से कोई भी ईश्वरैषणा को दबा देता है तो समझो समाधि नहीं ।

 

        जब नित्य-अनित्य का विवेक हो जाता है तब इस संसार का मालिक व सब से प्रिय वस्तु ईश्वर को मानता है। जब स्व-स्वामी सम्बन्ध छूटता है तब ईश्वर को पूर्णरूपेण स्वीकार कर लेता है। मैं-मेरा कुछ नहीं रहता। वर्तमान संसार प्रलयवत् दीखने लगता है। ईश्वर ही उसको सब कुछ दिखाई देता है। अर्थात् जब समाधि की स्थिति हाथ लगती है तो ईश्वर से अत्यन्त प्रेम दिखता है। प्रारंभ से आंख मिचि-मिचि सी रख कर कार्य करता है, फिर अभ्यास से बातें करते, चलते, व्यवहार करते हुए खुली आंख में भी समाधि की स्थिति नहीं बिगड़ती। खाता-पीता है पर स्वाद (=सुख) नहीं लेता। यह विधि सीखते-सीखते बड़ा समय लगता है।

 

      समाधि से प्रभावित शरीर - इस समाधि अवस्था का शरीर पर निम्न प्रभाव पड़ता है।

 

(१) मस्तिष्क पर दबाव पड़ता है जैसे कोई वस्तु चिपका दी हो।

(२) शारीरिक कष्ट एक सीमा तक तो दुःख नहीं देगा, पर भयंकर दर्द-घाव के दु:ख को नहीं रोक सकेगा ।

(३) सर्दी-गर्मी नहीं सतायेगी।

(४) भूख-प्यास योगी को कम सतायेगी ।

 

      समाधि का शरीर पर सीमित प्रभाव होता है। कट-मर जाने पर, शरीर बिना समाधि नहीं होती। परन्तु लोगों ने इसके वर्णन में अतिशयोक्ति कर दी। सम्भव के साथ असम्भव को जोड़ देने के परिणाम स्वरूप योग की सम्भव बातों को भी गप के रूप में माना जाने लगा।

 

      मन पर प्रभाव - काम, क्रोध, लोभ, मोह, अज्ञान, उलटे संस्कार आदि पर सीधा प्रभाव पड़ता है। इनका बिलकुल दग्धबीजभाव बन जाता है। विचारों पर पूर्ण नियंत्रण रहता है।

 

समाधि अवस्था में अनुभूतियाँ

 

       तस्य सप्तधा प्रान्तभूमिः प्रज्ञा (योगदर्शन २/२७) समाधि प्राप्त योगी को यह सात प्रकार की अनुभूतियां होती हैं :-

(१) छोड़ने योग्य दुःख को पूरा जान लिया, उसे और जानना शेष नहीं है ।

संसार दु:खरूप प्रतीत होता है। संसार में आना ही नहीं चाहता "तत्परं पुरुषख्यातेर्गुणवैतृष्ण्यम्" (योगदर्शन १/१६) योगी को सत्त्व-रज-तम तीनों गुणों से तृष्णा हट जाती है। यह परवैराग्य की अवस्था होती है। कोई भौतिकवादी माने न माने यह प्रत्यक्ष से सिद्ध है।

 

    (२) दु:ख के कारण अविद्यादि क्षीण कर दिये, वे और क्षीण करने शेष नहीं रह गये। दु:ख तो दुःख है ही, ज्वर होगा, छुरा मार दिया आदि पर अन्य सांसारिक सुखो में भी दु:ख मिश्रित है ।

 

"परिणामतापसंस्कार दुःखैर्गुणवृत्ति-विरोधाच्च दुःखमेव सर्वं विवेकिनः" ॥ (योगदर्शन २/१५) यह अभ्यास से धीरे अनुभव होगा, फिर बुद्धि स्वीकार करेगी।

 

      योगी को सांसारिक सुखों में दुःख दीखने लग जाता है। पांच इन्द्रियों के भोगों में दुःख मिश्रित सुख है। उसको योगी जान लेता है। प्रकृति में सुख है पर दुःख मिश्रित है।

 

       (३) असम्प्रज्ञात समाधि द्वारा मोक्ष सुख का अनुभव कर लिया है। यह समझने पर भी मोक्ष के उपाय श्रवण, मनन, स्वाध्याय आदि को छोड़ता नहीं है।

 

      (४) मोक्ष की उपायरूपा 'विवेकख्याति' को सिद्ध कर लिया है।

 

      (५) बुद्धि के दो प्रयोजन भोग और अपवर्ग सिद्ध हो गये हैं। बुद्धि की जितनी भाग-दौड़ थी वह पूर्ण हो गई है।

 

     (६) सत्त्वादि गुण मेरा अगला जन्म नहीं कर सकेंगे।

 

       (७) मोक्षावस्था में जीवात्मा दु:ख के कारणरूप सत्त्वादि गुणों के सम्बन्ध से रहित हो जाता है।

 

       सामान्य व्यक्ति इन शरीर, इन्द्रियों में अपने आप को घुला-मिला देखता है। समाधि प्राप्त योगी अपने (जीवात्मा) इन से स्पष्ट अलग देखता है। अपने को प्रकृति-विकृति से अलग जानता है। केवल अपने को ही नहीं जानता वरन् अपने में ईश्वर को भी ओत-प्रोत अनुभव करता है।

 

      समाधि से सम्बन्धित उपरोक्त बातें कोई भ्रान्ति नहीं, बलात् नहीं। ये काल्पनिक वा मनमानी बातें नहीं हैं। यह सब प्रमाणों से सिद्ध है। शंका कुशंका मन में लाने से लाभ नहीं। जो परिश्रम करेगा उसे निश्चय हो जायेगा। यदि दो बातें सत्य निकलीं तो आगे प्रयोग करने से अन्य दस बातें भी सिद्ध हो जायेंगी। सत्य, अहिंसा का पालन करने से बुद्धि का विकास होता है। करके देखें, वैर रहित होकर देखें, सोचें । बुद्धि अद्भुत् विकसित होगी।

 

      वृत्ति निरोध होते ही मस्तिष्क पर दबाव पड़ता है। वृत्तियों को बिलकुल रोक देना लम्बे अभ्यास के बाद हो पाता है। शरीर पर प्रभाव पड़ता है। छोटी-मोटी व्याधि नहीं सताती। बौद्धिक स्तर पर ऐसा लगेगा जैसे स्वतन्त्र आकाश में विचरण की स्थिति हो । वृत्ति निरोध की प्राप्ति के लिए अपने आपको मिटा देना पड़ता है। नाम-नामी, भोग- भोक्ता नहीं रहता। जब यह आरम्भ होता है आश्चर्य की बात होती है। यह कर सकना आपके वश में भी है, फिर भी आप कुछ नहीं कर रहे हैं। अर्थात् बिलकुल अल्प कर रहे हैं। कुत्ते, गधे, घोड़े आदि के पास तो साधन नहीं हैं। आप के पास साधन होते हुए भी नहीं करते।

 

       यह ऋषियों की परम्परा लुप्त हो गई थी । ऋषि दयानन्द ने उभारा, प्रकट कर दिया। बाद में आर्य समाज ने धर्म व देश के सुधार तथा स्वतन्त्रता के लिये बहुत प्रयत्न किया, परन्तु योग और ईश्वर की खोज पर, गवेषणा पर, शुद्ध सिद्धान्त होते हुए भी विशेष प्रयत्न नहीं किया। अन्यों के तो सिद्धान्त ही गलत हैं।

 

       इस योगविद्या विज्ञान को पुनः प्रचलित करने के लिये इन चीजों को क्रिया रूप देना, ईश्वर की खोज करना आवश्यक है। साधन जुटाकर व बाधाओं का समाधान करके फिर प्रमाणित करना है कि ईश्वर है और जाना जाता है। वेदों की बातें जानते जायें तो सिद्ध कर सकते हैं। साधक जैसे ही प्रलयवत् अवस्था सम्पादन कर लेता है तो समाधि आरम्भ हो जाती है। फिर स्थिति बढ़ते-बढ़ते पुरुषार्थ के बाद उसे ईश्वर अपना ज्ञान देता है। कृपा करके आनन्द देता है और क्लेशों की परिसमाप्ति हो जाती है। फिर वह अपने को, संसार को भी समाप्त अनुभव करता है। मैं भी कुछ हूँ यह भावना भी नहीं उभरती। अहम् भाव को मिटा देता है । केवल ईश्वर ही ईश्वर अनुभव होता है। इस अवस्था की प्राप्ति में ईश्वर- जीव- प्रकृति (त्रैतवाद) का शुद्ध सिद्धान्त काम करता है।

 

       व्यक्ति दुरितों से प्यार करता है, उलटी चीजों को छोड़ता नहीं अत: सब समझते हुए भी समाधि में सफलता नहीं मिल पाती।

 

       प्रलय अवस्था सम्पादन के प्रयोग से तुरन्त समाधि उपलब्ध हो जाती है। जो उत्पन्न होती है वह नष्ट भी होती है इसका ज्ञानपूर्वक सम्पादन कर लें। सब पदार्थ पञ्चमहाभूत से बनते हैं। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश से। भौतिक दृष्टि से जीवन का आधार सूर्य है। लगभग दो अरब वर्ष के बाद सूर्य की गर्मी कम होगी तो आधार बिना आधेय (=सब पदार्थ) नाश-प्रलय को प्राप्त हो जायेंगे। शनै: शनै: क्रमश: विनाश । नीरव- शान्त अंधकार। कुछ भी शेष नहीं रहता। जब विवेक पूर्वक इसका सम्पादन कर लेता है तो वृत्ति रहित होकर समाधि लग जाती है।

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