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मौलाना जलालुद्दिन रूमी की कथाएं भाग -5

 

17.    बाज और बादशाह

 

       एक बादशाह ने बाज पाल रखा था। वह उस पक्षी से बड़ा प्रेम करता था और उसे कोई कष्ट नहीं होने देता था। एक दिन बाज के दिल में न जाने क्या समायी कि बादशाह को छोड़कर चला गया। पहले तो बादशाह को बहुत रंज हुआ। परन्तु थोड़े दिन बाद वह उसे भूल गया। बाज़ छूट कर एक ऐसे मूर्ख व्यक्ति के हाथ में पड़ गया कि जिसने पहले उसके पर काट डाले और नाखून तराश दिये फिर एक रस्सी से बांध कर उसके आगे घास डाल दी और कहने लगा, "तेरा पहला मालिक कैसा मूर्ख था कि जिसने नाखून भी साफ न कराये, बल्कि उल्टे बढ़ा दिये। देख मैं, आज तेरी कैसी सेवा कर रहा हूं। तेरे बढ़े हुए बालों को काट कर बड़ी सुन्दर हजामत बना दी है और नाखुनों को तराश कर छोटा कर दिया है।

 

     "तू दुर्भाग्य से ऐसे गंवार के पल्ले पड़ गया, जो देखभाल करना भी नहीं जानता था। अब तू यहीं रह और देख कि मैं तुझको किस तरह घास चरा-चरा कर हृष्ट-पुष्ट बनाता हूं।"

 

     पहले तो बादशाह ने बाज का खयाल छोड़ दिया था, लेकिन कुछ दिन बाद उसे फिर उसकी याद सताने लगी। उसने उसको बहुत ढुंढ़वाया, परन्तु कहीं पता न चला। तब बादशाह स्वयं बाज की तलाश में निकला। चलते-चलते वह उसी स्थान पर पहुंच गया, जहां बाज अपने पर कटवाये रस्सी से बंधा घास में मुंह मार रहा था। बादशाह को उसकी यह दशा देखकर बड़ा दु:ख हुआ और वह उसे साथ लेकर वापस चला आया। वह रास्ते में बार-बार यही कहता रहा, "तू स्वर्ग से नरक में क्यों गया था?"

 

 

      बाज की तरह आदमी भी, अपने स्वामी परमात्मा को छोड़कर दु:ख उठाता हैं। संसार की माया उसे पंगु बना देती है और मूर्ख मनुष्य अपनी मूर्खता के कामों को भी बुद्धिमानी का कार्य समझते हैं।

 

18.    मित्र की परख

 

     मिस्र-निवासी हजरत जुन्नून ईश्वर-प्रेम में विह्वल होकर पागलों-जैसे आचरण करने लगे। शासन-सूत्र गुण्डों के हाथ में था। उन्होंने जुन्नून को कैद में डाल दिया। जब दुष्ट मनुष्यों को अधिकार प्राप्त होता है तो मंसूर-जैसा सन्त भी सूली पर लटका दिया जाता है। जब अज्ञानियों का राज होता है तो वे नबियों तक को कत्ल करा देते हैं।

 

        जुन्नून पैरों में बेड़ियां और हाथों में हथकड़ियां पहने कैदखाने में पहुंचे। उनके भक्त हाल पूछने के लिए कैदखाने के चारो ओर जमा हो गये। वे लोग आपस में कहने लगे, "हो सकता है कि हजरत जान-बूझकर पागल बने हों। इसमें कुछ-न-कुद भेद जरू है, क्योंकि ये ईश्वर के भक्तों में सबसे ऊंचे हैं। ऐसे प्रेम से भी परमात्मा बचाये, जो पागलपन के दर्जे तक पहुंचा दे।"

 

      इस तरह की बातें करते-करते जब लोग हजरत जुन्नून के पास पहुंचे तो उन्होंने दूर से ही आवाज दी, "कौन हो? खबरदार, आगे न बढ़ना!"

 

     उन लोगों ने निवेदन किया, "हम सब आपके भक्त हैं। कुशल-समाचार पूछने के लिए सेवा में आये हैं। महात्मन्! आपका क्या हाल है? आपको यह पागलपन का झूठा दोष क्यों कर लगाया गया है? हमसे कोई हाल न छिपाकर इस बात को साफ-साफ बतायें। हम लोग आपके हितैषी हैं। अपने भेदों को मित्रों से न छिपाइए।"

 

      जुन्नून ने जब ये बातें सुनीं तो उन्होंने इन लोगों की परीक्षा करने का विचार किया। वे उन्हें बुरी-बुरी गालियां देने और पागलों की तरह ऊट-पटांग बकने लगे। पत्थर-लकड़ी, जो हाथ लगा, फेंक-फेंककर मारने लगे।

 

     यह देखकर लोग भाग निकले। जुन्नून ने कहकहा लगाकर सिर हिलाया और एक साधु से कहा, "जरा इन भक्तों को तो देखो। ये दोस्ती का दम भरते हें। दोस्तों को तो अपने मित्र का कष्ट अपनी मुसीबतों के बराबर होता है, और उनको मित्र से जो कष्ट पहुंचे उसे वह सहर्ष सहन करते हैं।"

 

      मित्र के कारण मिले हुए कष्टों और मुसीबतों पर खुश होना मित्रता की चिह्न है। मित्र का उदाहरण सोने के समान है और उसके लिए परीक्षा अग्नि के तुल्य है। शुद्ध सोना अग्नि में पड़कर निर्मल और निर्दोष होता है।

 

19.    पथ-प्रदर्शक

 

     हजरत मुहम्मद के एक अनुयायी बीमार पड़े और सूखकर कांटा हो गये। वे उसकी बीमारी का हाल पूछने के लिए गये। अनुयायी हजरत के दर्शनों से ऐसे संभले कि मानो खुदा ने उसी समय नया जीवन दे दिया हो। कहने लगे, "इस बीमारी ने मेरा भाग ऐसा चमकाया कि दिन निकलते ही यह बादशाह मेरे घर आया। यह बीमारी और बुखार कैसा भाग्यवान है! यह पीड़ा और अनिद्रा कैसी शुभ है!"

 

     हजरत पैगम्बर ने उस बीमार से काह, "तूने कोई अनुचित प्रार्थना की हैं। तूने भूल में विष खा लिया है। याद कर, तूने क्या हुआ की?"

 

    बीमार ने कहा, "मुझे याद नहीं। परन्तु मैं यह अवश्य चाहता हूं कि आपकी कृपा से वह दुआ याद आ जाये।"

 

     आखिर हजरत मुहम्मद की कृपा से वह दुआ उसको याद आ गयी।

उसने का, "लीजिए, वह दुआ मुझे याद आ गयी। आप सदैव अपराधियों को पाप करने से मना करते थे और पापों के दंड का डर दिलाते थे। इससे मैं व्याकुल हो जाता था। न मुझे अपनी दशा पर संतोष था और न बचने की राह दिखायी देती थी। न प्रायश्चित की आश थी, न लड़ने की गुंजाइश और न भगवान् को छोड़ कोई सहायक दिखायी देता था। मेरे हृदय में ऐसा भ्रम पैदा हो गया था कि मैं बार-बार यही प्रार्थना करता था कि हे ईश्वर, मेरे कर्मों का दण्ड मुझे इसी संसार में दे डाल, जिससे मैं संतोष के साथ मृत्यु का आलिंगन कर सकूं। मैं इसी प्रार्थना पर अड़कर बैठ जाता था। धीरे-धीरे बीमारी ऐसी बढ़ी कि घुल-घुलकर मरने लगा।

    अब तो यह हालत हो गयी है कि खुदा की याद का भी खयाल नहीं रहता और अपने-पराये का ध्यान भी जाता रहा। यदि मैं आपके दर्शन न करता तो प्राण अवश्य निकल जाते। आपने बड़ी कृपा की।"

 

    मुहम्मद साहब ने कहा, "खबरदार, ऐसी प्रार्थना फिर न करना! ऐ बीमार चींटी, तेरी यह सामर्थ्य कहां कि खुदा तुझपर इतना बड़ा पहाड़ रक्खे?"

 

   अनुयायी ने कहा, "तोबा! तोबा! ऐ सुलतान! अब मैंने प्रतिज्ञा कर ली है कि कोई प्रार्थना बेसोच-समझे नहीं करूंगा। ऐ पथ-प्रदर्शक! इस निर्जन बन में आप ही मुझे मार्ग दिखाइए और अपनी दया से मुझे शिक्षा दीजिए।"

 

       हजरत रसूल ने बीमार से कहा, "तू खुदा से दुआ कर कि वह तेरी कठिनाइयों को आसान करे। ऐ खुदा! तू लोग और परलोक में हमें धैर्य और सुख प्रदान कर। जब हमारा निर्दिष्ट स्थान तू ही है तो रास्ते की मंजिल को भी सुखमय बना दे।"

 

    20.       लुकमान की परीक्षा

 

     हजरत लुकमान यद्यपि स्वयं गुलाम और गुलाम पिता के पुत्र थे, परन्तु उनका हृदय ईर्ष्या और लोभ से रहित था। उनका स्वामी भी प्रकट में तो मालिक था, परन्तु वास्तव में इनके गुणों के कारण दिल से इनका गुलाम हो गया था। वह इनको कभी का आजाद कर देता, पर लुकमान अपना भेद छिपाये रखना चाहते थे और इनका स्वामी इनकी इच्छा के विरुद्ध कोई काम नहीं करना चाहता था। उसे तो हजरत सुकमान से इतना प्रेम और श्रद्धा हो गयी थी कि जब नौकर उसके लिए खाना लाते तो वह तुरन्तु लुकमान के पास आदमी भेजता, ताकि हले वह खालें और उनका बचा हुआ वह खुद खाये। वह लुकमान का जूठा खकर खुश होता था और यहां तक नौबत पहुंच गयी थी कि जो खाना वह न खाते, उसे वह फेंक देता था और यदि खाता भी था तो बड़ी अरुचि के साथ।

 

     एक बार किसी ने उनके मालिक के लिए खरबूज भेजे। मालिक ने गुलाम से कहा, "जल्दी जाओ और मेरे बेटे लुकमान को बुला लाओ।"

 

     लुकमान आये और सामने बैठ गये। मालिक ने छुरी उठायी और अपने हाथ से खरबूजा काटकर एक फांक लुकमान को दी। उन्होंने ऐसे शौक से खायी कि मालिक ने दूसरी फांक दी, यहां तक कि सत्रहवीं फांक तक वे बड़े शौक से खाते रहे। जब केवल एक टुकड़ा बाकी रह गया तो मालिक ने कहा, "इसको मैं खाऊंगा, जिससे मुझे भी यह मालूम हो कि खरबूजा कितना मीठा है।"

 

     जब मालिक ने खरबूजा खाया तो कड़वाहट से कष्ठ में चिरमिराहट लगने लगी और जीभ में छाले पड़ गये। घंटे-भर तक मुंह का स्वाद बिगड़ा रहा। तब उसने आश्चर्य के साथ हजरत मुकमान से पूछा, "ऐ दोसत, तूने इस जहर को किस तरह खाया और इस विष को अमृत क्यों समझ लिया? इसमें तो कोई संतोष की बात नहीं है। तूने खाने से बचने के लिए कोई बहाना क्यों नहीं किया?"

 

      हजरत लुकमान ने जवाब दिया, "मैंने आपके हाथ से इतने स्वादिष्ट भोजन खाये हैं कि लज्जा के कारण मेरा सिर नीचे झुका जाता है। इसीसे मेरे दिल ने यह गवारा नहीं किया कि कड़वी चीज आपके हाथ से न खाऊं। मैं केवल कड़वेपन पर शोर मचाने लगूं तो सौ रास्तों की खाक मेरे बदन पर पड़े। ऐ मेरे स्वामी, आपके सदैव शक्कर प्रदान करने वाले हाथ ने इस खरबूजे में कड़वाहट कहां छोड़ी थी कि मैं इसकी शिकायत करता!"

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