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मौलाना जलालुद्दिन रूमी की कथाएं भाग- 4

 

13.    बुद्धिमानों का संग

 

       एक तुर्क घोड़े पर सवार चला आ रहा था। उसने देखा कि एक सोते हुए मनुष्य के मुंह में एक सांप घुस गया। सांप को मुंह से निकालने की कोई युक्ति समझा में न आयी तो मुसाफिर सोनेवाले के मुंह घूंसे लगाने लगा। सोनेवाला गहरी नींद से एकदम उछल पड़ा। देखा, एक तुर्क तड़ातड़ घूंसे मारता जा रहा है। वह मार को सहन न कर सका और उठकर भाग खड़ा हुआ। आगे-आगे वह और पीछे-पीछे तुर्क। एक पेड़ के नीचे पहुंचे। वहां बहुत से सेव झड़े हुए पड़े थे। तुर्क कहा, "ऐ भाई! इन सेवों में से जितने खाये जायें, उतने तू खा। कमी मत करना।"

 

     तुर्कं ने उसे ज्यादा सेव खिलाये कि सब खाया-पिया उगल-उगलकर मुंह से निकालने लगा। उसने तुर्कं से चिल्लाकर कहा, "ऐ अमीर! मैंने तेरा क्या बिगाड़ा था तू मेरी जान लेने पर उतारू हो गया? अगर तू मेरे प्राणों का ही गाहक है तो तलवार के एक ही वार से मेरा जीवन समाप्त कर दे। वह भी क्या बुरी घड़ी थी जबकी मैं तुझे दिखाई दिया।"

 

     वह इसी तरह शोर मचाता और बुरा-भला कहता रहा और तुर्कं बराबर मुक्के-पर मुक्का मारता रहा। उस आदमी का सारा बदन दुखने लगा। वह थककर चूर-चूर हो गया। लेकिन वह तुर्कं दिन छिपने तक मार-पीट करता रहा, यहां तक कि पित्त के प्रकोप से उस आदमी का अब बार-बार बमन होनी शुरु हो गयी। सांप वमन के साथ बहार निकल आया।

 

      जब उसेन अपने पेट से सांप को बाहर निकलते देखा तो डर का कारण थर-थर कांपने लगा। शरीर में जो पीड़ा घूंसों की मार से उत्पन्न हो गयी थी, वह तुरन्त जाती रही।

 

     वह आदमी तुर्कं के पैरों पर गिर पड़ा और कहने लगा, "तू तो दया का अवतार है और मेरा परम हितकारी है। मैं तो मर चुका था। तूने ही मुझे नया जीवन दिया है। ऐ मेरे बादशाह, अग तू सच्चा हाल जरा भी मुझे बाता देता साथ ऐसी अशिष्टता क्यों करता है? परन्तु तूने अपनी खामोशी से मुझे हैरान कर दिया, और बिना कारण बताए बदन पर घूंसा मारने लगा। ऐ परोपकारी पुरुष! जो कुछ गलती से मेरे मुंह से निकल गया, उसके लिए मुझे क्षमा करना।"

 

     तुर्कं ने कहा, "अगर मैं इस घटना का जरा भी संकेत कर देता ता उसी समय तेरा पित्त हो जाता और डर के मारे तेरी आधी जान निकल जाती। उस समय न तुझमें इतने सेव खाने की हिम्मत होती और न उल्टी होने की नौबत आती है। इलिए मैं तो तेरे दुर्वचनों को भी सहन करता रहा। कारण बताना उचित नहीं था और तुझे छोड़ना भी मुनासिब नही था।"

 

     बुद्धिमानों की शत्रुता भी ऐसी होती है कि उनका दिया हुआ विष भी अमृत हो जाता है। इसके विपरीत मूर्खो की मित्रता से दु:ख और पथ-भ्रष्टता प्राप्त हाती है।]

 

14.    हजरत अली और काफिर

 

      हजरत अली खुदा के शेर थे। उनका आचरण दुर्वासनाओं से मुक्त था। एक बार युद्ध में तलावार लेकर शत्रु की तरफ झपटे। उसने हजरत अली के चेहरे पर थूक दिया। परन्तु हजरत अली अपने क्रोध को दबा गए। उन्होंने उसी समय तलवार फेंकर, इस काफिर पहलवान पर वार करने से हाथ खींच लिया। वह पहलवान उनके इस व्यवहार से ताज्जुब करने लगा कि दया-भाव प्रकट करने का यह क्या अवसर था?

 

   उसने पूछा, "तुम अभी तो मुझप वार करना चाहते थे और अब तुरन्त ही तलवार फेंककर मुझे छोड़ दिया। इसका क्या कारण है! तुमने ऐसी क्या बात देखी कि मुझपर अधिकार प्राप्त करने के बाद भी मुकाबले से हट गये।"

 

    हजरत अली ने कहा, "मैं केवल खुदा के लिए तलवार चलाता हूं, क्योंकि मैं खुदा का गुलाम हूं। अपनी इन्द्रियों का दास नहीं। मैं खुद का शेर हूं दुर्वासनाओं का शेर नहीं। मेरे आचरण धर्म के साक्षी हैं। सन्तोष की तलवार ने मेरे क्रोध को भस्म कर दिया है। ईश्वर का कोप भी मेरे ऊपर दया की वर्षा करता है।

 

     "हजरत पैगम्बर ने मेरे नौकर के कान में फरमाया कि एक दिन वह मेरा सिर तन से जुदा कर दे। वह नौकर मुझसे कहता रहता है कि आप पहले मुझे ही कत्तल कर दीजि, जिससे ऐसा घोर अपराध मुझसे न होने पाये। परन्तु मैं उसे यही जवाब देता हूं—'जब मेरी मौत मेरे हाथ होनेवली है तो मैं खुदा के मुकाबले में बचने की क्यों कोशिश करूं?' इसी तरह दिन-रात मैं अपने कातिल को अपनी आंखों से देखत हूं। मगर मुझे उस पर क्रोध नहीं आता, क्योंकि जिस तरह आदमी को जान प्यारी है, उसी तरह मुझको मौत प्यारी है, क्योंकि इसी मौत से मुझे दूसरा (जन्नत का) जीवन प्राप्त होगा। बिना मौत मरना हमारे लिए हलाल है और आडम्बर रहित जीवन व्यतीत करना हमारे लिए नियामत है।

 

    फिर हजरत अली ने पहलवान से कहा, "ऐ जवान! जबकि युद्ध के समय तूने मेरे मुंह पर थूका तो उसी समय मेरे विचार बदल गये। उस वक्त युद्ध का उद्देश्य आधा खुदा के वास्ते और आधा तेरे जुल्म करने का बदला लेने के लिए हो गया, हालांकि खुदा के काम में दूसरे के उद्देश्य को सम्मिलित करना उतिच नहीं है। तू मेरे मालिक की बनायी हुई मूरत है और तू उसीकी चीज है। खुद की बनायी हुई चीज को सिर्फ उसीके हुक्म से तोड़ना चाहिए।"

 

      इस काफिर पहलवान ने जब यह उपदेश सुना तो उसे ज्ञान हो गया। कहा, "हाय! अफसोस, मैं अबतक जुल्म के बीज बो रहा था। मैं तो तुझे कुद और समझता था। लेकिन तू तो खुदा का अन्दाज लगाने की न सिर्फ तराजू है, बल्कि उस तराजू की डंडी है। मैं उस ईश्वरीय ज्योति का दास हूं, जिससे तेरा जीवन-दीप प्रकाशित हो रहा है। इसलिए मुझे अपने मजहब का कलमा सिखा, क्योंकि तेरा पद मुझसे बहुत ऊंचा है।"

 

    इस पहलवान के जितने निकट संबंधी और सजातीय थे, सबने उसी वक्त हजरत अली का धर्म ग्रहण कर लिया। हजरत अली ने केवल दया की तलवार से इतने बड़े दल को अपने धर्म में दीक्षित कर लिया।

दया की तलवार सममुच लोहे की तलवार से श्रेष्ठ है।

 

15.    मोह का जाल

 

     एक लड़का अपने बाप के ताबूत पर फूट-फूटकर रोता ओर सिर पीटता था, "पिताजी, लोग तुम्हें ले जा रहे हैं? ये तुम्हें एक अंधेरे गड्ढे में डाल देंगे, जहां न कालीन है, न बोरिया है, न वहां रात को जलाने के लिए दीपक है, न खाने के लिए भोजन। न इसका दरवाजा खुला है, न बन्द है। न वहां पड़ोसी हैं, जिससे सहारा मिल सके। तुम्हारा पवित्र शरीर, जिसे सम्मानपूर्वक लोग चूमते थे, उस सूने और अंधेरे घर में, जो रहने के बिल्कुल अयोग्य है, जिसमें रहने से चेहरे का रूप और सौन्दर्य जाता रहता है, क्योंकर रहेगा?" इस तरह वह लड़का कब्र का हाल बयान करता था और खून के आंसू उसकी आंखों से टपकते जाते थे। एक मसखरे ने ये शब्द सुनकर अपने आप से कहा, "पिताजी! भगवान् की कसम, मालूम होता है कि ये लोग इस लाश को हमारे घर ले जा रहे हैं।"

 

     बाप ने मसखरे बेटे से कहा, "अरे मूर्ख, यह क्या अनुचित बात कहता है?"

 

     मसखरे ने जवाब दिया "जो निशानियां इसने बतायी हैं, उन्हें तो सुनिए। ये जो चिह्न इसने एक-एक करके गिने हैं, वे वास्तव में सब-के-सब हमारे घर के हैं। हमारे घर मेंभी न बोरिया है, न चिराग हे, न खाना है, न दरवाजा है, न चौक है और न कोठा है।"

 

    इस तरह के शिक्षा ग्रहण करने के योग्य चिह्न सब मनुष्यों की दशा में विद्यमान हैं, परन्तु वे सांसारिक मोह में फंसे रहने के कारण इनपर ध्यान नहीं देते। यह हृदय, जिसमें ईश्वरीय ज्योति का प्रकाश नहीं पहुंचता, नास्तिक की आत्मा की तरह अन्धकारमय है। ऐसे हृदय से तो कब्र ही अच्छी है।

 

 

16.    हवा और मच्छर का मुकदमा

 

    एक बार एक मच्छर ने न्यायी राज सुलेमान के दरबार में आकर प्राथ्रना की, "हवा ने हमपर ऐसे-ऐसे जुल्म किये हैं कि हम गरीब बाग की सैर भी नहीं कर सकते। जब फूलों के पास जाते हैं तो हवा आकर हमें उड़ा ले जाती है।, जिससे हमारे सुख-साम्राज्य पर हवा के अन्याय की बिजली गिर पड़ती है और हम गरीब आनन्द से वंचित कर दिये जाते हैं। हे पशु-पक्षियों तथा दीनों के दु:ख हरनेवाले, दोनों लोकों में तेरे न्याय-शासन की धूम है। हम तेरे पास इसलिए आये हैं कि तू हमारा इन्साफ करें।"

 

      पैगम्बर सुलेमान ने मच्छर की जब यह प्रार्थना सुनी तो कहने लगे, "ऐ इंसान चाहनेवाले मच्छर! तुझको पता नहीं कि मेरे शासनकाल में अन्याय का कहीं भी नामोनिशान नहीं है। मेरे राज्य में जालिम का काम ही क्या! तुझको मालूम नहीं कि जिसदिन मैं पैदा हुआ था, अन्याय की जड़ उसी दिन खोद दी गयी थी। प्रकाश के सामने अंधेरा कब ठहर सकता है?"

 

       मच्छर ने कहा, "बेशक, आपका कथन सत्य है, पर हमारे ऊपर कृपा-दृष्टि रखना भी तो श्रीमान ही का काम है। दया कीजिए और दुष्ट वायु के अत्याचारों से हमारी जाति को बचाइए।"

 

      सुलेमान ने कहा, "बहुत बच्छा, हम तुम्हारा इंसाफ करते हैं, मगर दूसरे पक्ष का होना भी जरूरी है! जबतक प्रतिवादी उपस्थित न हो और दोनों ओर के बयान न लिखे जाये तबतक तहकीकात नहीं हो सकती, इसलिए हवा को बुलाना जरूरी है।"

 

      सुलमान के दरबार से जब वायु के नाम हुक्म पहुंचा तो वह बड़े वेग से दौड़ता हुआ हाजिर हो गया। वायु के आते ही मच्छर ठहर नहीं सके। उन्हें भागते ही बना। जब मच्छर भाग रहे थे उस समय उनसे सुलेमान ने कहा, "यदि तुम न्याय चाहते हो तो भाग क्यों रहे हो? क्या इसी बलबूते पर न्याय की पुकार कर रहे हो?"

 

     मच्छर बोला, "महाराज, हवा से हमारा जीवन ही नहीं रहता। जब वह आता है तो हमें भागना पड़ता हैं यदि इस तरह न भागें तो जान नहीं बच सकती।"

 

    यही दशा मनुष्य की है। जब मनुष्य आता है अर्थात जबतक उसमें अहंभाव विद्यमान रहता है, उसे ईश्वर नहीं मिलता और जब ईश्वर मिलता है तो मनुष्य की गन्ध नहीं रहती अर्थात उसका अहंभव बिलकुल मिट जाता है।

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