सनातन धर्म के
ग्रंथों के तथ्य
प्रश्न - वेद में
ईश्वर, जीव,
प्रकृति को अनादि बतलाया है, परन्तु ये अनादि क्यों हैं ?
उत्तर -
"सदकारणवन्नित्यम्" (वैशेषिक ४-१-१) अर्थात् जिस वस्तु के कारण नहीं
होते वह नित्य होती है। नित्य वस्तु अनादि होती है । संसार में देखा जाता है कि जब
तीन कारण विद्यमान होते हैं तब किसी कार्य की उत्पत्ति होती है। जैसे कि घड़े को
बनाने वाला कुम्हार निमित्त कारण है, मिट्टी उपादान
कारण है और चक्र दण्डादि साधारण कारण हैं। इन तीन कारणों से घड़े की उत्पत्ति होती
है। इस प्रकार के तीन कारण ईश्वर, जीव और प्रकृति के नहीं
हैं, अत: ये उत्पन्न नहीं होते। जिस वस्तु के ये तीन कारण होते हैं वह उत्पन्न होती
है, जिसके नहीं होते वह उत्पन्न नहीं होती। उत्पन्न न होने वाली वस्तु को अनादि
कहते हैं।
प्रश्न - ईश्वर, जीव,
प्रकृति की प्रमाणों से सिद्धि हो गई, परन्तु इन तीनों का परिज्ञान हो जाने पर मनुष्य को क्या लाभ होता है ?
उत्तर - सभी
प्राणी अविद्यादि पांच क्लेशों से छूटकर स्थायी सम्पूर्ण (दुःख रहित) आनन्द की
प्राप्ति करना चाहते हैं, इस विषय में कोई मतभेद नहीं है। परन्तु
जब तक ईश्वर, जीव, और प्रकृति का
वास्तविक ज्ञान नहीं होता और उस ज्ञान के अनुसार मनुष्य ईश्वर की उपासना व शुभ
निष्काम कर्म नहीं करता तब तक पांच प्रकार के क्लेशों से छूट कर दु:ख रहित स्थायी
सम्पूर्ण आनन्द को प्राप्त नहीं हो सकता। अत: अपने मुख्य लक्ष्य की सिद्धि के
लिये इन तीन वस्तुओं का परिज्ञान अवश्य
ही करें।
इन तीन को साध्य
साधक और साधन भी कहते हैं। इन तीन वस्तुओं का परिज्ञान न होना ही संसार के दु:ख का
मुख्य कारण है। वेदों में और वेदानुकूल ऋषिकृत ग्रन्थों में यह निर्णय किया गया है
कि ईश्वर साध्य है, जीव साधक है व प्रकृति साधन है।
ईश्वर अनन्त आनन्द, ज्ञान, बल युक्त है। अत: वह प्राप्त करने योग्य है। जीव नित्य पूर्णानन्द, ज्ञान, बल की प्राप्ति करना चाहता है अत: वह साधक
है और ईश्वर रूपी साध्य को प्राप्त करने के लिये प्रकृति का साधन रूप में प्रयोग
होता है अत: वह साधन है।
प्रश्न - ईश्वर
को साध्य,
जीव को साधक और प्रकृति को साधन जानकर जो व्यक्ति निष्काम
कर्म करता है और विधिपूर्वक ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना और
उपासना करता है, वह समस्त दु:खों से छूटकर नित्यानन्द को
प्राप्त होता है, इसमें क्या प्रमाण है ?
उत्तर - (१)
वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमसः परस्तात्। तमेव विदित्वाति मृत्युमेति
नान्यः पन्थाविद्यतेऽयनाय ॥ (यजु. ३१/१८)
पदार्थ:- हे
जिज्ञासु पुरुष ! (अहम्) मैं जिस (एतम्) इस पूर्वोक्त (महान्तम्) बड़े-बड़े गुणों
से युक्त (आदित्यवण्णम्) सूर्य के तुल्य प्रकाश स्वरूप (तमसः) अन्धकार व अज्ञान से
(परस्तात्) पृथक् वर्तमान (पुरुषम्) स्वस्वरूप से सर्वत्र पूर्ण परमात्मा को (वेद)
जानता हूँ (तम् एव) उसी को (विदित्वा) जान के आप ( मृत्युम्) दु:खदायी मरण को (अति
एति) उल्लङ्कन कर जाते हैं। किन्तु (अन्यः) उससे भिन्न (पन्था) मार्ग (अयनाय)
अभीष्ट स्थान मोक्ष के लिये (न विद्यते) नहीं विद्यमान है।
ऋषिभाष्य
इस वेद मंत्र से
स्पष्ट है कि जो व्यक्ति ईश्वर को ठीक व्यावहारिक रूप में जानकर ईश्वर का
प्रत्यक्ष कर लेता है, वह समस्त दु:खों से छूटकर नित्यानन्द
को प्राप्त कर लेता है । इसके अतिरिक्त और कोई भी मार्ग नहीं है ।
(२) "रसो वै सः ।
रसं ह्योवायंलब्ध्वाऽऽनन्दी भवति ।"
(तैत्त. उप.ब्र. ७)
वह ईश्वर आनन्द
स्वरूप है, उस आनन्द स्वरूप को प्राप्त करके यह जीव
आनन्दी होता है ।
(३) भिद्यते
हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः ।
क्षीयन्ते
चास्यकर्माणि तस्मिन्दृष्टे पराऽवरे ॥ (मुण्ड. २/२/८)
जो ईश्वर पर से
भी पर और समीप से भी समीप है, उसके प्रत्यक्ष होने पर
इस जीव के हृदय की अविद्या और संशय छिन्न-भिन्न हो जाते हैं, और जो अशुभ कर्म के संस्कार हैं वे क्षय को प्राप्त हो जाते हैं ।
प्रश्न - ईश्वर
का साक्षात्कार करके जो जीव मोक्ष में चला जाता है, वह पुन: संसार में जन्म लेता है वा नहीं ?
उत्तर - लेता है।
प्रश्न -
छान्दोग्योपनिषद् के प्र. ८ खण्ड १५ में लिखा है कि : - "न च पुनरावर्त्तते न
च पुनरावर्त्तते"॥ जीव मोक्ष को प्राप्त कर पुन: संसार में जन्म नहीं लेता ।
उत्तर - उपनिषद्
के इस वचन का यह अर्थ नहीं जो उपर किया गया है किन्तु इसका अभिप्राय यह है कि जो
मुक्ति का काल स्वामी दयानन्दजी सरस्वती ने सत्यार्थ प्रकाश में ९ वें समु. में ३१
नील, १० खरब, ४० अरब वर्ष लिखा है उतने काल के मध्य में
जीव संसार में जन्म नहीं लेता। जिस उत्तम ज्ञान-कर्म-उपासना से मुक्ति मिलती है वह
सीमित है अत: उसका फल भी सीमित होगा। यदि सीमित का फल असीम दे दिया जाये तो अन्याय
हो जाये।
प्रश्न - जब
मुक्त जीव का भी पुनर्जन्म होता है तो उस जन्म का कारण क्या है ?
उत्तर - उस मुक्त
जीव के पूर्वकृत पाप और पुण्य उस जन्म के कारण हैं । (ऋग्वेद १/२४/२) के भाष्य में
स्वामी दयानन्द सरस्वती जी ने लिखा है "अयमेव मुक्तानामपि जीवानां
महाकल्पान्ते पुनः पाप पुण्यतुल्यतया पितरि मातरि च मनुष्यजन्म कारयतीति च" ।
कि वही मोक्ष पदवी को पहुँचे जीवों का भी महाकल्प के अन्त में फिर पाप पुण्य की
तुल्यता से माता-पिता और स्त्री आदि के बीच में मनुष्य जन्म धारण कराता है।
प्रश्न - जिस
ईश्वर के प्रत्यक्ष से जीव को मोक्ष मिलता है उस ईश्वर के प्रत्यक्ष में क्या
प्रमाण है ?
उत्तर -
प्रत्यक्ष होता है। इसमें शब्द प्रमाण हैं-
(१) 'तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः' । उस व्यापक
परमात्मा के स्वरूप को विद्वान् जन सदा देखते हैं।
(२) 'त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि । त्वामेव प्रत्यक्षं ब्रह्म वदिष्यामि' ॥ तैतरीय उपनिषद -१, अर्थ - तू ही प्रत्यक्ष ब्रह्म है, तुझको ही प्रत्यक्ष ब्रह्म कहूंगा ।
(३) 'और जब जीवात्मा शुद्ध होके परमात्मा का विचार करने में तत्पर रहता है, उसको उसी समय दोनों प्रत्यक्ष होते हैं, (सत्यार्थ प्र. ७
समु.)। यहां पर दोनों प्रत्यक्ष होते हैं इसका अभिप्राय यह है कि ईश्वर और ईश्वर
के आनन्द ज्ञानादि गुण दोनों का प्रत्यक्ष होता है।
(४) 'वैसे अनादि परमात्मा को देखने का साधन शुद्धान्त:करण, विद्या और योगाभ्यास से पवित्रात्मा, परमात्मा को
प्रत्यक्ष देखता है ।' सत्यार्थ प्रकाश १२
प्रश्न - ईश्वर
को प्रत्यक्ष करने के साधन क्या हैं ?
उत्तर - शुद्ध
ज्ञान-शुद्धकर्म-शुद्ध उपासना ये ईश्वर के प्रत्यक्ष करने के साधन हैं। प्रथम साधन
- ईश्वर-जीव-प्रकृति के विषय में पृथक्-पृथक् व्यावहारिक ज्ञान होना चाहिये, केवल शाब्दिक ज्ञान नहीं । दूसरा साधन - निष्काम कर्म अर्थात् शुभ कमर्मों को
ईश्वर साक्षात्कार के लिये करना, लौकिक फल के लिये नहीं।
तीसरा साधन - शुद्धोपासना है अर्थात् जैसी कि वेद और वेदानुकूल ऋषिकृत ग्रन्थों
में लिखी है। योगदर्शनकार ने ईश्वर साक्षात्कार के लिये यम, नियम,
आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि
ये साधन लिखे हैं। जो व्यक्ति ईश्वर का प्रत्यक्ष करना चाहता है वह इन सब का
श्रद्धा पूर्वक मन, वचन, और शरीर से सर्वदा पालन करे। व्यवहार में यम-नियमों का पालन करे और आसन लगाकर
प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान करता हुआ समाधि तक पहुँचे।
सम्प्रज्ञात समाधि के पश्चात् असम्प्रज्ञात में ईश्वर का प्रत्यक्ष होता है।
प्रश्न - ध्यान
करने की विधि क्या है ?
उत्तर - प्रथम
ईश्वर के वास्तविक स्वरूप का परिज्ञान होना आवश्यक है, जैसा कि वेद मंत्र में बतलाया गया है। उसके पश्चात् ईश्वर के नाम का ज्ञान
होना भी आवश्यक है। नामी और नाम का ठीक ज्ञान प्राप्त करके, ध्यान करते समय उस नाम का अर्थ सहित पाठ किया जाता है। जैसे कि ओ३म्' यह ईश्वर का मुख्य नाम है, इसका एक अर्थ है 'सर्वरक्षक'। ध्यान काल में तीन कार्य करने होते हैं
-
(१)ओ३म् आदि वाक्यों का
बार-बार उच्चारण करना।
(२)वाक्य का जो अर्थ है
उसका विचार करना, अन्य विषय का नहीं।
(३) ईश्वर समर्पण, जो भावना कहलाता है।
योग दर्शन में
प्रथम ईश्वर का स्वरूप समाधिपाद के २४ वें सूत्र में बतलाया, पुन: २७ वें सूत्र में नाम बतलाया और फिर जप की विधि बतलाई कि -
"तज्जपस्तदर्थभावनम्" (योगदर्शन १/२८) उस ओ३म् का जप करना और उसके साथ
अर्थ का विचार करना। विधिपूर्वक जप करने का (योग दर्शन १/२९) में लाभ भी बतलाया कि
जप करने से अपने स्वरूप का और ईश्वर के स्वरूप का प्रत्यक्ष होता है तथा (योग
दर्शन १/३०, ३१) में बतलाये गये व्याधि आदि विघ्नों का
निवारण भी होता है। ईश्वर के गुण-कर्म-स्वभाव को ठीक प्रकार से न जानकर जप करने से
विशेष लाभ नहीं होता। जप करनेवाले व्यक्ति का आचरण भी ईश्वर की आज्ञानुसार होना
चाहिये तब पूर्ण सफलता प्राप्त होती है। अन्यथा नहीं।
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