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ब्रह्म विज्ञान - 6

 

ब्रह्म विज्ञान - 6

 

 

                                                              

ईश्वर साक्षात्कार बतलाना वेदानुकूल

 

       ईश्वर का साक्षात्कार करके पात्रों को बतलाना यह वेद-उपनिषद् आदि के अनुसार एक योगी के लिये उचित ही है। इसमें प्रमाण -

 

(१) वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमसः परस्तात् । तमेव विदित्वाति मृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय ॥ यजुर्वेद ३१/१८ ॥

 

(२) अनित्यैर्द्रव्यैः प्राप्तवानस्मि नित्यम् । कठोपनिषद २/१०॥

अनित्य द्रव्यों की सहायता से में नित्य ब्रह्म को प्राप्त हुआ हूँ।

 

(३) तान्होवाचैतावदेवाहमेतत्परं ब्रह्म वेद नातः परमस्तीति ॥ (प्रश्नोपनिषद ६/७) पिप्पलाद ऋषि शिष्यों को बोले-इस 'पर ब्रह्म' को में इतना ही जानता हूँ। इससे परे अन्य कोई ब्रह्म नहीं है।

 

(४) राजा जनक की सभा में ऋषि याज्ञवल्क्य का उद्घोष था कि मैं ब्रह्म को जानता हूँ। इसी आधार पर वे राजा जनक द्वारा पुरस्कृत भी किये गये। (बृहदारण्यक उपनिषद्)

(५) पुण्डरीकं नवद्वारं त्रिभिर्गुणेभिरावृतम् । तस्मिन् यद्

यक्षमात्मन्वत् तद् वै ब्रह्मविदोविदुः ॥ (अथर्ववेद १०/८/४३)

 

      शब्दार्थ - (नवद्वारम्) नव अर्थात् सात सिर के व दो नीचे के द्वार वाला (पुण्डरीकम्) कमल - पुण्य का साधन यह शरीर (तस्मिन्) उस शरीर में (त्रिभि:) सत्त्व-रज-तम (गुणेभि:) गुणों से (आवृतम्) ढका हुआ है (आत्मन्वत्) जीवात्मा का स्वामी (यत्) जो (यक्षम्) पूजनीय (ब्रह्म) है, (तत्) उसको (वै) ही (ब्रह्मविदः) ब्रह्मज्ञानी (विदुः) जानते हैं।

 

      उपनिषद् से मिथ्या अर्थ निकाल कर गलत प्रचार किया कि जो व्यक्ति यह कहता है कि 'मैंने ईश्वर का साक्षात्कार कर लिया' उसने ईश्वर को नहीं जाना और जो यह कहता है कि 'मैंने ईश्वर का साक्षात्कार नहीं किया' उसने ईश्वर को जान लिया। दूसरी बात जानने की है कि जीवात्मा का पता चल जाये तो ईश्वर को जानने में सुविधा हो जाये। आप हैं, आपकी सत्ता है, 'मैं हूँ'। यह जो शरीर है, इससे अलग आत्मा जिसमें न गर्ध, न स्पर्श कुछ नहीं फिर कैसे जंच गया। इसी तरह मैं सोचता हूँ, खाता हूँ। यह चाहिए, यह न चाहिए। मैं जानता हूँ, नहीं जानता हूँ। आत्मा की सिद्धि इसी से हो जाती है। यह सारा व्यापार जीवात्मा को सिद्ध कर देता है। यदि अपने स्वरूप का निश्चय हो जाये कि मैं सत्तात्मक जानने वाला पदार्थ हूँ। शरीर में रहता हुआ सब काम करता हूँ। यदि जीवात्मा नहीं होता तो यह सब बनाया संसार व्यर्थ होता। मनुष्येतर प्राणी चिड़िया कबूतर आदि अण्डे देते, घोंसला बनाते, चुग्गा खाते यह सब व्यवहार करते हैं। जो आत्मा न हो तो स्वप्न में कौन स्वप्न देखता है। यह जीव ही है। यदि हम कोई चेतन पदार्थ हें, जिसमें रूप, रस, गन्ध, स्पर्श नहीं है तो ईश्वर भी ऐसा निराकार पदार्थ क्यों नहीं हो सकता ?

 

      सारा संसार बाहर-भीतर, ईश्वर से भरा हुआ है। कोई कण खाली नहीं है। पर व्यक्ति सोचता है एक निश्चित लम्बाई-चौड़ाई वाला ईश्वर होता तो तसल्ली हो जाती। अल्पज्ञ जीव, सारे के सारे ईश्वर को जान लेता। मैं अनन्त ईंश्वर को जान न सकँगा। मेरा अल्प ज्ञान है। इसका समाधान यह है कि ईश्वर के इतने सारे गुण हैं, उन सब को जानें तो ही ईश्वर को मानें यह जरूरी नहीं। अपनी आत्मा के स्वरूप को समझें फिर परमात्मा को समझें ।

 

      अब रही बात ईश्वर का दर्शन होता है तो क्या अनुभूतियाँ होती हैं ? जैसे हवा लग रही है, त्वचा इन्द्रिय को छू रही है, धक्का दे रही है। वस्तुत: ये गुण और गुणी एक वस्तु है। समझाने के लिये गुण-गुणी को पृथक्-पृथक् कहा जाता है। जिस प्रकार ठण्डा, तरल आदि गुणों का झुण्ड पानी का गुण है, वह पानी से अलग नहीं। इसी प्रकार से सत्-चित्-आनन्द-ज्ञान आदि गुण ईश्वर से पृथक् नहीं है, इन गुणों से ईश्वर का साक्षात्कार होता है। इन गुणो के बिना ईश्वर नहीं जाना जाता।

 

     शरीर के रहते ईश्वरानन्द रोटी की पूर्ति नहीं करता। शरीर के विषय में एक सीमा तक दुःख निवारण होता है। थोड़़े दु:ख का अनुभव न होना, अनुभव होने पर रोक देना, अति होने से न रोक सकना आदि। बिना शरीर के समाधि नहीं लगती। मानसिक क्लेश शत्रुओं को तो समाधि के माध्यम से जड़ मूल से उखाड़ देते हैं। समाधि अवस्था में सारा संसार ईश्वर में डूबा हुआ दीखता है, तीनों कालों का व्यवहार समाप्त हो जाता है।

 

सच्चे योगी के लक्षण

 

(१) जो सम्पूर्ण दिन ईश्वर के साथ सम्बन्ध बनाये रखता हो ।

(२) समस्त संसार का (अपने शरीर, मन, बुद्धि आदि सहित) निर्माता, पालक, रक्षक ईश्वर को मानता हो।

(३) वेद तथा वेदानुकूल ऋषिकृत ग्रन्थों पर अत्यन्त श्रद्धा रखता हो ।

(४) ईश्वर-जीव-प्रकृति (त्रैतवाद) के स्वरूप को यथार्थ रूप में जानता हो।

(५) संसार के विषय भोगों में चार प्रकार का दु:ख अनुभव करता हो।

(६) विषय भोगों में सुख नहीं लेता हो और जिसका अपने मन इन्द्रियों पर पूर्ण अधिकार हो ।

(७) ईश्वर प्रदत्त साधनों का ईश्वर की आज्ञा के अनुकूल (धर्म पूर्वक) साधन के रूप में उचित मात्रा में उपयोग करता हो ।

(८) फल की आशा से रहित (तीन एषणाओं से रहित) निष्काम भावना से कर्मों को करता हो ।

(९) इच्छा का विघात, वियोग, अपमान, विश्वासघात, असफलता, अवसर चूकना इत्यादि स्थितियों में चिन्तित, भयभीत, क्षोभयुक्त, दु:खी न होता (रहता) हो ।

(१०)समस्त संसार को ईश्वर में डूबा हुआ देखता हो ।

(११)दैनिक क्रिया-व्यवहारो में (विचारना, बोलना, लेना-देना, समझना-समझाना आदि में) अत्यन्त सावधान रहता हो ।

(१२)जो आध्यात्मिक अविद्या (अनित्याशुचि आदि) से रहित हो और विद्या से युक्त हो।

(१३) जो समस्त अविद्याजनित संस्कारों को दबाये रखने में समर्थ हो ।

(१४) यमों का पालन सार्वभौम महाव्रतम् के रूप में करता हो, चाहे मृत्यु भी क्यों न आ जाये।

(१५) जो हर समय प्रसन्न, सन्तुष्ट, निर्भय, उत्साही, पुरुषार्थी आशावादी रहता हो।

(१६)शरीर, बल, विद्या आदि उपलब्धियों का एषणाओं के लिये प्रदर्शन न करता हो ।(१७)किसी के द्वारा बताये जाने पर असत्य का त्याग और सत्य का ग्रहण तत्काल करता हो।

(१८) धन, बल, कीर्ति आदि की प्राप्ति के प्रलोभन में आदर्शों का त्याग या उनके साथ समझौता कदापि न करता

(१९)शुद्ध ज्ञान, शुद्ध कर्म और शुद्ध उपासना इन तीनों का समायोजन करके चलता हो।

(२०)गंभीर, मौनी, एकान्त सेवी, संयमी, तपस्वी हो (विशेषकर प्रारम्भिक काल के लिये)

(२१) देश, जाति, प्रान्त, भाषा, मत, पन्थ, रूप- रंग, लिंग आदि भेद- भावों से रहित, सब से प्रेम करने वाला सब का हितैषी, दयालु, कल्याण करने वाला हो।

(२२) योग दर्शन, उपनिषद् वा अन्य आध्यात्मिक ग्रन्थों में आये हुए सत्य सिद्धान्तों को ठीक समझकर उनका आचरण करने वाला हो।

 

       ज्ञान-कर्म-उपासना में सारा मानव जीवन आ जाता है। मानव का चरम लक्ष्य सब दु:खों से छूट कर परमानन्द मुक्ति-सुख प्राप्त करना है। आजकल अनेक सम्प्रदाय वाले कोई केवल ज्ञान का, कोई केवल कर्म का तो कोई केवल भक्ति का एकांगी ढोल पीट रहे हैं, किन्तु मानव जीवन की पूर्णता के लिये, सफलता के लिये तीनों उपाय आवश्यक हैं।

 

शुद्ध ज्ञान - शुद्ध कर्म - शुद्ध उपासना

 

     ज्ञान- किसी वस्तु के गुण-कर्म-स्वभाव को यथार्थ रूप में, ताक्त्विक रूप में जानना 'ज्ञान' है। वस्तु को ठीक-ठीक जानकर ही निर्णय होता है कि क्या बुरा छोड़ने योग्य व क्या अच्छा ग्रहण करने योग्य है। यह विवेक हुआ, वस्तु का यथार्थ ज्ञान, कर्म- मन से, वाणी से, शरीर से छोड़ने या ग्रहण करने का प्रयत्न करना 'कर्म' है। अच्छी को, उपकारी को ग्रहण करना व असत्य-अन्याय-अधर्म-अहितकारी को छोड़ना यह कर्म (वैराग्य) है। त्याग और ग्रहण, छोड़ना व पकड़ना दोनों वैराग्य के अन्तर्गत आते हैं ।उपासना- पहले वस्तु को जानना, फिर प्राप्ति का प्रयास किया। प्राप्त करने के बाद उसका उपयोग-सेवन करना 'उपासना ' है। पकड़ी को पकडे रहना, छोड़ी हुई को छोड़े रहना अभ्यास है।

 

      उपासना करने के प्रयास ध्यान, सन्ध्या आदि कर्म हैं। पर जब समाधि द्वारा ईश्वर में मग्न होकर ज्ञान-शान्ति-आनन्द-बल प्राप्त कर रहे होते हैं, यह उपासना है। जाने-करें-लाभ उठायें। उपासना (अभ्यास) से परिपक्वता-दृढ़ता आती है।

 

     मानव निर्माण के मूल आधार शुद्ध ज्ञान-शुद्ध कर्म-शुद्ध उपासना हैं। कर्म का क्षेत्र बढ़ते-बढ़ते उच्च निष्काम कर्म की कोटि में आ जाता है यह अत्यन्त परिश्रम साध्य है। अत्यन्त तीव्र इच्छा, योग्यता, तप, त्याग व पुरुषार्थ से कठिन से कठिन कार्य भी सरल हो जाता है। तीव्र इच्छा रखने वाला इंश्वर प्राप्ति में सफल होगा; परन्तु योग्यता कम हुई तो कम प्रगति होगी। जब ज्ञान-कर्म-उपासना तीनों का समन्वय होता है तो योगी बनता है, और तभी ईश्वर को पाता है।

 

ज्ञान (विवेक)

 

       ज्ञान - जिससे ईश्वर से लेकर पृथिवी पर्यन्त पदार्थों का सत्य विज्ञान होकर फिर उनसे यथायोग्य उपकार लिया जा सके, इसका नाम ज्ञान (विद्या) है। शुद्ध (तात्त्विक ) ज्ञान के बिना शुद्ध कर्म नहीं और शुद्ध कर्मों के बिना शुद्ध उपासना नहीं हो सकती। उलटे ज्ञान-उलटे कर्म व उलटी उपासना से मानव दु:ख सागर में गोते खाता रहता है।

 

ज्ञान के प्रकार

 

           ज्ञान चार प्रकार का होता है। व्यक्ति का ज्ञान बदलता रहता है। अभावात्मक - संशयात्मक - भ्रमात्मक और निर्णयात्मक।

(१) अभावात्मक -  किसी सत्तात्मक वस्तु का ज्ञान न होना। सत्तात्मक वस्तु के विद्यमान होते हुए भी उस पर विश्वास न करना, उसके अस्तित्व का ज्ञान न होना। जैसे साम्यवादी नास्तिकों का ईश्वर के अस्तित्व में अभावात्मक ज्ञान है ।

(२) संशयात्मक - एक वस्तु के विषय में दो प्रकार का विपरीत ज्ञान रखना, जैसे ईश्वर निराकार है या साकार। जन्म लेता है या नहीं। न्यायकारी-दयालु है या नहीं।

(३) भ्रमात्मक - वस्तु के गुण-कर्म-स्वभाव से उलटा विपरीत ज्ञान होना और मानना। ईश्वर को चौथे आसमान, गोलोक, परमधामादि में मानना ।

(४) निर्णयात्मक - जो पदार्थ जैसा है उसे वैसा मानना। यथार्थ रूप में जानना, मानना और करना ही निश्चयात्मक ज्ञान की अवस्था है। निर्णयात्मक ज्ञान के बिना, वस्तु से पूर्ण लाभ नहीं उठा सकते।

 

      ज्ञान की ये चार अवस्थायें बदल भी जाती हैं। प्रत्येक वस्तु के बारे में निर्णयात्मक ज्ञान होना चाहिये। यदि निर्णयात्मक ज्ञान होगा तो उस कार्य को करने में व्यक्ति सफल होगा; जिसका ज्ञान ठीक उसका कर्म ठीक, जिसका कर्म ठीक उसकी उपासना ठीक होगी। उपासना ठीक होने से समाधि ठीक लगेगी इससे ईश्वर का साक्षात्कार होगा। इश्वर साक्षात्कार से ईश्वर के ज्ञान, बल, आनन्द की प्राप्ति होगी । इससे दु:खों से पूर्ण छुटकारा हो सकेगा।

 

      एक काल में एक प्रकार का ज्ञान रहता है। परिपक्व अवस्था न बने तब तक मनुष्य का ज्ञान बदलता रहता है। मिथ्या ज्ञान होने से अन्याय, अधर्म, अविद्या, दु:ख वा अशान्ति बनी रहती है । सुख वहाँ जहाँ शान्ति हो, शान्ति वहाँ जहाँ परस्पर प्रेम हो, प्रेम वहाँ जहाँ विश्वास हो, विश्वास वहाँ जहाँ सत्य हो, और सत्य कौन सा जो यथार्थ है । बिना परिपक्व बने ज्ञान बदलता है। साधक मौका मिलने पर विषय भोग, छलकपट से धन-उपार्जन आदि को ठीक मानने लगता है।

 

       ज्ञान के विकास (व्यावहारिकता) से व्यक्ति पूज्य, महान् बनता है, हास से निम्न बन जाता है। परिपक्व ज्ञान के बिना ज्ञान से पूरा लाभ नहीं उठा सकते। यथार्थ ज्ञान प्राप्ति के बाद भी यदि साधक उसे प्रयत्न पूर्वक पकड़े नहीं रहेगा तो उस निर्णयात्मक स्तर से गिर जायेगा। कभी ज्ञान का इतना उच्च स्तर होता है कि करोड़ों के लोभ को ठुकरा देता है, पर कभी इतना निम्न कि वही व्यक्ति कौड़ी पर मन डिगा देता है।

स्वयं पढ़कर अन्यों को पढ़ाना, प्राप्त को बांटना। जो सुनता है पर सुनाता नहीं, पढ़ता है पर पढ़ाता नहीं, सीखता है पर सिखाता नहीं उसका ज्ञान स्थायी और उपकारी नहीं होता।

 

ज्ञान प्राप्ति तीन प्रकार से

 

(१) शाब्दिक - वेद आदि शास्त्र, आप्त ज्ञानी पुरुषों से पढ़ना-सुनना। जैसे ईश्वर के बारे में हमारा शाब्दिक ज्ञान

(२) आनुमानिक - शरीर पर विचार किया, धातुएँ कौन बना रहा है? सृष्टि कौन बना-चला रहा है ? इससे ईश्वर का आनुमानिक ज्ञान होता है। ब्रह्माण्ड नियम में चल रहा है, कोई अदृश्य नियामक शक्ति इसे नियम में चला रही है। यही आनुमानिक ज्ञान समाधि में प्रत्यक्ष हो जाता है।

(३) प्रात्यक्षिक - शरीर चल रहा है, इसमें आत्मा है । बाह्य ज्ञान इन्द्रियों द्वारा और आन्तरिक ज्ञान आत्मा द्वारा प्रत्यक्ष होता है ।

 

ज्ञान का क्षेत्र

 

       संसार में अनन्त वस्तुएँ हैं। सब का ज्ञान न तो इस छोटे जीवन काल में प्राप्त करना सम्भव है और न ही परमानन्द मुक्ति के लिये आवश्यक। इस पिण्ड के एक अवयव आँख का पूर्ण ज्ञान हजारों डाक्टर मिलकर भी नहीं पा सके। इस ब्रह्माण्ड में दौड़ लगाने वाले वैज्ञानिक दस अरब आकाशगंगाओं का पता लगा चुके, इससे आगे के लिये उनके साधन अपर्याप्त सिद्ध हो रहे हैं। उससे आगे न जाने कितना अनन्त ब्रह्माण्ड होगा जिसका ज्ञान मानव को इस जन्म में तो क्या अनेक जन्म-जन्मान्तरों में भी सम्भव नहीं। तो भी वेद और ऋषियों द्वारा पूर्ण आनन्द प्राप्ति

 

        (मुक्ति) के लिये जो ज्ञान दिया गया उसे अनुभव करके अनेक तर गये। वे हमारे सामने ज्ञान को ताक्त्विक रूप से स्पष्ट रख गये। वह ज्ञान तीन पदार्थों का है :-

 

पदार्थों का व्यावहारिक ज्ञान

 

       ईश्वर के सम्बन्ध में हमारा शाब्दिक ज्ञान बहुत है पर ताक्त्विक ज्ञान बहुत कम है। ईश्वर के सत्तात्मक ज्ञान को व्यावहारिक रूप में समझें । हमारा ज्ञान प्रकृति, जीव व ईश्वर के विषय में उत्तरोत्तर कम है।

 

 

       यद्यपि ज्ञान व विद्या अनन्त हैं, फिर भी जीव का इतना सामर्थ्य है कि वह अपने ज्ञान को बढ़ाकर मोक्ष को प्राप्त कर सकता है; हाँ, कोई भी जीव न सर्वज्ञ हुआ, न है और न हो सकता है। सर्वज्ञ तो केवल ईश्वर है, क्योंकि वह सर्वव्यापक है। जो सर्व्यापक नहीं वह सर्वज्ञ भी नहीं हो सकता। एक देशी जीव कितना ही ज्ञान बढ़ाये, महाज्ञानी हो जाये परन्तु सर्वज्ञ कभी नहीं हो सकता। अज्ञ व्यक्ति शीशे में देख प्रतिदिन समझता है कि मैं गोरा, काला, बूढ़ा, जवान, स्त्री या पुरुष हूँ, परन्तु योगी-ज्ञानी-विवेकी अपनी गाड़ी (रथ) शरीर के आदि-अन्त का निरीक्षण करके वर्त्तमान को समाप्त करता हुआ अपने शुद्ध आत्मरूप को देखता है।

 

          सत् - प्रकृति जिसकी विद्यमानता है चाहे नाशवान् हो पर वह अभाव को प्राप्त नहीं होती। अन्य जो वस्तु सत्तात्मक गुण वाली हैं वे आत्मा और ईश्वर हैं। ईश्वर व जीव कभी विनाश को प्राप्त नहीं होते, उनका अभाव कभी नहीं होता ।

चित् - ज्ञानी चेतन जो चारों ओर अन्दर-बाहर-सर्वत्र भरा हुआ है उस ईश्वर की सर्वत्र विद्यमानता न जानकर अन्य के प्रति बुरे विचार मात्र से व्यक्ति बुराईयों में फंसता जाता है। ईश्वर अरबों मनुष्यों, खरबों कीट-पतंगों, पशु-पक्षियों की पल-पल, क्षण-क्षण की हरकत को जानता है। ईश्वर को ज्ञानवान् चेतन जान कर सहाय मांगें तो सफल होंगे। जीव भी चेतन है पर एकदेशी, ज्ञानवान् है पर अल्पज्ञ ।

 

      आनन्द - ईश्वर आनन्द स्वरूप है, जैसे मिश्री हलवे आदि में मिठास लगती है वैसे ईश्वर में भी मिठास है। परन्तु इस मिठास में चार प्रकार के दुःख का लेश भी नहीं है। ईश उपासना में आनन्द बढ़ता ही जाता है। परन्तु मिश्री-हलवे की मिठास कम होते-होते गारे के समान लगने लगती है। सांसारिक सुख से रोगी, ईश्वरीय सुख से निरोगी होता है। व्यक्ति यह सब मानता-जानता है पर उसे जॅँचता नहीं, क्योंकि उसने इस ज्ञान को व्यवहार में नहीं उतारा। ईश्वर को वास्तव में नित्यानन्द का भण्डार माननेवाला व्यक्ति अन्य किसी वस्तु में ईश्वर से बढ़कर रुचि नहीं करता।

सर्वशक्तिमान् - ईश्वर अपने नियम में रहकर उपादान कारण से संपूर्ण कार्य जगत् को बनाता है। बिना किसी की सहायता लिये सब कार्य कर सकता है, अत: सर्वशक्तिमान् है।

 

        तीन वस्तुएँ जो संसार के मूल में हैं, मूल तत्त्व हैं उनका ही विवेक-वैराग्य-अभ्यास करना मुक्ति का साधन है।

 

वैदिक धर्म में ईश्वर का स्वरूप

 

       प्रथम ईश्वर के अस्तित्व के विषय में विचार करना चाहिये। ईश्वर के विषय में मुख्यरूपेण दो मान्यतायें हैं।

         प्रथम मान्यता यह है कि ईश्वर एक सत्तात्मक वस्तु है। दूसरी मान्यता यह है कि ईश्वर कोई सत्तात्मक वस्तु नहीं है।

         इन दोनों मान्यताओं में जो प्रथम मान्यता है वही ठीक है; क्योंकि प्रमाणों से ईश्वर की सत्ता सिद्ध होती है। जो बात प्रमाणों से सत्य सिद्ध हो वही मानने योग्य है अन्य नहीं. क्योंकि किसी वस्तु के अस्तित्व और अनस्तित्व में प्रमाण ही निर्णय का कारण है।

"जन्माद्यस्ययत:" (वेदान्त दर्शन १/१/२) अर्थ - जिससे इस संसार की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय होता है वह ईश्वर है। यदि ईश्वर न हो तो भूमि आदि लोक और मनुष्यादि के शरीरों की उत्पत्ति नहीं हो सकती। कर्त्ता के बिना कार्य सम्भव नहीं।

 

     प्रश्न - भूमि आदि लोक और मनुष्य आदि के शरीर स्वयं उत्पन्न हो जाते हैं। ईश्वर को मानने की क्या आवश्यकता है ?

 

     उत्तर - भूमि आदि लोक और मनुष्यादि के शरीर जिन परमाणुओं से बने हैं, वे परमाणु जड़ हैं अर्थात् ज्ञान रहित हैं। अत: वे स्वयं मिलकर भूमि , शरीर आदि के रूप में उत्पन्न नहीं हो सकते। जैसे लोहे के कण स्वयं भूमि में से निकल कर रेल का इन्जिन नहीं बन सकते इसी प्रकार भूमि के कण भी स्वयं भवन नहीं बन सकते। ऐसे ही सर्वत्र समझना चाहिये। दूसरी यह बात भी ईश्वर को सिद्ध करती है कि किसी जीव को मनुष्य शरीर मिला है तो किसी को कुत्ते-गधे आदि का। मनुष्य योनि में कुत्ते आदि योनियों से अधिक स्वतन्त्रता है। इसी प्रकार मनुष्य शरीरों में ज्ञानादि का जितना विकास हो सकता है उतना पशु आदि योनियों में नहीं हो सकता। यह जीवों के कर्मों का फल है। यदि ईश्वर न हो तो कर्मों का फल नहीं मिल सकता।

 

     प्रश्न - कर्म स्वयं जीव को अपना फल दे सकता है, ईश्वर को मानने की क्या आवश्यकता है ?

 

     उत्तर - कर्म कोई चेतन वस्तु नहीं हैं जो कि जीव को अपना फल स्वयं दे सके। दूसरी बात यह भी है कि कर्म जिस समय किया जाता है वह उसी समय नष्ट भी हो जाता है। फिर वह कालान्तर फल कैसे दे सकता है? जो कर्म से संस्कार बनते हैं वे भी कर्म का फल नहीं दे सकते क्योंकि वे कोई चेतन वस्तु नहीं हैं । संसार में देखा जाता है कि जो चेतन है वही कर्म करने वालों को उनके कर्मों को जानकर वेतन आदि के रूप में फल देता है।

      प्रश्न - इन भूमि आदि लोकों को भी किसी व्यक्ति ने बनते हुए तो देखा नहीं कि जिससे इनके बनाने वाले ईश्वर को कार किया जाये ।

 

       उत्तर - जो वस्तु तोड़ने से टूट जाती है वह अनादि नहीं हो सकती जैसे कि यह मनुष्य का शरीर तोड़ने से टूट जाता है वैसे ही भूमि भी तोड़ने से टूट जाती है। अत: भूमि उत्पन्न होती है अनादि नहीं है। भूमि आदि पदार्थ स्वयं

 

    उत्पन्न नहीं हो सकते। इसलिये इनको उत्पन्न करनेवाला चेतन पदार्थ ईश्वर है। संक्षेपरूप से ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध हो गया है।

 

    प्रश्न - प्रश्न उठता है कि वैदिक ईश्वर का स्वरूप क्या है ?

 

    उत्तर - (१) यजुर्वेद में ईश्वर के स्वरूप का वर्णन निम्न प्रकार से किया है।

स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविरं शुद्धमपापविद्धं। कविर्मनीषी परिभूः स्वयं भूर्याथातथ्यतोऽर्थान् व्यदधाच्छाश्वतीभ्य: समाभ्यः। (यजु. ४०/८)

 

     पदार्थ - हे मनुष्यों जो ब्रह्म (शुक्रम्) शीघ्रकारी सर्वशक्तिमान् (अकायम्) स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर से रहित । (अव्रणम्) छिद्ररहित और नहीं छेद करने योग्य (अस्नाविरम्) नस नाड़ी आदि के साथ सम्बन्ध रूप बन्धन से रहित (शुद्धम्) अविद्यादि दोषों से रहित होने से सदा पवित्र और (अपापविद्धम्) जो पापयुक्त, पापकारी और पाप से प्रीति करने वाला कभी नहीं होता । (परि अगात्) सब ओर से व्याप्त है जो (कविः) सर्वज्ञ (परिभूः) दुष्ट पापियों का तिरस्कार करने वाला और (स्वयंभूः) अनादि स्वरूप, जिसकी संयोग से उत्पत्ति, वियोग से विनाश, माता- पिता, गर्भवास , जन्म, वृद्धि और मरण नहीं होते, वह परमात्मा (शाश्वतीभ्यः) सनातन अनादि स्वरूप, अपने स्वरूप से उत्पत्ति और विनाश रहित (समाभ्य:) प्रजाओं के लिये (याथातथ्यतः) यथार्थ भाव से (अर्थान्) वेद द्वारा सब पदार्थों को (विअदधात्) विशेष कर बताता है (सः) वही परमेश्वर तुम लोगों को उपासना करने योग्य है।

 

      योग दर्शन पाद १ के २४-२५-२६ इन तीन सूत्रों में ईश्वर के स्वरूप का वर्णन इस प्रकार है।

 

(२) 'क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः''तत्रनिरतिशयं सर्वज्ञबीजम्''स एष पूर्वेषामपि गुरु: कालेनानवच्छेदात्'

 

     अर्थ - जो अविद्यादि क्लेशों से रहित है; जो शुभ, अशुभ वा मिश्रित कर्म नहीं करता, केवल निष्काम शुभ कर्म ही करता है; जो कर्मों का फल नहीं भोगता और कर्मों का फल भोगने से उत्पन्न होने वाले संस्कार जिसमें नहीं होते, वह पुरुषविशेष ईश्वर है। जिससे अधिक ज्ञानी कोई भी नहीं है और जो सर्वज्ञ है। जो सभी पूर्वजों, वर्त्तमान और भविष्य में होने वाले गुरुओं का भी गुरु है और जो काल से कभी विनाश को प्राप्त नहीं होता वह ईश्वर है।

 

     (३) आर्य समाज के दूसरे नियम के अनुसार :- ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकत्त्ता है। उसी की उपासना करनी योग्य है।

प्रश्न - ईश्वर को सातवें आसमान, चौथे आसमान, परमधाम, वैकुण्ठ आदि एक स्थान पर मानने से क्या हानि है ?

जो किसी एक स्थान पर रहता है, वह सर्वज्ञ नहीं हो सकता, और जो सर्वज्ञ नहीं है वह सब जीवों के कर्मों को जानकर उनका उचित फल नहीं दे सकता, और जो उचित फल नहीं दे सकता वह न्यायकारी नहीं हो सकता। ईश्वर सातवें आसमानादि स्थानों में रहता है, यह बात प्रत्यक्षादि प्रमाणों से भी सिद्ध नहीं है। अत: अमान्य है।

 

      प्रश्न - जैसे जीव शरीर के एक स्थान में रहते हुए सम्पूर्ण शरीर के व्यापार को जानता है, वैसे ही परमेश्वर भी परमधामादि में एक स्थान पर रहते हुए भी सब कुछ जान सकता है और कर्मों का फल दे सकता है।    

 

        उत्तर - यह दृष्टान्त सत्य नहीं है क्योंकि शरीर में एक स्थान में रहने वाला जीव सम्पूर्ण शरीर के व्यापार को नहीं जानता। यदि जीव सम्पूर्ण शरीर के व्यापार को जानता होता तो कोई भी व्यक्ति कभी रोगी नहीं होता। बड़े-बड़े वैद्य डाक्टर भी शरीर के विषय में पूर्णरूप से नहीं जानते; और वे रोगी भी हो जाते हैं। इसलिये यह मान्यता असत्य है कि जीव शरीर में एक स्थान पर रहता हुआ सम्पूर्ण शरीर के विषय में जानता है। सर्वज्ञ केवल वही हो

सकता है जो सर्वव्यापक हो, एक स्थान में रहनेवाला नहीं।

प्रश्न - जब ईश्वर सर्वव्यापक है तो जीव और प्रकृति के रहने के लिये कोई स्थान शेष नहीं रहना चाहिये ?

उत्तर - ईश्वर पत्थर की भाँति स्थान को नहीं घेरता और न जीव स्थान को घेरता है। इसलिये ईश्वर के सर्वव्यापक होने पर भी जीव और प्रकृति के रहने में कोई बाधा नहीं है।

प्रश्न - ईश्वर से अतिरिक्त जीव और प्रकृति को स्वतन्त्र अनादि पदार्थ मानने की क्या आवश्यकता है ? ईश्वर स्वयं ही जीव और संसार के भूमि आदि सब पदार्थों को अपने स्वरूप से ही उत्पन्न कर लेवेगा ?

उत्तर - ईश्वर निर्विकार और निराकार है, अतः जीव, प्रकृति और भूमि आदि को अपने स्वरूप से उत्पन्न नहीं कर सकता और चेतन से जड़ की उत्पत्ति भी नहीं हो सकती। इसलिये प्रकृति एक अनादि पदार्थ है। उसी से ईश्वर संसार की समस्त वस्तुओं को बनाता है। जीव भी स्वतन्त्र अनादि पदार्थ है। यदि जीव को भिन्न पदार्थ न माना जाये तो सुख-दुःख को कौन भोगे? ईश्वर तो आनन्द से परिपूर्ण है, उसको अन्य किसी भी प्रकार के सुख की आवश्यकता नहीं है। और प्रकृति जड़ है, वह सुख-दुःखादि का अनुभव नहीं कर सकती। इसलिये शुभाशुभ कर्मों का करने वाला और सुख-दुःख को भोगने वाला जीव अनादि पदार्थ है।

प्रश्न - कुछ लोग केवल ब्रह्म को ही अनादि मानते हैं, जीव और प्रकृति को नहीं। कुछ लोगों की मान्यता यह है कि प्रकृति ही एक अनादि पदार्थ है, वे जीव और ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं करते। किन्हीं का मत है कि जीव और प्रकृति ये दो ही अनादि पदार्थ हैं ईश्वर कोई सत्तात्मक पदार्थ नहीं है ।

उत्तर - ये तीनों प्रकार की मान्यतायें प्रमाणों से खण्डित हो जाती हैं, अत: मानने योग्य नहीं हैं। वेद में ईश्वर, जीव और प्रकृति इन तीनों को अनादि बतलाया है।

द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते ।

तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्योऽभिचाकशीति ।

(ऋ.मं.१/१६४/२०)

महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने इस मंत्र का अर्थ स प्र. ग्रन्थ के ८ वें समुल्लास में इस प्रकार किया है। "(द्वा) जो ब्रह्म और जीव दोनों (सुपर्णा) चेतनता और पालनादि गुणों से सदृश (सयुजा) व्याप्य-व्यापक भाव से संयुक्त (सखाया) परस्पर मित्रतायुक्त सनातन अनादि हैं और (समानम्) वैसा ही (वृक्षम्) अनादि मूलरूप कारण और शाखारूप कार्ययुक्त वृक्ष अर्थात् जो स्थूल होकर प्रलय में छिन्न भिन्न हो जाता है वह तीसरा अनादि पदार्थ है । इन तीनों के गुण कर्म और स्वभाव भी अनादि हैं। (परिषस्वजाते) एक-दूसरे से लिपटे हुए स्थित है। (तयोरन्यः) इन जीव और ब्रह्म में से एक जो जीव है, वह इस वृक्ष रूप संसार में पाप-पुण्य रूप फल को (स्वाद्वत्ति) अच्छी प्रकार भोक्ता है और दूसरा परमात्मा कर्मों के फलों को (अनश्नन्) न भोगता हुआ चारों ओर अर्थात् भीतर बाहर सर्वत्र

प्रकाशमान हो रहा है। जीव से ईश्वर, ईश्वर से जीव और दोनों से प्रकृति भिन्नस्वरूप तीनों अनादि हैं"।

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