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वैदिक विज्ञान

 

 

वैदिक विज्ञान

 

 

प्रश्न - ईश्वर का गुण-कर्म-स्वभाव कैसा है ?

उत्तर - आर्य समाज के दूसरे नियम में ईश्वर का गुण-कर्म-स्वभाव वरणित है। ईश्वर को वैसा जानकर उसका ध्यान किया जाता है।

प्रश्न - ईश्वर सर्वशक्तिमान् है तो क्या वह सब कुछ कर सकता है ?

उत्तर - जो लोग यह मानते हैं कि ईश्वर सब कुछ कर सकता है, ऐसा मानने वालों से यह प्रश्न पूछा जा सकता है कि क्या ईश्वर स्वयं को मारकर अपने जैसा दूसरा ईश्वर बना सकता है ? इस प्रश्न का उनके पास कोई उत्तर नहीं है। क्योंकि यह कार्य असम्भव है। सर्वशक्तिमान् का वास्तविक अर्थ यह है कि अपने नियम में रहते हुए उपादान कारण की विद्यमानता में बिना दूसरों की सहायता के अपने कार्यों को स्वयं कर लेना। जैसे कि प्रकृति संसार का उपादान कारण है। ईश्वर उससे भूमि, शरीर आदि समस्त जगत् को बनाता, संचालन करता तथा प्रलय करता है और जीवों को उनके कर्मों का फल भी देता है। इन कार्यों के करने में किसी की सहायता नहीं लेता, अत: सर्वशक्तिमान् है।

प्रश्न - ईश्वर न्यायकारी भी है और दयालु भी है, इसमें परस्पर विरोध मालूम होता है।

उत्तर - इसमें परस्पर कोई विरोध नहीं है। जैसे कि किसी चोर ने चोरी की, राजा ने उसे कारागार में डालकर दण्ड दिया। यह चोर के साथ 'न्याय' हो गया और चोर को दण्ड देने से सैकड़ों लोगों का दु:ख दूर हो गया, यह उन लोगों पर दया हो गई। एक बालक बुरा काम करता है, माता-पिता ने उसको उचित दण्ड देकर बुरे कर्म से हटाकर उत्तम कर्म में लगा दिया। ऐसा करने से बालक के साथ न्याय भी हो गया और दया भी हो गई। यदि ईश्वरोपासक के मन में कभी ऐसे संशय उत्पन्न हो जायें तो उनका समाधान कर लेना चाहिये।

प्रश्न - बहुत लोग मानते हैं कि ईश्वर शरीर धारण करता है। तो क्या ईश्वर की मूर्ति बनाकर ध्यान करना ठीक नहीं?

उत्तर - ठीक नहीं है। क्योंकि वेद में ईश्वर को 'अकायम्' अर्थात् सब प्रकार के शरीरों से रहित बतलाया है। ईश्वर की मूर्ति बनाकर ईश्वर का ध्यान किया ही नहीं जा सकता, क्योंकि जब ध्यान करने वाला मूर्ति को देखेगा तो मूर्ति दिखाई देगी, ईश्वर का ध्यान भङ्ग हो जायेगा और जब ध्यान करनेवाला ईश्वर का ध्यान करेगा तब मूर्ति दिखाई नहीं देगी। जब ईश्वर कभी शरीर धारण नहीं करता तो उसको शरीरधारी अवतार आदि के रूप में मानकर उसका ध्यान करना अनुचित ही है।

वैदिक धर्म में जो ईश्वर का स्वरूप वणित किया गया है वही वास्तविक है, अन्य नहीं, क्योंकि प्रत्यक्षादि प्रमाणों से उसकी सिद्धि होती है। जो वस्तु जैसी है उसको उसी रूप में मन में रख कर उसकी जो खोज की जाती है, उसी का नाम ध्यान है। जब ईश्वर निराकार है तो कोई व्यक्ति लाखों जन्मों तक भी उसको साकार मानकर गवेषणा करे तो भी उसका साक्षात्कार नहीं कर सकेगा।

वैदिक ईश्वर की दृष्टि में मनुष्य, पशु, पक्षी आदि सब पुत्र के तुल्य हैं, सभी एक समान हैं। ईश्वर सभी प्राणियों का एक ही है अनेक नहीं; एक ही प्रकार का है अनेक प्रकार का नहीं। ईश्वर की आज्ञा का पालन करना सब का एक ही धर्म है, अनेक नहीं। मुक्ति और मुक्ति के साधन सब के लिये एक समान ही हैं, भिन्न प्रकार के नहीं।

यदि संसार के समस्त लोग वैदिक ईश्वर को जान कर उसकी स्तुति, प्रार्थना, उपासना करें व व्यवहार भी उसकी आज्ञानुसार करें तो सब समस्याएँ हल हो जायें ।

परमात्मा अद्वितीय है। जिससे बड़ा वा तुल्य न हुआ, न है, और न कोई कभी होगा, उसको परमात्मा कहते हैं ।

परमात्मा जगत् का आत्मा है। वह आत्मा का भी आत्मा है क्योंकि परमेश्वर सब जगत् के भीतर, बाहर तथा मध्य में सदा विद्यमान है। अर्थात् एक तिल मात्र भी उसके बिना खाली नहीं है ।

मान्यता से स्वरूप नहीं बदलता - कई कहते हैं कि आप ईश्वर को मानो, हम नहीं मानते। आप सत्य बोलो, हम नहीं बोलते इससे क्या अंतर पड़ता है? सब अपने-अपने विचार, मन की मान्यता से ठीक हैं। सब अपने-अपने विश्वास की बात है। तुम चोरी-हिंसा में पाप समझते हो, हम नहीं। सब का अलग धर्म हो, इसमें क्या हर्ज है? आप निराकार को मानते हैं हम मूर्ति को, आप ईश्वर-जीव- प्रकृति को मानते है, हम अहं ब्रह्मास्मि को। सब अपने धर्म की मान्यता का पालन करते हैं इस में क्या हर्ज है कुछ भी मान सकते हैं ? "परन्तु याद रखें किसी के मानने न मानने से वस्तु का स्वरूप नहीं बदलता"। सृष्टि के आदि में ईश्वर जैसा था वैसा आज भी है। जीव - प्रकृति जैसे आदि में थे वैसे आज भी हैं। सत्युग, कलियुग आदि के कारण कभी पदार्थ का स्वरूप वा सत्य का स्वरूप नहीं बदलता। ईश्वर सम्बन्धी ज्ञान-विवेक न होने से आज नास्तिकता बढ़ रही है। ईश्वर पर श्रद्धा समाप्त होती जा रही है।

 

 

वेद स्वत:प्रमाण हैं

 

 

सामान्य प्रश्न - क्या आप ईश्वर को मानते हैं ?

उत्तर - छोड़िये जी इन बातों में क्या रखा है? क्या बिना इसके रोटी नहीं पचती? क्या ईश्वर रोटी, कपड़ा, मकान और नौकरी देगा? क्या नास्तिक नहीं जीते, सुखी नही हैं ? बल्कि ज्यादा सुखी हैं। पाश्चात्य वैज्ञानिक बेकन, बुकनिन आदि ने कह दिया कि अब ईश्वर की आवश्यकता नहीं। यदि ईश्वर है तो उसे नष्ट कर देना चाहिये। कार्ल मार्र्स ईश्वर-धर्म को अफीम कहते हैं। धर्म व ईश्वर के बारे में अवैज्ञानिक उलटी मान्यताएँ पाश्चात्य देशों के मत-सम्प्रदायों-मजहबों में हैं। ऐसे धर्म के नाम पर मानव समाज का जितना संहार हुआ उतना अन्य युद्धादि कारणों से नहीं हुआ। वहाँ के आस्तिक जगत के पास नास्तिक लोगों के प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं है। उनके सभा मन्दिर पूजा स्थानों पर बोर्ड लगा होगा "धर्म पर प्रश्न न करें" "किसी पर आक्षेप न करें"॥ अन्य की निन्दा न करें। जब तक आस्तिकों के पास इन सामान्य आक्षेपों का उत्तर नहीं तब तक धर्म सुरक्षित नहीं।

आक्षेप १. - संसार में अव्यवस्था है ।

उत्तर - यह अव्यवस्था ईश्वर की नहीं। मनुष्य कर्म करने में स्वतन्त्र होने से मनुष्य द्वारा पैदा की गई है। घर में माता-पिता होने पर बच्चे शोर नहीं मचाते, न होने पर मचाते हैं। परन्तु श्रेष्ठ धार्मिक माता-पिता के बच्चे दुष्ट, चोर, शराबी हों तो मां-बाप की आज्ञा नहीं मानते। जैसे राजा-अधिकारी होते हुए भी चोर-डाकू हैं, उसी प्रकार ईश्वर के होते हुए भी अधर्मात्माओं के कारण संसार में अव्यवस्था है।

आक्षेप २. - ईश्वर की कोई आवश्यकता नहीं। संसार अपने आप बन गया, जैसे जंगल के वृक्ष, हिमालय में जड़ी - बूटियाँ आदि।

उत्तर - यह एक तरफी अमान्य धारणा है। संसार में कोई कार्य अपने आप नहीं हो सकता (प्रतिज्ञा)। (हेतु) बिना कत्त्ता के कोई कार्य नहीं होता। (उदाहरण) जैसे मकान आदि बिना कर्ता के नहीं बन सकते वैसे जड़ी-बूटी-घास आदि भी। जो जड़ वस्तु पड़ी है वह बिना हिलाये पड़ी ही रहेगी। जड़ परमाणु स्वयं जुड़ या विखण्डित नहीं हो सकते।

आक्षेप ३. - ईश्वर सब को आनन्दित क्यों नहीं करता ?

उत्तर - ईश्वर उसे आनन्द देता है जो उसकी आज्ञानुसार चलता है तथा उसका सेवन (उपासना) करता है। सब पास टी.वी होते हुए भी जो चैनल ऑन करता है उसे ही प्रसारण दीखता है। यदि मधु में डूबा हूुआ मनुष्य मुंहबन्द रखे तो मधु की मिठास नहीं पा सकता।

आक्षेप ४. - नास्तिक अधिक सुखी दीखते हैं।

उत्तर - कर्म फल दाता ईश्वर न्यायकारी है, कोई भी उचित परिश्रम करेगा तो वह ईश्वरीय व्यवस्था से परिणामत: भौतिक सुख पायेगा। यदि साथ में आस्तिकता होगी तो ईश्वर प्रदत्त विशेष मानसिक आनन्द-शान्ति आदि भी मिलेगी। अव्यावहारिक आस्तिक जो कामचोर है, आलसी है उसे भौतिक सुख भी नहीं मिलेगा। आध्यात्मिक उच्च स्तर के सुख की तो बात दूर रही । सच्चे आस्तिक से नास्तिक को अधिक सुख कभी भी नहीं हो सकता यह सिद्धान्त है। वैदिक (वैज्ञानिक) षड्दर्शन के तारकिक ज्ञान द्वारा ही राष्ट्र विघातक, संस्कृति विनाशक नास्तिकों को मुंह तोड़़ उत्तर दिया जा सकता है।

ईश्वर - एक ऐसी वस्तु है जिसमें रूप, रस, गंध, स्पर्श आदि नहीं फिर भी वह एक वस्तु-चीज-पदार्थ है। यदि ईश्वर की सत्ता में विश्वास, दृढ श्रद्धा नहीं तो योगाभ्यास द्वारा किस की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करेंगे? स्वयं आत्मा में रूप-रंग नहीं, फिर भी हम उसकी अनुभूति करते हैं कि हम वस्तु हैं। हममें ज्ञान, बल, चेष्टा, सामर्थ्य है। इसी प्रकार ईश्वर भी पदार्थ है जो ज्ञान, बल, आनन्द आदि गुण युक्त सर्वत्र विद्यमान है। कोई श्रद्धा रखे न रखे, माने न माने पर ईश्वर गुणवाला सत्तात्मक पदार्थ है। भावात्मक वस्तु को लाखों-करोड़ों मानना बन्द कर दें तो भी उसका भाव रहेगा और जिसका अभाव है उसे सभी मानने लगें तो भी उसका भाव (विद्यमानता) नहीं होगा। समाज में इतनी अधिक बुराइयाँ इसलिये हैं कि हम ईश्वर को सत्तात्मक पदार्थ नहीं मानते, नहीं जानते, व तदनुसार व्यवहार नहीं करते। ईश्वर की (वेदोक्त) आज्ञाओं का पालन नहीं करते। जैसे असत्य न बोलें, अन्याय न करें, पक्षपात आदि न करें। ईश्वर हमें ज्ञान, बल, आनन्द, धैर्य आदि दे सकता है, पर विश्वास ही नहीं तो कैसे प्राप्ति हो ?

 

भ्रान्ति दर्शन

 

भ्रान्ति दर्शन - विपरीत - मिथ्या - उलटा ज्ञान। आज ईश्वर के सम्बन्ध में व्यापक रूप से लोगों में मिथ्याज्ञान व्याप्त है।

शरीरधारी ईश्वर सर्वव्यापक नहीं हो सकता तो सर्वज्ञ भी नहीं हो सकता, तो फिर सर्वशक्तिमान् भी नहीं हो सकता, तो सृष्टि कतर्ता भी नहीं बन सकता। अत: शरीरधारी के रूप में ईश्वर दीखना यह भ्रान्ति दर्शन है । ईश्वर दर्शन नहीं ।

ध्यान-उपासना में दीखते हुए सितारे, चमक, प्रकाश, यह सब भौतिक प्रकाश ईश्वर नहीं हो सकते, परन्तु जो ईश्वर को प्रकाश स्वरूप कहा है वह ज्ञान का प्रकाश है। यह सूर्य आदि का प्रकाश नहीं। अविद्या का दूसरा नाम तम। जैसे हम प्रार्थना करते हैं कि हे ईश्वर ! हमें तम अर्थात् अंधकार (अविद्या) से प्रकाश (विद्या) की ओर ले चलो क्योंकि आप में अज्ञान का लेश मात्र भी नहीं है, आप ज्ञानस्वरूप हैं । सो प्रभु में भौतिक प्रकाश नहीं परन्तु ज्ञान का प्रकाश है। यदि सूर्य जैसा भौतिक प्रकाश मान लें तो ईश्वर के सर्वव्यापक होने से सृष्टि में कही अन्धेरा नाम की वस्तु ही न रहेगी। परन्तु देखते हैं कि जहाँ सूर्य है वहीं यह भौतिक प्रकाश है, जहाँ नहीं वहाँ अन्धेरा है। यह ठीक है कि ईश्वर ने इस सूर्य को भौतिक प्रकाश दिया है। ईश्वर प्रकृति के तीन गुणों (सत्त्व-रज-तम) के संमिश्रण से सूर्य आदि को प्रकाश वाला बनाता है। जैसे उसने प्रकृति से हमारा शरीर, इन्द्रियाँ, मन आदि बनाये हैं।

 

ईश्वर विषयक भ्रान्तियाँ

 

 

(१) ईश्वर एक स्थान में रहता है, जैसे वैकुंठ, परमधाम, चौथे-सातवें आसमान आदि में ।

(२) ईश्वर शरीरधारी है, अवतार लेता है।

(३) ईश्वर पापों को क्षमा करता है।

(४) ईश्वर बिना कर्मों के सुख-दु:ख देता है।

(५) ईश्वर जो कुछ चाहे कर सकता है ।

(६) सब कुछ ईश्वर ही करवाता है।

(७) ईश्वर में से ही यह संसार बना है।

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