ईश्वर के प्रति
श्रद्धा कैसे हो ?
इसके लिए
निम्नलिखित बातों को जाने, विचारें व समझें कि -
१. ईश्वर हमारे
जीवन और संसार का आधार है।
२. वेदज्ञान का
दाता और अन्त:करण में प्रेरणा करता है।
३. हमें सुख देने
वाले जड़-चेतन सभी पदार्थों का आदि मूल परमेश्वर है।
४. ईश्वर हमारे
कर्मों का फल दाता है।
५. ईश्वर हमारा
सर्वाधिक हितैषी है।
६. पूर्ण स्थायी
सुख ईश्वर से ही मिलता है।
७. ईश्वर सर्वगुण
सम्पन्न है जबकि जीव और प्रकृति में अनेक दोष हैं।
८. ईश्वर हमें
इतना अधिक सुख देता है और बदले में कुछ भी नहीं लेता ।
९. ईश्वर हमारा
कभी साथ नहीं छोड़ता।
१०.ईश्वर की
उपासना से व्यक्ति पाप कर्म और दुःखों से बचता है।
ईश्वरीय सुख की
विशेषतायें
१. इसकी प्राप्ति
में बाह्य साधनों की अपेक्षा कम रहती है ।
२. यह सर्वत्र
प्राप्य है।
३. यह नित्य है।
४. यह विशुद्ध है, चार प्रकार के दु:खों से रहित है।
५. इसे चुराया
नहीं जा सकता, छीना नहीं जा सकता।
६. इसकी प्राप्ति
के लिये पाप नहीं करना पड़ता।
७. इससे व्यक्ति
मन-इन्द्रियों का स्वामी बनता है।
८. इससे स्वयं
सुखी होकर दूसरों को भी आनन्दित करता है।
९. यह
कुसंस्कारों का नाशक होता है ।
१०. इससे व्यक्ति
स्वस्थ,
शान्त, प्रसन्न और संतुष्ट रहता
है।
११. इससे व्यक्ति
निष्काम कर्त्ता बनता है
१२. ईश्वरीय सुख
से व्यक्ति ऊबता नहीं है ।
१३. इसको भोगने
वाला कालान्तर में मुक्ति को प्राप्त करता है।
सत्य की परिभाषा
और फल
(१) जो पदार्थ जैसा है
उसको वैसा ही कहना, लिखना, मानना सत्य कहाता है।
(२) वह सत्य नहीं (होता)
कहाता जो सत्य के स्थान में असत्य का प्रकाश किया जाये।
(३) जो मनुष्य पक्षपाती
होता है वह अपने असत्य को भी सत्य और दूसरे विरोधी मतवाले के सत्य को भी असत्य
सिद्ध करने में प्रवृत्त होता है, इसलिये वह सत्यमत को
प्राप्त नहीं हो सकता।
(४) मनुष्य का आत्मा
सत्यासत्य को जानने वाला है। तथापि अपने प्रयोजन की सिद्धि, हठ,
दुराग्रह और अविद्यादि दोषों से सत्य को छोड़ असत्य में झुक
जाता है।
(५) जिससे मनुष्य जाति की
उन्नति और उपकार हो वह सत्य है। सत्यासत्य को मनुष्य लोग जान कर सत्य का ग्रहण और
असत्य का परित्याग करें। क्योंकि सत्योपदेश के बिना अन्य कोई भी मनुष्य जाति की
उन्नति का कारण नहीं।
(६) सदा सत्य की विजय और
असत्य की पराजय होती है।
सत्य किस प्रकार
बोलें
(१) परीक्षा करके, सब के उपकार के लिये बोलें।
(२) सर्वहितकारी और प्रिय
वाणी बोलें।
(३) आवश्यकता से कम या
अधिक न बोलें।
(४) व्याकरण के अनुसार
शुद्ध बोलें।
(५) अपात्र या अयोग्य
स्थान पर न बोलें।
झूठ बोलने की
अपेक्षा न बोलना ठीक। बोला तो जाये पर सत्य बोला जाये। सत्य को भी प्रिय करके बोला
जाये। सत्य और प्रिय वचन धर्मानुसार हो।
सत्य का फल :
सत्याचरण करने वाले का विश्वास उसके शत्रु भी करते हैं। झूठे का विश्वास उसकी
पत्नी भी नहीं करती। प्रारम्भ में जब आर्यसमाजी सत्य का पालन किया करते थे तब
कोर्ट का न्यायाधीश, जो कुछ आर्य कहता उसे सत्य (प्रमाण)
मानकर न्याय (निर्णय) कर देता था। बालक हमेशा आचरण का अनुकरण करता है, उपदेश का नहीं। बच्चा अपने माता-पिता का दर्पण होता है। उसका प्रभाव जाति, राष्ट्र और संसार पर पड़ता है। दोषयुक्त के लिए सत्य प्रथम कड़वा परन्तु
परिणाम में अमृत होता है।
संशय महाशत्रु
योगाभ्यास हो
चाहे सांसारिक कार्य, संशय सबसे बड़ा शत्रु (विघ्न) है।
इससे व्यक्ति कार्य करने में शिथिल पड़ जाता है। इससे रुचि, उत्साह मंद पड़ जाते हैं। किसी वस्तुतत्त्व को यथार्थ में परीक्षा पूर्वक
जानना हो तो संशय सहायक है, परन्तु जानकर भी यह सन्देह बना रहे
तो उस वस्तु को न तो प्राप्त करने की और न ही छोड़ने की स्थिति बनती है। 'संशयात्मा विनष्यति'। (गीता)
संशय उत्पत्ति के
कारण
(१) समान धर्मोत्पत्ति -
जब दो वस्तुओं के समान धर्मों की उपलब्धि तो हो रही हो परन्तु विशेष धर्मों की
जानकारी न हो, जैसे चाँदनी रात में ढूँठ व मनुष्य की
लम्बाई- चौड़ाई तो दीख रहे हैं, परन्तु विशेष धर्म
हाथ-पग चलते दीखें नहीं, डाली-शाखा हिलती दिखाई न दे तो वहाँ
व्यक्ति सन्देह में पड़ जाता है कि यह वृक्ष है या मनुष्य।
(२) अनेक धर्मोत्पत्ति -
द्रव्यों में कई गुण होते हैं। कुछ गुण अन्य द्रव्यों के समान भी होते हैं, परन्तु अपने- अपने विशेष गुणों के कारण वे द्रव्य अन्य द्रव्यों से पृथक् जाने
जाते हैं। इन सब की अपनी-अपनी विशेषतायें होती हैं। 'गंध'
पृथिवी महाभूत का गुण है। यह 'गंध गुण' पृथिवी महाभूत के सजातीय जल-अग्नि- वायु
महाभूत में नहीं पाया जाता है तथा पृथिवी महाभूत के विजातीय गुण व कर्म में भी
नहीं पाया जाता। तो संशय होता है कि 'गंध गुण' द्रव्य का है या गुण का या कर्म का।
(३) विपरीत धर्मोत्पत्ति
- किसी एक विषय में विपरीत बात सुनना जैसे एक कहता है ईश्वर है, दूसरा कहता है नहीं है।
(४) उपलब्धि की अव्यवस्था
- जैसे दोपहर कड़ी धूप में कहीं रेगिस्तान में चलते हुए दूर जल तरंगें दीख रही हैं
तो संशय होता है कि वास्तव में आगे तालाब में जल है या मृग मरीचिका । नेत्रों
द्वारा वस्तु की उपलब्धि होते हुए भी अव्यवस्था के कारण संशय बना रहता है।
(५) अनुपलब्धि की
अव्यवस्था - वस्तु होते हुए नहीं मिल रही या है ही नहीं इसलिये नहीं मिल रही। जैसे
सुने हुए किसी पुराने खजाने में गड़ा हुआ धन का घड़ा सही ठिकाना न पाने के कारण
नहीं मिल रहा या वहाँ घड़ा न होने के कारण नहीं मिल रहा।
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