मनोनियन्त्रण
द्वारा दोष निवृत्ति
(१) अन्य के लगाये हुए
झूठे आरोपों को हम स्वीकार न करें तो दु:ख न होगा।
(२) ऐसा कोई व्यक्ति न
हुआ, न है और न होगा जिस पर आरोप या आक्षेप न लगा हो। ईश्वर भी इससे अछूता नहीं।
(३) झूठे आरोप, अन्याय आदि रुकेंगे नहीं, परन्तु अपने संस्कारों
को ऐसा बांध करके रखें कि वे भड़कें नहीं।
(४) हम दुसरों की वाणी से
दुःखी होते हैं तो उसके कारण हम ही हैं। बिना विचलित हुए सहन करना सीखें।
(५) अपने मन में आग लगाने
वाले हम ही हैं । दृढ़ संकल्प करें कि दुनियाँ का कोई भी व्यक्ति, अपने कटु विचार या वाणी से मुझे विचलित नहीं कर सकेगा।
(६) अष्टांग योग से मन का
नियंत्रण होगा। यह ईश्वर की उपासना से होगा। 'हे ईश्वर ! मुझे शक्ति
दो इन आरोपों से मैं न तो विचलित होऊँ और न ही उससे दुर्भावना रखूँ ।'
(७) सुखी लोगों की
विनम्रता उनके मन की शान्ति पर आधारित मैत्री है। और मन की शान्ति धर्मानुष्ठान से
प्राप्त प्रसन्नचित्ता से उत्पन्न होती है ।
शयन पूर्व
आत्मावलोकन
इन क्षणों में कुछ
इस प्रकार के प्रश्नों का उत्तर खोजना चाहिये।
(१) कहीं मेरा व्यवहार
समाज के व्यापक हितों का विरोधी तो नहीं है?
(२) मैंने अपने व्यक्तिगत
लाभ के लिये किसी को पीड़ित या वंचित तो नहीं किया?
(३) अच्छे और बुरे का, उचित और अनुचित का विवेक करने में कहीं भूल तो नहीं हुई ?
(४) मैंने कितना निर्माण
किया और कितना विध्वंस?
(५) अपेक्षित व्यक्तियों
और कार्यों के साथ क्या सहयोग किया ?
(६) अवांछनीय तत्त्वों व
घटनाओं का विरोध कर सका या नहीं ?
(७) सामाजिक अन्याय और
शोषण में मैं भागीदार बना, उसका शिकार हुआ या सक्षम प्रतिकार किया
?
(८) भविष्य में परिस्थिति
विशेष में मेरा व्यवहार और प्रतिक्रिया कैसी होनी चाहिये?
(९) ईर्ष्या, द्वेष, जलन, डाह आदि से तो
युक्त नहीं हुआ ?
(१०) मेरे कारण किसी
प्राणी की हिंसा तो नहीं हुई ?
(११) देश धर्म व मानव
समाज के रक्षार्थ कोई परोपकार का कार्य किया ?
(१२) मेरे स्वभाव-वाणी-
वर्ताव से कोई दु:खी तो नहीं हुआ ? कोई पीड़ित, खिन्न, भयभीत वा त्रस्त तो नहीं हुआ ?
हमारे जीवन में
दु:ख का कारण क्या है, उसे पकड़ने के लिये आत्म-निरीक्षण
करें। हम क्रियाव्यवहार, वाणी आदि में दोष करते हैं, उसके पीछे हमारा अज्ञान है, कुवासनाएँ हैं।
कूड़ा-कचरा देखेंगे ही नहीं तो साफ क्या करेंगे? अत: पहले सूक्ष्मता से दोषों को पकड़ें फिर दूर करें।
मानव का एक भयंकर
दोष - सत्य को ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने में उद्यत नहीं होता।
ईश्वर-प्रणिधान
ईश्वर प्रणिधान - समाधि का विशिष्ट साधन है ।
(१) प्रणिधानात्
भक्तिविशेषात्। (यो. द. १/२३ व्यास भाष्य) ईश्वर की विशेष भक्ति करना अर्थात्
ईश्वर में सर्वाधिक प्रेम का होना।
(२) ईश्वरप्रणिधानं
सर्वक्रियाणां परमगुरावर्पणं तत्फलसंन्यासो वा। (यो.द. २/१ व्यास भाष्य) आत्मा, मन, वाणी और शरीर से की जाने वाली सब क्रियाओं को ईश्वर समर्पित कर देना और लौकिक
फल न चाहना।
(३) ईश्वरप्रणिधानं
तस्मिन् परमगुरौ सर्वकर्मार्पणम् । (यो.द. २/३२ व्यास भाष्य)। उस परम गुरु
परमात्मा के प्रति सब कर्मों को अर्पित कर देना अर्थात् ईश्वराज्ञानुसार सब
क्रियायें करना ।
साधक जप में
कभी-कभी पाठ करता है पर अर्थ का विचार नहीं कर पाता। कभी पाठ और अर्थ का विचार
दोनों भी कर लेता है पर ईश्वर समर्पित नहीं हो पाता। कई बार समर्पित होता है तो
पाठ नहीं कर पाता। जब ये तीनों कार्य होते हैं तो ध्यान की सफलता मानी जाती है।
ईश्वर समर्पण
होने में तीन साधनों से काम ले सकते हैं, प्रत्यक्ष प्रमाण, शब्द प्रमाण व अनुमान प्रमाण से। जब ईश्वर प्रत्यक्ष है नहीं तो समर्पण कैसे
हो ? प्रत्यक्ष तो समाधि अवस्था में होता है। अतः सामान्य साधकों का अनुमान व शब्द
प्रमाण से समर्पण हो सकता है।
शब्द प्रमाण से
जाना कि ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर है। अनुमान इस संसार को देखने से लगता है कि इसको चलाने वाला कोई
सर्वज्ञ,
सर्वशक्तिमान् ही हो सकता है।
ईश्वर की अनन्य
भक्ति, उसमें तल्लीन होने की स्थिति में अपने आप को समर्पित करना, ईश्वर की आज्ञा का पालन करना ऐसा ईश्वर प्रणिधान समाधि का एक विशेष साधन है।
यदि यह वैदिक रीति से साधक को करना आ जाये तो शीघ्र समाधि लग जायेगी।
ईश्वर
साक्षात्कार करने पर योगी प्रत्यक्ष प्रमाण की सहायता से ईश्वर प्रणिधान करते हैं।
अन्य साधक अनुमान और शब्द प्रमाण से ईश्वर प्रणिधान करते हैं। अन्य सब कुछ छोड़कर
ईश्वर ही प्रापणीय है। सुनी, सीखी हुई बात को क्रिया
रूप में कैसे लायें? इसे प्रातः सायं व्यक्तिगत उपासना
में क्रियारूप में लाया जाता है। ईश्वर से सम्बन्ध जोड़ने का प्रयोग करें।
प्रणिधान करते समय ईश्वर से माता-पिता, स्वामी, राजा,
व्याप्य-व्यापक आदि सम्बन्ध रहने चाहिए ।
(१) सब कुछ परम गुरु
परमेश्वर के अर्पण कर देना। जैसे इस सत्संग भवन में रहन-सहन, योगाभ्यास आदि करते हैं फिर भी इसे अपना नहीं समझते हैं। इसी प्रकार इस संसार
व इसके पदार्थों को ईश्वर का मानकर उपयोग तो करें, परन्तु अपना स्वामित्त्व मान कर न चलें ।
(२) यह शरीर हमें ईश्वर
से मिला है। हम तो इसमें किराये पर हैं। इसके प्रयोक्ता हैं, मालिक नहीं। जिस बुद्धि पर अभिमान है वह भी ईश्वरप्रदत्त है। यदि ईश्वर अपनी
दी हुई सब वस्तुएँ ले-ले तो अकेला जीवात्मा कुछ भी नहीं कर सकता। ईश्वर की दी हुई
वस्तु अपनी मानने लग जाते हैं तो यह चोरी है। कर्मों का फल मिलेगा फल की इच्छा
छोड़ देना ईश्वर प्रणिधान है।
(३) सब मनुष्यों व
प्राणियों को प्रभु के परिवार के सदस्य समझना। 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' का व्यवहार ईश्वर प्रणिधान है।
ईश्वर प्रणिधान
की विधि
(१) ईश्वर के स्वरूप को
जानना।
(२) सब पदार्थों का आदि
मूल ईश्वर को समझना।
(३) सब साधनों का प्रयोग
ईश्वर की आज्ञानुसार करना।
(४) लौकिक फलों की कामना
न करना।
(५) ईश्वर मुझे देख, सुन,
जान रहा है ऐसा विचार बनाये रखना। स्वयं को ईश्वर में डूबा
हुआ जानना।
(६) ईश्वर के कारण मैं
कार्य करने में समर्थ हुआ हूँ, ऐसा ज्ञान बनाये रखना।
(७) प्रथम स्थूल कार्यों
फिर सूक्ष्म कार्यों को करते हुए ईश्वर समर्पित रहना।
(८) कार्यारम्भ से पहले
ईश्वर की आज्ञा लेना, अन्त में धन्यवाद देना।
(९) ईश्वर के लिये 'यह-वह' शब्द के प्रयोग की जगह 'आप'
का प्रयोग करना।
(१०) प्रत्येक कार्य की
सफलता हेतु उसकी सहायता चाहना।
ईश्वर प्रणिधान
में जीव की स्थिति
यदग्ने स्यामहं
त्वं त्वं वा घा स्या अहम् ।
स्युष्टे सत्या
इहाशिषः ।
(ऋग्. ८/४४/२३)
अर्थ - (अग्ने)
हे प्रकाश स्वरूप (यद् अहम् त्वं स्याम्) जब में तू हो जाऊँ (वा घा) या (त्वं अहं
स्याः) तू में हो जाये, तो (ते इह आशिषः) तेरे इस संसार के
वे सब आशीर्वाद (सत्या: स्युः) सत्य /सफल हो जायें।
जब यह मित्रवत्
एकात्मता की स्थिति ईश्वर- प्रणिधान से उत्पन्न होती है तो ईश्वर जीव को शीघ्र
अपना कर उसे अपने ज्ञान-बल-आनन्द से कृतकृत्य कर देता है। यह ईश्वर प्रणिधान
(ईश्वर में अनन्य प्रेम, अट्ूट भक्ति, श्रद्धा, विश्वास) योग की विशेष वस्तु है। इससे
साधक को शीघ्र सफलता मिलती है।
योगी व्यक्तियों
का दिनभर ईश्वर समर्पण बना रहता है। प्रत्येक कार्य करते हुए
प्रत्येक क्षण
ईश्वर को समक्ष रखकर अन्तर्मन से समर्पित रहते हैं।
परिणाम स्वरूप
इससे -
(१) व्यक्ति के सब उचित
कार्य सिद्ध होते हैं। वह विद्या सहित होकर राग, द्वेष, काम, क्रोध, ईष्ष्या, अहंकार आदि से मुक्त रहता है।
(२) व्यक्ति कभी
हताश-निराश नहीं होता।
(३) शीघ्र ही समाधि को
प्राप्त होता है।
(४) सब कार्य ईश्वर की
आज्ञा जानकर निष्काम भाव से करता है। सकाम-कर्त्ता प्रणिधान की स्थिति नहीं बना
पाता।
पूर्वोक्त सफलता
के लिए अनुमान और शब्द प्रमाण से यह भावना बनानी पड़ेगी कि ईश्वर मुझे देख, सुन,
जान रहा है और यह बात मन में बैठानी पड़ेगी कि मेरा और
ईश्वर का व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध होने से में ईश्वर में ही हूँ और ईश्वर मेरे बाहर
भीतर सर्वत्र है। हम ईश्वर में ही जन्म लेते, पलते और शरीर
छोड़ते हैं। ईश्वर यदि हम जीवात्माओं को शरीर नहीं देता तो हम अपनी अनुभूति भी
नहीं कर सकते। प्रलय में पत्थर के समान मूर्छित से पड़े रहते हैं। शरीर, बुद्धि मन आदि साधन बिना ईश्वर की सहायता के कुछ भी नहीं कर सकते । 'यह सब स्वयं हो रहा है' यह मिथ्या ज्ञान बना रहेगा तो ईश्वर
की अनुभूति नहीं होगी। यह सब किसी न किसी तत्त्व (ईश्वर) द्वारा बनाया हुआ है।
क्योंकि बिना बनाये कोई भी जड़ पदार्थ कार्यरूप नहीं बन सकता।
प्रारम्भिक काल
में आँख बन्द करके अन्तर्वृत्ति बनायें। बाह्य विषयों का विचार बन्द होने पर ही
ईश्वर की अखण्डित उपासना कर पायेंगे। ईश्वर से सन्निकटता स्थापित करने के लिये 'आप'
शब्द का प्रयोग करें। "आप हमारे पिता हैं" यह
सम्बोधन करें।
सफलता के लिये
ईश्वर सहाय सदा मौजूद जानें। शब्द व अनुमान प्रमाण से जैसे टी. वी. उद्घोषक
जानता-मानता है कि लाखों करोड़ों मुझे देख व सुन रहे हैं तो वह गलत हलन-चलन किये
बिना स्वस्थ सावधान होकर ठीक बोलता है। इसी प्रकार उपासक भी जाने कि ईश्वर मेरी
प्रत्येक क्रिया-हरकत, यहाँ तक कि मनोभाव भी देख, सुन,
जान रहा है।
साधकों का ईश्वर
पर शाब्दिक विश्वास तो है पर ताक्त्विक विश्वास नहीं, वरना व्यक्ति कोई उलय कार्य करे ही नहीं। ईश्वर का महत्त्व ( मूल्य) समझने
जानने से ईश्वर-प्रणिधान होता है। ईश्वर से प्राप्त सुख का ज्ञान होने पर ईश्वर
में रुचि होगी। इन्द्रियों से जो सुख भोग रहे हैं वह दु:ख मिश्रित व क्षणिक होता
है और उसको भोगने का सामर्थ्य भी कम होता जाता है। इन्द्रियों के विषय अनित्य हैं
अत: उनसे प्राप्त सुख भी अनित्य होते हैं। दूसरे पक्ष में भोगने वाला आत्मा भी
नित्य और ईश्वरानन्द रूप भोग्य भी नित्य है। कोई भी भौतिक सुख अन्य प्राणियों को
दु:ख दिये बिना नहीं भोगा जा सकता। परन्तु ईश्वरीय आनन्द तो अन्य प्राणियों को
पीड़ा दिये बिना ही मिल जाता है।
ईश्वर प्रणिधान
से समाधि सिद्धि
यदि व्यक्ति
ईश्वर प्रणिधान विधि पूर्वक कर लेता है तो समाधि की सिद्धि होती है। सब क्रियाओं
को परम गुरु के अर्पण कर देना और उनका कोई लौकिक फल न चाहना।
व्यक्ति जीवन में
सतत मानसिक, वाचिक व शारीरिक क्रियायें करता रहता है।
इन सब क्रियाओं को ईश्वरा्पण करना और कुछ भी फल नहीं चाहना। देखो जैसे एक बालक
अपने गुरु जी के पास बैठा हुआ पढ़ता है। इसी तरह हम जीवात्माओं को मानसिक, वाचिक व शारीरिक रूप से ईश्वर के सम्मुख होकर ही सब करना है। यह कठिन इसलिये
लगता है कि इसे न माता-पिता ने, न गुरु ने किसी ने भी
नहीं सिखाया। और जो बात या विद्या व्यवहार में नहीं लाई जाती वह भी कठिन लगती है
और पूरी तरह समझ में भी नहीं आती।
हम जो सोचते-विचारते
हैं क्या उसको ईश्वर नहीं देखता-जानता? एक तो श्रद्धा
पूर्वक अर्पण कर देना, दूसरा बलात् करना। अच्छे बालक स्वयं
चाव-चाव में किये गये पाठ (कार्य) को दिखाते हैं। पर चालाक बालक दोष को लुक-छिप कर
इधर-उधर करते हैं। श्रद्धा पूर्वक स्वयं समर्पित कर दो कि हे ईश्वर ! यह हाथ, पॉव,
नाक, मुंह, शरीर,
मन, बुद्धि सब आपके बनाये हुए हैं और यह
जल थल, फल,
फूल सब आपने बनाये हैं सो आपसे ओट कभी न हुई न होगी। हमारा
क्या लगता है इन ईश्वर की चीजों को उसकी मानने से ? बल्कि इसका लाभ है ईश्वर हमारा सहायक हो, हमारी समाधि लगा, अपने ज्ञान-बल-आनन्द दे देगा। ऋषि कहते हैं- ईश्वर से अत्यन्त प्रेम करना, अपने प्राणों से भी अधिक, इसे भक्ति कहते हैं।
उसकी आज्ञा का पालन करना, सब क्रियाओं व चीजों को ईश्वर की
मानकर प्रयोग करना, यह बातें दिमाग में रखें। प्रथम
सन्ध्या में, फिर व्यवहार में दिन भर के जीवन में ईश्वर
के अर्पण रहने का अभ्यास करें। फिर सतत् सब कार्य करते हुए भी समाधि रहती है। यह
ऐश्वर्य प्राप्त करना हमारे हाथ में है फिर भी नहीं प्राप्त करते। कहा भी है-
आनन्द स्रोत बह
रहा, फिर भी उदास है ।
अचरज है जल में
रहके भी मछली को प्यास है ॥
हमारा व ईश्वर का
सम्बन्ध - ईश्वर हमारा माता-पिता, गुरु, शासक,
नियन्ता, पालक है। फिर भी जीव
उसको भूलकर संसार में टक्कर मारता फिरता है। संसार को अपना समझकर दु:खी होता है।
प्रथम सन्ध्या-उपासना में ईश्वर सम्बन्ध को कायम रखें कि जो कुछ हम करते हैं वह सब
ईश्वर देखता है, तो धीरे-धीरे ईश्वर से हमेशा के लिये
सम्बन्ध जुड़ जाता है।
समर्पण भाव में
ईश्वर की खोज - जब ध्यान में बैठते हैं तब आत्म-निरीक्षण करें कि क्या ईश्वरापित
हूँ? साधक भूल करता है कि ईश्वर को कहीं दूर देश में मानकर उसका ध्यान करता है।
जैसे हमारे दिमाग में रहता है कि वह ईश्वर हमारा राजा, गुरु,
पिता है, वह सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, न्यायकारी है। 'वह'
शब्द का प्रयोग करते समय ईश्वर को कहीं दूर देश में मान रहा
होता है। 'वह' से आगे दिमाग
दौड़ाओ। फिर साधक ईश्वर को सब जगह शरीर के बाहर-भीतर, दायें-बायें, ऊपर-नीचे स्वीकार करता है। शरीर में
भी है। उसे मस्तक, हृदय, नाभि में भी मानता है परन्तु स्वयं आत्मा को छोड़ देता है, तो इस भूल से भी ईश्वर प्राप्ति नहीं होगी। जहाँ दोनों बैठे हैं वहाँ दर्शन
होगा। जो वस्तु जैसी है उसको उसी रूप में देखने से वह दिखाई देगी। जब जीव में भी
ईश्वर है तो वही दिखाई देगा। जब देखना चाहेगा तब ईश्वर का दर्शन होगा, सर्वव्यापक का दर्शन वही आत्मा में होगा। ब्रह्मवित् ब्रह्मवत् बन जाता है' इस भावनात्मक कथन को अन्यों ने सिद्धान्त रूप में मान लिया और भूल कर बैठे।
रसो वै स:। ईश्वर
आनन्द स्वरूप है, उसके सेवन से जीवात्मा आनन्दी तो बन
जाता है पर आनन्द-स्वरूप नहीं बनता। आत्मनिरीक्षण करें कि क्या हम अपने अन्दर बाहर
ईश्वर को विद्यमान मानकर समर्पित हो रहे हैं ? इस ध्यान में
पिता-पुत्र, उपास्य-उपासक आदि का सम्बन्ध रहता है या
नहीं ? शीघ्रता से कोल्हू के बैल की तरह बार- बार जप करने से कोई लाभ नहीं। माला करने
वाले लाख-लाख जप करते हैं ईश्वर-समर्पण के बिना सब निरर्थक रहता है।
ईश्वर प्रणिधान
से लाभ
(१) राग, द्वेष आदि दु:ख नहीं देते।
(२) शरीर, मन व इन्द्रियों पर नियन्त्रण रहता है।
(३) ईश्वर से ज्ञान, बल,
आनन्द, निर्भयता की प्राप्ति
होती है।
(४) स्वार्थ की भावना
दबकर परोपकार की भावना उभरती है।
(५) अभिमान व निराशा का
नाश होता है।
(६) व्यक्ति के कर्म
निष्काम होते हैं।
(७) विषय भोगों की तृष्णा
(रुचि) समाप्त हो जाती है।
(८) आलस्य-प्रमाद दूर
होता है।
(९) आत्मा के स्वरूप का
ज्ञान होता है।
(१०) शीघ्र समाधि की
प्राप्ति होती है।
ईश्वर प्रणिधान
का फल
योग दर्शन के
साधन पाद के सूत्र ४५ में ईश्वर प्रणिधान का फल समाधि सिद्धि बताया है 'समाधिसिद्धिरीश्वरप्रणिधानात्'। जिसके द्वारा देशान्तर, देहान्तर तथा कालान्तर के पदार्थ को योगी जान लेता है। इसका तात्पर्य यह है कि
प्राय: ऐसा देखा जाता है कि सामान्य व्यक्ति एक वस्तु के जानने के बाद उसी प्रकार
की (कुछ परिवर्तन के साथ) अन्य वस्तु को नहीं जान पाता है। इसलिये वह एक प्रकृति
के ही अन्य विभिन्न विकारों को देखकर मोहित अथवा आकृष्ट हो जाता है । एक स्त्री से
विरक्त होकर भी अन्य स्त्री के प्रति आकृष्ट हो जाता है। परन्तु समाधि सिद्धि को
प्राप्त योगी पुरुष में ऐसा नहीं होता है। क्योंकि वह जानता है कि संसार में तीन
पदार्थ ही नित्य हैं ईश्वर-जीव-प्रकृति और वे चाहे किसी अन्य देश में हों, अन्य काल में हों अथवा अन्य शरीर में हों उनके गुण सदा समान ही होंगे। योगी
पुरुष इन तीनों पदार्थों के यथार्थ स्वरूप (गुण-कर्म-स्वभाव) को जान लेता है। कि
कौन सी वस्तु उपादेय और कौन सी त्याज्य है। जैसे थोड़े बहुत आकृति व रंग भेद के
सिवाय सब देश या भू-खण्डों पर एक ही प्रकार के मनुष्य, पशु,
पक्षी आदि हैं।
एक लक्ष्य होने
से योग के सभी अङ्गों का एक साथ ही अभ्यास क्रियान्वयन जरूरी है, फिर भी ईश्वर प्रणिधान होने से योगी को समाधि शीघ्र प्राप्त होती है। इसके
बिना योग के दूसरे अंग अपूर्ण हैं।
ईश विश्वास - ईश
कृपा
विश्वास से लाभ -
जो निर्भयता व आनन्द एक आस्तिक को मिलता है वह नास्तिक (चाहे कितना ही
साधन-सम्पन्न हो) नहीं प्राप्त कर सकता। वह योगी जैसा चरित्रवान् परोपकारी नहीं हो
सकता।
ईश्वर को न मानने
वाले ही नास्तिक नहीं हैं। गलत रूप में मानने वाले तथा शाब्दिक रूप में सही मानने
वाले आचारहीन भी नास्तिक ही हैं।
मोक्ष प्राप्ति
में सब से बड़ी बाधा ईश्वर में विश्वास नहीं होना है। इसका कारण है कि हमें जिस
वस्तु में रूप, रस, स्पर्श, गन्ध और शब्द दीख पड़ते हैं उसी का विश्वास करने की आदत पड़ी हुई है।
ईश्वर को मानने
का अर्थ है, ईश्वर की आज्ञाओं का पालन करना व उसकी
उपासना करना। जो ईश्वर निर्दिष्ट शुभ कर्मों को करता है वह सुख लाभ पाता है। उसकी
आज्ञा का पालन न करके उसे केवल शाब्दिक रूप में मानने से कुछ नहीं बनता। जो
नास्तिक ईश्वराज्ञा का पालन करता हुआ भी ईश्वर को नहीं मानता, उसे ईश्वर अपने नियमानुसार कर्म फल तो देता है। परन्तु जो ईश्वर को मानने का
समाधि व मोक्ष में आनन्दरूप फल है, वह उसे नहीं
मिलता।
वेदादि सत्य
शास्त्रों के स्वाध्याय व आप्त पुरुषों के सत्संग से ईश्वर ज्ञान तो सम्भव है
परन्तु ईश्वरकृपा बिना ईश्वर का आनन्द सम्भव नहीं।
ईश कृपा - जो-जो जितना-जितना संसार का उपकार करता है उतनी-उतनी ईश्वर उस पर कृमा करता है, न कि स्वेच्छा से अनायास ही जिस किसी पर व चाहे जितनी मात्रा में। ईश्वर दया सब पर करता है (समानरूप से) और न्याय भी सब का करता है (अपने-अपने कर्मानुसार) किसी के मानने न मानने से सत्य (तत्त्व) ईश्वर का कभी कुछ नहीं बिगड़ता। जो मानेगा वह लाभाविन्त होगा जो न मानेगा वह हानि उठायेगा।
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