अहम् इन्द्रं न शरीरम्
अहम् इन्द्रं न शरीरम् अर्थात हम शरीर नहीं इसके स्वामी है। जिसके पास
सिर्फ शरीर है भले ही वह स्त्री या पुरुष वह अपूर्ण और अन्धे के समान है, और जिसके पास आँखें हैं वह कोई स्त्री हो या पुरुष हो वहीं इन्द्र,
वहीं स्वामी, वही राजा है। स्त्री पुरुष जहां
पूर्ण होते है जहां पर एक दूसरे में कोई अन्तर नहीं रह जाता है। शिव लिंग है जो
किसी योनि प्रधान नहीं है। शिवलिंग तो मात्र एक प्रतीकात्मक है। वह मात्र संकेत के
लिए है जो अन्धे की तरह अपने जीवन को जी रहें हैं। जिनकी अन्तर्दृष्टि किसी कारण
बस कार्य सही तरीके से नहीं कर रही है। वह शिवलिंग को देख कर समझ सके की वास्तविकता
क्या है? जैसा की प्रतीक को प्रस्तुत किया गया है आज भी
दुनिया के किसी कोने में देख सकते है। किसी ना किसी रूप से प्रेरणा देने के लिए ही
स्त्री और पुरुष के लिंग को आपस में एक साथ संभोग के समय की घटना को मन्दिरों में दर्शाया
या स्थापित किया गया है और वह पुजा और ध्यान के योग्य है ऐसा लोग आज भी करते है।
वह सब मात्र प्रतीक और अलंकार से सुसज्जित किया गया है उसके पीछे एक दूसरा ही
रहस्य छुपा है। मानव शरीर सबसे महत्त्वपूर्ण संवेदनशील बहुमूल्य सबसे अधिक आकर्षण
पूर्ण है। वास्तविकता तो यह की हम सब को अपने लिंग को ध्यान के माध्यम से जानना
चाहिए। लिंग का अर्थ है जाती से और इस पृथ्वी पर केवल एक जाती है जिसे मानव कहते
है। जैसा की तुलसी दास कहते है कि लिंग थापी विधिवत करी पुजा। शिव समान शिव मोही न
दूजा।। अर्थात लिंग को स्थापित करके ध्यानस्थ हो करो पुजा। अर्थात स्वयं को भली
प्रकार से जानो उसके समान कोई नहीं है। जो मन से आत्मा[m1] को छुड़ाने
वाला है इसको ब्रह्मचर्य से जोड़ा गया है शिव का मतलब है जो सब का कल्याण करने
वाला है। जननेन्द्रियों को भी कहते है इसका मतलब है जिससे सभी जीव को जन्म लेने का
सुअवसर मिलता है।
जैसा की न्याय दर्शन कार गौतम कहते है इच्छा-द्वेष-प्रयत्न-सुख-दुःख-ज्ञानान्यात्मनो लिग्ड़म्।। अर्थात इच्छा, द्वेष,
प्रयत्न, सुख, दुःख का
जिसको ज्ञान होता है वही लिंग मती आत्मा है। भ्रम होना स्वाभाविक है। क्योंकि लिंग
से काम संभोग इस ब्रह्माण्ड की सबसे श्रेष्ठ अद्भुत अद्वितीय और दिव्य घटना है
जिसको सबसे अधिक बदनाम और कुरूप कर दिया है। इस पृथ्वी पर संभोग और समाधि दोनों एक
दूसरे के पूरक है। मानव का मुंह बहुत सुन्दर है जिसको सभी बहुत पसंद करते हैं ।
पैर जो कुरूप समझा जाता है वह जितना आकर्षण नहीं है। उसे कम पसन्द करते है। लेकिन
मानव शरीर के पूर्रणता के लिए परम आवश्यक है। ऐसा ही स्थान सब के जीवन में संभोग
का भी है। संभोग के द्वारा ही प्रत्येक मानव का जन्म हुआ है। और जिससे स्वयं की उत्पत्ति
हो रही है उसी को हम सब बुरा कुरूप और गलत कहते है। इसको मानव जीवन से यदि किसी
तरह से अलग कर दिया जाये तो मानव किस स्थिति को उपलब्ध करेंगा उसकी कल्पना भी हम
सब नहीं कर सकते है। क्योंकि संभोग किसी प्रकार से यज्ञ से कम नहीं है। इसके लिए
आवश्यक है जो ऋषि कह रहें है भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्रा।।
अर्थात हम सब यज्ञ भाव से जिससे सभी जीव जन्तु का कल्याण होता है सभी प्राणियों का
कल्याण हो। ऐसे दृश्यों को कभी ना देखें जिससे किसी का अकल्याण हमारी दृष्टि में
ना आये।
जब तक इसको नहीं समझेंगे तब तक शिव जो
सब का कल्याण करने वाला है उसको समझना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है। क्योंकि लिंग
ही वह मुख्य आधार है जिससे शिवलिंग का जन्म होता है। जब लिंग समझ में आ गया तो शिव
स्वतः समझ में आ जायेगा। जैसा की स्वामी दयानन्द ने समझा उनको जो पहली झलक सच्चे
शिव को प्राप्त करने की इच्छा शिवलिंग की मूर्ति को देख कर ही मिली उन्होंने देखा
की यह तो मात्र प्रतीक है। सच्चा शिव तो प्रत्येक कण में व्याप्त है उसके लिए किसी
विशेष मूर्ति की पुजा करने की बात कहीं भी नहीं की गई है। वहां तो ध्यान करने की
बात हो रही है, और वह सब इस लिए है कि ब्रह्मचर्य को समझा जा सके इस लिए ही
स्वामी दयानन्द ब्रह्मचर्य के एक महान उपासक थे, और उनका ही
नहीं सम्पूर्ण संस्कृत साहित्य में ब्रह्मचर्य पर बहुत जोर दिया गया है यह कहा जाए
तो गलत नहीं की सम्पूर्ण संस्कृत साहित्य आधार भूत सिद्धान्त ब्रह्मचर्य की नींव
पर ही खड़ा है। ब्रह्मचर्य तो रूपान्तरण की मुख्य किमीयां या विज्ञान है। इस
विज्ञान को जिसने भी समझा वह स्वयं को सच्चे शिव का साक्षात्कार करके सदा-सदा की
प्यास जो भौतिक किसी भी वस्तु को प्राप्त कर लेने पर भी बुझती वह भी बुझ जाती है।
वह इस मृग तृष्णा से स्वयं को तृप्त और परम आनन्द को प्राप्त कर लिया है।
जो अन्धे है उनकी आंखें ठीक की जा सकती
है। आंखों के ठीक होते ही प्रकाश का प्रमाण मिल जाता है। लेकिन यह भौतिक आंखों से
नहीं देख सकते हैं। जिसको शिव का शिव नेत्र कहते है। उस नेत्र की जो विधि है उसका
यदि सही उपयोग करेंगे तो उसमें सक की कोई गुन्जाईस नहीं है जिसे कृष्ण परम ज्ञान
या परम वचन कहते है उसकी अनुभूति नहीं कर सकते है, और यह शिव नेत्र हम
सभी में है। आवश्यकता है मात्र उस आंख को खोलने का और उसे खोलने की जो तकनीकी है
उसे ध्यान कहते है। कृष्ण जिसे परम वचन कहते है वह सब परम वचन उन्होंने वेदों से
लिए है। क्योंकि जो भी इस पृथ्वी आज तक उस सम्पूर्ण ज्ञान विज्ञान और ब्रह्मज्ञान
का श्रोत वेद ही है और आगे भी जो भी जाना जायेगा वह भी वेदों के अन्तर गत होगा।
वेदों को एक अर्थ में आत्मा, ज्ञान, ब्रह्मचर्य,
ऋत, और शिव को भी कहते है। क्योंकि अध्यात्म
का अर्थ ही होता है अध्याय को आत्मा से जोड़ दिया है। अर्थात अध्यात्म आत्मा का
पाठ आत्मा का ज्ञान सम्पूर्ण ज्ञान विज्ञान और ब्रह्मज्ञान का प्रारम्भ आत्मा से
ही होता है। क्योंकि बिना आत्मा के शरीर मिट्टी से ज्यादा कुछ नहीं है। कृष्ण उसी
के आधार पर बोलते है इस तरह से जो वेदों में है वह सब परम वचन है जिसे ना ही सत्य
ही कह सकते है ना ही उनको असत्य ही कह सकते है। परम वचन इन दोनों के मध्य में है
जिसे आत्मज्ञानी महापुरुष ऋत कहते है जो शाश्वत और रहस्यपूर्ण है उसमें एक यह भी
है की मानव सिर्फ शरीर नहीं है। इसके स्वामी इन्द्र राजा है।
मानव मन का शिकार हो गया वह अपने मन का दास बन गया और स्वयं को शरीर समझने
की बहुत बड़ी बीमारी या महामारी का जो प्रकोप है उससे ग्रसित हो गया है।
इसका केवल इलाज है अन्तर्यामी के पास
है। धर्म वह है जिसको अन्तर्यामी धारण करता है धर्म ही के पास एक मात्र समाधान है
उनकी जो मानव में हजारों प्रकार की बीमारी हैं जिसमें से एक भयंकर बीमारी उब भी है
उब सदा के सदा के लिए समाप्त हो सकती है या यूं कहे की खत्म होने की भरपूर
सम्भावना भी है। किसी ने आज तक सिद्ध पुरुषों के चेहरे पर किसी तरह की सिकन या
संसार और उसकी प्रत्येक वस्तु से किसी प्रकार का द्वन्द्व विरोध अन्तर द्वन्द्व
पिड़ा की शिकायत नहीं देखी है। लेकिन आज समय बदल गया है ऐसा लोग कहते है। वह जो
मानव चेतना के बारे में नहीं जानते है कि चेतना कभी भी नहीं बदलती है। यहां इस जगत
में एक अलग स्थिति पैदा हो रही है। जो कभी निराश, हराश, उदास किसी प्रकार का डेपरेसन का शिकार नहीं हुआ वह आदमी कैसा होगा क्या हम
सब उसकी कल्पना कर सकते है, क्योंकि आज के समय में इस पृथ्वी
पर स्वास्थ्य मानव को तलाशना बहुत जोखिम भरा कठिन कार्य है उसकी सम्भावना कम ही
हैं। जैसा कि हमने पहले ही विचार किया था की दुःख मुख्यतः तीन तरह के होते है
शारीरिक, मानसिक, और आध्यात्मिक तो इस सम्पूर्ण
जगत में ऐसे बहुत है जो कहेंगे की मैं पूर्णरूप से स्वस्थ्य हूं। जो ऐसा कहते है
वह शरीर से स्वस्थ्य है जिनमें मानसिक बीमारी की मात्रा सबसे अधिक है। दैविक और
आध्यात्मिक परेशानी से लग-भग सभी लोग ग्रसित या पिड़ित है। जो सिद्ध पुरुष होते है
वह हमेशा प्रफुल्लित और तरोताजा आनंदित उत्साहित रहते है। क्योंकि उनके जीवन में
ध्यान की महत्व पूर्ण भूमिका होती है जो उन सभी को और उनके चेहरे को मुरझाने नहीं
देती है ध्यान का कार्य यही है कि जो भी पुराना है उसे खत्म कर देता है वह मानव
अस्तित्व को रेफ्रेस करने का कार्य करता है।
जीवन से अद्वितीय और भी कोई वस्तु हो सकती है इसकी कल्पना भी करना असम्भव
है, और यह भी बात है की जीवन से निकृष्ट भी कोई वस्तु इस भुमंण्डल पर नहीं
हैं। हम किसी भी विषय पर विचार दो प्रकार से कर सकते है। एक पक्ष ज्ञान का प्रकाश
का जीवन का पाजटीव विधायक दृष्टि है। दूसरा अज्ञान अन्धकार नकारात्मक जीवन का पक्ष
है। एक तीसरा पक्ष भी है जिसके पक्ष में ऋषि, महर्षि,
ब्रह्मज्ञानी, साधु, सन्त
फकीर, योगी और सद्गुरु खड़े है। इस बात को समझ ले की यह सब
केवल शरीर का प्रतिनिधित्व नहीं करते है यदि वह शरीर या आत्मा का प्रतिनिधित्व
करते है तो यह जान लेना की वह गुढ़ ज्ञान की दुनिया के अनुपम सम्राट नहीं बन पायें
हैं। वह भी संसारी से कुछ अधिक नहीं है। जो यह तीसरा पक्ष है वही इस पृथ्वी पर
सबसे बहुमूल्य अन्यथा सब कुछ कौड़ीयों का समाv है। यद्यपि
ऋषि कह रहा है की यह शरीर भस्म होने वाली है अर्थात शरीर का अन्त होने वाला है।
इसमें दो बातें है एक शरीर भस्म हो रही है और दूसरी बात है शरीर का अन्त होने वाला
है। इसमें तुम सब कहोगे की नया क्या है दोनों का अर्थ एक समान है जबकि वेद का
मंत्र ऐसा बिल्कुल नहीं कह रहा है। वेद तीसरी बात की तरफ संकेत कर रहे है। जो
इसमें अनन्त निरन्तर यात्रा कर रहा है। द्रष्टा जो देखने वाला है ऋषि कहना चाहते
हैं की साक्षी भाव को जागृति करने के लिए क्योंकि आगे मंत्र कह रहा है कृतम स्मरः अपने किये हुए कर्मों को देखो उनका निरीक्षण
करो अथवा स्मरण करो। अब सवाल उठता है कि यह आत्म निरीक्षण का कार्य कौन करेगा?
जो भस्म हो रहा वह है या जो अन्त की तरफ निरन्तर एक-एक कदम बढ़ रहा
है वह। या जो इस क्रिया को द्रष्टा बन कर जो देख रहा है। जो भस्म ही हो रहा है यह भस्म
होने की क्रिया आन्तरीक घट रही है जिस प्रकार से दीपक का तेल खत्म हो रहा हो और
दीपक में तेल खत्म होते ही वह बुझ जाएगा। उसी प्रकार से इस शरीर में भी जो प्राण ऊर्जा
है समाप्त भस्म कोयले की तरह से राख हो रही हैं। इसलिए ही ऋषियों ने प्राणायाम
जैसी विधियों का आविष्कार सृजन किया है। प्राणायाम क्या है? इसका
उत्तर पतञ्जली दे रहें है। तस्मिन् सति श्वास
प्रश्वासयोर्गतिविच्छेदः प्रणायामः।। जो हमारी सांसे चल रही हैं श्वांस
प्रश्वांस को उसको उसी स्थान पर रोक देने का या उस पर अपना नियंत्रण कर लेना ही
प्राणायाम है। हम श्वास में केवल आक्सीजन ही नहीं लेते हैं, यद्यपि वह तो मात्र एक
माध्यम की तरह से है उसके साथ हम सब प्राण ऊर्जा को ग्रहण करते है। अर्थात जिस तरह
से हम सब रूपये को खुब बचा-बचा कर खर्च या व्यय करते है उसी तरह से प्रकार से एक
योगी, ज्ञानी, ध्यानी प्राण ऊर्जा को
व्यय करते हैं। जिससे इस खत्म होने वाली प्राण ऊर्जा को जल्दी समाप्त होने से
बचाया जा सके।
श्रोत्रमसि श्रोत्रं में दाः स्वाहा। प्रभो
तू श्रोत्र असी है मुझे तू सुनने की शक्ति दे यह मैं सच्चे मन से कह रहा हूं जिससे
विश्वआत्मा का कल्याण हो। जिस प्रकार से हम सब रूपये को व्यय करते हैं बचा-बचा कर
उसी प्रकार से यह प्राण ऊर्जा भी उससे भी बहुत अधिक कीमती है। जो निरन्तर अपने अन्त
की तरफ ही बढ़ रहा है वह कैसे आत्मा का निरीक्षण कर सकता है? और अन्त
की तरफ यह शरीर ही बढ़ रही है। क्योंकि शरीर शाश्वत नहीं है यह शरीर मिट्टी के
पुतले से ज्यादा नहीं लेकिन जो इस शरीर में रहने वाले को जानते है उनके लिए यह
शरीर सम्पूर्ण विश्व ब्रह्माण्ड के समान है। आत्मा भी स्वयं का आत्म चिन्तन नहीं
कर सकती है क्योंकि आत्मा तो स्वयं पूर्ण और परम आनन्द में है वह अपने बारे में
क्या चिन्तन करेंगी? यह कार्य तो बुद्धि को करना है इसलिए ही
संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान चाणक्य कहते बुद्धि यस्य
बलमं तस्य, अर्रथात जहां पर बुद्धि है वहीं पर बल है।
एक किनारे पर शरीर है और दूसरे किनारे पर आत्मा है लेकिन द्रष्टा साक्षी भाव इन
दोनों के मध्य में है। इस लिए ही वेद कहते है कि मध्य में आ जाओ। जैसा की महात्मा
बुद्ध कहते है मध्यमनिकाह् अर्थात ना सागर के इस तरफ जो शरीर की भांति है ना सागर
के दूसरे किनारे पर ही जो आत्मा की तरह से है। इन दोनों किनारे पर नहीं ठहरना है
क्योंकि यह दोनों किनारे खतरनाक है। यहां तो जो प्रिय है वह भी अपना शिकार बना
लेता है और जो दूसरे किनारे पर अप्रिय है वह भी स्वयं की आत्मा को गुलाम बनाकर
दुःख ही देते हैं। यहां इस जगत में ना ही कोई प्रिय है ना ही कोई अप्रिय ही है।
हमें को समान रूप से देखने की दृष्टि को विकसित करने की आवश्यकता है जो ऐसा करते
है उनको ही समदर्शी कहते है। जैसा की महात्मा बुद्ध कहते है जो समान रूप से सब को
देखता है। जिसको ज्यादा दुःख अपने शत्रु से होती है जो अप्रिय है। इसका मतलब यह है
कि वह अपने मित्र से कही अधिक अपने शत्रु से जुड़ा है। क्योंकि नफरत का ही एक रूप
उदासी वैराग्य है। अन्तर सिर्फ इतना है जो शत्रु को देखने वाला व्यक्ति है यदि वह
बुद्धिमान है तो वह उससे स्वयं को उलझाने के बजाय वह अपनी शक्ति को अपने शत्रु से
लड़ने के बजाय किसी दूसरे कार्य को सम्पन्न करने में लगाता है। वैराग्य के लिए
पतञ्जली कहते है। दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य
वशीकारसंज्ञा बैराग्यम्।।
आचार्य मनोज पाम्डेय
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