👉 परमात्मा प्राप्ति किसे होती है?
🔶 एक राजा था। वह बहुत न्याय प्रिय तथा प्रजा
वत्सल एवं धार्मिक स्वभाव का था। वह नित्य अपने इष्ट देव को बडी श्रद्धा से
पूजा-पाठ ओर याद करता था। एक दिन इष्ट देव ने प्रसन्न होकर उसे दर्शन दिये तथा
कहा---"राजन् मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूं | बोलो तुम्हारी कोई इच्छा है ?"
🔷 प्रजा को चाहने वाला राजा बोला---"भगवन्
मेरे पास आपका दिया सब कुछ है | आपकी कृपा से राज्य में सब प्रकार
सुख-शान्ति है | फिर भी मेरी एक इच्छा है कि जैसे आपने मुझे
दर्शन देकर धन्य किया, वैसे ही मेरी सारी प्रजा को भी दर्शन
दीजिये।"
🔶 "यह तो सम्भव नहीं है ।" ---भगवान ने राजा को समझाया । परन्तु
प्रजा को चाहने वाला राजा भगवान् से जिद्द् करने लगा। आखिर भगवान को अपने साधक के
सामने झुकना पडा ओर वे बोले, --"ठीक है, कल
अपनी सारी प्रजा को उस पहाडी के पास लाना। मैं पहाडी के ऊपर से दर्शन दूँगा।"
🔷 राजा अत्यन्त प्रसन्न हुआ और भगवान को धन्यवाद दिया। अगले दिन सारे नगर में
ढिंढोरा पिटवा दिया कि कल सभी पहाड़ के नीचे मेरे साथ पहुँचें, वहाँ
भगवान् आप सबको दर्शन देंगें ।
🔶 दूसरे दिन राजा अपने समस्त प्रजा ओर स्वजनों
को साथ लेकर पहाडी की ओर चलने लगा। चलते-चलते रास्ते में एक स्थान पर तांबे के सिक्कों
का पहाड़ देखा। प्रजा में से कुछ एक उस ओर भागने लगे। तभी ज्ञानी राजा ने सबको सर्तक
किया कि कोई उस ओर ध्यान न दे, क्योंकि तुम सब भगवान से मिलने जा रहे
हो, इन तांबे के सिक्कों
के पीछे अपने भाग्य को लात मत मारो।
🔷 परन्तु लोभ-लालच में वशीभूत कुछ प्रजा तांबे
के सिक्कों वाली पहाडी की ओर भाग गयी और सिक्कों की गठरी बना कर अपने घर की ओर चलने
लगे। वे मन ही मन सोच रहे थे, पहले ये सिक्कों को समेट लें; भगवान से तो फिर कभी मिल लेंगे।
🔶 राजा खिन्न मन से आगे बढे। कुछ दूर चलने पर
चांदी के सिक्कों का चमचमाता पहाड़ दिखाई दिया। इस वार भी बची हुई प्रजा में से कुछ
लोग,
उस ओर भागने लगे ओर चांदी के सिक्कों को गठरी बना कर अपने घर की ओर
चलने लगे। उनके मन में विचार चल रहा था कि ऐसा मौका बार-बार नहीं मिलता है। चांदी
के इतने सारे सिक्के फिर मिलें न मिलें, भगवान तो फिर कभी
मिल जायेंगे।
🔷 इसी प्रकार कुछ दूर ओर चलने पर सोने के सिक्कों
का पहाड़ नजर आया। अब तो प्रजाजनों में बचे हुये सारे लोग तथा राजा के स्वजन भी उस
ओर भागने लगे। वे भी दूसरों की तरह सिक्कों की गठरी लाद कर अपने-अपने घरों की ओर
चल दिये।
🔶 अब केवल राजा ओर रानी ही शेष रह गये थे। राजा
रानी से कहने लगे---"देखो कितने लोभी हैं ये लोग? भगवान
से मिलने का महत्व ही नहीं जानते हैं ।
भगवान के सामने सारी दुनिया की दौलत क्या
चीज है?"
🔷 सही
बात है। रानी ने राजा की बात का समर्थन किया और वह आगे बढ़ने लगे। कुछ दूर चलने
पर राजा और रानी ने देखा कि सप्त रंगी आभा बिखरता हीरों का पहाड़ है। अब तो रानी से
रहा नहीं गया, हीरों के आकर्षण से वह भी दौड़ पड़ी और हीरों की गठरी
बनाने लगी। फिर भी उसका मन नहीं भरा तो साड़ी के पल्लू में भी बांधने लगी। रानी के
वस्त्र देह से अलग हो गये, परंतु हीरों की तृष्णा अभी भी
नहीं मिटी। यह देख राजा को अत्यन्त ग्लानि ओर विरक्ति हुई। बडे दुखद मन से राजा
अकेले ही आगे बढ़ते गये।
🔶 वहाँ सचमुच भगवान खड़े उसका इन्तजार कर
रहे थे। राजा को देखते ही भगवान मुसकुराये और पूछा --"कहाँ है तुम्हारी प्रजा
और तुम्हारे प्रियजन। मैं तो कब से बेकरारी से उनका इन्तजार कर रहा हूं।"
🔷 राजा ने शर्म और आत्म-ग्लानि से अपना सिर झुका
दिया। तब भगवान ने राजा को समझाया-- "राजन जो लोग भौतिक सांसारिक प्राप्ति को
मुझसे अधिक मानते हैं, उन्हें कदाचित मेरी प्राप्ति नहीं होती ओर
वह मेरे स्नेह तथा आशीर्वाद से भी वंचित रह जाते हैं।"
👉 कर्ज वाली लक्ष्मी
🔶 एक छोटा 15 साल का भाई अपने पापा से "पापा - पापा दीदी के होने वाले ससुर और सास कल आ रहे है अभी जीजाजी ने फोन पर बताया"। दीदी मतलब उसकी बड़ी बहन की सगाई कुछ दिन पहले एक अच्छे घर में तय हुई थी।
🔷 दीनदयाल जी पहले से ही उदास बैठे थे धीरे से बोले।।। हां बेटा।। उनका कल ही फोन आया था कि वो एक दो दिन में दहेज की बात करने आ रहे हैं।। बोले।।। दहेज के बारे में आप से ज़रूरी बात करनी है।। बड़ी मुश्किल से यह अच्छा लड़का मिला था।। कल को उनकी दहेज की मांग इतनी ज़्यादा हो कि मैं पूरी नहीं कर पाया तो ?" कहते- कहते उनकी आँखें भर आयीं।।
🔶 घर के प्रत्येक सदस्य के मन व चेहरे पर चिंता की लकीरें साफ दिखाई दे रही थी… लड़की भी उदास हो गयी. खैर.. अगले दिन समधी समधिन आए।। उनकी खूब आवभगत की गयी।। कुछ देर बैठने के बाद लड़के के पिता ने लड़की के पिता से कहा" दीनदयाल जी अब काम की बात हो जाए।। दीनदयाल जी की धड़कन बढ़ गयी। बोले हां - हां समधी जी।। जो आप हुकुम करें।। लड़के के पिताजी ने धीरे से अपनी कुर्सी दीनदयाल जी और खिसकाई ओर धीरे से उनके कान में बोले। दीनदयाल जी मुझे दहेज के बारे बात करनी है!।।।
🔷 दीनदयाल जी हाथ जोड़ते हुये आँखों में पानी लिए हुए बोले बताईए समधी जी जो आप को उचित लगे।। मैं पूरी कोशिश करूंगा।।
🔶 समधी जी ने धीरे से दीनदयाल जी का हाथ अपने हाथों से दबाते हुये बस इतना ही कहा आप कन्यादान में कुछ भी देंगे या ना भी देंगे। थोड़ा देंगे या ज़्यादा देंगे।। मुझे सब स्वीकार है, पर कर्ज लेकर आप एक रुपया भी दहेज मत देना।। वो मुझे स्वीकार नहीं।। क्योंकि जो बेटी अपने बाप को कर्ज में डुबो दे वैसी "कर्ज वाली लक्ष्मी" मुझे स्वीकार नहीं। मुझे बिना कर्ज वाली बहू ही चाहिए।। जो मेरे यहाँ आकर मेरी सम्पति को दो गुना कर देगी।।
🔷 दीनदयाल जी हैरान हो गए।। उनसे गले मिलकर बोले।। समधी जी बिल्कुल ऐसा ही होगा।।
🔶 शिक्षा- कर्ज वाली लक्ष्मी ना कोई विदा करें नहीं कोई स्वीकार करें ।। l
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