वैदिक धर्म में
जीवात्मा का स्वरूप
जीवात्मा (स्वयं)
के ज्ञान की आवश्यकता :-
जो जीवात्मा
ईश्वर को प्राप्त करना चाहता है, वह अपनी शक्ति, गुण,
स्वरूप को जाने बिना ईश्वर को नहीं जान सकता। जब व्यक्ति
शीशे में देखता है तो विचारता है कि मैं पुरुष वा सत्री हूँ। काला, गोरा,
नाटा, बालक, वृद्ध हूँ। यह मिथ्या ज्ञान है। परन्तु में स्त्री, पुरुष आदि शरीर वाला हूँ यह विचार करना चाहिये। आज व्यक्ति ने पृथ्वी का
चप्पा-चप्पा खोज मारा, चन्द्रमादि ग्रहों तक पहुँच गया है; प्राकृतिक (भौतिक) अनेक पदार्थों को जान लिया है, परन्तु स्वयं के बारे में मानव को बहुत अल्पज्ञान है।
परिभाषाएँ व
सिद्धान्त बदल जाने से विचार और व्यवहार बदल जाते हैं। कुरान-बाईबल में आत्मा के
बारे में बहुत कम बातें लिखी हैं। जो लिखी हैं वे भी प्राय: गलत हैं। जैसे मनुष्य
को छोड़कर किसी में आत्मा नहीं मानी। स्त्री में पूरी आत्मा मानते ही नहीं।
पाकिस्तान में स्त्री को आधी आत्मायुक्त मानने से उसे चुनाव में आधे वोट का अधिकार
है ।
अग्नि आदि भौतिक
पदार्थों के बारे में हमारा जैसा व्यावहारिक ज्ञान है, वैसा आत्मा के बारे में भी हो । मुझ आत्मा को शस्त्र काट नहीं सकते, अग्नि जला नहीं सकती इतना समझ लेने मात्र से कितनी शक्ति व निर्भयता आ जाती
है। दयानन्द पर विष प्रयोग हुआ, मतीदास को चीरा गया, वैरागी की खाल नुचवायी गई, गुरु गोविन्दसिंह के
बच्चे दीवार में चिनवाये गये, कोई कढ़ाई में तले गये, परन्तु उन्होंने आत्मा का सच्चा नित्य स्वरूप जानकर कहा कि हमारे आत्मा का कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। उन्होंने अपने अनित्य
शरीर को आत्मा नहीं माना। आत्मा को जानकर व्यक्ति महान् सामर्थ्यवान् हो जाता है।
यह वास्तविक ज्ञान के कारण है।
जीवात्मा का कोई
रंग-रूप नहीं, कोई भार नहीं है। जैसे भौतिक वस्तुओं में
रंग, रूप,
स्पर्श, लम्बाई, चौड़ाई आदि गुण पाये जाते हैं वैसे जीवात्मा में नहीं हैं।
एक रोचक बात; एक पुस्तक है "५०१ आश्चर्यजनक तथ्य" उसमें जीवात्मा का भार लिखा है
कि जीवात्मा २१ ग्राम का है। कुछ वैज्ञानिकों ने प्रयोग किया। मरते हुए एक व्यक्ति
को एक बक्से में बन्द करके तुला में तोला गया। थोड़े काल में वह मर गया अर्थात्
आत्मा निकल गई उसे फिर तोला गया तो २१ ग्राम भार कम हुआ। उन्होंने निष्कर्ष निकाला
कि जीवात्मा २१ ग्राम का है। अब इस २१ ग्राम में कितनी चींटियाँ समा जायेंगी? हजारों... कितना अज्ञान है आत्मा के विषय में।
जैनी लोग कहते
हैं कि आत्मा घटता-बढ़ता है। हाथी में जायेगा तो बढ़ जायेगा, चींटी में जायेगा तो घट जायेगा ।
सत्य वैदिक
सिद्धान्त यह है कि जीवात्मा अपरिणामी होने से घटता-बढ़ता नहीं है व अभौतिक वस्तु
होने से स्थान नहीं घेरता। एक सुई की नोक में विश्व के सभी जीवात्मा समा सकते हैं
।
जीवात्मा की
सिद्धि
(१)
दर्शनस्पर्शनाभ्यामेकार्थग्रहणात् । (न्याय द. ३/१/१) एक ही सेव को नेत्र से देखते, नाक से सूँघते, त्वचा से स्पर्श करते हुए जो सब से
सम्बन्धित रहता है उसी को आत्मा कहते हैं। इन्द्रियाँ तो एक-एक ही विषय को जान
सकती हैं अत: सब को तो केवल आत्मा ही जान सकता है।
(२)
इन्द्रियान्तरविकारात् । (न्याय द. ३/१/१२) हमने कभी नीबू खाया था, मिष्टान्न खाया था। बहुत स्वादिष्ट था । कालान्तर में वही भोग्य वस्तु (नीबू, मिष्टान्न) दिखाई दी तो मुंह में पानी भर आया। देखा आँखों से, लार आई मुंह में। अत: इन दोनों को जोड़ने वाला हमारे शरीर में है, वह जीवात्मा है।
(३) सव्यदृष्टस्येतरेण
प्रत्यभिज्ञानात् । (न्याय द. ३/१/७) हम दोनों आंखें बन्द करते हैं। एक नई वस्तु
को बाँयी आँख से देखा, उसी को दाँयी से देखा और ज्ञान बन
रहा है कि जिसको बाँयी आँख से देखा था उसी वस्तु को दूसरी दाँयी आँख ने देखा। इस
ज्ञान को जोड़ने वाला आत्मा है।
(४)
इच्छाद्वेषप्रयत्नसुखदुःखज्ञानान्यात्मनो लिंगम् ।(न्याय द. १/१/१०) ईच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख,
दुःख और ज्ञान जिस वस्तु में हों वहाँ आत्मा की सिद्धि होती
है। (५) षष्ठीव्यपदेशादपि । (सांख्य द. ६/३) मेरी आँख, मेरा कान, मेरा नाक, यह स्वामित्त्व भावना वाला आत्मा है।
(६) देहादिव्यतिरिक्तोऽसौ
वैचित्र्यात् । (सांख्य द. ६/२) आत्मा के लक्षण शरीर, इन्द्रिय आदि से भिन्न प्रकार के होने से वह इन शरीर, इन्द्रिय आदि से अतिरिक्त ( भिन्न-पृथक्) है।
(७) अहमिति शब्दस्य
व्यतिरेकान्नागमिकम् । (वैशे.द.३/२/९) "मैं हूँ" यह प्रत्यक्ष अनुभव है
सो सिद्ध होता है कि आत्मा है। "मैं हूँ" की अनुभूति यह प्रत्यक्ष ज्ञान
है।
(८) अनुमान प्रमाण -
इन्द्रियों के विषय बन्द करके फिर स्थिर आसन में शरीर की अनुभूति भी बन्द होने पर
जब विचार भी समाप्त हो जायें तो जो शेष रहे वह "मै हूँ" आत्मा है।
जीवात्मा का गुण, कर्म, स्वभाव व स्वरूप
(१) आत्मा एक सत्तात्मक
चीज है,
वस्तु है, पदार्थ है, द्रव्य है क्योंकि उसमें गुण हैं। जिसमें क्रिया हो, गुण हो अथवा केवल गुण हो; गुणों को धारण करने वाला
द्रव्य-पदार्थ-वस्तु कहलाता है। यह जरूरी नहीं कि जो जगह घेरे और ठोस हो वही
द्रव्य हो। अतः प्रकृति के साथ साथ जीव-ईश्वर भी वस्तु हैं।
गुण - आत्मा के
नैमित्तिक और स्वाभाविक दोनों गुण है। स्वाभाविक गुण, ज्ञान, प्रयत्न आदि। नैमित्तिक गुण सुख, दु:ख आदि। "मै हूँ" इतना ज्ञान अर्थात् अपने अस्तित्त्व का ज्ञान ही
स्वाभाविक है शेष चक्षु श्रोत्र आदि इन्द्रियों से जो ज्ञान उत्पन्न होता है वह
नैमित्तिक है।
कर्म - ईश्वर
प्रदत्त उपकरणों के बिना जीव का सामर्थ्य निरुपयोगी है। जीव मोक्ष में बिना
प्राकृतिक साधनों के ईश्वर के सामर्थ्य से मोक्ष-सुख अनुभव करता है। जब शरीर से
अलग आत्मा की अनुभूति होती है तो पाप कम हो जाते हैं। शक्तियाँ व्यर्थ नहीं जातीं।
जीवन बदल जाता है। इतनी शक्ति आ जाती है कि सामने विषय होते हुए भी उसका भोग नहीं
करता। उसमें सुख-दुःख की अनुभूति नहीं करता। ज्ञान तो होता है पर सुख की अनुभूति
नहीं करता। यह तभी सम्भव है जब हम आत्मा के स्वरूप को पहचानें।
(२) जीवात्मा का स्वरूप
:- जीवात्मा नित्य अनादि, काल की दृष्टि से अनन्त, निर्विकार, निराकार, अल्पज्ञ, एकदेशी, अल्पशक्तिमान् है। तात्त्विक दृष्टि से अविकारी है।
मनुष्य की देह
जड़ है और आत्मा चेतन है। इच्छा, प्रयत्न, ज्ञान आदि आत्मा के गुण हैं। कर्त्तृत्व उसकी शक्ति है। अहंज्ञान उसका स्वरूप
बोधक है। जीवात्मा भी अनादि है और मोक्ष प्राप्त करना उसके पुरुषार्थ का लक्षण है।
उसकी शक्ति परिमित है। स्वभाव से अपूर्ण है। वह कर्मानुसार अनेक लोकों में भ्रमण
करता है और मुक्त होकर परमात्मा में विश्राम करता है।
(३) शरीर में रहता कहां
है ?- जीवात्मा स्थान विशेष हृदय में रहता है। कई मानते हैं मस्तिष्क स्थित हृदय में
और कई वक्ष स्थल के मध्य। महर्षि दयानन्द जी ने वक्षस्थलवाला हृदय कहा है। दो
स्तनों के बीच, कण्ठ से नीचे नाभि से ऊपर हृदय प्रदेश
में। उपनिषद् में ऐसे भी संकेत मिलते हैं कि जिससे ऐसा प्रतीत होता है कि जीवात्मा
का स्थान एक न होकर अनेक हैं। महर्षि दयानन्द ने कहा है जीवात्मा को सुख-दुःख
भोगने के लिये कई स्थान ईश्वर ने बनाये हैं। स्थान विशेष में ईश्वर ने बाँधा नहीं, पर जब तक जीवन रहता है तब तक शरीर के साथ रहता है। इसका संकेत ब्रह्मोपनिषद् के
एक प्रकरण में आया है कि जीव के शरीर में तीन स्थान हैं। जागृत अवस्था में आँखों
में। हम एक दूसरे को, तथा पशु भी आंखों में देखते हैं।
स्वप्न में कण्ठ में और सुषुप्ति काल में हृदय में रहता है। अनेक सम्प्रदाय जैसे
ब्रह्माकुमारी मानते हैं कि सब योनियों के अलग अलग प्रकार के जीवात्मा हैं, कुत्ते का आत्मा सदा कुत्ता ही रहेगा (जन्मेगा)। परन्तु यह वेद और ऋषियों से
उलटी मान्यता है। सब जीवात्माएँ एक ही प्रकार की हैं। परन्तु कर्मानुसार अलग-अलग
योनियों को प्राप्त होती हैं।
प्रत्यक्ष और
शब्द प्रमाण पर मतभेद होने पर केवल अनुमान प्रमाण ही वस्तु को शतप्रतिशत सत्य
सिद्ध करने में समर्थ होता है। यदि पूर्णरूप से सिद्ध न करे तो वह अनुमान प्रमाण
नहीं, वह सम्भावना कहलायेगा।
(४) नित्यता :- जीव व
ईश्वर 'कूटस्थ नित्य' और प्रकृति 'परिणामी नित्य' है।
(५) लिंग : - जीवात्मा
में स्त्री, पुरुष वा नपुंसक लिंग भेद नहीं है ।
(६) आकार :- बहुत ही
सूक्ष्म अणुरूप है। इतना सूक्ष्म जीव हाथी जैसे बड़े शरीर और अतिसूक्ष्म जीवाणु के
शरीर को चला लेता है। आत्मा अभौतिक है वह हजारों स्टील की परतों को भी पार कर सकता
है।
(७) क्या जीवात्मा जन्म
लेता और मरता है ? जीवात्मा न जन्म लेता है न मरता है
वह अजर है, अमर है, नित्य है। अनादि, अनन्त है। जब जीवात्मा का सम्बन्ध
शरीर से होता है तो कहते हैं जन्म; शरीर छोड़ता है
तो मृत्यु।
(८) जीवात्माओं की संख्या
कितनी हैं ? :- जीवात्माएँ अनन्त हैं। हम जीवात्माओं की संख्या की परिगणना नहीं कर सकते। केवल
एक भवन में कितने मच्छर, मकड़ी, चींटी हैं और सब भवनों में कितनी हैं कोई गणना कर सकता है ? कोई नहीं कर सकता। किन्तु ईश्वर जानता है। ईश्वर की गणना में जीवात्मा सीमित
हैं। हमारे लिये असीमित हैं ।
(९) जीवात्मा के शरीर
कितने हैं ? कारण, सूक्ष्म और स्थूल
तीन हैं। कारण शरीर 'प्रकृति' सब का समान है। सूक्ष्म शरीर १८ त्त्वों का सृष्टि के आदि में मिलता है। जब तक
मुक्ति या प्रलय न हो जाये तब तक रहता है। यह १८ तत्त्व प्रत्येक प्राणी में
विद्यमान रहते हैं । ५ ज्ञानेन्द्रियाँ, ५ कर्मेन्द्रियाँ, ५ तन्मात्रायें, १ मन, १ अहंकार और एक बुद्धि। किन्हीं प्राणियों में भले ही गोलक न हों, पर इन्द्रियाँ रहती हैं। जैसे सांप के पैर भले ही न हों, पर पाद कर्मेन्द्रिय होती है।
(१०) आत्मा की शरीर में
कितनी अवस्थाएँ हैं ? - आत्मा की शरीर में चार अवस्थाएँ हैं।
एक जाग्रत, दूसरी स्वप्न, तीसरी निद्रा (सुषुप्ति) और चतुर्थ तुरीय जो कि समाधि अवस्था है।
(११) जीवात्मा के शरीर
में कोष कितने हैं ? - जीवात्मा के शरीर में पांच कोष हैं।
ये पांच अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय हैं ।
(१२) क्या जीवात्माओं में
भेद हैं ?
- नहीं, सब जीवात्माएँ समान हैं। स्वरूप व स्वभाव से कोई भेद नहीं। भेद का कारण
न्यूनाधिक ज्ञान-विज्ञान, संस्कार व कर्म हैं ।
(१३) जीवात्मा में
शक्तियाँ कितनी हैं ? - जीवात्मा में २४ प्रकार की शक्ति देखने, सुनने, विचारने, निर्णय लेने आदि की हैं। जीवात्मा मुक्ति
में ईश्वर प्रदत्त ज्ञान से आनन्द लेता है ।
(१४) जीवात्मा शरीर धारण
क्यों और कब तक करता है ? - जीवात्मा नये कर्मों को करने और किये
कर्मं का फल पाने के लिये शरीर धारण करता है। कब तक करता है? जब तक अविद्या रहती है। जन्म-मरण का चक्कर अविद्या के कारण है। ईश्वर के
सानिध्य से अज्ञान समाप्त हो जाये तो आवागमन का चक्कर भी समाप्त ।
(१५) जीव की मुक्ति और
बन्धन क्या है ? दु:खों से छूट जाना मुक्ति है
"ज्ञानान्मुक्ति, बन्धो विपर्ययात्" जब जीवात्मा
अज्ञानी होता है तो बद्ध हो जाता है और ज्ञानी होने पर मुक्त। जब प्रकृति से छूटता
है तो दु:ख उत्पन्न नहीं होता, वह ईश्वर के सानिध्य में
रहता है। जो व्यक्ति अपने अविद्या के संस्कारों को दग्धबीज भाव में पहुंचा देता है
वह मुक्ति में पहुँचता है। बचे हुए शेष कर्मों के फलस्वरूप मुक्ति के बाद फिर मनुष्य
योनि प्राप्त होती है।
(१६) मुक्ति कितने समय तक
रहती है ?
३१ नील, १० खरब, ४० अरब वर्ष तक जीवात्मा मुक्ति के आनन्द को भोगता है ।
(१७) एक शरीर छोड़कर
दूसरा शरीर पाने में कितना समय लगता है ? बहुत थोड़ा काल
लगता है। उपनिषद् में है कि "जैसे एक कीड़ा अपने एक पांव को उठाकर आने वाले
स्थान में रखता है उतना काल लगता है"। प्रत्येक दिन, प्रत्येक घण्टे, प्रत्येक निमिष काल में ब्रह्माण्ड
में प्राणी लगातार उत्पन्न होते रहते हैं। कुछ अपवाद भी हैं। कोई महान् जीवात्मा
जिसे महान् घर में जन्म लेना है, यदि ऐसा परिवार उस समय
नहीं है तो उस जीवात्मा को थोड़े काल के लिये ईश्वर अपनी व्यवस्था में रखेगा। फिर
उसे योग्य परिवार मिलने पर जन्म देगा ।
(१८) क्या जीवात्मा अपनी
इच्छा से एक शरीर को छोड़ बाहर जा सकता है ? नहीं। ईश्वर ने
इस शरीर से ऐसा बांध दिया है कि जब तक शरीर नष्ट-भ्रष्ट न हो जाये नहीं निकलेगा ।
(१९) शरीर के अन्दर
कत्त्ता कौन और भोक्ता कौन है ? एक बहुत बड़ी भ्रान्ति
है, लोग शरीर को ही कतर्ता मान लेते हैं। पर नहीं, आत्मा कर्त्ता है, भोक्ता भी वही है। मन, शरीर आदि नहीं। फिर भोजन कौन खाता है? न केवल शरीर खाता
है न केवल आत्मा खाता है। हम चाहे कितना ही खायें आत्मा तो उतना ही रहता है। और
केवल शरीर भी आत्मा के बिना नहीं खा सकता। जिस शरीर में जीवात्मा है वह अपने उस
शरीर की रक्षा के लिये
अपने शरीर को
खिलाता है। पर सुख-दुःख की अनुभूति जीवात्मा करता है।
(२०) प्रलय में जीवात्मा
की स्थिति क्या होती है ? प्रलय में बद्ध जीवात्मा मूर्च्छित
अवस्था (बेहोशी) में रहते हैं और जो मुक्त जीवात्मा हैं। वो आनन्द में रहेंगे।
(२१) मृत्यु समय शरीर
कैसे छोड़ता है ? कोई कहते हैं कि मृत्यु होने पर
जीवात्मा कान से, आँख से, मुंह आदि से अथवा सिर फोड़ के निकलता है। यह ठीक नहीं, क्योंकि जीवात्मा बहुत ही सूक्ष्म है, वह कहीं से भी
निकल जायेगा। उसके लिये कोई अवरोधक नहीं, कहीं से भी जा
सकता है।
(२२) क्या एक जीवात्मा
दूसरे के द्वारा किये कर्मों का फल प्राप्त करता है ? नहीं,
किंचित् मात्र भी नहीं। दूसरे के किये हुए कर्मों का फल
नहीं भोगता, लेकिन दूसरे के किये हुए कर्मों से
सुख-दुःख भोगता है।
(२३) क्या जीवात्मा ईश्वर
का अंश है ? नहीं। जीवात्मा ईश्वर में रहता है, परन्तु अंश नहीं है। अगर यह ईश्वर का अंश होता तो सदा आनन्दित होता।
मूर्ख-अज्ञानी नहीं होता।
(२४) क्या जीव और ईश्वर
में समानता है ?
उत्तर - साधर्म्य
गुणों से जीव और ईश्वर में समानता है, और वैधम्म्य
गुणों से दोनों में भेद भी है।
समानता - दोनों
नित्य, निराकार, अपरिणामी और निरवयवी हैं।
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