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ईश्वरोपासना में मन क्यों नहीं लगता ?

 

ईश्वरोपासना में मन क्यों नहीं लगता ?

 

 

१. हमारा मन-इन्द्रियों के विषय में ज्ञान कम है।

२. हमारा अपने विषय (आत्मा) में ज्ञान कम है।

३. हमारा संसार के विषय में ज्ञान कम है।

४. हम विषय भोगों से प्राप्त होने वाले दुःखों की अनुभूति नहीं करते। विषय भोगों के सुख को दु:ख मिश्रित अनुभव नहीं करते।

५. ईश्वर की उपासना से होने वाले लाभों को नहीं जानते।

६. संसार की वस्तुओं का स्वामी ईश्वर को नहीं जानते।

७. उपासना से पहले मानसिक सज्जा (तैयारी) नहीं करते।

८. ईश्वर को व्यापक और संसार को व्याप्य नहीं स्वीकार करते।

९. उपासन काल में संघर्ष नहीं करते।

१०. व्यवहार काल में यम-नियम का पालन व मन-इन्द्रियों पर नियन्त्रण नहीं रखते।

११. उपासना काल में आसन ठीक नहीं लगाते। प्राणायाम और जप विधिवत् नहीं करते।

१२. सन्ध्या के मंत्रो के शब्दार्थ ठीक प्रकार से स्मरण नहीं करते ।

१३. शब्द प्रमाण में हमारी श्रद्धा और विश्वास अल्प है।


उपासना काल में नींद का कारण और निवारण

 

ध्यान के समय में नींद को या आलस्य को रोकना आवश्यक होता है। अनेक साधकों को तो यह पता भी नहीं चलता कि वे ध्यान करते हुए सो जाते हैं। अनेकों को पता तो चल जाता है, किन्तु उपासना काल में नींद या आलस्य क्यों आता है, वे कारणों को ठीक-ठीक जान नहीं पाते हैं। नींद तथा आलस्य आने के कुछ कारणों का यहाँ उल्लेख किया जाता है -

 

(१) रात्री में नींद पूरी नहीं होना या अच्छी न होना।

(२) पेट की शुद्धि न होना - (शौच खुलकर न आना)।

(३) शारीरिक परिश्रम या व्यायाम अधिक मात्रा करना।

(४) भोजन प्रतिकूल, गरिष्ठ (= भारी), अधिक मात्रा में करना।

(५) तामसिक या नशीली वस्तु (= तम्बाकू भांग आदि) का प्रयोग करना।

(६) शरीर में ज्वरादि रोग का होना।

(७) शरीर मे निर्बलता का होना।

(८) आसन ठीक प्रकार से नहीं लगाना (=कमर सीधी करके न बैठना)।

(९) उपासना से पूर्व स्नान न करना।

(१०) उचित मात्रा में व्यायाम, भ्रमण, आसन आदि न करना।

(११) ठण्ड के दिनों में रजाई आदि गर्मी देने वाले वस्त्रों को अधिक मात्रा में धारण करना (ओढ़कर बैठना)

(१२) मानसिक परिश्रम अध्ययन-चिन्तन आदि अधिक करना।

(१३) आलसी व्यक्तियों के साथ बैठना ।

(१४) सन्ध्या के मन्त्रों का शब्दार्थ न जानना ।

(१५) उचित मात्रा में प्राणायाम न करना।

(१६) ईश्वर के प्रति प्रेम, श्रद्धा, रुचि का न होना ।

(१७) योगाभ्यास के महत्त्व या लाभों को न समझना।

 

साधक लोगों को देखना चाहिए कि उपर्युक्त कारणों में से कौन सा कारण मुझ पर लागू होता है। उसे जानकर दूर करना चाहिए, जिससे योगाभ्यास में सफलता मिले ।


योगी बनने का उपाय - आत्मनिरीक्षण

 

मनुष्य यदि अपने जीवन को दिव्य श्रेष्ठ, आदर्श, महान् बनाना चाहता है तो नित्य सोने से पूर्व आत्मनिरीक्षण करे, अपने अन्तःकरण में झांके कि दिन भर मैंने क्या-क्या त्रुटियाँ-दोष-भूलें की हैं। विचारें 'क्या किया जो नहीं करना चाहिये था और क्या नहीं किया जो करना चाहिये था'। त्रुटियों को पकड़ें, प्रायश्चित्त करें, स्वयं दण्ड लें और भविष्य में न करने का प्रयत्न करें। कोई व्यक्ति बाहरी तौर से कितना ही धन से, बल से, कपड़ों से साफ-सुथरा सभ्य और सबल हो, परन्तु अन्त:करण से मलिन, कमजोर, खिन्न व दु:खी होगा तो वह गिर जायेगा।


बाह्य दु:ख के बजाय मानसिक शोक-दुःख-पीड़ा-काम, क्रोध, लोभ, मोह से व्यक्ति अधिक दु:खी रहता है। आज चिन्तन की शैली उलटी है। व्यक्ति अन्य के दोष तो देखता है परन्तु स्वयं के नहीं। चाहे कोई कितना ही पढ़ लिख जाये, परन्तु जब तक कथनी-करनी एक न होगी तब तक ऋषियों का जमाना धरती पर नहीं उतारा जा सकता।


अपने आप को व्यक्ति बढ़ा-चढ़ा कर दूसरे के सामने पेश करने का प्रयत्न करता है कि उसे यश-बड़ाई-मान मिले, परन्तु आगे चल कर यह उसके हास्यास्पद पतन का कारण होता है। ईश्वर विश्वासी को भौतिक साधनों द्वारा अपने को बड़ा दर्शाने की आवश्यकता नहीं है।


आज माता-पिता, शिक्षक-गुरु, समाज व राज दण्ड का भय समाप्त हो गया है अत: अपराध बहुत बढ़ गये हैं एक व्यक्ति अपनी क्रिया से सैकडों हजारों को दुःखी करता है; परन्तु आत्मनिरीक्षण करने वाला स्वयं अपनी त्रुटियों को, उलटी आदतों को पकड़ता, सुधारता, दूर करता जाता है।


महत्त्व - एक आध्यात्मिक व्यक्ति के लिये वेद, उपनिषद् आदि शास्त्रों को पढ़ने से भी अधिक महत्त्वपूर्ण अपने मन को पढ़ना है। प्रशंसा का मोह, यश की कामना, आहंकारिक प्रतिक्रिया आदि वस्तुओं को छोड़ना साधक के लिये अनिवार्य है।


यदि अन्त:करण ठीक होगा तो सब कार्य सफल होंगे। अगले जन्मों में साथ चलने वाली वस्तु अन्तःकरण है। सांसारिक उपकरण यहीं रह जायेंगे। वेद में कहा है 'कृतं स्मर'=अपने किये कर्मों को देख। आन्तरिक शल्य चिकित्सा तो स्वयं करनी पड़ती है। अपने अन्तःकरण को स्वयं देखें। आन्तरिक शुद्धि हमें ही करनी पड़ेगी। नित्य देखें की काम की वासना, क्रोधाग्नि, द्वेषादि पहले थे वैसे ही हैं या कुछ कम हुए?


कर्मों का लेखा-जोखा देखने के साथ इन दोषों का निरीक्षण-परीक्षण भी करते जायें। अपने जीवन की ऋषियों आप्त पुरुषों के जीवन से तुलना करें, उन्हों ने क्या किया क्या नहीं किया व हमने क्या किया क्या नहीं किया। हमारा जीवन सत्पुरुषों जैसा है या पशु समान। आन्तरिक निर्माण के बिना सुख-चैन-शान्ति नहीं। अगले जन्मों में शुभाशुभ कर्मों के संस्कार ही, सम्पत्ति के रूप में साथ जायेंगे, अन्य कुछ नहीं। बाहर से तो चमक- दमक पर अन्दर निपट अन्धेरा। व्यक्ति अपने दोषों को छिपाता है। पर ईश्वर से कुछ नहीं छिपा सकता। ईश्वर सब कुछ देख-सुन-जान रहा है।


एक दोष आ जाये तो उसके साथ-साथ अनेक दोष प्रवेश कर जायेंगे, एक सद्गुण जायेगा तो साथ में अनेक सद्गुण चले जायेंगे। एक दोष बीड़ी-सिगरेट का आने से फिर शराब, क्लब, जुआ, देर में सोना-उठना, प्रमाद-आलस्य, झूठ-कपट-क्लेश, टन्टा-फिसाद एक के पीछे एक ऐसे अनेक दोष व्यक्ति में प्रवेश कर जाते हैं। एक गुण-नियम 'यज्ञ करना' अपनाने से प्रात: उठना, स्नान, व्यायाम, सत्संग, वेदपाठ, सन्ध्या, फिर समय पर सांसारिक कार्यों में जुटना आदि अनेक गुण प्रवेश कर जाते हैं। शुद्ध ज्ञान वाला दोषों से बच सकता है वरना गिरता-गिरता व्यक्ति कहाँ का कहाँ गिर जाता है। कामी में अन्य दस दोष अपने आप आ जाते हैं। क्रोधी को आठ दोष स्वयं आ जाते हैं।


जो खराब जानकर भी छोड़ते नहीं और अच्छा जानकर भी अपनाते नहीं वे असफल हैं। जो छूटने वाली हैं उन चीजों को एकत्र कर रहे हैं, जो साथ जायेगा उसका धर्म का बैंक बैलेन्स शून्य


आत्मा की वास्तविक इच्छा - स्वतन्त्रता, आनन्द, ईश्वर-प्राप्ति है। दोषों से युक्त रहे या मुक्त रहे यह स्वयं के हाथ में है। जो लोग अपने अधिकारियों के समक्ष अपने दोष बतला देते हैं वे पवित्र हो जाते हैं।

 

दोषी होने के चार कारण

 

(१) जो व्यक्ति ईश्वर को छोड़ देता है वह स्वयं भूल और दोष करता है।

(२) माता-पिता, गुरु-आचार्य मित्रों आदि के द्वारा भी व्यक्ति में दोष आते हैं। माता-पिता स्वयं बच्चों को मांसाहारी बनाते हैं। उपरोक्त मातापिता आदि ठीक हों तो सुधरने में सहायक सिद्ध होते हैं।

(३) समाज की परम्परायें, शैली, ढांचे के कारण भी दोष आ जाते हैं। आज लोग खुल्लम-खुल्ला शराब पीते हैं, जुआ खेलते हैं, बीभत्स बोलते हैं। तुझे क्या और मुझे क्या यह परम्परा चली हुई है। कोई रोक-टोक नहीं।

(४) राज्य-शासन गलत होने से भी जीवन पद्धति में बड़ा परिवर्तन होता है ।


यदि हम पुरुषार्थ करें तो अन्यों से प्राप्त दोषों को हटा सकते हैं। गलत विचार उठने पर 'प्रतिपक्षभावना' उठायें तो दोष दब जाते हैं, कमजोर हो जाते हैं, अंत में दग्धबीज हो जाते हैं। अपने दोषों को जड़ मानकर उनको हटाने का प्रयत्न करें। ज्यों ही दोष उत्पन्न हों तुरन्त एक तरफ धकेल दें। उससे विरुद्ध विचारना आरम्भ कर दें।


दोषों के विषय में मनुष्यों की स्थिति

 

 

१. कुछ लोग दोषों को जानते ही नहीं।

२. कुछ लोग जानते हैं पर दूसरे व्यक्ति से दोष सुनना नहीं चाहते।

३. कुछ लोग सुन लेते हैं पर स्वीकार नहीं करते।

४. कुछ लोग वाणी से तो स्वीकार कर लेते हैं पर मन से नहीं।

५. कुछ लोग मन से स्वीकार करके भूल जाते हैं।

६. कुछ लोग दोष हटाने के लिये पुरुषार्थ नहीं करते।

७. कुछ लोग पुरुषार्थ करते हैं पर उचित उपायों को नहीं जानते।

८. कुछ लोग असफल होने पर निराश हो जाते हैं।

९. कुछ लोग ईश्वरादि से सहयोग नहीं लेते हैं।

१०. कुछ लोग दोषों को दबाये रखते हैं। तनु करते हैं=कमजोर करते हैं।

११. कुछ दग्धबीज भाव बना लेते हैं, जिससे आगे कभी दोष नहीं होते।

 

मन-वाणी-कर्म से एक होने पर मनुष्य पवित्र हो जाता है। जो व्यक्ति ईश्वर को साथ लेकर चलता है वही दोष रहित होता है। दोष आने के समय सतर्क हो जायें। पुरुषार्थ से, मन को विचलित करने वाली तरंगों को रोक दें। साधक दोष को चाहते नहीं फिर भी हो जाते हैं। इसका एक कारण है। कि साधक उन्हें रोकने के उपाय नहीं जानता। अभद्र करने के बाद हताश निराश होकर पुरुषार्थ करना छोड़ देता है। ऐसी अवस्था में दोष आने पर प्रतिपक्ष भावना उठाएँ। आपत्तिकाल में ईश्वर सब से बड़ा सहयोगी होता है। उससे शान्तचित्त होकर सहायता मांगो, धैर्य-ज्ञान-बल मांगो। उलटे काम करने की अभद्र भावना हो तब अवश्य उसे पुकारें। यह दोष दूर करने की विधि है, एक विज्ञान है। काम, क्रोध, लोभ आदि आ सकते हैं, पर मैं इन्हें हावी नहीं होने दूँगा, इन पर हावी हो जाऊँगा। एक विषय पर अच्छे- बुरे दो तरह के संस्कार काम करते हैं। करूँ या न करूँ। किसी की वस्तु ले लँ, कौन देखता है, फिर सोचता है नहीं लँगा। पुन: सोचता है आज अवसर है, इस बार ले लँ, फिर नहीं लूँगा, इत्यादि विचारते-विचारते ले ही लेता है। परन्तु जो ईश्वर को सामने रखता है वह बच जाता है।

 

दोषों के जाननेवालों से सहायता

 

सुख शान्ति केवल बाह्य, सुन्दर निर्माण पर नहीं परन्तु आन्तरिक निर्माण पर निर्भर है। इन-इन दोषों के जानने वालों से सहाय लेकर इनको दूर करने का उपाय करें।

 

१. कुछ दोष केवल हम जानते हैं। जैसे मानसिक काम, क्रोध, लोभ, हिंसा की भावना आदि।

२. अपने कुछ दोष हम नहीं जानते दूसरे जानते हैं।

३. कुछ को अन्य और हम-दोनों जानते हैं।

४. कुछ दोष विद्वान् जानते हैं।

५. कुछ दोष योगी-ज्ञानी ही जानते हैं।

६. सब दोष तो केवल ईश्वर ही जानता है।

 

अपनी तुलना ऋषियों से करने पर दोषों का पता लगाकर पुरुषार्थ करके सुधार सकते हैं। यदि दोष नहीं जानते-पकड़ते और जीवन जैसा चल रहा है उसी में सन्तुष्ट हो गये तो प्रगति रुक जायेगी। जैसे संविधान न जाना हुआ, न पढ़ा हुआ भी यदि गुनाह करता है तो उसे भी दण्ड अवश्य मिलता है। इसी प्रकार वेद व ऋषिकृत ग्रन्थ नहीं पढ़ा हुआ भी यदि उनके प्रतिकूल चलता है तो दोषी है। यदि गृहस्थी पञ्चमहायज्ञ नहीं करता तो वह ईश्वर विधान के अनुसार दोषी है व दण्डित होगा जो व्यक्ति एकान्त में बैठ अपने


जीवन में झाँक कर अन्त:करण को चमकाते नहीं उन्हें शान्ति और आनन्द कहाँ?


ईश्वर के पा लेने पर सारे प्राणी आत्मवत् दीखने लगते हैं। सामान्य व्यक्ति जिस जीव से कुछ लाभ प्राप्त करता है उससे तो प्रेम, राग व आसक्ति रखता है और अन्यों में वैसा प्रेम, हित की भावना नहीं रखता है यह व्यक्ति में दोष रहता है। प्राय: देखने में आया है कि व्यक्ति जितना अपना हित चाहता है उतना अन्य का नहीं चाहता। परन्तु ईश्वर प्राप्त योगी इतना ही नहीं आत्मवत् से भी आगे बढ़कर स्वयं कष्ट उठाकर भी दूसरे को सुख देता है। स्वयं दोष करके व्यक्ति अपने आत्मा को कोमल (नरम) निगाह से देखता है। परन्तु वही दोष अन्य करे तो कठोरता से देखता है। अपना बच्चा मारे तो कोई बात नहीं बालक है, दूसरे का मारे तो कुहराम मचा देते हैं ।


योगाभ्यासी व्यक्ति पहले अपना दोष देखते हैं। साधकों में अन्य के प्रति आत्मवत् भावना उभरती है। जहाँ ज्ञान उत्पन्न हो जाता है वहाँ अज्ञान नहीं रहता। शोक, मोह, अविद्या समाप्त हो जाती है। अविद्या ही सारे अनिष्टों का कारण है। अज्ञान न रहने से परिणाम में आनन्द की उपलब्धि होती है। अज्ञान दोष की निवृत्ति से काम, क्रोध, अधर्माचरण, अन्याय, असत्याचरण आदि स्वयं हट जाते हैं।


व्यक्ति अपने दोषों से समझौता कैसे करता है ?


(१) आज तो सारी दुनियाँ ही झूठ, छल- कपट आदि का व्यवहार करती है। मैं अकेला इनसे कैसे बच सकता हूँ। मुझे भी तो इस दुनियाँ में जीना है।

(२) मैं कोई योगी, ऋषि, महात्मा नहीं हूँ कि मुझसे कोई दोष या भूल न होवे।

(३) आटे में नमक के बराबर झूठ आदि तो चलते हैं यह कोई बड़ा दोष नहीं है, ऐसा विचारना।

(४) अधिक दोषी को देखकर यह विचारना कि मैं तो उससे बहुत कम दोष करता हूँ।

(५) जिन दोषों को हम छोड़ना (सुधारना) नहीं चाहते उन्हें उत्तम स्वरूप दे देना है।

(६) अपनी छोटी त्रुटियों को एक दम स्वीकार करना, यह दिखाने के लिये मेरे में कोई बड़ा दोष नहीं है।

 

दोषों से मुक्ति कैसे हो ?


बालकों को मातायें बिगाड़ती हैं। वे बच्चे को कहती हैं "तू बड़ा अच्छा है" इससे वह बालक कुप्पा (अभिमानी) होता जाता है। फिर जब कोई उसके दोष कहे तो वह गुस्सा हो झगड़ा करता है-रोने लगता है। दोष बतानेवाला हमारा हितैषी होता है, सुनने में आनन्द अनदुभव करना चाहिये। जो दोषों को मानता हुआ भी दूर करने का प्रयत्न नहीं करेगा वह कभी भी दोष से छूट नहीं सकता। भूल से झूठा दोष कहने वाले की बात से भी दु:खी न हों। जो दोष बताने वाले को निर्भीक कर देता है उसे लोग दोष बतायेंगे , यदि दोष बताने वाले पर नाराज होंगे तो कोई दोष नहीं बतायेगा। दोष बताकर कौन लड़ाई मोल ले ? यदि दोष से सन्धि कर ली तो सौ वर्ष में भी नहीं छूटेगा।

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